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सुअंधदहमोकहा
[१,१०,२ता मणिउ मुणिदें सयलु सच्चु । अराणारिसु अस्थि रण एरण बचु । पुणु तत्थ सारिदै वुत्त साहु । किम कम्मछेउ होसइ सुलाहु । कहि को विउवाउ अउन्यु तेम ! चलि पावड़ मुहगड एह जेम । ता भगिउ सुअंघदहामि करेइ । दुत्तरु कम्मोवहि तिरण तरेइ । तहि अवसरि ताई गरेसरेण । भालयलि गिहियकर-ण असिरेण । पभरिणउ परमेसर कहहि तेम। किन्नइ दिज्जइ उजमण जेम। एत्वंतरि गहि जंतउ विमाए । पडिखलिउ विचितइ ता बिमाण । यामेरा धुर्वजउ खगवई ।। रिणय तेश्रोहामिय-गहबईसु ।। अच्छइ कि अरि महु कूरभाउ । कि मुरिगवर को विउझिय-कसाउ। १० इम चिंतिवि झायउ जा मम्मि । ता जागिऊ मुरिंग गिम्मनु जामि । अच्छइ पयतउ. धम्मसार।
लइ जाउ ए गच्छद जहि कयारु । इम चिंतिवि खेयरु पाउ तेत्थु । अच्छह मुणि गायर-जणु विजेत्यु । वंदेपिणु तहिं उबइट ठ जाम । एल्यंतरे पनि लह कह नाम । घसा-णिसुणहि णियपुत्तिए प्रायम-जुत्तिए णिसुरणहि अवर वि सयलह । १५
भासमि विहिकरणउ पुणु उज्जमए उ फलु सुगंधदहमिहि जह ॥१०॥ यह जो दुर्गन्धा ब्राह्मणीने कहा है वह सब सत्य है या झूठ बातोंका पुंज है । मुनिराजने कहा'जो कुछ इसने कहा है वह सब सस्य है, औरोंके समान उसने झूठ कहकर धोखा देनेका प्रयल नहीं किया । तब राजाने मुनिसे पूछा 'हे मुनिराज, अब इस ब्राह्मणीको अपने कर्मोका छेद करनेका अबसर कब और कैसे मिलेगा ? आप कोई ऐसा अपूर्व उपाय बतलाइये जिससे कि आगे चलकर यह कन्या शुभ गतिको प्राप्त हो सके । राजाका प्रश्न सुनकर मुनिराज बोले 'इस कन्याको सुगन्ध दशमी व्रतका पालन करना चाहिए। उसी व्रतके द्वारा यह काँके दुस्तर समुद्रको पार कर सकती है।' इस अवसरको पाकर राजाने सिरपर हाथ जोड़ मुनिको नमन करके प्रार्थना की 'हे मुनिराज, अब यह बतलानेकी कृपा करें कि यह व्रत कैसे किया जाता है और उसके उद्यापनकी विधि क्या है ?
ठीक इसी बीच आकाशसे गमन करता हुआ एक विमान वहाँ आकर सहसा रुक गया। अपने विमानको अवरुद्ध हुआ देखकर उसमें आरूढ़ हुआ विद्याधर भी विमान अर्थात् मानहीन होकर चिन्तामें पड़ गया । विमानका अधिपति ध्रुवंजय नामक विद्याधरोंका राजा था जिसने अपने तेजसे ग्रहपति अर्थात् चन्द्रमाको भी पराजित कर दिया था । अपने विमानके अकस्मात् रुकनेले वह विद्याधर सोचने लगा 'क्या यहाँ कोई मेरा शत्र बैठा है जो मेरे प्रति क्रूर भाव रखता है; अथवा यहाँ कोई मुनिवर विराजमान हैं जिन्होंने अपने क्रोधादि कषाय त्याग दिये हैं ?" यह चिन्ता उत्पन्न होनेपर ज्योंही उस विद्याधरने मनमें ध्यान लगाया त्योंही वह जान गया कि वहाँ एक निर्मल स्वभाव और प्रचण्ड तपस्वी मुनिवर लोगोंके बीच बैठे हुए उन्हें धर्मका सार समझा रहे हैं । 'तो मैं भी शीघ्र वही जाऊँ जहाँ कुकर्मी नहीं जाता' ऐसा विचार कर वह विद्याधर भी वहीं आ पहुँचा जहाँ चे मुनिराज और नगरनिवासी बैठे थे । विद्याधर मुनिवरकी वन्दना कर जब वहाँ बैठ गया तब मुनिराजने अपना धर्मोपदेश देना प्रारम्भ किया ।
उस दुर्गन्धा कुमारी तथा अन्य उपस्थित जनोंको सम्बोधन करते हुए मुनिराज बोले