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प्रस्तावना
ब— क्रमांक २१ । इसमें १० x ६" आकार के ५९० पत्र सिले हुए हैं जिनमें प्रस्तुत कथा पत्र ५५७ से ५६९ तक पायी जाती है । यहाँ अन्य रचनाएँ संकलित है-बनारसीविलास, सुमतिको तिकृत धर्मपरीक्षा रास, सामुद्रिक लक्षण व माधवानल तथा स्वयं जिनदासकृत रचनाएँ हैं— श्रीपाल रास, नागकुमार रास व आकाशपंचमी, निर्दोषसप्तभी, कलशदामी, सोलह कारण पुष्पांजलि व चन्दनषष्ठी-ये कथाएँ । अन्तिम पुष्पिका वाक्य है - हे पोथी पठनार्थ सावजी नेमासा तथा पुत्र गौराता व बाम्बूसा मालविवास्त खोत्रपुर सुभं भवतु । सके १६४१ मिति अधिक सुद चौदस १४ । लेखनार्थ पंचक शैत्र सेनगण | शुभं भवतु ।
स- क्रमांक १९ | इसमें ७" x ६" आकारके २९६ पत्र सिले हुए है जिनमें प्रस्तुत कथा पत्र २१५ से २३६ तक नामी जाती है। अन्य रचनाएँ है अष्टाह्निका, सोलहकारण, दशलक्षण, चन्दनषष्ठो, दत्त लधिविधान, निर्दोषसप्तमी, आकाशपंचमी, श्रीपाल, नागपंचमी, मोइसप्तमो श्रुतस्कंध, पुरन्दर, अम्बिका, षट्कर्म, पुष्पांजलि, कलशदशमी, अनन्त, होली और श्रावण द्वादशी । लेखन-कालका निर्देश नहीं है ।
संस्कृत कथा के रचयिता श्रुतसागर और गुजराती कथाके लेखक ब्रह्मजिनदासकी जो गुरुपरम्पराएँ - ऊपर बतलायी गयी है उनसे एक पोड़ो और ऊपर जानेपर में एक ही गुरुसे जुड़ जाती हैं । यह बात निम्न वंशवृक्षसे स्पष्ट हो जाती है ---
देवेन्द्रकोति (सूरत)
विज्ञानन्दि
T
श्रुतसागर
नन्दि
सकलकोति ( ईडर )
सुचनको त
ब्रह्मजिनदास
६. सुगन्धदशमी कथा मराठी
मराठी भाषा में निवच सुगन्धदशमी कथामें कुल १३६ पथ है । इनको रचना विविध छन्दों में हुई है, जो इस प्रकार है - उपेन्द्रवज्रा ४२, भुजंगप्रयात ३८, रथोद्धता २१, स्वागता ८, शालिनी ६ उपजाति ६, शार्दूलविक्रीडित ५, माहिती ४, कलहंसा २, वसन्ततिलका १ सर्वचा १ द्रुतविलम्बित १, शिखरिणी १ । इन छन्दोंके नाम जहाँ में आये हैं स्वयं मूलमें ही दिये गये पाये जाते हैं, और उन्होंके अनुसार इस रचनाका प्रकरण विभाग हुआ है। इस प्रकार यह मराठी कविता संस्कृत छन्दों में निबद्ध है ।
ग्रन्थकारने ग्रन्थके अन्त में प्रकट किया है कि वे देवन्द्रकीतिके शिष्य जैनादिसागर अर्थात् जिनसागर है । यद्यपि कति नामके अनेक आचार्य हुए हैं, तथा जिनसागरको अन्य अनेक रचनाओंमें जो उनका स्थान व काल-निर्देश पाया जाता है, उसपर मे वे कारंजाकी मुलसंघ बळात्कारगण शाखाके देवेन्द्रकीति तृतीय सिद्ध होते हैं, जिनका भट्टारक काल संवत् १७५६ से १७८६ तक पाया जाता है। जिनसागरकी आदित्य व्रतकथाकी रचना कारंजा ( जि० अकोला, बरार ) में शक १६४६ में हुई थी। उनकी जिनकथा भी कारंजामें ही शक १६४९ में पूर्ण हुई थी । पुष्पाजंलि कथाका रचनाकाल शक १६६०, तथा जोबन्धर पुराण का शक १६६६ निर्दिष्ट पाया जाता है । इस प्रकार १८वीं शती ईसवीका मध्यभाग उनका रचनाकाल सिद्ध होता है। कुछ रचनाओंमें उनके रचनास्थल शिरड (जि. परभणी ) का उल्लेख है । उक्त रचनाओंके अतिरिक्त उनकी निम्नलिखित कृतियाँ पायी गयी है - अनन्तव्रतकथा, लवकुश कथा, कलशदशमी व समो कथा पादर्वनाथ, शान्तिनाथ, पद्मावती व क्षेत्रपाल स्तोत्र, पंचमेरु, ज्येष्टजिनवर, नवग्रहपूजा, दशलक्षण,