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________________ १,१०,१] कानो संधी [ १३ सिंचाविय गोसीर हु रसेण । एत्यंतरे पुच्छिय रयरवरेण । ता भगिउ णिसुगि राग्राहिराय । परिसाहिवि सक्कई जिएवरिंद। जइ भएड लेसु एक्कु जि कहेमि । ता भरिएउ गरि दईजेत्तिया वि। सा मगाइ एत्थ सुपसिद्ध जाय । तहि सारवड गामें पउमणाहु । हुई सिरिमइ यामें तासु कंत । ता अरणहि दिणि घणकीलणेण । ता दिठ्ठ मणीसह सुमुहु रंतु । ता रायएं हिल यह पेसियाई। ते पावे तहि भवे रिवेण चत्त । खणभेजकई चेयण लइय तेरण । तुहुँ मुच्छिय कवरणहि कारणेगा । महु तरिणय अहम्म कहाणियाय । मह दुक्खसंस्त्र अह वा मुरिंद । पीसेस ए कहणहं सरकएमि । सक्कहिं कह पयडहि तेत्तिया विन रामेण वरणारसि रणयरि राय । जिरणवर-पय-भसलु महीसरणाहु । अपारा पियारी गुरगमहंत । जा चल्लिय बिरु अद्धासरणेण । पुष्यकियकम्महो जो कयंतु । खावाविउ मई विसरोसियाई । मुअ कुटिणि होइवि दुक्खतत्त । घत्ता--हुन महिसि सिंगालिय सूवरि कालिय पुगु संवरि चंडालि तह । एवहिं हुव बंभारण दुयख-णिसुंभणि एत्तिए भव-श्रावलिय-कह ।। ४ । २० ता णिवेण वृत्त मुणि मज्झ भासि । इन सच्चु चवइ कि अलिगरासि । दुर्गन्धाके सचेत होनेपर राजाने उससे पूछा कि हे कन्ये, तू यहाँ मूच्छित किस कारण से हुई ? तब दुर्गन्धाने कहा "हे राजाधिराज, मेरी अधर्मभरी कहानी सुनिये। मुझे जो असंख्य दुख सहन करने पड़े हैं वे या तो जिनेन्द्र ही कह सकते हैं अथवा ये मुनीन्द्र । यदि मुझे ही कहना है तो मैं केवल एक लेशमात्र कहती हूँ। समस्त वृत्तान्त कहना मेरी शक्ति के बाहर है। तब राजाने कहा जितनी कथा तू कह सके उतनी ही कह । तब दुर्गन्धाने कहा इसी भरत क्षेत्रमें बनारस नामकी सुप्रसिद्ध नगरी है। वहाँ एक बार पद्मनाथ नामका राजा राज्य करता था । वह राजा जिनपदभक्त अर्थात् जैन धर्मका उपासक था। मैं उसी पश्यनाथ राजाकी रानी श्रीमती थी । सर्वगुणसम्पन्न होनेसे राजा मुझे अपने प्राणोंके समान प्यार करता था। एक दिन जब मैं राजाके साथ अर्धासनपर बैठी हुई वन-क्रीड़ाके लिए जा रही थी, तब सम्मुख आते हुए एक मुनिराज दिखाई दिये। वे पूर्वकृत कोंके क्षय करनेमें कृतान्त अर्थात् यमराजके समान थे। उनके दर्शन होनेपर राजाने मुझे उन्हें आहार कराने के लिए वापिस घर भेजा । मैंने आकर क्रोध भावसे उन्हें कड़वे फलोंका आहार कराया । उस पापके फलस्वरूप राजाने उसी मवमें मेरा परित्याग कर दिया । मैं कुष्ट रोगसे पीड़ित हो गई और दुःखसे तप्तायमान होते हुए मैंने प्राण विसर्जन किये। जन्मान्तरमें मैं क्रमशः भैंस, शृंगाली, काली शूकरी, फिर साँभरी और फिर चण्डालिनी होकर अब इस जन्ममें ब्राह्मणी हुई हूँ। यही मेरे भवभ्रमणकी दुःखपूर्ण कहानी है ॥ ९ ॥ दुर्गन्धाके जन्म-जन्मान्तरोंकी दुःखपूर्ण कथा सुनकर राजाने मुनिराजसे पूछा 'हे मुनीन्द्र ।
SR No.090481
Book TitleSugandhdashmi Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages185
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Biography
File Size5 MB
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