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________________ ४४] सुगन्धदशमीका तथा गच्छति तत्पस्त्यं प्रशस्तं कनकप्रभे । तयोः प्रसर्पति स्वैरं प्रशाम्यति मनोभुवि ॥ ११५ ॥ बन्धुत्योदितं मुग्धे त्वयास शोधनीद्वयम् । पिण्डारोऽगारमायातो याचितव्योऽतिशोभनम् ॥ ११६ ॥ तया तिलकमत्येवं कृते सोऽन्येद्युरुत्तमम् । नानारत्नमयं हेममानिनायेतयोर्द्वयम् ॥ ११७ ॥ कञ्चुक काचनाद्यर्च्य वस्नयुग्मं महाधनम् । शामरणोपेतं ददौ तस्यै मनोरमम् ॥ ११८ ॥ सा सती केशहस्तेन तस्य पादाम्बुजद्वयम् । प्रमृज्य क्षालयामास प्रश्रयः स्त्रीषु मण्डनम् ॥ ११६ ॥ अथ स्त्रीरत्नमालिया प्रतते नृपे । तत्सर्वं दर्शयामास स तस्यै दाह ॥ १२० ॥ राजनामाङ्कितं दृष्ट्वा तदित्याह दुरात्मिका । चौरस्त्यामोन्टे मु यावत्र वीक्षिता ॥ १२१ ॥ निर्मर्त्य मुहुरुवाल्य तथाकल्प जरत्पटम् ! दत्त्वा सुलूषिताकारां कृत्वा तस्थौ महासती ॥ १२२ ॥ श्रथायात वणिक् सत्यपरमेष्ठी निजं गृहम् । श्रेष्ठी साराणि रत्नानि गृहीत्वा पुण्यवानलम् ॥ १२२ ॥ [ ११५ पकड़कर अपने घर लिवा लाई और इस प्रकार उसने लोक रंजनका ढोंग रचा । सचमुच ही विधाताने स्त्रियोंको केवल मायाचारके लिए ही बनाया है ।। १०९-११४ ॥ फिर राजा कनकप्रभ प्रतिदिन तिलकमतीके घर जाने लगा, और उन दोनोंमें परस्पर प्रेमानुराग होने लगा । एक दिन बन्धुमती सेठानीने तिलकमती से कहा - अरी मूह, तू अपने पिंडार पतिसे जब वह तेरे घर आवे तत्र अच्छी दो शोधनी ( बुहारी ) तो माँग १ तिलकमतीने वैसा ही किया । तब उसके पतिने दूसरे दिन उन दोनोंके लिए नाना रत्नजटित सुवर्णमय दो उत्तम झाड़नी लाकर दीं। साथ ही उसने उसे सोनेकी जरीसे जड़ी हुई कंचुकी, बहुमूल्य एक जोड़ी वस्त्र तथा सोलह प्रकारके उत्तम आभरण भी दिये । इसपर उस सत्तीने अपने केश हाथ में लेकर अपने पतिके पैर मलकर धोये । विनय ही तो स्त्रियोंका भूषण है । पतिने अपनी सती स्त्रीका आलिंगन किया और उस रात्रि वे वहीं रहे ।। ११५-१२० ॥ प्रातःकाल जब पति उसके पाससे चला गया तब तिलकमतीने वे सब वस्त्राभूषण अपनी माता को दिखाये | किन्तु सौतेली माँ होनेके कारण उसे वे हृदय में दाहके समान लगे । आभू I पर राजाका नाम अंकित देखकर वह दुरात्मा विमाता बोल उठी- अरी मूर्ख, किसी चोरने तेरा पाणिग्रहण किया है । उतार जल्दी इन भूषणों और वस्त्रोंको, जब तक कि कोई अन्य इन्हें देख नहीं पाया । इस प्रकार डाँट फटकार बतलाकर सेठानीने उसके वे सब भूषण वसन उतरवा कर ले लिये और उस महासती को फटे पुराने कपड़े पहनाकर व कुरूप बनाकर अपने निवास स्थानको चली गई ॥ १२१-१२२ ॥ इसी बीच वह परम सत्यवान् और पुण्यवान् सेठ बहुतसे उत्तम रलोको लेकर अपने घर
SR No.090481
Book TitleSugandhdashmi Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages185
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Biography
File Size5 MB
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