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________________ २,७,३] पीओ संधी जिगु वंदिवि तहिं उवट्ट जाम | पुणु तिलयमइए संदिट्टु ताम । पुच्छिा परमेसर पइ पिएवि। __ महु हु काई बहुइ सुरवि । ता मुणिणा कहिउ असेसु कज्जु । जिह भमिय भवंतर भुतु रज्जु । जिह क्या सुअंध मणोहरो वि। एत्यंतरे पायउ देउ को वि। तेण विं पवेप्पिणु पुणु मुणिदुः। पुणु तहे तियहे चरणारविंदु । पभगिउ सामिरिण महं तुअ पसाउ। वउ चरिउ तेण हुउ अमरराउ। इस जतिपनि मूसा काय नि कर दिव्वहि पुणु पुणु थुइ करेवि । घसा-सा गहिरिण हुन तहु गरवाही जिम रइ कामहो पाणपिय । अग्गेसरि सयलंतेउरहो विविह भोय मुंजति थिय ।। ६॥ सा सूहब सयसतेउरहो। सा सुमहुरवाणिय हंसगई। सा श्रासारिया दुत्थियाह। सा मणहर सयलहो परियगाहो। सा पीणपभोहरि सुद्धसई । सा भूरुह दीणहं पंथियाहँ। किया गया। विवाहके पश्चात् वर-कन्या जिन-मन्दिरमें लाये गये। वहाँ जिन भगवान्की वन्दना करके वे यथास्थान बैठ गये। वहाँ एक मुनिराज भी विराजमान थे । तिलकमतीने उन मुनिराजके दर्शन करके उनसे पूछा. -"हे, परम मुनीश्चर, यह बतलाइए कि अपने पतिके प्रथम दर्शन मात्र से मेरा उनके ऊपर इतना प्रेम क्यों उत्पन्न हुआ।" यह सुनकर मुनिराजने समस्त वृत्तान्त कहा जिस प्रकार कि उसने अपने पूर्व भवमें राज्यका उपभोग करके भवान्तरोंमें दुःख पाते हुए भ्रमण किया था और जिस प्रकार कि अन्तमें उसका शरीर पुनः सुगन्धयुक्त और मनोहर हुआ। जब मुनिराज उस सुगन्धा कन्याके पूर्व भवोंका वृत्तान्त कह रहे थे, तभी वहाँ एक देव आ पहुँचा। उसने मुनिराजको प्रणाम करके उस कन्याके भी चरणकमलोंमें अपना मस्तक नवाया । फिर वह देव बोला- "हे स्वामिनि, मैंने भी तुम्हारे प्रसादसे उसी सुगन्ध दशमी व्रतका पालन किया था और उसीके प्रभावसे मुझे यह अमरेन्द्र पद प्राप्त हुआ है।" इतना कहकर और तिलकमतीको भूपण,वस्त्र देकर एवं पुनः पुनः स्तुति करता हुआ यह देव वहाँ से चला गया । इस प्रकार तिलकमती राजा कनकप्रभको उसी प्रकार प्राणप्रिया गृहिणी हो गई जिस प्रकार रति कामदेवकी प्राणप्रिया हुई। वह राजाके समस्त अन्तःपुरकी प्रधान पटरानी बनकर नाना प्रकारके सुखोंका उपभोग करती हुई रहने लगी। अब तिलकमती ही समस्त अन्तःपुरकी सौभाग्यवती सुन्दरी थी। वह समस्त सेवकों व परिजनोंके मनको आकर्षित करती थी। उसीकी वाणी सबसे अधिक मधुर और उसीकी गति हंसके समान सुन्दर समझी जाती थी। वही सबसे अधिक रूपवती और शुद्ध सती माने जाने लगी। यह दुखी दरिद्री जनोंकी आशाओं और प्रार्थनाओंको पूरा करती थी व दीन लोगोंको उसी प्रकार आश्रय प्रदान करती थी जैसे वृक्ष पथिकोंफो शीतल छाया देकर सन्तुष्ट करता है।
SR No.090481
Book TitleSugandhdashmi Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages185
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Biography
File Size5 MB
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