SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३३ ] संस्कृत पश्य कान्तानया चौरः स्वीकृतस्ते तनूजया । राजे मुषितस्तेन मया मम्रेऽतिभीतया ।। १२४ ॥ अयं चूडामणिर्नाथ बाल पश्येयमद्भुता । पत्रपाश्या महाय कर्णिका कुण्डलद्वयम् ॥ १२५ ॥ इदं वे सारं निर्मये ललन्तिका । प्रालम्बिकोत्तमस्वर्ण सुमुक्तावत्स सूत्रिका ॥ १२६ ॥ ਰਕ ਵਾਤਾਵੇ ਰਾਜਪਾ heart स्थितः सोऽयं तरलः प्रविराजते || १२७ ।। कटकाङ्गकेयूरमूर्मिकाः कङ्कणादिकम् । सप्तकीर्य तुलाकोटिद्वयं हंसकसंयुतम् ॥ १२८ ॥ रणन्तं श्रवणानन्दममन्दं किङ्किणीगणम् । पत्रो पश्य नाथेदं महाघनमनाहृतम् ॥ १२६ ॥ अन्तरीयमतिश्रेष्ठं संव्यानमतिसुन्दरम् । रत्नोपरचितं कामनिधान निप्रकम्पनम् ॥ १३० ॥ कुलक्षये कालरात्रिरेषा समुत्थिता । रजोवृष्टिः कुटुम्बस्य सूनां तु दुहितुमषात् ॥ १३१ ॥ निशम्य चनितावाक्यं समीक्ष्य समलडकृतीः | tresarva era चकितवान्कृती ॥ १३२ ॥ वणिक तरसर्वमादाय नृपामे न्यक्षिपत्सुधीः । वेद केनचित् दस्युमा दुहितुर्भ ।। १३३ ।। [ ४५ लौट आया। उसके आते ही सेठानी उसे सुनाने लगी- देखो कान्त, तुम्हारी इस पुत्रीकी करतूत | इसने किसी चोरको अपना पति बना लिया है और उसने राजाकी चोरी करके इसे ये आभूषण दिये हैं। मैं तो डरकर मर गई । हे नाथ, यह वह चूड़ामणि है । इस अद्भुत बालाको देखिए | यह बहुमूल्य पत्रपाश्या है, यह कर्णफूल है और ये दो कुण्डल हैं । यह सुन्दर कण्ठा है और यह है उज्ज्वल रुलंतिका । यह उत्तम सोनेकी बनी, अच्छे मोतियोंसे जड़ी और सुन्दर सूत्रमें गुँथी लम्बी माला है । यह देवच्छंदपर स्थित तरल तो ऐसा विराज रहा है जैसे आकाशगंगाके प्रचाहमें बाल सूर्य तैर रहा हो | ये कटक हैं, ये अंगद हैं, ये केयूर हैं, ये ऊर्मिकाएँ हैं, ये कंकणादिक हैं, यह सप्तकी है, यह तुलाकोटिकी जोड़ी है जिस पर हंस बने हुए हैं । ये किंकिणी हैं जो अपनी झुनझुन ध्वनि द्वारा निरन्तर कानोंको आनन्द देती हैं। और नाथ, इस पत्रोर्णको भी देखिए जो बड़ा बहुमूल्य है और बिलकुल नया है । यह अति श्रेष्ठ अन्तरीय है, यह अत्यन्त सुन्दर संत्र्यान है और यह कलश-संपन है जो, हे कान्त, रलोंसे जड़ा हुआ है । यह दुहिता क्या है, अपने कुटुम्बके सिरपर धूलकी वर्षा तथा कुलका नाश करनेवाली कालरात्रि ही आ गई है ।। १२२-१३१ ।। 1 1 अपनी पत्नीकी ये सब बातें सुनकर और उन अलंकारोंको देखकर वह धीर प्रकृति और अनुभवी सेठ भी कुछ चकित हो उठा । चतुर सेठने उन सब वस्तुओं को ले जाकर राजा के सम्मुख रख दिया और कहा - महाराज, आपकी इन सब वस्तुओंको किसी चोरने ले जाकर मेरी पुत्रीको
SR No.090481
Book TitleSugandhdashmi Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages185
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Biography
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy