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________________ [१,३,७ सुअंघदमीकहा क वि एचई जण-संतोसयारि। कवि राम मगार विरदिगाह मारि । कवि चाचरि देश हाँति ताल । कवि दावइ थरण तह मिसिण बाल । क विरासु रमइ णिय-कंत-जुत्त । हिंदोलइ क वि तह गीयरत । कवि कोरल करइ जलि पिय-समाण । पालविय रमइ तह के विजुवारण । पत्ता-इय रणायरजण उद्दीपियमरण, रमइ बसंतही लोलए। ता सिवइ सकतउ परियणजुत्तउ चलिउज्जारणहो कीलए ।। ३ ।। ता लय उ पसाहरण रागिरह । बहुवराण क्स्थ शिव-मारिणएगह । मयगलि आरूढउ परवरिंदु। रेहइ अइरावद गाइ इंदु । श्रद्धासणे पिय उवह कम । तिणयण हो भडारिय गरि जेम। पहि चलिउ ससाहरा णिवा जाम।। आर्चतर दिह, मुणिदु ताम । परिपालिय साधय-क्यधरैए। सम्मत्त - अडंबर-धुरधरेण । शिवाहिय-अतिहिइ गिम्मए । जिणधम्म-पर ज्जिय-चित्तएरण । दिहउ वि सुदंसणु मुणिपरिंदु।। मयलंडणहीण अउच्च-इंदु। दो-दोसा-प्रासा-चत्तकाउ । गायत्तय-जुत्ता वीयराउ । मनमें भी रागका उद्दीपन हो उठे। कोई लोगोंको सन्तोषदायक रीतिसे नृत्य करने लगी, और कोई विरही जनोंको मार डालनेवाला रास कहने लगी। कोई ताल दे देकर चर्चरी नाचने लगी और कोई बाला ( युवती) उसी बहाने अपने स्तनों का दर्शन कराने लगी। कोई अपने पतिके साथ रास खेलने लगी, और कोई गीतमें मस्त होकर हिंडोला झूलने लगी। कोई अपने पतिके साथ जलक्रीड़ा करने लगी, और कोई अपने आलापों द्वारा युवकोंके मनको रमाने लगी। इस प्रकार नगर-निवासी मदोन्मत्त होकर बसन्तकी लीलामें रमण करने लगे । तब राजा पद्मनाथ भी अपनी रानी श्रीमती तथा परिजनों सहित उद्यान-कोड़ाके लिए निकला || ३ ॥ उद्यान क्रीड़ाके लिए रानियोंने अपना शृङ्गार किया । राजाकी प्रियाओंने रंग-बिरंगे वस्त्र धारण किये । मदोन्मत्त हाथी पर सवार हुआ नरेश ऐसा शोभायमान था जैसे इन्द्र ऐरावत पर सवार होकर निकल रहा हो । राजाके साथ अर्ध आसन पर उनकी प्रिय रानी श्रीमती बैठी ऐसी शोभायमान हुई जैसे त्रिनयन अर्थात् महादेवजीके साथ भगवती गौरी ही विराजमान हो। इस प्रकार जब राजा सजधजसे उद्यान क्रीड़ाके लिए जा रहा था, तभी उसने एक मुनीन्द्रको आते हुए देखा | राजा पद्मनाथ श्रावकके व्रतोको धारण किये हुए थे और उन ब्रतोको भलीभाँति पालते भी थे। वे सम्यक्त्वको उसके समस्त अंगों सहित धारण करते थे और सम्यक्त्वी जीवोंमें अग्रेसर थे। वे अतिथियोंका नम्रतापूर्वक सत्कार करते थे। उनका चित्त जैन धर्मके प्रभावसे पूर्ण था। ऐसे पद्मनाथ राजाने जब उन सुदर्शन नामक मुनिवरको देखा, तो वे उन्हें ऐसे प्रतीत हुए मानो मृगरूप कलंकसे हीन कोई अपूर्व चन्द्रमा ही हो। वे मुनि राग और द्वेष इन दोनों
SR No.090481
Book TitleSugandhdashmi Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages185
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Biography
File Size5 MB
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