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________________ १,५,४] पढमो संधी सबंग-मलेण विलित्वगत्तु । चउविकहा-बएणणे जो पिरत्त । परमेसरु सिरि मासोपवासि। गिरि कंदरे अहब मसाए वासि ।। सो पंक्तिवि परमाणदए । पभागिय पिय परमसरोहएण। इह पेसणजोग्गु रण भरण को वि। तो हङ मि अह व फुड पत्तु होइ । जाएप्पिा अगाएग वुत | पारणउ करावहि मुणि तुरंत । खभइ पियमेल ग भवसमुदे। वराकीलारोहण गयपरिदे। इउ सुलहउ जीवही मवि जि भए । दुलहउ जिणधम्मु भवरणवए । दुलहउ सुपादाण विधिमलु । मुत्ताहल-सिप्पिहि जेम जलु । घसा-तं जाएवि भावई गुरु-अारायइं देहि जोग्गु जं एयहो। फासु सुगिल्लउ महुरु रसिल्लउ जाउ कम्मु जिण एयहो ॥ ४ ॥ ता चलिय जंपति । कोवेरा कंपति । कहि भाउ पाविट्ट । एहु विह, सिक्कि है। मह विधु पिययस्स। किउ एम मोयस्स। चरिण निक्रिय सह जामि । सायद कीलामि। दोषोंसे मुक्त थे, वे मति,श्रुति और अवधि इन तीन ज्ञानोंके धारी और वीतराग थे । उनका समस्त शरीर मलसे विलिप्त था ( क्योंकि वे मुनियोंको निषिद्ध स्नान नहीं करते थे व उन्हें अपने शरीरका कोई मोह नहीं था)। वे राजकथा, चोरकथा, स्त्रीकथा व भोजनकथा, इन चारों प्रकारकी विकथाओंसे विरक्त थे। वे मुनीश्वर मासोपवासी थे अर्थात् एक एक मासके अन्तरसे केवल एक बार आहार करने निकलते थे, और शेष समस्त काल पर्वतकी गुफाओंमें अथवा श्मशानमें ध्यान द्वारा व्यतीत करते थे। ऐसे उन परम मुनीश्वर सुदर्शनका दर्शन पाकर राजाको परम आनन्द हुआ और उन्होंने बड़े स्नेहसे अपनी प्रिय रानी श्रीमतीसे कहा—"हे प्रिये । इस समय हमारा जो कर्तव्य है उसको निभानेकी योग्यता अन्य सेवक-सेविकाओंमें नहीं है। इसके लिए पात्र तो स्पष्टतः तुम हो अथवा मैं । अतएव तुम स्वयं जाकर धर्मानुराग सहित मुनि महाराजकी तुरन्त पारणा करा आओ । इस भवसागरमें प्रिय-मेलन, वन-क्रीड़ा, गजारोहण आदि सुख तो इस जीवको जन्मजन्मान्तरमें सुलभ हैं; किन्तु इस भवसमुद्र में जिन-धर्मकी प्राप्ति दुर्लभ है। और उसमें भी अति दुर्लभ है शुद्ध सुपात्र दानका सुअवसर, जिस प्रकार कि मुक्ताफलको सीपके लिए स्वाति नक्षत्रका जलबिन्दु दुर्लभ होता है। अतएव सद्भाव सहित धर जाकर खूब अनुराग सहित इन मुनि महाराजको ऐसा योग्य आहार कराओ जो प्राशुक और गीला हो, मधुर और रसीला हो जिससे इनका धर्म-साधन सुलभ हो ॥ ४ ॥ राजाकी यह बात सुनकर रानी कोपसे काँप उठी और यह कहती हुई घरको वापिस चली कि "यह पापी, ढीठ, निकृष्ट मनुष्य इसी समय यहाँ कहाँ से आ गया ? अपने प्रियतमके साथ उद्यानमें जाकर आनन्द कीड़ाका जो मुझे सुख होता, उसमें इसने विन्न उत्पन्न कर दिया"
SR No.090481
Book TitleSugandhdashmi Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages185
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Biography
File Size5 MB
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