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________________ सुगंधदसम का ..मद्यपि उहोंने अपतो इस रासमें इन गुरुओंको संघ व गण गच्छादि परम्पराका तथा रचना कालका कोई उक्त नहीं किया, तथापि अन्यत्र प्राप्त उल्लेखोंके द्वारा उनका पता सुलभतासे लग जाता है। सकलकोति और. उनके शिष्प भुक्तकति मूलसंघ, बलात्कार गणकी ईडर ( गुजरात ) में स्थापित शाखाके आदि भट्टारक थे। जिनके उल्लेख मूतियों और अन्योंमें संवत् १४९० से १५२७ तकके मिले हैं। स्वयं जिनदासने अपनी एक रचना-रामायणरासमें सं० १५२० का उल्लेख किया है। इसपर-से सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि उनका प्रस्तुत रचना भो इसी काल अर्थात् सन् १४५० ई. के आस-पास लिखी गयो होगी। ब्रह्म जिनदासको रचनाओंका भाण्डार विशाल है । प्रस्तुत ग्रन्थके अतिरिक्त उनके २. रामायण, ३. हरिवंश, ४. सुकुमाल, ५. चारुदत्त, ६. नोपाल, ७. जीवन्धर, ८, नागो, ९. धर्मपरीक्षा, १०, अम्बिका, ११. जम्बूस्वामो, १२. यशोधर, १३. नागकुमार, १४. जोगी, १५. जीवदया, १६. पंचपरमेष्ठो, १७. आदि. नाथ, १८. श्रेणिक, १५. करकण्ड, २०, प्रद्युम्न, २१. धनपाल, २२. हनुमत्, २३. भाकाशपंचमी,. २४. निर्दोष सप्तमी, २५. कलश दशमो, २६. अनन्त चतुर्दशो, २७, षोडश कारण, २८, दशलक्षण, २९. चन्दनषष्ठी, ३७. भद्रसप्तमो, ३१. लब्धिविधान, ३२. अष्टाह्निक, ३३. पुष्पांजलि, २४. थानणद्वादशो, ३५. पुरन्दर, ३६. श्रुतिस्कन्ध नामक रारा व कथानक पाये गये हैं। इनके अतिरिक्त भी उनकी पूजा-पाठविषयक अनेक रचनाएँ हैं । ब्रह्म जिनदासको इन रचनाओं में अपभ्रंशसे आधुनिक भाषाओं गुजरातो, मराठी, हिन्दी पिके विकास तथा काव्य शलियाँ गोतों और छन्दोंक प्रादुर्भावको समझने की प्रचुर सामग्रो विद्यमान है । ब्रह्म जिनदासके कुछ शिष्यों और उनकी भी साहित्यसेवाके कुछ प्रमाण मिलते हैं। उन्होंने अपने रामायण-रास च हरिवंश-रास में ब्रह्म मल्लिदास और गणदास नामक शिष्योंका उल्लेख किया है। सधा - शिष्य मनोहर रूबदा म मलिदास गुणदास । पनो पढ़ावा विस्तरे जिम होइ सौख्य निवास ॥ इनमें से गणदासने मराठी में श्रेणिक चरिणको चार अध्यायों व ओयो छन्दमें रचना की। उसमें कहा गया है शिष्यु सकलकीति देवाचा। तो जिनदासु गुरु आमुचा ॥ प्रसादु लाधला त्याचा गुरादास खा । ( अ० ४, ओ० ९५) जिनदासके एक अन्य शिष्य शान्तिदासने अपभ्रंश, गुजरातो व संस्कृत मिश्रित पूजापाठविषयक अनेक ग्रन्थ रचे । शान्तिनाथ जाके अन्त में वे कहते हैं - मया श्रुत्वा गुरुः पादत्रे हास्यहेतु निवेदयन् । ब्रह्मश्री जिनदासेन आश्वासनं ददौ मम ॥ पूज्यपादकृतं स्तोम्नं श्रुससिन्धुकृताष्टकम् । आशाधरोफमषगाहा ग्रन्थमतं मया कृतम् ॥ उस समयको चालू संस्कृतका यह एक नमूना है। 'मद्रित पाटका संशोधन सेनगण दिगम्बर जैन मन्दिरके शास्त्र भण्डारसे उपलटा तोन हस्तलिखित संग्रह प्रतियों पर से किया गया है। तीनों प्रतियों में और भी अनेक रचनाएं हैं। तोनों प्रतियोंके पावभेद भी यहाँ अंकित किये गये हैं। इन प्रतियों का विदोष परिचय इस प्रकार है अ-क्रमांक। इसमें ९" " आकारके १७१ पत्र सिले हुए है जिनमें प्रस्तुत कथा पत्र ११ से र तक पायी जाती है। यहाँ इसी काकी अन्म कथा-रचनाएँ हैं - आकाशपंचमो, निर्दोषसप्तमी, 1 सालमा दशमो, अनन्तयत, चनषष्ठी, पोशशकारण, दशलक्षण, अम्बिका, सुकुमाल रास वचारसारास । अन्य रचनाएं है - ज्ञानसागरकृत वादशो प्रतकथा, बिमलकोतिकृत आराधना व मेघराजकृत जसोधर रास (मराठी)। प्रारम्भिक वाक्य है - 'अथ सुगन्धवशमी कथा प्रारम्पते', तथा अन्तिम वाक्य है-'इति सुगम्यदशमी रास कथा सम्पूर्ण समाप्त' 1 भासशीर्षक और विराम चिन्ह लाल स्याहो में लिखे गये है, और शेष भाग काझी स्याहीम । लेखन-कालका मिदेश महीं है।
SR No.090481
Book TitleSugandhdashmi Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages185
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Biography
File Size5 MB
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