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________________ ४२] [६६ सुगन्धवशमीच्या प्रदोषे मङ्गलस्नान-विलेपन-विभूषणैः उपस्कृत्यानयत्प्रेतयनं सा तिखकावतीम् ।। ६६॥ चतुदिक्ष चतुदपिमावारकसमन्वितम् । निवैश्य तामिति प्रोच्य विमाता तिलकावतीम् ॥ ७ ॥ स्वयोग्यं वरमत्रस्था गवेषय शुभानने । चेदिकासहिता वेश्म दुरात्मा सा निजं गता ||८|| तस्मिन्नेव शुभे लग्ने तेनैव सुवरेण च । कन्या तेजोमती ब्यूटा जनन्यनुमतेन सा ॥ ६ ॥ अत्रान्तरे महीपालः प्रासादात्प्रेक्षते स्म ताम् । चिन्तयामास हृधे किंमेषा सुरकन्यका ।। १०० ॥ यक्षी वा किन्नरी किं वा योगिनी पूजनोद्यता। किं स्विद्विद्याधरी कापि नारी का काप्युपस्थिता ।। १०१।। कौशेयकं करे कृत्वा भूपः कौतहली गतः । श्मशानं पृच्छति स्मैवं का खमत्र व्यवस्थिता ।। १०२॥ अमीर्मजनको राज्ञा प्रेषितो. रत्नहेतवे। विवाहे वञ्चिता मन्ये विमात्रा स्थापिताऽत्र मे ।।१३।। एवं बभाग सा पुत्रि खबरोऽत्र समेध्यति । तेनात्मानं विधानेन सति त्वं परिणाययः ।। १०४ ॥ पुनर्गता गृहं साहं वरं वाटे महामते । नने तेजोमतीस्तत्र परिणीता भविष्यति ।।१०५| प्रतीक्षित शुभदिन आया तब सन्ध्या समय सेठानीने तिलकमतीको मंगल स्नान कराया और उसे विलेपन-भूषणोंसे सुसज्जित किया। पश्चात् सेटानी उसे श्मशान भूमिमें लिया ले गई। उसके चारों ओर उसने चार दीपक आवारक सहित प्रज्वलित कर दिये और तिलकमतीसे कहाहे शुभानने, यहाँ बैठकर तू अपने योग्य वरकी प्रतीक्षा कर । इतना कहकर वह दुष्ट विमाता अपनी दासियों सहित अपने घर वापस आ गई और उसी शुभ लग्नमें उसी वरके साथ अनुमति देकर अपनी कन्या तेजमतीका विवाह कर दिया । ९५-१९ ॥ उसी रात्रि अपने महलकी छतपरसे राजा नगरकी शोभा देख रहा था । श्मशानमें तिलकमतीकी ओर दृष्टि पड़ते ही वह अपने मनमें सोचने लगा-यह हृदयहारिणी कोई सुरकन्या है। अथवा कोई यक्षिणी या किन्नरी या कोई योगिनी किसी पूजामें लगी हुई है, अथवा कोई विद्याधरी या नारी वहाँ जा बैठी है ? कुतूहलवश राजाने अपने हाथमें तलवार ली और वह श्मशान भूमिपर जा पहुँचा। उसने कन्यासे पूछा-हे कन्ये, तू कौन है और किस कार्यके लिए यहाँ बैठी है ? कन्या बोली --मेरे पिताको राजाने रत्न लानेके लिए बाहर भेज दिया है। मुझे ऐसा जान पड़ता है कि मेरी सौतेली माताने मुझे विवाहके सम्बन्ध में धोखा देकर यहाँ विठला दिया है। उसने मुझसे कहा है हे पुत्रि, तेरा घर यही आवेगा। उसीसे तू विधिवत् अपना विवाह कर लेना । हे महामति, अब मैं पुनः घर जाकर अपने वरको देवूगी। यह तो निश्चित है कि वहाँपर तेजमतीका विराह हो चुका होगा || १००-१०५ ॥
SR No.090481
Book TitleSugandhdashmi Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages185
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Biography
File Size5 MB
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