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________________ १५२ ] संस्कृत दुःखयत्यसुहृत्साधुं स चेति पुरुसम्पदम् । तापमातनुते भानुः श्रियमेति सरोरुहम् ॥१४३ । अथ पट्टमहादेवीपदमाप्य महासती । असालयत्पदो राजीसहस्रशिरसां ततो ॥१५॥ समं पत्येकदा जैनी जगाम वसति जिनम् । पूजयित्वानमत्साध्वी मुनीन्द्रं श्रुतसागरम् ॥ १५५ ।। नृपः प्राह समाकर्य धर्म कर्मान्तकारिणम् । मुने मम महादेव्या किं पुरा सुकृतं कृतम् ॥ १५ ॥ जो योगीश्वरः सर्व पूर्ववृत्तं शुभाशुभम् ।। प्रभावं तु विशेषेण सुगन्धदशमीभवम् ।।१७।। प्रविश्य तत्सदः कोऽपि देवो देवं जिनं श्रुतम् । गुरुं प्रणम्य तद्देवीपादयोन्य॑फ्तद् मृशम् ॥ १८ ॥ स्वामिनि त्वत्मसङ्गेन सुगन्धदशमीवतम् । मया विद्याधरणेदं सता पूर्वमनुष्ठितम् ।। १४६ ॥ तेनाहमभवं स्वर्ग महदिरमराधिपः । धर्म हेतुरभूदेवि ततस्त्वां द्रष्टुमागतः ।। १५० ।। एक्माभाष्य तां दिव्यैरर्चयत्रभूषणः। जनन्यसि ममेत्यक्त्वा प्रणम्य गतवान् दिवम् ।। १५१ ॥ तत्प्रमावं समीक्ष्य ते सर्वे भूयोऽपि तद्वतम् । सातप्रत्यय चक्रुः शमादिसुखसाधनम् ॥ १५२ ।। समृद्धि ही प्राप्त होती है। सूर्य ताप देता है, किन्तु उससे कमल शोभा रूपी लक्ष्मीको ही प्राप्त होता है। अब तिलकमती पट्टमहारानीके पदको प्रात हो गई और अपने पैरोंको सहस्रों रानियोंके सिरोंकी पंक्तिपर शोभित करने लगी ॥ १४१-१४४ ॥ एक दिन रानी तिलकमती अपने पति महाराज कनकप्रभके साथ जिन-मन्दिरको गई। वहाँ उस साध्वीने जिनेन्द्र भगवानकी पूजा की और श्रुतसागर मुनीन्द्रको नमस्कार किया । राजाने कर्मक्षयकारी धर्मका उपदेश सुनकर मुनिराजसे पूछा- हे मुनीश्वर, मेरी इस महादेवीने अपने पूर्व जन्ममें कौन सा सुकृत कमाया था ? राजाके इस प्रश्नके उत्तरमें योगीश्वरने तिलक मतीके पूर्वजन्म सम्बन्धी समस्त शुम और अशुभ कर्मोक फलका वृत्तान्त सुनाया। विशेष रूपसे मुनिराजने राजासे सुगन्धदशमी व्रतके प्रभावका वर्णन किया ॥ ११५-१४७ ॥ . इसी अवसरपर उस समामें किसी एक देवने प्रवेश किया। उसने जिनेन्द्र देव, जैनशास्त्र और जैन गुरुको प्रणाम किया और फिर वह महादेवी तिलकमतीके चरणों में आ गिरा। वह बोला-हे स्वामिनि, अपने विद्याधर रूप पूर्वजन्ममें तुम्हारे ही प्रसंगसे मैंने सुगन्धदशमी व्रतका अनुष्ठान किया था । उसी व्रतानुष्ठानके प्रगाबसे मैं स्वर्ग में महान् ऋद्धिवान् देवेन्द्र हुआ हूँ। हे देवि, तुम मेरे धर्म-साधनमें कारणीभूत हुई थी,इसीसे तुम्हारे दर्शन करनेके लिए मैं यहाँ आया हूँ । इस प्रकार कहकर उसने दिव्य वस्त्र और भूषणोंसे रानीकी अर्चना की और बोला--हे देवि, तुम मेरी जननी हो 1 इतना कहकर और रानीको प्रणाम करके वह देव आकाशमें चला गया ॥ १४८-१५१ ॥ सुगन्धदशमी व्रतके इस प्रकार माहात्म्यको देखकर वहाँ उपस्थित समस्त लोगोंका और
SR No.090481
Book TitleSugandhdashmi Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages185
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Biography
File Size5 MB
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