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२८] सुअंधदहमीकहा
[२०६-५ जो पुगु सद्दहेइ णिसुरोप्पिगु । अहिउ पुराणु तहो भासइ जिणु पुणु । ५ जा पुणु जाण्इ एह कहारिणय । सातिय होइवि महियलि राणिय । इय सुअदिवखहि कहिय सवित्थर । मई गावित्ति सुगाइय माहर। सिय कुलणह-उज्जोइय-चंदई।। समण-मा-कय-रायणाएंदई। भवियण-करणग-मणहर-भासई । जसहर-गायकुमारहो वायई। बुहयरण-सुयाहं विणज करतई। अइसुसील-देमइयहि कतई । एमहि पुणु वि सुपास जिणेसर।। करि कम्मरखउ महु परमेसर । घत्ता-जहिं कोहु ण लोहु सुहि ण विरोहु जिउ जर-मरण-विच जिउ ।
साहि हरिसु विसाउ पुराणु रस पाउ तहि शिवासु महु दिजउ । इय सुअंघदहमीकहाए बीओ संधी परिच्छे ओ समत्तो ॥ २॥
सुनता है उसके शरीरको कभी कोई आपत्ति नहीं व्यापती । जो कोई इसे सुनकर उसपर श्रद्धान करता है उसको जिन भगवान्ने विशेष पुण्यकी प्राप्तिका फल कहा है। जो स्त्री इस कथानकको भले प्रकार सीख लेती है उसे इस जगत्में रानी होनेका सुस्व मिलता है।
इस कथानकको श्रुतदशी शास्त्रकारोंने विस्तारसे वर्णन किया है। मैंने उसीके अनुसार संक्षेपमें इसे मनोहर रीतिसे गाकर सुनाया है । इस मनोहर गीति काव्यके रचयिता हैं अपने कुल रूपी नभको उद्योतित करनेवाले चन्द्र जिन्होंने सज्जनोंके मन और नेत्रोंको आनन्दित किया है, भव्यजनोंके कण्ठाभरण रूप मनोहर भाषामें यशोधर और नागकुमारके चरित्रोंको बाँचकर सुनानेवाले, विद्वानों और सज्जनोंका विनय करनेवाले तथा अतीव शीलवती देवती नामक भार्याके पति ( श्री उदयचन्द्र जी)। वे प्रार्थना करते हैं कि हे सुपाचं जिनेश्वर, मेरे कर्मोंके क्षय करनेमें सहायक होवें और जहाँ न क्रोध है, न लोभ है, जहाँ न मित्र है और न शत्रु है, जहाँ जीव जरा और मरणसे रहित है, जहाँ हर्ष-विषाद तथा पुण्य व पाप कुछ भी नहीं है, वहाँ ही मुझे निवास अर्थात् मोक्ष प्रदान करें।
इति सुगन्धदशमीकथा द्वितीय संधि ।