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सुअंघदछमीकहा
[२,७,४सा पुण्णवंति बहु प्रायरीय । सातियपहाण सयलहँ धरीय । सा दुक्ख अदुखियणह वरीय । गुरु लछिय णियपियशायरीय । सा उविहु-दागु-पयासयारि। सा जिणवरधम्मुजोयकारि । सा रोय-सोय-णिरणासयरि ।
सा समयरयाण महा सरि सा पुत्त-पउत्तई पत्तिया। देवखवि दोहित्तई पोत्तिया। वर सवणह ऐतह तरयमाणु। जुङ जुवणु होतउ बलु पराणु । जे वसिय दहमि सुअंधरो। इह दुक्खु ण देखिइ एक्कु तेण । इम रज्जु करेवि असंखु कालु ! जायरोपितु पुणु अवसाण-कालु। चउविहु भाराहणु भाविजण। सरणासें मुअजिणु माइऊण | पत्ता-ईसाणविमाणे सुहहो णिहारो उप्परिणय सुरवर हवेवि ।
लियालशु हग पर फम्भु रहायशु जिणसुपासचरपई गवेवि ।। ७॥
अहो सेणिय जीपहो वउ दुर्लभु। क्यएण वि पुणु सयलु वि सुलभु।
सा ययहं पहावे अमरराज। हुन मणि-बाहरणहि जुत्तकाउ । उस पुण्यवतीका सब कोई बड़ा आदर करते थे और सभी उसे स्त्रियोंमें एक प्रधान रन रूप मानते थे । वह नाना क्लेशोंसे दुखी जनों के लिए महान् लक्ष्मी देवीके समान थी और उसके पति भी उसका उसी प्रकार आदर-सम्मान करते थे। वह आहार, औषधि, अभय और शास्त्र इन चारों प्रकारके दानका खूब प्रचार करती तथा जैन धर्मक्री प्रभावना बढ़ाती थी । जनतामें यदि कोई रोग या शोक फैल जाता तो वह तुरंत उसके निवारणका उपाय करती। धर्मानुरागी स्त्री-पुरुषोंके लिए तो वह एक महान् सरिताके समान उपकारी थी। उसने खूब दीर्घायु पायी जिससे कि उसे अपने पुत्र और पौत्र और नातियोंको तथा दौहित्र और प्रपौत्रों को देखनेका सुख मिला । वह अपने स्वजनोंके नेत्रोंकी तारिका ( पुतली ) के समान रहती हुई यौवनसे निकलकर वृद्धावस्थामें प्रविष्ट हुई । तथापि उसने जो सुगन्ध दशमी बतका परिपालन किया था उसके प्रभावसे उसे फिर कोई एक भी दुख देखने मात्रको भी नहीं मिला।
इस प्रकार उसने चिरकाल तक राज्यके सुखका उपभोग किया । तत्पश्चात् अपनी आयु पूर्ण होती हुई जानकर उसने दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप यह चार प्रकार आराधनाकी भावना प्रारम्भ कर दी और जिनेन्द्र भगवानका ध्यान करते हुए संन्यास पूर्वक उसने अपने प्राणोंका परित्याग किया। इस समस्त धर्माचरणके फलम्वरूप भगवान् सुपार्श्वनाथके चरणोंको चन्दना करते हुए उसने अपने स्त्री लिंगका छेदन कर दिया और अपने दुप्कमौका भी नाश कर डाला जिससे वह समस्त सुखोंके निधान ईशान स्वर्गके विमानमें उत्तम देव हुई ।। ७ ।।
भगवान महावीर राजा श्रेणिकसे कहते हैं--"हे श्रेणिक, इस जीवके लिए धार्मिक व्रत ही धारण करना बड़ा दुर्लभ है। किन्तु जहाँ एक बार जीवको व्रत धारण करनेका सुअवसर मिल गया, तहाँ फिर उसके लिए सकल पदार्थ सुलभ हो जाते हैं। देखो वह दुर्गन्धा व्रतके प्रभावसे कैसी सुगन्धा हो गई और उसका शरीर मणिमयी आमरणोंसे अलंकृत हो गया। इस