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________________ १५] संस्कृत [४१ अथ दीपान्तरं राज्ञो निदेशाद्रलहेतुना। व्रजन बन्धुमती प्रोचे गिरः सांयात्रिकोत्तमः ।।८७॥ विप्रकृष्टः प्रिये पंथा नृपस्तु दुरतिक्रमः । तनजयोः क्रमाक्कायों विवाहः संपदानया ॥८॥ गतंऽथ वागजा नाथे सुगन्यां याचिंतामपि । न दत्ते दर्शयन्ती सा निजां तेजोमती सुताम् ॥८६॥ कुलीनो गतरुग्विद्वान वपुष्मान् शीलवान् युवा । पक्षलक्ष्मीपरीवारबरो हि भवतां सुतः ।।६० ॥ जन्मना भक्षिता माता पिता दूरं प्रवाप्सितः। लक्ष्महीना गृहेऽस्माकं सपत्नीयसुता विमा ॥३१॥ इयं तेजोमती साक्षाद्रती रम्मा तिलोत्तमा । याच्यते न कथं हृद्या मुक्तामालेव निस्तुला ।। ६२ ।। तयैवं जल्यिते तैस्तु सैव भूयोऽपि मागिता। असह्य न भवेत्प्रीतिरिति दत्ते स्म तां सका ।।६३॥ दर्शिता तिलकोदोदु मरिडता दुहिता निजा। शाम्बरी सहजा स्त्रीणां किं पुनर्ने कुदुद्भवा ॥६॥ विवाहस्याथ सामग्रयां कृतायां चारुसम्पदि । समागते शुभे लग्नदिवसे सुप्रतीक्षिते ॥ ५ ॥ ___ एक दिन सेठजीको राजाका आदेश मिला कि वे किसी दूसरे द्वीपको जाकर अच्छे-अच्छे रन खरीदकर लावें । सेठने विदा होते समय बन्धुमती सेठानीसे कहा-हे प्रिये, मैं बहुत दूर विदेशको जा रहा हूँ, क्योंकि राजाकी आज्ञाका उल्लंघन नहीं किया जा सकता | किन्तु तुम यथासमय कमसे दोनों पुत्रियोंका विवाह कर देना ॥ ८७-८८ ॥ सेठके चले जानेपर सुगन्धाकी याचना करनेवाले वर आने लगे । किन्तु सेठानी उसका विवाह स्वीकार न कर अपनी औरस पुत्री तेजमतीको ही उन्हें दिखलाती थी। वह याचना करनेवाले माता-पिताको कहती देखिए, आपका पुत्र कुलीन, निरोग, बिद्वान् , चंगा, शीलवान्, युवा और कुल-परिवारसे सम्पन्न वर है, जब कि हमारे घरकी इस लड़कीने जन्म लेते ही अपनी माताका भक्षण कर लिया और बड़े होते ही पिताको दूर देश भिजवा दिया। यह कुलक्षणा मेरी सपलीकी पुत्री है। इसके विपरीत यह जो तेजमती कुमारी है वह साक्षात् रति, रम्भा व तिलोत्तमाके समान सुन्दरी है और मोतियोंको मालाके समान अनुपम हृदयहारिणी है; उसे आप क्यों नहीं वरण करते ? ।। ८९-९२ ॥ किन्तु सेठानीके इस प्रकार तिलक्रगतीको निन्दा और तेजमतीकी प्रशंसा करनेपर भी वरोंने तिलकमतीकी ही याचना की। सेठानीने जब यह जान लिया कि जबरदस्ती किसीकी किसीसे प्रीति नहीं कराई जा सकती, तब उसने तिलकमतीका ही कन्यादान करना स्वीकार कर लिया । किन्तु फिर भी सेठानीने छल करना नहीं छोड़ा। उसने विवाहके लिए दिखला तो दी तिलकमतीफो, किन्तु मण्डन और शृङ्गार किया अपनी कन्या तेजमतीका ही। ठीक ही है, स्त्रियों में कुटिल चातुरी स्वाभाविक होती है, फिर कृत्रिम छलकी तो बात ही क्या है ॥९३-९४॥ अब विवाहकी सब सामग्री भले प्रकार बहुमूल्य रूपसे होने लगी। जब विवाहका
SR No.090481
Book TitleSugandhdashmi Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages185
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Biography
File Size5 MB
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