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सुगन्धदशमीकथा
[ १५३-१६१ ] तिलकादिमतिः साधु नृगोऽपि कनकभः । प्रणम्य परमानन्दाजग्मतुनिजमन्दिरम् ॥ १५३ ।। पात्रेषु ददती दान पूजयन्ती जिनेश्वरम् । पालयन्ती सुरक् शीलं सोपवासं स्थिता सुखम् ।। १५४ ।। विधाय विधिना साध्वी सुगन्धदशीव्रतम् । शुभध्यानेन च प्राप्य प्रायोपगमनान्मृतिम् ।। १५५ ।। द्विसागरायुरीशाने बभूव सुरसत्तमः । निन्यस्त्रैणच्युतो भाविभवनि तिरदद्भुतः ।। १५६ ॥ सुपर्व वनिताकमकरसंवाहितकमः । पुरामवद्यतः शीलवतेष सहितकमः ।। १५७ ।। शशाङ्ककरसवाशेश्चामरैरेष वीजितः। यतः कामोऽङ्गिनां तेन भवदुःखसची जितः।।१५८।। ध्योमयानमथारुह्य स्म याति स मुदा बने । नमश्चकार येनार्य जन्तुजातं सदा बने ।। १५६ ।। वन्दते स्म जिनाधीशपादपद्माननेन सः।
आराधितो मुदा येन पुरा विधिरनेन सः ।।१६०॥ कृतिरिति यतिविद्यानन्दिदेवोपदेशाजिनविधुवरभक्तेर्वणिनस्तु श्रुताम्धेः । विबुधहृदयमुक्तामालिकेव प्रणीता
सुकृतधनसमा गृढता ता विनीताः ।।१६१ ॥
इति वणिंना श्रुतसागरेण विरचिता सुगन्धदशमी कथा समाता। भी दृढ़ विश्वास हो गया और वे सभी उस इन्द्रादि सुखोंके साधनभूत व्रतके पालनमें तत्पर हो गये । तिलकमती रानी और कनकप्रभ राजा साधुको प्रणाम करके आनन्द सहित अपने भवनको चले गये ॥ १५२-१५३ ।।।
अब तिलकमती रानी पात्रोंको विधिपूर्वक दान देती, जिनेन्द्र भगवान्की पूजा करती, सम्यग्दर्शन और शीलका पालन करती व उपवास धारण करती हुई सुखपूर्वक रहने लगीं । उन्होंने विधिपूर्वक सुगन्धदशमी व्रत करके प्रायोपगमन धारण किया और शुभ ध्यान पूर्वक समाधि मरण किया | इस धर्म-साधनाके प्रभावसे उनका जीव अपनी निन्ध स्त्री पर्यायको छोड़कर ईशान स्वर्गमें दो सागर कालकी आयुबाला देव हुभा और अगले भवमें उसे संसारसे मुक्तिरूप अद्भुत फल प्राप्त होगा। पूर्व जन्ममें उसने शील-बतोंमें अपनी हित-कामनासे आचरण किया, इसीके फलस्वरूप उसे सुन्दर वनिताओंके कोमल हायों द्वारा अपने पैर दबानेको मिले। उसने पूर्व में संसारके दुखोंको देनेवाले कामको जीता था, इसीलिए उसे अप चन्द्रकिरणों के समान उज्वल चामरों द्वारा पंखा झले जानेका सुख मिला। उसने सदा वनमें समस्त जीव-जन्तुओंको नमस्कार किया था, इसीलिए अब उसे विमानमें बैठकर हर्षपूर्वक वनमें क्रीड़ा निमित्त जानेका सुख मिलने लगा। पहले उसने मोदसे जिन भगवान्की विधिपूर्वक आराधना की थी, इसीलिए अब उसे जिनेन्द्र के पापहारी चरणारविन्दकी वन्दना करनेको मिली || १५४-१६० ॥
इस सुगन्धदशमी कथाकी रचना यति विद्यानन्दि देवके उपदेशसे जिनचन्द्रमें श्रेष्ठ भक्ति रखनेवाले ब्रह्मचारी श्रुतसागरने विद्वानोंके हृदयकी मौक्तिकमालके समान की है। इसे धार्मिक जन सुकृत और धनके समान ग्रहण करें ॥ १६१ ।।
इति वर्णी श्रुतसागर द्वारा विरचित सुगन्धदशमी कथा समाप्त ।