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मुनिदुलहरान
महाप्रज्ञसाहित्य
एक सर्वेक्षण
• जल-प्रपात से विद्युत मिल सकती है तो विचारों के
प्रपात से आलोक क्यों नहीं मिल सकता ? •चिन्तन की गहराई और भावना की ऊँचाई हो तो आलोक अवश्य मिल सकता है।
- युवाचार्य महाप्रज्ञ
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अध्यात्म को भूमिका में अकेला होना बहुत अच्छा है । जीवन-यात्रा के प्रसंग में सहित होने की अनुभूति अत्यन्त उपादेय है ।
कोई विचार, कोई दृष्टिकोण साथ में हो और ऐसा हो कि वह दिशा दे सके, दिशामोह को निरस्त कर सके और गलत दिशा में उठे चरणों को थाम सके ।
एक अंकुश, एक लगाम अथवा एक दिशासूचक सूई-साहित्य में यह सब कुछ है ।
- युवाचार्य महाप्रज्ञ
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महाप्रज्ञ साहित्य
(एक सर्वेक्षण)
मुनि दुलहराज
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प्रकाशन सहयोग : मित्र परिषद्, कलकत्ता द्वारा स्थापित युवाचार्य महाप्रज्ञ
साहित्य प्रकाशन कोश ।
प्रथम संस्करण : १९८८
A
ns-BALICAamic
मूल्य: बीस रुपये प्रकाशक : तुलसी अध्यात्म नीडम्, जैन विश्व भारती लाडनूं, नागौर (राजस्थान) / मुद्रक : जैन विश्व भारती प्रेस, लाडनूं-३४१३०६ । MAHAPRAJN SAHITYA : AIK SARVEKSHAN Muni Dulahraj
Rs. 20.00
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प्रायोजना
युवाचार्य श्री की ३५-४० वर्षों की साहित्य निर्माण यात्रा का यह संक्षिप्त लेखा-जोखा है। प्रस्तुत पुस्तक की समायोजना एक उद्देश्य को ध्यान में रखकर की गई है। युवाचार्य श्री ने शताधिक पुस्तकों का निर्माण कर विविध विषयों पर मौलिक चिन्तन प्रस्तुत किया है। उनकी एक स्थान पर अवस्थिति अनुसंधाताओं तथा अन्य पाठकों के लिए सुविधाजनक हो सकती है। इसमें सभी निबंध अकारादि क्रम से संकलित हैं । युवाचार्य श्री का साहित्य-निर्माणकार्य निरन्तर गतिशील रहा है । उस साहित्य की संयोजना में नए-नए उन्मेष और नए आयाम भी उद्घाटित होते रहे हैं । तात्कालिक उपयोगिता की दृष्टि से उनकी पुस्तकों को नया रूप भी दिया है । अणुव्रत परीक्षाओं की दृष्टि से 'नैतिक पाठमाला' पुस्तक 'अणुव्रत विशारद' के शीर्षक से प्रकाशित की गई । इसी प्रकार लोगों के सुझाव के अनुसार किसी एक बृहत्काय ग्रन्थ को दो भागों में भी प्रकाशित किया गया है । जैसे 'अप्पाणं सरणं गच्छामि' पुस्तक को 'समाधि की खोज' तथा 'समाधि की निष्पत्ति'-- इन दो खंडों में प्रकाशित किया गया। इसके अतिरिक्त पुस्तक के निबंधों को उपयोगिता की दृष्टि से अन्य ग्रंथों से भी संक्रांत किया गया है। उसी प्रकार कर्म सिद्धांत से संबंधित अनेक प्रवचन यत्र-तत्र कुछेक ग्रन्थों में प्रकाशित हुए थे। कर्मवाद का सर्वांगीण अध्ययन एक ही स्थान पर प्राप्त हो जाए इस दृष्टि से उन प्रवचनों को एकत्र कर 'कर्मवाद' नाम से एक पुस्तक प्रकाशित हुई । इसी क्रम में 'शक्ति की साधना' 'आहार और अध्यात्म', 'अभय की खोज', 'चंचलता का चौराहा', 'ऊर्जा की ऊर्ध्वयात्रा' आदि अनेक छोटे संस्करण भी प्रकाशित हुए। काव्य ग्रन्थों में भी ऐसा ही हुआ है। 'विजय की यात्रा' का काव्यांश 'नास्ति का अस्तित्व' नामक पुस्तक में छपा है । उनके शीर्षक भी वे ही हैं। हमने इन सब निवंधों एवं शीर्षकों का संकलन किया है, इसलिए पाठक को एक ही शीर्षक कहीं-कहीं दो-तीन बार दृष्टिगोचर होगा। किन्तु ये भिन्न-भिन्न पुस्तकों के हैं, अतः इन्हें पुनरुक्त न मानकर इन सबका संकलन पाठक की सुविधा की दृष्टि से किया गया है, क्योंकि एक पुस्तक न मिलने पर पाठक दूसरी पुस्तक से लाभ उठा सकता है। कहीं-कहीं शीर्षक एक होने पर भी विषय और प्रतिपादन की भिन्नता है। जैसे कर्मवाद शीर्षक अनेक बार आया है पर उनमें कहीं-कहीं विषय प्रतिपादन की भिन्नता स्पष्ट है।
युवाचार्यश्री ने अनेक जीवनी ग्रन्थ लिखे हैं । उनको प्रवचन नहीं
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कहा जा सकता, किन्तु अनेक शीर्षक विचारों की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण विषय की जानकारी देते हैं, अतः जीवनी ग्रन्थों के मुख्य शीर्षकों को भी इसमें संकलित किया है। शेष छोटे-बड़े उपशीर्षकों को छोड़ दिया है । जीवनीग्रंथों में आचार्य श्री से सम्बन्धित तीन पुस्तकें हैं । उन पुस्तकों में जो शीर्षक आपस में मिलते हैं, उनकी पुनरुक्ति नहीं की है । 'महाप्रज्ञ से साक्षात्कार' पुस्तक में विशिष्ट व्यक्तियों के साक्षात्कार निबद्ध हैं। विषय की प्रधानता के आधार पर प्रत्येक साक्षात्कार का शीर्षक दिया है । उन्हें निबंध की संज्ञा नहीं दी जा सकती, किन्तु उनका भी पाठक की सुविधा की दृष्टि से हमने संकलन किया है ।
इस पुस्तक में तीन खंड हैं । प्रथम खंड में निबंधों और प्रवचनों का संकलन है। दूसरे खंड में गद्य-पद्य काव्य के शीर्षकों का संकलन है। तीसरे खंड में कथा साहित्य का बोध है । महाप्रज्ञ की कथाओं के पांच भाग प्रकाशित हैं, उनके तथा अन्यान्य कथा-ग्रन्यों के शीर्षक इसमें निबद्ध हैं।
पुस्तकों के संकेत पूर्ण वाचक बनें इस दृष्टि से उन्हें अधिक संक्षिप्त नहीं किया है।
यह इस ग्रंथ कलेवर की आत्म-कहानी है। यह एक संकेत ग्रन्थ है जिसके माध्यम से युवाचार्य श्री के समग्र साहित्य को सरसरी नजर से एक ही स्थान पर देखा जा सकता है।
इसी चातुर्मास में इस ग्रंथ की योजना बनी और अल्प समय में यह ग्रंथ तैयार हो गया। इसमें सर्वाधिक श्रम समणी कुसुमप्रज्ञाजी का है। वे आदि से अन्त तक इसकी समायोजना में संलग्न रही हैं। मैं उनके सहयोग को मूल्यवान् मानता हूं।
साध्वी सिद्धप्रज्ञाजी का भी इसमें सराहनीय सहयोग रहा है।
एक आशंसा। यदि पाठक इस ग्रंथ के आधार पर युवाचार्यश्री के साहित्य के आलोक में अपना पथ प्रशस्त कर पाएंगे तो वे सत्यं, शिवं, सुन्दरं के सहभागी अवश्य बनेंगे।
इत्यलम् ।
३०-४.८८
मुनि दुलहराज
लाडनूं
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प्रस्तुति
जिस देश और समाज का साहित्य जितना विशद और व्यापक होता है, वह देश और समाज उतना ही तेजस्वी और प्रकाशमान होता है। साहित्य अतीत और अनागत को जोड़कर नए-नए उन्मेष देता है। केवल शब्द-संकलन ही साहित्य नहीं कहलाता बल्कि जो जीवन्त समस्या को समाहित करता है तथा वर्तमान और भविष्य को बांधकर साथ में चलता है वह साहित्य कहलाता है । सत् साहित्य में असीमित शक्ति होती है क्योंकि वह प्राणियों में संस्कार और स्फूर्ति भरता है ।
साहित्य पारदर्शी स्फटिक है । उसमें प्रतिबिम्बत होता है सम्पूर्ण युग। साहित्यकार जिस काल, क्षेत्र, पंरपरा और विचारों में पलता-पुषता है, उन सबका प्रतिबिम्बन उसके द्वारा लिखित साहित्य में होता है। युग-चेतना का प्रतिनिधित्व करने वाला साहित्यकार अकेला नहीं होता, वह व्यष्टि में समष्टि को भरकर चलता है । उसके विचारों का तादात्म्य युग-चेतना से होता है और तब उन विचारों में संपूर्ण युग का प्रतिनिधित्व करने का सामर्थ्य आ जाता है।
अंग्रेजी में साहित्य को लिटरेचर कहते हैं । यह शब्द लेटर से अर्थात् वर्ण या अक्षर से बना है। इसका अर्थ है जहां भी वर्ण है वहां साहित्य है, चाहे वह उच्चरित हो अथवा लिखित या मौखिक । युवाचार्यश्री ने लेखन की अपेक्षा प्रवचन अधिक किए हैं। भारत में अनेक महान वक्ता हुए हैं जिन्होंने अपने जीवन्त शब्दों से जन-जीवन को जगाया है। इसी परम्परा में युवाचार्यश्री प्रखर वक्ता के रूप में भारतीय जनमानस में अपना विशिष्ट स्थान बनाये हुए
युवाचार्यश्री जैन कुल में जन्मे। पिता का अल्पकालीन साया रहा। माता ने बच्चे को पाला-पोसा, संस्कार दिए और वे बीज रूप में दिए गए संस्कार धीरे-धीरे अंकुरित हुए और एक दिन देखा कि वह लघु अंकुर वटवृक्ष की तरह फैल गया है । वटवृक्ष की असंख्य शाखाओं की तरह युवाचार्यश्री के विचार उभरे पर वे सब मूल से संघटित थे। मूल था अध्यात्म । इसलिए प्रत्येक विचार अध्यात्म से अनुप्राणित, अनुश्वसित और अनुरंजित रहा। धीरे-धीरे आपने दर्शन का अध्ययन किया और दर्शन के अनेक ग्रन्थों का तलस्पर्शी पारायण कर मूर्धन्य दार्शनिक बन गए । तर्कशास्त्र पढ़ा, शब्दशास्त्र को हस्तगत किया, विचारों के समुद्र में उन्मज्जन-निमज्जन किया और अध्यात्म की जड़ को इस तरह सींचा कि उनका प्रबुद्ध मन बोल उठा -
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
तर्क जाने ज्ञातुमिच्छाम्यतर्क, शब्द जाने ज्ञातुमिच्छाम्यशब्दम् । चिन्त्यं जाने ज्ञातुमिच्छाम्यचिन्त्यं, हस्तालम्बं देव ! देहि प्रशस्तम् ॥
युवाचार्यश्री ने अपने साहित्य में जीवन्त सत्य को उकेरा है, मानवीय संवेदनाओं को जगाया है और युगीन समस्याओं को समाहित करने के लिए अनेकविध उपाय निर्दिष्ट किए हैं ।
युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ आचार्य श्री के हर स्वप्न को साकार करने में अहर्निश तत्पर रहते हैं । आज से ४४ वर्ष पूर्व तेरापंथ धर्मसंघ में हिन्दी भाषा में साहित्य लिखना तो दूर, बोलना भी अटपटा सा लगता था । किंतु आचार्य प्रवर ने अपने शिष्यों को प्रेरणा दी । उस प्रेरणा से सर्वप्रथम प्रेरित बने मुनि नथमलजी ( युवाचार्य महाप्रज्ञ ) | आचार्य श्री समय-समय पर अपने शिष्यों को प्रतिबोधित करते हुए कहते हैं - 'आज समाज की चेतना को झकझोरने वाला साहित्य नहीं के बराबर है। इस अभाव को भरा हुआ देखने के लिए अथवा साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में जो शुचिपूर्ण परम्पराएं चली आ रही हैं, उनमें उन्मेषों के नए स्वस्तिक उकेरे हुए देखने के लिए मैं बेचैन हूं । मेरे धर्मसंघ के सुधी साधु-साध्वियां इस दृष्टि से सचेतन प्रयास करें और कुछ नई संभावनाओं को जन्म दें ।'
युवाचार्यश्री ने आचार्य श्री की इस भावना के अनुमार साहित्य को एक नई गति दी है । उनका साहित्य-सर्जन केवल वर्तमान को सम्मुख रखकर ही नहीं किया गया है अपितु वह शाश्वत मूल्यों को उद्घाटित करने वाला है । उनके लेखन में समष्टि की विविध भावनाओं की अभिव्यक्ति है तथा सामान्य धरातल से देवत्व की ओर उठने की प्रेरणा है । सामान्यतः आज के साहित्यकार को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक स्वार्थ प्रभावित करते हैं, किंतु युवाचार्यश्री इन सबसे मुक्त होकर अपने विचार व्यक्त करते हैं, इसलिए एक ओर उन्होंने सामान्य जनमानस की चेतना को उद्बोधित किया है तो दूसरी ओर राजनेताओं और समाज के उच्च वर्ग को भी झकझोरा है । उन्होंने सामाजिक और राजनैतिक चेतना को अपने अनुभव की आंखों से देखा है इसीलिए उनके साहित्य में बुराई को नष्ट कर नया मानव पैदा करने की वह शक्ति है जो अणु से महान् की ओर प्रस्थान करने का संकेत करती है । उत्कृष्ट साहित्यकार
साहित्यकार स्वयंभू होता है । वह युग का निर्माता तथा आनंद का अग्रदूत होता है, क्योंकि सृष्टि में जो विविधता, विचित्रता, अद्भुतता, मनोरमता, व्यवस्थितता और मनमोहकता है उसे साहित्यकार ही अपनी लेखनी और वाणी से अवतरित करता है । साहित्यकार की जो कसौटियां विद्वानों ने निश्चित की हैं उन पर युवाचार्यश्री खरे उतरते हैं । महादेवी के अनुसार जब भावना, ज्ञान
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प्रस्तुति
الله
और कर्म समरेखा पर मिलते हैं तभी युग-प्रवर्तक साहित्यकार का जन्म होता है । युवाचार्यश्री के साहित्य में भावना, ज्ञान और कर्म की त्रिपदी का सामंजस्यपूर्ण प्रयोग है । हजारीप्रसाद द्विवेदी साहित्यकार की विशेषता इन शब्दों में व्यक्त करते हैं.--'सच्चा साहित्यकार वह है जो दुःख, अवसाद और कष्ट के भीतर से उस मनुष्य की सृष्टि करे जो पशुओं से विशेष है, जो परिस्थितियों से जूझकर अपना रास्ता साफ कर सके तथा जो सत्य और कर्तव्यनिष्ठा के लिए किसी की स्तुति या निंदा की बिल्कुल परवाह न करे।' युवाचार्यश्री के साहित्य ने मानव-मानव में यह सामर्थ्य पैदा किया है कि वह जीवन-मरण, हर्ष-शोक, निंदा-प्रशंसा, लाभ-अलाभ आदि सभी द्वन्द्वों में सम रह सके, संतुलन बनाए रख सके और अपनी कर्तव्यनिष्ठा से तनिक भी विचलित न हो।
महावीर प्रसाद द्विवेदी के विचारों में महान् सहानुभूति से परिपूर्ण हृदय और अनासक्तिजन्य मस्ती ही साहित्यकार को बड़ी रचना करने की शक्ति देती है। ये दोनों विशेषताएं युवाचार्यश्री के हर प्रवचन एवं निबंध में दृग्गोचर होती हैं।
____ भारत के मूर्धन्य कवि रामधारी सिंह दिनकर ने युवाचार्यश्री के विश्वजनीन साहित्य का पारायण कर कहा---'युवाचार्यश्री भारत के दूसरे विवेकानंद हैं । इस एक वाक्य में उन्होंने हजार पृष्ठों के हजार ग्रंथों में कही जाने वाली बात कह दी है। साहित्य का उद्देश्य
युवाचार्य श्री के करुण मन से साहित्य का जो संगीत प्रस्फुटित हुआ वह जीवन के सर्वांगीण पहलुओं को छूता हुआ मानव मन की वीणा को झंकृत करता है। वे साहित्य-सर्जन को साधना का अंग मानकर चलते हैं, इसलिए बिना प्रयोजन वे न बोलते हैं और न लिखते हैं । वे तब बोलते हैं या लिखते हैं जब उसकी सार्थकता या प्रयोजनीयता उन्हें प्रतीत होती है।
____आचार्य श्री तुलसी साहित्य सृजन का उद्देश्य इन शब्दों में व्यक्त करते हैं--- 'साहित्य का सही लक्ष्य है --आत्मसाधना की ज्योति से जाज्वल्यमान वाणी द्वारा जन-जन को प्रकाश देना ।' प्रसिद्ध साहित्यकार नवीनजी का अभिमत है --'मेरे निकट सत्साहित्य का एक ही मापदंड है। वह यह कि किस सीमा तक कोई साहित्यिक कृति मानव को उच्चतर, सुंदरतम, परिष्कृत एवं समर्थ बनाती है।'
युवाचार्य श्री का हर प्रवचन तथा हर वाक्य एक सार्थकता लिए होता है। उनकी साहित्य रचना के निम्न उद्देश्य हैं
० व्यक्ति-व्यक्ति का निर्माण एवं सुखी समाज की संरचना करना ।
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
० ऐसे समाज की रचना, जिसमें विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय हो। ० व्यक्ति की आभ्यंतर ज्योति को प्रज्वलित करना । • विवेक चेतना और नैतिक चेतना का जागरण करना। ० मस्तिष्क को प्रशिक्षित करने के सूत्रों का अवबोध देना। ० मानवीय संवेदना का जागरण करना । ० दर्शन की जीवन के साथ संयुति करना। ० मानवीय चेतना में समता और अनुकंपा की जागति करना । ० अपने उत्तरदायित्व का अवबोध देना।
ये सारे उद्देश्य अध्यात्म से अनुप्राणित हैं। ये व्यक्ति व्यक्ति के सर्वागीण उन्नयन के उपाय हैं । साहित्य का क्षेत्र
। यूवाचार्य श्री के साहित्य सृजन का क्षेत्र किसी एक व्यक्ति, वर्ग या विषय तक ही सीमित नहीं है। उन्होंने जीवन के प्रत्येक घटक को छूने का प्रयास किया है और मनुष्य के सर्वांगीण विकास में प्रज्यमान सभी विषयों पर लिखा है, कहा है । एकांगी विकास उन्हें अधूरा लगता है । वे मानते हैं'व्यक्ति व्यष्टि ही नहीं, समष्टि भी है। इसलिए उसका विकास सर्वांगीण होकर ही आनन्दप्रद हो सकता है। युवाचार्य श्री जैन मुनि हैं। परिव्रजन उनका व्रत है। परिव्रजन और जनसम्पर्क दोनों संयुक्त हैं। जनता में विभिन्न रुचियां होती हैं, इसलिए आपके चिंतन के विषय भी विविध हैं। आपने धर्म और अध्यात्म, दर्शन और विज्ञान, आचार, आगम, इतिहास, भूगोल, मनोविज्ञान, शिक्षा, प्रेक्षा, योग, जीवन-विज्ञान, राजनीति , समाजनीति, अर्थनीति आदि विषयों पर बहुत कुछ लिखा है, बोला है।
साहित्यकार वैज्ञानिक चिंतन को नकारकर पुरानी भावनाओं में ही बहता रहे तो वह एक सदी पहले का साहित्यकार होगा। युवाचार्यश्री युगबोध के साथ चलते हैं और वर्तमान को रूपायित करते हुए अनागत की सार्थक कल्पना करते हैं । वे हर बात को विज्ञान की कसौटी पर कसते हैं तथा धर्म के हर पहलू को वैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषित करते हैं । उनका मानना है कि धर्म को यदि विज्ञान का सहारा नहीं मिलता है तो इस युग में धर्म की कोई पूछ नहीं हो सकती। हम विज्ञान और अध्यात्म को सर्वथा पृथक् कर नहीं चल सकते । दोनों का सामंजस्य ही यथार्थ है।
राजनीति के बारे में युवाचार्य श्री का चिंतन है कि मानवता की उपेक्षा करके चलने वाली राजनीति स्वयं भी डूबेगी तथा दूसरों को भी डुबोएगी।
धर्म और अध्यात्म के बारे में उनका चिंतन क्रांतिकारी रहा है । तथा
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प्रस्तुति
कथित धार्मिकों को उन्होंने नए सिरे से सोचने के लिए मजबूर किया है। केवल शास्त्र की दुहाई एवं क्रियाकांड करने वाले धार्मिकों को संबोधित करते हुए वे कहते हैं-'जब-जब शास्त्रीय-वाक्यों की दुहाई बढ़ती है और आत्मानुभूति घटती है, तब शास्त्र तेजस्वी और धर्म निस्तेज हो जाता है । जब आत्मानुभूति बढ़ती है और शास्त्रीय वाक्यों की दुहाई घटती है तब धर्म तेजस्वी और शास्त्र निस्तेज हो जाता है। यहीं से विवेक चेतना का जागरण होता है।'
शिक्षा के साथ उन्होंने जीवनविज्ञान की जो बात लोगों के समक्ष रखी है उससे शिक्षा जगत् में एक क्रांति हुई है । उनका कहना है कि केवल पुस्तकीय ज्ञान से सर्वांगीण व्यक्तित्व का विकास नहीं किया जा सकता । जब तक उसके साथ मानसिक एवं भावनात्मक विकास की बात नहीं जोड़ी जाएगी तब तक एकांगी विकास होगा और मानव पंगु बना रहेगा। उनकी दृष्टि में बौद्धिक विकास के साथ-साथ भावात्मक विकास बहुत जरूरी है। इसके होने पर ही मनुष्य पूर्ण हो सकता है।
दर्शन जैसे जटिल एवं नीरस विषय को उन्होंने जीवन के साथ जोड़कर उसे सरस और व्यावहारिक बना दिया है । केवल शुष्क तर्क द्वारा किसी सिद्धांत या विचार की सिद्धि उन्हें अभीष्ट नहीं है । अतः उन्होंने दर्शन को नया परिवेश दिया है । वे दार्शनिक की कितनी सुन्दर, सटीक एवं नवीन परिभाषा करते हैं.---'जो आत्मा के सान्निध्य में रहता है उससे अधिक कुशल दार्शनिक और कौन होगा ? तर्क भटकाता है, पहुंचाता नहीं । जो आत्मा की परिधि से बाहर की बात सोचता-समझता है, वह उलझता है, पहुंचता नहीं।' भाषा-शैली
भाषा विचार अभिव्यक्ति का सशक्त साधन है। युवाचार्य श्री ने अपने विचारों को प्रकट करने के लिए प्राकृत, संस्कृत और हिन्दी- इन तीन भाषाओं को माध्यम बनाया है। उनकी भाषा दो रूपों में मिलती है। जब वे जन सामान्य के बीच बोलते हैं तब उनकी भाषा अत्यंत सरल, सुबोध उदाहरण तथा कथाप्रधान होती है। किंतु जब वे स्वयं अपनी लेखनी से कुछ लिखते हैं, तब उनकी भाषा साहित्यिक एवं दार्शनिक बन जाती है । भाषा की द्विरूपता का एक कारण यह भी है कि उनके प्रवचन एक ओर जहां ग्रामीणों, श्रमिकों एवं सामान्य जनता के बीच होते हैं तो दूसरी ओर प्रबुद्ध शिक्षाविदों, राजनेताओं, वकीलों और डाक्टरों के बीच भी होते हैं । इसलिए पात्रभेद के अनुसार भाषा में अंतर आना स्वाभाविक है।
भाषा की यह द्विविधता कहीं भी उनके भावों को स्पष्ट करने में बाधक नहीं बनी है। उसका अर्थ-गाम्भीर्य और गरिमा वैसी ही बनी रहती है । अभिव्यक्ति का अन्तर भले ही आ जाता है।
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
युवाचार्य श्री भावाभिव्यक्ति को प्रधानता देते हैं और भाषा को केवल माध्यम मानते हैं । भावों का स्पष्ट अवबोध कराने के लिए यत्र-तत्र मुहावरे, कहावतें, कथानक, चुटकले, व्यंग्य-विनोद आदि का समावेश बहुलता से मिलता है । यही कारण है कि युवाचार्य श्री के प्रवचन में सरसता का प्रवाह निरंतर बहता चलता है । वह आदि से अंत तक एक-सा रहता है, सूखता नहीं ।
आपकी भाषा सूत्रात्मक और सूक्त्यात्मक होती है । यदि उन सभी सूक्तियों का संकलन किया जाए तो एक बृहत् सूक्ति कोश तैयार हो सकता है । उदाहरण के लिए इन पंक्तियों को देखा जा सकता है
१. विद्यावान् वही होता है, जो दूसरों को जानने से पूर्व अपने आपको भलीभांति जान ले ।
२. स्नेह जीवन के सूर्य का वह प्रकाश है, जो गहन अंधकार को भेदकर मानस की हर सतह को आलोक से भर देता है ।
३. जो दिलाया जाता है वह अविश्वास है । विश्वास दिलाने की वस्तु नहीं वह स्वयं प्राप्त होता है ।
४. आत्मा का अहित किए बिना दूसरों का अहित नहीं किया जा
सकता ।
है ।
५. शोषण का मूल जीवन की आवश्यकताएं नहीं, मानसिक अतृप्ति
६. रोटी के बिना मरता है मनुष्य और विवेक के बिना मरती है
मानवता ।
भाषा की दृष्टि से उन्होंने उचित स्थान पर उचित शब्दों का सफल प्रयोग किया है । इसलिए उनकी भाषा भावों के अनुकूल बन पड़ी है । इस प्रकार उनकी भाषा में भव्यता, विशदता और माधुर्य आदि गुणों का समावेश है ।
शब्दों को अपना अर्थ तथा अर्थों को शब्द देने की अद्भुत क्षमता युवाचार्य श्री में है । इसी कारण से उन्होंने गहरे और सूक्ष्म विषयों को भी सरल भाषा में प्रस्तुत किया है ।
शैली किसी भी लेखक के व्यक्तित्व का अंग होती है । गेटे के अनुसार शैली मस्तिष्क की प्रामाणिक प्रतिलिपि है । शैली हर व्यक्ति की भिन्न होती है । यह किसी से उधार मांगी या दी नहीं जा सकती ।
पश्चिमी आलोचकों ने शैली के छह गुण बताए हैं - १. स्वच्छता २. सरलता ३. स्पष्टता ४. शक्तिमत्ता ५. सुसंबद्धता ६. लयात्मकता । शैली के ये सभी गुण युवाचार्यश्री के वक्तृत्व एवं साहित्य में मिलते हैं । उनकी शैली की यह अद्भुत विशेषता है कि वे स्वयं गंभीर, नैतिक एवं सामाजिक प्रश्न उठाते हैं तथा खुलकर उनका समाधान भी करते हैं ।
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प्रस्तुति
उनके साहित्य में अनेक स्थलों पर पाठक को ऐसा प्रतीत होता है कि पुनरावृत्ति हो रही है, किन्तु यह पुनरावृत्ति उनकी शैलीगत विशेषता है । विशेष कथ्य को दुहराने से वह श्रोता एवं पाठक के हृदयंगम हो जाता है तथा उन विचारों की महत्ता भी स्पष्ट हो जाती है। इसके अतिरिक्त अधिकांशत: वे शिविरों में प्रवचन करते हैं इसलिए उनके सामने श्रोता नए होते हैं । अतः कुछ मूलभूत बातें उन्हें बार बार कहनी पड़ती हैं ।
शब्दों का चुनाव, वाक्यों का विन्यास तथा भावों और विचारों का विकास शैली के मौलिक तत्त्व हैं । इन तीनों विशेषताओं का समावेश उनके लेखन एवं वक्तृत्व में मिलता है।
साहित्य की गतिविधि एवं द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव के अनुसार उनके साहित्य के विषय एवं शैली बदलती रही है। इसलिए कहीं-कहीं उनके विचारों में विरोधाभास भी प्रतीत होता है। किंतु सापेक्ष दृष्टि से देखें तो यह विरोधाभास नहीं, क्योंकि महान् व्यक्तियों की रचना जीवन के विविध पह: लुओ से संयुक्त रहती है। सामान्य मानव को उनमें विरोध दीख पड़ता है, पर वह विरोध नहीं, सर्वांगीणता की ओर उठा एक कदम है। साहित्यिक विधाएं
हिंदी साहित्य में नई विधाओं का जन्म आधुनिक युग के साथ हुआ । अपने भावों को अच्छी तरह व्यक्त करने के लिए साहित्यकार नवीन विधाओं की खोज करता है, जिससे वह आकर्षक ढंग से विचार व्यक्त कर सके । साहित्य के क्षेत्र में मुख्यतः दो विधाएं अधिक प्रसिद्ध हैं-गद्य और पद्य ।
गद्य की निम्न विधाएं आज अधिक प्रसिद्ध हैं-१. निबंध २. रेखाचित्र, ३. संस्मरण, ४. रिपोर्ताज ५. डायरी, ६. साक्षात्कार, ७. गद्यकाव्य, ८, जीवनी, आत्मकथा, ६. यात्रावृत्तांत, १०. एकांकी, ११. कहानी, १२. उपन्याल, १३. पत्र ।
__ युवाचार्यश्री ने अपनी अभिव्यक्ति को विविध आयाम दिये हैं। उन्होंने अनेक विधाओं में लिखा है तथा उन्हें एक नया रूप भी दिया है । उनकी साहित्यिक विधाओं का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार हैनिबंध
विशेष रूप से बंधी हुई गद्य रचना निबंध कहलाती है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के विचार में निबंध गद्य की कसौटी है। क्योंकि गद्य की समस्त विधाओं में निबंध अभिव्यक्ति का सर्वाधिक सशक्त माध्यम है । यद्यपि निबंध के अनेक भेद हो सकते हैं, किन्तु मुख्यत: निबंध के चार भेद मिलते हैं---
१. विचारात्मक २. भावात्मक ३. वर्णनात्मक ४. कथात्मक ।
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
विचारात्मक निबंध
बौद्धिकता प्रधान होते हैं । इनमें विषय गांभीर्य तथा भाषा कसी हुई होती है । इनमें किसी एक विचार पर लेखक अपने भाव व्यक्त करता है । 'घट-घट दीप जले' के प्रायः सभी लेख विचारात्मक हैं ।
भावात्मक निबंध
इन निबंधों में हृदय पक्ष की प्रधानता और निजी अनुभूति की गहनता तथा सघनता अभिव्यक्त होती है। इनमें तर्क-वितर्क को उतना महत्त्व नहीं दिया जाता जितना भावोद्रेक को दिया जाता है । 'मैं: मेरा मनः मेरी शांति' के प्रायः सभी निबंध इसी कोटि के हैं ।
वर्णनात्मक निबंध
वर्णनात्मक निबंधों में किसी वस्तु, दृश्य या घटना का विस्तार से वर्णन किया जाता है ।
कथात्मक निबंध
कथात्मक निबंधों का आधार कथा होती है, जिसे लेखक कल्पना का पुट देकर रोचक बना देता है । इनमें काल्पनिक इतिवृत्त, पौराणिक आख्यान, ऐतिहासिक कथानक आदि अनेक प्रकार की कहानियों का उपयोग किया जा सकता है ।
इनके अतिरिक्त ललित निबंध, उपदेशात्मक निबन्ध आदि अनेक भेद किए जा सकते हैं । युवाचार्य श्री के साहित्य में प्रायः सभी निबंधों के उदाहरण मिलते हैं । प्रीस्टले के अनुसार अच्छा निबंध वह है जो साधारण बातचीत जैसा प्रकट हो किन्तु उसमें गुरु-गंभीर चिंतन भरा हो । इस दृष्टि से युवाचार्य श्री के निबंध सरल और सामान्य होते हुए भी एक गभीरिमा लिए हुए हैं । उनके प्रवचनों में सूक्ष्म निरीक्षण के साथ-साथ हास्य, व्यंग्य एवं विनोद की प्रवृत्ति भी है ।
वर्तमान में निबंधों की निम्न शैलियां विख्यात हैं--- १. व्यास २. समास ३. धारा ४. विक्षेप ५. प्रलाप । युवाचार्य श्री ने व्यास और धारा शैली में अपने विचार व्यक्त किए हैं । कहीं-कहीं समास शैली का प्रयोग भी मिलता है । उनके निबन्धों के शीर्षक भी अपना वैशिष्ट्य रखते हैं । शीर्षक पाठक
के ध्यान को आकर्षित करते हैं तथा पढ़ने की प्रेरणा देते हैं । उनके प्राय: शीर्षक अत्यन्त रोचक, जिज्ञासा - प्रधान और चुम्बकीय शक्ति लिए हुए हैं । जैसे'जीवन की तुला: समता के बटखरे', 'क्या दुःख को कम किया जा सकता है ?" 'मैत्री बुढ़ापे के साथ', 'युद्ध अहंकार के साथ', 'कम्प्यूटर हमारे भीतर है' आदि-आदि। कुछ शीर्षक रहस्यात्मक भी हैं, जिन्हें पढ़ने पर ही शीर्षक स्पष्ट
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प्रस्तुति
हो सकता है । जैसे- 'जरूरत है एक अभियान की', 'कर सकता पर करता नहीं' आदि-आदि। उनके प्रवचनों में अन्य भाषाओं के शीर्षक भी हैं - 'वा दशा किण दिन आवसी', 'ब्रेन वाशिंग', 'सा विद्या या विमुक्तये' आदि-आदि । संस्मरण
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यह गद्य की आत्मनिष्ठ विधा है । इसमें संस्मरणकार अपने व्यक्तिगत जीवन तथा सम्पर्क में आए अन्य व्यक्तियों के जीवन के किसी पहलू पर स्मृति के आधार पर प्रकाश डालता है । युवाचार्य श्री ने स्वतन्त्र रूप से कोई संस्मरण सम्बन्धित पुस्तक नहीं लिखी किन्तु अनेक संस्मरणात्मक निबंध लिखे हैं | अपने गुरु से सम्बन्धित अनेक मधुर संस्मरणों की रमणीय अनुभूति वे लेखों में व्यक्त करते रहते । यह संस्मरणात्मक साहित्य प्रकीर्णक रूप में मिलता है तथा संख्या में कम होते हुए भी इतना रोचक है कि पाठक उसकी प्रेरकता और संप्रेषणता से अछूता नहीं रह पाता ।
इन्टरव्यू / साक्षात्कार
इन्टरव्यू महान् और लघु के मध्य ही शोभा देता है । लघु के हृदय की श्रद्धाभावना देखकर महान् में सब कुछ कह देने की भावना जाग जाती है । यह हिंदी गद्य की सर्वथा नवीन विधा है । साहित्य, राजनीति, दर्शन, अध्यात्म तथा विज्ञान आदि किसी भी क्षेत्र की महान् विभूति से मिलकर किन्ही प्रश्नों के संदर्भ में उनके विचार या दृष्टिकोण को व्यक्त करना इन्टरव्यू है । यद्यपि युवाचार्य श्री ने इस विधा में कुछ नहीं लिखा किन्तु उनसे जो इन्टरव्यू लघुविशिष्ट व्यक्तियों ने लिए हैं वे 'महाप्रज्ञ से साक्षात्कार' में संकलित हैं । इन साक्षात्कारों में अनेक विषयों पर विचार-मंथन हुआ है । इस दृष्टि से यह पुस्तक भी अपना विशिष्ट स्थान रखती है । 'संभव है समाधान' पुस्तक किसी एक व्यक्ति द्वारा पूछे गए प्रश्नों के समाधान रूप नहीं है, किन्तु इसमें अनेक प्रसंगों पर अनेक व्यक्तियों द्वारा पूछे गए प्रश्नों का उत्तर संकलित है । यह भी साक्षात्कार रूप पुस्तक ही है । प्रत्येक प्रश्न का उत्तर युवाचार्य श्री इतना सटीक, संक्षिप्त एवं वेधक देते हैं कि जिज्ञासु को अपना समाधान हस्तगत हो जाता है और वह उस समाधान के आलोक में अपना पथ प्रशस्त कर लेता है । उनके प्रत्येक समाधान वस्तुनिष्ठ न होकर आत्मनिष्ठ अधिक हैं । इसीलिए उन्होंने तर्क, युक्ति और प्रमाण का आश्रय न लेकर स्वयं की प्रज्ञा एवं विवेकपूर्ण चिंतन का अधिक आश्रय लिया है ।
जीवनी
पाश्चात्य विद्वान् लिटन स्ट्रैची ने जीवनी को लेखन कला का सबसे सुकोमल और सहानुभूति पूर्ण स्वरूप कहा है, क्योंकि इसमें लेखक किसी अन्य व्यक्ति का प्रामाणिक एवं वस्तुनिष्ठ जीवनवृत्त प्रस्तुत करता है । युवाचार्य
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
प्रवर ने जीवनी साहित्य के अन्तर्गत अनेक पुस्तकें लिखी हैं। प्राय: जीवनियां घटना प्रधान होती हैं, किन्तु युवाचार्य श्री ने उन्हें घटनाप्रधान न बनाकर विचार-प्रधान अधिक बनाया है। जीवनी में उन्होंने अपने श्रद्धेय को केवल प्रशस्ति के रूप में ही प्रस्तुत नहीं किया है अपितु उनके यथार्थ व्यक्तित्व को अधिक उजागर किया है । वे स्वयं इस बात को अभिव्यक्ति इन शब्दों में देते हैं.--'मैं आचार्य श्री को केवल श्रद्धा की दृष्टि से देखता तो उनकी जीवनगाथा के पृष्ठ दस से अधिक नहीं होते। उनमें मेरी भावना का व्यायाम पूर्ण हो जाता है । आचार्य श्री को मैं केवल तर्क की दृष्टि से देखता तो उनकी जीवन-गाथा सुदीर्घ हो जाती, पर उसमें चैतन्य नहीं होता।' उनके द्वारा लिखे गए जीवनीग्रन्थ जीवनी साहित्य के अन्तर्गत अपना विशेष महत्त्व रखते हैं।
गद्य-काव्य
गद्यकाव्य का मूल आधार कथा होती है। किंतु हिंदी में भावात्मक निबंध भी गद्यकाव्य के अन्तर्गत आते हैं। इनमें भावना या कल्पना की प्रधानता, रमणीयता एवं सरसता की प्रतिष्ठा तथा कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक भाव व्यक्त करने की क्षमता होती है। युवाचार्य प्रवर ने अत्यन्त सरस, मार्मिक और सुबोध गद्यकाव्य लिखे हैं । 'भाव और अनुभाव' तथा 'अनुभव चिंतन मनन' आदि कृतियां उसका उत्कृष्ट उदाहरण है । 'गागर में सागर' पुस्तक कथात्मक गद्यकाव्य है। इसके गद्यकाव्य अत्यन्त संक्षिप्त हैं । अखंडित व्यक्तित्व को अभिव्यक्ति देते हुए वे कहते हैं - 'वहां सारी भाषाएं मूक बन जाती हैं जहां हृदय का विश्वास बोलता है । जहां हृदय मूक होता है वहां भाषा मनुष्य का साथ नहीं देती। जहां भाषा हृदय को ठगने का प्रयत्न करती है वहां व्यक्तित्व विभक्त हो जाता है । अखंड व्यक्तित्व वहां होता है जहां भाषा और हृदय में द्वैध नहीं होता।
इसी प्रकार जोड़ने और तोड़ने की बात को वे एक रूपक के माध्यम से कितनी सशक्त शैली में कहते हैं- 'काटना सहज है, सांधना कठिन । कैंची अकेली चलती है, सुई धागे के बिना नहीं। कैची का कार्य सीधा है, सूई के कार्य में असंख्य उलझनें हैं----असंख्य घुमाव हैं।' कुछ गद्यकाव्य उन्होंने स्वयं को सम्बोधित करके लिखे हैं, किंतु वे सार्वजनीन हैं --- 'आग्रह में मुझे रस है, पर आग्रही कहलाऊं, यह मुझे अच्छा नहीं लगता, इसलिए मैं आग्रह पर अनाग्रह का झोल चढ़ा लेता हूं। रूढ़ि से मैं मुक्त नहीं हूं, पर रूढ़िवादी कहलाऊं यह मुझे अच्छा नहीं लगता, इसलिए मैं रूढ़ि पर परिवर्तन का झोल चढ़ा लेता
इसके अतिरिक्त इन गद्यकाव्यों में दर्शन की गहराई को भी उन्होंने जिस दक्षता के साथ प्रस्तुत किया है, वह स्तुत्य है ।
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प्रस्तुति
यात्रा साहित्य
___यात्रा साहित्य की परम्परा बहुत प्राचीन है । संस्कृत के मेघदूत काव्य में मेघ को यात्रा-पथ का निर्देश करता हुआ कवि अपने द्वारा की गई यात्राओं की स्पष्ट झलक दे जाता है। पशु-पक्षियों की यात्रा, शिकारियों की यात्रा, सांस्कृतिक यात्रा, ऐतिहासिक यात्रा, भौगोलिक यात्रा, राजनैतिक यात्रा तथा धार्मिक यात्रा- ये यात्राओं के विभिन्न विषय हैं।
डॉ. त्रिगुणायत के अनुसार यत्रा साहित्य पांच प्रकार का होता है-- १. सूचना एवं विवरण प्रधान २. प्राकृतिक सौन्दर्य से उदभूत उल्लास को व्यक्त करने वाला ३. जीवन दर्शन का संकेत करने वाला ४. डायरी के रूप में संस्मरणात्मक ५. व्यक्तिगत पत्रों के रूप में लिखे गए यात्रावृत्त ।
लेखक स्वयं अपनी यात्रा का वर्णन कर सकता है तथा दूसरों की यात्रा का उल्लेख भी। युवाचार्यश्री अपने गुरु आचार्य श्री तुलसी के प्रति अत्यन्त श्रद्धानिष्ठ एवं समर्पित हैं तथा उनकी पदयात्रा के सहभागी भी रहे हैं। उन्होंने यात्रावृत्त के रूप में कुछ देखा कुछ सुना कुछ समझा' पुस्तक की रचना की है। यह पुस्तक जहां वैचारिक दृष्टि से अनेक महत्त्वपूर्ण पहलुओं को व्यक्त करती है, वहां यात्रा से संबंधित अनेक संस्मरणों के कारण बहुत सरस और रोचक भी है। इसमें लेखक ने पदयात्रा के महत्त्व को बहुत सटीक शब्दों में उजागर किया है। कहानी
___ कहानी गद्य साहित्य की एक रोचक विधा है। यह स्थूल या सूक्ष्म कथानक के साथ समाज की किसी एक स्थिति, जीवन की किसी एक समस्या मनुष्य की किसी एक प्रवृत्ति या उसके चरित्र की किसी एक विशेषता का छोटासा चित्र अंकित कर देती है। कथा के माध्यम से बात कहने की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है । युवाचार्यश्री भी अपने प्रवचन में कथाओं का प्रयोग करते हैं, जिससे श्रोता प्रतिपाद्य को सरलता से हृदयंगम कर सके। विद्वानों का कहना है कि 'सब पे उत्तम कहानी वह होती है जो किसी मनोवैज्ञानिक सत्य पर आधारित हो।' यह तथ्य युवाचार्यश्री द्वारा प्रयुक्त प्राय: सभी कथाओं के साथ घटित होता है। उनके प्रवचनों में प्रयुक्त कथाओं का संकलन 'महाप्रज्ञ की कथाएं' इस नाम से पांच खण्डों में विभक्त है । इन कथाओं में आकार की लघुता, संवेदन की तीव्रता, प्रभावान्विता, जीवन के किसी एक सत्य खंड की प्रतिष्ठा, रोचकता और सक्रियता आदि अनेक विशेषताएं हैं।
इन कथाओं में सांस्कृतिक मूल्यों की स्थापना तथा बदलती हुई
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
परिस्थिति से उत्पन्न विशृंखलता का समाधान भी प्रस्तुत है ।
इनमें कुछ कथाएं काल्पनिक, कुछ ऐतिहासिक तथा कुछ कथाएं हास्यप्रधान भी हैं । कहीं-कहीं एक ही कथा को उन्होंने भिन्न-भिन्न प्रसंगों में भिन्न-भिन्न रूप से भी प्रस्तुत किया है। उनकी कथाओं की एक सबसे बड़ी विशेषता है कि भाषा कसी हुई है। कहीं भी अनावश्यक विस्तार करके कथानक के तत्त्व को शिथिल या नीरस नहीं होने दिया है । कथा के माध्यम से दार्शनिक गुत्थियों को सुलझाकर उसका निष्कर्ष निकालने की अद्भुत क्षमता युवाचार्यश्री में है।
____ कथा के माध्यम से जो अवबोध उन्हें इष्ट है वह मार्मिक ढंग से प्रस्तुत हुआ है। कथाओं का प्राण है उनका निगमन । वह प्राण ही दूसरों को अनुप्राणित करता है और यह महाप्रज्ञ की कथाओं की विशेषता है । उपन्यास
___ साहित्यिक विधाओं में आज उपन्यास सबसे अधिक लोकप्रिय तथा महत्त्वपूर्ण विधा मानी जाती है। जीवन और जगत् की जितनी महत्त्वपूर्ण और सही झांकी उपन्यास में संभव है उतनी अन्य किसी विधा में नहीं। इसमें पात्रों के माध्यम से रोचक शैली में बहुत कुछ कहा जा सकता है।
यद्यपि युवाचार्यश्री उपन्यास लेखक नहीं हैं और न ही उनकी इसमें रुचि है। किंतु उन्होंने 'निष्पत्ति' नामक एक छोटा-सा उपन्यास लिखा है। यह उपन्यास आकार में लघु होते हुए भी जीवन की नई व्याख्या प्रस्तुत कर मानव-चरित्र के अनेक चित्रों को प्रस्तुत करता है। यह दार्शनिक शैली में लिखा गया विचार-प्रधान उपन्यास है जो हिंसा-अहिंसा की अवधारणा को स्पष्ट कर मानवीय जीवन के अनेक रहस्यों का समाधान प्रस्तुत करता है। इसमें स्थूल मनोरंजकता नहीं, अपितु जीवन के उन्नयन का दिशा-निर्देश है। 'श्रमण महावीर' पुस्तक यद्यपि जीवनी रूप में है, पर भाषा-शैली की दृष्टि से वह उपन्यास की भांति रोचक और प्राणवान् है । पत्र साहित्य
हिंदी में पत्र साहित्य का महत्त्व इसलिए मान्य है कि पत्र-लेखक मुक्त होकर अपने आपको इसमें व्यक्त करता है । युवाचार्यश्री ने संस्कृत तथा हिंदी में अनेक लम्बे पत्र आचार्यश्री को संबोधित करके लिखे हैं जिनको साहित्यिक पत्र कहा जा सकता है। साधु-साध्वियों के नाम से भी उन्होंने यदा-कदा आवश्यकतावश पत्र लिखे हैं। वे संबोधित व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन के लिए तो उपयोगी हैं ही किंतु उनसे हरेक व्यक्ति आत्मजागृति, सादगी, संयम और सर्जन की नई प्रेरणा ले सकता है। युवाचार्यश्री का पत्र-साहित्य अभी तक प्रकाशित नहीं हो सका है । यत्र-तत्र पत्रिकाओं में कुछ पत्र प्रकाश में आए हैं ।
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प्रस्तुति
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उनमें जो सहज-सरल भावाभिव्यक्ति हुई है, वह अपूर्व है।
इस प्रकार इन सब विधाओं में जो विचार व्यक्त हुए हैं वे युग-युग तक जनता का पथदर्शन करने में सक्षम हैं । काव्य साहित्य
___ काव्य एक ऐसी धारा है जिसमें अवगाहन करने वाला स्व और पर की सीमा से ऊपर उठकर लोकोत्तर आनंद में डुबकी लगाता है। इसलिए इसे ब्रह्मानंद-सहोदर की संज्ञा दी गयी है । काव्य आत्मा की संकल्पात्मक तथा संवेदनात्मक अनुभूति है। युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ अत्यंत नपे-तुले शब्दों में काव्य की परिभाषा करते हुए कहते हैं-'चेतना के महासिंधु में पवन का प्रवेश और उत्ताल ऊमिजाल का उच्छलन यही है काव्य की परिभाषा ।' एक अन्य स्थान पर वे ते लिखते हैं-संवेदना से जो निकलता है और जो दूसरों में संवेदना भर देता है-वही है काव्य । युवाचार्यश्री दार्शनिक हैं, लेखक हैं पर कवि नहीं हैं और न ही वे इसमें इतना रस लेते हैं, किन्तु अपनी विशेष अनुभूति और संवेदना को उन्होंने जब भाषा का परिधान पहनाया वह स्वतः काव्य बन गया। इसी बात को वे स्वयं भी फूल और अंगारे' पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं----'कविता मेरे जीवन का प्रधान विषय नहीं है। मैंने इसे सहचरी का गौरव नहीं दिया। मुझे इससे अनुचरी का-सा समर्पण मिला है। मैंने कविता का आलंबन तब लिया जब चिन्तन का विषय बदलना चाहा, मैंने कविता का आलंबन तब लिया जब थकान का अनुभव किया ।'
इतना होते हुए भी युवाचार्यश्री के काव्य साहित्य में वेधकता है, नवीनता है और गहन अनुभूति है। 'कवयः क्रान्तदर्शिनः' यह सूक्त युवाचार्यश्री के काव्य में चरितार्थ होता है । उन्होंने ओजस्वी और कान्तवाणी में समाज की अनेक बुराइयों को झकझोरा है। वे रूढिवादिता और पुराणपंथिता को छोड़कर कुछ नया करने का आह्वान करते हुए लिखते हैं
पुराने घर को फूंक डाल, जहां अंधेरा है । पुराने साथियों को छोड़ दे, जो रूढिवादी हैं। पुराने नेता के सामने मत झुक, जो देशद्रोही हैं। नया संसार जो बसाना है........
युवाचार्यश्री के काव्य की भाषा एक ओर सरल, सुबोध, और एवं सुगम है तो कहीं-कही जटिल, रहस्यमय एवं दुर्गम भी है । भाषा की जटिलता; प्रयत्नजन्य नहीं किंतु विषय के अनुसार सहज ही प्रयुक्त हो गई है। दिनकर अपने 'काव्य की भूमिका' ग्रंथ में लिखते हैं कि गहन गंभीर अनुभूतियों को अत्यधिक सरल बनाने की इच्छा सदैव साधु नहीं होती। अनेक बार हम ऐसी अनुभूतियों के सामने आ जाते हैं जिन्हे यदि बहुत सुस्पष्टता से लिखने की
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
कोशिश की जाए तो उनका मिथ्या रूप ही चित्रित हो जाता है । युवाचार्यश्री ने भाव के अनुसार उचित भाषा एवं शब्दों का प्रयोग अपने काव्य में किया है । गहन बात को संक्षेप में कह देना युवाचार्यश्री की विशेषता है । आज के आतंकवादी एवं हिंसक शक्तियों पर एवं करारा व्यंग्य कसा है
उन्होंने कितना संक्षिप्त
कितना समझदार है तलवार बनाने वाला और कितना मूर्ख है तलवार चलाने वाला बनाने वाले के लिए तलवार रोटी है चलाने वाले के लिए तलवार कसौटी है ॥
उनके काव्य में अलंकार और रसों का प्रयोग भी प्रयत्नजन्य नहीं, किन्तु सहज रूप में कहीं कहीं हुआ है । 'गूंजते स्वर बहरे कान' की भूमिका में अपने काव्य की समीक्षा वे इन शब्दों में करते हैं- न मैंने शब्दों का जाल रचा है और न तुकों की अपेक्षा रखी है, उसे सहज गति से बहने दिया है । हृदय की अनुभूति शब्दों में ही ढक जाए, वह हजारों हृदयों का स्पर्श ही न कर पाए, वैसी कोई भी धारा मुझे अपना नहीं बना सकी, इसलिए ये मेरी
कविताएं किसी भी धारा से घिरी हुई नहीं हैं ।
उदाहरण के लिए इन दो कविताओं को देखा जा सकता है
( १ ) जल चाहता है मुझे कोई न बांधे
अन्न चाहता है मुझे कोई न रांधे पवन चाहता है मुझे कोई न रोके मन चाहता है मुझे कोई न टोके पर जल प्रकाश देता है बंधकर अन्न स्वाद देता है रंधकर पवन तारता है रुककर मन उबारता है झुककर । (२) अग्नि जलती है
पर इसलिए नहीं कि
पतंगा उसमें गिरकर जल जाए । वह जलती है
इसलिए कि
उसे देख
हर कोई संभल जाए
उन्होंने अपने गद्य साहित्य की भांति काव्य में भी युग निर्माण की सूक्ष्म चेतना को अभिव्यक्ति दी है । इसीलिए उसमें सत्यं शिवं, सुंदरं का समावेश है । उन्होंने उन्हीं विषयों को अपने काव्य का माध्यम बनाया है जो प्रेरक हो,
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प्रस्तुति
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तलस्पर्शी हो, मार्मिक हो तथा बोधगम्य हो। कवि का सबसे बड़ा गुण होता है-कल्पनाशीलता। भावों की उपज के बिना कविता नहीं लिखी जा सकती। कल्पना द्वारा सामान्य विषय का वर्णन भी अद्भुत, रोमांचक और आनंददायक बन जाता है। दार्शनिक होने के कारण कल्पनाशीलता तो उनका नैसर्गिक गुण है और इसी कारण सामान्य कल्पनाओं से हटकर नई कल्पनाएं भी उनके काव्य में मिलती हैं। वे असलियत एवं वास्तविकता से जुड़ी हुई हैं। जीवन के चरमदर्शन को उन्होंने कितने सरल शब्दों में व्यावहारिक उदाहरणों से व्यक्त किया हैघोडा खडा रहा
सौरभ चल बसा। आरोही उड चला। बाती धरी रही। पिंजरा पडा रहा
ज्योतिपुंज ज्योतिपुंज से जा मिला । पंछी उड चला। फूल लगा रहा
अपने आराध्य गुरु की अर्चना भी उन्होंने केवल प्रशस्ति रूप से नहीं की है, अपितु वास्तविक एवं यथार्थ शब्दों में की है। इसमें काव्य के शब्द सामान्य, पर भावों की गरिमा अद्भुत है। एक स्थान पर वे प्रभु की अर्चा इन शब्दों में करते हैं
मेरे देव ! मैं तुम्हारी पूजा इसलिए नहीं करता कि तुम बहुत बड़े हो किन्तु इसलिए करता हूं कि तुम मुझ तक पहुंचते हो।
भगवान के कर्तव्य पर व्यंग्य करने वाली यह कविता दार्शनिक होने पर भी कितनी वेधक है--
मेरे भगवान् ! हजारों वर्ष बीत गए हां और ना के बीच में झूलता तुम्हारा अस्तित्व आज भी प्रश्न चिह्न बना हुआ है। दीनता और दरिद्रता के सागर में डूबी हुई तुम्हारी भक्तमंडली को देख क्या मैं कह सकता हूं कि तुम दयालु हो ? तुम्हारी सृष्टि की दुर्व्यवस्था देख मैं नहीं कह सकता कि तुम कुशल कारीगर हो ।
इस प्रकार विमल चित्त से उद्भूत उनका काव्य सत्यं, शिवं, सुंदर का विशद चित्र हमारे सामने प्रस्तुत करता है जो मानव मन में उदात्त भाव
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
जगाकर उच्चता की ओर प्रस्थान करने की अद्भुत क्षमता रखता है।
उनका चिंतन आज की प्रगतिशील विचार-धारा से ओतप्रोत है, किन्तु इसमें भारतीय संस्कृति की विरासत तथा पुराने मूल्यों के स्थापना की बात सर्वत्र मिलती है। जीवन से दूर हटकर किसी भी बात को उन्होंने अपने साहित्य में स्थान नहीं दिया। पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार साहित्य जीवन की व्याख्या है, यह वाक्य उनके साहित्य में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। इसीलिए हर जीवित व्यक्ति को उनका साहित्य उद्वेलित और प्रभावित करता है। उन्होंने साहित्य में ऐसे चिरंतन सत्यों को उकेरा है जिसके समक्ष देशकाल का आवरण किसी भी प्रकार का व्यवधान उपस्थित करने में अक्षम और असफल रहा है।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी कहते हैं, जो वाग्जाल साहित्य मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता से न बचा सके, जो उसकी आत्मा को तेजोदीप्त न बना सके, हृदय को परदुःखकातर और संवेदनशील न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है। इस दृष्टि से युवाचार्यश्री का साहित्य जहां एक ओर आत्मोत्थान की प्रेरणा देता है, वहीं दूसरी ओर पुरुषार्थी बनकर शक्तिशाली बनने का आह्वान करता है। करुणा, संवेदना और अहिंसा की बात तो उनके हर विचार के साथ जुड़ी हुई है।
आजकल चिकित्सक व्याधिग्रस्त व्यक्तियों को साहित्य न पढ़ने का परामर्श देते हैं क्योंकि उसमें कुंठा, विकृति, संत्रास आदि के स्वर ही मिलते हैं, प्रसन्न अभिव्यक्ति के नहीं। इस दृष्टि से युवाचार्य का साहित्य नूतन प्रभावोत्पादक है। क्योंकि इसमें समग्र जीवन रूपान्तरण की अभिव्यक्ति है। निष्कर्षतः उनके साहित्य में कोमलता, ग्राह्यता, मौलिकता, अनुकूलता, प्रेरणा आदि मौलिक गुण हैं।
हमने उनके साहित्य को सात विभागों में विभक्त किया है - (१) प्रेक्षा साहित्य (२) व्यक्ति और विचार (३) दर्शन और सिद्धांत (४) विविधा (५) गद्य-पद्य काव्य (६) कथा साहित्य (७) संस्कृत साहित्य ।
इन विभागों के अन्तर्गत उल्लिखित पुस्तकों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
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१. प्रेक्षा साहित्य
इसके अन्तर्गत ३६ पुस्तकों का परिचय है। देश के विभिन्न स्थानों में प्रेक्षाध्यान-शिविरों में प्रदत्त प्रवचनों के आधार पर इनकी रचना हुई है। इनमें योग और ध्यान के विविध पहलुओं पर वैज्ञानिक संदर्भ में प्रकाश डाला गया है।
इन पुस्तकों में हैमन और चित्त को साधने की विविध प्रक्रियाएं । श्वास, शरीर और इन्द्रिय पर नियंत्रण करने का उपाय। तनावों से होने वाले परिणामों की अवगति और उनसे छुटकारा पाने के प्रयोग। आवेश और आवेग से मुक्त होने का सरल मार्ग । ध्यान के सभी घटकों का यथार्थ ज्ञान । सोचने की सही प्रक्रिया का ज्ञान । व्यक्तित्व के संपूर्ण रूपान्तरण के सूत्र । मानसिक शक्ति और कार्य-क्षमता को विकसित करने के निर्देश । संघर्षों को झेलने की क्षमता का विकास-पथ ।
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कसे सोचें ?
हर व्यक्ति सोचता है, पर कैसे सोचना चाहिए यह कम व्यक्ति ही जानते हैं । जिसने सही सोचना जाना है, उसका व्यक्तित्व निखरा है और सबके लिए अनुकरणीय बना है। किसी का चिंतन चिंता में परिणत होकर तनाव भी पैदा कर सकता है और किसी का चिंतन दुःख की स्थिति में सुख की सृष्टि भी कर सकता है। इसलिए चिंतन सफलता और असफलता का मुख्य घटक है । अचितन की स्थिति तक पहुंचना है, किंतु इससे पूर्व सही चिंतन कैसे करें, यह जानना आवश्यक है।
चिंतन के दो प्रकार हैं-विधायक या रचनात्मक तथा निषेधात्मक या ध्वंसात्मक । कैसे सोचें-यह सोचने की दिशा को परिष्कृत कर मनुष्य को रचनात्मक चिंतन में प्रविष्ट करता है। विधायक चिंतन से मन ही नहीं शरीर और भाव भी स्वस्थ रहते हैं और निषेधात्मक चिंतन से मन ही नहीं, शरीर और भाव भी रोग ग्रस्त हो जाते हैं ।
सम्पूर्ण पुस्तक तीन खंडों में विभक्त है --- १. कैसे सोचें ? २. हृदय परिवर्तन : प्रक्रिया और आधार ३. भय-मुक्ति।
प्रथम खंड के प्रवचनों में स्वस्थ चितन करने की प्रक्रिया के सूत्र निर्दिष्ट हैं। इसमें चिंतन प्रतिक्रिया-मुक्त, संदेहरहित, तनावमुक्त, सापेक्ष तथा सहज कैसे बनाया जाए, इसका विवेचन है।
__दूसका खण्ड हृदय परिवर्तन से सम्बन्धित है । जो कार्य कानून और शस्त्रास्त्रों की शक्ति नहीं करा सकती वह हृदय परिवर्तन द्वारा हो सकता है। किन्तु हृदय-परिवर्तन भी चिंतन के रूपांतरण से होता है। प्रस्तुत खण्ड मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । इसके १० निबंधों में हृदय-परिवर्तन के विशिष्ट प्रयोगों का उल्लेख है।
तीसरा खण्ड लघु पर अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । भय व्यक्ति के चिंतन को विकृत कर देता है, शरीर के प्रावों को बदल देता है। अतः भय-मुक्त कैसे बनें यह विशद विवेचन तृतीय खण्ड के पांच निबंधों में हुआ है। इस प्रकार यह ग्रंथ सोच और चितन में एक नई स्फुरणा लाने वाला महत्त्वपूर्ण वैचारिक ग्रन्थ है।
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प्रक्षा साहित्य
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किसने कहा मन चंचल है ?
बड़े-बड़े दार्शनिकों और विद्वानों ने मन को चंचल मानकर उसे स्थिर करने के उपायों का निर्देश किया है। किन्तु इन सबसे हटकर युवाचार्य श्री कहते हैं-किसने कहा मन चंचल है ? यही इस पुस्तक का शीर्षक बन गया है । पुस्तक के वाच्यार्थ का सार प्रस्तुत करते हुए युवाचार्यप्रवर लिखते हैं
'शांतिपूर्ण जीवन जीने के लिए मैं प्रस्थान-त्रयी में विश्वास करता हूं। पहला प्रस्थान है --- मन को समझना । दूसरा है- उसे सु-मन बनाना और तीसरा है उसे अ-मन में बदल देना । प्रस्तुत पुस्तक में इस प्रस्थान-त्रयी की संक्षिप्त-सी चर्चा मैंने की है। केवल मन की चंचलता की उलझन में फंसे हुए लोग मन की वास्तविकता को नहीं समझ सकते । चित्त की वास्तविकता को जाने बिना मन की वास्तविकता जानी नहीं जा सकती। चित्त की परिक्रमा करने, मन को समझने में यह पुस्तक कुछ सहारा दे सकती है।'
मन स्वयं चंचल नहीं है । उसको चंचल बनाने वाले अनेक घटक हैं। जब वे इसका स्पर्श करते हैं तब मन चंचल होता है । जब यह बात स्पष्ट हो जाती है तब चैतन्य-विकास की आकांक्षा तीव्र बनती है और साधक उस प्रस्थान-त्रयी के लिए समर्पित हो जाता है ।
यह बहु-पठित और बहु-चचित पुस्तक अध्यात्म योग की कुछ नई दिशाएं उद्घाटित करती हैं और विज्ञान के संदर्भ में अध्यात्म को समझने में सहयोग देती है । अध्यात्म और विज्ञान को सर्वथा विभक्त कर नहीं देखा जा सकता ।
इस ग्रन्थ में तीन शिविरों के प्रवचन संकलित हैं। इसके तीन खंड हैं। उनमें इकतीस प्रवचन हैं । पहला खंड है-दर्शन का नया आयाम । यह खंड 'अस्तित्व की खोज : सम्यग्दर्शन' से प्रारंभ होता है और दायित्व का बोध' में परिसमाप्त होता है। दूसरा खण्ड है---शक्ति का जागरण । इसमें शक्ति-जागरण के सूत्रों, साधना की निष्पत्ति, शक्ति-जागरण का मूल्य और प्रयोजन के विषय में विशद चर्चा है। तीसरा खण्ड है-मानसिक प्रशिक्षण । इस में चेतना के तीन आयामों की चर्चा है। पहला है--इन्द्रिय चेतना का आयाम, दूसरा है --- मनश्चेतना का आयाम और तीसरा है - द्वन्द्वातीत चेतना का आयाम । द्वन्द्र पांच हैं....
१. लाभ और अलाभ का द्वन्द्व । ४. निंदा और प्रशंसा का द्वन्द्व । २. सुख और दुःख का द्वन्द्व । ५. मान और अपमान का द्वन्द्व । ३. जीवन और मरण का द्वन्द्व ।
चेतना के इस तीसरे आयाम की साधना के साधक-बाधक तत्वों की चर्चा प्रस्तुत अध्याय में है । इस प्रकार यह ग्रंथ रन और चित्त के विभिन्न पहलु भों का मनोवैज्ञानिक विवेचन प्रस्तुत करता है।
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
मन के जीते जीत
'मन के जीते जीत' पुस्तक का नाम जितना आकर्षक है, उतनी ही आकर्षक शैली में विषय का प्रतिपादन हुआ है । प्रस्तुति में मन का विश्लेषण करते हुए लेखक कहते हैं-मन को जीतना जितना आसान है, उतना ही कठिन है। आसान इसलिए कि वह हमारी आन्तरिक चेतना का विनम्र आज्ञाकारी कर्मकर है । उसको जीतना तव कठिन हो जाता है जब हम उसी को सर्वोच्च चेतना के रूप में स्वीकृति दे देते हैं । उसमें उसका कोई दोष नहीं है। यह हमारे ही अज्ञान का फलित है। हम मन को जीतने का अभियान प्रारंभ करें उससे पहले अपने अज्ञान की तमिस्रा को निरस्त करें।
प्रस्तुत पुस्तक में अपनी भ्रांति के आवरण को दूर करने की दिशाएं निदर्शित हैं। हर आदमी मन को वश में करना चाहता है, किंतु सही दिशादर्शन के अभाव में परिस्थिति के आते ही वह मन के सामने हार जाता है । प्रस्तुत पुस्तक में मन के साथ युद्ध की एक अभिनव प्रक्रिया बताई गई है। लेखक का अभिमत है कि 'निश्चयपूर्वक कोई नहीं कह सकता कि मन से लड़ने वाला मन को जीत लेता है। मन की उपेक्षा करने वाला, उसे देखने वाला तटस्थ होता है, मध्यस्थ होता है । उपेक्षा की बात कितनी बड़ी होती है, उसे कोई झेल नहीं सकता। मन भी उसे नहीं झेल सकता और वह किसी लड़ाई के बिना अपने आप पराजित हो जाता है।'
इस कृति में २८ निबंध हैं । ये सभी विजय-अभियान के प्रेरक हैं। इनमें व्यावहारिक धरातल से हटकर कुछ नवीन तथ्यों की भी प्रस्तुति हुई है। जैसे-करने, बोलने तथा सोचने का मूल्य सभी जानते हैं किंतु इसमें न करने, न बोलने तथा न सोचने के मूल्य से पाठक को अवगत कराया गया है । इसको पढ़ने का अर्थ है मन को जीतना ।।
इस ग्रन्थ के आठ संस्करण हो चुके हैं जो इसकी लोकप्रियता और मनुष्य की मन को जीतने की तमन्ना के साक्ष्य हैं। मन को जीतने की बात सबको प्रिय है। मनुष्य हारना नहीं चाहता । वह हर क्षेत्र में विजयी बनने को उत्सुक है। उसी उत्सुकता की पूर्ति का पथ उपलब्ध है इन विभिन्न निबंधों में । यही इस कृति की प्रियता का रहस्य है।
एकला चलो रे
पुलिस एकेडेमी, जयपुर के माध्यम से पुलिसकर्मियों के बीच एक शिविर आयोजित हुआ। उस में पुलिस के जवानों से लेकर इन्स्पेक्टर ग्रेड तक के अधिकारियों ने भाग लिया। यह शिविर पन्द्रह दिन तक चला। उसमें जो
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विचार-मंथन हुआ, वह इस पुस्तक में गुंफित है । इसमें यह बताया गया है कि व्यक्ति समूह के बीच में रहता हुआ भी अपने अकेलेपन का अनुभव कैसे करे और समूह की अस्मिता की स्वीकृति व्यक्तित्व की अस्वीकृति से जन्म न ले।
लेखक की दृष्टि में 'मनोबल की कमी व्यक्ति को समूह में अकेला बना देती है, असहाय बना देती है। जिसका मनोबल मजबूत होता है, वह अकेले में भी समूह जैसा अनुभव करता है। भय के संदर्भ में अकेलापन वांछनीय नहीं है। वह वांछनीय है समुदाय के संदर्भ में ।' प्रस्तुत कृति में इसी के विस्तार का विचार-मंथन प्राप्त है।
सम्पूर्ण पुस्तक तीन भागों में विभक्त है१. अध्यात्म की पगडंडियां २. मनोबल के सूत्र ३. ध्यान के सोपान
प्रथम खंड में जागरूकता, मानसिक संतुलन, संकल्प-शक्ति का विकास तथा व्यसन-मुक्ति आदि १० विषयों की चर्चा है। दूसरे खंड --'मनोबल के सूत्र' में · अज्ञात द्वीप की खोज' 'एकला चलो रे,' 'प्राण ऊर्जा का संवर्धन आदि दस प्रवचनों का संकलन है तथा तीसरे खंड में 'हम श्वास लेना सीखें' 'आध्यात्मिक स्वास्थ्य', 'सहिष्णुता के प्रयोग' आदि आठ प्रवचनों का समाकलन
इस प्रकार यह कृति विभिन्न विषयों के माध्यम से व्यक्ति को अकेलेपन की सैद्धांतिक और प्रायोगिक विधियों से अवगत कराती है ।
निष्कर्ष की भाषा में समूह में रहकर भी अकेला रहना और अकेला रहकर भी समूह की अयथार्थता का अनुभव नहीं करना, यही है 'एकला चलो रे' का प्रतिपाद्य ।
आभामंडल
शरीर, मन और चित्त-तीनों का परस्पर गहरा संबंध है। शरीर पौद्गलिक परमाणुओं की अद्भुत संरचना है । मन उससे भी सूक्ष्म परमाणुसंरचना है । चित्त चेतना का एक स्तर है जो इस शरीर और मन के साथ कार्य करता है । चित्त अपोद्गलिक है। शरीर और मन पौद्गलिक हैं । पुद्गल वर्ण, गंध, रस और स्पर्श युक्त होता है। कोई भी परमाणु इनसे वियुक्त नहीं होता।
यद्यपि शरीर और मन पौद्गलिक हैं और चित्त अपौद्गलिक है, फिर भी तीनों सापेक्षता के सूत्र में बंधे होने के कारण परस्पर एक दूसरे को
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
प्रभावित करते हैं । परमाणु के चार गुणों में एक है रंग । यह चित्त को सबसे अधिक प्रभावित करता है। हमारा चित्त नाड़ी-संस्थान में क्रियाशील रहता है और उसका मुख्य केन्द्र है मस्तिष्क । वह अन्तर्जगत् में सूक्ष्म चेतना से जुड़ा हुआ है और बाह्य जगत् में अपने प्रतिबिम्बभूत आभामंडल से । जैसा चित्त वैसा ही आभामंडल और जैसा आभामंडल वैसा ही चित्त, यह समीकरण बनता है। चित्त को देखकर आभामंडल और आभामंडल को देखकर चित्त को जाना जा सकता है।
__ हमारे शरीर के चारों ओर ऊपर-नीचे, दाएं-बाएं रश्मियों की सूक्ष्म तरंगों का जाल जैसा वलय बना हुआ होता है। वह भावधारा के साथ-साथ बदलता रहता है। वह कभी एकरूप नहीं रहता। निर्मलता, मलिनता, संकोच, विकोच --- ये सारी अवस्थाएं उसमें बनती रहती हैं। इनके आधार पर शरीर और मन के स्तर पर घटित होने वाली घटनाएं जानी जा सकती हैं। स्थूल शरीर की घटनाएं पहले सूक्ष्म शरीर में घटित होती हैं। उनका प्रतिविम्ब आभामंडल पर पड़ता है । इसके अध्ययन से रोग और मृत्यु, स्वास्थ्य और बीमारी की जानकारी की जा सकती है।
आभामंडल भावधारा या लेश्या का प्रतिबोधक है। लेश्या ध्यान (कलर मेडिटेशन) के द्वारा आभामंडल के परिवर्तन से व्यक्तित्व और स्वभाव का रूपान्तरण स्वतः हो जाता है। आभामंडल को तेजस्वी और सशक्त बनाया जा सकता है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में आभामंडल के विषय में विभिन्न जानकारियां और उसको देख सकने के प्रयोग निर्दिष्ट हैं। इसके अठारह निबंधों में रंगों का वैज्ञानिक विश्लेषण तथा उनके द्वारा होने वाले अद्भुत परिवर्तनों का विवेचन
परिशिष्ट में रंगों के बारे में विभिन्न महत्त्वपूर्ण जानकारियां दी हैं तथा नैतन्य-केन्द्रों (यौगिक चक्रों) के साथ उनके सम्बन्ध को भी बताया है ।
अहम्
। प्रस्तुत कृति का यह शीर्षक शक्तियों को बढ़ाने का महत्त्वपूर्ण मंत्र है। अर्हता सब में होती है, पर अर्हता की अभिव्यक्ति सबमें नहीं होती। 'अयोग्य: पुरुषो नास्ति'-कोई भी पुरुष सर्वथा योग्यता-शून्य नहीं होता। जो अपनी शक्तियों को अभिव्यक्ति दे पाता है, वह अर्हता को प्राप्त कर लेता है।
आज की सद्यस्क आवश्यकता है कि हम अपनी अर्हताओं का भान करें, उन्हें जानें और फिर उनके प्रयोग की बात सोचें । शत-प्रतिशत अर्हताओं का उपयोग हो नहीं सकता, क्योंकि आदमी के पुरुषार्थ की सीमा है। जो
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२३.
प्रेक्षा साहित्य
व्यक्ति दस प्रतिशत अर्हताओं को भी काम में ले लेता है, वह विश्व का महान् बुद्धिमान् व्यक्ति बन जाता है । पर सारे लोग इतना भी नहीं कर पाते ।
प्रस्तुत पुस्तक में अर्ह बनने या अर्हता को अभिव्यक्ति देने के कुछ उपाय निर्दिष्ट हैं । जो व्यक्ति इन उपायों को प्रयोग में लाता है, वह अर्हता को प्राप्त कर 'अर्हम्' या अर्हत्' बन जाता है ।
आत्म-साक्षात्कार की जिनमें तीव्र अभीप्सा है, उनके लिए यह कृति एक अनिवार्य साधन है । इसमें सोलह निबंध हैं, जिनमें विविध प्रकार से चेतना के उन्नयन के उपाय बताए गये हैं । इनमें मुख्य हैं—– 'अपने आपको जानें', 'विकल्प की खोज', 'कार्यसिद्धि के प्रयोग', 'उपाय और परिणाम', 'मन का स्वरूप', 'चित्त और मन', 'चिन्तन और निर्णय', 'चिन्तन और वैराग्य', आदि-आदि ।
अवचेतन मन से सम्पर्क
चित्त और मन दार्शनिक तथा मनोवैज्ञानिक क्षेत्र में बहुचर्चित विषय रहे हैं । प्रस्तुति में स्वयं युवाचार्य श्री इसका पृथक्करण करते हुए कहते हैं'मन स्वयं चेतन नहीं है पर वह चेतन का पूर्ण प्रतिनिधित्व कर रहा है । चित्त और मन की विभाजन रेखा सष्ट है । चित्त चैतन्यधर्मा है और मन चैतन्यधर्मा नहीं है ।'
वर्तमान समस्या के संदर्भ में अनेक ज्वलंत प्रश्न उभर कर सामने आ रहे हैं -
१. मानसिक अशान्ति क्यों ?
२. हिंसा की उग्रता क्यों ?
३. नैतिक चेतना का अभाव क्यों ?
इनको समाहित करना युग की अनिवार्यता है । लेखक की दृष्टि से इन्हें समाहित करने के लिए बौद्धिक और भावनात्मक विकास का संतुलन, विधायक दृष्टिकोण और संबंधों का नया क्षितिज खोजना होगा और अवचेतन और अचेतन मन से संबंध स्थापित करना होगा ।
अचेतन मन में कृष्णपक्ष भी है और शुक्लपक्ष भी है । एक को सुलाना है और एक को जगाना है । अचेतन मन का कृष्णपक्ष है - आवेश, कषाय आदि का उदय और शुक्लपक्ष है -- कल्याण-भाव, हित- चिन्तन, परोपकार, आत्मसाक्षात्कार की भावना । हमें शुक्लपक्ष वाले भाग को जगाना है और कृष्णपक्ष वाले भाग को सुलाए रखना है । शुक्लपक्ष जागते ही अवचेतन मन से सम्पर्क हो जाता है ।
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
इसमें तीन अध्याय हैं१. ज्ञात-अज्ञात, २. मन की सीमा, ३. चेतना के आयाम ।
इन तीन अध्यायों में तेवीस निबंध हैं। इन सब प्रवचनों में अवचेतन और चेतन मन से सम्पर्क साधने के कुछ यौगिक एवं व्यावहारिक सूत्रों का उल्लेख हुआ है । ये साधक के पथ में आलोक-सूत्र बन सकते हैं। . इन निबंधों का अनुशीलन मन के गूढ़ रहस्यों को समझने तथा उसके अद्भुत सामर्थ्य को प्राप्त करने में सहयोगी बन सकता है ।
अप्पाणं सरणं गच्छामि
हर व्यक्ति अपने से अधिक शक्ति-सम्पन्न व्यक्ति की शरण में जाकर त्राण पाना चाहता है। प्राय: सभी धर्म के महापुरुषों ने भिन्न-भिन्न शरणों का निर्देश किया है, किंतु युवाचार्य महाप्रज्ञ 'अप्पाणं सरणं गच्छामि' अर्थात् आत्मा की शरण स्वीकार करने की बात कहते हैं। यह आत्म-विश्वास को वृद्धिंगत करने का महत्त्वपूर्ण सूत्र है। आत्मा की शरण समाधिस्थ और द्रष्टा व्यक्ति ही प्राप्त कर सकता है।
___ मानसिक समस्याओं और तनावों के इस युग में समाधि का अनुभव हर व्यक्ति चाहता है। मनुष्य के सामने अनेक समस्याएं हैं, दुःख हैं । आत्मस्थ बनकर समाधि का अनुभव करना समस्याओं का स्थायी समाधान है। इसी बात को युवाचार्यश्री अपनी भाषा में प्रस्तुत करते हुए कहते हैं-'प्रस्तुत पुस्तक में समाधि और उसकी साधना का निर्देश है । साधना का एक मुख्य सूत्र है- प्रेक्षा । यह समाधि का आदि-बिन्दु भी है और चरम-बिंदु भी। आदि-बिंदु में चेतना की निर्मलता का दर्शन होता है और चरम-बिंदु में चेतना सभी प्रभावों से मुक्त हो जाती है । मध्य-बिंदु में वह प्रभावित और अप्रभावित ---दोनों अवस्थाओं में रहती है ।।
इस बृहत्काय ग्रन्थ में चार शिविरों के प्रवचनों का संकलन चार अध्यायों में विभक्त है
१. समाधि की दिशा में प्रस्थान । २. समाधि की खोज। ३. समाधि की निष्पत्ति । ४. अप्पाणं सरणं गच्छामि ।
इनके अन्तर्गत ३५ निबंध हैं जिनमें समाधि को अनेक आयामों में प्रस्तुत किया गया है। समाधि के मूल सूत्र, समाधि के सोपान, संयम और समाधि, समाधि और प्रज्ञा, अपनी शुद्धि, चैतन्य का अनुभव आदि शीर्षक समाधि के हार्द और उसकी निष्पत्ति को प्रस्तुत करते हैं। जैन परंपरा में
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प्रेक्षा साहित्य
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समाधि शब्द ध्यान के अर्थ में तथा अन्यान्य अर्थों में भी प्रचुरता से प्राप्त है। इस कृति के माध्यम से हम समाधि का पूर्ण ज्ञान और उसकी प्रयोग-विधि को जान सकते हैं।
पुस्तक की महत्ता का अंकन करते हुए स्वयं आचार्य श्री तुलसी कहते हैं'अप्पाणं सरणं गच्छामि' महाप्रज्ञ की उस अनुभवपूत वाणी का संकलन है, जो आत्म-समाधि के क्षणों में उद्गीत हुई है। समाधि की खोज में निकले हुए यायावरों के लिए यह कभी नहीं चुकने वाला पाथेय है । इसका पठन, मनन और निदिध्यासन समाधान की नई दिशाओं का उद्घाटन करेगा और व्यक्ति को अपनी शरण में पहुंचा देगा, ऐसा विश्वास है ।'
अमूर्त चिन्तन मनुष्य का व्यक्तित्व व्यावहारिक और वास्तविक सचाइयों की संयुति है । व्यावहारिक सचाइयों का सम्बन्ध चिंतन से है और वास्तविक सचाइयों का सम्बन्ध अचिंतन से है। चिंतन पुद्गल-स.पेक्ष होता है। वह अमूर्त नहीं होता । जो पुद्गलातीत है वह है अमूर्त । आंतरिक सचाइयों का क्षेत्र परमार्थ है और वह चिंतन से परे है।
मूर्त और अमूर्त-दोनों का क्षेत्र बहुत बड़ा है। जो लोग इन्द्रिय चेतना के आधार पर जीते हैं वे मूर्त चिंतन को जितना महत्त्व देते हैं उतना अमूर्त चिंतन को नहीं । जो लोग परमार्थ सत्य को पाना चाहते है, उन्हें मूर्त से अमूर्त की ओर प्रस्थान करना होगा। यही है अंधकार से प्रकाश की ओर गमन और यही है मृत से अमृत या असत् से सत् की ओर जाना । परम अर्थ अर्थात् मोक्ष लक्ष्य है । वह अमूर्त द्वारा ही प्राप्तव्य है ।
__ प्रस्तुत पुस्तक में मुख्यत: परमार्थ के साधक घटकों का सांगोपांग वर्णन है । वे घटक दो हैं--अनुप्रेक्षा और भावना। मन की मूर्छा को तोड़ने वाले विषयों का अनुचिंतन करना अनुप्रेक्षा है। जिस विषय का बार-बार अनुचिंतन या अभ्यास किया जाता है, उससे मन प्रभावित होता है, संस्कारित होता है । इसलिए उस चिंतन या अभ्यास को भावना कहा जाता है।
अनु+प्रेक्षा शब्द से बना है अनुप्रेक्षा । अनु का अर्थ है बाद में और प्रेक्षा का अर्थ है—देखना, विचार करना । अनुप्रेक्षा का अर्थ है – ध्यान में जो देखा उसके परिणामों पर विचार करना । अनुप्रेक्षा की पद्धति स्वयं को स्वयं के द्वारा सुझाव देने की पद्धति है। इसे आज की भाषा में 'सेल्फ सजेशन' की पद्धति कहा जा सकता है ।
अनित्य, अशरण, एकत्व, संवर, मैत्री, प्रमोद, आदि सोलह भावनाएं हैं । इन के सतत अभ्यास से मन भावित होता है, अनुरंजित होता है और ये
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
संस्कार इतने गहरे में चले जाते हैं कि प्राणी उस भावित सत्य से अनुप्राणित हो जाता है । वह उस सत्य को जीने लगता है और तब उसे सत्य का साक्षात्कार होता है । जो सत्य आज तक ज्ञानगत था, वह व्यवहार में उतरकर व्यक्ति को तमस् से प्रकाश की ओर प्रस्थित कर देता है ।
प्रस्तुत कृति में अनुप्रेक्षा और भावना — दोनों का सांगोपांग प्रतिशदन है । इसमें सतरह अनुप्रेक्षाएं और सोलह भावनाओं का विशद वर्णन है। एकएक अनुप्रेक्षा और एक-एक भावना को समझने के लिए साधक-बाधक तत्त्वों की पूरी जानकारी इसमें है ।
इस कृति के तीन अनुच्छेद हैं । पहले में सोलह भावनाओ का विशद दर्णन है और दूसरे में सतरह अनुप्रेक्षाओं का विवरण है । तीसरे में अनुप्रेक्षा के प्रयोग और पद्धति पर चर्चा है । कोई भी व्यक्ति इस पद्धति से अनुप्रेक्षाओं का अभ्यास कर लाभान्वित हो सकता है ।
लेखक ने मार्मिक ढंग से प्रस्तुत कृति का प्रतिपाद्य इन शब्दों में अभिव्यक्त किया है- 'जिन मनुष्यों ने तमस् से ज्योति की ओर प्रस्थान किया अथवा जो लोग उस दिशा में प्रस्थान करना चाहते है, उनके लिए मूर्त से अमूर्त की ओर जाना अनिवार्य है । उस अनिवार्यता को प्रस्तुत पुस्तक में आकार दिया गया है । जो लोग विभिन्न कारणों से मानसिक कठिनाइयां भोग रहे हैं, उनके लिए यह एक समाधान है और जो मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य बनाये रखना चाहते हैं, उनके लिए यह एक संजीवन है ।'
उत्तरदायी कौन ?
मनुष्य की दृष्टि बहिर्मुखी होती है । वह सदा वाहर को देखती है । इसीलिए आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला चलता है । व्यक्ति अपने दायित्व का अनुभव कम करता है । किंतु प्रत्येक अच्छे कार्य का दायित्व तो वह अपने ऊपर ओढ़ लेता है, पर बुरे कार्य का दायित्व सदा दूसरों पर लाद देता है । सफलता का यश स्वयं ले लेता है और असफलता का आरोप दूसरों पर लगा देता है ।
घटना घटती है । उसके प्रति उत्तरदायी अनेक घटक होते हैं । घटकों का विश्लेषण अनेक दृष्टियों से होता है । विद्वान् लेखक स्वयं अनेक कोणों को प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि व्यक्ति के आचरण और व्यवहार के प्रति उत्तरदायी हैं - आनुवंशिकता, वातावरण और स्थिति । रसायनशास्त्री कहते हैं कि व्यक्ति के आचरण के लिए उत्तरदायी हैं-- शरीरगत रसायन । ईश्वरवादी सारा उत्तरदायित्व ईश्वर पर और कर्मवादी धार्मिक व्यक्ति सारा उत्तरदायित्व कर्म पर थोपता है। कुछ दार्शनिक काल को, कुछ स्वभाव को
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प्रेक्षा साहित्य
और कुछ नियति की उत्तरदायी मानते हैं ।
हमारी दो चेतनाएं हैं। एक है औदयिकभाव से बंधी हुई चेतना और दूसरी है क्षायोपशमिकभाव से बंधी हुई चेतना । इन्हें हम 'कंडीशन्ड माइंड' और 'सुपर माइंड' वह मकते हैं । वास्तव में ये दोनों तथा काल, स्वभाव, नियति आदि तत्त्व प्रत्येक आचरण और व्यवहार के लिए उत्तरदायी हैं । हम इस उत्तरदायित्व को किसी एक तत्त्व पर नहीं लाद सकते । सभी का समवाय ही उत्तरदायित्व ओढ़े हुए है ।
प्रस्तुत कृति में हम स्वतंत्र हैं या परतंत्र,' 'उत्तरदायी कौन ?' 'परिवर्तन मस्तिष्क का' तथा 'अध्यात्म और विज्ञान' आदि १७ प्रवचनों में उत्तरदायी घटकों की चर्चा है । उत्तरदायित्व के विषय में विभिन्न पाश्चात्य एवं भारतीय दार्शनिकों के विश्वारों का सहज-सरल भाषा में इसमें प्रस्तुती - करण है । व्यक्तित्व रूपान्तरण के इच्छुक पाठकों के लिए यह कृति दीपशिखा का कार्य कर सकेगी ।
अपने घर में
'अपने घर में' पुस्तक का यह नाम जितना रोचक, आकर्षक और नवीन है, तथ्यों का प्रतिपादन भी उतनी ही सरस और नवीन शैली में हुआ है । प्रस्तुति में लेखक कहते हैं- 'प्रस्तुत कृति में अस्तित्व और जगत् को समझने का एक दृष्टिकोण प्रस्तुत है । उसका मनन कर आदमी अपने भीतर झांक सकता है और 'अपने घर' में रहने का अधिकार पा सकता है । अपने घर में रहने पर ही मिलती है परम शांति और परम आनन्द ।'
ग्रंथ छह विभागों में विभक्त है—
१. भाव - चिकित्सा
२. पराविद्या
३. जैन धर्म - दर्शन
४. समन्वय का स्वर
५. धर्म के सूत्र ६. विचार का अनुबंध
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प्रथम विभाग 'भाव - चिकित्सा' में संस्कार - जनित रुग्णता को दूर करने के लिए अमोघ सूत्रों का विवेचन है । 'कर सकता है पर करता नहीं,' तथा 'ज्यों की त्यों धर दीन्हीं चदरिया' आदि छह निबंधों में संस्कारों की जटिलता का विवेचन और उनके शोधन के उपाय निर्दिष्ट हैं ।
दूसरे विभाग के पांच निबंधों में पराविद्या से सम्बन्धित विषयोंस्वप्न, ध्वनि, अतीन्द्रिय ज्ञान आदि पर विश्लेषण प्राप्त है ।
तीसरे विभाग में जैन दर्शन के मौलिक तत्त्वों का विवेचन हुआ है । दसों प्रवचन जैन दर्शन और श्रावक के आचार को नए परिवेश में प्रस्तुत करते हैं ।
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
चौथे विभाग के छह निबंधों में समन्वय की नई व्याख्या प्रस्तुत हुई है। विषय शोधपरक होने पर भी व्याख्या बहुत सहज, सरल भाषा में हुई है ।
पांचवा विभाग ‘धर्म के सूत्र' छोटा होते हुए भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण
छठा विभाग प्रकीर्णक रूप में है। इसमें अनेक विषय से सम्बन्धित विचारों का प्रस्तुतीकरण हुआ है। 'विघ्नहरण मंगलकरण', 'प्रभु की प्रार्थना कैसे करें', 'होली' तथा 'भारतीय संस्कृति में राम' आदि चौदह निबंध मानव की सोच में एक नयी क्रांति पैदा करते हैं।
इस प्रकार ढाई सौ पृष्ठों की यह पुस्तक अनेक विषयों का स्पर्श करती हई चलती है। सभी विषय व्यक्ति को अपने भीतर झांकने की प्रेरणा देते हैं और उसे अपने घर को देखने, संवारने और निरंतर उसमें रह सकने का सामर्थ्य देते हैं।
एसो पंच णमोक्कारो
नमस्कार महामंत्र आदि-मंगल के रूप में अनेक आगमों और ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। यह जैन परम्परा का विशिष्ट मंत्र है। इसके पांच पद हैं, जिनमें अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु को नमस्कार किया गया है। यह व्यक्ति-विशेष का नहीं, साधक-अवस्था-विशेष का द्योतक असांप्रदायिक नमस्कार है । संकल्पशक्ति, इच्छाशक्ति और मन की शक्ति को विकसित करने के लिए इस मंत्र की साधना की जाती है। इस मंत्र से होने वाले चमत्कारों की सैंकड़ों घटनाएं लोगों के मुखों से सुनी जाती हैं।
इस महामंत्र पर विशाल साहित्य प्रकाश में आया है। लेखक इसके ऐतिहासिक महत्त्व का उल्लेख करते हुए प्रस्तुति में कहते हैं -- 'अनेक आचार्यों ने इस महामंत्र पर अनेक कल्पग्रन्थ और मंत्रशास्त्रीय ग्रन्थ लिखे हैं। ग्रहशांति. विघ्नशांति, वज्रपंजर आदि विभिन्न दिशाओं में इस महामंत्र का प्रयोग हुआ है। जैन परंपरा में नमस्कार महामंत्र का जितना व्यापक प्रयोग हुआ है उतना अन्य किसी भी मंत्र का नहीं हुआ है। नमस्कार महामंत्र के जैसे जप के प्रयोग मिलते हैं, वैसे ही इसके ध्यान के प्रयोग भी उपलब्ध होते हैं । जैन परंपरा में 'नवपद ध्यान' बहुत प्रसिद्ध है। चैतन्य केन्द्रों पर भी इस मंत्र का ध्यान किया जाता है । पुरुषाकार ध्यान करने की पद्धति भी रही है ।'
बीकानेर के प्रेक्षाध्यान शिविर में नमस्कार महामंत्र के विभिन्न प्रयोग कराए गए और वे बहुत सफल रहे। प्रत्येक पद की चतुष्पाद ध्यान-पद्धति में नए-नए अनुभव हुए और अनेक साधकों ने स्वभाव परिवर्तन का इसे माध्यम माना । नमस्कार महामंत्र का उपयोग आत्मानुभूति के लिए बहुत
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महत्त्वपूर्ण है। इसकी चर्चा प्रस्तुत पुस्तक में है। साथ ही साथ शक्ति-जागरण की चर्चा भी है। इसमें महामंत्र से संबन्धित अनेक पहलू चचित और विश्लेषित हैं। 'जिज्ञासितम्' शीर्षक के अन्तर्गत अनेक प्रश्नों का समाधान किया गया है और वह मंत्रों को समझने में अहंभूमिका निभा सकता है।
इसमें एक विशिष्ट परिशिष्ट है जो महामंत्र के अनेक विषयों पर प्रकाश डालता है। नमस्कार महामंत्र के विभाग, पद, संपदाएं, अक्षरप्रमाण तथा वर्ण और तत्त्व का निर्देश प्राप्त है। नमस्कार महामंत्र की अभ्यास पद्धतियां अनेक हैं। उनका विस्तार से वर्णन परिशिष्ट में है। वीतराग पुरुष की पुरुषाकृति पर नौ पदों का ध्यान कैसे किया जाता है, इसका निर्देशन तथा नौ पदों के अक्षरों पर विभिन्न रंगों के ध्यान का निर्देश भी प्राप्त है। उनके चित्रों और यंत्रों से सज्जित यह परिशिष्ट नमस्कार महामंत्र की सर्वांगीण साधना-पद्धति की विशद जानकारी देता है । इस महामंत्र के बारे में अनेक पुस्तकें प्रकाश में होने पर भी वैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषण करने वाली यह पुस्तक अपने आपमें अद्भुत और प्रथम है ।
चेतना का ऊर्वारोहण
मनुष्य विकसित चेतना वाला प्राणी है । दूसरे प्राणियों में मनुष्य जैसी विकसित चेतना नहीं होती। जिस प्रकार बीज को वृक्ष बनने में लम्बी यात्रा करनी होती है, उसी प्रकार चेतना को भी विकास के शिखर पर पहुंचने के लिए लंबी यात्रा करनी होती है।
चेतना के जागरण के लिए ऊर्जा की ऊर्ध्व-यात्रा करनी होती है। इसी से ज्ञान-चेतना का विकास हो सकता है। जब ऊर्जा का प्रवाह नीचे की ओर जाता है तब काम-चेतना जागृत होती है। काम-केन्द्र की ओर प्रवाहित होने वाली चेतना को ज्ञानकेन्द्र तक ले जाया जा सकता है। इसे ऊर्ध्वगति देना ही साधना का लक्ष्य है।
चेतना के ऊर्ध्व-आरोहण की एक निश्चित प्रक्रिया है। उसके कुछ उपाय हैं । उन उपायों का निर्देश प्रस्तुत पुस्तक में बहुत वैज्ञानिक तरीके से हुआ है।
चेतना के ऊवारोहण या जागरण का प्रथम बिन्दु है--विवेक । दूसरा बिन्दु है-- श्वास के आध्यात्मिक मूल्य को समझना, अमूल्य का मूल्यांकन करना । तीसरा बिन्दु है--शरीर-दर्शन । शरीर-दर्शन के तीन फलित हैं(१) अनासक्ति का विकास (२) तनाव का विसर्जन और (३) मन की स्थिरता । चेतना को ऊंचा ले जाने के लिए शरीर को साधना की दृष्टि से देखना है। हमें यह जानना है कि शरीर में ज्ञानकेन्द्र, ज्ञान-प्रन्थियां कहां हैं ?
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
इनकी साधना के आधार पर ही चेतना ऊपर उठ सकती है ।
ऊर्ध्वारोहण का एक हेतु है-चित्त को समझना तथा उसकी चंचलता को कम करना । वृत्तियों के वर्तुल में घूमने वाला कभी ऊर्वारोहण नहीं कर सकता। ऊर्ध्वारोहण के उपायों का विशद विवेचन प्रथम खंड 'चेतना का ऊर्ध्वारोहण' के अन्तर्गत सात निबंधों में हुआ है।
द्वितीय खंड 'चेतना और कर्म' के अन्तर्गत कर्म के विविध पहलुओं पर वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से प्रकाश डाला गया है। चेतना के निम्न अवतरण में कर्म भी अपनी मुख्य भूमिका अदा करते हैं। अत: उनका स्वरूपबोध और उनसे मुक्त होने के उपायों की चर्चा 'कर्म एक रासायनिक प्रक्रिया', 'कर्म का बंध', 'कर्मवाद के अंकुश आदि १० प्रवचनों में हुई है ।
जीवन की पोथी
जीवन की शुरुआत जन्म से होती है और अंत मृत्यु से होता है । जन्म और मृत्यु के बीच का काल जीवन का क्रीड़ा-काल है। इसी काल में उस जीवन की पोथी का निर्माण होता है। इस पोथी को पढ़े बिना जीवन को समझा नहीं जा सकता। जीवन का उद्देश्य इतना ही नहीं कि सुख-सुविधा पूर्ण जीवन व्यतीत किया जाए, बड़ी-बड़ी भव्य अट्टालिकाएं बनाई जाएं । किंतु यह तो एक खुली पुस्तक के समान है जिसका हर अक्षर स्वार्णाक्षरों से भी लिखा जा सकता है तथा कालिमा से भी पोता जा सकता है।
प्रस्तुत पुस्तक 'जीवन की पोथी' एक अद्भुत ग्रन्थ है जो जीवन को समझने और सफलता पूर्वक व्यतीत करने में मार्ग-दर्शक बनता है।
यह चार खण्डों में विभक्त है१. ईश्वर और मैत्री
३. जीवन की पोथी २. प्रश्न है प्रश्न
४. जागरूकता प्रथम खंड में ईश्वर और मैत्री के अछूते और नए पहलू विवेचित हैं। जैसे क्या मैं ईश्वर हूं ? क्या ज्ञान ईश्वर है ? मंत्री रोग के साथ, मैत्री बुढ़ापे के साथ, आदि-आदि ।
दूसरा खंड अत्यंत व्यावहारिक और उपयोगी है। प्रत्येक लेख का शीर्षक प्रश्न के साथ जुड़ा है। उस प्रश्न का समाधान भी उसी लेख में निहित है। इसके प्राय: सभी लेखों में सामान्य मनोवृत्ति से हटकर प्रतिस्रोतगामी चिंतन हुआ है । जैसे—प्रश्न है अनासक्ति का, प्रश्न है आलोचना का, प्रश्न है आदत बदलने का।
तीसरा खंड 'जीवन की पोयी' में जीवन का विवेचन है। जीवन को तेजस्वी, वर्चस्वी और ओजस्वी कैसे बनाया जा सकता है, इसके कुछेक सूत्रों
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प्रेक्षा साहित्य
का इसमें निर्देश है ।
चौथे खंड में 'जागरूकता' के विविध पहलुओं का मनोवैज्ञानिक एवं वैज्ञानिक विवेचन है । आज के प्रमादी, आलसी और दिशाहीन मानव के लिए यह खंड पथ - दर्शक का काम करता है । इस प्रकार व्यक्तित्व निर्माण के साथसाथ जीवन को समग्रता से कैसे जीया जाये, इसका समाधान यह ग्रन्थ देता है |
मन का कायाकल्प
मन के टूटने, बीमार होने और बूढा होने के तीन कारण हैं- शंका, कांक्षा और विचिकित्सा । तेरापंथ के चौथे आचार्य श्रीमज्जाचार्य ने इन्हीं तीन कारणों का उल्लेख किया है । मनुष्य सदा सशंकित रहता है । वह कहीं विश्वस्त नहीं होता। चाहे पिता-पुत्र को लें, पति-पत्नी को देखें, भाई-भाई को देखें या स्वामी सेवक को देखें, सभी एक दूसरे के प्रति शंकालु रहते हैं । यह आशंका मन को तोड़ देती है ।
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मनुष्य आकांक्षाओं का पुतला है । वह निरंतर कुछ न कुछ चाहता रहता है । उसकी चाह कभी मिटती नहीं । यह चाह उसके मन को जीर्ण-शीर्ण बना देती है । उसका जीवन तनावों से भर जाता है ।
मनुष्य की तीसरी दुर्बलता है विचिकित्सा । इसका अर्थ है फल के प्रति संदेह । इस साधना का फल मिलेगा या नहीं ? कहीं मेरी साधना निष्फल तो नहीं होगी ? इस प्रकार मन सशंकित रहता है ।
ये तीनों दुर्बलताएं मन को तोड़ की पद्धति से सांधा जा सकता है । बूढ़े यौवन दिया जा सकता है ।
डालती हैं । उस टूटे मन को 'कल्प' की
एक शब्द में कहा जा सकता है कि मन के कायाकल्प का एक मात्र साधन है - आराधना । व्यक्ति तनावों से बचे, प्रेय से श्रेय की ओर बढ़े तथा स्वास्थ्य और समाधि को प्राप्त करे । यह है आराधना विधि ।
मन को कल्प पद्धति से नया
प्रस्तुत कृति में लोचन और आत्मलोचन - ये दो अध्याय हैं । इनमें अठारह प्रवचन निबद्ध हैं । ये सब प्रवचन जयाचार्य द्वारा निर्मित चौवीसी और आराधना के आधार पर हुए हैं ।
इस प्रकार इसमें मन के कायाकल्प के विभिन्न सूत्र प्रतिपादित हैं । उनका अनुशीलन कर व्यक्ति अपने टूटे मन को सांधकर अध्यात्म में प्रगति कर सकता है।
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
महावीर की साधना का रहस्य
भगवान् महावीर ने कठोर साधनामय जीवन जीया । उनकी साधना रूढ़ नहीं, किंतु प्रायोगिक थी। उनकी साधना के अनेक सूत्र आगमों में विकीर्ण रूप से मिलते हैं, जिन्हें सामान्य जनता द्वारा ग्रहण करना अत्यंत कठिन है। युवाचार्य महाप्रज्ञ ने उन साधना-सूत्रों के रहस्यों को समझकर इस पुस्तक में उन्हें सरल भापा में निरूपित किया है।
लेखक अपनी प्रस्तुति में इस पुस्तक के रहस्य को उद्घाटित करते हुए कहते हैं--- भगवान् महावीर के युग में जो साधना-सूत्र ज्ञात थे, वे आज समग्रतया ज्ञात नहीं रहे, इसलिए वे अज्ञात हैं । साधना के कुछ सूत्र व्यक्तिशः ज्ञापनीय होते हैं, इसलिए वे सार्वजनिक रूप में ज्ञात नहीं हैं। प्रस्तुत ग्रंथ में उन साधना-सूत्रों का स्पर्श करने का प्रयत्न मात्र है जो अज्ञात से ज्ञात के तल पर आ गए हैं और सबके लिए उपयोगी हैं ।
जैन ध्यान पद्धति के विषय में भिन्न-भिन्न विचार चल रहे हैं । कुछ विद्वान् मानते हैं जैनों की अपनी कोई मौलिक ध्यान पद्धति नहीं रही। कुछ लोग मानते हैं कि जैन साधना पद्धति में ध्यान नहीं, तपोयोग का प्राबल्य रहा है। सन् १९७४ में दिल्ली में साह शांतिप्रसादजी जैन ने आचार्यश्री तुलसी के समक्ष ये विचार रखे और इनकी यथार्थता जाननी चाही। उस समय चार गोष्ठियों में जैन ध्यान-पद्धति का ऐतिहासिक विश्लेषण किया गया । वे सारे प्रवचन इस पुस्तक में संकलित हैं।
प्रस्तुत ग्रन्थ के अध्येता महावीर की साधना को समझने के साथ-साथ उसके परिपार्श्व में बिखरे अनेक सत्यों का भी साक्षात्कार करते चलेंगे। प्रस्तुत पुस्तक के चार अध्याय हैं
१. आत्मा का जागरण २. आत्मा का साक्षात्कार ३. समाधि ४. जैन परम्परा में ध्यानः ऐतिहासिक विश्लेषण ।
साधना के क्षेत्र में शरीर, श्वास, मन और इन्द्रिय को साधना जरूरी है। भगवान् महावीर ने इनको साधा था और यत्र-तत्र उनके मर्मों का उद्घ टन भी किया था। उन कुछेक मर्मों को प्रथम अध्याय के १३ निबंधों में प्रस्तुत किया गया है।
दूससे अध्याय के छह प्रवचनों में ध्यान एवं उससे संबंधित अनेक तथ्यों का विवेचन हुआ है।
___ समाधि नामक तीसरे अध्याय में सामायिक, विनय, ज्ञान, तप, दर्शन एवं चारित्र-इन छह समाधियों का आधुनिक भाषा में निरूपण है।
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प्रेक्षा साहित्य
चौथे अध्याय में जैन परम्परा में ध्यान के ऐतिहासिक स्वरूप का वर्णन है। यह अध्याय केवल ऐतिहासिक दृष्टि से ही नहीं, अपितु अन्य दर्शनों के साथ तुलनात्मक दृष्टि से भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
मैं कुछ होना चाहता हूं प्रस्तुत कृति के प्रतिपाद्य को सटीक और रोचक भाषा में प्रस्तुत करते हुए स्वयं लेखक कहते हैं---मनु य में तीन दुर्बलताएं हैं -- क्रूरता, विषमता और स्वभाव की जटिलता । इन तीनों के परिष्कार के तीन सूत्र हैंकरुणा का विकास, समता का विकास और कषाय-नियमन का विकास ।
दूसरे शब्दों में क्रूरता समाप्त हो और करुणा जागे, विषमता समाप्त हो और समता जागे तथा आवेश समाप्त हो और सहिष्णुता जागे। यही 'मैं कुछ होना चाहता हूं' का प्रतिपाद्य है। जिसमें कम्णा जागती है, वह क्रूरता से छुटकारा पा लेता है। समता का जागरण विषमता की कलुषता को धो डालता है। आवेशों के समाप्त होने पर सहनशीलता बढ़ती है और तब स्वभाव की जटिलता समाप्त हो जाती है। वहीं से व्यक्ति कुछ होने की दिशा में प्रस्थान कर देता है।
आदमी हूं' से संतोष का अनुभव नहीं करता । वह 'कुछ होना' चाहता है । यह चाह अनन्तकाल से है और इसी चाह ने उसे आत्मा से परमात्मा तक पहुंचाया है । पशु में यह चाह नहीं होती। वह आज भी वैसे ही भार ढो रहा है, जैसे दस-बीस हजार वर्षों पहले ढोता था।
__ प्रस्तुत ग्रंथ में इच्छा, आहार, इन्द्रिय, श्वास, शरीर, वाणी और मन-इन सबके अनुशासन-सूत्र उपलब्ध हैं। यह अनुशासन 'कुछ होने' का साधक सूत्र है। इसका फलित है ऊर्ध्वगमन । इसमें १५ विषय प्रतिपाद्य हैं जो व्यक्ति-व्यक्ति को 'कुछ होने' का मार्गदर्शन देते हैं और महाप्रयाण के लिए प्रेरित करते हैं । स्वयं लेख का विश्वास भी इस भाषा में बोलता है कि इस पुस्तक को पढ़कर यदि पाठक 'होने' की दिशा में प्रस्थान करेंगे तो निश्चित ही वे 'होकर' रहेंगे ।
मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता
यदि हमें अपने कर्तृत्व को विकसित करना है और 'मैं हूं अपना भाग्यनिर्माता'- इसको सत्यापित करना है तो हमें निरंतर अप्रमाद या जागरूकता की साधना करनी होगी। जो प्रमत्त है, दूसरों के प्रभावों से घिरा हुआ है, उनसे प्रभावित होता है, उसका सूत्र है -- 'वे हैं मेरे भाग्य-निर्माता ---- ऐसा
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
व्यक्ति कभी भाग्य का निर्माण नहीं कर सकता।
लेखक की दृष्टि में दो समस्याएं हैं। एक ओर है अहंकार की समस्या और दूसरी ओर है हीन भावना की समस्या । कुछ विचारक कहते हैं कि 'मैं हूं अपना भाग्य-निर्माता.-ऐसा मानना अहंकार से ग्रस्त होना है। कुछ कहते हैं-मैं कुछ नहीं हूं, सब कुछ परमात्मा का कर्तृत्व है । परमात्मा ही भाग्य का निर्माता है—ऐसा मानना हीन भावना का द्योतक है।
जैन दर्शन ने अंहकार को भी नहीं स्वीकारा और हीन भावना को भी स्वीकृति नहीं दी। उसका प्रतिपादन है कि आत्मा ही सुख-दुःख की कर्ता है । आत्मा ही अपना मित्र है और आत्मा ही शत्रु है। दूसरे शब्दों में भाग्य का निर्माता आत्मा है, दूसरा कोई नहीं। व्यक्ति अपने ही अच्छे-बुरे कृत्यों से अच्छे-बुरे भाग्य का निर्माण करता है, इस दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति ही अपने भाग्य के प्रति उत्तरदायी है । यह भाग्यवाद की स्वीकृति नहीं है, किंतु 'भाग्य को बदला जा सकता है, इस बात की पुष्टि है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में २६ निबन्ध हैं। उनमें जीवन का उद्देश्य, विद्युत् का चमत्कार, चेतना का रूपान्तरण, कुंडलिनी जागरण का अभियान, स्वास्थ्य और प्रसन्नता आदि-आदि विषय भाग्य-निर्माण के घटक हैं । उनका अनुशीलन और घटक तत्त्वों का जीवन में प्रयोग, व्यक्ति के भाग्य को तराश सकता है।
जो व्यक्ति अपने उत्तरदायित्व का अनुभव करता है, अपने उद्देश्य के लिए जीता है, वह अपने भाग्य का निर्माण करता है। लोग भाग्य की निष्पत्ति के प्रति जितने लालायित हैं, उतने भाग्य के निर्माण के प्रति नहीं हैं। इसीलिए वे दीन-हीन जीवन व्यतीत करते हैं।
योग साधना भाग्य-निर्माण का घटक तत्त्व है। जिसकी भावधारा निर्मल होती है वह अच्छे भाग्य का निर्माण करता है।
प्रस्तुत ग्रन्थ का अनुशीलन और प्रयोग भाग्य-निर्माण की दिशा में एक शुभ प्रयत्न होगा।
जैन योग
__भारत की तीन मुख्य धर्म-परंपराएं हैं-- वैदिक, जैन और बौद्ध । तीनों की अपनी-अपनी साधना पद्धति है । जैन परंपरा की साधना पद्धति का नाम 'मुक्ति मार्ग' है। इसके तीन अंग हैं—सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र । यही जैन योग है।
आगम ग्रंथों में जैन साधना पद्धति का सूक्ष्म प्रतिपादन प्राप्त है। उनमें साधना के बीज मिलते हैं, किन्तु उनका विस्तार और उनकी प्रक्रियाएं प्राप्त नहीं हैं । इनका विलोप कब कैसे हुआ यह विचारणीय है।
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प्रेक्षा साहित्य
आज तक यह प्रश्न पूछा जाता रहा है कि क्या जैन परंपरा में योग मान्य है ? यदि मान्य है तो उसका प्रतिनिधि ग्रंथ कौनसा है ? जैन योग का स्वरूप क्या है ? इन प्रश्नों को समाहित करने का प्रयत्न किया गया है प्रस्तुत पुस्तक में। इसकी प्रस्तुति में युवाचार्य श्री ने जैन योग के विविध रूपों की चर्चा कालक्रम से की है। साथ ही साथ जैन योग के घटक तत्त्वों का विमर्श करते हुए वे लिखते हैं-जैन योग का प्राचीन रूप है मुक्तिमार्ग या संवर-सूत्र । इस पुस्तक में इस प्राचीन रूप को नए संन्दर्भो में प्रस्तुत किया गया है।
जैन योग के दो घटक तत्त्व हैं--संवर और तप । संवर पांच हैं--- सम्यक्त्व, व्रत, अप्रमाद, अकषाय और अयोग। साधना की ये ही पांच भूमिकाएं हैं। गुणस्थान इन्हीं का एक विकसित रूप है । ध्यान तपोयोग का एक महत्त्वपूर्ण अंग है ।..........."संक्षेप में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि प्रस्तुत पुस्तक के अनुशीलन से जैन योग के विस्मृत अध्यायों की स्मृति सहज हो सकेगी।
__इसके चार अध्याय हैं- १. साधना की पृष्ठभूमि २. साधना की भूमिकाएं ३. पद्धति और उपलब्धि ४. प्रयोग और परिणाम ।
पहले अध्याय में अपनी खोज, अहं-विसर्जन तथा क्रियावाद और प्रतिक्रियावाद के विषय में जानकारी दी गई है।
दूसरे अध्याय में अन्तर्दृष्टि के जागरण के उपायों और उनकी फल-परिणतियों की अवगति देने वाले पांच निबंध हैं, जो अन्तर्दष्टि के क्रमिक विकास की ओर संकेत करते हैं । अन्तर्दृष्टि जागने पर मैं शरीर नहीं हूं, शरीर मेरा नहीं है—यह विवेक चेतना जागती है, एक नई ज्योति मिलती है, सम्यग्दर्शन उपलब्ध होता है, ध्यान की गहराई बढ़ती है और समत्व का जागरण होता है।
तीसरे अध्याय में अन्तर्यात्रा, तपोयोग, भावनायोग, आभामंडल, चैतन्य-केन्द्र, तेजोलेश्या, (कुंडलिनी) तथा आंतरिक उपलब्धियों का परिज्ञान कराया गया है।
__ चौथे अध्याय में तीन प्रयोगों की विशेष चर्चा है.-अहं-विसर्जन, काय-विसर्जन, संकल्पशक्ति । इनके परिणामों की विशद चर्चा भी यहां प्राप्त है। इसके साथ दो महत्त्वपूर्ण परिशिष्ट भी संलग्न हैं--(१) महावीर के साधना-प्रयोग और (२) आचारांग में प्रेक्षा ध्यान के तत्त्व ।
यह कृति जैन योग या जैन साधना पद्धति को समझने का एकमात्र माध्यम है। प्राचीन कृतियां संस्कृत-प्राकृत में हैं, अतः उनको समझ पाना हर एक के लिए संभव नहीं है। यह पुस्तक प्रत्येक व्यक्ति को जैन योग का सरलता से ज्ञान करा सकती है।
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
अनेकान्त है तीसरा नेत्र
जैन दर्शन के आचार्यों ने कहा- प्रत्येक पदार्थ उत्पाद, व्यय और व्य-इस त्रिपदी से युक्त है । कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है जो सर्वथा नित्य हो या सर्वथा अनित्य हो । नित्य को देखने वाली आंख अलग होती है और अनित्य को देखने वाली आंख अलग होती है । इन दोनों आंखों से वस्तु का एक-एक पर्याय दृष्ट होता है । यह पूर्ण सचाई नहीं है । तीसरी आंख से देखने पर पूर्ण सचाई सामने आती है । यह तीसरी आंख है -- अनेकान्त | इसके खुल जाने पर कोई भी पदार्थ नित्य या अनित्य नहीं, नित्यानित्य प्रतीत होने लगता है । यही शाश्वत सचाई है । केवल नित्य भी मिथ्या है, केवल अनित्य भी मिथ्या है, सच है नित्य-अनित्य का समवेत रूप । अनेकान्त के बारे में अपनी नई धारणा प्रस्तुत करते हुए युवाचार्य प्रवर कहते हैं- 'आदमी की दो आंखें हैं। एक है प्रियता की आंख और दूसरी है अप्रियता की आंख । इन दोनों से सचाई हस्तगत नहीं होती । तीसरी आंख है अनेकान्त की। इ समता फलित होती है । यही वास्तविक है ।
अनेकान्त केवल तत्त्वदर्शन ही नहीं है, यह जीवन-दर्शन भी है । यह साधना का महान् सूत्र है ।
अनेकान्त तीसरा नेत्र है, इसलिए कि वह निश्चय की आंख से देखता
है ।
वस्तु सत्य की दृष्टि से तीसरा नेत्र है- ध्रौव्य | आचार की दृष्टि से तीसरा नेत्र है - समता । विचार की दृष्टि से तीसरा नेत्र है - तटस्थता ।
योग की दृष्टि से तीसरा नेत्र (थर्ड आई ) है भृकुटि के मध्य । इसे आज्ञाचक्र भी कहा जाता है । इसका प्रस्तुत कृति में विस्तार नहीं है, किन्तु अनेकान्त के परिपार्श्व में तीसरे नेत्र को उजागर करने का जीवन्त दृष्टिकोण इसमें प्रतिपादित हुआ है ।
अनेकान्तदृष्टि के सैद्धान्तिक स्वरूप से बहुत सारे लोग परिचित हैं, किन्तु उसके व्यावहारिक पहलू से लोग अनभिज्ञ हैं । इसलिए यह महान् दृष्टि सैद्धान्तिक मात्र रह गई । जीवनगत इसका उपयोग भुला दिया गया। इस सिद्धान्त के द्वारा अनाग्रह का विकास किया जा सकता है, विवादों को सुलझाया जा सकता है तथा संघर्ष की चिनगारियों को शांत किया जा सकता
है ।
प्रस्तुत कृति में अनेकांत के व्यावहारिक एवं सैद्धान्तिक पहलुओं पर विस्तार से चिन्तन हुआ है और किन-किन उपायों से इसे जीया जा सकता है, इसके उपाय और प्रयोग भी निर्दिष्ट हैं ।
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प्रेक्षा साहित्य
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सोया मन जग जाए
आचार्यश्री तुलसी ने समाज को अनेक घोष दिए। जैसे - 'निज पर शासन, फिर अनुशासन', 'संयम ही जीवन है' आदि-आदि। उन घोषों से सामाजिक चेतना में नई प्राणशक्ति का संचार हुआ। अमृतमहोत्सव के अवसर पर उन्होंने एक घोष दिया---'नया सबेरा आए, सोया मन जग जाए।' इस घोष ने जन-जन के मन को झकझोरा है। यही घोष इस कृति का शीर्षक बना है।
मन सोता भी है और जागता भी है। हर मनुष्य चाहता है कि वह सुषुप्त न रहे, जागृत रहे । समय-समय पर मानव का पुरुषार्थ भी इस दिशा में होता रहा है। फिर भी मन सोने को अधिक पसंद करता है।
प्रस्तुत पुस्तक में उस सोए मन को जगाने के सूत्र उपलब्ध हैं । इसमें पांच अध्यायों में विभक्त चौतीस निबंध हैं । वे अध्याय इस प्रकार हैं--- १. दृष्टि : सृष्टि
४. चरैवेति चरैवेति २. युद्धस्व
५. विवेक ३. आत्मा की परिधि
प्रस्तुत पुस्तक के प्रथम खंड के सात लेखों में पांच लेख प्रश्नात्मक होने से सहज ही पाठक का ध्यान आकर्षित करते हैं। जैसे-'क्या दुःख को कम किया जा सकता है' ? 'क्या मू को कम किया जा सकता है' ? आदि।
दूसरे खंड 'युद्धस्व' में अभिनव युद्ध की चर्चा है । युद्ध बाहरी शत्रुओं से नहीं, किंतु आंतरिक शत्रु---कामवृत्ति, क्रोध और अहंकार आदि के साथ कैसे किया जाए, उसका सुन्दर और हृदयग्राही विदलेषण हुआ है।
तृतीय खंड के आठ निबन्धों में अनेक रोचक एवं नवीन विषयों का विवेचन हुआ है। जैसे-'समस्या और दुःख एक नहीं दो हैं', 'बहुत दूरी है आवश्यकता और आसक्ति में' आदि-आदि ।
चतुर्थ खंड के लेख विकास के अनेक सोपानों की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं, जैसे ----आत्मतुला की चेतना का विकास, समता की चेतना का विकास आदि ।
पंचम खंड लघुकाय होते हुए भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । प्रत्येक शीर्षक प्रश्न के साथ प्रारम्भ होता है, जो हर पाठक का ध्यान खींचता है । जैसे-- क्या धार्मिक होना जरूरी है ? क्या कष्ट सहना जरूरी है ? आदि-आदि ।
इस प्रकार इस पुस्तक का परिशीलन कर ध्यान के माध्यम से हम सत्य का अवबोध प्राप्त कर सकते हैं तथा मन को जगाकर महान् आत्मा बनने का स्वप्न पूरा कर सकते हैं ।
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
अभय की खोज
युवाचार्यश्री की एक महत्त्वपूर्ण कृति है-कैसे सोचें ? उसका अन्तिम अध्याय है-अभय की खोज । उसी को इस लघु कृति में स्थान प्राप्त है। इसमें छह निबंध हैं१. अभयदान
४. भय की प्रतिक्रिया २. भय का स्रोत
५. रचनात्मक भय ३. भय की परिस्थिति
६. अभय की मुद्रा मनोविज्ञान की भाषा में पलायन एक प्रवृत्ति है और उसका संवेग है भय । पलायन और भय दोनों जुड़े हुए हैं।
भय उत्पन्न होने के चार मुख्य कारण हैं(१) प्राकृतिक नियमों को न जानना । (२) शरीर के नियमों को न जानना । (३) मन के नियमों को न जानना । (४) चेतना के नियमों को न जानना ।
भय के मूल स्रोत भी चार हैं.--सत्वहीनता, भय की मति, भय का सतत चिन्तन और भय के परमाणुओं का उत्तेजित होना ।
भय पर सर्वांगीण विमर्श प्रस्तुत पुस्तक में उपलब्ध है। इसमें भयमुक्ति के उपायों का तथा अभय कैसे बना जा सकता है, इसके सूत्र भी निदिष्ट
जीवन-विज्ञान : शिक्षा का नया आयाम
शिक्षा के चार आयाम हैं- शारीरिक विकास, मानसिक विकास, बौद्धिक विकास और भावात्मक विकास। इन चारों में व्यक्तित्व-विकास के सभी तत्त्व समाविष्ट हैं ।
आज की शिक्षा प्रणाली त्रुटिपूर्ण नहीं, पर अपूर्ण है। उसमें शारीरिक विकास और बौद्धिक विकास का पूर्ण अवकाश है, पर शेष दो विकास उपेक्षित हैं। इन दो आयामों पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता, इसीलिए शिक्षण संस्थान से निकलने वाले विद्यार्थी इन दो में अविकसित रह जाते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि परिवार, समाज और राष्ट्र में लंगड़ापन आ जाता
जीवन-विज्ञान विद्या की एक शाखा है । यह किसी धर्म या संप्रदाय से संबंधित नहीं है। इसका विकास यदि शिक्षा की शाखा के रूप में होता है तो विद्यार्थियों का व्यक्तित्व अखंड हो सकता है । विद्यार्थी में बौद्धिक विकास
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प्रेक्षा साहित्य
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के साथ-साथ भावना के माध्यम से अध्यात्म, सहिष्णुता, उदारता, प्रेम और एकता के भावों का संतुलित विकास कराया जा सकता है। जीवन-विज्ञान एक प्रायोगिक विधि है जो व्यक्तित्व का सम्पूर्ण रूपान्तरण कर सकती है।।
योगशास्त्र, कर्मशास्त्र और धर्मशास्त्र—ये तीनों प्राचीन विद्या की शाखाएं हैं। आधुनिक विद्या की तीन शाखाएं ये हैं--फिजियोलोजी, एनोटोमी और साइकोलोजी । इस प्रकार ये छहों विषय समवेत होकर शिक्षा की पूर्ण प्रणाली का निर्माण करते हैं । बस, यही है जीवन-विज्ञान ।
प्रस्तुत ग्रन्थ में १२ निबन्ध हैं जिनमें शिक्षा की समस्या, उसका समाधान तथा जीवन-विज्ञान के सभी पहलुओं का विशद विवेचन है। उसके कुछेक शीर्षक इस प्रकार हैं
१. जीवन-विज्ञान : क्या क्यों ? २. जीवन-विज्ञान : आधार और प्रक्रिया ३. शिक्षा की समस्या ४. जीवन-विज्ञान की शिक्षा क्यों ? ५. जीवन-विज्ञान और नई नीति ६. जीवन-विज्ञान और सामाजिक जीवन । आदि-आदि ।
जीवन-विज्ञान : स्वस्थ समाज-रचना का संकल्प
मनुष्य के दो रूप होते हैं -सामाजिक और वैयक्तिक । वह अनेक संबंधों के कारण सामाजिक है और जन्मजात वैयक्तिकता के कारण व्यक्ति है । जीवन-विज्ञान शिक्षा का नया आयाम है और उसमें सामाजिक और वैयक्तिक-दोनों पहलुओं का समन्वय है । इसके द्वारा ही आध्यात्मिक, नैतिक और सामाजिक मूल्यों का विकास किया जा सकता है।
शिक्षा और समाज व्यवस्था में गहरा अनुबंध है । वह समाज-व्यवस्था के अनुरूप होकर ही समाज को लाभान्वित कर सकती है। उसका मुख्य काम है--समाज-व्यवस्था को स्वस्थ और गतिशील बनाने वाले व्यक्तियों का निर्माण ।
जीवन-विज्ञान की शिक्षा पद्धति में सोलह मूल्य निर्धारित किए गए हैं । उनमें कुछ सामाजिक, कुछ बौद्धिक, कुछ मानसिक, कुछ नैतिक और कुछ आध्यात्मिक मूल्य हैं । वे ये हैं--
१. कर्त्तव्य निष्ठा ५. सम्प्रदाय निरपेक्षता २. स्वावलंबन
६. मानवीय एकता ३. सत्य
७. मानसिक संतुलन ४. समन्वय
८. धैर्य का विकास
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६. प्रामाणिकता
१०. करुणा
११. सह-अस्तित्व १२. अनासक्ति
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१३. सहिष्णुता
१४. मृदुता
१५. अभय
१६. आत्मानुशासन
इन सोलह मूल्यों के सिद्धांत-बोध से विद्यार्थी अपनी अस्मिता को पहचान सके और सामाजिक न्याय के प्रति समर्पित हो सके, यह कम संभव है । इसके लिए सिद्धान्त और प्रयोग दोनों का समन्वय आवश्यक है । यह समन्वय जीवन-विज्ञान की शिक्षा पद्धति में प्रस्तुत है । जीवन - विज्ञान की पृष्ठभूमि में व्यक्ति और समाज — दोनों को संतुलित मूल्य प्राप्त है ।
नई शिक्षा नीति के परिपार्श्व में शिक्षा के आमूलचूल परिवर्तन के स्वर उभर रहे हैं । केवल पढ़ाने की प्रणाली बदल देने से कुछ नहीं होगा । शिक्षा के स्वरूप को बदलना होगा ।
इस पुस्तक में जीवन विज्ञान को मुख्य तीन संदर्भों में प्रस्तुत किया गया है
१. जीवन - विज्ञान : शिक्षा के संदर्भ में ।
२. जीवन - विज्ञान : व्यापक संदर्भ में ।
३. जीवन-विज्ञान : समाज के संदर्भ में ।
प्रथम खंड के ६ निबंधों में जीवन के साथ शिक्षा का अनुबंध कैसे हो सकता है, इसका उल्लेख है । दूसरे खंड में ११ निबंधों का संकलन है जिनमें जीवन-विज्ञान के विभिन्न पहलुओं पर विमर्श किया है, जैसे- 'सा विद्या या विमुक्तये' 'विद्यार्थी जीवन और ध्यान', 'संवेग नियंत्रण की पद्धति' आदि । तृतीय खंड के ६ प्रवचनों में समाज के संदर्भ में जीवन-विज्ञान की उपयोगिता को व्याख्यायित किया गया है । जीवन-विज्ञान स्वस्थ समाज रचना का संकल्प, समाज का आधार अहिंसा की आस्था, सामाजिक मूल्यों का आधार सत्य, आदि निबंध इसी सत्य को निरूपित करते हैं ।
समाधि की खोज
'समाधि की खोज', यह बृहद् ग्रन्थ 'अप्पाणं सरणं गच्छामि' का ही एक अध्याय है । हर व्यक्ति समाधि चाहता है, किन्तु कार्य असमाधि पैदा करने जैसा करता है । प्रस्तुत पुस्तक समाधि की खोज की दिशा में यात्रायित यायावरों के लिए पथप्रदर्शिका का कार्य करती है ।
इसके दो खंड हैं । प्रथम खंड 'समाधि की दिशा में प्रस्थान' इस शीर्षक के अन्तर्गत नौ निबन्धों में प्रेक्षा ध्यान के विविध पहलुओं का रोचक, सरस और गंभीर विवेचन हुआ है ।
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प्रेक्षा साहित्य
४१ स्वयं लेखक प्रेक्षा की उपादेयता बताते हुए कहते हैं—'साधना का मुख्य सूत्र है---प्रेक्षा । वह समाधि का आदि-बिन्दु भी है और चरम-बिन्दु भी । आदि-बिन्दु में चित्त की निर्मलता का दर्शन होता है और चरम-बिन्दु में चेतना सभी प्रभावों से मुक्त हो जाती है।
दूसरे खंड के दस निबंधों में समाधि के विविध पक्षों का शरीरविज्ञान और मनोविज्ञान के संदर्भ में विश्लेषण हुआ है तथा उसकी प्राप्ति के अनेक उपायों का भी निर्देश है।
समाधि को निष्पत्ति
प्रस्तुत कृति 'अप्पाणं सरणं गच्छामि' पुस्तक का ही एक अध्याय है। इसके दो खंड हैं । प्रथम खंड में १० निबंधों का संकलन है। 'समाधि की निष्पत्ति चित्त शुद्धि है' -इस बात को प्रेक्षा ध्यान के श्वास-प्रेक्षा आदि विभिन्न प्रयोगों के माध्यम से स्पष्ट किया है । तथा अन्त में शुद्ध चैतन्य के अनुभव का उल्लेख है।
द्वितीय खंड में ६ प्रवचन संकलित हैं, जिनमें अनेक सामयिक समस्याओं का समाधान तथा निर्द्वन्द्व होकर आत्मा की शरण में जाने का संकेत है। कृति गंभीर एवं गूढ़ रहस्यों का उद्घाटन करने वाली है। अत: भाषा भी उदाहरण प्रधान न होकर तथ्यात्मक है ।
__ शक्ति की साधना
प्रत्येक आत्मा में अनन्त शक्ति है, यह जैन-दर्शन का मान्य अभ्युपगम है । जब इस शक्ति का साक्षात्कार होता है तब व्यक्ति अपने अभीष्ट को पा लेता है। जब व्यक्ति वीतराग बनता है तब इस शक्ति का स्फोट होता है और अनन्त चतुष्टयी का अनुभव होने लगता है। अनन्त शक्ति का एक अंश मात्र ही जागृत रहता है और शेष शक्ति सुषुप्ति में रहती है। इस स्थिति में जो लाभ मिलना चाहिए वह नहीं मिलता। इसलिए आवश्यक है कि शक्ति का जागरण हो, सुषुप्त शक्ति जागृत हो।
तीन बातें हैं --- शक्ति को जगाना, शक्ति को संभालना और शक्ति का सही उपयोग करना। शक्ति के जागने से घटना भी घटित हो सकती है और दुर्घटना भी घटित हो सकती है। इसलिए शक्ति-जागरण के साथ-साथ उसे संभालने का विवेक भी होना चाहिए। जो व्यक्ति शक्ति को संभाल लेता है, उससे दुर्घटना घटित नहीं होती। इसके बाद शक्ति के सही उपयोग का ज्ञान भी आवश्यक होता है। जब ये तीनों बातें होती हैं तब शक्ति से अनेक
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
उपलब्धियां प्राप्त हो सकती हैं।
प्रस्तुत कृति में शक्ति के इन तीनों आयामों की चर्चा है और कुछ रहस्य-सूत्र भी हैं । इसके पारायण से मनुष्य शक्ति-जागरण की दिशा में प्रस्थान कर अपने आपको शक्ति-सम्पन्न करने में सक्षम हो सकता है। शक्तिसम्पन्नता ही व्यक्ति की क्रियाशीलता को उजागर करती है और तब वह प्रज्वलित आग की भांति दीप्त जीवन जीने में सक्षम होता है ।
समस्या का समाधान
यह द्वन्द्व की दुनिया है। यहां समस्या भी है और समाधान भी है। ऐसी एक भी समस्या नहीं है, जिसका समाधान न हो सके। समस्याएं अनेक प्रकार की होती हैं। आदमी वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं से घिरा रहता है। वह यदि इनका समाधान बाहर ढूंढता है तो असफल होता है । समस्या का सही समाधान अध्यात्म में है।
प्रस्तुत कृति में यह बात उभर कर सामने आती है कि मानसिक और व्यावहारिक समस्याओं का समाधान आध्यात्मिक ही हो सकता है। शेष साधन समाधान के साथ-साथ नई-नई समस्याएं भी प्रस्तुत कर देते हैं । समस्या का स्थायी समाधान लेखक ने अपनी प्रस्तुति में बहुत सटीक शब्दों में इस प्रकार अभिव्यक्त किया है--'हम परिणाम को समाधान न मानें किन्तु उस प्रवृत्ति को समाधान मानें जिससे परिणाम का सृजन होता है । यह मूल तक पहुंचना ही आध्यात्मिकता है। मानसिक और व्यावहारिक समस्या का समाधान आध्यात्मिकता ही हो सकता है । इस सत्य को उजागर करने के लिए ही हम इस पुस्तक को पढ़ें।
___ इस लघु पुस्तक में समस्या के समाधान के अनेक मनोवैज्ञानिक पहलुओं का स्पर्श भी हुआ है जो आधुनिक युग की नई समस्याओं को समाहित करने में समर्थ हैं।
मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि प्रस्तुत पुस्तक में दर्शन और सर्जन का विमर्श प्राप्त है। व्यक्ति की जैसी दृष्टि होती है, उसी के अनुसार सृष्टि की संरचना हो जाती है । मिथ्यादृष्टि सुख में भी दु:ख का सर्जन कर लेती है तथा सम्यक्दृष्टि दुःख में भी सुख देखती है। दृष्टि और सृष्टि का विश्लेषण अनुभूति की भाषा में प्रस्तुत करते हुए लेखक कहते हैं --"जिसे देखना चाहिए वहां दृष्टि नहीं जाती। जिसे नहीं देखना चाहिए, वहां देखने का प्रयत्न होता है। यह कैसा विपर्यय !
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प्रेक्षा साहित्य
४३ कांच में मनुष्य अपने आपको ही देखता है । कब किसने कांच की निर्मलता को देखा ! मेरी दृष्टि है-हम अपने निर्मल चैतन्य को देखने का प्रयत्न करें। उसमें जो प्रतिबिम्ब होगा, वह वास्तविक होगा।
___ सर्जन का मूल मंत्र है - सतत जलते रहना, कभी नहीं बुझना । वही सृष्टि प्रिय हो सकती है जो नए-नए उन्मेष पैदा कर सके, उन्हें संभाल सके, उनका संरक्षण और पोषण कर सके।
प्रस्तुत कृति में दृष्टि और सृष्टि को विविध आयामों में समझाया गया है । इसमें सैंतीस निबंध हैं। उनमें प्रथम पांच श्रमण सूत्र की व्याख्या से सम्बन्धित हैं। विभिन्न विषयों का प्रतिपादन करने वाले शेष निबंध व्यक्ति की दृष्टि को परिमार्जित कर उसे देखने का नया आयाम देते हैं और पुरुषार्थ के लिए प्रेरित करते है । बहुविध विषयों को अपने आप में समेटे हुए यह पुस्तक एक विशिष्ट कृति के रूप में प्रस्तुत हुई है ।
चंचलता का चौराहा
चंचलता के तीन प्रकार हैं-स्मृति की चंचलता, कल्पना की चंचलता और विचार की चंचलता । इनका न होना स्थिरता है । इस पुस्तक में आठ निबंध हैं जिनमें मानसिक स्वास्थ्य के छह पेरामीटर, ध्यान एक पुरुषार्थ आदि निबंध वैचारिक स्तर पर अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । वृत्तियों का वर्तुल क्या है, और उससे छुटकारा पाने का उपाय क्या है, यह सब इस लघु पुस्तक में उत्तरित है । युवाचार्य श्री द्वारा प्रदत्त विभिन्न प्रवचनों से इस लघु पुस्तिका की सामग्री संकलित है । चंचलता और स्थिरता को समझने के लिए यह पुस्तक बहुत उपयोगी है।
ऊर्जा की यात्रा
यह कृति युवाचार्य महाप्रज्ञ की योग-ध्यान विषयक कृतियों से संकलित है । युवाचार्यश्री ऊर्जा के विषय में यदा-कदा, यत्र-तत्र प्रवचन देते रहे हैं, लिखते रहे हैं । उनका एकत्रीकरण इस लघु कृति में है ।
इसमें बारह निबंध हैं। प्राय: सभी निबंध ऊर्जा के विभिन्न पहलू उसके संचयन के उपाय तथा ऊर्ध्वगमन की चर्चा प्रस्तुत करते हैं ।
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
पाहार और अध्यात्म
योग या ध्यान-साधना में आहार का विवेक बहुत अपेक्षित है । आहार के बिना जीवन नहीं टिक सकता। जीवन के बिना ज्ञान, दर्शन और आचार की आराधना नहीं हो सकती । और इस रत्नत्रयी के बिना बंधन-मुक्ति नहीं हो सकती। इसलिए आहार की उपेक्षा नहीं की जा सकती। आहार का विमर्श पांच दृष्टिकोणों से किया जाता है
१. शारीरिक स्वास्थ्य २. मानसिक स्वास्थ्य ३. अहिंसा की आराधना ४. ब्रह्मचर्य की साधना ५. चित्तवृत्ति का परिमार्जन
युवाचार्य श्री ने इन सभी दृष्टियों से आहार का वैज्ञानिक संदर्भ में विमर्श प्रस्तुत किया है। वर्तमान के शरीरशास्त्री और पोषणशास्त्रियों के विचार भी इसमें संगहीत हैं और उनके द्वारा निर्दिष्ट आहार सामग्री का अध्यात्म विकास में क्या योग होता है, इसका महत्त्वपूर्ण विवेचन यहां प्राप्त
आहार केवल शरीर को ही प्रभावित नहीं करता, वह व्यक्ति के मन को भी प्रभावित करता है । इसलिए अध्यात्म के आचार्यों ने भी इस पर बहुत विचार किया है।
प्रस्तुत पुस्तक के २३ निबंधों में इस दृष्टि से बहुत ही सरस, मौलिक और नए तथ्यों का उद्घाटन हुआ है।
प्रेक्षा ध्यान : प्राधार और स्वरूप
प्रेक्षाध्यान प्राचीन जैन साधना पद्धति का नए परिवेश में प्रस्तुतीकरण है। इसका मूल आधार है-जैन आगम, उसके व्याख्याग्रन्थ और ध्यान विषयक उत्तरवर्ती साहित्य । आगम ग्रन्थों में ध्यान के विकीर्ण बीज प्राप्त होते हैं। उन्हीं बीजों को संकलित कर ध्यान की एक नई पद्धति आविष्कृत की गई, जिसे 'प्रेक्षाध्यान' का नामकरण वि० सं० २०३२ जयपुर चातुर्मास में दिया गया। इसके द्वारा श्वास, शरीर, इन्द्रिय और मन को साधा जाता है और फिर इसकी विभिन्न भूमिकाओं को पार करता हुआ साधक ध्यान की उच्च अवस्था का स्पर्श कर लेता है।
इस ध्यान पद्धति का स्वरूप पूर्णत: वैज्ञानिक है और आज के विज्ञान को आत्मसात् करती हुई यह पद्धति आगे बढ़ती है। इसकी सारी अवधारणाएं
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प्रेक्षा साहित्य
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कल्पित नहीं, परन्तु अनुभूत और विज्ञान-सम्मत हैं ।
___ इसका स्वरूप सरल और सुबोध है। इसकी स्वरूप-मीमांसा में अनेक तथ्य अभिव्यक्त हुए हैं। पुस्तक का परिशीलन करने से पूरी पद्धति का अवबोध हो जाता है।
प्रेक्षा ध्यान : श्वास-प्रेक्षा
यह जीवन विज्ञान ग्रन्थमाला का छठा पुष्प है। इसमें श्वास-प्रेक्षा से संबंधित सिद्धान्त और प्रयोगों की विशद चर्चा है। इसके पांच अध्याय हैं
१. श्वास क्या है ? २. श्वास का आलंबन क्यों ? ३. दीर्घश्वास की विधि ४. श्वास-प्रेक्षा के प्रकार ५. श्यास-प्रेक्षा की निष्पत्तियां ।
श्वास-प्रेक्षा प्रेक्षा ध्यान पद्धति का मुख्य घटक है। साधक प्रारंभ में इसी के माध्यम से ध्यान में प्रवेश करता है और जब वह अपने श्वास को जान लेता है, तब उसका मन एकाग्र बनने लगता है । जो श्वास पर नियंत्रण नहीं करता, वह ध्यान में आगे नहीं बढ़ पाता।
यह पुस्तक प्रत्येक ध्यानाभ्यासी के लिए अवश्य पठनीय और मननीय
प्रेक्षा-ध्यान : शरीर-प्रेक्षा
प्रेक्षा ध्यान पद्धति का दूसरा चरण है शरीर-प्रेक्षा।
जब साधक श्वास-प्रेक्षा कर चुकता है तब वह शरीर-प्रेक्षा में प्रवेश करता है। जितनी सूक्ष्मता और गहराई से वह अपने शरीर में निरंतर होने वाले प्रकंपनों को पकड़ने में सक्षम होता है, उतना ही वह एकाग्रता में आगे बढ़ता है और उनके रहस्यों को जान जाता है।
प्रश्न होता है, हम शरीर में क्या देखें ? शरीर में बहुत कुछ है देखने के लिए । शरीर के प्रकंपनों को देखना, उसके भीतर प्रवेश कर भीतरी प्रकंपनों को देखना, मन को बाहर से भीतर में ले जाने की प्रक्रिया है। शरीर में होने वाले संवेदनों को देखने का तासर्य है चैतन्य को देखना, अनुभव करना, आत्मा को देखना, अनुभव करना ।
प्रस्तुत कृति के पांच विभाग हैं:१. शरीर क्या है : वैज्ञानिक दृष्टिकोण
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
२. शरीर क्या है : आध्यात्मिक दृष्टिकोण । ३. शरीर-प्रेक्षा क्यों ? ४. शरीर-प्रेक्षा की विधि । ५. शरीर-प्रेक्षा की निष्पत्ति ।
जो व्यक्ति शरीर-प्रेक्षा का निरन्तर अभ्यास करता है उसके ये निष्पत्तियां सहज हो जाती हैं-प्राण का संतुलन, रोग प्रतिरोधात्मक शक्ति का विकास, स्वास्थ्य की उपलब्धि, जागरूकता का विकास, प्रतिस्रोतगामिता, रूपान्तरण, शरीर का कायाकल्प ।
इस लघु पुस्तिका में दिए गए चित्रांकनों से शरीर की संरचना को समझने में सुविधा होती है । स्वास्थ्य की कामना करने वाले व्यक्ति के लिए यह अवश्य पठनीय है।
प्रेक्षाध्यान : चैतन्य-केन्द्र-प्रक्षा
प्रेक्षाध्यान ध्यान की एक परिष्कृत पद्धति है। इसमें प्राचीन द्रष्टाओं से प्राप्त अवबोध तथा आधुनिक विज्ञान के तत्त्वों का समावेश है। इस प्रेक्षा पद्धति के मुख्य घटक हैं-. श्वास-प्रेक्षा, शरीर-प्रेक्षा, समवृत्ति श्वास-प्रेक्षा, चैतन्य-केन्द्र प्रेक्षा, लेश्या ध्यान और कायोत्सर्ग ।
चैतन्य केन्द्र के बारे में नवीन जानकारी देते हुए लेखक कहते हैंवृत्तियों और वासनाओं का उद्भव मस्तिष्क में से नहीं, अन्तःस्रावी ग्रन्थितंत्र के द्वारा होता है। ये वृत्तियां व्यक्ति में केवल इच्छा या कामना ही पैदा नहीं करतीं, उसकी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए तदनुरूप प्रवृत्ति की भी मांग करती हैं । सारे आवेग, जो भावतंत्र को संचालित करते हैं, वे अन्तःस्रावी ग्रन्थियों के स्रावों से पैदा होते हैं । अन्तःस्रावी ग्रन्थियां ही हमारे चैतन्यकेन्द्र के संवादी स्थान हैं।
शरीर में ऐसे स्थान अनेक हैं जहां आत्म-प्रदेशों का समवाय अधिक है, पुंजीभूत है । इन्हें चैतन्य केन्द्र कहा जाता है । हठयोग में इन्हें चक्र, विज्ञान में साइकिक सेन्टर्स और प्रेक्षाध्यान पद्धति में चैतन्य केन्द्र कहा गया है। ये एक नहीं, अनेक हैं। इनके जागरण से विशिष्ट शक्तियां उपलब्ध होती हैं।
प्रस्तुत पुस्तक के पांच परिच्छेद हैं -- १. चैतन्य-केन्द्र : वैज्ञानिक स्वरूप । २. चैतन्य केन्द्र : आध्यात्मिक स्वरूप । ३. चैतन्य-केन्द्र-प्रेक्षा क्यों ? ४. चैतन्य-केन्द्र-प्रेक्षा-विधि । ५. चैतन्य-केन्द्र-प्रेक्षा की निष्पत्ति ।
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प्रेक्षा साहित्य
इस प्रकार यह पुस्तक चैतन्य- केन्द्र सम्बन्धी पूरी अवधारणा प्रस्तुत करती है और उन-उन केन्द्रों की शरीर में अवस्थिति कहां है, वह चित्रांकन से स्पष्ट होती है ।
प्रेक्षा ध्यान : लेश्या ध्यान
आदमी द्वन्द्व में जीता है । वह कभी अच्छा कार्य करता है और कभी बुरा । वह कभी सत् चिंतन करता है और कभी असत् । उसमें भाव क्यों बदलते हैं ? वह स्थिर क्यों नहीं रहता ? मनोविज्ञान के पास इसके पर्याप्त उत्तर नहीं हैं । लेश्या सिद्धांत के आधार पर इन प्रश्नों का सही समाधान दिया जा सकता है । लेश्या ध्यान रूपान्तरण की प्रक्रिया है । व्यक्तित्व का रूपान्तरण लेश्या की चेतना के स्तर पर ही हो सकता है । जैन दर्शन में छह लेश्याएं मान्य हैं - कृष्ण लेश्या, नील लेश्या, कापोत लेश्या, तेजोलेश्या, पद्म लेश्या और शुक्ल लेश्या । प्रथम तीन लेश्याएं अप्रशस्त और मलिन हैं, शेष तीन प्रशस्त और प्रकाशमय हैं । जिन व्यक्तियों में अप्रशस्त लेश्याओं के स्पंदन जागते हैं, उन व्यक्तियों में हिंसा, ईर्ष्या, घृणा, माया, भय आदि के भाव जागते हैं और जिन व्यक्तियों में तीन प्रशस्त लेश्याओं के स्पंदन जागते हैं उन व्यक्तियों में क्षमा, शान्ति, मैत्री, अभय आदि के भाव जागते हैं । लेश्या ध्यान के माध्यम से लेश्याओं में परिवर्तन किया जा सकता है । इस परिवर्तन से व्यक्ति का जीवन अच्छा बन सकता है । लेश्याओं को बदले बिना जीवन नहीं
.बदला जा सकता ।
प्रस्तुत कृति के पांच विभाग हैं
१. लेश्या क्या है ? आध्यात्मिक दृष्टिकोण
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२. लेश्या क्या है ? वैज्ञानिक दृष्टिकोण
३. लेश्या ध्यान क्यों ?
४. लेश्या ध्यान की विधि ।
५. लेश्या ध्यान की निष्पत्ति ।
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दूसरे विभाग में आभामंडल (ओरा ) के विषय में अनेक रहस्यों की - जानकारी के साथ-साथ रंग - चिकित्सा ( कलर थेरापी) की चर्चा प्राप्त है । विभिन्न रंगों के क्या-क्या गुण-दोष हैं, यह वहां चर्चित है ।
जो व्यक्ति लेश्या ध्यान में प्रवेश कर जाता है, उसमें चित्त की प्रसन्नता, कर्मतंत्र और भावतंत्र का शोधन, पदार्थ - प्रतिबद्धता से मुक्ति, आत्म-साक्षात्कार आदि घटित होने लगते हैं ।
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
प्रेक्षाध्यान और कायोत्सर्ग
प्रेक्षाध्यान की चर्चा आज सर्वत्र है। सहस्रों व्यक्तियों ने इसके अभ्यास से अनेक समस्याओं का अन्त किया है । ध्यान अध्यात्म का सशक्त घटक है। प्रेक्षाध्यान शब्द नया है, पर अर्थ पुराना है, शास्त्रों से अनुमोदित है। यह पद्धति आचारांग आदि में बीजरूप में प्रतिपादित है । इसकी नये रूप में प्रस्तुति बहुत उपयोगी सिद्ध हुई है । विज्ञान के संदर्भ में इसको समझना बहुत सरल हो गया है। इस ध्यान पद्धति के अनेक आयाम हैं --- श्वास-प्रेक्षा, शरीर-प्रेक्षा, चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा, लेश्याध्यान, कायोत्सर्ग आदि ।
कायोत्सर्ग इसी का एक घटक है। यह शारीरिक, मानसिक और चैतसिक स्वास्थ्य का अचूक उपाय है। इसकी व्यवस्थित पद्धति प्रेक्षाध्यान की ही नियोजिका है । ध्यान और कायोत्सर्ग को हम बांट नहीं सकते। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। तनाव से ग्रस्त व्यक्ति के लिए अचूक औषधि के रूप में कायोत्सर्ग का वर्णन जहां सामान्य जनों के लिए हुआ है, वहां कायोत्सर्ग द्वारा भेद-विज्ञान (आत्मा और शरीर की भिन्नता) का वर्णन आध्यात्मिक जनों के लिए हुआ है। अतः यह पुस्तक सर्वोपयोगी सिद्ध हुई है।
ध्यान और कायोत्सर्ग
ध्यान का अर्थ है-मन को एक शब्द, विषय या वस्तु पर एकाग्र करना। यह तभी संभव है जब कायोत्सर्ग का अभ्यास परिपक्व हो जाता है। कायोत्सर्ग का अर्थ है-काया का व्युत्सर्ग । आज की भाषा में इसे शिथिलीकरण या रिलेक्शेसन कहते हैं। इसमें काया के उत्सर्ग के साथ आत्म-चैतन्य को जागृति का सतत आभास बना रहता है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। युवाचार्यश्री ने इन दोनों पर बहुत लिखा है। इस विषय में अनेक योग-ग्रन्थ प्रकाश में आ चुके हैं । इस लघु पुस्तिका में इन दोनों विषयों का सैद्धांतिक
और व्यावहारिक पक्ष उजागर किया गया है तथा इनके लाभ का भी स्पष्ट उल्लेख है। विज्ञान के संदर्भ में इन दोनों की उपयोगिता भी इस पुस्तिका में समझाई गई है । ध्यान और कायोत्सर्ग की प्राथमिक जानकारी के लिए यह पुस्तिका बहुत उपयोगी है।
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२. व्यक्ति और विचार
प्रस्तुत खंड के अंतर्गत महापुरुषों की जीवन-गाथा से संबंधित १० पुस्तकों का परिचय है । महापुरुष देशातीत और कालातीत होते हैं । वे व्यष्टि नहीं समष्टि होते हैं । उनका जीवन इतना विराट् होता है कि उसमें स्व-पर का भेद नहीं रहता । वे सबके और सब उनके होते हैं । इसलिए वे जन्मगत कुल परंपरा से ऊपर उठकर वसुधैक कुटम्बकम् के परिचायक बन जाते हैं । उनका जीवन सीमातीत होता है । वह सबके लिए आदर्श बन जाता है । उनकी जीवन-गाथा को लिपिबद्ध करने का एकमात्र उद्देश्य यही होता है कि उनके महान् बनने के जीवन सूत्रों से सामान्यजन भी मानव बनने की प्रेरणा ले सके और उनके विचारों का अनुगमन कर साधारण मनुष्य भी जीवन में महान् बन सके । इस खंड में श्रमण महावीर, आचार्य भिक्षु, श्रीमज्जयाचार्य, आचार्य तुलसी आदि महान् पुरुषों का जीवन वृत्तान्त, उनकी महान् पदयात्राएं, जीवन संस्मरण और शास्वत विचारों से गुंफित ग्रंथ हैं, जिनका अवगाहन सचमुच व्यक्ति को विरलता प्रदान करता है ।
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श्रमण महावीर
भगवान् महावीर मानव के रूप में अवतरित हुए तथा अपने पुरुषार्थ और साधना के तेज से अतिमानव बनकर जन-जन के आराध्य बन गए। उनके विराट् व्यक्तित्व एवं जीवन को शब्दों में बांधना अत्यंत दुरूह है। स्वयं लेखक की दृष्टि में 'उनका कर्म राज्य-मर्यादा के साथ नहीं जुड़ा, इसलिए राज्य के संदर्भ में होने वाला उनके जीवन का अध्याय विस्तृत नहीं बना। उनका कार्यक्रम रहा अन्तर् जगत् । यह अध्याय विशद है और इससे उनके जीवन की कथा भी विशद बन गई।'
भगवान महावीर राजकीय वैभव में पले, पर उससे अलिप्त रहे । साधना काल के १२ वर्षों में एक ओर अनेक कष्ट सहे तो दूसरी ओर इन्द्र द्वारा सम्मान भी प्राप्त किया, किंतु वे इन सबसे ऊपर उठकर वीतराग बन गए। वे जिस मार्ग पर चले वह राजमार्ग बन गया और हजारों-लाखों व्यक्ति उनके चरण-चिह्नों पर चलकर स्वयं महावीर बन गए। उनकी धर्मदेशना जीवन-यात्रा का पाथेय बन गई।
भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् पौराणिक युग आया और उसमें महापुरुष की जीवन घटनाओं के साथ चमत्कार जोड़े गए। महावीर के जीवन-वृत्त के साथ भी चमत्कारपूर्ण घटनाएं जुड़ीं। उनके परीषहसहन के साथ भी अतिशयोक्तिपूर्ण बातें जुड़ीं। प्रस्तुत जीवन-कथा में उन चामत्कारिक घटनाओं का मानवीकरण किया गया है। इससे भगवान् के जीवन की महिमा कम नहीं हुई है, प्रत्युत् उनके पौरुष की दीपशिखा और अधिक तेजस्वी हुई है।
मनीषी लेखक प्रस्तुति में अपनी कठिनाई प्रस्तुत करते हए कहते हैं कि भगवान् महावीर की जीवनी लिखने में मेरे सामने मुख्य तीन कठिनाइयां थीं
१. जीवन-वृत्त के प्रामाणिक स्रोतों की खोज २. दिगम्बर और श्वेताम्बर परंपरा-भेदों के सामंजस्य की खोज ३. तटस्थ मूल्यांकन
इन तीनों दृष्टियों को ध्यान में रखकर लेखक ने भगवान् महावीर की छोटी-बड़ी सभी घटनाओं का समावेश किया है । उनके बीज यत्र-तत्र "बिखरे हुए मिलते हैं । वे सब प्रामाणिक स्रोतों से गृहीत हैं । कल्पना का सूत्र उनमें इतना-सा है कि कल्पना घटना को सुबोध और सुगम बना दे।
आज तक की प्रकाशित महावीर की जीवन-कथाओं में यह जीवन
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व्यक्ति और विचार
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वृत्त अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। इसकी शैली उपन्यास के ढंग की होने से इसका पठन रुचि को बांधे रखता है । इसमें शताधिक घटनाओं का समावेश है और प्रत्येक घटना या तथ्य के प्रामाणिक स्रोतों का परिशिष्ट भी साथ में है। भगवान् महावीर को समझने में यह पुस्तक अत्यंत उपयोगी है।
महावीर क्या थे ?
भगवान महावीर का जीवन अनेक आयामों में विकसित हुआ था। उनके दीर्घ तपस्वी जीवन और ध्यानी जीवन से हम परिचित हैं । पर वे अभय के अनन्य साधक और पराक्रम के पुजारी भी थे। प्रस्तुत पुस्तक में १८ निबंध हैं। उनमें से नौ निबंधों में महावीर के नौ महान् गुणों का विश्लेषण किया गया है। इनके माध्यम से महावीर को अहिंसक, ध्यानयोगी अनुशास्ता, ज्योतिर्मय, उपदेष्टा, समयज्ञ, पराक्रमी, कर्मयोगी, साम्ययोगीइन रूपों में अभिव्यक्त किया है। शेष नौ निबंधों में महावीर के सिद्धातों और तत्कालीन परंपराओं तथा अन्यान्य चर्चाओं का स्पर्श किया गया है । यह लघु काय कृति अपने में विराट् व्यक्तित्व को समेटे हुए है । हजारों पृष्ठों में जो बात नहीं समझाई जा सकती वह इस पुस्तक के ६० पृष्ठों में समभा दी गई है।
यह पुस्तक भारत सरकार ने अहिन्दी प्रान्तों में भी वितरित की है। महावीर को विभिन्न कोणों से समझने में यह पुस्तक बेजोड़ है ।
महावीर : जीवन और सिद्धान्त
। प्रस्तुत कृति में २३ निबंध संग्रहीत हैं। उनमें से कुछेक महावीर के पराक्रमी जीवन का विभिन्न पहलुओं से प्रतिपादन प्रस्तुत करते हैं और कुछेक निबंध उनके सिद्धातों को नवीन परिप्रेक्ष्य में अभिव्यक्त करते हैं । जैन श्रावकों के कर्तव्य-बोध और जैन शासन की तेजस्विता को पुन: प्रस्थापित करने के लिए इसमें उपाय निर्दिष्ट हैं । पर्युषण और संवत्सरी से संबंधित चार निबंध इनकी महत्ता को सैद्धान्तिक और वैचारिक धरातल देते हैं। पूरी पूस्तक महावीर और जैन शासन की परिक्रमा किए चलती है। इसमें उपासक जीवन का सुन्दर चित्रण प्रस्तुत हुआ है । जैन धर्म और महात्मा गांधी शीर्षक निबंध में जैन धर्म के परिप्रेक्ष्य में गांधी के कुछेक विशिष्ट गुणों का वर्णन है। जैन धर्म और महात्मा गांधी के संबंध की बात आती है तो अहिंसा, समता, कष्टसहिष्णुता-ये उनके संबंध
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
सूत्र बनते हैं। इस प्रकार पुस्तक में विविध विषय चचित हैं जो भगवान् महावीर के सर्वांगीण सिद्धान्त और दर्शन को स्पष्ट करते है।
भिक्षु विचार-दर्शन
तेरापंथ धर्म-संघ अपनी त्रिपदी के लिए विख्यात है। वह त्रिपदी हैएक आचार्य, एक आचार, एक विचार । इस धर्मसंघ के आद्य प्रवर्तक थे आचार्य भिक्षु । इनका मूल नाम था-भीखणजी। ये मारवाड़ में वि. सं. १७८३ में जन्में, वि. १८०८ में स्थानकवासी मुनि बने, वि. १८१७ में तेरापंथ का प्रवर्तन किया और वि. १८६० में दिवंगत हो गए। यह इनके जीवन की काल-अवधि के चार पडाव हैं। इनमें इन्होंने जो पुरुषार्थ और पराक्रस से अजित किया वह है तेरापंथ की थाती।
इनकी दो बड़ी विशेषताएं थीं—१. विचार और चारित्र की विशुद्धि २. संघ-व्यवस्था की समुचित रीति-नीति का अवबोध ।
तेरापंथ द्विशताब्दी (वि. २०१७) के पावन प्रसंग पर आचार्य श्री ने चाहा कि आचार्य भिक्षु का दार्शनिक रूप जनता के समक्ष आये । युवाचार्य महाप्रज्ञ ने इस चाह को पकड़ा और उसे इस पुस्तक के माध्यम से क्रियान्वित किया ।
प्रस्तुत कृति में सात अध्याय हैं। इनमें आचार्य भिक्षु की संक्षिप्त जीवन-कथा, सिद्धांत, विचार और मन्तव्यों का अत्यंत गहराई से प्रतिपादन हुआ है । आचार्य भिक्षु बहुत पढ़े लिखे नहीं थे, पर उनकी सहज मेधा-शक्ति इतनी प्रखर थी और उनका प्रातिभज्ञान (इन्ट्यूशन) इतना गहरा था कि उन्होने जो विचार दिये, जो सूत्ररूप में बातें कहीं, उन पर बड़े-बड़े भाष्य लिखे जा सकते हैं। उनके विचारों में इतनी गहराई है कि बड़े-बड़े पंडित भी उसकी थाह नहीं पा सकते । वे मौलिक चिन्तन देने वाले आचार्य थे।
'भिक्षु विचार-दर्शन' को पढ़ने वाला तेरापंथ दर्शन का पूरा अवबोध पा लेता है । इसमें 'प्रतिध्वनि', 'साध्य साधन के विविध पहल' आदि शीर्षकों में आधुनिक विचारकों से आचार्य भिक्षु के विचारों और सिद्धांतों की तुलना भी है।
विषयों का प्रस्तुतीकरण मौलिक सूझबूझ के साथ हुआ है।
प्रत्येक संघ किसी न किसी आधार पर खड़ा होता है । जिसका आधार दृढ़ और अविचल होता है, वह संघ विकास कर आगे बढ़ जाता है। जिसकी आधारभित्ति तात्कालिक तत्त्वों पर अवल बित होती है, वह बिखर जाता है । तेरापंथ की नींव मर्यादा, अनुशासन और संयम पर टिकी है । यही कारण है कि यह जनता के आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है।
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व्यक्ति और विचार
आचार्य भिक्ष ने तेरापंथ संघ को अध्यात्म और चारित्र विशुद्धि का आधार दिया, शैथल्य के साथ कभी समझौता नहीं किया। यही कारण है कि आज भी तेरापंथ की त्रिपदी सभी के लिए प्रेरणा-स्रोत बन रही है ।
आज तेरापंथ समाज में यह पुस्तक बहुपठित है। इसके ८-१० संस्करण हो चुके हैं । आदमी इसको पुन: पुन: पढ़ने में उत्साहित होता है ।
उन्नीसवीं सदी का नया आविष्कार
तेरापंथ के आद्य प्रवर्तक आचार्य भिक्षु विक्रम की १६ वी सदी के महान् धर्माचार्य थे। उन्होंने धर्म के क्षेत्र में विचार क्रान्ति की। उस समय धन से धर्म अजित करने की बात समाज-मान्य हो गई थी। अनेक धर्माचार्य अपनी आंकाक्षा की पूर्ति के लिए धन का संग्रह करने के लिए धन से धर्म होता है, पुण्य होता है, यह प्रतिपादन कर जनता को धन-व्यय की और अग्रसर कर रहे थे। धर्म और पुण्य प्रलोभन पैदा करते हैं और व्यक्ति इस प्रलोभन में वह सब कुछ कर लेता है, जो गुरु चाहते हैं । आचार्य भिक्षु को अध्यात्मवाद के साथ धन-व्यय की स्थिति उपयुक्त नहीं लगी। विचारों की उथल-पुथल ने उन्हें अन्वेषण करने की ओर प्रस्थित किया और गंभीर चिन्तन, मनन और सर्वतोमुखी अन्वेषण के पश्चात् आचार्य भिक्षु ने कहा- धन-व्यय से की जाने वाली सार्वजनिक व्यवस्थाएं सामाजिक या राष्ट्रीय कार्य हैं। आध्यात्मिक धर्म से इनका कोई संबंध नहीं। धन से धर्म नहीं होता। धार्मिक जगत् के लिए उन्नीसवीं सदी का यह सबसे बड़ा और नूतन आविष्कार था ।
प्रस्तुत कृति में इसी तथ्य के प्रतिपादन में इसके पार्श्ववर्ती अनेक पहलुओं पर विचार किया गया है। पूंजी और धर्म, दया दान, आदि विषयों पर भी आचार्य भिक्षु के संक्षिप्त किन्तु मौलिक विचार इसमें संगृहित हैं।
प्रज्ञापुरुष जयाचार्य
श्रीमज्जयाचार्य तेरापंथ धर्म-संघ की आचार्य परम्परा के चौथे आचार्य थे। आप वि. सं. १९०८ में माघ सुक्ला पूर्णिमा को पदासीन हुए और तीस वर्षों तक आचार्य का उत्तरदायित्व निभाते हुए तेरापंथ को बहुत आयामों में विकसित किया।
__ वे एक कुशल अनुशास्ता और व्यवस्था-संचालक थे। उन्होंने तेरापंथ में अनेक व्यवस्थाओं का प्रचलन किया। आज का तेरापंथ आपकी दूरदर्शिता का ही परिणाम है, उसी का प्रतिबिम्ब है।
श्रीमज्जयाचार्य का जीवन बहुरंगी है। उसके अनेक कोण हैं । वे कवि,
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
वक्ता, साहित्य स्रष्टा, अनुशास्ता, मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक आदि-आदि तो थे ही, साथ ही साथ स्वाध्यायी, ध्यानी और आत्मा की गहराईयों में डबकी लगाने वाले भी थे। श्रीमज्जयाचार्य सफल यात्रा-लेखक और जीवन-वृत्त के शिल्पी भी थे।
प्रस्तुत कृति श्रीमज्जयाचार्य की निर्वाण शताब्दी (सं.२०३८) के उपलक्ष्य में प्रकाशित की गई है। इसमें जयाचार्य का प्रशिक्षक और वैज्ञानिक रूप निखर कर प्रस्तुत हुआ है । उन्होंने समूचे तेरापंथ धर्मसंघ को एक विशेष प्रयोगशाला के रूप में कैसे बदल डाला, वह सब प्रस्तुत कृति में है। चौवालीस शीर्षकों में निबद्ध यह कृति जयाचार्य के सम्पूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व को प्रस्तुत करती है । इसमें जयाचार्य के जीवन से सम्बन्धित जीवन-संस्मरण, घटनाएं और व्यंग्य-विनोद भी हैं। उनके द्वारा रचित मर्यादाएं और निर्मित साहित्य की नोंध व्यक्ति को उनके महान् कर्तृत्व की झांकी दे जाती है।
आचार्य श्री तुलसी और युवाचार्य श्रीमहाप्रज्ञ की यह संयुक्त कृति अपने आपमें श्रीमज्जयाचार्य को एक अनुपम श्रद्धांजलि है । इसका नयनाभिराम मुद्रण स्वयं व्यक्ति को इसके पारायण की प्रेरणा देता है ।
धर्मचक्र का प्रवर्तन
इसमें आचार्य श्री तुलसी की जीवन गाथा है । आचार्य श्री के कर्तृत्व और व्यक्तित्व को सात अध्यायों में अभिव्यक्ति दी गई है। वे सात अध्याय ये हैं१. धर्म का नया क्षितिज। ५. सृजनात्मक दृष्टियां : रचनात्मक प्रवृत्तियां २. महान् परिव्राजक । ६. विचार-मंथन । ३. तेरापंथ के आचार्य । ७. व्यक्तित्व । ४. संघर्ष की वेदी पर
ये अध्याय छोटे-बड़े सैकड़ों विषयों को अपने में समेटे हुए हैं। आचार्यश्री के मुनि-जीवन से लेकर आचार्य-काल के पचासवें वर्ष (अमृत महोत्सव वर्ष) तक का सारा लेखा-जोखा इनमें निबद्ध है। पूरे ग्रंथ का नयनाभिराम प्रस्तुतीकरण और विषयों का सरल विश्लेषण इस ग्रंथ की अपनी विशेषता है।
लेखक के शब्दों में आचार्य श्री की जीवन-गाथा भारतीय चेतना का एक अभिनव उन्मेष है । इतना लंबा मुनि-जीवन, इतना लंबा आचार्यपद, इतनी लम्बी पदयात्रा, इतना व्यापक जन-सम्पर्क, इतना जन-जागरण का प्रयत्न, इतना पुरुषार्थ, इतना आध्यात्मिक विकास, इतना साहित्यसृजन, इतने व्यक्तियों का निर्माण-वस्तुतः ये सब अद्भुत हैं । आचार्य श्री की जीवन-गाथा आश्चर्यों की वर्णमाला से आलोकित एक महालेख है।
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व्यक्ति और विचार
उसे पढ़कर मनुष्य नए उच्छ्वास, नई प्रेरणा और नई शक्ति का अनुभव करता है।
पुरुषार्थ की इतिहास परम्परा में इतने बड़े पुरुषार्थी पुरुष का उदाहरण कम ही है, जो अपनी सुख-सुविधाओं को गौण कर जन-कल्याण के लिए जीवन जीए।
आचार्य श्री के आचार्यपद के पचासवें वर्ष के अवसर पर उनकी जीवन-गाथा से परिचित होना, नए आलोक की नई रश्मियों से परिचित होना है । इस परिचय का अर्थ होगा अपने आप से परिचित होना, अपनी समस्याओं से परिचित होना और उनका समाधान प्राप्त करना ।
लेखक आचार्य श्री के प्रति सदा से समर्पित रहे हैं। उनके मन में गुरु के प्रति कृतज्ञता का अनन्त पागर लहराता रहता है। उसी श्रद्धा और कृतज्ञता की अभिव्यक्ति इस पुस्तक में लेखक के इन शब्दों में झलक रही है --आचार्य श्री ने मुझे जो दिया वह बहुत ही गुरु है। उसकी तुलना में मेरा प्रयत्न बहुत ही लघु है। पर कहीं-कहीं लघु गुरु से प्रिय होता है। मैं मानता हूं मेरी यह लघुतम श्रद्धांजलि जनता को गुरु से कम प्रिय नहीं होगी । गुरु में लघु का समावेश कभी आश्चर्यजनक नहीं होता, पर लघु में गुरु का समावेश अवश्य ही आश्चर्यजनक होता है।
आचार्य श्री के वर्चस्वी, तेजस्वी और महान् जीवन को प्रस्तुत करने वाला यह ग्रंथ पठनीय और मननीय है । अमृत महोत्सव पर आचार्य श्री के व्यक्तित्व को नए संदर्भ में प्रस्तुत करने वाला यह अद्भुत ग्रंथ है जो आने वाली दिग्भ्रांत पीढी को नया मार्ग-दर्शन देता रहेगा।
प्राचार्य श्री तलसी : जीवन और दर्शन
वि० सं० २०१८ । आचार्य श्री तुलसी के आचार्य-काल के पचीस वर्ष पूरे हो रहे थे । उस उपलक्ष्य में धवल-समारोह का आयोजन किया गया। उस समय आचार्य श्री के जीवनवृत्त की मांग सामने आई। उसी मांग की पूर्ति के लिए युवाचार्यश्री ने इस कृति का प्रणयन किया। मनीषी लेखक ने श्रद्धा और तर्क का समन्वय करते हुए यह जीवनवृत्त लिखा है।
इस पुस्तक का प्राण क्या है ? लेखक ने अपनी प्रस्तुति में उसे इस प्रकार अभिव्यक्त किया है.--मैं आचार्यश्री को केवल श्रद्धा की दृष्टि से देखता तो उनकी जीवनगाथा के पृष्ठ दस से अधिक नहीं होते। उनमें मेरी भावना का व्यायाम पूर्ण हो जाता। यदि आचार्यश्री को मैं केवल तर्क की दृष्टि से देखता तो उनकी जीवन-गाथा सुदीर्घ हो जाती, पर उसमें चैतन्य नहीं रहता । श्रद्धा में विस्तार नहीं होता, पर चैतन्य होता है। तर्क में विस्तार होता है, पर
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
चैतन्य नहीं होता । इसमें विस्तार भी है और चैतन्य भी है । प्रस्तुत कृति में आचार्यश्री के शैशव से लेकर आचार्यकाल के पचीस वर्षों का महत्त्वपूर्ण लेखा-जोखा है | आचार्य श्री की दो सुदीर्घ यात्राओंबम्बई और कलकत्ता का महत्त्वपूर्ण विवरण भी इसमें है, तथा वह सब कुछ है जो पाठक आचार्यश्री के विषय में जानना चाहते हैं । इसमें आयार्यश्री से संबंधित संस्मरण, सिद्धान्त, विचार, विरोध और विनोद, जनसंपर्क और एकांत, गति और स्थिति सबका सामंजस्य है ।
यह कृति दस अध्यायों में विभक्त है—
१. संघर्ष की वेदी पर
२. तेरापंथ के आचार्य
३. अणुव्रत आंदोलन के प्रवर्तक ४. महान् परिव्राजक ५. विचार-मंथन
६. नव उन्मेष : नई दिशाएं ७. जीवन दर्शन
८. धर्म-बीज
६. मुनि जीवन १०. शैशव
जीवन-वृत्त के रूप में इस कि इसमें प्रशस्ति नहीं अपितु आचार्यश्री जनता के समक्ष प्रस्तुत हुआ है
पुस्तक का अधिक महत्त्व इसलिए भी है का यथार्थ व्यक्तित्व और कर्तृत्व
आचार्य श्री तुलसी [ जीवन पर एक दृष्टि ]
यह कृति सन् १९५२ में लिखी गई । यह आचार्य श्री का प्रथम जीवन-वृत्त है । इसकी भूमिका में प्रसिद्ध विचारक जैनेन्द्रकुमार लिखते हैं'तुलसीजी को देखकर ऐसा लगा कि यहां कुछ है, जीवन मूच्छित और परास्त नहीं है, उसकी आस्था और सामर्थ्य है । व्यक्तित्व में सजीवता है और एक विशेष प्रकार की एकाग्रता है । वातावरण के प्रति उनमें ग्रहणशीलता और दूसरे व्यक्तियों और समुदायों के प्रति संवेदनशीलता है । उनके व्यक्तित्व को प्रकाश में लाने वाली इन पुस्तक का प्रकाशन समयोपयोगी है । लेखक उनके निकटवर्ती मुनि हैं । अतः समग्रता से आचार्यश्री के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं का प्रस्तुतीकरण हुआ है । जीवनी के अतिरिक्त इसमें अध्ययन और विवेचन के चिह्न भी हैं ।'
यह लघुकाय कृति आचार्य श्री के कर्तृत्व और व्यक्तित्व को समझने में सहायक है । इसके पश्चात् दो बृहद्काय जीवन-ग्रन्थ और प्रकाश में आ चुके हैं ।
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व्यक्ति और विचार
कुछ देखा कुछ सुना कुछ समझा यह लघुकाय यात्रा-ग्रंथ है । इसमें आचार्यश्री तुलसी की जयपुर से कानपुर, कानपुर से कलकत्ता और कलकत्ता से सरदारशहर तक की यात्रा का संक्षिप्त वर्णन है। आचार्यश्री महान् परिव्राजक हैं। उनके परिव्रजन का लेखाजोखा देने वाले चार-पांच दीर्घकाय यात्रा-ग्रन्थ तेरापंथ की विदूषी लेखिका साध्वी प्रमुखा कनकप्रभाजी की लेखनी का स्पर्श पाकर प्रकाश में आ चुके हैं।
प्रस्तुत ग्रंथ एक लघु यात्रा का चित्रण इस प्रकार प्रस्तुत करता है कि पाठक इसको पढ़ते समय अपने आपको आचार्यश्री की यात्रा का सहयात्री अनुभव करने लगता है। इसमें आचार्यश्री के संपर्क में आने वाले विशिष्ट व्यक्तियों, उनसे हुए वार्तालापों का भी समावेश हुआ है। लेखक का कथन है.---'आचार्यश्री आचार का विकास चाहते हैं और उस विचार का विकास चाहते हैं जो आचार को पुष्ट करे। इसी उद्देश्य से वे परिव्रजन करते हैं । हजारों व्यक्तियों से उन्होंने संपर्क किया है और लाखों उनके सम्पर्क में आए हैं ।
यात्रा का उद्देश्य केवल चलना ही नहीं होता। उसका उद्देश्य होता है-जन-संपर्क और जनता के आध्यात्मिक उन्नयन का प्रयास ।।
इन यात्राओं में ऐसा हुआ है और यह सब इस यात्रा-ग्रन्थ में उल्लिखित है।
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३. दर्शन और सिद्धांत
भारतीय दर्शनों की त्रिवेणी में जैन दर्शन की धारा का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। प्रस्तुत खंड के अन्तर्गत ३५ पुस्तकों का परिचय है। जैन दर्शन के विविध पहलुओं की जानकारी के लिए ये पुस्तकें अत्यंत उपयोगी हैं। 'जैन दर्शन : मनन और मीमांसा'-यह बृहद्काय ग्रंथ जैन धर्म-दर्शन से सम्बंधित सभी महत्त्वपूर्ण विषयों को अपने में समेटे हुए है । इस विभाग के अंतर्गत अनेकांत, कर्मवाद, दान-दया, अहिंसा, जैन दर्शन में ज्ञान-मीमांसा, प्रमाण-मीमांसा, तत्त्वमीमांसा आदि से संबंधित ग्रंथ हैं । इन ग्रंथों में अन्यान्य भारतीय दर्शनों तथा समकालीन पाश्चात्य विचारों का तुलनात्मक दृष्टि से समाकलन भी हुआ है । युवाचार्यश्री के दार्शनिक ग्रंथों की यह अपूर्व विशेषता है कि वे दर्शन के जटिलतम विषय को सहज-सुबोध भावभाषा में प्रस्तुत कर उसकी संयुति जीवन के साथ करते हैं। वे तर्क को सर्वथा अप्रयोज्य नहीं मानते पर यह मानते हैं कि तर्क कहीं पहुंचाता नहीं, भटकाता है।
प्रस्तुत खंड में 'अतीत का अनावरण' तथा 'मनन और मूल्यांकन' ये दो शोध निबंधों के संग्रह हैं। इसी खंड में अणुव्रत आंदोलन से सम्बंधित कृतियों का परिचय भी है।
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जैन धर्म : मनन और मीमांसा
प्रस्तुत ग्रन्थ जैन दर्शन को सर्वांगीण रूप में प्रस्तुत करता है। इसके पांच मुख्य खंड हैं-१. परंपरा और कालचक्र २. दर्शन ३. आचार-मीमांसा ४. ज्ञान-मीमांसा और ५. प्रमाण-मीमांसा । प्रत्येक खंड के अनेक उप-विभाग हैं और उनमें जैन धर्म-दर्शन से संबंधित अनेक विषय चचित हैं ।
प्रथम खंड छह उपविभागों में विभाजित है। प्रारंभ में 'दर्शन' शब्द का अर्थबोध देते हुए लेखक का कहना है कि भगवान् महावीर अन्तर्द्रष्टा थे । उनके उत्तरवर्ती आचार्य तार्किक प्रतिभा के धनी थे । आज का जैन दर्शन उन दोनों के निरूपण का प्रतिफलन है । इस खंड में भगवान् ऋषभ से महावीर तक की जैन परम्परा का तथा उत्तरकालीन परंपरा के अन्तर्गत सात निन्हवों का इतिवृत्त तथा सिद्धांत भी प्ररूपित हैं। साथ ही साथ श्वेताम्बर-दिगंबर संप्रदाय भेद से लेकर जैन धर्म-शासन में हुए आजतक के छोटे-बड़े सभी भेदोंसंप्रादायों का संक्षिप्त लेखा-जोखा है। इसी खंड के अंतिम तीन विभागों में जैन साहित्य, जैन संस्कृति एवं चिंतन के विकास में जैन आचार्यों का योगये विषय स्पष्टता से प्रतिपादित हैं।
__ ग्रंथ के दूसरे खंड 'दर्शन' के प्रारंभ में लेखक दर्शन की परिभाषा प्रस्तुत करते हुए दर्शन के दो कार्यों की ओर संकेत करते हैं-१. वस्तुवृत्त विषयक निर्णय और २. मूल्य विषयक निर्णय । इन दोनों को विशदता से प्रतिपादित करते हुए जैन दर्शन की भित्ति- आत्मवाद को स्पष्टता से निरूपित किया है । इसके दूसरे उपविभाग 'विश्व दर्शन' के अन्तर्गत विश्व के घटकगतितत्त्व-धर्म, स्थितितत्त्व-अधर्म तथा आकाश, काल, पुद्गल और जीवइन छहों तत्त्वों का विशद विवेचन है। जैन दर्शन सम्मत विश्व का स्वरूप, विश्व का ह्रास और विकास, जीव-विज्ञान, आत्मवाद, कर्मवाद, स्यादवाद, नयवाद आदि गंभीर विषयों की सांगोपांग चर्चा है । इस खंड के अंतिम दो उपविभागों में जैन दर्शन के साथ बौद्ध और वेदान्त मान्यताओं का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत है। भारत के इन तीन मूल दर्शनों में कहां-कहां समानता है और कहांकहां विषमता है, यह स्पष्ट समझाया गया है।
तीसरा खंड है-आचार-मीमांसा। इसके पांच विभाग हैं—१. साधनामार्ग २. मोक्ष के साधक-बाधक तत्त्व ३. श्रमण संस्कृति और श्रामण्य ४. जातिवाद ५. जैन दर्शन : वर्तमान समस्याओं के संदर्भ में ।
__ चौथा खंड है-ज्ञान-मीमांसा । ज्ञान के विषय में जितना ऊहापोह जैन साहित्य में उपलब्ध है वह अन्यत्र दुर्लभ है। आधुनिक विद्वानों ने इस
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
विषय पर विस्तृत प्रकाश डाला है । जैन दर्शन सम्मत पांच प्रकार के ज्ञानोंमति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यव और केवल पर विशद विवेचन इस खंड में प्राप्त है । प्रथम दो इन्द्रिय ज्ञान हैं और शेष तीन अतीन्द्रिय ज्ञान । इन सब भेदप्रभेदों का वर्णन इसमें प्राप्त है। मतिज्ञान विषयक चर्चा मनोविज्ञान के संदर्भ में भी की गई है। इसके आधार पर और आगे खोज की जा सकती है।
___ इसके दूसरे उपविभाग में मनोविज्ञान की चर्चा है। जैन मनोविज्ञान आत्मा, कर्म और नो-कर्म---- इस त्रिपदी पर आधृत है । इसके अन्तर्गत मन के विषय में अनेक पहलुओं से चर्चा प्राप्त है । 'मन क्या है ?' शरीर और मन का पारस्परिक सम्बन्ध, इन्द्रिय और मन का ज्ञानक्रम, मन इन्द्रिय है या नहीं ? मन की कार्य-क्षमता-ये विषय यहां चचित हैं। इनके साथ-साथ दस संज्ञाएं, कषाय, नो-कषाय, स्वप्न विज्ञान, लेश्या, ध्यान आदि विषय भी प्रतिपादित हैं।
प्रस्तुत कृति का पांचवां खंड है--प्रमाण-मीमांसा। इसके आट उपविभाग हैं--१. जैन न्याय २. प्रमाण मीमांसा ३. प्रत्यक्ष प्रमाण ४. परोक्ष प्रमाण ५. आगम प्रमाण ६. निक्षेप ७. लक्षण ८. कार्यकारणवाद ।
इस प्रकार पांच मुख्य खंडों में विभाजित यह बृहद् ग्रन्थ जैनधर्मदर्शन का पूरा अवबोध देता है।
प्रस्तुत ग्रन्थ की समीक्षा करते हुए अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विद्वान् डाक्टर नथमल टाटिया ने लिखा है---प्रस्तुत ग्रन्थ के विद्वान् लेखक की मनीषा अपने विविधरूपों में ग्रंथ में सर्वत्र प्रगट हुई है। प्राचीन दर्शनों में अनेक लोक-हितकर सिद्धांत भरे पड़े हैं। परन्तु उनका आधुनिक चिन्तन-धाराओं के सन्दर्भ में विवेचन प्राय: उपेक्षित है। इस अवहेलना का निराकरण प्रस्तुत ग्रंथ में प्रचुर-मात्रा में उपलब्ध है। जैन विद्या के क्षेत्र में यह ग्रंथ एक विशिष्ट रचना के रूप में स्वीकृत हो चुका है और अनेक विद्वानों ने इसकी गम्भीरता का मूल्यांकन किया है । यह पुस्तक राजस्थान विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर दर्शनशास्त्र के जैन विद्या पाठ्यक्रम में सहायक ग्रन्थ के रूप में निर्दिष्ट है।
स्वयं लेखक ने थोड़े शब्दों में इस ग्रंथ की उपयोगिता को इस प्रकार प्रगट किया है -- 'जैन दर्शन के अध्ययन का अर्थ है सब दर्शनों का अध्ययन
और सब दर्शनों के सापेक्ष अध्ययन का अर्थ है जैन दर्शन का अध्ययन। इस उभययोगी दृष्टि से किए जाने वाले अध्ययन के लिए यह ग्रंथ प्रस्तुत है ।'
जैन न्याय का विकास
इस पुस्तक की प्रस्तुति का प्रारम्भ लेखक इन शब्दों में करते हैं—जैन दर्शन आध्यात्मिक परम्परा का दर्शन है। सब दर्शनों को दो श्रेणियों में विभक्त किया
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दर्शन और सिद्धान्त
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जा सकता है—आध्यात्मिक और बौद्धिक । आध्यात्मिक दर्शन स्व और वस्तु के साक्षात्कार या प्रत्यक्षीकरण की दिशा में गतिशील रहे हैं । बौद्धिक दर्शन स्व और वस्तु से सम्बन्धित समस्याओं को बुद्धि से सुलझाते रहे हैं । आध्यात्मिक दर्शनों ने देखने पर अधिक बल दिया, इसलिए वे तर्क-परम्परा का सूत्रपात नहीं कर सके । बौद्धिक दर्शनों का अध्यात्म के प्रति अपेक्षाकृत कम आकर्षण रहा, इसलिए उनका ध्यान तर्कशास्त्र के विकास की ओर अधिक आकर्षित हुआ ।
जैन दर्शन में तर्क का विकास बौद्धों के बाद हुआ । अन्यान्य दार्शनिकों की श्रेणी में टिके रहने की इच्छा से तर्क - शास्त्र के अनेक ग्रंथ जैन परंपरा में रचे गए और समय-समय पर इस तर्कवाद के आधार पर अनेक जयपराजयात्मक वाद हुए । क्वचित् जैन आचार्य जीते और क्वचित् पराजित भी हुए । प्रस्तुत ग्रंथ इसी तर्क- परम्परा का एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है । लेखक स्वयं इस बात को मानते हैं कि जैनों में ऐसी कोई स्वतंत्र तर्क- परम्परा स्थापित नहीं हो सकी, फलतः अध्यात्म और तर्क का मिलाजुला प्रयत्न चलता रहा । इस भूमिका में जैन दर्शन के तर्कशास्त्रीय सूत्रपात और विकास का मूल्यांकन किया जा सकता है ।
राजस्थान विश्वविद्यालय में स्थापित 'जैन विद्या अनुशीलन केन्द्र' के अन्तर्गत 'जैन न्याय' विषय पर एक भाषणमाला आयोजित हुई । उसमें अनेक विद्यार्थियों, प्रोफेसरों के साथ-साथ राजस्थान विश्वविद्यालय के कुलपति श्री गोविन्दचन्द्र पांडे और कला संकाय के डीन श्री दयाकृष्ण आदि सम्मिलित थे । उन्हीं भाषणों का संकलन प्रस्तुत पुस्तक में हुआ है ।
प्रस्तुत ग्रंथ के नौ मुख्य अध्याय ये हैं
१. आगम युग का जैन न्याय
२. दर्शन युग का जैन न्याय ३. अनेकान्त व्यवस्था के सूत्र ४. नयवाद : अनन्त पर्याय, अनन्त दृष्टिकोण |
५. स्याद्वाद और सप्तभंगी न्याय
६. प्रमाण व्यवस्था
७. अनुमान
८. अविनाभाव
६. भारतीय प्रमाणशास्त्र के विकास में जैन परम्परा का योगदान ।
इन अध्यायों के साथ-साथ इसमें पांच परिशिष्ट भी हैं—
१. प्रमाणों के प्रकार, २ . व्यक्ति, समय और न्याय - रचना, ३. न्यायग्रंथ के प्रणेताओं का संक्षिप्त जीवनवृत्त, ४. पारिभाषिक शब्द-विवरण, ५. प्रयुक्तग्रंथ सूची ।
तर्कशास्त्र के अध्येता विद्यार्थी के लिए यह ग्रंथ अत्यन्त उपयोगी और पठनीय है । यह राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर से प्रकाशित हुआ है ।
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण सत्य की खोज : अनेकान्त के आलोक में
भगवान् महावीर ने सत्य की उपलब्धि के दो उपाय बताए-अतीन्द्रिय ज्ञान और इन्द्रिय ज्ञान । सभी प्राणी इन्द्रिय ज्ञान से सम्पन्न हैं। मनुष्य में इन्द्रिय ज्ञान सबसे अधिक विकसित है। अतीन्द्रिय ज्ञान योगियों को होता है। वह सबमें नहीं होता। इन्द्रिय ज्ञान की सत्यता सापेक्षता पर निर्भर होती है। इसलिए अनेकान्त का दूसरा नाम है-—सापेक्षवाद । सापेक्षवाद और स्याद्वाद के सहारे अनेकान्त को समझा जा सकता है और अनेकान्त के सहारे सत्य तक पहुंचा जा सकता है। यह सत्य की उपलब्धि का निरापद उपाय है ।
मनीषी लेखक अपनी प्रस्तुति में सत्य के बारे में विभिन्न दार्शनिकों की विचारधाराएं प्रस्तुत करते हुए कहते हैं
"भगवान् महावीर के सम-सामयिक संजयवेलट्ठिपुत्त ने कहा था--- मैं नहीं जानता कि वस्तु सत् है तो फिर मैं कैसे कहूं कि वह सत् है । मैं नहीं जानता कि वह असत् है तो फिर मैं कैसे कहूं कि वह असत् है। यह भारतीय दर्शन का संशयवाद है । पश्चिमी दर्शन में संशयवाद के प्रवर्तक 'पाइरो' (३६५२७५ इ. पू.) हैं। वे अरस्तु के सम-सामयिक थे । थेलीज से लेकर अरस्तू तक के दार्शनिकों के पारस्परिक मतभेदों को देखकर उन्होंने इस सिद्धान्त की स्थापना की कि मनुष्य के लिए वास्तविक सत्य तक पहुंचना संदिग्ध है। निर्विकल्प स्वानुभूति, सविकल्प बुद्धि और इन्द्रियानुभूति निश्चयात्मक ज्ञान उत्पन्न नहीं कर सकती। इसलिए सत्य को जानने का कोई उपाय नही है । कांट के अनुसार ज्ञान के लिए इन्द्रिय-संवेदन और बुद्धि-विकल्प-दोनों अनिवार्य हैं । ज्ञान सत्य और निश्चित होता है । सत्यता इन्द्रिय-संवेदनों से आती है और निश्चय बुद्धि विकास से आता है।'
प्रस्तुत कृति में कुछेक जागतिक समस्याओं का अनेकान्त दृष्टि से मूल्यांकन किया गया है । सापेक्ष दृष्टिकोण ही समस्याओं को समाहित कर सकता
प्रस्तुत कृति में अनेक विषय चचित हैं
कर्मवाद, आत्मा और परमात्मा, प्रत्ययवाद और वस्तुवाद, परिणामीनित्यवाद, तत्त्ववाद, अद्वैत और द्वैत । इनकी चर्चा में अनेक वैज्ञानिक तथ्य भी अभिव्यक्त हुए हैं। विज्ञान की उपेक्षा कर दर्शन को सही ढंग से नहीं समझा जा सकता । आज की सद्यस्क अपेक्षा है कि दर्शन के साथ विज्ञान का अध्ययन हो। यह इस लघु कृति से ज्ञात होता है।
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दर्शन और सिद्धान्त
मनन और मूल्यांकन
यह सतरह प्रवचनों का लघु संग्रह है। इसमें प्रथम पांच प्रवचन आचारांग आगम के आधार पर अहिंसा के विभिन्न पहलुओं को विवेचित करने वाले हैं। आचारांग का प्रथम अध्ययन है-शस्त्र परिज्ञा। इसमें हिंसा और अहिंसा का विशद विवेचन प्राप्त है। युवाचार्य श्री ने इसी एक अध्ययन को आधार बनाकर पांच प्रवचन दिए जो इन शीर्षकों में निबद्ध हैं(१) आचार-संहिता की पृष्ठभूमि (२) संबोधि और अहिंसा (३) आचार का पहला सूत्र (४) अहिंसा और अनेकान्त (५) आत्मतुला और मानसिक अहिंसा । इसके पश्चात् सूत्रकृतांग आगम के आधार पर आचार-शास्त्र के आधारभूत तत्त्वों की चर्चा दो प्रवचनों में है। दो प्रवचन पातंजल योगदर्शन से सम्बन्धित हैं । पातंजल योगदर्शन का तीसरा पाद है-विभूतिपाद । इसकी विस्तार से इसमें चर्चा है । नमस्कार महामंत्र से सम्बन्धित भी दो प्रवचन हैं । पहला है- मंगलवाद : नमस्कार महामंत्र । दूसरा है-नमस्कार महामंत्र का मूल स्रोत और कर्ता। इन दोनों निबंधों में महामंत्र नमस्कार पर विस्तार से चर्चा है। इसी प्रकार प्रज्ञा और प्रज्ञ, अतीन्द्रिय चेतना, जैन साहित्य में चैतन्य केन्द्र, जैन साहित्य के आलोक में गीता का अध्ययन, आत्मा का अस्तित्त्व, आदि प्रवचन भी तद्-तद् विषय को सांगोपांगरूप में प्रस्तुत करते हैं।
लेखक के शब्दों में—'मनन और मूल्यांकन में अतीत के साथ संपर्क स्थापित करने का एक विनम्र आयास है।' तुलनात्मक दृष्टिकोण से दिए गए ये प्रवचन व्यक्ति को तथ्यों का मनन करने और उनका सही-सही मूल्यांकन करने के लिए प्रेरित करते हैं।
कर्मवाद
यूवाचार्य श्री ने अनेक अवसरों पर कर्मवाद के विषय में अपने विचार व्यक्त किए हैं। वे सारे विचार विभिन्न ग्रंथों में समय-समय पर आते रहे हैं । प्रस्तुत कृति कर्मवाद विषयक सारी सामग्री के एकत्रीकरण का परिणाम है। एक ही स्थान पर सारी सामग्री आ जाने के कारण 'कर्मवाद' जैसा जटिल विषय भी कुछ सरल बना है । लोगों ने इसके माध्यम से जैन परम्परा सम्मत 'कर्मवाद' सम्बन्धी अपनी अवधारणाओं का परिमार्जन किया है।
जैन परम्परा प्रत्येक घटना के घटित होने में काल, स्वभाव, नियति, कर्म, पुरुषार्थ-इन पांच घटकों का समवेत अस्तित्त्व स्वीकार करती है। वह न कर्म की और न पुरुषार्थ की सार्वभौम सत्ता स्वीकारती है। सबका अपनाअपना उपयोग है, यह उसका अभ्युपगम है।
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
युवाचार्य श्री मानते हैं कि आज भारत में कर्मवाद की सही समझ वाले व्यक्ति इनेगिने हैं । दूसरे सारे व्यक्ति प्रवाहपाती होकर, एक प्रतिबद्ध मान्यता को लिए चलते हैं । प्रस्तुत पुस्तक कर्मवाद के विषय की यथार्थ जानकारी देकर, मिथ्या मान्यताओं के कुहासे को खंडित करती है।
इसके २७ परिच्छेद हैं। उनमें से कुछेक ये हैं-कर्म : चौथा आयाम, कर्म की रासायनिक प्रक्रिया, कर्म का बंध, कर्मवाद के अंकुश, पर्दे के पीछे कौन, समाजवाद में कर्मवाद का मूल्यांकन, कर्मशास्त्र : मनोविज्ञान की भाषा में आदि-आदि।
प्रस्तुत ग्रंथ में जैन परंपरा सम्मत कर्मवाद के भेद-प्रभेदों का इतना विस्तार नहीं है जितना विस्तार है कर्मवाद के वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक संदर्भ का। इन दोनों संदर्भो में इसका अध्ययन एक नई दिशा का उद्घाटन करता है । ढाई सौ पृष्ठों का यह ग्रंथ अपने विषय का महाग्रंथ है ।
अतीत का अनावरण
यह आचार्य श्री और युवाचार्य श्री की संयुक्त कृति है। यह शोध प्रधान पुस्तक है, जिसमें अतीत के अनेक तथ्यों को अनावृत किया गया है। इसमें पच्चीस विषयों पर निमर्श प्राप्त है। कुछेक विषय विद्वानों के लिए विवादास्पद रहे हैं, उनका जैन दृष्टि से समाधान किया गया है । वे विषय ये
१. श्रमण संस्कृति का प्राग-वैदिक अस्तित्व २. आत्मविद्या क्षत्रियों की देन ३. जैन धर्म के पूर्वज नाम ४. भगवान महावीर ज्ञातपुत्र थे या नागपुत्र ? ५. भगवान् महावीर और नागवंश ।
इस पुस्तक में अनेक मौलिक स्थापनाएं प्रस्तुत की गई हैं। उपनिषदों के बारे में युवाचार्य श्री का चिंतन है कि कुछेक उपनिषद् श्रमण परंपरा के हैं, उन पर श्रमण संस्कृति का प्रभाव है । 'जैन दर्शन और वेदान्त' शीर्षक के अन्तर्गत युवाचार्य श्री कहते हैं— 'जैन और वेदान्त दोनों आध्यात्मिक दर्शन हैं, इसीलिए इनके गर्भ में समता के बीज छिपे हुए हैं । अंकुरित और पल्लवित दशा में भाषा और अभिव्यक्ति के आवरण मौलिक समता को ढांक कर उसमें भेद किए हुए हैं। भाषा के आवरण को चीरकर हम झांक सके तो पावेंगे कि दुनिया के सभी दर्शनों के अन्तस्तल उतने दूर नहीं हैं जितने उनके मुख
प्रस्तुत पुस्तक में भगवान् महावीर नागवंशी थे, इसको सप्रमाण प्रति
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दर्शन और सिद्धान्त
पादित किया है। सभी भगवान् को ज्ञातवंशी मानते हैं, पर इस लीक से हट कर युवाचार्यश्री ने भगवान् महावीर को नागवंशी सिद्ध किया है । और यह भी बताया है कि भगवान का नागवंश के साथ क्या और कैसा संबंध था। जैन आगमों के विचारणीय शब्द के अन्तर्गत पम्ह और पम्म, नाय और नात शब्दों का विमर्श है। इसी प्रकार 'बृहत्तर भारत का दक्षिणार्ध और उत्तरार्ध की विभाजक रेखा-वेयड्ढ पर्वत' यह निबंध भौगोलिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है ।
सम्पूर्ण कृति में विभिन्न विषयों से संबंधित पच्चीस शोध निबंध हैं जो शोध विद्वानों को अनेक दिशा में नया आलोक प्रदान करते हैं तथा आगे चितन के लिए नया द्वार खोलते हैं ।
अहिंसा तत्त्व-दर्शन
अहिंसा आज का सर्वाधिक प्रिय विषय है। हिंसा के तांडव नृत्य को आदमी देख चुका है। वह उससे त्राण पाने की बात सोचता रहा है और सदा ठगा जाता रहा है। हिंसा हिंसा को प्रज्वलित करती है। उससे हिंसा रुकती नहीं, आगे से आगे बढ़ती चली जाती है । उसको कम करने या रोकने का एकमात्र उपाय है अहिंसा की प्रतिष्ठापना ।
अहिंसा की भावना का विकास मानव जीवन के साथ जुड़ा हुआ है। जब से समाज बना है, प्रवृत्तियों की बहुलता हुई है, तब से अहिंसा की आवश्यकता महसूस होती रही है। अहिंसा के आधार पर ही सह-अस्तित्व सधता है । हिंसा उसका विघटन करती है।
सभी धर्म-दर्शन अहिंसा के हिमायती रहे हैं । अहिंसा का स्वरूप-भेद सर्वत्र रहा है इसलिए इसकी परिभाषा को बांधा नहीं जा सका। पर दूसरे को उपताप देना, पीड़ा पहुंचाना--इसको सबने बुरा माना है और इससे उपरति को अहिंसा माना है। इसकी सूक्ष्म परिभाषाएं या अवयव जैन दर्शन में स्पष्ट प्रतीति में आते हैं।
आचार्य भिक्षु तेरापंथ धर्मसंघ के आद्य-प्रवर्तक थे। उन्होंने जो अहिंसा के स्वरूप का निर्धारण किया, उसको लोग पूरा समझ नहीं पाए, इसलिए उसका विरोध हुआ। वह स्वरूप-निर्धारण नया नहीं था, पर उसकी प्रस्तुति नई थी।
प्रस्तुत कृति में अहिंसा के आदि-स्रोत से लेकर आज तक की परिभाषाओं का आकलन और विश्लेषण है। इसके तीन खंड हैं। पहला खण्ड है-अहिंसा के स्वरूप के निर्णय का। इसमें चार अध्याय हैं और इनमें विभिन्न दृष्टियों से हिंसा और अहिंसा का प्रतिपादन है। दूसरा खंड है-अहिंसा की मीमांसा । इसके पांच अध्यायों में आचार्य भिक्षु के अहिंसा संबंधी विचारों तथा करुणा, दया, अनुकंपा आदि को समझाया गया है। एक
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
अध्याय में दान का पूरा विश्लेषण है । दान को अहिंसा के माध्यम से प्ररूपित करते हुए बताया गया है कि अहिंसक दान ही सुपात्र दान हो सकता है। शेष दान लौकिक हैं । तीसरे खण्ड में दो अध्याय हैं और उनमें अहिंसा का जीवन में क्या-कैसे उपयोग होता है, वह निर्दिष्ट है।
प्रस्तुत कृति अहिंसा को सम्पूर्ण रूप से समझने में बहुत सहायक
बाल
अहिंसा को सही समझ
तेरापंथ के अहिंसक दृष्टिकोण या मान्यता की दो शताब्दियों से आलोचना होती रही है । परन्तु आलोचना का स्तर कभी ऊंचा नहीं रहा, क्योंकि वह द्वेष या ईर्ष्यावश होती थी। आचार्यश्री बम्बई में चातुर्मास करने वि० सं० २०११ को पधारे । वहां के एक गुजराती साप्ताहिक के संपादक परमानन्द भाई ने भी तेरापंथ की आलोचना में अपनी पत्रिका में एक लेख छापा । उसका शीर्षक था- अहिंसा नी अधूरी समझण । उसको देखकर लगा कि आलोचना की दिशा बदली है, स्तर बदला है। उसमें तेरापंथ-सम्मत अहिंसा के बारे में जो आपत्तियां खड़ी की थीं, उनके विषय में तेरापंथ का जो दृष्टि-बिन्दु है, बह संक्षेप में प्रस्तुत लघु कृति में निबद्ध है।
यह लघु पुस्तक तेरापंथ की अहिंसा विषयक मान्यता को सप्रमाण प्रस्तुत करती है।
अहिंसा और उसके विचारक
अहिंसा और दया-ये दो तत्त्व जैन आचार-परम्परा की रीढ़ हैं। इनका विस्तार से चिंतन हुआ है। कोणों की भिन्नता ने इन दोनों को बहुत विवादास्पद बना डाला। अनेक आचायों ने इन दोनों को भिन्न-भिन्न कोणों से देखा और तत्त्व का निरूपण किया ।
उन्नीसवीं शताब्दी के महान् आचार्य श्री भिक्षु ने इन तत्त्वों को जिस सही दृष्टिकोण से देखा, प्रतिपादन किया, वह इस पुस्तिका में निबद्ध है। उनके दया-दान के निरूपण ने विरोध का बवंडर पैदा कर दिया। यह इसलिए कि लोग आचार्य भिक्षु की भावना को पकड़ नहीं पाए और तब अर्थ का अनर्थ घटित होने लगा । आचार्य श्री तुलसी इस निरूपण पद्धति की आन्तरिक भावना को यथावत् रखते हुए उसको सरलता से प्रस्तुत करने लगे। लोगों ने नये परिवेश को पसंद किया। प्रस्तुत पुस्तक आचार्य श्री के समय-समय पर अहिंसा-दया पर अभिव्यक्त विचारों का एक लघु काय संग्रह है। भाव आचार्य
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दर्शन और सिद्धान्त
श्री के और भाषा युवाचार्य श्री की।
इस लघु पुस्तिका में १८ विषय हैं और वे अहिंसा और अनुकंपा की परिक्रमा किये चलते हैं।
तेरापंथ की अहिंसा विषयक मान्यता को सप्रमाण समझने के लिए यह पुस्तक बहुत उपयोगी है।
जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व-खण्ड १-२
इन दो खण्डों के पांच विभाग हैं। प्रथम खण्ड में तीन विभाग हैं१. परम्परा और इतिहास २. जैन दर्शन में ज्ञान-मीमांसा ३. जैन दर्शन में प्रमाण-मीमांसा । दूसरे खण्ड में दो विभाग हैं-१. जैन दर्शन में तत्त्व-मीमांसा' २. जैन दर्शन में आचार-मीमांसा। साथ ही साथ इसमें तीन परिशिष्ट भी
ये दोनों खण्ड जैन धर्म-दर्शन को समग्रता में प्रस्तुत करते हैं। ऐसा एक भी मुख्य विषय नहीं छूटता जिसका इसमें स्पर्श न हुआ हो। सारे विषयों को विस्तार से समझाया गया है और यत्र-ता आधुनिक ज्ञान की झलक के साथ तुलनात्मक अध्ययन भी प्रस्तुत किया गया है । जैन तत्त्ववाद बहुत विस्तृत है । उसकी मीमांसा भी विस्तार से हुई है। जैन संस्कृति और सभ्यता का भी इसमें विशद वर्णन है।
___लगभग हजार पृष्ठों के ये दो खण्ड जैन परम्परा सम्मत सभी विषयों का प्रतिपादन करते हैं और पाठक के समक्ष जैन धर्म-दर्शन को समग्रता से प्रस्तुत करते हैं।
एक प्रकार से कहा जा सकता है कि दो खण्डों में विभाजित यह ग्रन्थ जैन आगमों का निचोड़ है।
जैन परंपरा का इतिहास
युवाचार्य महाप्रज्ञ की बहुचचित पुस्तक 'जैन दर्शन: मनन और मीमांसा' के पांच खंड हैं । उनमें पहला है-परम्परा और कालचक्र । उसी का यह संक्षिप्त और परिष्कृत रूप है। उसमें छह अध्याय हैं-----
१. भगवान् ऋषभ से पार्श्व तक २. भगवान् महावीर ३. भगवान् महावीर की उत्तरकालीन परंपरा ४. जैन साहित्य ५. जैन संस्कृति ६. चिन्तन के विकास में जैन आचार्यों का योगदान ।
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण यह कृति जैन संस्कृति, सभ्यता, सिद्धान्त और दर्शन का अवबोध देती है । यह संकलन विद्यार्थियों को लक्ष्य कर किया गया था और यह 'जैन विद्या' के पाठ्यक्रम में सम्मिलित है। इसमें जैन परम्परा के विशिष्ट आचार्य और विशिष्ट स्थल, विदेशों में जैन धर्म, भारत के विभिन्न अंचलों में जैन धर्म आदि आदि विषयों का भी समावेश है।
जैन तत्त्व-चिन्तन
आचार्यश्री तुलसी ने 'जैन सिद्धान्त दीपिका' का प्रणयन किया। प्रस्तुत ग्रन्थ उसकी प्रस्तावना का परिवधित रूप है। इसमें जैन तत्त्व सम्बन्धी अनेक तथ्य चचित हुए हैं। इसमें आत्मवाद, कर्मवाद, षड्द्रव्य, नौ तत्त्व, दयादान, पाप-पुण्य, आत्मा और कर्म का सम्बन्ध, जातिवाद, अहिंसा और अनुकंपा, लौकिक धर्म और लोकोत्तर धर्म का स्वरूप, प्रवृत्ति और निवृत्ति, धर्म क्यों और क्या ? आदि-आदि विषयों पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है।
तीन परिशिष्टों से मंडित यह ग्रन्थ जैन धर्म-दर्शन सम्बन्धी अनेक जानकारियां प्रस्तुत करता है ।
जैन धर्म-दर्शन
युवाचार्यश्री ने जैन दर्शन : मनन और मीमांसा ग्रन्थ की रचना की। यह ग्रन्थ जैन दर्शन के प्रमुख विषयों का सप्रमाण दिग्दर्शन कराने वाला बृहत्काय ग्रन्थ है । जैन दर्शन के विशिष्ट अध्येताओं के लिए यह उपयोगी है । एक सुझाव आया कि जैनेतर व्यक्तियों के लिए भी एक ऐसा ग्रन्थ तैयार हो जो उन्हें सैद्धांतिक जटिलताओं से उबार कर जैनधर्म-दर्शन का ज्ञान करा सके। इस दृष्टि को क्रियान्वित करने के लिए यह सोचा गया कि नये ग्रन्थ के निर्माण के बदले निर्मित बृहद् ग्रंथ को ही संक्षिप्त कर जैनेतर व्यक्तियों के लिए उपयोगी बना दिया जाये। इसी सोच का प्रस्तुत ग्रन्थ परिणाम है । इसमें यत्रतत्र विषयों का संक्षेपीकरण किया गया है। शेष सारा बृहद् ग्रन्थ के सदृश ही
है
जैनदर्शन में प्राचार-मीमांसा
जैन आचार का मूल है-त्रिपदी। सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन और सम्यग् चारित्र-यह त्रिपदी रत्नत्रयी कहलाती है । जैन साधना पद्धति में यही आदि-बिन्दु है और यही चरम-बिन्दु है । आदि-बिन्दु में इनका अल्प विकास है और चरम-बिन्दु में इनकी पूर्णता है।
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दर्शन और सिद्धान्त
प्रस्तुत पुस्तक में इस त्रिपदी का सांगोपांग वर्णन है। प्रत्येक अंग को विस्तार से समझाया गया है । साथ-ही-साथ साधना-पद्धति, श्रमण-संस्कृति की दो धाराएं-जैन और बौद्ध, जैन दर्शन और वर्तमान युग-इन विषयों पर भी गहरी चर्चा है। इसमें गुणस्थान, समिति, गुप्ति, मोक्ष, ईश्वर आदि-आदि छोटे-बड़े सभी विषय चचित हैं तथा आचार के साधक-बाधक तत्त्वों का भी विस्तार से प्रतिपादन है।
___ जैन आचार पद्धति के अवबोध के लिए यह पुस्तक एक अनिवार्य घटक है।
जैनदर्शन में ज्ञान-मीमांसा
संसार में तीन प्रकार के पदार्थ हैं-हेय, ज्ञेय और उपादेय। इनको जानने का साधन है ज्ञान । ज्ञेय और ज्ञान दोनों स्वतन्त्र हैं। ज्ञेय हैं----द्रव्य, गुण और पर्याय । ज्ञान है आत्मा का गुण । न तो ज्ञेय से ज्ञान उत्पन्न होता है और न ज्ञान से ज्ञेय उत्पन्न होता है। हमारा ज्ञान जाने या न जाने फिर भी पदार्थ का स्वतन्त्र अस्तित्व है।
जैन दर्शन में पांच ज्ञान माने हैं--मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान । प्रथम दो इन्द्रिय-ज्ञान हैं और शेष तीन अतीन्द्रिय-ज्ञान हैं। इनके भेद-प्रभेदों तथा कार्यक्षेत्र का जितना सूक्ष्म विवेचन जैन दर्शन में प्राप्त है, वह अन्यत्र दुर्लभ है।
प्रस्तुत कृति युवाचार्यश्री की बृहद् कृति 'जैन दर्शन : मनन और मीमांसा' का एक खंड है । इसके मुख्यतः दो अध्याय हैं । पहला है.---ज्ञान और दूसरा है--- मनोविज्ञान । प्रथम अध्याय में ज्ञान की उत्पत्ति की प्रक्रिया, ज्ञान के विभाग, मन का लक्षण और कार्य तथा मति, श्रुत आदि पांचों ज्ञानों के विषय में चर्चा है। दूसरे अध्याय में जैन मनोविज्ञान के स्वरूप और आधार की विस्तार से चर्चा है। इसमें मन के विभिन्न पहलुओं का विश्लेषण इन शीर्षकों के अन्तर्गत हुआ है-मन क्या है ? शरीर और मन का पारस्परिक सम्बन्ध, इन्द्रिय और मन का ज्ञान-क्रम, मन इन्द्रिय है या नहीं ? इन्द्रिय और मन का विभाग-क्रम तथा प्राप्ति-क्रम, मन की व्यापकता आदि-आदि।
यह कृति जैनदर्शन सम्मत ज्ञान-मीमांसा को सहज सुबोध भाषा में समझने का अनुपम साधन है ।
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जैनदर्शन में तत्त्व-मीमांसा
यह युवाचार्यश्री की विशिष्ट कृति 'जैन दर्शन : मनन और मीमांसा' के 'दूसरे खंड ' 'दर्शन' का संक्षिप्त रूपान्तर है । इसके नौ अध्याय हैं
१. दर्शन
२. विश्व - दर्शन ३. लोक
४. विश्व विकास
महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
६. आत्मवाद ७. कर्मवाद
८. स्याद्वाद
६. नयवाद
५. जीवन-निर्माण
इन नौ अध्यायों में जैन दर्शन का समावेश हो जाता है । इनका संक्षिप्त किन्तु उपयोगी विवेचन प्रस्तुत कृति में हुआ है । इसे भी 'जैन विद्या' के पाठ्यक्रम में पाठ्य-पुस्तक के रूप में मान्यता प्राप्त है ।
जैन धर्म - दर्शन को समझने के लिए यह एक अनिवार्य कृति है । व्यक्ति इसके आधार पर जैन दर्शन के तत्त्ववाद को आसानी से समझ सकता है । इसमें स्थान-स्थान पर आधुनिक वैज्ञानिक मान्यताओं को भी तुलनात्मक ढंग से प्रस्तुत किया गया है । स्याद्वाद के विषय में उठने वाले आधुनिक विचारकों के प्रश्नों का समाधान भी उल्लिखित है । जैन तत्त्ववाद की जानकारी के लिए यह पुस्तक बहुत उपयोगी है ।
जैनदर्शन में प्रमाण-मीमांसा
प्रस्तुत ग्रन्थ में जैन न्याय और जैन प्रमाणशास्त्र को सहज-सरल भाषा में प्रस्तुत किया गया है । प्रमाणशास्त्र स्वयं एक जटिल और दुरूह विषय है । इसको हृदयंगम कर पाना बहुत कठिन होता है, क्योंकि इसमें भाषा की जटिलता और परिभाषाओं का जाल बहुत सघन होता है ।
प्रस्तुत कृति में जैन न्याय, प्रमाण, स्याद्वाद, नयवाद, सप्तभंगी, निक्षेप पद्धति, कार्य-कारणवाद आदि जटिल विषयों का सांगोपांग किन्तु संक्षिप्त विवेचन है । इसकी भाषा प्राञ्जल और प्रसादपूर्ण है । हिन्दी भाषा-भाषी लोगों को इस दुरूह विषय को समझने में कोई कठिनाई नहीं होगी ।
अर्थ का सम्यक् निश्चय करना न्याय -शास्त्र का कार्य है । प्रत्येक दर्शन ने अपने-अपने ढंग से न्यायशास्त्र और प्रमाणशास्त्र का प्रणयन किया है । जैन न्यायशास्त्र का उद्गम विक्रमपूर्व पांचवीं शताब्दी माना जाता है । यह बीज रूप में आगमों में सुरक्षित है । उस समय इसका विकास नहीं हुआ था । मध्यकाल में इसका विस्तार हुआ और अनेक न्याय -ग्रन्थों की रचना हुई ।
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दर्शन और साहित्य
प्रस्तुत ग्रंथ जैन न्याय की ऐतिहासिकता तथा उत्तरवर्ती विकास का सप्रमाण विवरण प्रस्तुत करता है ।
जीव-अजीव
भगवान महावीर कहते हैं...जो जीव को नहीं जानता, अजीव को नहीं जानता, जीव-अजीव को नहीं जानता, वह संयम को कैसे जान पाएगा? वह संयम को नहीं जान सकता। वह अहिंसा के मर्म को नहीं जान पाता । इसलिए अहिंसा की साधना के लिए जीव और अजीव, उनके भेद-प्रभेद, उत्पत्ति-भाव का पूरा ज्ञान होना अनिवार्य है। जैन दर्शन में जीव-अजीव का विशद वर्णन प्राप्त है : भिन्न-भिन्न दृष्टियों से इसका प्रतिपादन हुआ है।
प्रस्तुत ग्रंथ जीव-अजीव की कुछेक दृष्टियों से व्याख्या प्रस्तुत करता है । अन्यान्य आगमों में इनका विस्तार से वर्णन प्राप्त है, पर यह छोटा-सा थोकड़ा (स्तबक) होने के कारण, इसमें संक्षिप्त व्याख्या है, केवल अंगुलीनिर्देश मात्र है । यह थोकड़ा जैन परंपरा में बहुत प्रचलित रहा है और हजारों नर-नारी इसको कटस्थ रखते हैं । एक प्रकार से यह जैन सिद्धांतों की मूल कुंजी: । यह पचीस बोल' के नाम से प्रसिद्ध है। प्रस्तुत पुस्तक में पचीस बोलों की संक्षेप में व्याख्या है। जैसे - जीव की उत्पत्ति के चार प्रमुख स्थानों का निर्देश, इन्द्रियों के आधार पर जीवों का वर्गीकरण, प्राण, पर्याप्ति, यांग, आत्म-विकास की चौदह भूमिकाएं.--गुणस्थान, कर्म, लेश्या, चारित्र आदिआदि का उल्लेख है । यथार्थ में इन पचीस बोलों में सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र का ही निरूपण है। उनके परिपाश्र्व में उनके साधकबाधक तत्त्वों का भी प्रतिपादन हुआ है। यह ग्रंथ जैन दर्शन और जैन सिद्धांत के अध्येताओं के लिए प्राथमिक आवश्यकता है।
इस ग्रंथ के अब तक दस संस्करण निकल चुके हैं और यह 'जैन-विद्या' के पाठ्यक्रम में भी स्वीकृत है।
जैन धर्म : बीज और बरगद
जैन धर्म अत्यन्त प्राचीन धर्म है। भगवान महावीर के निर्वाण की छह शताब्दी तक यह एक और अखंड था। फिर इसका विस्तार हुआ और यह अनेक शाखा-प्रशाखाओं में विभक्त हो गया।
प्रस्तुत पुस्तक में चार अध्याय हैं। इनमें बहुविध सामग्री संकलित है। प्रथम अध्याय के ११ लेखों में जैन धर्म के विविध पहलुओं पर चर्चा है। दूसरे अध्याय के ६ निबंधों में तेरापंथ धर्मसंघ का अनेक कोणों से प्रतिपादन है।
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
तीसरे अध्याय के १४ शीर्षकों में तेरापंथ धर्मसंघ के कुछेक आचार्य, मुनि तथा शासनसेवी उपासकों का जीवनवृत्त है । चौथे अध्याय में जैन तत्त्ववाद की मीमांसा है। इसमें तात्कालिक अनेक सैद्धांतिक पक्षों का निरूपण भी है । इस प्रकार यह पुस्तक अनेक विषयों को छूती हुई पाठक के सामने अनेक ऐतिहासिक जानकारियां प्रस्तुत करती हैं ।
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श्रमण संस्कृति की दो धाराएं : जैन और बौद्ध
भारत में दर्शन की दो सुख्य धाराएं रही है- वैदिक और श्रमण । श्रमण धारा में मुख्य दो प्रवाह हैं- जैन और बौद्ध । इन दोनों प्रवाहों में समानता के तत्त्व काफी हैं । प्रस्तुत लघु पुस्तिका में इन्हीं को अभिव्यक्ति दी गई है । लघु पुस्तिका होते हुए भी यह जैन और बौद्ध दर्शन का सुंदर तुलनात्मक चित्रण प्रस्तुत करती है । यह पुस्तक 'नयवाद' के शीर्षक से भी प्रकाशित हुई है ।
दया दान पर प्राचार्य श्री भिक्षु का जैन शास्त्र सम्मत दृष्टिकोण
इसमें तेरापन्थ धर्मसंघ सम्मत दया और दान विषयक ऊहापोह है । आचार्य भिक्षु तेरापंथ के आद्य प्रवर्तक थे । उन्होंने जैन आगमों के आधार पर दया और दान – इन दो विषयों पर विस्तार से विवेचन प्रस्तुत किया । इस विवेचन से तात्कालिक दया दान की प्रचलित मान्यताओं पर प्रहार हुआ । अन्य संप्रदाय तिलमिला उठे । आचार्य भिक्षु के उसी चिंतन को इस पुस्तक में आधुनिक संदर्भ में प्रस्तुत किया गया है ।
इस कृति में आगम-सम्मत दया दान की परिभाषाएं हैं और इनको लौकिक और लोकोत्तर- इन दो विभागों से समझने का स्पष्ट निर्देश है । लौकिक दया और लौकिक दान- सहयोग है, परस्परावलंबन का एक साधन है । लोकोत्तर दया और लोकोत्तर दान - मोक्ष का मार्ग है, रत्नत्रयी का साधक है । आचार्य भिक्षु ने लौकिक दान-दया का निषेध नहीं, विवेक दिया । यह सब इसमें विवेचित है ।
विश्व स्थिति
पचास पृष्ठों की इस लघु पुस्तिका में ग्यारह विषयों को संक्षेप में समझाया गया है । वे विषय हैं- विश्व अनादि-अनन्त है, स्यादवाद, दो
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दर्शन और सिद्धान्त
तत्त्व, विश्व-स्थिति का मूल सूत्र, विकासवाद के मूल सूत्र, आदि आदि । यह युवाचार्य श्री की प्रारंभिक कृतियों में से एक है । पुस्तक आकार में लघु होकर भी जैन दर्शन विषयक अनेक नवीन जानकारियां देती है ।
श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी साधुयों की भिक्षावृत्ति
अनेक प्रान्तों में जब बेगर्स बिल (भिक्षा निरोधक बिल) प्रस्तुत हुआ तब यह आवश्यक हो गया कि भिक्षु और भिखारी का भेद स्पष्ट किया जाए । इसी संदर्भ में तेरापन्थी मुनियों की या जैन मुनियों की भिक्षा विधि को स्पष्ट करने वाली यह पुस्तिका लिखी गई । यह निबंध साधुओं की भिक्षावृत्ति का सर्वांगीण विवेचन प्रस्तुत करता है ।
धर्मबोध (भाग १, २, ३)
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भारत में प्रमुख रूप से दो संस्कृतियां रही हैं- श्रमण संस्कृति और वैदिक संस्कृति । श्रमण संस्कृति के अन्तर्गत मुख्यतः दो परम्पराएं आती हैं-जैन और बौद्ध | जैन परंपरा का सारा प्राचीन साहित्य प्राकृत भाषा में है । मूल आगम उसकी धरोहर है । प्राकृत भाषा जब दुरूह हुई तब उस पर संस्कृत
टीकाएं लिखी जाने लगीं । आज उन टीका ग्रन्थों को समझना भी सरल नहीं रहा है । भाषा की दुविधा के कारण जैन धर्म-दर्शन जन साधारण का • भोग्य नहीं बना । आज दूसरी-दूसरी परम्पराओं के व्यक्तियों की बात छोड़ दें, जैन परंपरावलंबी व्यक्ति भी अपने मूल आगमों को समझने में दुविधा का अनुभव करते हैं । अतः यह सोचा गया कि प्रारंभ से ही बच्चों को जैन तत्त्वज्ञान का शिक्षण देने के लिए हिन्दी भाषा में उसका प्रस्तुतीकरण हो ।
इसी दृष्टि से जैन पाठ्यक्रम के रूप में इन तीन भागों की रचना की गई । तत्त्वज्ञान स्वयं कठिन होता है । उसको यदि सिद्धांत पक्ष की जटिलताओं से रखा जाए तो बालक उसमें रुचि नहीं ले पाते । यदि तत्त्वज्ञान को कथाओं, वार्ता-प्रसंगों तथा प्रश्नोत्तरों के माध्यम से दिया जाए तो बच्चे उसको सरलता से हृदयंगम कर लेते हैं ।
प्रस्तुत पुस्तकों में तत्त्वज्ञान के अतिरिक्त जीवन में नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठापना करने के उपदेश तथा महापुरुषों की जीवनियां भी हैं । इनमें धर्म की उपासना के विविध सूत्र भी संकलित हैं । इन पुस्तकों में बच्चों को कंठस्थ करने की प्रेरणा भी है । किस प्रकार का कंठस्थ-ज्ञान जीवन में उपयोगी होता है, उसका उल्लेख है ।
इन पुस्तकों में क्रमिक योग्यता के अनुसार विषय गंभीर होते गए हैं ।
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
बालक जब धीरे-धीरे इन विषयों से परिचित होता जाता है, वह उनका पारायण कर निष्णात बनता जाता है ।
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जैन परंपरा, संस्कृति तथा जैन तत्त्वज्ञान को प्रारंभिक रूप से समझने के लिए ये पुस्तकें बहुत उपयोगी हैं ।
अणुव्रत : एक परिचय
अनैतिकता, भ्रष्टाचार और स्वच्छंदता के युग में आचार्य श्री तुलसी ने अनुशासित, मर्यादित और व्यवस्थित जीवन जीने के लिए लोगों को अणुव्रत का संदेश दिया ।
यह लघु पुस्तिका अणुव्रत आन्दोलन के प्रवर्तन काल — सन् ४८ से सन् ८२ तक का संक्षिप्त लेखा-जोखा प्रस्तुत करती है । अणुव्रत आन्दोलन का प्रवर्तन क्यों हुआ ? उसका भारतीय जनता ने कैसा स्वागत दिया ? नेताओं की दृष्टि में इसका क्या चित्र बना ? आदि-आदि विषयों को छूते गए इसमें अणुव्रत संबंधी संक्षिप्त जानकारी प्राप्त है ।
अणुव्रत-दर्शन
अनैतिकता के आज अनेक रूप प्रचलित हैं । उनमें से मुख्य हैं : --अर्थ विषयक अनतिकता, चरित्र विषयक अनैतिकता, समाजनीति और राजनीति विषयक अनैतिकता आदि । इन अनैतिकताओं से सारा मानव समाज त्रस्त है । देश चाहे विकासशील हो या न हो, धनाढ्य हो या निर्धन, सर्वत्र अनैतिकता का बोलबाला है । गरीब ही इस चंगुल में नहीं फंसा है, धनवान भी इसके फंदे में फंसा हुआ है ।
अणुव्रत आंदोलन इन अनैतिकताओं की ओर अंगुली -निर्देश करता है और इनसे छुटकारा पाने की प्रेरणा देता है । मानवीय दृष्टिकोण और आध्यात्मिक सूत्रों के आधार पर नैतिकता का स्वरूप निर्धारित कर व्यक्ति को नैतिक बनने की प्रायोगिक भूमिका प्रस्तुत करना इस आन्दोलन का कार्य है । यह नैतिक आन्दोलन चालीस वर्षों से चल रहा है और कहा जा सकता है कि यही एकमात्र नैतिकता का संदेश देने वाला आन्दोलन है । इसके प्रभाव से आज सर्वत्र नैतिकता की बात सोची-समझी जा रही है ।
प्रस्तुत पुस्तक में अणुव्रत की पृष्ठभूमि में रहे हुए दर्शन को विवेचित किया गया है । अणुव्रत दर्शन का मूल आधार है अध्यात्म | विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में इसको प्रस्तुत कर लेखक ने आज के वैज्ञानिक मानव को अध्यात्म की ओर प्रेरित किया है, प्रस्थित किया है । इस पुस्तक के पांच अध्याय हैं
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दर्शन और सिद्धान्त
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१. अणुव्रत ।
४. अहिंसक समाज संरचना । २. अणुव्रत आन्दोलन । ५. असंग्रह । ३. नैतिकता।
इनमें कुल ५५ निबंध हैं, जिनमें अणुव्रत को स्पष्ट किया गया है । अणुव्रत आन्दोलन व्रतों का आन्दोलन है, छोटे-छोटे नियमों को ग्रहण करने की प्रेरणा का आन्दोलन है।
अणुव्रत के सर्वांगीण दर्शन को समझने के लिए यह पुस्तक एक अनिवार्यता है।
राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय समस्याएं और अणुव्रत
आज प्रत्येक राष्ट्र अपनी राष्ट्रीय समस्याओं से आक्रांत है । अन्तर् राष्ट्रीय समस्याएं भी उसे छूती हैं और तब वह उनसे प्रभावित हुए बिना भी नहीं रहता । इसीलिए उसे अपने राष्ट्र तथा दूसरे राष्ट्रों की समस्याओं से भी जूझना पड़ता है, समाधान खोजना होता है । सारी समस्याएं एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं।
अणुव्रत आन्दोलन नैतिक निष्ठा को जगाने का आन्दोलन है। इसकी मान्यता है कि व्यक्ति में नैतिक निष्ठा जितनी प्रबल होगी, उतना ही वह समस्याओं से कम आक्रांत होगा। आज अनैतिकता का प्रसार सभी क्षेत्रों में है। शिक्षण-संस्थाएं और न्यायपालिकाएं भी इससे स्पृष्ट हैं । अतः सर्वत्र समस्याएं उभरती हैं । एक दृष्टि से देखा जाए तो अनैतिकता मूल समस्या है और यही दूसरी सारी समस्याओं की जननी है। आज की मुख्य समस्याए हैं-- अनुशासनहीनता, दायित्वबोध की कमी, करुणा और संवेदनशीलता का अभाव, अतिकामुकता, अतिलोभ, विस्तारवादी मनोवृत्ति, हिंसा की ओर उन्मुखता, लोलुपता, पदार्थासक्ति आदि । अणुव्रत आन्दोलन इन सबके समाधान का सूत्र प्रस्तुत करता है।
प्रस्तुत लघु कृति में-राष्ट्रधर्म, अणु-अस्त्र और मानवीय दृष्टिकोण, युद्ध और अहिंसा, सह-अस्तित्व, एकता की समस्या, अणुव्रत और साम्यवाद, लोकतंत्र को चुनौति, अभय की शक्ति—इन विषयों पर विशद विचार हैं । अणुव्रत आन्दोलन के विचार-दर्शन को समझने में यह पुस्तक उपयोगी है।
अणुव्रत आन्दोलन और भावी कार्यक्रम की रेखाएं
इस लघु पुस्तिका का प्रतिपाद्य स्वयं इसके शीर्षक से ही ज्ञात हो जाता है । अध्यात्म जागरण के लिए अनेक धर्म-संप्रदाय प्रयत्नशील हैं । पर
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७६
महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
अणुव्रत आन्दोलन का अपना वैशिष्ट्य है। यह संप्रदाय-मुक्त है, इसलिए जनमानस इसके प्रति आकृष्ट है । इस पुस्तिका में आन्दोलन आगे क्या करना चाहता है, इसकी एक संक्षिप्त रूपरेखा प्रस्तुत है ।
अणुव्रत विशारद
अणुव्रत मानवता की आचारसंहिता है, साम्प्रदायिक एकता का प्रयोग है तथा वैचारिक क्रान्ति की पृष्ठभूमि पर उभरने वाला जीवन्त नैतिक प्रयोग है । अणुव्रत की आस्था व्यक्ति निर्माण में है। व्यक्ति जितना नैतिक और आचारनिष्ठ होगा समाज उतना ही उन्नत, सुसंस्कृत और समृद्ध होगा। बचपन से ही यदि अणुव्रत का पाठ पढ़ाया जाये तो बच्चा सुसंस्कृत और होनहार मानव बन सकता है । इस दृष्टि को ध्यान में रखते हुए अणुव्रत से संबंधित तीन परीक्षाएं होती हैं । क्रम इस प्रकार है-(१)अणुव्रत विज्ञ । (२)अणुव्रत विशारद । (३) अणुव्रत प्रभाकर ।
। प्रस्तुत पुस्तक नैतिक पाठमाला भाग २ का नामान्तरित संस्करण है । यह अणुव्रत परीक्षा बोर्ड द्वारा स्वीकृत १०-११ वीं कक्षा की पाठ्य पुस्तक है। इसका उद्देश्य है विद्यार्थी में मानवीय गुणों को विकसित करना । वे मानवीय गुण हैं--- मृदुता, सत्यनिष्ठा, अभय, अनासक्ति, श्रम, स्वावलंबन आदि ।
नैतिक पाठमाला
नैतिक शिक्षा की आज अत्यन्त आवश्यकता महसूस की जा रही है। शिक्षा-क्षेत्र की उइंडता से सारे विचलित हैं। सभी यह चाहते हैं कि विद्यार्थी का जीवन सुसंस्कारित और अनुशासित हो, क्योंकि आगे चलकर विद्यार्थी ही समाज और राष्ट्र का महत्त्वपूर्ण घटक होता है।
मानवीय गुणों के विकास की उर्वरा भूमि है विद्यार्थी-जीवन । इसे परिलक्षित कर नैतिक पाठ्यक्रम का सृजन किया गया है। इसमें पांचवीं कक्षा से ग्यारहवीं कक्षा तक नैतिक पाठ्यक्रम का निर्धारण कर पुस्तकों का निर्माण हुआ। इसमें नैतिकता के तेरह मानदंड मान्य किए गए हैं और उन्हीं के आधार पर पाठ्यक्रम विकसित किया गया है। वे तेरह मानदंड हैं१. अभय २. अहं का विसर्जन ३. सत्य ४. आर्जव ५. करुणा ६. धैर्य ७. अनासक्ति ८. स्वावलंबन ६. आत्मानुशासन १०. सहिष्णुता ११. कर्त्तव्यनिष्ठा १२. व्यक्तिगत संग्रह का विसर्जन और १३. प्रामाणिकता ।
प्रस्तुत पुस्तक दसवीं-ग्यारहवीं कक्षा के विद्यार्थियों के लिए लिखी गई
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दर्शन और सिद्धान्त
है । इसमें इन मानदण्डों का कथा आदि के माध्यम से विवेचन है । इसमें किसी सम्प्रदाय - विशेष की मान्यताओं का प्रतिपादन न होकर सर्व सामान्य नैतिक मूल्यों की चर्चा है ।
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४. विविधा
इसमें विभिन्न विषयों से संबंधित १५ पुस्तकों का परिचय है। यूवाचार्य श्री कभी दार्शनिक विषयों पर प्रवचन करते हए विद्वद् मंडली को संबोधित करते हैं तो कभी सामान्य विषयों पर जन-साधारण के बीच बोलते हैं। कभी वे शिक्षकों और विद्यार्थियों को उदबोधित करते हैं तो कभी राजनयिकों और राज्याधिकारियों को दिशा-दर्शन देते हैं। कभी महिलाओं को उनके कर्तव्य से परिचित कराते हैं तो कभी युवकों को दायित्व-बोध की अवगति देकर अध्यात्म में पुरुषार्थ के विस्फोट की बात बताते हैं ।
इस खंड में उन सभी पुस्तकों का परिचय है जो विभिन्न वर्गों के मध्य दिए गए विभिन्न विषयों के प्रवचनों से विभूषित हैं।
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घट घट दीप जले
प्रकाश सबको प्रिय है । कोइ अंधेरा नहीं चाहता । अंधेरे को मिटाना एक बात है, पर अंधेरे को प्रकाश में बदल देना दूसरी बात है । अध्यात्म वह प्रकाश है जो घट-घट में प्रकाशित होकर अखंड रह सकता है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रकाश को प्राप्त करने की प्रक्रियाओं का उल्लेख है तथा अध्यात्म के परिप्रेक्ष्य में अनेक विषयों का स्पर्श किया गया है। इसमें मुख्य विषय ये हैं
१. राजनीति का आकाश : नैतिकता की खिड़की २. समाजवाद में कर्मवाद का मूल्यांकन ३. विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था और कर्मवाद ४. कमशास्त्र : मनोविज्ञान की भाषा में ५. भारतीय दर्शन में निराशावाद ६. सत्य की खोज : विसंवादिता का अवरोध ७- प्रत्ययवाद और वस्तुवाद ८. परिणामिनित्य ६. अद्वैत और द्वैत
इसी प्रकार सामयिक वादों और प्राचीन तत्त्ववादों का भी सुन्दर विवेचन इसमें प्राप्त है।
शिक्षा और शिक्षक के विषय में भी अनेक तथ्यपूर्ण निबंधों का इसमें समाकलन है। इसी प्रकार धर्म और कर्तव्य, धर्म और विज्ञान, धर्म का मनोवैज्ञानिक विश्लेपण, धर्म : समस्या के संदर्भ में, धर्म और जीवनव्यवहार आदि-आदि निबंधों में धर्म के संदर्भ की चर्चा है।
युवक की सर्वांगीण परिभाषा और उसके दायित्व-बोध, अनुशासन, कर्तव्य-बोध आदि के दस निबंध प्राप्त हैं, जिनमें युवक की विभिन्न कोणों से चर्चा की गई है। ये निबंध युवक के मानसिक, वैचारिक और व्यावहारिक जीवन को उच्च बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। जैसे
० युवक वह है जो विपरीत दिशा में खड़ा रह सकता है । ० युवक वह है जिसमें युगबोध होता है। ० युवक वह है जिसमें धन का, प्राणों का और जिजीविषा का मोह
नहीं होता। ० युवक वह है जो आगे की ओर देखता है। ० युवक वह है जो शक्ति या शक्ति की अभिव्यक्ति का स्रोत है ।
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
लगभग ४५० पृष्ठों का यह बृहत्ग्रन्थ अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों का समवाय है। इसमें सामयिक, प्राचीन तथा अर्वाचीन सभी प्रकार के विषयों पर चर्चा है।
मैं : मेरा मन : मेरी शांति
प्रस्तुत ग्रन्थ में विभिन्न विषयों पर चर्चित ६५ निबंध तीन अध्यायों में विभक्त हैं
१. मैं और मेरा मन २. धर्म-क्रान्ति ३. मानसिक शान्ति के सोलह सूत्र
प्रथम अध्याय के अन्तर्गत मानसिक स्तर पर उभरने वाले प्रश्नों और मन की चंचलता के विषय में विस्तार से चर्चा प्राप्त है । अहिंसा के विभिन्न पहलुओं पर इसमें पर्यालोचन है। इसका निष्कर्ष है कि सापेक्ष सत्य के बिना व्यवहार चलता नहीं।
'धर्म क्रान्ति' के अन्तर्गत धर्म, अध्यात्म और नैतिकता से संबंधित अनेक पहलू छुए गये हैं। क्षमा, मुक्ति, आर्जव आदि दस धर्मों का इसमें व्यावहारिक धरातल का विवेचन प्राप्त है। यह विभाग धर्म के सर्वांगीण स्वरूप का सुंदर विश्लेषण करता है।
तीसरा अध्याय दो भागों में विभक्त हैं। पहला है व्यक्तिगत साधना के आठ सूत्र और दूसरा है सामुदायिक साधना के आठ सूत्र । व्यक्तिगत साधना के आठ सूत्र हैं--उदरशुद्धि, इन्द्रिय-शुद्धि, प्राण-अपान-शुद्धि, अपानवायु और मन:-शुद्धि, स्नायविक तनाव का विसर्जन, ग्रन्थिमोक्ष, संकल्पशक्ति का विकास और मानसिक एकाग्रता । सामुदायिक साधना के आठ सूत्र हैं-सत् व्यवहार, प्रेम का विस्तार, ममत्व का विसर्जन, सहानुभूति, सहिष्णुता, न्याय का विकास, परिस्थिति का प्रबोध और सर्वांगीण दृष्टिकोण ।
अन्तिम अध्याय के अन्तर्गत दर्शन के सुदूर अंतरिक्ष में प्रस्थान कर लेखक ने कुछ प्रश्न 'अहं' की भाषा में प्रस्तुत किए हैं और उनके उत्तर 'अहं' की भाषा में दिए हैं । 'अहं' का वाचक है 'मैं'।
प्रस्तुत ग्रन्थ में श्रुत, चिन्तित या वितकित सत्य की अपेक्षा दृष्ट सत्य अधिक उजागर हुआ है। लेखक का मानना है-'अपनी अंतर् अनुभूति को जागत करने में जो कर्म-कौशल है, वह दूसरों की बात मानने और अपनी बात मनवाने में नहीं है। जिस दिन हम मान्यता का स्थान दर्शन को, साक्षात्कार को उपहृत करेंगे, वह धर्म की महान् उपलब्धि का दिन होगा।'
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विविधा
विचार का अनुबन्ध
मनुष्य विचारशील प्राणी है। वह विचार करता है, किन्तु व्यक्तिव्यक्ति के विचारों में रात-दिन का अंतर होता है। एक विचार व्यक्ति को उन्नति के शिखर पर पहुंचा देता है तो दूसरा विचार रसातल में भी पहुंचा देता है।
विचारों का भी बंधन होता है । व्यक्ति परिस्थिति और वातावरण से बंधा होता है। उसी प्रकार विचारों से भी बंध जाता है। बंधन बंधन है। हम इस अनुबंध को कैसे काटें, कैसे हम विचार से निर्विचार की ओर अग्रसर हों, यही इस पुस्तक का प्रतिपाद्य है ।
इसमें विषयों की विविधता है। सारे विषय विचारों के ऋणी हैं । उनमें विभिन्न प्रकार के विचार अभिव्यक्त हुए हैं । सतावन विषयों को संक्षेप में समेटे हुए यह पुस्तक उपयोगी विचारों से मानव-मानव को अनुप्राणित करने वाली है।
बहुश्रुत लेखक पुस्तक के बारे में अपने विचार प्रस्तुत करते हुए कहते हैं-मैं मौलिक या अमौलिक-कौन सा विचार प्रस्तुत कर पाया हूं, इसकी मीमांसा मुझे नहीं करनी है और न दूसरे से इसकी याचना भी मुझे करनी है। जो विचार वर्तमान में आलोक दे सकते हैं, उलझनों को सुलझा सकते हैं, उनकी उपयोगिता है। उस उपयोगिता को स्वीकृति देकर विभिन्न अवसरों पर मैंने अपने विचार प्रस्तुत किए हैं, कभी बोलकर और कभी लिखकर । उन दोनों का इस पुस्तक में संकलन है।'
समस्या का पत्थर : अध्यात्म को छेनो
समस्याएं अनेक हैं। आदमी का समूचा जीवन एक के बाद एक आने वाली समस्याओं को सुलझाने में बीत जाता है। फिर भी वह एक भी समस्या को पूर्णत: निरस्त नहीं कर पाता। इसीलिए समस्या का पत्थर अडोल बना रहता है। उसको तराशना आदमी जानता नहीं । उसके पास वह छेनी नहीं है।
अध्यात्म एक सशक्त छेनी है । उससे समस्या के पत्थर को तराशा जा सकता है। समस्याओं का मूल व्यक्ति का अपना मन है, मन की वृत्तियां हैं। काम, क्रोध, भय, लोभ, वासना, घृणा, ईर्ष्या, शोक आदि ये मन के आवेग हैं। जब तक ये जीवित हैं, तब तक बाहर में अनेक-अनेक समस्याएं उभरती रहेंगी। कोई भी वाद इनको नहीं सुलझा सकता । अध्यात्म के द्वारा ही ये समस्याएं सुलझ सकती हैं। इनके निरस्त हो जाने पर बाहर में
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण समस्याएं उठेगी नहीं और यदि उठेगी तो भी व्यक्ति उनसे परास्त नहीं होगा।
अध्यात्म के अनेक बिन्दु प्रस्तुत कृति में चित हैं। इसमें विभिन्न दृष्टियों से ४१ विषयों पर चर्चा प्रस्तुत है । मन की अंन्थियों के उन्मोचन से व्यक्ति समस्या-मुक्ति का अनुभव कर सकता है। व्यष्टि का यह अनुभव समष्टि का अनुभव बन सकता है। इसी सत्य के आस-पास यह पुस्तक परिक्रमा करती है। इसके चर्चित कुछेक विषय ये हैं— मुक्ति : समाज के धरातल पर, अध्यात्म का व्यावहारिक मूल्य, अध्यात्म की सूई : मानवता का 'धागा, समस्या यानी सत्य की अनभिज्ञता, प्रदर्शन की बीमारी आदि-आदि ।
तम अनन्त शक्ति के स्रोत हो
जैन दर्शन का यह स्पष्ट अभ्युपगम है कि प्रत्येक प्राणी अनन्त शक्ति से सम्पन्न है। इस शक्ति की अभिव्यक्ति में तरतमता होती है। उसी के आधार पर प्राणियों के अनेक विभाग बन जाते हैं ।
मनुष्य अपनी इस अपार शक्ति से पूर्ण परिचित नहीं है, क्योंकि वह बहिर्मुख अधिक है, अन्तर्मुख कम। इसी तथ्य की अभिव्यक्ति लेखक की इन पंक्तियों में होती हैं- 'तुम अनन्त शक्ति के स्रोत हो'--इस अभिधा से स्पष्ट है कि शक्ति का स्रोत बाहर से भीतर की ओर नहीं जा रहा है, किन्तु भीतर से बाहर की ओर आ रहा है। हमारे भीतर शक्ति है, प्रकाश है, और भी बहुत कुछ है, पर हमारी इन्द्रियां बहिर्मुखी हैं और मन भी बहिर्मुख हो रहा है। इसीलिए अपनी आन्तरिक शक्ति और प्रकाश से हम अपरिचित हैं।'
___आदमी अपने में अनन्त शक्ति होने की बात मानता है, जानता नहीं। मानना ज्ञानगत होता है और जानना आत्मगत। योगविद्या जानने का साधन है। इसे हम योगविद्या कहें, अध्यात्म विद्या कहें या मोक्ष विद्या कहें-कुछ भी कहें । इसका प्रयोजन है-भीतरी शक्तियों का प्रस्फुटन, विस्फोट ।
प्रस्तुत कृति में २४ विषयों का सुन्दर संकलन है । इसमें जैन योग को समझने के लिए पर्याप्त सामग्री है। विविधाओं से मंडित यह कृति व्यक्ति को बहिर्मुखी से अन्तर्मुखी बनाती है, इसमें संदेह नहीं है । अनन्त शक्ति का स्फोट बहिर्मुखी व्यक्ति कभी नहीं कर सकता, अन्तर्मुखी व्यक्ति ही उसका विस्फोट कर गन्तव्य तक पहुंच सकता है ।
नैतिकता का गुरुत्वाकर्षण
आज के युग का सर्वाधिक चर्चित शब्द है--- नैतिकता। नैतिकता सामाजिक संबंधों का विज्ञान है । यह हृदय की पवित्रता का गुण है, आन्तरिक
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विविधा
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स्थिति है । वास्तविक नैतिकता वही है जो अध्यात्म से प्रभावित, प्रेरित या अनुस्यूत है । उसकी आधार-भित्ति उपयोगिता मात्र नहीं, किन्तु पवित्रता होती है। आज लोगों में धार्मिक आस्था होते हुए भी, वे नैतिकता के प्रति आस्थावान् नहीं हैं । इसीलिए जीवन और व्यवहार में विसंगतियां पैदा होती हैं । वस्तुतः धर्म और नैतिकता दो नहीं, एक ही हैं। धर्म-विहीन नैतिकता अनैतिकता का बाना ही है। प्रस्तुत कृति में २३ निबन्ध हैं और वे सब अणुव्रत के परिप्रेक्ष्य में नैतिकता का अवबोध स्पष्ट करते हैं। अणुव्रत आंदोलन नैतिकता की स्थापना का आंदोलन है और वह व्यक्ति के सर्वांगीण जीवन का स्पर्श कर चलता है।
लघुकाय होते हुए भी यह पुस्तक नैतिकता के बारे में अनेक नवीन तथ्यों और अवधारणाओं को जन्म देती है । आधुनिक नीति दर्शन का समन्वय करने वाली यह पुस्तक वैचारिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
तट दो : प्रवाह एक
प्रस्तुत कृति में दर्शन, जीवन, समाज-व्यवस्था के साथ अनिवार्यतः सम्बद्ध जीवनधर्म, राष्ट्रधर्म, एकता, अभय, अस्तेय, अहिंसा, सह-अस्तित्व आदि प्रश्नों के उत्तर जैन मत के परिपार्श्व में प्रस्तुत किए गये हैं। एक ओर इसमें समाज एवं राष्ट्र से संबद्ध मूल्यों की व्याख्या है तो दूसरी ओर मानवअस्तित्व के लिए अनिवार्य उन मूल्यों की व्याख्या भी है जो अर्हतों द्वारा उपदिष्ट है।
जैन चिन्तन की वैचारिक प्रक्रिया के माध्यम से राष्ट्र, समाज, व्यक्ति आदि को समझने का मौलिक चिंतन इस पुस्तक में उपलब्ध है।
तेरापंथ : शासन अनुशासन
तेरापंथ धर्मसंघ के आद्य प्रवर्तक आचार्य भिक्ष थे। उनकी दीर्घकालीन तपस्या, चारित्रिक निष्ठा और प्रखर साधना का प्रतिफलन है यह तेरापंथ । अनुशासन की दृष्टि से यह अपना विशिष्ट स्थान रखता है। अनुशासन इस संघ की नींव है । इस पथ पर चलने वाला प्रत्येक राही अनुशासन को अपना धर्म मानकर चलता है । आचार्य भिक्षु विशिष्ट अनुशास्ता थे। उन्होंने अनुशासन किया, पर किसी को परतंत्र नहीं बनाया। वही अनुशासन प्रिय हो सकता है, जो स्वतंत्रता की ज्योति को निरंतर प्रज्वलित रखता है। जो ऐसा नहीं होता वह थोपा हुआ अनुशासन होता है । वह हृदय को नहीं पकड़ता, शरीर को पकड़ता है।
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
प्रस्तुत कृति के ३५ निबंधों में शासन, अनुशासन और मर्यादा के सूत्रों का तो विवेचन हुआ ही है, साथ ही चरमोत्सव और पट्टोत्सव पर दिए गए विचारों का भी संकलन है जिनमें आचार्य भिक्ष और आचार्य तुलसी के जीवन को नई शैली में अभिव्यक्त किया गया है । 'हम आचार्य भिक्षु बनें', 'तुम्हारा शोषण वरदान बन जाता है', 'महान् स्वप्नद्रष्टा' आदि निबंध उन्हीं से संबंधित हैं। इस पुस्तक को पढ़कर समझा जा सकता है तेरापन्थ को और जाना जा सकता है आचार्य भिक्षु की पुण्य प्रेरणा, परिणति और परम्परा को।
धर्म के सूत्र
आदमी अंधकार को नहीं चाहता । वह प्रकाश चाहता है। आदमी अशरण रहना नहीं चाहता । वह शरण चाहता है । जीवन की तमिस्रा को मिटाने के लिए उसके समक्ष धर्म एक दीपक है। उसकी अशरणता या अत्राण को मिटाने के लिए धर्म ही द्वीप है । धर्म पवित्रता का एक मात्र साधन है, सुख का आधार है, शांति का मार्ग है और आनंद का स्रोत है।
प्रस्तुत कृति लघु है, पर इसमें धर्म के विभिन्न पहलुओं को स्पष्ट करने वाले तीस निबंध हैं । इनसे धर्म की अवधारणा या अवबोध स्पष्ट हो जाता है। जब अवबोध स्पष्ट हो जाता है तब उसे धर्म के सूत्र हस्तगत होने में विलंब नहीं होता । प्रस्तुत पुस्तक में धर्म के कुछेक सूत्र विवेचित हैं, जिनका अवलंबन लेकर व्यक्ति अपने जीवन की ही नहीं, दूसरों के जीवन की भी तमिस्रा को मिटा सकता है। इन सूत्रों को अपनाकर व्यक्ति सुनहले भविष्य का निर्माण ही नही बल्कि वर्तमान को भी सुखी और शांत बना सकता है।
हिन्दी जन-जन की भाषा
भारत को स्वतंत्र हुए चालीस वर्ष हो रहे हैं। किन्तु अभी तक हिन्दी राष्ट्रभाषा का गौरव नहीं पा सकी। इसमें व्यक्तियों के स्वार्थ अवरोधक बन रहे हैं।
प्रस्तुत लघु पुस्तक में लेखक ने छह प्रश्न सामने रखे हैं जो पुनश्चिन्त्य
(१) हिन्दी का स्वरूप क्या है ? क्या होना चाहिए ? (२) उसका स्वामित्व कहां है ? कहां होना चाहिए ? (३) उसके अस्तित्व और विकास के साधन कौन-कौन से हैं ? (४) उसका क्षेत्र-विस्तार कितना है ? (५) उसकी सत्ता कबसे है ?
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विविधा
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इन प्रश्नों के उत्तर लेखक ने दिये हैं, जो एक समाधान प्रस्तुत कर हिन्दी भाषा को गौरव तो प्रदान करते ही हैं, साथ ही इस दिशा में कार्य करने वालों का मार्ग भी प्रशस्त करते हैं ।
बालदीक्षा पर मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण
दीक्षा गह-त्याग का एक संकल्प है, जो विशेष आध्यात्मिक विकास के लिए स्वीकृत किया जाता है। इसके साथ बाल, युवा या वृद्ध शब्द नहीं जुड़ता। व्यक्ति चाहे बाल हो या वृद्ध जब उसका मन वैराग्य से परिपूर्ण हो जाता है तब वह सांसारिक बंधनों से छूटकर क्षणिक सुखों का परित्याग कर, शाश्वत सुख पाने के लिए उत्सुक होता है। यही उत्सुकता उसे दीक्षा या संन्यास की ओर ले जाती है।
सांप्रदायिक अभिनिवेश के वशीभूत होकर एक बार लोगों ने इस बात पर तूल दिया कि 'बालकों' (अल्पवयस्कों) की दीक्षा नहीं होनी चाहिए। उस अभिनिवेश में वे भूल गए कि दीक्षा का सम्बन्ध वय से नहीं पात्रता से है। यदि उनका नारा होता कि अयोग्य दीक्षा नहीं होनी चाहिए तो वह बात समझ में आ सकती थी, पर उन्होंने तेरापन्थ धर्मसंघ में यदाकदा होने वाली बालदीक्षा या प्रौढ़ दीक्षा को निशाना बनाकर बवंडर किया था। उस समय युवाचार्य श्री ने 'बालदीक्षा' के औचित्य और अनौचित्य को मनोविज्ञान तथा सिद्धान्तों के आधार पर प्रस्तुत कर यह स्थापना की कि बालक यदि संन्यास के योग्य है तो उसे दीक्षित किया जा सकता है और वृद्ध यदि संन्यास के अयोग्य है तो उसे दीक्षित नहीं किया जा सकता । दीक्षा छोटे-बड़े वय के साथ नहीं, योग्यता के साथ अनुबद्ध है।
प्रस्तुत पुस्तिका में यही सब कुछ विस्तार से सप्रमाण प्रतिपादित है ।
महाप्रज्ञ से साक्षात्कार
साक्षात्कार का अर्थ है --- प्रत्यक्षीकरण। साक्षात्कार लौकिक और अलौकिक दोनों प्रकार का होता है। अलौकिक साक्षात्कार में जहां वाणी मूक हो जाती है वहां लौकिक साक्षात्कार वाणी के माध्यम से ही होता है। युवाचार्यश्री अपने इन साठ बसन्तों में निरंतर आचार्यश्री के साथ रहे हैं। उन लंबी यात्राओं में हजारों-हजारों व्यक्ति संपर्क में आए हैं और अपनी जिज्ञासाओं का समाधान पाया है।
प्रस्तुत संकलन में कुछेक अवसरों पर भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के साथ हुए साक्षात्कारों का समावेश है। युवाचार्यश्री ने लिखा है--'साक्षात्कार की शैली
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
चिन्तन-मंथन के क्षेत्र में बहुत मान्य हो गई है। इससे श्रोता और पाठक की रुचि का संवर्धन भी होता है । सोच-विचार कर योजनाबद्ध जो लिखा जाता है, अथवा बोला जाता है उसमें अनुभूति की अपेक्षा बौद्धिकता अधिक झलकती है । जो भाव सहज प्रस्फुटित होता है, सहज अभिव्यक्त होता है, वह बुद्धि की अपेक्षा अनुभूति से अधिक जुड़ा होता है।'
साक्षात्कार में विषयों की एकरूपता तथा भाषा की समानता नहीं रह सकती। प्रत्येक साक्षात्कर्ता की जिज्ञासा भिन्न होती है, अवसर भिन्न होता है और उसी प्रकार समाधान भी भिन्न होता है।
प्रस्तुत संकलन में मुनियों, संपादकों, पत्रकारों, राजनयिकों, राजकर्मचारियों, विद्यार्थियों आदि-आदि के साक्षात्कार चयनित हैं। इनमें मुख्य हैंसाध्वीप्रमुखाश्री कनकप्रभाजी, लोकसभा के अध्यक्ष श्री बलराम जाखड़, 'तीर्थंकर' मासिक के संपादक डॉ० नेमीचन्द जैन, बेनेट कॉलमेन एण्ड कम्पनी के अध्यक्ष श्रीसाहू अशोक जैन, सर्वश्री श्रेणिक भाई, साहित्यकार प्रभाकर माचवे, हिमांशु जोशी आदि-आदि। इसमें अनेक समणियों के साक्षात्कार भी समाविष्ट
इन साक्षात्कारों के पारायण से अनेक विषय स्पष्ट होते हैं और पाठक अपनी अनुभूति के सम-धरातल पर उन्हें पाकर आनंदित होता है ।
विसर्जन
___एक शब्द में असंग्रह का आध्यात्मिक सूत्र है-विसर्जन । विसर्जन के दो अर्थ हैं----छोड़ना और देना। इन दोनों को प्रवचन के द्वारा और प्रश्नोत्तरों के माध्यम से इस लघु कृति में समझाया गया है। विसर्जन सामाजिक विषमता का परिहार-सूत्र है। हम इसके विभिन्न रूपों को इस कृति के माध्यम से समझ सकते हैं और ममत्व विसर्जन के मार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं। लघुकाय होते हुए भी यह पुस्तक वैचारिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
समाज व्यवस्था के सूत्र
समाज के दो चित्र स्पष्ट हैं । एक है पदार्थ-प्रतिबद्ध समाज और दूसरा है पदार्थ-मुक्त समाज । जब तक जीवन है तब तक पदार्थ रहेगा और उसका उपभोग भी होगा । पदार्थ का होना और उसका उपभोग करना एक बात है, पर पदार्थ-प्रतिबद्ध होना दूसरी बात है। पदार्थ-प्रतिबद्ध समाज में धन साधन नहीं, साध्य बन जाता है। धन साधन है जीवन यापन का, पर जब वह साध्य बन जाता है तब समाज में प्रतिक्रियाएं होती हैं।
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विविधा
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पदार्थ-मुक्त समाज का यह अर्थ नहीं है कि वह समाज पदार्थों का उपभोग नहीं करता । परन्तु ऐसे समाज में पदार्थ साधन मात्र रहता है, साध्य नहीं बनता।
___समाज अपनी अवधारणों से शासित होता है। धर्म ने इस क्षेत्र में कुछ महत्त्वपूर्ण अवधारणाएं दी हैं । वे समाज की व्यवस्था में आधारभूत तत्त्व बनती हैं। उनमें से कुछेक ये हैं---
१. जीवन के सर्वांगीण विकास में आकांक्षा का नहीं, संतोष का समावेश ।
२. श्रमनिष्ठा की प्रतिष्ठा और मूल्यांकन । ३. शिक्षा के प्रचार-प्रसार में आध्यात्मिक मूल्यों का समावेश ४. प्रतिक्रियाओं से बचकर क्रियात्मक जीवन जीने का प्रशिक्षण । ५. प्रतिबिम्ब नहीं, बिम्ब को पकड़ने की क्षमता का विकास । ६. सहिष्णुता का विकास ।
ये कुछ सूत्र स्वस्थ समाज की संरचना में आधारभूत बनते हैं । इन सब सूत्रों का विवेचन इस लघु कृति के चौदह निबन्धों में संग्रहीत हैं, जो समाज व्यवस्था को चेतनावान् बनाने की दिशा में मार्ग-दर्शन हेतु हैं। इसके अतिरिक्त प्रस्तुत पुस्तक में भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट सामाजिक अवधारणाओं का भी आधुनिक संदर्भ में निरूपण हुआ है।
संभव है समाधान
प्रत्येक व्यक्ति में जानने-समझने की ललक होती है । वह आगे से आगे अपनी जानकारी को बढ़ाना चाहता है । यही है जिज्ञासा । यह जीवन का वह सूक्ष्म तंतु है, जो जीवन को बांधे रखता है।
प्रेक्षाध्यान के शिविरों तथा अन्यान्य प्रवचनों में उपस्थित श्रोता तद्तद् विषयक प्रवचनों को सुनकर आनन्द से ओत-प्रोत हो जाते हैं। उनके मन में उन विषयों से सम्बन्धित अनेक प्रश्न उभरते हैं और जब वे प्रश्न समाधान के धरातल पर उतरते हैं तब उन्हीं श्रोताओं को अपूर्व आनन्द की अनुभूति होती है।
समस्या और समाधान, प्रश्न और उत्तर-दोनों साथ-साथ चलते हैं। समस्या हो और समाधान न हो या प्रश्न हो और उसका उत्तर न हो, ऐसा नहीं होता। हां, इस विधा में बहुश्रुत व्यक्ति का सान्निध्य अपेक्षित होता है ।
युवाचार्य श्री ने प्रस्तुत पुस्तक की प्रस्तुति में जो लिखा है, वह स्वयं इस पुस्तक का परिचय देने में पर्याप्त है----'जिज्ञासा समाधान को न छुए और समाधान जिज्ञासा को न छुए तो दोनों अनछुए रह जाते हैं । इस अवस्था में
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण दोनों की सार्थकता नहीं होती । केवल तर्क के लिए तर्क-इस भूमिका में समाधान संभव नहीं बनता । वह जिज्ञासा की भूमिका में ही संभव बनता है। प्रारम्भ से ही आचार्यश्री तुलसी ने मुझे अवसर दिया कि जिज्ञासा आए और उसका मैं समाधान दूं । फलतः समाधान देना एक निसर्ग बन गया। अनेकांत का सिद्धांत और उसकी भाषा-शैली- ये दोनों मुझे प्रिय रहे हैं। समाधान में उनका अधिकतम प्रयोग हुआ है।'
प्रस्तुत पुस्तक बिखरे हुए प्रश्नों और जिज्ञासाओं तथा उनके समाधानों का संकलन है । उन सबका विषयगत विभाजन तीन शीर्षकों में किया है-- १. योग और ध्यान २. समाज और राष्ट्र ३. दर्शन और सिद्धांत । कहीं-कहीं एक ही विषय से सम्बन्धित प्रश्नों की पुनरावृत्ति भी हुई है, किंतु उनके समाधान में नवीनता है, अतः उनका भी समावेश है। इस प्रकार पुस्तक के अंतर्गत शताधिक प्रश्न हैं और उनका वर्तमान के वैज्ञानिक परिवेश में समाधान प्रस्तुत है।
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५. गद्य-पद्य काव्य
प्रस्तुत खंड में गद्य-पद्य काव्य से सम्बंधित है पूस्तकों का परिचय है। काव्य-निर्माण की शक्ति नैसर्गिक भी होती है और अभ्यासजनित भी। युवाचार्यश्री नैसर्गिक काव्यशक्ति के धनी हैं। काव्य-रचना के विषय में वे कहते हैं- 'कविता मेरे जीवन का प्रधान विषय नहीं है। मैंने इसे सहचरी का गौरव नहीं दिया। मुझे इससे अनुचरी का-सा समर्पण मिला है। मैंने कविता का आलंबन तब लिया, जब चितन का विषय बदलना चाहा। मैंने कविता का आलंबन तब लिया जब दार्शनिक गुत्थियों को सुलझाते-सुलझाते थकान का अनुभव किया।
गद्य-पद्य काव्य की इन कृतियों में अभिव्यंजित विचारों से सहस्रशः व्यक्ति लाभान्वित हुए हैं और आज भी उन विचारों में इतनी सद्यस्कता है कि वे आज की समस्याओं से आक्रांत व्यक्ति को समाधान देकर आश्वस्त कर सकते हैं।
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अनुभव : चिन्तन : मनन
इसमें समय-समय पर लिखे गए अनुभूतिपरक गद्य काव्य हैं जो पाठक के हृदय को बींधकर उसको सोचने के लिए प्रेरित करते हैं। इसकी महत्ता हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में इस प्रकार है- 'मुनिश्री (युवाचार्य महाप्रज्ञ) ने छोटे-छोटे गीतों में बहुत ही प्रेरणादायक अनुभव और चिंतन का प्रकाश भर दिया है। उन्होंने स्वच्छ संवेदनशील चित्त से प्राकृतिक व्यापारों को देखा है
और उससे बहुमूल्य निष्कर्षों पर पहुंचे हैं। मुनिश्री ने प्रस्तुत कृति में जिस शब्दावली का प्रयोग किया है वह सरल और प्रेषणधर्मी है ।'
लेखक अनुभव, चिन्तन, मनन- इन तीनों शब्दों की व्याख्या करते हुए लिखते हैं... 'अनुभव है योग और वियोग की कहानी। मन संवेदना से जितना भरा होता है, अनुभूति उतनी ही तीव्र होती है। चिन्तन है - जीवन की गहराई का प्रतिबिम्ब और दुश्चिन्ता है--- जीवन-संपदा की अन्त्येष्टि । अनुभूति में विवेचन नहीं होता, चिन्तन में गति नहीं होती। अनुभूति का परिपाक विवेक में होता है और विवेक का परिपाक होता है मनन में । मनन है--ज्ञान और आचरण का समीकरण ।'
प्रस्तुत लघु कृति प्रत्येक व्यक्ति को अनुभव, चिन्तन और मनन के लिए प्रेरित करती है और यही कथनी-करनी को मिटाने का एकमात्र उपाय
गूंजते स्वर : बहरे कान शब्द की प्रकृति है गूंजना । बाह्य जगत् में शब्द ही एक ऐसा सहारा है जो कानों में पड़कर अवबोध देता है, आदमी को झकझोरता है। शब्द की शक्ति अपार है। वह अर्थ भी घटित कर सकता है और अनर्थ भी घटित कर सकता है । संदर्भहीन शब्द अनर्थ घटित कर देता है और संदर्भयुक्त शब्द अर्थ का वाचक बन जाता है। शब्द निराकार है, उसका कोई आकार नहीं होता, अर्थ नहीं होता। उसको आकार दिया जाता है। उसमें अर्थ आरोपित किया जाता है।
प्रस्तुत कृति में वे शब्द-संयोग संकलित हैं जो व्यक्ति को सुनने-समझने के लिए बाध्य करते हैं । लेखक का अभिप्राय है .. परिस्थितियों, घटनाओं और भावों की यथार्थता जब उपयुक्त शब्दों से अभिव्यक्त होती है, तब अनुभूति का धरातल सम हो जाता है-एक हृदय की अनुभूति अगणित हृदयों की
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गद्य-पद्य काव्य
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अनुभूति में विलीन हो जाती है ।
। प्रस्तुत गद्य-काव्य की कृति में कवि ने तुकों से निरपेक्ष रहकर अपनी अनुभूति को सहज-सरल शब्दों में अभिव्यक्ति दी है। काव्य की प्रत्येक पंक्ति पाठक को सोचने-विचारने के लिए प्रेरित करती है और अनायास ही उसके जीवन की गुत्थी को सुलझा देती है ।
बन्दी शब्द : मुक्त भाव
कल्पना और अनुभूति के माध्यम से किसी कथानक, चरित्र या विचार की गद्य में सरस, रोचक और रमणीय अभिव्यक्ति गद्य काव्य है। यह साधारण गद्य की अपेक्षा अधिक अलंकृत, प्रवाहपूर्ण तथा माधुर्यमंडित रचना होती है । 'बंदी शब्द : मुक्त भाव' ऐसी ही गद्यकाव्य की रचना है। इसमें छंदहीन कविताओं का समावेश है जिन्हें गद्य काव्य नहीं, किंतु छंदमुक्त काव्य कहा जा सकता है।
___ शब्द आकार पाकर बंदी बन जाते हैं। वे भावों की तरह मुक्त नही हैं, इसीलिए वे भावों की अभिव्यंजना में वैशाखी के सहारे चलने वाले पंगु की भांति हैं । वे भावों का पूरा प्रतिनिधित्व नहीं कर पाते ।
इसमें समय-समय पर अंकित विचारों का संकलन है । वे विचार वेधक और प्रेरक हैं । पुस्तक का प्रारंभ ही इन शब्दों में होता है- तुम बैठे क्यों हो ? लो, पवन तुम्हारे लिए नया संदेश लाया है कि जो चलता है वह पहुंच जाता है। इसी प्रकार मानव की तृष्णा को प्रतीक के माध्यम से कितने सुन्दर शब्दों में व्यक्त किया है.--.
तारे ऊपर हैं वे नीचे आना चाहते हैं और पेड़ जो नीचे हैं वे ऊपर जाना चाहते हैं । संतोष ऊपर भी नहीं,
नीचे भी नहीं है। इस प्रकार इसका प्रत्येक पृष्ठ एक नई प्रेरणा और नया भार्ग-दर्शन देता है।
भाव और अनुभाव
काव्य को परिभाषित करते हुए लेखक कहते हैं- 'चेतना के महासिंधु में पवन का प्रवेश और उत्ताल ऊमिमाला का उच्छलन-~यही है काव्य की
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
परिभाषा । शांत सिंघु में शक्ति संगोपित रहती है और तरंगित सिंधु में वह अभिव्यक्त हो जाती है। अभिव्यंजना का आधा योग सिंधु की जलराशि का है और आधा पवन का।।
_ 'भाव और अनुभाव' गद्यकाव्य की रचना है। इसमें युवाचार्य श्री का दार्शनिक रूप नहीं अपितु कवि हृदय अधिक बोल रहा है।
__ इन गद्य काव्यों में कवि की अनुभूतियों की तीक्ष्णता पाठक के हृदय को बींधे बिना नहीं रहती। पाठक स्वयं उन्हीं पंक्तियों के सत्य में स्वयं को खोकर समाधान पा लेता है । यह इस पुस्तक के अध्येताओं से सुना गया है।
गद्य काव्य छोटे हैं, किंतु मामिक हैं। अनेक वाक्य व्यक्ति (स्वयं) को सम्बोधित करके लिखे हैं, किंतु वे समष्टि को प्रभावित करते हैं । जैसे० आग्रह में मुझे रस है, पर आग्रही कहलाऊं, यह मुझे अच्छा नहीं लगता,
इसलिए मैं आग्रह पर अनाग्रह का झोल चढ़ा देता हूं। ० रूढ़ि से मैं मुक्त नहीं हूं, पर रूढ़िवादी कहलाऊं, यह मुझे अच्छा नहीं लगता, इसलिए मैं रूढ़ि पर परिवर्तन का झोल चढ़ा देता हूं।
युवक और वृद्ध का पृथक्करण करती हुई ये पंक्तियां कितनी सुन्दर बन पड़ी हैं.--'जहां उल्लास अठखेलियां करे वहां बुढ़ापा कैसे आये ? वह युवा भी बूढ़ा होता है, जिसमें उल्लास नहीं होता । पेंड़ो भलो न कोस कोचलना एक कोस का भी अच्छा नहीं हैं. यह जिसने कहा वह युवक नहीं था। युवक वह था, जिसने कहा-चरैवेति, चरैवेति-चलते चलो, चलते चलो।'
इस प्रकार प्रस्तुत गद्य-काव्य व्यक्ति के लिए प्रेरणा-स्रोत और आनन्द की अनुभूति कराने का माध्यम है।
फूल और अंगारे
प्रस्तुत कृति युवाचार्यश्री द्वारा समय-समय पर लिखी गई कविताओं का संग्रह है । परिव्रजन जैन मुनि का स्वाभाविक क्रम है। वे एक ही स्थान पर नहीं रुकते । निरंतर परिव्रजन के कारण देश और काल की विविधता में वे सोचते-समझते हैं। उनकी अनुभूति में देश और काल की छाप रहती है। प्रस्तुत कृति की कविताएं विभिन्न क्षेत्रों में, भिन्न-भिन्न अवसरों पर लिखी गई हैं । उनमें अनुभूति की तीव्रता है और व्यक्ति को बहा ले जाने की क्षमता है। मानव से मानवता को अलग नहीं किया जा सकता, किंतु इस विसंगति को देखकर उनका कवि हृदय बोल उठा---
मानवता के लिए स्वयं जब मानव ही अभिशाप हो गया। दानवता का रंगमंच तब विश्रुत अपने आप हो गया।
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गद्य-पद्य काव्य
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युवाचार्यश्री प्रारंभ से ही दर्शन के विद्यार्थी रहे हैं। विभिन्न दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन कर आज वे प्रखर दार्शनिक के रूप में प्रस्तुत हुए हैं, पर आपने यथार्थ द्रष्टा बनकर ही दर्शन को समझा है, जाना है । आप मानते हैं कि जो आत्मा की सन्निधि में रहता है, आत्मा का साक्षात् करने का निरंतर प्रयत्न करता है, उससे बड़ा दार्शनिक या द्रष्टा कौन होगा ?
आपने शुष्क दार्शनिकता से ऊपर उठकर सरसता और मृदुता का जीवन जीया है। इसलिए दर्शन के ईश्वर जैसे जटिल विषय को भी कितना सरल, सहज और सजीव भाषा में प्रस्तुत किया है -----
कौन कहता है अरे, ईश्वर मिलेगा साधना से । मैं स्वयं वह, वह स्वयं मैं, भावमय आराधना से ॥ वह नहीं मुझसे विलग है, नहीं मैं भी विलग उससे ।
एक स्वर है एक लय है, त्वं अहं का भेद किससे ?।
कविता स्वयं के प्रमोद का बहुत बड़ा कारण बनती है और कवि और श्रोता को भाव-विभोर कर देती है।
प्रस्तुत संग्रह 'फूल और अंगारे' जीवन के दोनों रूपों का स्पर्श करता हुआ चलता है । जीवन में फूल सी कोमलता है तो अंगारों की दाहकता भी है । यह संग्रह व्यक्ति को दोनों रूपों से अवगत कराता है ।
नास्ति का अस्तित्व
यह एक लघु काव्य-कृति है। इसमें जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्वों--- आत्मा, परमात्मा, सम्यक्त्व, धर्म, अनेकान्त, स्याद्वाद आदि-आदि का काव्यात्मक भाषा में निरूपण है। 'विजययात्रा' ग्रन्थ का ही यह काव्य-भाग
है।
इन्द्रभूति गौतम ब्राह्मण थे। वे वेदों के पारगामी विद्वान् और व्याख्याता थे। उन्हें अपने अस्तित्व के विषय में संदेह था। वे महावीर के समवसरण में महावीर को पराजित करने आए, परन्तु स्वयं महावीर की शरण में चले गए । महावीर ने उनके मन को पढ़ा, संदेह को जाना और उनकी नौका, जो विविध प्रश्नों के प्रवाह में प्रवाहित हो रही थी, उसे संभाला, थामा और पार लगा दिया। महावीर ने उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य की व्याख्या की, पूर्वजन्म और पुनर्जन्म में विविध रूप धारण करने वाली आत्मा का अस्तित्व साधा और उसके मौलिक स्वरूप का अवबोध कराया। इस अवबोध से इन्द्रभूति गौतम के अस्ति से नास्ति की ओर जाने वाले चरण मुडे और वे अस्ति में स्थित हो गए । यह सब कुछ इस लघु काव्य कृति में है। इसका आलोक सूक्ष्म मनन और निदिध्यासन की अपेक्षा रखता है।
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण यह कृति अपने आप में एक अनूठी कृति है और एक नई विधा से लिखी गई है।
अग्नि जलती है
___ यह अतुकांत कविताओं का एक छोटा-सा संग्रह है। इसमें युवाचार्यश्री द्वारा समय-समय पर लिखित वे कविताएं हैं, जिनका प्रणयन 'स्वान्तः सुखाय' अपने अवकाश के क्षणों में किया गया है। जब युवाचार्यश्री दार्शनिक चिंतन की गहराइयों में निमज्जन कर चुकते हैं, तब मन को आनन्द से आप्लावित करने के लिए अनुभूतियों का लेखन करते हैं । वह अनायास ही काव्य बन जाता है। यह लघु संग्रह उन्हीं अनुभूतियों के वेधक शब्दों से परिमंडित है।
विजय के आलोक में
पुस्तक का प्रारंभ जिस वाक्यावलि से हुआ है, वह स्वयं अपने उद्देश्य को स्पष्ट कर देती है-'जो आत्मा की चर्या को नहीं जानता, वह दिन-चर्या को भी नहीं जानता । आत्मा की चर्या ही विजय-चर्या है। जीवन की सारी चर्याओं का स्रोत आत्म-चर्या है। उसके दो पक्ष हैं-आचार और विचार । आचार का फल विचार है । विचार का सार आचार है । आचार से विचार का संवर्द्धन होता है, पोषण मिलता है। विचार से आचार को प्रकाश मिलता है।'
जैन आचार और विचार को अनेक आयामों में अभिव्यक्त करना ही इस पुस्तक का ध्येय है। इसके आचार-पक्ष में अहिंसा, सत्य की आराधना, साधना के मानदंड आदि विषय चचित हैं और विचार पक्ष में विश्व-दर्शन, लोकस्थिति, लोकविजय आदि विषयों का प्रतिपादन हुआ है।
चालीस पृष्ठों की यह लघु पुस्तिका विचारों का भंडार है। गद्य काव्य की दृष्टि से यह एक नया प्रकार है ।
विजय यात्रा
लौकिक दृष्टि से शत्रुओं को जीतना विजय है किंतु आध्यात्मिक दृष्टि से आत्मा की साक्षात् अनुभूति ही विजय है। किंतु इसकी प्राप्ति के लिए साधक को एक लम्बी यात्रा तय करनी पड़ती है। पैरों से नहीं अपितु तप, नियम, संयम, स्वाध्याय, ध्यान, जागरूकता आदि से । इस यात्रा पर प्रस्थित साधक विजय को पाता है। वह परोक्षानुभूति के घेरे को तोड़कर प्रत्यक्षानुभूति के द्वार में प्रवेश करता है । वेदों का मर्मज्ञ इन्द्र भूति ब्राह्मण भी परोक्ष
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गद्य-पद्य काव्य
से प्रताडित होकर, अपने ज्ञान के बोझ से भारी बनकर भगवान् को अपनी पांत में लेने समवसरण में आया। पर घटित कुछ और ही हुआ। वह स्वयं भगवान् की शरण में चला गया । भगवान् ने उसे संबुद्ध किया और एक दिन वह स्वयं भगवान् बन गया।
प्रस्तुत कृति में मर्त्य से भगवान् बनने का यात्रापथ निरूपित है । मर्त्य का भगवान बनना ही विजय यात्रा है। इसमें पांच विश्राम हैं-- १. बोधिलाभ
४. समाधिलाभ २. चारित्रलाभ
५. सिद्धिलाभ ३. दृष्टिलाभ
इसका प्रणयन अनूठे ढंग से हुआ है। प्रत्येक विश्राम के प्रत्येक चरण को काव्य में अभिव्यक्ति दी है और साथ ही साथ उसका आलोक भी प्रस्तुत किया है । अतः पाठक :गद्य-काव्य' की गूढ़ता को आलोक के प्रकाश में समझ लेता है। इसमें जैन दर्शन के मुख्य तत्त्वों का प्रतिपादन आगमों के संदर्भ में हुआ है । टिप्पणों में उनकी सप्रमाण नोंध भी है।
पाठक इसमें गद्य-काव्य का अवर्णनीय आनन्द और सिद्धांत की गहराई को सहज हृदयंगम कर आगे बढ़ता है।
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६. कथा साहित्य
युवाचार्य श्री जब प्रवचन करते हैं तब विषय के स्पष्ट अवबोध के लिए चुटकले तथा छोटी-मोटी कथाएं कहते हैं। प्रवचन का विषय आध्यात्मिक हो या भौतिक, राजनैतिक हो या सामाजिक, दार्शनिक हो या वैज्ञानिक सभी प्रवचनों में कथाओं का समावेश होता है। इन कथाओं का पृथक् संकलन इसीलिए किया गया है कि नर और नारी, बालक और बूढे सभी उनका आनन्द ले सके। इन सभी कथाओं का फलितार्थ मर्म को छूने वाला है।
__ कथाओं की सात पुस्तकें प्रकाशित हैं। इनके साथ ही साथ 'निष्पत्ति' शीर्षक से एक लघु वैचारिक उपन्यास भी है। इसमें आधुनिक उपन्यासों जैसा भावना का संसार नहीं है, पर यथार्थ के धरातल पर लिखा गया यह उपन्यास विचारों की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । इसमें हिंसा और अहिंसा के अन्तर्द्वन्द्व को वैचारिक धरातल पर प्रस्तुत किया गया है ।
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गागर में सागर
इस कृति में छोटी-छोटी कथाओं का समावेश है। ये लघु कथाएं हृदय को छूती हैं और अध्येता को झकझोर देती हैं। स्वयं लेखक इस बात को स्वीकार करते हैं कि जो बात हजार पृष्ठों में नहीं समझाई जा सकती जो बात हजार बार कहने से भी ग्राह्य नहीं बनती, वही बात एक छोटी सी कथा समझा सकती है। कथा साहित्य सबके लिए समान रूप से ग्राह्य होता है। बच्चे-बूढे, स्त्री-पुरुष, पढ़े-लिखे या अनपढ-- सभी कहानी को चाव से सुनते हैं। कथाओं के माध्यम से धर्म तत्त्व या गूढतम दार्शनिक तथ्य को समझाने में सरलता होती है। प्रत्येक वर्ग और जाति में कथाओं का प्रचलन रहा है और कथाओं ने संस्कृति और सभ्यता की सुरक्षा भी की है।
प्रस्तुत पुस्तक में विभिन्न बोधपाठों से संबंधित ४३ कथाएं हैं। इनके पठन से व्यक्ति आनन्द से आप्लावित हुए बिना नहीं रहता । कथाओं की भाषा अलंकारिक और प्रसादगुण-युक्त है।
महाप्रज्ञ की कथाएं [भाग १-५] मानव मन को पुलकित एवं रंजित करने के लिए बात को जिस विधा में कहा गया साहित्य के क्षेत्र में, वह विधा कथा कहलाने लगी। कथा के बारे में अपना मंतव्य प्रस्तुत करते हुए लेखक कहते हैं---'आदमी मर जाता है, पदार्थ नष्ट हो जाता है, वस्तुएं विलुप्त हो जाती हैं, पर कहानी का सत्य कभी नहीं मरता । वह सदा जीवन्त सत्य है । कथा जीवन्त सत्य को अभिव्यक्त करती है । नवयुवती की भांति उसका सौन्दर्य, नवयुवक की भांति उसकी गतिशीलता और नए युग की नई चेतना की भांति उसकी प्रेरकता जगत् के कणकण को आन्दोलित करती रहती है।'
तीन दशक पहले तक युवाचार्यश्री दर्शन की सचाई को दर्शन की भाषा में प्रस्तुत करते थे। वे कहानी की भाषा से अनजान थे। कुछ समय पश्चात् आपको आचार्यश्री की प्रेरणा मिली और तब आप दर्शन की भाषा के साथ कहानी की भाषा को जोड़ने लगे और तब जनता ने आपकी अभिव्यक्ति को जाना, सराहा। अब आप दर्शन की सचाई को भी कहानी की भाषा में कहते हैं और सुनने वाले दर्शन की गहन तत्त्वचर्चा को भी सरलता से हृदयंगम कर लेते हैं।
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
यह युवाचार्य श्री के कथा साहित्य की उत्पत्ति का एक निदर्शन है। प्रस्तुत कथाओं के पांच भाग विभिन्न अवसरों, शिविरों तथा अन्यान्य आयोजनों में प्रदत्त आपके प्रवचनों से संकलित हैं। इनमें कुछ ऐतिहासिक घटनाएं हैं, कुछ पांरपरिक और कुछ काल्पनिक । कथाएं या घटनाएं इतनी महत्त्वपूर्ण नहीं होती, महत्त्वपूर्ण होता है उनका प्रतिपाद्य या उनका जीवन्त सत्य । जो कथाकार इस जीवन्त सत्य को शब्दों का उचित परिवेश दे पाता है, वह उसको सर्वाधिक उजागर कर प्रभावोत्पादक बना देता है । यह खूबी है युवाचार्यश्री के कथा साहित्य की। हम यत्र-तत्र अनेक छोटी-बड़ी घटनाएं या चुटकले पढ़ते हैं, परंतु जो वेधकता इन पुस्तको में संगृहीत इन कथाओं में है, वह अन्यत्र कम उपलब्ध है। जैसे
__ 'महारानी विक्टोरिया गई। दरवाजा खटखटाया। भीतर था प्रिंस अलबर्ट । उसने पूछा-कौन है ? वह बोली--महारानी विक्टोरिया । दरवाजा खुला नहीं। फिर खटखटाया। फिर पूछा--- कौन है ? उसने कहा-आपकी प्रिय पत्नी विक्टोरिया । तत्काल दरवाजा खुल गया।
महारानी के लिए दरवाजा नहीं खुल सकता और प्रिया के लिए दरवाजा खुल सकता है। एक का अहंकार दूसरे में भी अहंकार पैदा करता है। एक की विनम्रता दूसरे को भी विनम्र बना देती है।
इस प्रकार प्रत्येक कथा छोटे एवं सरस वाक्यों में निबद्ध है जो पाठक का ध्यान खींचती है। आज के व्यस्त मानव के मनोरंजन एवं ज्ञानवर्धन हेतु ये कथाएं अपना विशेष स्थान रखती हैं।
निष्पत्ति
__ यह एक लघु उपन्यास है, जिसमें हिंसा और अहिंसा के मूल बीज और परिणामों का स्पष्ट उल्लेख है । हिंसा के विचारों से किस प्रकार परिवार टूटता है, व्यक्ति टूटता है और अहिंसा के विचारों से किस प्रकार व्यक्ति व्यक्ति का हृदय अनुस्यूत होता है और किस प्रकार पारिवारिक जीवन सुखद और आनन्ददायी बन सकता है, यह इस लघु उपन्यास का थीम और हार्द है।
___ यह लघु उपन्यास आधुनिक उपन्यासों की भांति भावनात्मक नहीं किन्तु विचारोत्तेजक और मन को झकझोरने वाला है।
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७. संस्कृत साहित्य
आजकल संस्कृत को मृत भाषा माना जाता है। इस भाषा में लिखना तो दूर इसे शुद्ध बोलने वाले व्यक्ति भी बहत कम मिलते हैं। प्राचीन ऋषि-मुनियों ने हजारों महत्त्वपूर्ण ग्रंथ इस भाषा में लिखे हैं । युवाचार्य श्री ने भी संस्कृत भाषा में गद्य-पद्य साहित्य की रचना की है। सोलह अध्यायों में विभक्त सम्बोधि को जैन गीता का स्थान प्राप्त है। 'अश्रवीणा' मंदाक्रांता छंद में रचित खंड-काव्य है । 'अतुला तुला' में आशुकविता के श्लोकों तथा समस्यापूर्तियां
और अन्यान्य रचनाएं संकलित हैं । इसी प्रकार अन्यान्य रचनाएं भी इस खंड में चचित हैं। सभी के साथ हिंदी अनुवाद संलग्न है। 'तुलसी मञ्जरी' प्राकृत शब्दानुशासन है। उसे भी इसी खंड के अन्तर्गत रखा है।
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सम्बोधि
अनेक लोगों ने युवाचार्य श्री से निवेदन किया था कि एक ऐसे स्वाध्याय ग्रंथ की आवश्यकता है, जिसमें जैन तत्त्वज्ञान और जीवन विज्ञान का समावेश हो । केवल तत्त्वज्ञान शुष्कता पैदा करता है और केवल जीवन विज्ञान आधारहीन होने के कारण अधिक टिकाऊ नहीं होता । संबोधि ग्रन्थ का प्रणयन इसी निवेदन का परिणाम है। इसमें प्रश्न और उत्तर के माध्यम से जैन तत्त्व और जीवन विज्ञान दोनों अभिव्यक्त हुए हैं। प्रश्न कर्ता है- सम्राट् श्रेणिक का दीक्षित पुत्र मुनि मेषकुमार और उत्तरदाता हैं--भगवान् महावीर।।
__इस ग्रंथ का मूल आधार है-जैन आगम । यह जैन परंपरा की गीता है। गीता दर्शन में ईश्वरार्पण की भावना का प्राबल्य है तो जैन दर्शन में आत्मार्पण की महिमा है । इसमें आदि से अन्त तक आत्मा की परिक्रमा करते हुए चलने का निर्देश है।
युवाचार्यश्री के शब्दों में गीता का अर्जुन कुरुक्षेत्र के समरांगण में क्लीव होता है तो सम्बोधि का मेघकुमार साधना की समरभूमि में क्लीव बनता है। गीता के गायक योगीराज कृष्ण हैं और संबोधि के गायक हैं-श्रमण भगवान् महावीर । अर्जुन का पौरुष जाग उठा कृष्ण का उपदेश सुनकर और महावीर का उपदेश सुनकर मेघकुमार की आत्मा चैतन्य से जगमगा उठी। दीपक से दीपक जलता है । एक का प्रकाश दूसरे को प्रकाशित करता है। मेघकुमार ने जो प्रकाश पाया, वही प्रकाश व्यापक रूप से सम्बोधि में है।
संबोधि ग्रंथ के १६ अध्यायों में ७०३ श्लोक हैं। इनका हिन्दी में अनुवाद तथा विस्तृत व्याख्या भी संलग्न है। इस एक ग्रंथ के पारायण से जैन परंपरा के तत्त्ववाद और जीवन शैली को समझने में सुविधा हो सकती है। संस्कृत के श्लोक सरल और सुबोध हैं। यह ग्रंथ आचार्य श्री की दो महायात्राओं में निर्मित हुआ था। एक यात्रा थी बम्बई की और दूसरी यात्रा थी कलकत्ता की।
आचार्यश्री अपने आशीर्वचन में पुस्तक के बारे में अपना अभिमत प्रस्तुत करते हुए कहते हैं-संबोधि के पद जहां सरल और रोचक बन पड़े हैं वहां उतनी ही सरलता पूर्वक गहराई में पेठे हैं। उनकी सरलता और मौलिकता का एक कारण यह भी है कि वे भगवान् महावीर की मूलभूत वाणी पर आधारित हैं। बहुत सारे पद्य तो अनूदित हैं, पर उनका संयोजन सर्वथा नवीन शैली लिए हुए है।
इस कृति का प्रत्येक अध्याय एक-एक विषय को अपने में समेटे हुए
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संस्कृत साहित्य
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है । स्थिरीकरण, सुख-बोध, पुरुषार्थ-बोध, सहज आनन्द, साधन-बोध आदिआदि ये कुछेक अध्यायों के नाम हैं । इनमें तद् तद् विषय का पूरा अवबोध है । यह ग्रंथ जैन दर्शन को समझने का अनुपम साधन है ।
अश्रुवीणा
राजकुमारी चंदनबाला की घटना भगवान् महावीर के तपस्वी जीवन से संबंधित एक विश्रुत घटना है । इसी घटना को कवि ने संस्कृत खंड-काव्य में प्रस्तुत किया है । इसकी कथावस्तु रोमाञ्चक है । अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त संस्कृत विद्वान् डा० सतकोडिमुखर्जी ने इस काव्य के विषय में लिखा है'प्रस्तुत काव्य में जहां एक ओर शब्दों का वैभव है, वहां दूसरी ओर अर्थ की गंभीरता है । इसमें शब्दालंकार और अर्थालंकार एक दूसरे से बढे - चढे हैं । भक्तिरस से परिपूर्ण उदात्त कथावस्तु का आलंबन लेकर यह लिखा गया है ।'
चम्पा नगरी के राजा दधिवाह्न की पुत्री राजकुमारी वसुमती का अपहरण हुआ । एक रथिक उसे उठा ले गया और कोशांबी के बाजार में बेच डाला । धनावह सेठ ने उसे खरीदा और उसका नाम रखा चंदना । एक बार धनावह की पत्नी को संदेह हुआ कि इस रूप - योवना को मेरा पति पत्नी न बना ले । वह संदेह में पलती रही। एक बार अवसर देखकर सेठानी ने चंदना का सिर मुंडाया, हाथ पैर में जंजीर डाली और उसे एक काल-कोठरी में डाल दिया ।
भगवान् महावीर कोशांबी आए । उनके उग्र तपस्या चल रही थी । पांच मास और पच्चीस दिन बीत गए थे । उनका घोर अभिग्रह अभी फलीभूत नहीं हो पाया था । छबीसवें दिन वे धनावह की कोठी पर भिक्षा लेने आए । उनके अभिग्रह के तेरह बोल थे ।
उसी दिन सेठ धनावह यात्रा से घर आया। चंदना को देखा वह अवाक् रह गया । वह जंजीर को तुड़वाने के लिए लुहार को बुलाने गया । इधर भगवान् घर पर आ गए। भगवान् को देख चन्दना हर्ष - विभोर हो उठी । वह सारी प्रताड़नाओं को भूल गई । भगवान् ने ज्ञान से देखा । अभिग्रह - पूर्ति की सारी बातें मिल गईं । केवल एक बात शेष थी । वह यह कि चंदना के आंखों में आंसू नहीं थे । भगवान् बिना कुछ भिक्षा लिए मुड़ गए । यह देखकर चंदना की आंखों में आंसू छलक पड़े ।
प्रस्तुत कृतिकार ने चंदना के इन आंसुओं को दूतिकर्म के लिए चुना है | चंदना इस अश्रु प्रवाह के माध्यम से भगवान् के पास अपनी भावना प्रेषित करती है। आंसुओं की भाषा को समझकर भगवान् मुड़ जाते हैं और चंदना के हाथ से उबले हुए उड़द के दाने ग्रहण कर अपनी दीर्घ तपस्या का पारणा करते हैं ।
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
इस खंड-काव्य की यही कथावस्तु है। मंदाक्रान्ता छन्द संस्कृत का प्रिय छन्द है। कालीदास ने मेघदूत काव्य की रचना इसी छन्द में की थी। युवाचार्यश्री ने इसी छन्द के माध्यम से अश्रुवीणा की रचना कर अतीत को वर्तमान में प्रतिध्वनित किया है ।
इसमें सौ श्लोक हैं । अन्तिम श्लोक में अश्रुवीणा के निनाद की सफलता प्रतिपादित होती है
जाता यस्मिन् सपदि विफला हावभावा वसानां, कामं भीमा अपि च मरुतां कष्टपूर्णाःप्रयोगाः। तस्मिन् स्वस्मिल्लयमुपगते वीतरागे जिनेन्द्रेऽमोघो जातो महति सुतरामश्रुवीणानिनादः ।।
मुकुलम् इसमें छोटे-बड़े उनपचास संस्कृत निबंधों का समावेश है । यह पुस्तक संस्कृत का अभ्यास करने वाले छात्रों के लिए लिखी गई है। इसकी संस्कृत भाषा प्रांजल, प्रसादगुण से ओतप्रोत और प्रवाहपूर्ण है। इसमें वर्णनात्मक तथा भावात्मक विषयों के अतिरिक्त संवेदनात्मक विषयों का भी समावेश
युवाचार्य श्री अपने विचारों को अभिव्यक्ति देते हुए कहते हैं- 'सौन्दर्य की अपेक्षा वर्तमान स्थिति का या वस्तुस्थिति का चित्रण अधिक आकर्षक होता है। इसमें जरा भी संदेह नहीं कि धार्मिक विचारों का प्रतिनिधित्व करने वाले सरस साहित्य के संयोग से पाठकों का सुकुमाल हृदय परिमार्जित होता है। इसी विचार से मैंने प्रस्तुत ग्रन्थ में कतिपय विषयों का संक्षेप में आकलन किया है । यह ग्रंथ विद्याभिलाषी छात्रों की पाठ्यविधि की दृष्टि से लिखा गया है । प्रतिदिन एक पाठ पढ़ा जा सके, इस दृष्टि से प्रत्येक निबंध में संक्षिप्त वर्णन शैली अपनाई गई है । मार्ग-दर्शन देने की दृष्टि से कहीं-कहीं जटिल वाक्यों का तथा अन्वेषणीय शब्दों का प्रयोग भी इसमें किया गया है।
प्रस्तुत पुस्तक में लेखक ने अपने पठन-विधि के द्योतक पांच निबंध लिखे हैं-युवा शिक्षकः, तानि दिनानि, पाठन कौशलम्, भयप्रीत्योः समिश्रणं और पारस्परिक: सम्बन्धः । इनके माध्यम से गुरु-शिष्य के सम्बन्धों का सुन्दर चित्रण प्रस्तुत हुआ है ।
__ संस्कृत में गति करने के इच्छुक विद्यार्थियों के लिए यह पुस्तक अत्यंत उपयोगी है। इसमें भिन्न-भिन्न प्रसंग पर प्रयुक्त एक अर्थ के द्योतक भिन्नभिन्न शब्द विद्यार्थी के शब्द-भंडार को भरने में सक्षम हैं। इसके पठन से संस्कृत कोश का ज्ञान भी सहज हो जाता है।
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संस्कृत साहित्य
इसका मूलस्पर्शी हिन्दी अनुवाद सहज और सरल है। हिन्दी भाषी व्यक्ति भी इस ग्रन्थ का रसास्वादन कर सकते हैं। यह युवाचार्य श्री का प्रथम संस्कृत ग्रन्थ है जो तेरापंथ द्विशताब्दी पर प्रकाशित हुआ था।
अतुला तुला
प्रस्तुत कृति युवाचार्य श्री के संस्कृत काव्यों का संकलन है। इसमें युवाचार्य श्री के तीस-तीस वर्षों की स्फुट रचनाएं तथा उत्तरवर्ती कुछेक रचनाएं भी संकलित हैं।
युवाचार्य श्री ने लिखा है .....इन रचनाओं के पीछे इतिहास की एक शृंखला है । अच्छा होता कि प्रत्येक रचना की पृष्ठभूमि में रही हुई स्फुरणा का इतिहास मैं लिख पाता। पर काल की इस लम्बी अवधि में जो कुछ घटित हुआ वह पूरा का पूरा स्मृति-पटल पर अंकित नहीं है । जो कुछ अंकित है उसको लिपिबद्ध करने का भी अवकाश नहीं है। फिर भी कुछेक स्फुरणाओं का इतिवृत्त इसमें है।'
प्रस्तुत संकलन में सभी श्लोक सहज स्फुरणा से स्फूर्त नहीं हैं । इसमें आशुकवित्व का भी एक विभाग है। आशुकविता में व्यक्ति को समस्या या विषय से प्रतिबद्ध होकर चलना पड़ता है। आचार्य श्री के प्रवचन के विशेष आयोजन होते तब आशुकवित्व का उपक्रम भी रहता। उनमें आशुकविता के लिए समस्यापूर्ति या विषय दिए जाते। कुछ विद्वान् आश्चर्यभाव से, कुछ चमत्कारभाव से और कुछ परीक्षाभाव से समस्याएं देते । छंद की प्रतिबद्धता भी उसमें होती। उनकी पूर्ति में कविकर्म की अपेक्षा बौद्धिकता का योग अधिक रहता।
___आचार्यश्री ने अनेक ऐतिहासिक स्थलों की यात्राएं की। उन ऐतिहासिक स्थलों के विषय में युवाचार्य श्री के प्रस्फुटित काव्य भी इस संकलन
पुस्तक में रचनाओं का यथासंभव काल और क्षेत्र का भी निर्देश दिया है, जिससे कि उनकी ऐतिहासिक पहचान और भाव-भाषा का उतार-चढ़ाव ज्ञात हो सके। देश-काल के परिवर्तन के साथ-साथ भाषा, शैली और अभिव्यंजना में भी अन्तर आता है ।
इसमें संकलित कुछ रचनाएं स्वतंत्र अनुभूति के क्षणों में लिखी गई हैं। उनके पीछे कोई घटना, प्रकृति का पर्यवेक्षण या कोई विशिष्ट प्रसंग नहीं हैं । वे रचनाएं दर्शन-संपुटित हैं।
____प्रस्तुत कृति के पांच विभाग हैं - (१) विविधा (२) आशुकवित्वम् (३) समस्यापूर्तिः (४) उन्मेषाः (५) स्तुतिचक्रम्
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण ___ सभी रचनाओं का हिन्दी में अनुवाद होने के कारण संस्कृत और हिंदी पाठक दोनों इससे लाभान्वित हो सकते हैं।
इसकी प्रस्तुति में युवाचार्य श्री ने अपने संस्कृत भाषा के यात्रापथ और क्रमिक विकास का उल्लेख भी किया है।
तुलसी मञ्जरी
प्रस्तुत ग्रंथ आचार्य हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण की बृहत्प्रक्रिया रूप है । अष्टाध्यायी का क्रम विद्यार्थी के लिए सहजगम्य नहीं होता। वह उसको हृदयंगम करने में कठिनाई का अनुभव करता है। इसलिए उसकी अपेक्षा प्रक्रिया का क्रम अधिक उपयोगी और सहजग्राह्य होता है । इसी दृष्टि से इस प्रक्रिया-ग्रन्थ का निर्माण हुआ।
इस कृति का नामकरण आचार्य तुलसी के नाम पर हुआ है । प्रक्रियाग्रन्थ की प्रकृति के अनुसार इसमें शब्दों के सिद्धिकारक सूत्र पास-पास में उपलब्ध हो जाने के कारण विद्यार्थियों को शब्द-सिद्धि करने में सुगमता और सरलता हो जाती है । हेमचन्द्र की प्राकृत व्याकरण में यह सुविधा नहीं है । उसमें एक ही शब्द की सिद्धि के लिए दो-चार सूत्र भी लंबे व्यवधान के बाद उपलब्ध होते हैं । विद्यार्थी उसमें उलझ जाता है।
प्रस्तुत कृति में १११६ सूत्र हैं। इसमें सात परिशिष्ट हैं(१) अकारादिक्रम से सूत्र (२) प्राकृत शब्दरूपावलि, (३) धातुरूपावलि (४) धात्वादेश (५) देशीधातु (६) आर्ष-प्रयोग (७) गण
यह प्राकृत पढ़ने वालों के लिए एक सुगम व्याकरण ग्रंथ है।
संस्कृतं भारतीया संस्कृतिश्च
अखिल भारतवर्षीय संस्कृत साहित्य सम्मेलन, काशी ने एक गोष्ठी आयोजित की थी। उसमें भारत के विभिन्न विद्वानों ने प्रस्तुत विषय पर अपने-अपने निबंध भेजे थे। कुछेक विद्वानों ने उस गोष्ठी में उपस्थित होकर अपने निबंधों का वाचन किया था। उस समय युवाचार्य श्री ने भी संस्कृत निबंध लिखा और एक विद्वान् गृहस्थ ने उसका वहां वाचन प्रस्तुत किया।
__जैन, बौद्ध और वैदिक परम्परा की त्रिवेणी भारतीय संस्कृति की मूल आधार है । जैन आचार्यों ने मूलत: प्राकृत भाषा के भंडार को भरा और बौद्ध मनीषियों ने पाली भाषा में साहित्य-सर्जन किया। किन्तु इन धाराओं के अनेक मनीषी आचार्यों ने संस्कृत भाषा के विकास और उन्नयन के लिए सतत प्रयत्न किया और प्रचुर साहित्य की रचना की, जो आज भी भारतीय
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संस्कृत साहित्य
१०५
साहित्य-मंडार की अमूल्य निधि मानी जाती है । प्रस्तुत लघु निबंध में लेखक ने लिखा है-भारतीय संस्कृति अध्यात्म-प्रधान है। संस्कृत उसकी आधार शिला है, यह मैं निःसंकोच कह सकता हूं।...... भारतीयों की संस्कृत भाषा के प्रति उदासीनता हितकर नहीं है।
प्रस्तुत पुस्तिका में तीनों परम्पराओं की धारा ने किस प्रकार संस्कृत के माध्यम से अध्यात्म को पुष्पित और पल्लवित करने का प्रयास किया, इसका निदर्शनों के द्वारा प्रतिपादन है।
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संकेत-सूची
अणु आंदो अणु : एक अणुव्रत अतीत अनुभव अनेकान्त अपने अप्पाणं अभय अमूर्त अवचेतन अहिंसा और अहिंसा की आहार उत्तरदायी उन्नीसवीं ऊर्जा
अणुव्रत-आन्दोलन और भावी कार्यक्रम की रेखाएं अणुव्रत : एक परिचय अणुव्रत दर्शन अतीत का अनावरण अनुभव चिन्तन मनन अनेकान्त है तीसरा नेत्र अपने घर में अप्पाणं सरणं गच्छामि अभय की खोज अमूर्त-चिन्तन अवचेतन मन से सम्पर्क अहिंसा और उसके विचारक अहिंसा की सही समझ आहार और अध्यात्म उत्तरदायी कौन ? उन्नीसवीं सदी का नया आविष्कार ऊर्जा की यात्रा एकला चलो रे एसो पंच णमोकारो महाप्रज्ञ की कथाएं भाग-१ महाप्रज्ञ की कथाएं भाग-२ महाप्रज्ञ की कथाएं भाग-३ महाप्रज्ञ की कथाएं भाग-४ महाप्रज्ञ की कथाएं भाग-५ प्रेक्षाध्यान कायोत्सर्ग । किसने कहा मन चंचल है ?
एकला
एसो कथा १
कथा २
कथा-३
कथा-४
कथा-५ कायोत्सर्ग किसने
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१०८
गागर
गूंजते
घट
चंचलता
चेतना
जीवन
जीवन : शिक्षा
जीवन : स्वस्थ
जैन
जैन आचार
जैन चिन्तन
जैन ज्ञान
जैन तत्त्व
जैन दर्शन
जैन धर्म
जैन न्याय
जैन प्रमाण
जैन मौलिक- १
जैन मौलिक - २
जैन शास्त्र
तट
तुम
तेरापंथ
धर्म
धर्मचक्र
नास्ति
नैतिक
प्रज्ञापुरुष
प्रेक्षा आधार
महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
गागर में सागर
गूंज स्वर बहरे कान घट-घट दीप जले
चंचलता का चौराहा
चेतना का ऊर्ध्वारोहण
जीवन की पोथी
जीवन - विज्ञान ( शिक्षा का नया आयाम )
जीवन-विज्ञान : ( स्वस्थ समाज-संरचना का संकल्प )
जैन परम्परा का इतिहास
जैन दर्शन में आचार-मीमांसा
जैन तत्त्व चिन्तन
जैन दर्शन में ज्ञान-मीमांसा
जैन दर्शन में तत्त्व-मीमांसा
जैन दर्शन : मनन और मीमांसा
जैन धर्म : बीज और बरगद
जैन न्याय का विकास
जैन दर्शन में प्रमाण-मीमांसा
जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व भाग - १
जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व भाग - २
दान दया पर आचार्यश्री भिक्षु का जैन - शास्त्र सम्मत
दृष्टिकोण
तट दो : प्रवाह एक
तुम अनन्त शक्ति के स्रोत हो
तेरापंथ : शासन- अनुशासन
धर्म के सूत्र
धर्मचक्र का प्रवर्तन
नास्ति का अस्तित्व
नैतिक पाठमाला
प्रज्ञापुरुष जयाचार्य
प्रेक्षा ध्यान : आधार और स्वरूप
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संकेत-सूची
१०६
प्रेक्षा चैतन्य प्रेक्षा लेश्या प्रेक्षा शरीर प्रेक्षा श्वास फूल बन्दी बाल दीक्षा भाव भिक्षावृत्ति
भिक्षु
मन
मन का
मनन महावीर महावीर : जीवन मेरी
प्रेक्षाध्यान : चैतन्य केन्द्र-प्रेक्षा प्रेक्षाध्यान : लेश्या ध्यान प्रेक्षाध्यान : शरीर-प्रेक्षा प्रेक्षाध्यान : श्वास-प्रेक्षा फूल और अंगारे बन्दी शब्द : मुक्त भाव बाल दीक्षा पर मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण भाव और अनुभाव श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी साधुओं की भिक्षावृत्ति भिक्षु विचार दर्शन मन के जीते जीत मन का कायाकल्प मनन और मूल्यांकन महावीर की साधना का रहस्य महावीर : जीवन और सिद्धान्त मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति मैं कुछ होना चाहता हूं मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता राष्ट्रीय अन्तर्-राष्ट्रीय समस्याएं और अणुव्रत विचार का अनुबंध विश्व-स्थिति शक्ति की साधना श्रमण संस्कृति की दो धाराएं जैन और बौद्ध समस्या का पत्थर : अध्यात्म की छेनी समस्या: समाधान
मैं कुछ
राष्ट्रीय विचार का विश्व शाक्ति
श्रमण
समस्या
समस्या
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ग्रंथ-सूची
(सभी पुस्तकों के लेखक हैं---युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ और अकेठ में जो नाम हैं वे संपादक के हैं)। अग्नि जलती है (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १६६४, साहित्य प्रकाशन
समिति) अणुव्रत-आन्दोलन और भावी कार्यक्रम की रेखाएं (मुनि दुलहराज, अखिल
भारतीय अणुव्रत समिति, दिल्ली) अणुव्रत : एक परिचय (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १९८२, अखिल भारतीय
अणुव्रत समिति, अहमदाबाद) अणुव्रत-दर्शन (मुनि दुलहराज, तीसरा संस्करण १६७६, आदर्श साहित्य संघ,
अणुव्रत-विशारद (मुनि सुखलाल, द्वितीय संस्करण १६७६, जैन विश्व भारती,
लाडनूं) अतीत का अनावरण (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १६६६, भारतीय
ज्ञानपीठ, कलकत्ता) अतुला-तुला (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १६७६, आदर्श साहित्य संघ,
चूरू) अनुभव चिन्तन मनन (मुनि दुलहराज, द्वितीय संस्करण १६६८, आदर्श
साहित्य संघ, चूरू) अनेकान्त है तीसरा नेत्र (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १९८२ तुलसी
अध्यात्म नीडम्, जैन विश्व भारती, लाडनूं) अपने घर में (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १९८७ आदर्श साहित्य संघ,
चूरू) अप्पाणं सरणं गच्छामि (मुनि दुलहराज, चतुर्थ संस्करण १९८७, आदर्श
साहित्य संघ, चूरू) अभय की खोज (मुनि दुलहराज, द्वितीय संस्करण १९८५ तुलसी अध्यात्म
नीडम्, जैन विश्व भारती, लाडनूं) अमूर्त चिन्तन (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १९८८, तुलसी अध्यात्म नीडम्,
जैन विश्व भारती, लाडनूं)
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण अहम् (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण, आदर्श साहित्य संघ, चूरू) अवचेतन मन से सम्पर्क (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १९८४, तुलसी
अध्यात्म नीडम्, जैन विश्व भारती, लाडनूं) अश्रुवीणा (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १६५६, आदर्श साहित्य संघ,
चूरू) अस्तित्व का बोध (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १९७२ आदर्श साहित्य
संघ, चूरू) अहिंसा और उसके विचारक (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १६५१, आदर्श
साहित्य संघ, सरदारशहर) अहिंसा की सही समझ (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण सं २०१२ आदर्श ___ साहित्य संघ, सरदारशहर) अहिंसा तत्त्व दर्शन (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १६६०, आदर्श साहित्य
संघ, चूरू) आंखें खोलो (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १६५६, आदर्श साहित्य संघ,
चूरू) आचार्यश्री तुलसी : जीवन और दर्शन (मुनि सुमेरमलजी 'सुदर्शन' श्रीचंदजी
'कमल' प्रथम संस्करण १९६२, आत्माराम एन्ड सन्स कश्मीरी गेट,
दिल्ली) आचार्यश्री तुलसी (जीवन पर एक दृष्टि) (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण
१९५२, आदर्श साहित्य संघ, सरदारशहर) आभामंडल (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १९८०, तुलसी अध्यात्म नीडम्
जैन विश्व भारती, लाडनूं) आहार और अध्यात्म (मुनि दुलहराज, द्वितीय संस्करण, तुलसी अध्यात्म नीडम्
जैन विश्व भारती, लाडनूं) उत्तरदायी कौन ? (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १९८४, तुलसी अध्यात्म
नीडम्, जैन विश्व भारती, लाडनूं), उन्नीसवीं सदी का नया आविष्कार (मुनि दुलहराज, आदर्श साहित्य संघ,
सरदारशहर) ऊर्जा की यात्रा (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १९८२, प्रज्ञा प्रकाशन
उदासर (बीकानेर) एकला चलो रे (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १६८२, आदर्श साहित्य संघ,
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ग्रंथ-सूची
११३ एसो पंच णमोक्कारो (मुनि दुलहराज, चतुर्थ संस्करण १९८५, तुलसी अध्यात्म
नीडम्, जैन विश्व भारती, लाडनूं) कर्मवाद (मुनि दुलहराज, द्वितीय संस्करण, १९७३, आदर्श साहित्य संघ,
चूरू) किसने कहा मन चंचल है ? (मुनि दुलहराज, तृतीय संस्करण १६७६, आदर्श
साहित्य संघ, चूरू) कुछ देखा, कुछ सुना, कुछ समझा (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १६६०,
आदर्श साहित्य संघ, चूरू) कैसे सोचें (मुनि दुलहराज, द्वितीय संस्करण १९८५, तुलसी अध्यात्म नीडम्, ___ जैन विश्व भारती, लाडनूं) गागर में सागर (मुनि दुलहराज, द्वितीय संस्करण १६७५, आदर्श साहित्य
संघ, चूरू) गूंजते स्वर बहरे कान (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण, १९६८ आदर्श ___ साहित्य संघ, चूरू) घट-घट दीप जले (मुनि दुलहराज, द्वितीय संस्करण १९८४, आदर्श साहित्य
संब, चूरू) चंचलता का चौराहा (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १६८१, प्रज्ञा-प्रकाशन
बीकानेर) चेतना का ऊर्ध्वारोहण (मुनि दुलहराज तृतीय संस्करण १९८४, आदर्श
साहित्य संघ, चूरू) जीव-अजीव (मुनि सुमेरमल 'सुदर्शन' सातवां संस्करण १९८७, जैन विश्व
भारती, लाडनूं) जीवन की पोथी (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १९८७, तुलसी अध्यात्म
नीडम्, जैन विश्व भारती, लाडनूं) जीवन विज्ञान (शिक्षा का नया आयाम) (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण,
सन् १९८३, तुलसी अध्यात्मनीडम् जैन विश्व भारती, लाडनूं) जीवन-विज्ञान : स्वस्थ समाज-रचना का संकल्प (मुनि दुलहराज, दूसरा
संस्करण १९८७, तुलसी अध्यात्म नीडम्, जैन विश्व भारती, लाडनूं) जैन तत्त्व चिन्तन (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १६५६, आदर्श साहित्य
संघ, चूरू) जैन दर्शन : मनन और मीमांसा (मुनि दुलहराज, तृतीय संस्करण, १९७७
आदर्श साहित्य संघ, चूरू)
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११४
महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
जैन दर्शन में आचार-मीमांसा (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण सं २०१७,
आदर्श साहित्य संघ, चूरू) जैन दर्शन में ज्ञान-मीमांसा (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण सं २०१७,
आदर्श साहित्य संघ, चूरू) जैन दर्शन में तत्त्व-मीमांसा (मुनि दुलहराज, दूसरा संस्करण १९७८ जैन विश्व
भारती, लाडनूं) जैन दर्शन के मौलिक तत्व भाग-१ (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १६६०,
आदर्श साहित्य संघ, चूरू) जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व भाग-२ (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १६६०, ___ आदर्श साहित्य संघ, चूरू) जैन दर्शन में प्रमाण-मीमांसा (छगनलाल शास्त्री, प्रथम-संस्करण सं २०१७,
आदर्श साहित्य संघ, चूरू) जैन धर्म दर्शन (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १९६० आदर्श साहित्य __ संघ, चूरू) जैन धर्म : बीज और बरगद (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १९७६, आदर्श
साहित्य संघ, चूरू) जैन न्याय का विकास (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १९७६, जैन विद्या
अनुशीलन केन्द्र, राजस्थान विश्व विद्यालय, जयपुर) जैन परम्परा का इतिहास (मुनि सुमेरमल सुदर्शन, चतुर्थ संस्करण, समण
संस्कृति संकाय, जैन विश्व भारती, लाडनूं) जैन योग (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १९७८, आदर्श साहित्य संघ,
चूरू) तट दो : प्रवाह एक (मुनि दुलहराज, द्वितीय संस्करण १६७०, आदर्श साहित्य
संघ, चूरू) तुम अनन्त शक्ति के स्रोत हो (मुनि दुलहराज, तृतीय संस्करण, भारतीय
ज्ञान पीठ, दिल्ली) तुलसी-मञ्जरी (मुनि श्रीचन्द 'कमल', प्रथम संस्करण १९८३, जैन विश्व
भारती, लाडनूं) तेरापंथ : शासन अनुशासन (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १९८०, आदर्श
साहित्य संघ, चूरू) दया दान (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण सं २०११, आदर्श साहित्य संघ,
सरदारशहर)
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ग्रंथ-सूची
११५
दान दया पर आचार्यश्री भिक्षु का जैन शास्त्र सम्मत दृष्टिकोण (मुनि प्रथम संस्करण सं० २०११, आदर्श साहित्य संघ,
दुलहराज, सरदारशहर)
धर्म के सूत्र (मुनि श्रीचन्द्र 'कमल', प्रथम संस्करण १६८३, आदर्श साहित्य संघ, चूरू)
धर्मचक्र का प्रवर्तन ( मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १६८६, आचार्य श्री तुलसी अमृत महोत्सव राष्ट्रीय समिति, राजसमंद, राजस्थान ) धर्म-बोध भाग - १ (प्रथम संस्करण, आदर्श साहित्य संघ, सरदारशहर ) धर्म-बोध भाग - २ ( आदर्श साहित्य संघ, सरदारशहर )
धर्म-बोध भाग - ३ ( प्रथम संस्करण, आदर्श साहित्य संघ, सरदारशहर )
ध्यान और कायोत्सर्ग ( मुनि दुलहराज सन् १६७४, भारत जैन महामंडल, बम्बई)
नयवाद (प्रथम संस्करण सं० २०१३, आदर्श साहित्य संघ, सरदारशहर ) नास्ति का अस्तित्व ( मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १९७०, आदर्श साहित्य संघ, चूरू)
निष्पत्ति ( मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १९७३, आदर्श साहित्य संघ, चूरू)
नैतिकता का गुरुत्वाकर्षण ( मुनि दुलहराज, द्वितीय संस्करण, आदर्श साहित्य संघ, चूरू)
नैतिक-पाठमाला ( मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १९६६, आदर्श साहित्य संघ, चूरू)
प्रज्ञापुरुष जयाचार्य (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १६८१, जैन विश्व भारती, लाडनूं)
प्रस्तुति ( मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १६८८, आदर्श साहित्य संघ, चूरू) प्रेक्षाध्यान (मुनि दुलहराज, १६७६, आदर्श साहित्य संघ, चूरू)
प्रेक्षाध्यान: आधार और स्वरूप ( मुनि महेन्द्रकुमार, तृतीय संस्करण १९८५, तुलसी अध्यात्म नीडम्, जैन विश्व भारती, लाडनूं)
प्रेक्षाध्यान : कायोत्सर्ग ( मुनि महेन्द्रकुमार, जेठालाल एस० झवेरी, प्रथम संस्करण १३८४ तुलसी अध्यात्म नीडम्, जैन विश्व भारती, लाडनूं) प्रेक्षाध्यान : चैतन्य-केन्द्र - प्रेक्षा ( मुनि महेन्द्रकुमार, जेठालाल झवेरी, प्रथम संस्करण १९८४, तुलसी अध्यात्म नीडम्, जैन विश्व भारती, लाडनूं)
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
प्रेक्षाध्यान : लेश्या ध्यान (मुनि महेन्द्र कुमार, जेठालाल झवेरी, प्रथम संस्करण
१९८६, तुलसी अध्यात्म नीडम्, जैन विश्व भारती, लाडनूं)। प्रेक्षाध्यान : शरीर प्रेक्षा (मुनि महेन्द्रकुमार, जेठालाल झवेरी, द्वितीय संस्करण
१९८५, तुलसी अध्यात्म नीडम्, जैन विश्व भारती, लाडनूं)। प्रेक्षाध्यान : श्वास प्रेक्षा (मुनि महेन्द्रकुमार, जेठालाल झवेरी, तृतीय
संस्करण १९८५, तुलसी अध्यात्म नीडम्, जैन विश्व भारती, लाडनूं) फूल और अंगारे (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण सं २०१७, पार्श्वनाथ __ जैन लाइब्रेरी, जयपुर) बन्दी शब्द : मुक्त भाव (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १६६६, आदर्श
साहित्य संघ, चूरू) बाल-दीक्षा पर मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण
१६५४ आदर्श साहित्य संघ, चूरू) भाव और अनुभाव (मुनि दुलहराज, द्वितीय संस्करण, भारतीय ज्ञानपीठ,
दिल्ली) भिक्षु विचार दर्शन (मुनि दुलहराज, आठवां संस्करण १९८४, जैन विश्व भारती,
लाडनूं) मन का कायाकल्प (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १६८२, तुलसी अध्यात्म
नीडम्, जैन विश्व भारती, लाडनूं) मन के जीते जीत (मुनि दुलहराज, छठा संस्करण १९८६, तुलसी अध्यात्म
नीडम्, जैन विश्व भारती, लाडनूं) मनन और मूल्यांकन (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १९८३, आदर्श साहित्य
संघ, चूरू) महाप्रज्ञ की कथाएं-भाग १ (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १९८३, आदर्श
साहित्य संघ चूरू) महाप्रज्ञ की कथाएं-भाग २ (मुनि-दुलहराज, प्रथम संस्करण, १९८३, आदर्श
साहित्य संघ चूरू) महाप्रज्ञ की कथाएं-भाग ३ (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण, १९८४, आदर्श
साहित्य संघ, चूरू) महाप्रज्ञ की कथाएं-भाग ४ (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण, १८८४, आदर्श
साहित्य संघ, चूरू) महाप्रज्ञ की कथाएं-भाग ५ (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १९८३, आदर्श
साहित्य संघ, चूरू)
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ग्रंथ-सूची
महाप्रज्ञ से साक्षात्कार (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १९८८, आदर्श साहित्य ___ संघ, चूरू) महावीर की साधना का रहस्य (मुनि दुलहराज, चतुर्थ संस्करण १९८५, तुलसी
अध्यात्म नीडम्, जैन विश्व भारती, लाडनूं) महावीर क्या थे? (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १९६४, आदर्श साहित्य
संघ, चूरू) महावीर : जीवन और सिद्धान्त (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १९८०, आदर्श __ साहित्य संघ, चूरू) मुकुलम् (मुनि दुलहाज, प्रथम संस्करण १६६०, आदर्श साहित्य संघ, चूरू) मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १६८३, आदर्श
साहित्य संघ, चूरू) मैं कुछ होना चाहता हूं (मुनि दुलहराज, तृतीय संस्करण, तुलसी अध्यात्म
नीडम्, जैन विश्व भारती, लाडनूं) मैंने कहा (मुनि दुलहराज, द्वितीय संस्करण १६८०, आदर्श साहित्य संघ, चूरू) मैं : मेरा मन : मेरी शांति (मुनि दुलहराज, चतुर्थ संस्करण १९८५, जैन विश्व
भारती, लाडनूं) मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १९८३, आदर्श
साहित्य संघ, चूरू) राष्ट्रीय-अन्तर्-राष्ट्रीय समस्याएं और अणुव्रत (अखिल भारतीय अणुव्रत
समिति) विचार का अनुबंध (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १६७६, आदर्श साहित्य
संघ, चूरू) विजय के आलोक में (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण सं० २०१३, आदर्श
साहित्य संघ, सरदारशहर) विजय-यात्रा (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण सं० २०१३, आदर्श साहित्य
संघ, सरदारशहर) विश्व-स्थिति (प्रथम संस्करण १६४८, आदर्श साहित्य संघ, सरदारशहर) विसर्जन (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १६७२, आदर्श साहित्य संघ, चूरू) शक्ति की साधना (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण, आदर्श साहित्य संघ, चूरू) श्रमण महावीर (मुनि दुलहराज, दूसरा संस्करण १६८७, जैन विश्व भारती,
लाडनूं)
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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण श्रमण संस्कृति की दो धाराएं : जैन और बौद्ध (प्रथम संस्करण, आदर्श साहित्य
संघ, सरदारशहर) श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी साधुओं को भिक्षावृत्ति (शुभकरण सुराना, चूरू) संबोधि (मुनि शुभकरण, मुनि दुलहराज, तृतीय संस्करण १६८१, तुलसी
अध्यात्म नीडम्, जैन विश्व भारती, लाडनूं) संभव है समाधान (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १९८८, आदर्श साहित्य
संघ, चूरू) संस्कृत और भारतीय संस्कृति (आदर्श साहित्य संघ, सरदारशहर) सत्य की खोज : अनेकान्त के आलोक में (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण
१६७४, जैन विश्व भारती, लाडनूं) समस्या का पत्थर अध्यात्म की छेनी (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १९६६
आदर्श साहित्य संघ, चूरू) समस्या समाधान (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १९७७, आदर्श साहित्य
संघ, चूरू) समाज-व्यवस्था के सूत्र (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १९८६, तुलसी
अध्यात्म नीडम्, जैन विश्व भारती, लाडनूं) समाधि की खोज (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १९८१, तुलसी अध्यात्म
नीडम्, जैन विश्व भारती, लाडनूं) समाधि की निष्पत्ति (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १६८१, तुलसी अध्यात्म
नीडम्, जैन विश्व भारती, लाडनूं) सोया मन जग जाए (मुनि दुलहराज, प्रथम संस्करण १९८७, तुलसी अध्यात्म
नीडम्, जैन विश्व भारती, लाडनूं) हिन्दी जन-जन की भाषा (मुनि दुलहराज, अखिल भारतीय अणुव्रत समिति,
दिल्ली)
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RAUG S
Page #126
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Page #127
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गद्य साहित्य
-
विषय
पुस्तक
पृष्ठ
४५
जैन योग जैन योग जैन योग जैन योग जैन योग प्रज्ञापुरुष जैन योग प्रेक्षा आधार
१५३
पू
२००
अंतर्दृष्टि (१) अंतर्दृष्टि (२) अंतर्दृष्टि (३) अंतर्दृष्टि (४) अंतर्दृष्टि (५) अंतर्दृष्टि अंतर्यात्रा अंतर्यात्रा अंधकार से प्रकाश की ओर [कर्म और पलायनवाद
कर्म की शक्ति किस्मात्-दण्ड काल-मृत्यु केलेपन की शक्ति ‘च्छे बुरे का नियन्त्रण-कक्ष ज्ञात की प्रतिध्वनि ज्ञात द्वीप की खोज ज्ञानवश हिंसा णु-अस्त्र और मानवीय दृष्टिकोण णु-ज्योति (णुव्रत पणुव्रत आंदोलन और भावी कार्यक्रम की
कर्मवाद शक्ति अहिंसा तत्त्व
४३
५६
तट
शक्ति
३
आभामण्डल प्रज्ञापुरुष एकला अहिंसा तत्त्व
१०७
Nov
तट
नैतिकता अणुव्रत अणु आंदो
Ar
रेखाएं
[णुव्रत आंदोलन की मंजिल
विचार का
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________________
विचार का
१३१
अणुव्रत जैन धर्म
१०४
तेरापंथ
१३०
२४
१२४ ४५
on 9
३७
अणुव्रत आंदोलन : कुछ प्रश्न जो समाधान
चाहते हैं अणुव्रत-आंदोलन के प्रवर्तक अणुव्रत-आंदोलन प्रवर्तक आचार्य तुलसी :
एक परिचय अणुव्रत-आंदोलन प्रवर्तक आचार्य तुलसी :
एक परिचय अणुव्रत : एक परिचय अणुव्रत और साम्यवाद अणुव्रत और साम्यवाद अणुव्रत का अभियान और साम्यवाद अणुव्रत का आन्दोलन क्यों ? अणुव्रत का सप्तसूत्री कार्यक्रम अणुव्रत की प्रेरणा क्या है ? अणुव्रत के कार्यक्रम का भावी आधार अणुव्रत के भावी कार्यक्रम की रेखाएं अणुव्रत-दर्शन की पृष्ठभूमि अणुव्रत रचनात्मक है या निषेधात्मक ? अणुव्रत साधना का अर्थ अणुव्रती कौन हो सकता है ? अणुशस्त्र और मानवीय दृष्टिकोण अतीत और भविष्य का सम्पर्क-सूत्र अतीत का अनावरण अतीत का सिंहावलोकन अतीत के आलोक में हिंदी की समृद्धि अतीत के आलोक में हिंदी की समृद्धि अतीत को पढ़ो : भविष्य को देखो अतीत से बंधा वर्तमान अतीत से बंधा वर्तमान अतीत से मुक्त वर्तमान
अणु : एक नैतिकता राष्ट्रीय समाज अणुव्रत नैतिकता अणुव्रत नैतिकता नैतिकता नैतिकता अणुव्रत नैतिकता अणुव्रत राष्ट्रीय अवचेतन मेरी
mm
१३७
११२
श्रमण
१२
हिंदी अतीत कर्मवाद उत्तरदायी कर्मवाद उत्तरदायी
२१२ १६४
४ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
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________________
१२७ ११२
६
घट
१०२ १४६ ८१
घट
३०४
१३७
१७९
२२२
अतीत से मुक्त वर्तमान
कर्मवाद अतीन्द्रिय चेतना
मनन अतीन्द्रिय ज्ञान की साधना
अपने अद्वैत और द्वैत. अद्वैत और द्वैत
सत्य अधिनायकवाद और स्वतन्त्रता
मेरी अध्यात्म और नैतिकता
अणवत अध्यात्म और नैतिकता अध्यात्म और विज्ञान
उत्तरदायी अध्यात्म और विज्ञान-अनुप्रेक्षा
अमूर्त अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय
अपने अध्यात्म और व्यवस्था के संप्रेरक आचार्य भिक्षु अपने अध्यात्म और व्यवहार
मन अध्यात्म और व्यवहार
किसने अध्यात्म का रहस्य-सूत्र
किसने अध्यात्म का व्यावहारिक मूल्य
समस्या का अध्यात्म की चतुष्पदी
जीवन अध्यात्म की यात्रा
ऊर्जा अध्यात्म की यात्रा
किसने अध्यात्म की शक्ति
शक्ति अध्यात्म की साधना
मन अध्यात्म की सूई : मानवता का धागा ' समस्या का अध्यात्म के रहस्यों की खोज
मन अध्यात्म के विचार-बिन्दु
अहिंसा तत्त्व अध्यात्म चेतना
अवचेतन अध्यात्म-धर्म और लोक-धर्म का पृथक्करण अहिंसा तत्त्व अध्यात्म-बिंदु अध्यात्मवाणी और लोकवाणी
अहिंसा तत्त्व अध्यात्मवादी दृष्टिकोण
अहिंसा तत्त्व अध्यात्म से विच्छिन्न धर्म का अर्थ अधर्म की मैं
विजय
२८७ २७६
१५ १५०
१४२ २६५
१५४
गद्य साहित्य | ५
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एसो महा
अहिंसा तत्त्व जैन मौलिक (२) जैन चिंतन अतीत
१८८
२३१
१६
१०४
सोया अमूर्त अमूर्त जैन योग जैन योग अहिंसा तत्त्व जैन चिंतन श्रमण तेरापंथ मन जैन योग
१४८ १८२
५२
अनन्त की अनुभूति अनन्त जिज्ञासाएं अनर्थ-दण्ड अनादि अनन्त अनादि का अन्त कैसे ? अनार्य देशों में तीर्थंकरों और मुनियों का
विहार अनावृत चेतना का विकास अनासक्ति अनुप्रेक्षा अनित्य भावना अनिमेष-प्रेक्षा अनिमेष-प्रेक्षा : अभ्यास-क्रम अनुकम्पा के दो रूप अनुकम्पा दान पर एक दृष्टि अनुकूल उपसर्गों के अंचल में अनुत्तरित प्रश्न अनुप्रेक्षा अनुप्रेक्षा : अभ्यास-क्रम अनुप्रेक्षा और भावना अनुप्रेक्षा : प्रयोग और पद्धति अनुभव जागे अनुभूति की वेदी पर संयम का प्रतिष्ठान अनुभूतियों के महान् स्रोत अनुमान अनुराग और विराग अनुशासन अनुशासन अनुशासन अनुशासन अनुशासन अनुशासन और विसर्जन
५७
x
१०८
१४५
अमूर्त
x
२७७
अमूर्त अप्पाणं समाधि समस्या का
x
भिक्षु
१८८
१०४
८७
जैन न्याय उत्तरदायी प्रज्ञापुरुष तेरापंथ अणुव्रत विशारद
७५
4
9
नैतिक
६२
१७७
विचार का प्रज्ञापुरुष
६ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
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________________
३५.
१५६
५२
अनुशासन और सहिष्णुता अनुशासन का धर्मचक्र अनुशासन का प्रतीक : मर्यादा महोत्सव अनुशासन की संहिता अनुशासन की समस्या अनुशासन के आधार अनुशासन के नए आयाम अनुशासन के मंत्रदाता : जयाचार्य अनुशास्ता महावीर अनेक रोग : अनेक चिकित्सा अनेकांत व्यवस्था के सूत्र अनैतिकता का मूल क्या है ? अन्तर्जगत् का वैभव अन्तर्जगत् के प्रतीक अन्तर्मुखी-दृष्टि अन्तर्राष्ट्रीय-निरपेक्षता अन्यत्व भावना अन्याय का प्रतिकार अपना काम नियति पर न छोड़ें अपनी आत्मा अपना मित्र अपनी आत्मा अपना मित्र : कब, कैसे ? अपनी खोज अपनी खोज अपने आपको जानें अपने प्रभु का साक्षात्कार अपने बारे में अपना दृष्टिकोण (१) अपने बारे में अपना दृष्टिकोण (२) अपानवायु और मनःशुद्धि अपेक्षा का धागा अपेक्षा का धागा
एकला
६७ प्रज्ञापुरुष
६७ तेरापंथ मन का मेरी प्रज्ञापुरुष प्रज्ञापुरुष मेरी महावीर क्या थे ? अवचेतन जैन न्याय अणुव्रत मन का प्रज्ञापुरुष अहिंसा तत्त्व
२७६ नयवाद अमूर्त
४४ अहिंसा तत्त्व २६४ अपने
२३१ सोया
११४ सोया
१४५ निष्पत्ति अप्पाणं
२१६ अर्हम् एकला
११८ कैसे सोचें
४७ कैसे सोचें
१५६ अणुव्रत विशारद १८ नैतिक
१३१ गद्य साहित्य | ७
१
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1
१५१
३७६
२१५
S
२४८
तुम
M० ०
२८६
२२
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अपेक्षा दृष्टि : बौद्धिक अहिंसा का विकास-मार्ग जैन धर्म अप्पाणं सरणं गच्छामि
निष्पत्ति अप्पाणं सरणं गच्छामि
अप्पाणं अप्रमाद
प्रेक्षा आधार अप्रमाद
मन अप्रमाद, वीतराग और केवली
जैन योग अप्रावृत और प्रतिसंलीनता
अतीत अभय
समस्या का अभय अनुप्रेक्षा
अमूर्त अभय का मन्त्र अभय की मुद्रा
अभय अभय की मुद्रा
कैसे सोचें अभय की शक्ति
तट अभय की शक्ति
राष्ट्रीय अभयदान
अभय अभयदान
कैसे सोचें अमूल्य का मूल्यांकन
चेतना अर्जन की पद्धति
अणुव्रत अर्थ-दण्ड
अहिंसा तत्त्व अर्थ-व्यवस्था के सूत्र और प्रेक्षा
समाज अहम् अलौकिक और लौकिक
श्रमण अवचेतन मन से सम्पर्क
अवचेतन अविनाभाव
जैन न्याय अशरण भावना
अमूर्त अशौच भावना
अमूर्त असंख्य द्वीप-समुद्र और मनुष्य-क्षेत्र
जैन चिंतन असंग्रह और श्रम
अणुव्रत असंग्रह का वातायन : अभय का उच्छ्वास । श्रमण असंयति-दान के अनिषेध का कारण
जैन चिंतन
२३५
0
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अर्हम्
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5 / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
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२३०
अहिंसा तत्त्व जैन धर्म
महावीर : जीवन
११६
समाज
७२
१३६
१०७
१०२
असंयम और संयम की भेद-रेखा असाम्प्रदायिक धर्म के मंत्रदाता भगवान
महावीर असाम्प्रदायिक धर्म के मंत्रदाता भगवान
महावीर अस्तित्व और व्यक्तित्व अस्तित्व का प्रश्न अस्तित्व का बोध अस्तित्व की खोज : सम्यग्दर्शन अहं का विसर्जन अहं-विसर्जन : अभ्यास-क्रम अहिंसक समाज-व्यवस्था अहिंसक समाज-संरचना अहिंसक समाज-संरचना कैसे होगी? अहिंसा अहिंसा अहिंसा : आत्मसंयम का मार्ग अहिंसा और अनेकान्त अहिंसा और उसके विचारक अहिंसा और कायरता अहिंसा और कायरता अहिंसा और दया अहिंसा और दया अहिंसा और दया का क्षेत्र-भेद से भेदाभेद अहिंसा और दया की एकता अहिंसा और दया-दान अहिंसा और दया-दान अन्य विचारकों की
दृष्टि में अहिंसा और दया-दान अन्य विचारकों की __ दृष्टि में अहिंसा और दान की एकता
तट जैन योग किसने जैन योग जैन योग अणुव्रत अणुव्रत मेरी अहिंसा विचारक अहिंसा-तत्त्व अहिंसा-तत्त्व मनन अहिंसा विचारक अणुव्रत विशारद
५४
५४
१२७
नैतिक
१६८
१७
२६
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अहिंसा विचारक अहिंसा तत्त्व अहिंसा तत्त्व जैन चिंतन जैन चिंतन दया दान
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३८
१७
जैन शास्त्र
जैन चिन्तन
गद्य साहित्य
Page #134
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२१७ १०३
अपने अहिंसा तत्त्व अणुव्रत अहिंसा तत्त्व अहिंसा विचारक
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४०
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२७२
३२२
अहिंसा तत्त्व अहिंसा तत्त्व अहिंसा तत्त्व अहिंसा तत्त्व अहिंसा तत्त्व अहिंसा तत्त्व अहिंसा तत्त्व अहिंसा तत्त्व
४७
२६८
२०
४५
अहिंसा और परिग्रह अहिंसा और विविध दर्शन अहिंसा और स्वतंत्रता अहिंसा और हिंसा की निर्णायक दृष्टियां अहिंसा का अर्थ अहिंसा का अर्थ अहिंसा का आदि-बिन्दु अहिंसा का नैश्चयिक हेतु अहिंसा का राजपथ : एक और अखंड अहिंसा का विवेक अहिंसा का व्यामोह अहिंसा का व्यावहारिक हेतु अहिंसा का समग्ररूप हिसा का सामुदायिक प्रयोग अहिंसा का स्वरूप अहिंसा की अनुस्यूति अहिंसा की कुछ अपेक्षाएं अहिंसा की परिभाषा अहिंसा की पृष्ठभूमि अहिंसा की भावना का आधार अहिंसा की मर्यादा अहिंसा की शक्ति अहिंसा की शक्ति अहिंसा की सफलता या विफलता अहिंसा की समस्याएं अहिंसा की सही समझ अहिंसा के दो रूप अहिंसा के दो स्तर अहिंसा के पथिकों से एक अपेक्षा आहंसा के प्रतीक महावीर
४४
२५५
४५
अहिंसा तत्त्व अहिंसा तत्त्व अणुव्रत अहिंसा तत्त्व अहिंसा तत्त्व अणुव्रत विशारद नैतिक
MA
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१३१
१७३
तट
४१
१२८
मेरी अहिंसा की अहिंसा तत्त्व समस्या का जैन धर्म महावीर क्या थे?
१
१० / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
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६३
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अहिंसा के फलितार्थ
अहिंसा तत्त्व अहिंसा के फलितार्थ
अहिंसा विचारक अहिंसा के स्रोत और विकास की आधार भूमि अहिंसा तत्त्व अहिंसा के हिमालय पर हिंसा का वज्रपात श्रमण अहिंसा जीवन में कैसे उतरे ?
अहिंसा विचारक अहिंसा तेजस्वी कैसे हो ?
मेरी अहिंसा: शक्ति-सन्तुलन
समस्या का अहिंसा सार्वभौम और अणुव्रत
मैं हूं अहिंसा सार्वभौम की कल्पना
मेरी अहिंसा-सूक्त
अहिंसा तत्त्व अहिंसा ही दया है
अहिंसा तत्त्व
२०२ ११८
१८
१३०
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३३२
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आंखें खोलो आंतरिक उपलब्धियां आकाश आकाश की उड़ान भारत को चुनौती आकाश-दर्शन : ध्यान का सहज साधन आकाश-दर्शन : ध्यान का सहज साधन आकाश दर्शन : ध्यान का सहज साधन आखिर हम अल्पज्ञ ही तो हैं आगम : तर्क की कसौटी पर आगम-प्रमाण आगम-प्रमाण आगम-प्रमाण आगम युग का जैन न्याय आगम-संपादन आगम-संपादन की रूपरेखा आगमों में आर्य-अनार्य की चर्चा आग्रह और अनाग्रह आचरण के स्रोत आचरण के स्रोत
आंखें खोलो जैन योग जैन चिन्तन तट चंचलता विचार का घट जैन धर्म जैन चिन्तन जैन प्रमाण जैन मौलिक (१) जैन दर्शन जैन न्याय धर्मचक्र जैन धर्म अतीत
x
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२६५ ६२७
२६७
४२ १४६
१३५
कर्मवाद चेतना
१०६
गद्य साहित्य | ११
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१७
३६
१४६
१५५
१०७
7
१३७ २३७
m
0
१३६
२३६
आचार का पहला सूत्र
मनन आचारशास्त्र के आधार भूत तत्त्व (१) मनन आचारशास्त्र के आधार भूत तत्त्व (२) मनन आचार-संहिता की पृष्ठभूमि
मनन आचारांग और उपनिषद्
अपने आचारांग में प्रेक्षा-ध्यान के तत्त्व
जैन योग आचार्य तुलसी : एक परिचय
जैन धर्म आचार्य तुलसी की आलोक रेखाएं
जैन धम आचार्य तुलसी की आलोक रेखाएं
तेरापन्थ गाचार्य तुलसी : ज्योतिर्मय साधक
तेरापन्थ आचार्य तुलसी : ज्योतिर्मय साधक
विचार का आचार्य तुलसी : नए मूल्यों की स्थापना तेरापन्थ आचार्य तुलसी : नए मूल्यों की स्थापना
जैन धर्म भाचार्य तुलसी : यथार्थ की व्याख्या तेरापन्थ आचार्य तुलसी : यथार्थ की व्याख्या
विचार का आचार्य भिक्षु का अध्यात्मवादी दृष्टिकोण अहिंसा तत्त्व आचार्य भिक्षु का अहिंसा-दर्शन
तेरापन्थ आचार्य भिक्षु का दृष्टिकोण (दयादान पर) अहिंसा विचारक आचार्य भिक्षु की परम आध्यात्मिक दृष्टि
जैन शास्त्र आचार्य भिक्षु की परम आध्यात्मिक दृष्टि दया दान आचार्य भिक्षु की मान्यता के मौलिक निष्कर्ष तेरापन्थ आचार्य भिक्षु की मान्यता के मौलिक निष्कर्ष जैन धर्म आचार्य भिक्षु के विचारों की आध्यात्मिक दया दान
पृष्ठभूमि आचार्य भिक्षु के विचारों की आध्यात्मिक जैन शास्त्र
पृष्ठभूमि आचार्य भिक्षु कौन थे ?
अहिंसा तत्त्व आचार्यश्री की दक्षिण भारत यात्रा
तेरापन्थ आचार्यश्री की दक्षिण भारत यात्रा
विचार का आचार्यश्री के व्यक्तित्व का मूल्यांकन धर्मचक्र आचार्यश्री के व्यक्तित्व के विभिन्न कोण धर्मचक्र
१२४
११७ १६६
२७०
३५७.
१२ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
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________________
१३४ २६६
घट विचार का जैन धर्म ऊर्जा किसने
~
१५३ १७६
मनन
१०१
आज का शिक्षक आज का शिक्षक आज जिनकी स्मृतियां ही शेष हैं (मंत्री मुनि) आजादी की लड़ाई आजादी की लड़ाई आत्मतुला और मानसिक अहिंसा आत्मतुला का विस्तार आत्मतुला की चेतना का विकास आत्म-दमन आत्म-दया और लौकिक दया आत्म-दर्शन आत्म-दर्शन की पहली किरण आत्मना युद्धस्व आत्म-निरीक्षण
अणुव्रत सोया
तट
१७७
२७६
आत्मवाद
आत्मवाद
आत्मवाद
अहिंसा तत्त्व अहिंसा तत्त्व मन का सोया 'एकला जैन मौलिक (२) जैन तत्त्व जैन दर्शन अतीत अणुव्रत विशारद नैतिक समस्या का महावीर : जीवन विचार का जैन चिन्तन
२६२
५५
७५
३२६
आत्म-विद्या : क्षत्रियों की देन आत्मविश्वास आत्मविश्वास आत्म-श्लाघा के संगायक योगिराज कृष्ण आत्म-साक्षात्कार के सिद्धान्त आत्म-साक्षात्कार के सिद्धान्त आत्मा और कर्म का सम्बन्ध कैसे ? आत्मा और परमात्मा आत्मा और परमात्मा आत्मा का अस्तित्व आत्मा का साक्षात्कार आत्मानुशासन अनुप्रेक्षा आत्मानुशासन और अनुशासन का समन्वय
घट
७१
सत्य
१२५
मनन महावीर क्या थे ?
१७६ २५४
अमूर्त
प्रज्ञापुरुष
७७
.
गद्य साहित्य / १३
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२१
४७
४
१३६
२३७
९७
२१४ १७३
३८६
आत्मा स्वतन्त्र या कर्म के अधीन
जैन चिन्तन आत्मौपम्य दृष्टि
अहिंसा तत्त्व आदिवासियों के बीच
श्रमण आध्यात्मिक चिकित्सा (१)
एसो आध्यात्मिक चिकित्सा (२)
एसो आध्यात्मिकता और भौतिक वस्तु का उत्पादन अणुव्रत आध्यात्मिकता का मापदंड -विरति
अहिंसा तत्त्व आध्यात्मिक समतावाद
अणुव्रत आध्यात्मिक सुख
ऊर्जा आध्यात्मिक सुख
किसने आध्यात्मिक स्वास्थ्य
आहार आध्यात्मिक स्वास्थ्य
एकला आन्तरिक समस्याएं और तनाव
निष्पत्ति आन्तरिक समस्याएं और तनाव
अप्पाणं आन्दोलन का प्रसार
अणुव्रत आन्दोलन का लक्ष्य
अणुव्रत आभामंडल
प्रेक्षा-लेश्या आभामंडल
आभामंडल आभामंडल और शक्ति-जागरण (१) आभामंडल आभामंडल और शक्ति-जागरण (२) आभामंडल आयोजन : नव उन्मेष : नई दिशाएं
धर्मचक्र आर्जव आर्थिक बोझ और अनैतिकता
अणुव्रत आवेग : उप-आवेग
कर्मवाद आवेग : उप-आवेग
चेतना आवेग और उप-आवेग आवेग-चिकित्सा
कर्मवाद आवेग-चिकित्सा
चेतना आशा की शक्ति
शक्ति आशावादी दृष्टिकोण
अनेकान्त
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१३३
१४४
२८३ १०७
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१४ | महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
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१३२
सोया अर्हम्
५८
महा
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जैन चिन्तन
धर्म
६०
१२५
अमूर्त
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मन
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आसक्ति अनासक्ति का आधार : निवृत्तिवाद आसन आसन : एक अनुचिन्तन आस्तिक दर्शनों की भित्ति -आत्मवाद आस्तिक्य आस्था का एकांगी अंचल आस्रव भावना आहार : अनाहार आहार और नीहार आहार और विचार आहार का अनुशासन आहार की शक्ति आहार, नींद और जागरण आहार-विजय आहार विवेक आहार विवेक आहार विवेक आहारशुद्धि से रूपान्तरण
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१
आहार एकला मैं कुछ शक्ति एकला आहार आहार विचार का
२६
३५१
घट
४१५
आहार
तेरापंथ मैं कुछ
शक्ति
इक्कीसवीं सदी का तेरापंथ इच्छा और अनुशासन इच्छा की शक्ति इन्द्रिय अनुशासन इन्द्रिय-शुद्धि इन्द्रिय-संयम इन्द्रिय-संवर
मैं कुछ
२५
१४७
२०३
महावीर क्या थे ?
७७
१५७
उठो और उठाओ-जागो और जगाओ उड़ान के दो पंख-बुद्धि और अनुभूति उत्तरदायी कौन ?
अहिंसा तत्त्व समस्या का कर्मवाद उत्तरदायी
उत्तरदायी कौन ?
११
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गद्य साहित्य | १५
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४६
जैन चिन्तन प्रज्ञापुरुष विश्व
२१६
१४३
७८
३
३
१८०
उत्तरवता साहित्य और असंयति-दान उत्तराधिकारी का चयन उत्पत्ति-स्थान उदर-शुद्धि उदात्तीकरण क्रोध का उदार बनिए उदार बनिए उद्धरण की मर्यादा उनकी मां उन्नीसवीं सदी का नया आविष्कार उपदेष्टा महावीर उपनिषदों पर श्रमण-संस्कृति का प्रभाव उपनिषद्, पुराण और महाभारत में श्रमण
संस्कृति का स्वर उपवास : कायसिद्धि का उपाय उपवास की शक्ति उपसंपदा उपसंपदा उपसंपदा उपसंपदा : जीवन का समग्र दर्शन उपासना के बीज उपेक्षा भावना उस संघ को प्रणाम
सोया जैन शास्त्र दया दान जैन धर्म जैन धर्म उन्नीसवीं महावीर क्या थे अतीत अतीत
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३
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अर्हम् शक्ति किसने किसने प्रेक्षा आधार सोया
१६७
४७
१०७.
तुम
४५
१०६
अमूर्त मेरी
१९२
ऊर्जा
४८
ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन ऊर्जा का विकास : तप ऊर्जा का संचय ऊर्जा की ऊर्ध्व यात्रा ऋजुता अनुप्रेक्षा
किसने ऊर्जा किसने अमूर्त
२१८
तेरापंथ
एकता की अनुभूति के क्षण १६ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
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एकता की अनुभूति के क्षण एकता की समस्या
एकता की समस्या
एकत्व भावना
एक द्रव्य : अनेक द्रव्य
एक महावीर और चाहिए एकला चलो रे
एक समीक्षा : एक स्पष्टीकरण ( १ )
एक समीक्षा : एक स्पष्टीकरण ( २ )
एक समीक्षा : एक स्पष्टीकरण ( ३ )
एकाग्रता
एकाग्रता
एकाग्रता
एकाग्रता
एशिया में जनतंत्र का भविष्य
ऐकान्तिक आग्रह
ऐतिहासिक काल
ऐतिहासिक काल
ऐन्द्रियक स्तर पर उभरते प्रश्न
ओम्
कच्छ यात्रा के विविध प्रसंग
कम्प्यूटर हमारे भीतर है
कर सकता है, पर करता नहीं
करुणा
करुणा
करुणा और शाकाहार
करुणा का अजस्र स्रोत
करुणा का दोहरा रूप
करुणा भावना
जैन धर्म
तट
राष्ट्रीय
अमूर्त्त
जैन चिन्तन
महावीर जीवन
एकला
जैन धर्म
जैन धर्म
जैन धर्म
तुम
प्रेक्षा आधार
जैन योग
मन
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नयवाद
जैन मौलिक (१)
जैन परम्परा
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चंचलता
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श्रमण
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१७५
४८
५७
१८५
६१
६६
३१
१०२
गद्य साहित्य / १७
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१८२
कर्मवाद अमूर्त अणुव्रत विशारद
नैतिक
३२७
४२८
Y
.
करे कोई, भोगे कोई कर्तव्य-निष्ठा अनुप्रेक्षा कर्तव्यबोध कर्तव्यबोध कर्म और अकर्म कर्म और अकर्म कर्म का बन्ध कर्म का बन्ध कर्म की पौद्गलिकता कर्म की रासायनिक प्रक्रिया (१) कर्म की रासायनिक प्रक्रिया (२) कर्म की रासायनिक प्रक्रिया (१) कर्म की रासायनिक प्रक्रिया (२) कर्म : चौथा आयाम कर्म : चौथा आयाम कर्मयोगी महावीर कर्मवाद कर्मवाद कर्मवाद कर्मवाद कर्मवाद कर्मवाद कर्मवाद कर्मवाद के अंकुश कर्मवाद के अंकुश कर्मशास्त्र : मनोविज्ञान की भाषा में कर्मशास्त्र : मनोविज्ञान की भाषा में कलकत्ता यात्रा कला और कलाकार कला और कलाकार
विचार का घट कर्मवाद चेतना जैन चिन्तन कर्मवाद कर्मवाद चेतना चेतना कर्मवाद चेतना महावीर क्या थे कर्मवाद जैन चिन्तन घट सत्य जैन मौलिक (२) जैन तत्त्व जैन दर्शन कर्मवाद चेतना
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१२२
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घट
४७
२३५
कर्मवाद धर्मचक्र समस्या का
७३
११६
१२३
१८ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
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७४
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१२
१३८
२७ ६४
१६
१४२
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१६३
कहीं वन्दना और कहीं बन्दी
श्रमण काम परिष्कार का दूसरा सूत्र–परिणामदर्शन अवचेतन काम-परिष्कार का पहला सूत्र-मुक्तिदर्शन अवचेतन काम शक्ति का विकास
जीवन कायसिद्धि : प्रयोग और परिणाम
अहम् कायोत्सर्ग
तट कायोत्सर्ग
प्रेक्षा-आधार कायोत्सर्ग : अभ्यास-क्रम
जैन योग कायोत्सर्ग और ध्यान
तुम कायोत्सर्ग की निष्पत्ति
कायोत्सर्ग कायोत्सर्ग की विधि
कायोत्सर्ग कायोत्सर्ग क्या है ? आध्यात्मिक दृष्टिकोण कायोत्सर्ग कायोत्सर्ग क्या है ? वैज्ञानिक दृष्टिकोण कायोत्सर्ग कायोत्सर्ग क्यों ?
कायोत्सर्ग कार्यकारणवाद
जैन प्रमाण कार्यकारणवाद
जैन मौलिक (१) कार्यकारणवाद
जैन-दर्शन काल
जैन चिन्तन काल्पनिक समस्याएं और तनाव
निष्पत्ति काल्पनिक समस्याएं और तनाव
अप्पाणं कुंडलिनी-जागरण : अवबोध और प्रक्रिया कृषि, जो समाज की आवश्यकता है
जैन चिन्तन केवल ज्ञान की साधना
निष्पत्ति केवल ज्ञान की साधना
अप्पाणं केवल दर्शन की साधना
निष्पत्ति केवल दर्शन की साधना
अप्पाणं कैवल्य लाभ
श्रमण कैसे सोचें ? (१)
कैसे सोचें कैसे सोचें ? (२)
कैसे सोचें कैसे सोचें ? (३)
कैसे सोचें
४१५
६५२
१३
३७६
२४२
२३१
गद्य साहित्य | १६
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घट
क्या अहिंसा सफल हो सकती है ?
अणुव्रत क्या आत्म-नियंत्रण जरूरी है ?
सोया क्या आदतें बदली जा सकती है ?
अप्पाणं समाधि क्या ईश्वर है ?
जीवन क्या कर्म अनासक्त हो सकता है ?
अप्पाणं समाधि क्या कष्ट सहना जरूरी है ?
सोया क्या जीवन-शैली को बदलना जरूरी है ? सोया क्या ज्ञान ईश्वर है ?
जीवन क्या ज्ञान और आचरण की दूरी मिट सकती है ? अप्पाणं समाधि क्या दुःख को कम किया जा सकता है ? सोया क्या धन की आसक्ति छूट सकती है ? सोया क्या धर्म बुद्विगम्य है ?
विचार का क्या धर्म बुद्धिगम्य है ? क्या धर्म श्रद्धागम्य है ? क्या धार्मिक होना जरूरी है ?
सोया क्या ध्यान उपाय है दुःख मिटाने का? सोया क्या ध्यान जरूरी है ?
सोया क्या नारी दुर्बल है ?
घट क्या नैतिकता परिवर्तनशील है ?
अणुव्रत क्या मूड पर अंकुश लगाया जा सकता ? सोया क्या मूर्छा को कम किया जा सकता है ? सोया क्या मैं ईश्वर हूं?
जीवन क्या मैं चक्रवर्ती नहीं हूं?
श्रमण क्या मैं स्वतंत्र हूं? क्या यही धर्म है ?
अणुव्रत विशारद क्या यही धर्म है ? क्या विचारों को रोका जा सकता है ? सोया क्या हम स्वतंत्र हैं ?
विचार का क्या हम स्वतंत्र हैं ? क्रम-विकासवाद के मूल सूत्र
विश्व
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२१६ ४०६
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नैतिक
१४८
घट
१५४
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२० / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
Page #145
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________________
११४
क्रान्ति का नया आयाम क्रान्ति का सिंहनाद क्रियाफल पहले-पीछे नहीं क्रियावाद : आस्रव क्षमा क्षयोपशम क्षीर-नीर
अणुव्रत श्रमण अहिंसा तत्व जैन योग
२३२
१०३
जैन चिन्तन
भिक्षु
खाद्य-विवेक
अहिंसा तत्व
२७४
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श्रमण मेरी
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महा
१७६
गंगा में नौका-विहार गीता : संदेश और प्रयोग गुरु का अनुग्रह गृहस्थ का कार्य-क्षेत्र ग्रंथिमोक्ष ग्रहणशील व्यक्तित्व
W
अहिंसा तत्व
८६
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प्रज्ञापुरुष
महावीर : जीवन
घट घट दीप जले घेरे की शक्ति घोड़ा और लगाम
१०२
उत्तरदायी
ভও
१८८ ३१४
११
चंचलता का चौराहा
चेतना चंचलता का चौराहा
चंचलता चक्षुदान
श्रमण चरित्र और नैतिकता की आवश्यकता क्यों ? घट चरित्र का प्रश्न : वैयक्तिक या सामाजिक ? घट चरित्र की शुद्धि
प्रेक्षा-लेश्या चार अभ्यर्थनाएं
घट चारित्र-परिवर्तन के सूत्र
सोया चारित्र समाधि (आध्यात्मिक प्राणायाम) महावीर क्या थे ? चित्त और मन
अर्हम् चित्त का निर्माण
चेतना
१२७
२५५
८४
गद्य साहित्य | २१
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शक्ति
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२८५
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२७२
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२५२
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६४
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चित्त की शक्ति चित्त-शुद्धि और अनुप्रेक्षा
निष्पत्ति चित्त-शुद्धि और अनुप्रेक्षा
अप्पाणं चित्त-शुद्धि और कायोत्सर्ग
निष्पत्ति चित्त-शुद्धि और कायोत्सर्ग
अप्पाणं चित्त-शुद्धि और लेश्या ध्यान
निष्पत्ति चित्त-शुद्धि और लेश्या-ध्यान
अप्पाणं चित्त-शुद्धि और शरीर प्रेक्षा
निष्पत्ति चित्त-शुद्धि और शरीर-प्रेक्षा
अप्पाणं चित्त-शुद्धि और श्वास प्रेक्षा
निष्पत्ति चित्त-शुद्धि और श्वास-प्रेक्षा
अप्पाणं चित्त-शुद्धि और समाधि
निष्पत्ति चित्त-शुद्धि और समाधि
अप्पाणं चित्त-शुद्धि के साधन चित्त-समाधि के सूत्र (१)
अप्पाणं/समाधि चित्त-समाधि के सूत्र (२)
अप्पाणं समाधि चिन्तन और निर्णय
अर्हम् चिन्तन और परिणाम
कैसे सोचें चिन्तन और वैराग्य
अर्हम् चिन्तन के विकास में जैन आचार्यों का योग । चिन्तन के विकास में जैन आचार्यों का योग जैन दर्शन चिर सत्यों की अनुस्यूति चेतना का जागरण
चेतना चेतना का तीसरा आयाम
किसने चेतना का प्रस्थान: अज्ञात की दिशा किसने चेतना का रूपान्तरण (१) चेतना का रूपान्तरण (२) चेतना की क्रीडा भूमि : अप्रमाद
किसने चेतना की दिशा का परिवर्तन
मन चैतन्य का अनुभव
निष्पत्ति
१०० ३४
जैन
१२६
१४०
तट
२०३
२६८
मैं हूं
२६६
१०३
२२ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
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३२१
चैतन्य का अनुभव चैतन्य-केन्द्र चैतन्य-केन्द्र : आध्यात्मिक स्वरूप चैतन्य-केन्द्र-प्रेक्षा चैतन्य-केन्द्र-प्रेक्षा के परिप्रेक्ष्य में चैतन्य-केन्द्र-प्रेक्षा क्यों ? चैतन्य-केन्द्र-प्रेक्षा : निष्पत्ति चैतन्य-केन्द्र-प्रेक्षा--विधि चैतन्य-केन्द्र : वैज्ञानिक स्वरूप चैतन्य-जागरण का अभियान चैतन्य-विकास के सोपान
अप्पाणं जैन योग प्रेक्षा-चैतन्य प्रेक्षा आधार महा प्रेक्षा-चैतन्य प्रेक्षा-चैतन्य प्रेक्षा-चैतन्य प्रेक्षा-चैतन्य
१८४
मैं हूं
१८३३
सोया
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अपने प्रज्ञापुरुष अर्हम् मन जैन धर्म धर्मचक्र प्रज्ञापुरुष जैन धर्म तेरापंथ
जगत् और हम जन्म और पारिवारिक वातावरण जप और ध्यान जप और मौन जयचंदलाल दफ्तरी जयपुर से दिल्ली यात्रा जयाचार्य और मार्क्स : एक तुलना जयाचार्य की कल्पना का व्यक्तित्व जयाचार्य की कल्पना का व्यक्तित्व जयाचार्य : वर्तमान के संदर्भ में जरूरत है एक अभियान की जागरिका
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१६१
महा महावीर जीवन एकला जीवन
जागरूकता
१५
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जीवन
१८४ १८७
जागरूकता जागरूकता : चक्षुष्मान् बनने की प्रक्रिया . जागरूकता : जीवन-व्यवहार जागरूकता : दिशा-परिवर्तन जागरूकता : देखने का अभ्यास जागरूकता : यथार्थ का स्वीकार
जीवन जीवन जीवन जीवन
१६७ १६२
गद्य साहित्य | २३
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________________
१७४
२६
जीवन जैन चिन्तन जैन चिन्तन जन मौलिक (२) जैन दर्शन जैन आचार
१५७ ४८१
घट
१३७
२२७ १५८ ३०३
जैन मौलिक (२) महा विचार का समस्या का मन मेरी एसो मेरी
२७६
१४२
जागरूकता : संतुलन की प्रक्रिया जाति और गोत्र कर्म जातिवाद जातिवाद जातिवाद जिज्ञासा जिज्ञासा जिज्ञासा जिज्ञासा जिज्ञासा जिज्ञासा और....... जिज्ञासा : जिज्ञासा जिज्ञासितं कथितम् जिज्ञासितम् जिन शासन (१) जिन शासन (२) जीव जीव का अस्तित्व : जिज्ञासा और समाधान जीव का तर्कातीत अस्तित्व जीवन अविभाज्य और विभाज्य दोनों है जीवन और दर्शन जीवन का उद्देश्य जीवन का ध्येय जीवन का वातायन जीवन का विहंगावलोकन जीवन की तुला : समता के बटखरे जीवन की परिभाषा जीवन की परिभाषा जीवन की पोथी जीवन की सफलता के सूत्र
जैन चिन्तन
तट
तट
अहिंसा तत्त्व
२११
तट
अणुव्रत
प्रज्ञापुरुष
श्रमण
२७२
समस्या का अणुव्रत विशारद नैतिक जीवन घट
१४० १८५ १२१ २७६
२४ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
Page #149
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जीवन की सार्थकता
जीवन के दो बिंदु : नीति और अध्यात्म
जीवन के नये मूल्य
जीवन क्या है ? जीवन-दर्शन
जीवन-निर्माण
जीवन-निर्माण
जीवन-निर्माण
जीवन-निर्माण की दिशा और अणुव्रत
जीवन-निर्माण के सूत्र
जीवन परिवर्तन की नयी दिशा
जीवन में अहिंसा का रूप
जीवन - विकास के सूत्र
जीवन-विज्ञान
जीवन-विज्ञान
जीवन-विज्ञान : आधार और प्रक्रिया
जीवन-विज्ञान और अन्तर्दृष्टि के प्रयोग
जीवन-विज्ञान और नई पीढ़ी का निर्माण
जीवन-विज्ञान और सामाजिक जीवन
जीवन-विज्ञान की शिक्षा क्यों ? ( १ ) जीवन-विज्ञान की शिक्षा क्यों ?
(२)
जीवन-विज्ञान : क्या? क्यों ?
जीवन-विज्ञान: मस्तिष्क प्रशिक्षग
जीवन-विज्ञान : मस्तिष्क प्रशिक्षण की प्रणाली
जीवन-विज्ञान : सर्वांगीण व्यक्तित्व विकास
का संकल्प
जीवन-विज्ञान : स्वस्थ समाज रचना का संकल्प जीवन स्वस्थ
जीवन विद्या
अवचेतन
जीवनवृत्त : कुछ चित्र कुछ रेखाएं जीवन स्तर में परिवर्तन की अपेक्षा
जीव : स्वरूप और लक्षण
महा
समस्या का
तट
मैं हूं
मन का
जैन मौलिक ( २ )
जैन तत्त्व
जैन दर्शन
विचार का
नैतिकता
तट
धर्म
तट
धर्मचक्र
अवचेतन
जीवन शिक्षा
जीवन शिक्षा
जीवन शिक्षा
जीवन शिक्षा
जीवन शिक्षा
जीवन शिक्षा
जीवन शिक्षा
जीवन स्वस्थ
जीवन स्वस्थ
जीवन स्वस्थ
श्रमण
नैतिकता
मेरी
२११
१००
५८
१
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६५
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१४१
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७९
२७५
१४६
१५
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११६
१३२
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१
७६
१०३
१०७
११२
१६८
१
८१
५०
गद्य साहित्य / २५
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जीवित धर्म
जैन आगम : एक अनुचिन्तन जैन आगम : एक अनुचिन्तन जैन आगमों के कुछ विचारणीय शब्द
जैन तत्त्ववाद की पृष्ठभूमि जैन दर्शन और बौद्ध
जैन दर्शन और वर्तमान युग
जैन दर्शन और वर्तमान युग
जैन दर्शन और वेदान्त
जैन दर्शन और वेदान्त
जैन दर्शन : वर्तमान समस्याओं के संदर्भ में
जैन धर्म और महात्मा गांधी
जैन धर्म और महात्मा गांधी
जैन धर्म और महात्मा गांधी जैन धर्म का आधार
जैन धर्म का समाज पर प्रभाव
जैन धर्म का समाज पर प्रभाव
जैन धर्म की देन
जैन धर्म के पूर्वज नाम
जैन धर्म प्रागऐतिहासिक काल
जैन न्याय
जैन न्याय
जैन न्याय
जैन परम्परा में ध्यान : एक ऐतिहासिक विश्लेषण - १
जैन परम्परा में ध्यान : एक ऐतिहासिक विश्लेषण - २
जैन परम्परा में ध्यान : एक ऐतिहासिक विश्लेषण- ३
जैन परम्परा में ध्यान : एक ऐतिहासिक विश्लेषण-४
२६ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
तट
महावीर जीवन
विचार का
अतीत
जैन मौलिक (२)
जैन दर्शन
जैन आचार
जैन मौलिक (२)
अतीत
जैन दर्शन
जैन दर्शन
महावीर जीवन
समस्या का
विचार का
अहिंसा तत्त्व
जैन परम्परा
जैन मौलिक ( १ )
अपने
अतीत
अपने
जैन प्रमाण
जैन मौलिक ( १ )
जैन दर्शन
महावीर जीवन
महावीर जीवन
महावीर जीवन
महावीर जीवन
१६
६७
१८१
१७६
१
४०२
१२७
३५५
६२
४११
४६२
६०
१४७
१८६
१६६
१०६
१०६
७८
५६
७१
१
२२१
५६७
२६७
२७६
२८७
२६५
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________________
१६६
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७३
तुम
१७
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जैन परम्परा में विकार
अहिंसा तत्त्व जैन भिक्षु साधारण भिक्षु की कोटि में भिक्षावृत्ति
प्रविष्ट नहीं हो सकते जैन मुनि भिक्षु क्यों ?
भिक्षावृत्ति जैन मुनि माधुकरी वृत्ति से भिक्षा लेते हैं।
भिक्षावृत्ति जैन योग
तुम जैन योग
अतीत जैन योग और आसन जैन योग में कुंडलिनी
जैन योग जैन विश्व भारती : एक अनुचिन्तन
महावीर जीवन जैन विश्व भारती : एक अनुचिन्तन
विचार का जैन शासन तेजस्वी कैसे बने ?
जैन धर्म जैन शासन तेजस्वी कैसे बने ?
महावीर क्या थे जैन शासन तेजस्वी कैसे बने ?
महावीर जीवन जैन श्रावक का कर्तव्य-बोध
महावीर जीवन जैन श्रावक का कर्तव्य-बोध
विचार का जैन श्रावक की आचार पद्धति (१)
अपने जैन श्रावक की आचार पद्धति (२)
अपने जैन श्रावक की आचार पद्धति (३)
अपने जैन श्वेताम्बर तेरापंथी साधुओं की सक्रियता भिक्षावृत्ति जैन संस्कृति जैन संस्कृति
जैन दर्शन जैन संस्कृति का प्राग् ऐतिहासिक काल जैन परम्परा जैन संस्कृति का प्राग ऐतिहासिक काल जैन मौलिक (१) जैन-समन्वय
जैन धर्म जैन समन्वय
महावीर जीवन जैन साधु जनता के लिए भार स्वरूप नहीं भिक्षावृत्ति जैन साहित्य
जैन मौलिक (१) जैन साहित्य
जैन परम्परा जैन साहित्य
जैन जैन साहित्य
जैन दर्शन
१२२
७४ २०४
११७
१२३
१२७
जैन
१२७
१०८
५६
७२ १०५
गद्य साहित्य | २७
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________________
मनन
११७
७८
१८६
मनन अतीत भिक्षावृत्ति विचार का महावीर जीवन जैन धर्म घट
१६७
१२४
आभामण्डल
जैन साहित्य के आलोक में गीता का अध्ययन जैन साहित्य में चैतन्य-केन्द्र जैन साहित्य में सूक्तियां जैनी दीक्षा का उद्देश्य जैनों का कर्तव्य-बोध जैनों का कर्तव्य-बोध जो अपने आप में अपेक्षाओं को संजोये हुए थे जो विपरीत दिशा में खड़ा नहीं हो सकता,
वह युवक नहीं होता जो व्यक्तित्व को रूपान्तरित करता है (१) जो व्यक्तित्व को रूपान्तरित करता है (२) ज्ञाता-द्रष्टा चेतना का विकास ज्ञान और संवेदन ज्ञान क्या है ? ज्ञान क्या है ? ज्ञान-गंगा का प्रवाह ज्ञान मीमांसा ज्ञान समाधि ज्यों की त्यों धर दीन्हीं चदरिया ज्योतिर्मय महावीर
५१
आभामण्डल सोया
१७२ २२७
१५१
मन जैन ज्ञान जैन मौलिक (१) श्रमण जैन दर्शन महावीर जीवन अपने महावीर क्या थे
५०५
२१६
झूठा मानदण्ड झूठा मानदण्ड
अणुव्रत विशारद नैतिक
४
णमो अरहताणं की शक्ति
शक्ति
श्रमण
१२२
अहिंसा तत्त्व
१८५
तत्कालीन धर्म और धर्मनायक तत्त्व के दो रूप तत्त्वज्ञान या जीवन-दर्शन ? तत्त्ववाद
१०८
W
सत्य
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घट
तत्त्ववाद तनाव और ध्यान (१)
आभामण्डल
२८ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
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________________
आभामण्डल
तनाव और ध्यान (२) तनाव और ध्यान तनाव क्यों ? निवारण कैसे ?
२१५
महा एकला
तप
4
२२६
जैन योग महावीर जीवन जैन चिन्तन अहिंमा विचारक अहिंसा तत्त्व श्रमण अनेकांत अनेकांत
घट
तुम
घट
मन का
तपयोग तप समाधि तर्क का दुरुपयोग तर्क की कसौटी पर तीन प्रकार के धर्म तीर्थ और तीर्थंकर तीसरा नेत्र (१) तीसरा नेत्र (२) तीसरी आंख खुल जाए तुम अनन्त शक्ति के स्रोत हो तुम अनन्त शक्ति के स्रोत हो तुम तटस्थ नहीं हो तुम्हारा भविष्य तुम्हारे हाथ में तुम्हारा भविष्य तुम्हारे हाथ में तुम्हारा शोषण वरदान बन जाता है तुम्हारा शोषण वरदान बन जाता है तेजोलेश्या (कुंडलिनी) तेजोलेश्या और अतीन्द्रिय ज्ञान तेजोलेश्या और प्राण तेजोलेश्या का ध्यान : निष्पत्तियां तेजोलेश्या का विकास तेजोलेश्या का स्थान तेजोलेश्या के दो रूप तेरापंथ और अनुशासन तेरापंथ और अनुशासन तेरापंथ का एक महान शासनसेवी उठ गया
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तुम
६७ २५६ १५८
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१२८
१२६
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विचार का तेरापंथ जन योग जैन योग जैन योग प्रेक्षा लेश्या जैन योग जैन योग जैन योग तेरापंथ जैन धर्म जैन धर्म
१२७
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२५
يمر
१२०
गद्य साहित्य | २६
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________________
२३१
१२२
तेरापंथ की तीन विशेषताएं तेरापंथ की तीन विशेषताएं तेरापंथ के अष्टमाचार्य श्री कालूगणी तेरापंथ के अष्टमाचार्य श्री कालूगणी तेरापंथ के आचार्य तेरापंथ के दार्शनिक विचारों की पृष्ठभूमि तेरापंथ के दार्शनिक विचारों की पृष्ठभूमि तेरापंथ के परिप्रेक्ष्य में तेरापंथ : स्थापना और अवतरण त्याग त्रस जीवों की हिंसा के निमित्त
विचार का तेरापंथ तेरापंथ जैन धर्म धर्मचक्र जैन शास्त्र दया दान
१२१
१०५
महा प्रज्ञापुरुष
११६
अहिंसा तत्त्व
१०२
धर्मचक्र अणुव्रत विशारद
नैतिक
४०
दक्षिण यात्रा दण्ड या हृदय-परिवर्तन दण्ड या हृदय-परिवर्तन दया के दो प्रकार दया के दो भेद दया क्या है ? दर्शन दर्शन दर्शन और बुद्धिवाद दर्शन का मूल दर्शन युग का जैन न्याय दर्शन वही, जो जिया जा सके दर्शन समाधि दर्शनों का पार्थक्य दशविध धर्म दस धर्म की साधना दस प्रकार के दान दान का फल दान का विधान और निषेध
अहिंसा विचारक जैन चिंतन अहिंसा विचारक जैन तत्त्व जैन दर्शन तट जैन चिन्तन जैन न्याय
१६५
मैं हूं
६४
२४८
१४१
महावीर जीवन जैन चिन्तन अहिंसा तत्त्व अर्हम् अहिंसा तत्त्व जैन चिन्तन जैन चिन्तन
५२
४६
३० / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
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________________
४७
१९३
१०४ १६४
दान के प्रकार दान धर्म है दान-विवेक दान संबंधी मान्यता पर विचार दान संबंधी मान्यता पर विचार दायित्व का बोध दायित्व का बोध दार्शनिक दृष्टिकोण दार्शनिक परम्परा का इतिहास दिगम्बर और श्वेताम्बर दिव्य आनन्द
जैन चिन्तन भिक्षावृत्ति अहिंसा तत्त्व तेरापंथ जैन धर्म ऊर्जा किसने अपने जैन चिन्तन अपने उत्तरदायी उत्तरदायी उत्तरदायी विचार का घट धर्मचक्र तेरापंथ विचार का प्रेक्षा श्वास जैन योग
१२८ ११२
दिव्य चक्षु
१७३
२०१ १७८ २२६
१४६
७४
दिव्य शक्ति दिशाहीन पीढ़ी : नई या पुरानी ? दिशाहीन पीढ़ी : नई या पुरानी ? दीक्षा को चुनौती दीक्षा क्या और क्यों ? दीक्षा क्या और क्यों ? दीर्घश्वास की विधि दीर्घश्वास प्रेक्षा : अभ्यास क्रम
आश्वासन दुःख-मुक्ति का उपाय-कायोत्सर्ग दुर्बलिका पुष्यमित्र चाहिए दूसरे के बारे में अपना दृष्टिकोण दृष्टि बदलें : सृष्टि बदलेगी दृष्टि विपर्यास-दण्ड देखें और सोचें देखो और बदलो दो तत्त्व दो दृष्टियां
७४
अहम् तुम कैसे सोचें सोया अहिंसा तत्त्व मन अप्पाणं समाधि विश्व अहिंसा विचारक
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११
गद्य साहित्य | ३१
Page #156
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दो परम्पराए द्रव्य द्रव्य द्विता और द्विधा द्विता और द्विधा
जैन चिन्तन जैन चिन्तन विश्व जैन धर्म महावीर जीवन
मन का
धर्म
धर्म जैन चिन्तन जैन चिन्तन
८७
अपने
१७० २६४
घट
v
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अहिंसा तत्त्व जैन चिन्तन धर्म जैन चिन्तन
१२२
r
धम्म सरणं गच्छामि धर्म आवश्यक क्यों ? धर्म एक : कल्पनाएं तीन धर्म एक : मार्ग अनेक धर्म और अधर्म धर्म और अधर्म की यौक्तिक अपेक्षा धर्म और उपासना धर्म और कर्म धर्म और जीवन व्यवहार धर्म और पुण्य धर्म और पुण्य धर्म और रूढ़िवाद धर्म और लोकधर्म धर्म और विज्ञान धर्म और विज्ञान धर्म और विज्ञान धर्म और व्यवहार धर्म और व्यवहार धर्म और संस्थागत धर्म धर्म और समाज धर्म और सम्प्रदाय धर्म और सम्प्रदाय धर्म और सम्प्रदाय को एक न समझे धर्म का नया क्षितिज धर्म का पहला पाठ ३२ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
धर्म घट अणुव्रत विशारद नैतिक
१३७ १३४ २४१ ११८ १५६
अहिंसा विचारक अणुव्रत विशारद नैतिक महा धर्मचक्र
१२१ १६०
१३१
समस्या का
३८
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________________
घट
२४८
८२
१७७
१८२
२४
धर्म का पहला प्रतिबिम्ब नैतिकता धर्म का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण धर्म का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण
विचार का धर्म का रेखाचित्र धर्म का व्यावहारिक रूप धर्म का सार्वभौम रूप-ध्यान धर्म कितना मंहगा कितना सस्ता ? धर्म की आत्मा--एकत्व या समत्व धर्म की कसौटी धर्म की कसौटी
अपने धर्म की तीसरी कक्षा-व्रती बनना
धर्म धर्म की तोता रटन्त
समस्या का धर्म की परिभाषा धर्म की मंजिल
अपने धर्म की व्याख्या
धर्म धर्म की समस्या : धार्मिक का खंडित व्यक्तित्व समस्या का धर्म के साधन-तपस्या और ध्यान
धर्म धर्म कैसे?
धर्म धर्म क्या है ?
जैन चिन्तन धर्म क्यों ?
जैन चिन्तन धर्म-कान्ति की अपेक्षा
जैन धर्म धर्मचक्र का प्रवर्तन : अणुव्रत आन्दोलन धर्मचक्र धर्म-परिवर्तन : सम्मत और अनुमत
श्रमण धर्म-परिवार
प्रज्ञापुरुष धर्म भावना
अमूर्त धर्म : मृत्यु की कला
अपने धर्म वैज्ञानिक या अवैज्ञानिक ? धर्म-संकट के प्रश्न और उनका समाधान दया दान धर्म-संकट के प्रश्न और उनका समाधान जैन शास्त्र धर्मसंघ शक्तिशाली बने
महा
६५
३२
१७
६७
२०२
२२७
७८
१२
२६
१३८
गद्य साहित्य | ३३
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________________
विचार का
१६२ २५८
घट
सत्य
घट
धर्म
२७०
२७ ३१६
घट
धर्म
२०६
२६
१४७
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अमूर्त तुम महावीर जीवन श्रमण चंचलता मैं कुछ महावीर जीवन एकला अतीत
mr
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धर्म : समस्या के संदर्भ में धर्म : समस्या के संदर्भ में धर्म से आजीविका : इच्छा-परिमाण धर्म से आजीविका : इच्छा-परिमाण धर्म है आंतरिक संपदा धार्मिक उत्सवों की सार्थकता क्या है ? धार्मिक की कसौटी धैर्य अनुप्रेक्षा ध्यान ध्यान ध्यान, आसन और मौन ध्यान : एक परम पुरुषार्थ ध्यान : एक परम पुरुषार्थ ध्यान और कायोत्सर्ग ध्यान कठिन या सरल ध्यान का प्रथम सोपान-धर्म्य-ध्यान ध्यान की व्यूह रचना ध्यान की शक्ति (१) ध्यान की शक्ति (२) ध्यान क्यों? ध्यान : जीवन की पद्धति ध्यानयोगी महावीर ध्यान-साधना का प्रयोजन ध्यान-साधना की निष्पत्ति ध्येय ध्वनि का मन पर प्रभाव
)
१५४
२४६
श्रमण शक्ति शक्ति आभामण्डल
ती WM
२४१
१७५
एकला महावीर क्या थे महावीर जीवन महावीर जीवन प्रेक्षा आधार अपने
१७७
मन का
१२७
श्रमण
१२५
नई सृष्टि : नई दृष्टि नई स्थापनाएं : नई परम्पराएं नए मस्तिष्क का निर्माण, न करने का मूल्य
जीवन
३४ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
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________________
न करने की शक्ति नकारात्मक अहिंसा नकारात्मक दृष्टिकोण न बोलने का मूल्य नमस्कार महामंत्र की शक्ति नमस्कार महामंत्र : प्रयोग और सिद्धि नमस्कार महामंत्र का मूल स्रोत और कर्ता
१०२
नयवाद
१२६
नयवाद
शक्ति अहिंसा तत्त्व अणुव्रत मन शक्ति एकला मनन जैन प्रमाण जैन मौलिक (१) जैन दर्शन जैन तत्त्व जैन न्याय मेरी निष्पत्ति अप्पाणं घट जैन चिन्तन
नयवाद
नयवाद
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० m७० u om
नयवाद : अनन्त पर्याय, अनन्त दृष्टिकोण नया जन्म लें नयी आदतें : नयी आस्थाएं नयी आदतें : नयी आस्थाएं नयी शिक्षानीति और आन्तरिक व्यक्तित्व नव तत्त्व न सोचने का मूल्य नारी का बंध-विमोचन नारी जागरण नारी जीवन की उपादेयता और सार्थकता नारी जीवन की उपादेयता और सार्थकता निकाय व्यवस्था निक्षेप निक्षेप
मन
श्रमण धर्मचक्र
घट
विचार का धर्मचक्र जैन प्रमाण जैन मौलिक (१) जैन दर्शन
निक्षेप
निगमन नियति और पुरुषार्थ नियुक्ति : युवाचार्य की नियुक्ति : साध्वीप्रमुखा की
अपने धर्मचक्र धर्मचक्र
१८६ १८७
गद्य साहित्य | ३५
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--------------------------------------------------------------------------
________________
निरालंब का आलंबन
निर्जरा और उद्देश्य
निर्जरा और उद्देश्य
निर्जरा भावना
निर्णय
निर्णायकता के केन्द्र
निर्णायकता के केन्द्र
निर्वाण
निर्विचार ध्यान
निर्वेद
निवर्तक धर्म का स्वरूप
निषेधात्मक भाव
निष्कर्ष
निष्काम कर्म और अहिंसा
निष्काम कर्म और अहिंसा
निष्क्रिय अहिंसा का उपयोग
निष्क्रिय अहिंसा का उपयोग
नीति और नीति
नीति और नीति
नैतिक चेतना
नैतिकता का आधार
नैतिकता का आधार
नैतिकता का आधार
नैतिकता का त्रिकोण
नैतिकता का मूल्यांकन
नैतिकता की आधारशिला - काम-परिष्कार
नैतिकता की परिभाषा
नैतिकता की परिभाषा
नैतिकता की मर्यादा
नैतिकता की मर्यादा
३६ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
मन का
तेरापन्थ
जैन धर्म
अमूर्त्त
तट
तेरापन्थ
जैन धर्म
श्रमण
मन का
तुम
अहिंसा तत्त्व
कैसे सोचें
नयवाद
अहिंसा विचारक
अहिंसा तत्त्व
अहिंसा विचारक
अहिंसा तत्त्व
नैतिक
अणुव्रत विशारद
अवचेतन
नैतिकता
अणुव्रत विशारद
नैतिक
नैतिकता
महा
अवचेतन
अणुव्रत विशारद
नैतिक
नैतिक
अणुव्रत विशारद
६६
११६
१८८
७५
३
४५
७४
२६६
२५७
७२
१७
१८८
२८
५३
१
१५
२६७
१२६
६४
१८३
८
८८
११८
१
१३४
७१
६७
१०८
८०
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________________
४ 6
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शक्ति नैतिकता जीवन स्वस्य अणुव्रत
१५६
नैतिकता की शक्ति नैतिकता की शिक्षा और प्रशिक्षा नैतिकता की समस्या नैतिकता की समस्या : निष्ठा का अभाव नैतिकता : क्या ? कैसे ? नैतिकता क्या है ? नैतिक मूल्यों के हास और विकास पर
एक दृष्टि नैतिक विकास की भूमिका नैतिक विकास क्यों ? नैतिक शिक्षा का उद्देश्य नैतिक श्रद्धा का जागरण न्याय का विकास
अणुव्रत नैतिकता
m
अणुव्रत अणुव्रत समस्या का अणुव्रत
१०५
५८
मैं
२०५
४
७६
नयवाद महावीर जीवन विचार का आहार कर्मवाद
२०६
१७२
समाज
و
२६६
م
م
पंचशील पचीसवीं निर्वाण शताब्दी के बाद पचीसवीं निर्वाण शताब्दी के बाद पथ्य की अनिवार्यता पदचिह्न रह जाते हैं पदार्थ, इच्छा और प्रेक्षा परम्परा परम्परा भेद के ऐतिहासिक तथ्य परस्परता पराक्रमी महावीर परिणामि-नित्य परिणामि-नित्य परिणामि-नित्यत्ववाद परिवर्तन परिवर्तन और रूपान्तरण परिवर्तन का घटक : धर्म परिवर्तन का दिशा-संकेत
س
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श्रमण जैन चिन्तन तुम महावीर क्या थे घट सत्य जैन चिन्तन अनेकान्त प्रेक्षा-लेश्या धर्म जैन धर्म
ل
१२२
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१०६
३५
مر
و
سه
गद्य साहित्य | ३७
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________________
परिवर्तन का दिशा-संकेत
परिवर्तन का सूत्र
परिवर्तन का सूत्र परिवर्तन की परम्परा ( १ )
परिवर्तन की परम्परा ( २ )
परिवर्तन के हेतु : आलंबन और अभ्यास
परिवर्तन मस्तिष्क का
परिवेश का प्रभाव और हृदय परिवर्तन
परिष्कार वैरवृत्ति का
परिस्थिति का प्रबोध
परिस्थितिवाद और हृदय परिवर्तन परिस्थितिवाद : दो दृष्टियां
परोक्ष प्रमाण
परोक्ष प्रमाण
परोक्ष प्रमाण
पर्दे के पीछे कौन
पर्युषणा
पर्युषणा
पर्व-धर्म का मूल्यांकन
पर्व-धर्म का मूल्यांकन
पल्लवित संस्थाएं
पवित्र प्रेरणा
पवित्र प्रेरणा
पात्र - कुपात्र विचार
पारदर्शी दृष्टि : व्यक्त के तल पर अव्यक्त का
दर्शन
पारमार्थिक दया
पारस्परिक विवादों के लिए स्वतन्त्र न्यायाधिकरण बने
पार्श्वस्थ
३८ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
तेरापंथ
कर्मवाद
उत्तरदायी
मेरी
मेरी
जीवन स्वस्थ
उत्तरदायी
कैसे सोचें
सोया
कैसे सोचें
अणुव्रत
जैन प्रमाण
जैन मौलिक ( १ )
जैन दर्शन
कर्मवाद
जैन धर्म
महावीर जीवन
जैन धर्म
महावीर जीवन
धर्मचक्र
जैन शास्त्र
दया दान
अहिंसा तत्त्व
श्रमण
अहिंसा विचारक
महा
अतीत
४०
१४६
५२
१६६
१८०
७३
१०४
१२७
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२१०
११५
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१५७
२६
१२५
३०
१२६
२८२
३७
३७.
१६८
२४०
२४
६५
१८१
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________________
पीड़ित जनता के विकास का स्वप्न-द्रष्टा :
डा० लोहिया
पुण्य : एक मीमांसा
पुण्य : एक मीमांसा
पुद्गल
पुरानी परम्परा
पुरुषार्थ का प्रदीप
पुरुषार्थ की नियति और नियति का पुरुषार्थं
पूंजीवाद और अणुव्रत पूर्ण और अपूर्ण
पूर्णता के साधक : आचार्य तुलसी पूर्णता के साधक : आचार्य तुलसी
पूर्वजन्म : पुनर्जन्म
पौरुष की पूजा
पौरुष की पूजा
प्रगति के संकेत
प्रगति के स्वर्ण-सूत्र
प्रगति या प्रतिगति
प्रज्ञा और प्रज्ञ
प्रज्ञा और रश्मियां
प्रतिक्रमण
प्रतिक्रमण
प्रतिक्रमण : ग्रंथिशोधन की आधार भूमिका
प्रतिक्रियावाद : कर्म
प्रतिक्रिया से कैसे बचें ? (१)
प्रतिक्रिया से कैसे बचें ?
(२)
प्रतिक्रिया से मुक्ति और समाधि
प्रतिध्वनि
प्रतिबद्धता का प्रश्न
प्रतिरोधात्मक शक्ति
समस्या का
तेरापंथ
जैन धर्म
जैन चिन्तन
अहिंसाव
श्रमण
एकला
समस्या का
तट
तेरापंथ
विचार का
घट
अणुव्रत विशारद
नैतिक
श्रमण
मन का
नैतिकता
मनन
प्रज्ञापुरुष
उत्तरदायी
कर्मवाद
महा
जैन योग
कैसे सोचें
कैसे सोचें
अप्पाi / समाधि
भिक्षु
कर्मवाद
अणुव्रत
१७०
७०
१६२
२६३
५.३
३२ ४३
६३
१६४
६७
१०८
२२.
३७
१३६
१
१६
८५.
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१२७
४६
१०४
२७
गद्य साहित्य / ३.६.
१११
१७१
१३
२०२
२३
१९७
५
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________________
0
0
किसने समाज जैन प्रमाण जैन मौलिक (१) जैन दर्शन
0
६००
प्रतिरोधात्मक शक्ति का विकासः संयम प्रतिस्पर्धा और प्रदर्शन प्रत्यक्ष प्रमाण प्रत्यक्ष प्रमाण प्रत्यक्ष प्रमाण प्रत्ययवाद और वस्तुवाद प्रत्ययवाद और वस्तुवाद प्रदर्शन की बीमारी प्रभु की प्रार्थना कैसे करें ? प्रमाण
घट
सत्य
११७
०
समस्या का अपने
२२६
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प्रमाण
२४१
५८५
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M
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जैन प्रमाण जैन मौलिक (१) जैन दर्शन जैन न्याय अमूर्त अहिंसा तत्त्व जैन चिन्तन श्रमण नैतिकता एकला जीवन जीवन जीवन जीवन जीवन जीवन जीवन जीवन मेरी
प्रमाण-मीमांसा प्रमाण-व्यवस्था प्रमोद भावना प्रवर्तक धर्म की तुलना में प्रवृत्ति और निवृत्ति 'प्रवृत्ति बाहर में : मानदण्ड भीतर में प्रश्न और समाधान प्रश्न तीन : समाधान एक प्रश्न है अखण्ड व्यक्तित्व का प्रश्न है अनासक्ति का प्रश्न है आदत को बदलने का प्रश्न है आलोचना का प्रश्न है दृष्टिकोण का प्रश्न है नियोजन का प्रश्न है सीख देने वालों का प्रश्न है सुखवाद या सुविधावाद का प्रसिद्ध वैज्ञानिक डा. रमन्ना और
अनेकांत दर्शन
१०५
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८
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'प्राण
महावीर
४० / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
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________________
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तुम
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अमूर्त
प्राण-ऊर्जा का संवर्धन
एकला प्राण और उनका कार्य-क्षेत्र
मन
१८४ प्राण और पर्याप्ति
सोया
२०० प्राणशक्ति का आध्यात्मिकीकरण प्राणातिपात (प्राण-वध)
अहिंसा तत्त्व प्राणापान शुद्धि
१५३ प्राणायाम : एक ऐतिहासिक विश्लेषण महावीर प्राणी-विभाग
विश्व प्रामाणिकता
अणुव्रत विशारद प्रामाणिकता
नैतिक प्रामाणिकता
एकला प्रामाणिकता प्रामाणिकता अनुप्रेक्षा
२१० प्रामाणिकता का मूल्य
धर्म प्रेक्षा : अर्थव्यञ्जना
प्रेक्षा आधार प्रेक्षा एक चिकित्सा है मनोरोग की
अप्पाणं/समाधि
८२ प्रेक्षा एक पद्धति है शारीरिक स्वास्थ्य की । अप्पाणं समाधि ५१ प्रेक्षा एक प्रयोग है चिर यौवन का अप्पाणं/समाधि प्रेक्षा एक प्रयोग है ज्ञानी होने का
अप्पाणं समाधि प्रेक्षा और अणुव्रत की संयुति
अपने
१६८ प्रेक्षा और विपश्यना
महा प्रेक्षा का प्रयोग
मन प्रेक्षाध्यान
धर्मचक्र
२७३ प्रेक्षाध्यान
जैन योग
१०१ प्रेक्षाध्यान और आयुर्वेद
अपने
१६१ प्रेक्षाध्यान और मानसिक-प्रशिक्षण
किसने
२५६ प्रेक्षा ध्यान : कायोत्सर्ग
कायोत्सर्ग प्रेक्षाध्यान की पृष्ठभूमि में धर्म नहीं, विज्ञान है महा प्रेक्षाध्यान के इर्दगिर्द प्रेक्षाध्यान : मानसिक प्रशिक्षण के पांच सूत्र किसने
२६३ गद्य साहित्य | ४१
६०
७१
६७
महा
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--------------------------------------------------------------------------
________________
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प्रेम का विस्तार प्रेय से श्रेय की ओर
मन का
फल की प्रक्रिया
जैन चिन्तन
or
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३२२ २७६
३२
१२३
बंधन की मुक्ति : मुक्ति का अनुबंध
श्रमण बचपन
जीवन बदलती हुई परिस्थितियां : टूटता हुआ समाज विचार का बदलती हुई परिस्थितियां : टूटता हुआ समाज घट बन्धन और बन्धन मुक्ति का विवेक
अहिंसा तत्त्व बम्बई यात्रा
धर्मचक्र बलिदान
अणुव्रत विशारद बलिदान
नैतिक बलिदान बलिदान को जगाता है
विचार का बलिदान बलिदान को जगाता है
घट बहिर्यापार-वर्जन
अहिंसा तत्त्व बहुआयामी व्यक्तित्व
प्रज्ञापुरुष बहुत दूरी है आवश्यकता और आसक्ति में सोया बाल-दीक्षा और आचार्य तुलसी
जैन धर्म बाल-दीक्षा पर मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण बालदीक्षा बाहुबलि : स्वतंत्र चेतना का हस्ताक्षर मेरी बिम्ब और प्रतिबिम्ब बिम्ब और प्रतिबिम्ब
अवचेतन बुद्धि और अनुभव का संतुलन
जीवन स्वस्थ वृहत्तर भारत के दक्षिणार्ध और उत्तरार्ध की अतीत
विभाजक रेखा-'वेयड्ढ पर्वत' बोधिदुर्लभ भावना बौद्ध साहित्य में महावीर
श्रमण बौद्धिक और भावनात्मक विकास का संतुलन अवचेतन बौद्धिक ज्ञान जीवन-विज्ञान बने बौद्धिक शिक्षा के साथ-साथ भावनात्मक शिक्षा महा
१६८
५६
श्रमण
१६५
६७
१६8
अमूर्त
८७
२३२
मैं हूं
१०४
११६
४२ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
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________________
बौद्धिक स्तर पर उभरते प्रश्न
सत्य
१५
तुम
५५
ब्रह्मचर्य ब्रह्मचर्य
१२१
मैं कुछ
१६१
तट
ब्रह्मचर्य ब्रह्मचर्य ब्रह्मचर्य का शरीर-शास्त्रीय अध्ययन ब्रह्मचर्य की शक्ति (१) ब्रह्मचर्य की शक्ति (२) ब्रेन वाशिंग
शक्ति
शक्ति
६७
मन
२१७
जैन
३५
६३
१३६
३६५
भगवान् ऋषभ से पार्श्व तक भगवान् ऋषभ से पार्श्व तक
जैन दर्शन भगवान् कैसे बने ?
महावीर क्या थे भगवान् महावीर
जैन भगवान् महावीर
जैन दर्शन भगवान् महावीर और नागवंश
अतीत भगवान् महावीर की उत्तरकालीन परम्परा जैन । भगवान् महावीर की उत्तरकालीन परम्परा जैन दर्शन भगवान् महावीर की पचीसवीं निर्वाण शताब्दी विचार का
पर गुवकों का कर्तव्य भगवान महावीर की पचीसवीं निर्वाण शताब्दी घट
पर युवकों का कर्तव्य भगवान महावीर की प्रथम ज्योतिः- मेरी
भगवान् बाहुबलि भगवान् महावीर की सापेक्ष-दृष्टि
जैन धर्म भगवान् महावीर की सापेक्ष-दृष्टि
महावीर जीवन भगवान् महावीर के जीवन का एक पक्ष जैन धर्म
१८३ भगवान् महावीर : जागरूकता का पुनर्मूल्यांकन महावीर जीवन २४ भगवान् महावीर : जीवन और सिद्धान्त सत्य भगवान् महावीर : जीवन और सिद्धान्त महावीर जीवन भगवान् महावीर ज्ञातपुत्र थे या नागपुत्र ? अतीत
गद्य साहित्य | ४३
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१३१
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२५६
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२४७
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१३५
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१४१
भगवान् महावीर परम नास्तिक ?
महा भटकाव का प्रश्न ही कहां है ?
महा भय की तमिस्रा : अभय का आलोक
श्रमण भय की परिस्थिति
अभय भय की परिस्थिति
कैसे सोचें भय की प्रतिक्रिया
अभय भय की प्रतिक्रिया
कैसे सोचें भय के स्रोत
अभय भय के स्रोत
कैसे सोचें भव भावना
अमूर्त भविष्य की परिधि : वर्तमान का केन्द्र धर्म भारत की आत्मा को प्राणवान् कैसे बनाएं ? महा भारतीय दर्शन
अपने भारतीय दर्शन में निराशावाद भारतीय दर्शनों में जैन दर्शन का स्थान मेरी भारतीय दर्शनों में समन्वय का स्वर अपने भारतीय प्रमाण-शास्त्र के विकास में जैन
जैन न्याय परम्परा का योगदान भारतीय संस्कृति में बुद्ध और महावीर अतीत भारतीय संस्कृति में राम
अपने भाव और अध्यात्म-विद्या
अवचेतन भाव और आयुर्विज्ञान
अवचेतन भाव का जादू
कर्मवाद भाव क्रिया : अभ्यास क्रम
जैन योग भावक्रिया और अनावेग
मन भावक्रिया की शक्ति
शक्ति भाव-चिकित्सा और सम्यग् दृष्टिकोण अपने भाव-चिकित्सा : क्षमता और समता अपने भाव-चिकित्सा : दायित्व-बोध
अपने भावधारा और आभामंडल
जैन योग ४४ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
१२३
१२२
२४२
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३०
१११
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________________
मन
१४६
भावना भावना : अभ्यास-क्रम भावना और अनुप्रेक्षा भावना योग भाव-परिवर्तन और मनोबल भिक्षा अनिवार्य है भिक्षा आत्मसाधना का अंग है भिक्षा आपत्तिजनक नहीं भिक्षा का ध्येय भिक्षा परीषह है भिक्षा-विधि भूख-प्यास की अनुभूति की क्षीणता भोगवादी संस्कृति और सामाजिक संबंध भोजन-अभोजन की अनिवार्यता भोजन और ब्रह्मचर्य भोजन और रोग भोजन का कार्य भोजन का मूल्यांकन : चेतना का मूल्यांकन भोजन का विवेक भोजन किस प्रकार करें और कैसे करें ? भोजन विवेक : सहिष्णुता संवर्धन भौतिकता और आध्यात्मिकता भौतिकता और आध्यात्मिकता
जैन योग प्रेक्षा आधार जैन योग अवचेतन भिक्षावृत्ति भिक्षावृत्ति भिक्षावृत्ति भिक्षावृत्ति भिक्षावृत्ति भिक्षावृत्ति आहार
१२
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समाज
१३७
२४
५२
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आहार आहार आहार आहार आहार महावीर भिक्षावृत्ति आहार अणुव्रत विशारद नैतिक
१३८
१३५ १७८
१७
६४
मंगलपाठ मंगलवाद : नमस्कार महामंत्र मंगल सूत्र मंत्र का प्रयोजन मंत्र का साक्षात्कार मंत्र की शक्ति (१) मंत्र की शक्ति (२)
मेरी मनन मेरी एसो
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३०
शक्ति
शक्ति
गद्य साहित्य | ४५
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१२
मत्र क्या है !
एसो मंत्रदाता
प्रज्ञापुरुष मंत्री मुनि की अनतिशायी विशेषताएं जैन धर्म मतभेद मनभेद में परिणत न हो
महा मदनचंद गोठी (सरदारशहर)
जैन धर्म मन
महावीर मन का कायाकल्प
मन का मन का विलय
महावीर मन का स्वरूप
अहम् मन की चंचलता का प्रश्न मन की प्राकृतिक चिकित्सा
मन का मन की शक्ति
शक्ति मन की शक्ति
ऊर्जा मन की शक्ति और सामायिक
किसने मन की शान्ति
मैं हूं मन की शान्ति का प्रश्न
अवचेतन मन को पटु बनाएं
मन मनःस्थिति और समाजवाद
समाज मनुष्य की स्वतंत्रता का मूल्य
सत्य मनुष्य की स्वतंत्रता का मूल्य
घट मनुष्य जो आज भी रहस्य है
समस्या का मनुस्मृति में भिक्षा-विधान
भिक्षावृत्ति मनोबल की प्रेरक घटनाएं
प्रज्ञापुरुष मनोभाव की प्रक्रिया : भाववशीकरण की। अवचेतन
प्रक्रिया मनोभाव कैसे जानें ?
अवचेतन मनोविकास की भूमिकाए मनोविज्ञान
जैन मौलिक (१) मनोविज्ञान
जैन दर्शन मनोविज्ञान और चरित्र विकास
महावीर
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१८६
५३७
१२६
४६ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
Page #171
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________________
अर्हम्
१६८ १५३ २५४
ममत्व का विसर्जन या विस्तार मर्यादा की बैसाखी
विचार का मर्यादा की मर्यादा : त्रिगुप्ति की साधना
तेरापंथ मर्यादा महोत्सव
प्रज्ञापुरुष मस्तिष्क का प्रशिक्षण मस्तिष्क के नियंत्रण का विकास
अवचेतन महानता की कुञ्जी
मन का महानता की शक्ति
शक्ति महान् आश्चर्य
उत्तरदायी महान् परिव्राजक
धर्मचक्र महान् पर्व संवत्सरी
मेरी महान् स्वप्नद्रष्टा
तेरापंथ महान् स्वप्नद्रष्टा
विचार का महान् स्वप्नद्रष्टा
धर्मचक्र महाप्रयाण
प्रज्ञापुरुष महामंत्र महामंत्र : निष्पत्तियां-कसौटियां
एसो महावीर का संतुलन सूत्र
अपने महावीर की पांच प्रतिमाएं
महावीर जीवन महावीर की वाणी में विश्वधर्म के बीज समस्या का महावीर की समाज-व्यवस्था
समाज महावीर के निर्वाण सूत्र
महावीर जीवन महावीर के साधना-प्रयोग
जैन योग महावीर को महावीर ही रहने दें!
महावीर क्या थे मांसाहार का निषेध
आहार मातृऋण से उऋण
प्रज्ञापुरुष मात्र संभोग से प्राप्त एकाग्रता उपादेय नहीं । महा मान निमित्तक
अहिंसा तत्त्व मानव-प्रकृति का विश्लेषण
प्रज्ञापुरुष मानव मन की प्रन्थियां
तट
एसो
२
गद्य साहित्य | ४७
Page #172
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मानवीय एकता
मानवीय एकता मानवीय एकता अनुप्रेक्षा
मानवीय धरातल
मानवीय धरातल मानसिक अनुशासन
मानसिक एकाग्रता
मानसिक तनाव : कारण और निवारण
मानसिक तनाव का विसर्जन
मानसिक शक्ति का विकास और उपयोग
मानसिक संतुलन
मानसिक संतुलन
मानसिक संतुलन अनुप्रेक्षा
मानसिक समस्या और शिक्षा
मानसिक स्तर पर उभरते प्रश्न
मानसिक स्वास्थ्य
मानसिक स्वास्थ्य
मानसिक स्वास्थ्य
मानसिक स्वास्थ्य और नमस्कार महामंत्र
मानसिक स्वास्थ्य के छह पेरामीटर
माया निमित्तक
मार्दव
के सूत्र
मिताहार और मितवचन
मिताहार और मितवचन
मित्र- दोष-निमित्तक
मुक्त मानस : मुक्त द्वार
मुक्ति
मुक्ति
मुक्ति के लिए भोजन
मुक्ति: समाज के धरातल पर
४८ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
सत्य
घट
अमूर्त्त
तेरापंथ
विचार का
मैं
मैं
कुछ
चंचलता
किसने
किसने
एकला
किसने
अमूर्त्त
जीवन शिक्षा
मैं
अणुव्रत विशारद
नैतिक
किसने
एसो
चंचलता
अहिंसा तत्त्व
मैं
अणुव्रत विशारद
नैतिक
अहिंसा तत्त्व
श्रमण
मैं
विचार का
आहार
समस्या का
१६
११०
१७४
१४७
२४७
७१
१७२
२५
१३६
२०६
१२
१४३
१६२
ह १
२
१७
२३
२४८
७४
S
६१
१०६
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१३
१८
६०
२०२
१०५..
११२
६१
१०.
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
मूढ़ता
६५
जैन योग मेरी जीवन स्वस्थ अणुव्रत अहिंसा तत्त्व मेरी अमूर्त
मूल का सिंचन मूल्यपरक शिक्षा : सिद्धान्त और प्रयोग मूल्य परिवर्तन : दिशाबोध मूल्यांकन के सापेक्ष दृष्टिकोण मृत्युजयी आचार्य भिक्षु मृदुता अनुप्रेक्षा मेरा अस्तित्व मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि
१५४
or
२४६
१३५ १२६
मैं कुछ मैं कुछ मैं कुछ मैं कुछ मैं कुछ
१०२
१४८
१३०
जीवन
मैं आत्मानुशासन चाहता हूं मैं कुछ होना चाहता हूं मैं मनुष्य हूं (१) मैं मनुष्य हूं (२) मैं मानसिक संतुलन चाहता हूं मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता मैत्री : क्यों ? मैत्री : जीवन के साथ मैत्री: बुढ़ापे के साथ मैत्री भावना मैत्री : रोग के साथ मैत्री : वर्तमान के साथ मैत्री : शक्ति का वरदान मोक्ष के साधक-बाधक तत्त्व मोक्ष धर्म का विशुद्ध रूप
जीवन जीवन
६
अमूर्त जीवन जीवन मन का जैन दर्शन भिक्षु
२०५
४३६ ६७
मोह-व्यूह
३८
मौन की शक्ति
शक्ति
११६
२२१
यंत्र, तंत्र और मंत्र यज्ञ और अहिंसक परम्पराएं यथार्थ का मूल्यांकन
महा अतीत जैन धर्म
गद्य साहित्य | ४६
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
यथार्थवादी दृष्टिकोण
अवचेतन
यथार्थवादी व्यक्तित्व : अतिशयोक्ति का परिधान श्रमण
यथार्थ विज्ञान : जीवन विज्ञान
मेरी
यदि मनुष्य क्रूर नहीं होता
यम और नियम
यात्रा और वर्षावास
युगप्रधान
युगप्रधान की पूर्व भूमिका
युगप्रधान की पूर्व भूमिका
युद्ध : अहंकार के साथ
युद्ध और अहिंसा
युद्ध और अहिंसा
युद्ध और शांति
युद्ध : कामवृत्ति के साथ
युवक का कर्त्तव्य-बोध
युवक का कर्त्तव्य-बोध
युवक का संकल्प : अनुशासन, एकाग्रता और पुरुषार्थ
युवका का संकल्प : अनुशासन एकाग्रता और पुरुषार्थ
युवक : दृष्टिकोण का निर्माण
युवक : दृष्टिकोण का निर्माण
युवक : युगचेतना का संवाहक
युवक-शक्ति : संगठन
युवक : सार्थकता का बोध
युवक : सार्थकता का बोध
युवकों का दायित्व (१)
युकों का दायित्व (१)
युवकों का दायित्व (२)
युवकों का दायित्व (२)
युवकों की आस्था : एक प्रश्न, एक समाधान
५० / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
तट
मैं
प्रज्ञापुरुष
धर्मचक्र
तेरापंथ
विचार का
सोया
राष्ट्रीय
तट
महा
सोया
विचार का
घट
विचार का
घट
विचार का
घट
घट
समस्या का
विचार का
घट
विचार का
घट
विचार का
घट
विचार का
१२६
२२७
१६३
५५
हद
२४०
१६७
१४४
२४४
७०
१०
३६
१०२
६३
७०
३८७
४०
३७३
२६
३६५
३४०
१२१
१८
३५७
१
३४५
१२
३५३
६०
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
mr
प्रज्ञापुरुष अपने
तट
८४
युवकों की आस्था : एक प्रश्न, एक समाधान युवाचार्यपद पर मनोनयन युवाशक्ति और संस्कार योग योग और स्वास्थ्य योग का मर्म योग का मर्म योगदर्शन का हृदय
अपने
१६५
घट
४३०
विचार का मनन
४७
रंग-चिकित्सा
प्रेक्षा-लेश्या रंगों का ध्यान और स्वभाव परिवर्तन आभामण्डल रंगों का मन पर प्रभाव
अपने रचनात्मक दृष्टिकोण
एकला रचनात्मक भय
अभय रचनात्मक भय
कैसे सोचें रसना विजय
आहार राग द्वेष का स्वरूप
अहिंसा विचारक राग द्वेष का स्वरूप
अहिंसा तत्त्व राजनीति का आकाश : नैतिकता की खिड़की घट राजस्थानी साहित्य की समृद्धि में तेरापंथ का जैन धर्म
योग राजस्थानी साहित्य की समृद्धि में तेरापंथ का तेरापंथ
योग रात्रिभोजन का निषेध क्यों ?
आहार रायपुर आन्दोलन के निष्कर्ष
धर्मचक्र राष्ट्र-धर्म
राष्ट्रीय राष्ट्र-धर्म
तट राष्ट्रभाषा का उलझा हुआ केश-विन्यास समस्या का राष्ट्रीय एकता का नया मूल्य
अणुव्रत राष्ट्रीय चेतना के सजग प्रहरी : आचार्य तुलसी जैन धर्म राष्ट्रीय चेतना के सजग प्रहरी : आचार्य तुलसी तेरापंथ
६४
२४५
३
१७
६३
१०६
१३२
गद्य साहित्य / ५१
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
अणुव्रत विशारद नैतिक
C
राष्ट्रीय प्रेम : राष्ट्रीय प्रतिष्ठा राष्ट्रीय प्रेम : राष्ट्रीय प्रतिष्ठा रूपान्तरण की प्रक्रिया रोग को दबाएं या मिटाएं ?
मन
११६
मन का
१४
लक्षण
१८७
लक्षण
जैन प्रमाण जैन मौलिक (१) जैन दर्शन
लक्षण
४०६ ६४६ १११
२४
जैन चिन्तन आभामण्डल
१७५ १५५
आभामण्डल
११७
११४
११८
लाघव लेश्या लेश्या : एक प्रेरणा है जागरण की लेश्या: एक विधि है चिकित्सा की लेश्या : एक विधि है रसायन परिवर्तन की । लेश्या और चैतन्य-केन्द्र लेश्या और ज्ञान लेश्या और ध्यान लेश्या और मानसिक चिकित्सा लेश्या का वर्गीकरण लेश्या क्या है ? आध्यात्मिक दृष्टिकोण लेश्या क्या है ? वैज्ञानिक दृष्टिकोण लेश्या-ध्यान लेश्या-ध्यान क्यों ? लेश्या-ध्यान : निष्पत्ति लेश्या-ध्यान : विधि लोकाशाह और आचार्य भिक्षु लोक लोकतंत्र और नागरिक अनुशासन लोकतंत्र को चुनौती लोकतंत्र को चुनौती लोकतंत्र को थामने वाले हाथ लोकतंत्रीय चरित्र के चार स्तम्भ
आभामण्डल जैन योग जैन योग जैन योग जैन योग जैन योग प्रेक्षा-लेश्या प्रेक्षा-लेश्या प्रेक्षा आधार प्रेक्षा-लेश्या प्रेक्षा-लेश्या प्रक्षा-लेश्या अपने जैन चिन्तन तट नैतिकता राष्ट्रीय नैतिकता अणुव्रत विशारद
४५
al or rur
५२ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोकतंत्रीय चरित्र के चार स्तम्भ
लोकवाद
लोकवाद
लोकवाद
लोकसंस्थान भावना लोभ निमित्तक
लौकिक अलौकिक
लौकिक और लोकोत्तर
वंदना
वंदना के स्वर
वनस्पति का वर्गीकरण
वर्तमान का दर्प : भविष्य का दर्पण
वर्तमान का दर्प : भविष्य का दर्पण
वर्तमान की पकड़
वर्तमान की पकड़
वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में
वर्तमान क्षण की प्रेक्षा
वर्तमान क्षण की प्रेक्षा
वस्तु सत्य
वाक्-संवर ( १ )
वाक्-संवर ( २ )
वाचिक अनुशासन के सूत्र
वाणी की शक्ति
वात्सल्य मूर्ति
वा दसा किण दिन आवसी
नैतिक
जैन मौलिक ( २ )
जैन तत्त्व
जैन दर्शन
अमूर्त
अहिंसा तत्त्व
जैन चिंतन
जैन चिंतन
श्रमण
प्रज्ञापुरुष
अतीत
महा
प्रेक्षा आधार
जैन योग
वर्तमान युग को आचार्यश्री का अवदान
धर्मचक्र
वर्तमान युग में योग की आवश्यकता
मैं हूं
वर्तमान शिक्षा और जनतंत्र
घट
वर्तमान शिक्षा और जनतंत्र
विचार का
वर्तमान समस्याओं के संदर्भ में धर्म का प्रयोग धर्मचक्र
विचार का
घट
कर्मवाद
उत्तरदायी
नय
महावीर
महावीर
मैं
'कुछ
शक्ति
प्रज्ञापुरुष
मन का
२६
१७३
४३
२१५
८५
६२
६०
४२
२८७
२४६
१७१
१२७
३३२
१४३
४५
५३
३३
१०६
२८२
११४
१३१
२६५
२६
१
६०
१००
६०
२२
१५०
१६
गद्य साहित्य / ५३
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
वासना की उच्छृंखलता असामाजिक वासना - विजय
वास्तविक समस्या : आर्थिक या मानसिक
वास्तविक समस्याएं और तनाव
वास्तविक समस्याएं और तनाव विकल्प की खोज
विकार - परिहार की साधना विकास
विकास - वृत्त ( प्रेक्षा ध्यान )
विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था और कर्मवाद
विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था और कर्मवाद
विक्षिप्तता और ध्यान
विघ्नहरण मंगलकरण
विचार : अनुबंध
विचार- परिवर्तन
विचार-प्रवाह
विचार - प्रेक्षा और समता
विचार-मंथन
विद्याभ्यास और विद्यागुरु
विद्यार्थी जीवन और ध्यान
विद्युत् का चमत्कार विधायक दृष्टिकोण
विधायक भाव
विधेयात्मक भाव
विनय समाधि
विनोद
विनोबा : परिचय और अपरिचय के मध्य
विपश्यना की अतीत यात्रा
विभिन्न रंगों के गुण-दोष
विभिन्न संस्थाएं
५४ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
नैतिकता
तट
समाज
निष्पत्ति
अप्पाणं
अर्हम्
अहिंसा तत्त्व
विश्व
प्रेक्षा आधार
कर्मवाद
घट
महा
अपने
घट
अहिंसा तत्त्व
तट
प्रेक्षा आधार
धर्मचक्र
प्रज्ञापुरुष
जीवन स्वस्थ
मैं हूं
अवचेतन
जीवन स्वस्थ
कैसे सोचें
महावीर
प्रज्ञापुरुष
विचार का
मेरी
प्रेक्षा- लेश्या
धर्मचक्र
८४
११०
११
१४१
३५७
७
२७७
२८
m
२२५
३७
२०४
२०४
४४६
१७०
७३
३६
२६३
१६
६४
२३
५२
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१६८
२०६
१४८
२७६
६१
२८
२७७.
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनन
तट
११३
१४८
अहिंसा तत्त्व श्रमण समाज अहिंसा तत्त्व अहिंसा तत्त्व धर्मचक्र
२७६
१२७
४
अहिंसा विचारक समस्या का मेरी विश्व जैन चिन्तन
०.
~
विभूतिपाद विभूषा विरोध की जड़ विरोधाभास का वातायन | विरोधाभासी जीवन प्रणाली विवेक दर्शन विवेकशील उत्तर पद्धति विशिष्ट व्यक्तियों से मिलन और विचार.
विनिमय विशुद्ध दया एवं लोक-व्यवहार्य दया विशेषणहीन धर्म विशोधन की प्रक्रिया : प्रेक्षा ध्यान विश्व अनादि अनन्त है विश्व-चिकित्सा-संघ ने दया-प्रेरित हत्या
की निन्दा की है विश्व दर्शन विश्व दर्शन विश्व : विकास और ह्रास विश्व : विकास और ह्रास विश्व-स्थिति के मूल सूत्र विसर्जन विस्मृति का वरदान विहारचर्या वृत्तियों का वर्तुल वृत्तियों का वर्तुल वत्तियों के रूपान्तरण की प्रक्रिया वृत्ति, व्यक्ति और वस्तु का सम्बन्ध वैयक्तिक विकास वैराग्य व्यंतर देव व्यक्ति और कर्म
जैन तत्त्व जैन दर्शन जैन तत्त्व जैन दर्शन विश्व विसर्जन
२३३
तट
६४
१७
तुम चंचलता चेतना आभामण्डल अहिंसा तत्त्व विश्व अहिंसा तत्त्व विचार का महा
२२३
१८७ ३५६
गद्य साहित्य | ५५.
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्य
घट
नयवाद किसने महा जीवन स्वस्थ विचार का
घट
किसने
ज
MY MY
भिक्षु
व्यक्ति और विश्व-शान्ति व्यक्ति और समाज व्यक्ति और समाज व्यक्ति और समाज व्यक्ति और समाज व्यक्ति और समुदाय व्यक्ति का नव निर्माण व्यक्ति का महत्त्व व्यक्ति का समाजीकरण व्यक्ति का समाजीकरण और समाज का
व्यक्तीकरण व्यक्ति का समाजीकरण और समाज का
व्यक्तीकरण व्यक्तित्व का रूपान्तरण : समता व्यक्तित्व की झांकी व्यक्तित्व की व्यूह रचना : आत्मा और
शरीर का मिलन-बिन्दु व्यक्तित्व के बदलते रूप व्यक्तित्व निर्माण व्यक्तित्व निर्माण का उपक्रम : जीवन-विज्ञान व्यक्तित्व निर्माण के तीन सूत्र व्यक्ति निर्माण की दिशा व्यक्तिवाद और समाजवाद व्यवस्था का बदलना ही पर्याप्त नहीं है व्यवस्था परिवर्तन और हृदय-परिवर्तन व्यवस्था-सुधार या वृत्ति-सुधार व्यवहार के लिए संघर्ष व्यवहार-सत्य च्यसन-मुक्ति व्रत और वाद बत और विद्यार्थी
आभामण्डल
३
२८४
आभामण्डल अहम् जीवन स्वस्थ घट अणुव्रत समस्या का जीवन स्वस्थ समस्या का अणुव्रत अहिंसा तत्त्व नयवाद
८६
७२
४७
एकला
नैतिकता नैतिकता
५६ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
अणुव्रत शक्ति
व्रत का आधार व्रत की शक्ति व्रत की शक्ति व्रत-साधना : सामाजिक मूल्य व्रतों की उपयोगिता व्रतों की प्रायोगिकता
अणुव्रत
धर्म
आहार
FO
अहिंसा विचारक प्रज्ञापुरुष जीवन
१२५ १४४
घट
२६७
२२८
ऊर्जा किसने अपने ऊर्जा ऊर्जा
२१० ७५
किसने
१००
१६७
शंका समाधान शक्ति का रहस्य शक्ति का विकास और प्रदर्शन शक्ति की उपासना शक्ति की श्रेयस् यात्रा शक्ति की श्रेयस् यात्रा शक्ति की साधना शक्ति-जागरण के सूत्र शक्ति-जागरण के सूत्र शक्ति जागरण : मूल्य और प्रयोजन शक्ति-संवर्धन का माध्यम : अणुव्रत शब्द शब्द को साधे शब्द प्रयोग की भिन्न-भिन्न दृष्टियां शब्द-प्रयोग की भिन्न-भिन्न दृष्टियां शब्द-रचना की प्रक्रिया शब्द-रचना में मत उलझिए शब्दों की शव-पूजा शब्दों के मूल को पकड़ें शब्दों के संसार में शरीर और उसके विशिष्ट केन्द्र शरीर और मन का संतुलन शरीर का मूल्यांकन शरीर का संवर
जैन चिन्तन मन जैन शास्त्र दया अहिंसा तत्त्व अहिंसा तत्त्व समस्या का महा अतीत
१२६
११२
मन
१६९
१२६
एकला महावीर महावीर
३२
गद्य साहित्य | ५७
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०१
४U or ur k
१०५
१४७. ३६
in
४५
१७७
८७ १०८
शरीर की शक्ति
शक्ति शरीर को साधे
मन शरीर क्या है ? (आध्यात्मिक दृष्टिकोण) प्रेक्षा-शरीर शरीर क्या है ? (वैज्ञानिक दृष्टिकोण) प्रेक्षा-शरीर शरीर-दर्शन
चेतना शरीर-प्रेक्षा
प्रेक्षा आधार शरीर-प्रेक्षा
जैन योग शरीर-प्रेक्षा : अभ्यास-क्रम
जैन योग शरीर-प्रेक्षा की निष्पत्ति
प्रेक्षा-शरीर शरीर-प्रेक्षा क्यों?
प्रेक्षा-शरीर शरीर-प्रेक्षा : विधि
प्रेक्षा-शरीर शरीर-बोध की अपेक्षा
मन शरीर से परिचित हों
मन शरीर है शक्तियों के प्रकटन का माध्यम चंचलता शलाका दिवस संवत्सरी
महावीर जीवन शस्त्र-विवेक
अहिंसा तत्त्व शांति और समन्वय
नयवाद शांति का प्रश्न
समस्या का शांति का प्रश्न
विचार का शान्ति का प्रश्न
घट शारीरिक अनुशासन के सूत्र
मैं कुछ शारीरिक स्वास्थ्य और नमस्कार महामंत्र एसो शाश्वत-सत्य और युगीन-सत्य
मैं शास्त्रों के व्यापक अर्थ की खोज का दृष्टिकोण मेरी शिक्षक का कर्तव्य-बोध शिक्षक का कर्तव्य-बोध
विचार का शिक्षा और जीवन-मूल्य (१)
जीवन स्वस्थ शिक्षा और जीवन-मूल्य (२)
जीवन स्वस्थ शिक्षा और नैतिकता
जीवन स्वस्थ शिक्षा और भावात्मक परिवर्तन
जीवन स्वस्थ
११०
२०
५८
१७०
३२७
५
१३३
Wी Wी
. : mmxm
घट
१२३ २८४
५८ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
शिक्षा का नया आयाम : जीवन-विज्ञान
शिक्षा की समस्या (१)
शिक्षा की समस्या (२)
शिथिलीकरण और जागरूकता
श्रम की रोटी
श्रम की रोटी
श्रमण संस्कृति और श्रामण्य
श्रमण संस्कृति का प्राग्वैदिक अस्तित्व
श्रमण-संस्कृति की दो धाराएं
श्रमण-संस्कृति की दो धाराएं
श्रवण, मनन और निदिध्यासन
श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी साधुओं की भिक्षावृत्ति
श्रुत की उपासना
श्लेष्माहीन आहार की उपयोगिता
श्वास का आलम्बन क्यों ?
श्वास क्या है ?
श्वास पर अनुशासन
श्वास- प्रेक्षा
श्वास- प्रेक्षा
श्वास- प्रेक्षा की निष्पत्तियां
श्वास- प्रेक्षा के प्रकार
श्वास- संवर
संकल्प की शक्ति
संकल्प शक्ति : अभ्यास क्रम
संकल्प शक्ति का विकास
संकल्प-शक्ति का विकास
संकल्प शक्ति के प्रयोग
संकुलता
संख्या और व्यक्तित्व
जीवन शिक्षा
जीवन शिक्षा
जीवन शिक्षा
एकला
नैतिक
अणुव्रत विशारद
जैन दर्शन
अतीत
जैन मौलिक ( २ )
जैन आचार
प्रज्ञापुरुष
श्री जैन
तुम
आहार
प्रेक्षा- श्वास
प्रेक्षा-श्वास
मैं कुछ
प्रेक्षा आधार
जैन योग
प्रेक्षा - श्वास
प्रेक्षा श्वास
महावीर
शक्ति
जैन योग
एकला
मैं
प्रज्ञापुरुष
तट
अणुव्रत
१४३
२६
४१
१४२
१
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१
४७०
१
३४३
११५
१८६
१
४८
६६
१२
७
३६
२२
१०४
२४
२१
६५
१२
१४४
३५
१६६
२५
१
५६
गद्य साहित्य / ५६
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२
संगठन का आधार
तेरापंथ संगठन का महत्त्व
अपने
२३८ संग्रह का आकर्षण
अणुव्रत
१३० संग्रह का बीज : सुखवाद
अणुव्रत संग्रह-नियंत्रण और व्रत
अणुव्रत
१२३ संग्रह-नियंत्रण और सत्ता
अणुव्रत
१२१ संघ की अखंडता का एक सूत्र
तेरापंथ संघटन या विघटन
नैतिकता संघटन या विघटन
अणुव्रत विशारद ६० संघ-भेद
श्रमण
२५५ संघर्ष की वेदी पर
धर्मचक्र २०१, २४६ संघर्ष के स्फुलिंग
प्रज्ञापुरुष
१३० संघर्ष : सांप्रदायिकता का बहाना
धर्मचक्र
२२६ संघ विकास के सूत्र
प्रज्ञापुरुष संघ-व्यवस्था
भिक्षु संघ व्यवस्था
श्रमण
१०२ संघ-व्यवस्था और अनुशासन
धर्मचक्र
१८५. संघ-व्यवस्था और चर्या
जैन मौलिक
१३५ संघ-व्यवस्था और चर्या
जैन परम्परा संघातीत साधना
श्रमण
११० संतुलित आहार
आहार संबंधों का नया क्षितिज
अवचेतन संबोधि और अहिंसा
मनन संबोधि और प्रेरणा
प्रज्ञापुरुष संभोग से समाधि : कितना सच कितना झूठ ? घट संयम संयम
जैन योग
१०७ संयम और लब्धि
जैन योग
१३२ संयम और समाधि
अप्पाणं समाधि १४८ संयमः खलु जीवनम्
प्रज्ञापुरुष ६० / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
१
१३९
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रेक्षा आधार महावीर जीवन
अमूर्त तुम
m
३४६. ४१३
संयम : संकल्प शक्ति का विकास संवत्सरी का शाश्वतिक मूल्य संवर भावना संवेग संवेग-नियंत्रण की पद्धति संवेदनशीलता एक अपेक्षा संवेद-नियंत्रण की पद्धति संस्कार-निर्माण का पहला चरण संस्कार निर्माण का पहला चरण संस्कार-परिष्कार के सूत्र संस्कारों का परिवर्तन संस्कृत और भारतीय संस्कृति संस्कृत साहित्य : एक विहंगावलोकन संस्था प्रयोगशाला बने सतत जागरण सत्ता का भोग : सत्ता का बंटवारा सत्ता का भोग : सत्ता का बंटवारा सत्य सत्य-अनुप्रेक्षा सत्य और विवेक का आग्रह सत्य और विवेक का आग्रह सत्य का अणुव्रत सत्य की खोज सत्य की खोज सत्य की खोज सत्य की खोज : विसंवादिता का अवरोध सत्य की खोज : विसंवादिता का अवरोध सत्य की परिभाषा सत्य को स्वयं खोजें सत्य को स्वयं खोजें
जीवन स्वस्थ मेरी जीवन स्वस्थ विचार का घट मेरी धर्म संस्कृत मनत महा श्रमण अणुव्रत विशारद नैतिक
अमूर्त
१४०
जैन शास्त्र दया नैतिकता ऊर्जा प्रेक्षा लेश्या किसने सत्य
११२
घट जैन चिन्तन किसने ऊर्जा
१०६
गद्य साहित्य | ६१
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्य क्या है ?
सत्यनिष्ठा
सत्य समझ का आग्रह
सत्य सम्प्रदाय और परंपरा
सत्याग्रह का अधिकार
सत्याग्रह का अधिकार
सत्व्यवहार
सन्तुलन सन्तुलित जीवन
सन्तुलित जीवन
सभ्यता और शिष्टता
समण दीक्षा
समता
समता की चेतना का विकास
समता की शक्ति
समता के तीन आयाम
समत्व
समन्वय
समन्वय अनुप्रेक्षा
समन्वय की दिशा का उद्घाटन
समन्वय की दिशा में प्रगति
समन्वय की पृष्ठभूमि
समन्यव की पृष्ठभूमि
समन्वय की शक्ति
समयज्ञ महावीर
समर्पण
समर्पण का सूत्र : चतुर्विंशतिस्तव
समर्पित व्यक्तित्व
समवृत्ति श्वास प्रेक्षा : अभ्यास क्रम समस्या उदासी की
६२ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
मैं
हूं
अहिंसा व
मैं
घट
विचार का
मैं
अनेकान्त
अणुव्रत विशारद
नैतिक
समस्या का
धर्मचक्र
जैन योग
सोया
शक्ति
श्रमण
जैन योग
अनेकान्त
अमूर्त
श्रमण
नयवाद
महावीर जीवन
जैन धर्म
शक्ति
महावीर क्या थे
तुम
मेरी
प्रज्ञापुरुष
जैन योग
सोया
६
१२०
२३६
१३०
४११
३४६
१७८
६६
१४
२६०
ܡ
७८
२७६
१०२
१८१
३२
१६२
८ १
१४
१५३
२१०
१२
१०४
३६
४६
७६
२५
२७
१४७
६२
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
समस्या का
१२३
घट
घट
समस्या
२१२ १६ ३७
१७०
समस्याएं, सरकार, अनशन और आत्मदाह समस्याओं का आध्यात्मिक समाधान (१) समस्याओं का आध्यात्मिक समाधान (२) समस्याओं का आध्यात्मिक समाधान (१) समस्याओं का आध्यात्मिक समाधान (२) समस्या और दुःख एक नहीं, दो हैं समस्या और मुक्ति समस्या कलह की समस्या का पत्थर : अध्यात्म की छेनी समस्या का मूल बीज समस्या का मूल-मोहकर्म समस्या के मूल की खोज समस्या के मूल की खोज समस्या के समाधान का नया आयाम समस्या : सत्य की अनभिज्ञता समाज अध्यात्म से अनुप्राणित हो समाज और धर्म अलग क्यों ? समाज का आधार : अहिंसा का विकास समाज का आधार : अहिंसा की आस्था । समाज के परिप्रेक्ष्य में अर्थहिंसा और अनर्थ-
५२ ११७
समस्या सोया अपने सोया समस्या का चेतना कर्मवाद निष्पत्ति अप्पाणं मेरी समस्या का महा अहिंसा तत्त्व जीवन स्वस्थ जीवन स्वस्थ धर्म
x
७६
४१
१४४ २३२ १३१
१८१
हिंसा
६२
१८१
घट
समाज निर्माण के दो घटक
समाज
१४७ समाज निर्माण में बुद्धिजीवियों का योगदान विचार का समाज-निर्माण में बुद्धिजीवियों का योगदान । घट समाजवाद में कर्मवाद का मूल्यांकन
कर्मवाद समाजवाद में कर्मवाद का मूल्यांकन समाज विरोधी संस्कार कैसे ?
अहिंसा तत्त्व २३४ समाज व्यवस्था के दो चित्र
समाज समाज व्यवस्था में दर्शन
तट समाज संरचना के सूत्र
१४६ गद्य साहित्य / ६३
१
घट
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०२
११५
१३६ १०४
१६०
६६
१४८ १६७ १५७
0
३५
mr
२६३
समाधि और प्रज्ञा
अप्पाणं/समाधि समाधि की खोज : समस्या का जीवन अप्पाणं समाधि समाधि की शक्ति
शक्ति समाधि के मूल सूत्र
अप्पाणं समाधि समाधि के सोपान
अप्पाणं समाधि समाधि : मानसिक समस्या का स्थायी समाधान अप्पाणं समाधि समाधि : साध्य या साधन ?
अप्पाणं समाधि समुद्र में नाव
उत्तरदायी सम्प्रदाय और धर्म सम्प्रदाय निरपेक्षता अनुप्रेक्षा
अमूर्त सम्मति का सम्मान
प्रज्ञापुरुष सम्यक् चारित्र
जैन-मौलिक (२) सम्यक् चारित्र
जैन-आचार सम्यग् ज्ञान
जैन-आचार सम्यग् ज्ञान
जैन-मौलिक (२) सम्यग् दर्शन
जैन-आचार सम्यग् दर्शन
जैन मौलिक (२) सम्यग्दृष्टि (१)
धर्म सम्यग्दृष्टि (२) सम्यग्दृष्टि (३) सम्यग्दृष्टि (४) सम्यग् दृष्टिकोण है शांति का उपाय सर्वजनहिताय : सर्वजनसुखाय
श्रमण सर्वज्ञता : दो पार्श्व दो कोण
श्रमण सर्वांगीण दृष्टिकोण सह-अस्तित्व
तट सह-अस्तित्व
राष्ट्रीय सह-अस्तित्व
अनेकान्त सह-अस्तित्व अनुप्रेक्षा
अमूर्त सह-अस्तित्व और समन्वय
एकला
२३५
धर्म
धर्म
४७
धर्म
महा
११२ २१२
२२६
२१४
४४
२२२
७७.
६४ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
सह-अस्तित्व और सापेक्षता -अस्तित्व का आधार - - संयम
ह-अस्तित्व की धारा
हयात्रा : सहयात्री
योग का हाथ
योग का हाथ
हानुभूति
हिष्णुता
हिष्णुता
हिष्णुता
हिष्णुता
हिष्णुता अनुप्रेक्षा
हिष्णुता की शक्ति
हष्णुता के प्रयोग
साढे पचीस आर्य देशों की पहचान
धन-शुद्धि का सिद्धान्त
साधना का अर्थ
साधना का अर्थ
साधना का मार्ग
साधना का मूल्य : आंतरिक जागरूकता
साधना किसलिए ?
साधना की निष्पत्ति
साधना के तीन पक्ष
साधना-पथ
साधना-पद्धति
साधना-पद्धति
साधना, स्वास्थ्य और आहार
साध्य - साधन के विविध पहलू
सापेक्षता
सापेक्षता के कोण
श्रमण
नयवाद
नयवाद
श्रमण
अणुव्रत विशारद
नैतिक
मैं
नैतिक
तुम
मैं
अणुव्रत विशारद
अमूर्त्त
शक्ति
एकला
अतीत
मैं हूं
महावीर
समस्या का
सत्य
महावीर
मैं हूं
किसने
मन
जैन दर्शन
जैन मौलिक ( २ )
जैन आचार
अर्हम्
भिक्षु
अनेकान्त
समस्या का
१६ε
२३
२२
२४३
६७
८६
१६७
८५
७६
२०१
६४
२३५
५२
२२३
१६१
१६२
१
१०३
दह
१८८
६६
१८७
२५१
४२३
३०७
७६
१४
७६
२७
५
गद्य साहित्य / ६५.
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
नयवाद
नैतिक
अणुव्रत विशारद अवचेतन
१७३
१४१
समाज जैन चिन्तन जीवन स्वस्थ समाज धर्म महावीर
१६६
विश्व
सापेक्ष मूल्यांकन सापेक्ष सत्य सामञ्जस्य का आधार मध्यम मार्ग ही हो
सकता है सामाजिक ऋण और उऋणता सामाजिक ऋण और उऋणता सामाजिक चेतना सामाजिक चेतना और धर्म सामाजिक पहलुओं का धार्मिक रूप सामाजिक मूल्यों का आधार : सत्य सामाजिक संबंध और संबंधातीत चेतना सामायिक-धर्म सामायिक समाधि सामूहिकता के बीच तैरती अनैतिकता सामूहिक परिवर्तन साम्प्रदायिक सापेक्षता साम्यवाद और विसर्जन सार्वभौम धर्म के प्रवक्ता सा विद्या या विमुक्तये साहित्य सम्पादन-यात्रा साहित्यिक ऊमियां सिंह-पुरुष आचार्य भिक्षु सिंह-पुरुष आचार्य भिक्षु सुख और शान्ति सुख की जिज्ञासा सुख क्या है ? सुख क्या है ? सुखवाद बनाम सुविधावाद सुखवादी दृष्टिकोण सुगनचंद आंचलिया
नयवाद
१६४
समस्या का प्रज्ञापुरुष जीवन स्वस्थ
महा
१४६
१५६
प्रज्ञापुरुष तेरापंथ जैन धर्म
mr
0
तट
धर्म
0
धर्म
0
२२५
महा अहिंसा तत्त्व जैन धर्म
१४६
१३०
६६ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
मैं कुछ
is
अहिंसा तत्त्व
w
or
१७७
१६५
२६३
१२१
सुधरे व्यक्ति समाज व्यक्ति से सुपात्र कुपात्र सूक्ष्म की समस्या सूक्ष्मलोक की यात्रा सूक्ष्म शरीर और पुनर्जन्म सृजनात्मक दृष्टियां : रचनात्मक प्रवृत्तियां सृजनात्मक शक्ति सृजनात्मक स्वतंत्रता सेवा और नैतिकता सोया मन जग जाए स्थावर जीव हिंसा स्थावर जीवों की दशा और वेदना स्थावर जीवों की हिंसा के निमित्त स्थूल और सूक्ष्म की मीमांसा स्थूल और सूक्ष्म जगत् का संपर्क सूत्र स्थूल शरीर का आध्यात्मिक महत्त्व स्थूल से सूक्ष्म की ओर स्नायविक तनाव का विसर्जन स्मृति का वर्गीकरण स्याद्वाद स्याद्वाद
एकला सोया धर्मचक्र उत्तरदायी विचार का घट सोया अहिंसा तत्त्व अहिंसा तत्त्व अहिंसा तत्त्व किसने आभामण्डल
as in is w Urur m
w
१२२
or
मन
१३०
१६०
is
a
स्याद्वाद
१४८
on in
चेतना विश्व जैन प्रमाण जैन तत्त्व जैन मौलिक (१) जैन दर्शन अतीत जैन न्याय प्रज्ञापुरुष अणुव्रत विशारद नैतिक अनेकान्त
स्याद्वाद स्याद्वाद स्याद्वाद और जगत् स्याद्वाद और सप्त भंगी न्याय स्वतंत्र चिंतन के प्रयोग स्वतंत्र चेतना की सुरक्षा स्वतंत्र चेतना की सुरक्षा स्वतंत्रता
w
६६ १२८ १०७ १४२
गद्य साहित्य | ६७
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वतंत्रता : एक अमिट प्यास
स्वतंत्रता और आत्मानुशासन
स्वतंत्रता का अभियान
स्वतंत्रता का संकल्प
स्वतंत्र या परतंत्र ?
स्वतंत्र या परतंत्र ?
स्वतंत्र व्यक्तित्व का निर्माण
स्वत्व की मर्यादा
स्वप्न और मन
स्वभाव का परिवर्तन
स्वभाव परिवर्तन
स्वभाव परिवर्तन का दूसरा चरण
- स्वाभाविकता के सापेक्ष मूल्य
स्वार्थ की मर्यादा
स्वावलम्बन अनुप्रेक्षा
स्वास्थ्य
स्वास्थ्य और आहार- विवेक
स्वास्थ्य और प्रसन्नता स्वास्थ्य और समाधि
स्वास्थ्य-साधना
हम आचार्य भिक्षु बनें
हम श्वास लेना सीखें
हम स्वतंत्र या परतंत्र ?
हम हैं अपने सुख दुःख के कर्ता
हमारा जीवन और समस्याएं
हमारा जीवन और समस्याएं हमारा भोजन
हमारा भोजन
हमारा भोजन
६८ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
घट
तट
श्रमण
श्रमण
कर्मवाद
चेतना
जीवन शिक्षा
नयवाद
अपने
धर्म
अपने
आभामण्डल
मैं
समस्या का
अमूर्त्त
प्रज्ञापुरुष
तुम
मैं
मन का
अहिंसा तत्त्व
तेरापंथ
एकला
उत्तरदायी
अपने
समस्या
घट
आहार
समस्या
घट
१६६
७७
१५
२०
८५
२०८
७८
२६
६२
८४
४७
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५
८२
१३२
२४३
६०
२१०
११६
२७०
८०
२०५.
१
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१
१८६
५२
४१६
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
9
W
अतीत हिंदी हिंदी समस्या का
m
2
१४६
मेरी अहिंसा तत्त्व
५७
धर्म
७७
अहिंसा तत्त्व अहिंसा तत्त्व
घट
.
हिंदी हिंदी का आत्मालोचन हिंदी जन-जन की भाषा हिंदू राष्ट्रीयता का प्रतिनिधि है, जाति और
धर्म का नहीं हिंदू शब्द की युति कहां? कैसे ? हिंसा हिंसा और अहिंसा हिंसा का विवेक और त्याग हिंसा का सूक्ष्म विचार हिंसा की काली छाया : मानव की प्रतिमा
धूमिल नहीं होगी? हिंसा की परिभाषा हिंसा के निमित्त हिंसा के परिणाम का निर्णय हिंसा के प्रकार हिंसा : क्रिया नहीं, प्रतिक्रिया हिंसा : क्रिया नहीं, प्रतिक्रिया हिंसा जीवन की परवशता हिंसा-दण्ड हिंसा-विरति का उपदेश हिंसा सबके लिए समान हित-मित-ऋत भुक् हितसिद्धि : हितों का सामंजस्य हितसिद्धि : हितों का सामंजस्य हृदय-परिवर्तन : एक महान् उपलब्धि हृदय-परिवर्तन का प्रशिक्षण हृदय-परिवर्तन की समस्या हृदय-परिवर्तन के प्रयोग हृदय-परिवर्तन के सूत्र (१)
अहिंसा तत्व अहिंसा तत्त्व अहिंसा तत्व अहिंसा तत्त्व
घट
८०
विचार का अहिंसा तत्त्व अहिंसा तत्त्व अहिंसा तत्त्व अहिंसा तत्त्व आहार अणुव्रत विशारद नैतिक कैसे सोचें कैसे सोचें भहिंसा तत्त्व कैसे सोचें कैसे सोचें
१४६
१६५ २२१
२११
२८३
१७६ १४०
गद्य साहित्य / ६६
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
हृदय परिवर्तन के सूत्र ( २ ) हृदय परिवर्तन के सूत्र ( ३ )
होली
७० / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
कैसे सोचें
कैसे सोचें अपने
१५२
१६४ २२६.
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
खण्ड २
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
गद्य-पद्य काव्य
१०३
भाव गूंजते भाव भाव विजय नास्ति
बन्दी
०
अंकन का माध्यम अंधेरा क्यों है ? अकम्प अकर्मण्यता नहीं अकेला चल अकेला चल अकेलापन अकेलापन अकेलापन अखण्ड व्यक्तित्व अग्नि जलती है अज्ञात अज्ञात और ज्ञात अज्ञेय अज्ञेय : ज्ञेय अणु और महान् अतीत जब झांकता है अद्वैत अध्यात्म अध्यात्म की रेखाएं अनाग्रह अनावृत अनुभव अनुभूति अनुभूति का तारतम्य अनुशासन
नास्ति विजय भाव गूंजते बन्दी अनुभव अनुभव बन्दी अनुभव भाव
१
०
०
१
१०
भाव
"
अनुभव अनुभव
भाव
x
भाव
or
o..
अनुभव अनुभव भाव बन्दी
४५
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनुशासन की समझ
अनुसंधान
अनेक और एक अनेकान्त-दर्शन
अन्तर्द्वन्द्व
अन्तर्द्वन्द्व
अपना-अपना अस्तित्व
अपना-अपना स्वभाव
अपने घर में आ
अपने घर में आ
अपराध
अभिनय
अभिनय
अभिव्यक्ति
अभिव्यक्ति
अभिव्यक्ति का मोह
अमाप्य
अमिट लो
अमिट लो
अर्थ वाद
अर्पणा
अवगुंठन
अवगुंठन
अव्यक्त या गूढ़ अशान्ति और शांति
असत्य : सत्य
असांप्रदायिकता
अस्ति नास्ति
अहिंसा की समस्या
आंख-मिचौनी
७४ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
भाव
भाव
भाव
भाव
नास्ति
विजय
बन्दी
अनुभव
नास्ति
विजय
भाव
विजय
नास्ति
भाव
भाव
अनुभव
भाव
नास्ति
विजय
भाव
फूल
नास्ति
विजय
फूल
अनुभव
बन्दी
बन्दी
अनुभव
अनुभव
विजय
१०६
६७
५६
१११
५
१२
४६
३६
४१
६४
३७
१४
६
११६
४५
१३२
७७
१
२
६६
२०
१३
२८
३३
१३५
६४
२८
१७
१२०
३०
Page #199
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________________
नास्ति भाव बन्दी
१२१ ८१
विजय
१२२
५६
११८
-6
नास्ति बन्दी गूंजते गूंजते अनुभव अनुभव बन्दी भाव
c 01
४५ १२५ १२८ १०४
भाव
आंख-मिचौनी आंखों देखा सच आकार-प्रकार आक्रमण की शल्य-क्रिया आक्रमण की शल्य-क्रिया आगे बढ़ो आज का आदमी आज का आदमी आत्म-दर्शन आत्मलोचन आत्म-विश्वास आत्म-विश्वास आत्म-सत्य आत्मा और परमात्मा आत्मा और व्यवहार आदमी आदमी को इसलिए नहीं पहचानता आदर्श वह होता है आरती आराध्य के प्रति आरोहण-सोपान आरोहण-सोपान आलंबन की डोर आलंबन की डोर आलोक आलोक के लिए आलोक आलोक के लिए आलोचक आलोचना आलोचना और प्रशंसा
अनुभव अनुभव
गूंजते
१०६ ७४
१०८
१६८
गूंजते बन्दी भाव विजय नास्ति नास्ति विजय विजय नास्ति भाव
१४०
भाव
भाव
आवरण
अनुभव भाव
आवेग
गद्य-पद्य काव्य /७५
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
आशा और निराशा
आशा का द्वीप
आशीर्वाद
आशीर्वाद
आश्चर्य
आश्चर्यम्
आश्वासन
आश्वासन
इच्छा और सुख इन्द्रधनुष से अतीत
इस कुएं से आगे कुछ भी नहीं
इसके बाद भी
इस दुनियां में बेमेल चीजें क्या नहीं मिलतीं
इस दुनिया में सब कुछ है
इस प्रकार
ईंट से ईंट बज गई
ईश्वर मिलेगा साधना से
उच्छृंखलता से परे
उच्छृंखलता से परे
उठो उठो ए बादल काले
उतार-चढाव
उतार चढाव
उथल-पुथल
उदय और अस्त
उदासीन सम्प्रदाय
उदासीन सम्प्रदाय
उपचार
उपहास
उपासना का मर्म
उपेक्षा और अपेक्षा
७६ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
अनुभव
विजय
नास्ति
विजय
बन्दी
फूल
नास्ति
विजय
अनुभव
नास्ति
गूंज
अनुभव
गूंजते
गूंजते
अनुभव
गूंजते
फूल
नास्ति
विजय
फूल
अनुभव
भाव
फूल
भाव
नास्ति
विजय
बन्दी
अनुभव
भाव
भाव
१२३
१५६
२६.
६२
८
७२
७३
१५२
१०६
५३
६३
२५
५७
७६
७६
८४
३६
५०
११२
७६
११५.
१३
५६
३४
६६
१४४
१५
७६
१२३ ६७
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
उभयत: पाश
उलझन
उलाहना
उलाहना
उल्लास : विकास
उषा और संध्या
ऊंचाई की आत्मा ऊपर भी देखो
ऊर्ध्व दर्शन
एक ओर आदर्श की ऊंचाई
एक और सब
एक और सब
एक दिन सुना था, मैंने तुम्हारा स्वर
एक मंत्र
एक साथ नहीं
एक ही लौ
एकान्तवास
एक्सरे !
ओ अन्तरिक्ष के यात्री
ओ कर्मकार, !
ओ गायक !
ओ चित्रकार !
ओ भोले
मृग
!
ओ योगिराज !
ओ लेखक !
ओह ! कितना सुन्दर होता
कटघरा
कथनी : करनी
बन्दी
भाव
नास्ति
विजय
बन्दी
अनुभव
अनुभव
भाव
नास्ति
गूंजते
नास्ति
विजय
गूंजते
भाव
'अनुभव
अनुभव
भाव
गूंजते
गूंज
अनुभव
अनुभव
अनुभव
गूंजते
गूंजते
अनुभव
गूंजते
बन्दी
बन्दी
४८८
४६.
८
१६६
* ut
४
५७
२३
३५.
५६
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६२
६२
७१
२७
१०६
३७
५२
८०
६३
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११२
५३
६४
११३
६६.
७३
गद्य-पद्य काव्य / ७७
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
कम-धिक
भाव
फूल
करवट कर्तव्य-बोध कल और परसों कल की बात कला
बन्दी फूल गूंजते भाव
.
कलाकार !
गूंजते
७६
११५
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ل
M
ا
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عر
बन्दी गूंजते अनुभव बन्दी गूंजते बन्दी भाव गूंजते गूंजते भाव नास्ति विजय
W
می
कल्पना कल्पना का एक किनारा कसौटी कसौटी की कसौटी कहने की बात कहानी काम्य और अकाम्य काल के इस अविरल कितना समझदार है किधर कुंजी नहीं कुंजी नहीं कृतज्ञता कैंची और सूई कोई कोई कोई जमाना था कोंपल और कुल्हाड़ी क्षमा
१११
५३
७४
भाव
अनुभव फूल
४
عر
س
ا
गूंजते
لہ
फूल अनुभव बन्दी
م
क्षमा
لہ لہ
१३२
क्षमा दो क्षमा दो क्षितिज के उस पार क्षितिज के उस पार
नास्ति विजय विजय नास्ति
७८ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाव
खतरा खींचातान खुले आकाश में खड़ी
फूल गूंजते
गंजते
२३
भाव भाव भाव
१५
४०
गंगा, यमुना, सिन्धु, सतलज गठबंधन नहीं गति का क्रम गति कैसे ? गतिरोध गति-स्थिति गर्वोन्माद गहराई में गहरी डुबकियां गहरी डुबकियां गहरी डुबकी गांठ का धागा गांठ को खोल गाली का प्रतिकार गुप्तवाद
अनुभव अनुभव अनुभव भाव नास्ति विजय भाव अनुभव अनुभव भाव
भाव
घटना और सीख घोंसला बनाने में व्यस्त
-
बन्दी गूंजते
.
चमक
भाव
भाव
به
س
भाव नास्ति विजय
م
चमत्कार को नमस्कार चरण-चिन्ह चरम-दर्शन चरम-दर्शन चरम-दर्शन चरम साध्य चरैवेति चरैवेति चलता चल
१७०
भाव
१२०
१३३
له
अनुभव फूल नास्ति
مه
७७
गद्य-पद्य काव्य / ७६
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
विजय
१५८
गूंजते
४१
चलता चल चलनी ने तीखा व्यंग्य कसा चाह और राह चिता चिनगारी चिन्तन चीर
भाव फूल फूल अनुभव भाव
चुभन
चोटी की दूरी को
भाव गूंजते
१२७
छिद्र
भाव
KG
अनुभव भाव गूंजते गूंजते फूल गूंजते बन्दी विजय विजय भाव विजय
१२६
२४
जंगल का कानून जटिल और सरल जड़ की बात जल चाहता है मुझे कोई न बांधे जलना हो तो भले जलो जलने वाला कौन जलने से पहले कोयला होता है जलाना : बुझाना जहां इन्द्रधनुष नहीं होता जहां स्पन्दन नहीं है जागरण जागरण का संदेश जागरण का संदेश जीवन के नैतिक मूल्य जीवन के पीछे जो मैंने देखा वह देखा जो रेखा खींचना जानता है जो सोचता है अपने लिए ज्ञान और विश्वास की दूरी
११६
११८
५३
०
नास्ति
0
0
अनुभव भाव
0
फूल गूंजते गूंजते
0
0
८० / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
ज्योति ज्योतिर्मय
बन्दी भाव
अनुभव
झपट झुकाव झुकाव
भाव
१२६
भाव
टीस
टेढी सीधी रेखाएं
भाव भाव
भाव
नास्ति विजय
१३० ५६
गूंजते
फूल
७६
४७
१२८
७६
तट का बन्धन तट की रेखा तट की रेखा तड़प है तन्त्र अपना ही बनाएं तपस्वी की जटा तब और अब तर्क और प्रेम तर्क का हनन तर्क की अन्त्येष्टि तर्क की सीमा तलवार आदमी को काट देती है तुच्छ और महान् तुम अन्तर्जगत् में बड़े बनकर तुम अन्धे होते तो तुम अपने आराध्य की तुम चाहते हो तुम निवृत्ति की ओर चलो तुमने तुम महाग्रंथ हो तुम सत्य को ढूंढ रहे थे तुम सपना लेना जानते हो ?
बन्दी फल बन्दी अनुभव अनुभव भाव गूंजते भाव गूंजते गूंजते गूंजते गूंजते
१०६
गूंजते
गूंजते गूंजते गूंजते
गूंजते
गद्य-पद्य काव्य / ८१
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
गूंजते
० m
० ४
गूंजते गूंजते
॥
०
तुम्हारा गाया गाता हूं तुम्हारी पवित्र धरती तुम्हारे अस्तित्व के प्रति तुम्हारे पद-चिन्हों का अनुगमन करने से पूर्व तुलसी के प्रति तुला तू और मैं त्याग
१०६
गूंजते भाव फूल फूल बन्दी
"
५४
बन्दी अनुभव बन्दी गूंजते
भाव
दान : आदान दिशा की खोज दीप : दीवट दीवट पर कोई दीया जला दूसरे को भी देखो दो वाद द्वन्द्व का क्रीड़ा-प्रांगण द्वन्द्व का क्रीड़ा-प्रांगण द्वन्द्व से निर्द्वन्द्व की ओर द्वन्द्व से निर्द्वन्द्व की ओर
भाव
विजय नास्ति नास्ति
४८
विजय
द्वत
भाव
द्वैध
बंदी
बंदी
बंदी
धर्म और शास्त्र धर्म की खोज धर्म की भूमिका धागा उलझता है इसलिए उसे मत तोड़ो धार और क्या है ?
बंदी
गूंजते गूंजते
10
अनुभव अनुभव
0
न छोटा, न बड़ा नन्दन वन के माली ! नम्रता नया और पुराना
भाव
भाव
५१
८२ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाव
बन्दी
भाव
२७
४
७१
नये-पुराने का समस्या निदान निदान नयंत्रण नयंत्रण और संशोधन नियति का व्यंग नियति की रेखा निराशा की रेखा निराशा की रेखा निर्वाचन का प्रश्न निवृत्ति और प्रवृत्ति निश्चित पर अतयं निष्कर्ष नींद से विदा नींद से विदा नींव का पत्थर नीचे-ऊपर नीचे भी देखो नीड और विहग नेता
अनुभव अनुभव फूल फूल विजय नास्ति अनुभव अनुभव अनुभव भाव नास्ति विजय अनुभव बन्दी
१०६
११
भाव
फूल
बन्दी
नेता
भाव
भाव
नेतृत्व न्याय की भीख न्याय की मांग
भाव
बन्दी
अनुभव भाव बन्दी
पंडित और साधक पंडित और साधक पगडंडी : राजपथ पर और परम परख परछाइयां
9 9 09
भाव
भाव
५२
भाव
४
गद्य-पद्य काव्य |८३
Page #208
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________________
८०
1
1 ا
बन्दी गूंजते बन्दी अनुभव बन्दी अनुभव गूंजते नास्ति विजय बन्दी बन्दी भाव
س
م
و
ل
سه
११०
|
भाव
०
भाव
م
ع
पराई आंख पराग से भीगे हुए परिणाम परिमित परिस्थिति का प्रपात पर्दे के उस ओर पर्वत बादल में छिप जाए पवन और प्रकाश पवन और प्रकाश पहचान पहचान का प्रश्न पहल पहले तोलो पहेलियां पाथेय चाहिए पानी का मूल्य पारखी पारदर्शी पुराने वस्त्र को पुरुषार्थ पुस्तक के कुछ पृष्ठ ऐसे होते हैं पूर्ण की भाषा पूर्णता की अनुभूति में पैसे का दर्शन पोथी और अनुवाद प्यास प्रकाश और तिमिर प्रकाश और स्वास्थ्य प्रकृति और व्यापकता प्रकृति के अंचल में
०
م
C
له
बन्दी भाव नास्तिक गूंजते बन्दी गूंजते भाव अनुभव फूल
७७
-
.
बन्दी अनुभव बन्दी
र
भाव
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अनुभव
८४ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
Page #209
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________________
प्रगति का मन्त्र
प्रचार
प्रतिकार
प्रतिकार का अधिकार
प्रतिक्रिया
प्रतिक्रिया
प्रतिपक्ष
प्रतिबिम्ब
प्रत्यूष का पवन
प्रवाह की रपट में
प्रश्नचिह्न
प्रस्तुतीकरण
प्राण और त्राण
प्रिय
प्रिय कौन ?
प्रिय शत्रु प्रेम
प्रेम किससे ?
प्रेम के प्रतीक
प्रेम कैसे ?
प्रेम हो, विकार नहीं
फलित
फिर उजली दुपहरी हो गई
फूल और अंगारे
बंधन और मुक्ति बड़ी : छोटी
बड़े और छोटे
बन्दीगृह
बन्दीगृह
भाव
अनुभव
बन्दी
बन्दी
विजय
नास्ति
बंदी
भाव
गूंजते
फूल
भाव
बन्दी
बन्दी
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अनुभव
अनुभव
अनुभव
अनुभव
अनुभव
अनुभव
अनुभव
बन्दी
गूंजते
फूल
अनुभव
बन्दी
अनुभव
नास्ति
विजय
३१
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१६
गद्य-पद्य काव्य / ८५
Page #210
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________________
१०५
नास्ति विजय अनुभव अनुभव गूंजते अनुभव अनुभव नास्ति
४६
७७
बन्दीगृह के द्वार बन्दीगृह के द्वार बलवान बनो बसन्त फिर आयेगा बहुत तेज प्रकाश बहुत से क्या ? बहु-निष्ठा बादल से घिरा आकाश बादल से घिरा आकाश बाल-क्रीड़ा बिन्दु : बिन्दु बीज और फल बीज का विकास बीज का विकास बोलने का अर्थ ब्रह्मचर्य और अहिंसा ब्रह्मचर्य की फलश्रुति
विजय
भाव
बन्दी
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फूल विजय नास्ति
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१०३
अनुभव अनुभव
११०
१०२
भगवान् अब मैं हो रहा हूं भला वही भविष्य दर्शन भाग्य-निर्णय भाग्य-रचना भाग्य-विधाता भाग्य-विधाता भूख और भोग भूल और यथार्थ भेद-रेखा भोग और त्याग
भाव अनुभव भाव बन्दी नास्ति विजय
M
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१०४
अनुभव भाव अनुभव अनुभव
७४
भ्रम
८६ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
Page #211
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________________
मंदिर के देवता
मत गाओ
मत हंसो मत रोओ
मन की पकड़
मन की बात यहीं रहने दो
मन की मुक्ति
मनन
मन : समस्या और समाधान
ममता का देश
ममता का देश
ममता का देश
मर्यादा
मर्यादा का बोध
महान्
महान्
महान् कौन ?
मां भी ठग सकती है ?
मानवता की मृत्यु कहानी
मानवता की विजय
मानवता की विजय
मानो या मत मानो
मायावाद
मार्ग खुल जाये तो
मिट्टी और सोना
मिट्टी का प्यार
मिलन और विरह
मुक्ति
मुक्ति
मुक्ति और जंजीर
मुक्ति-प्रेम
बन्दी
गूंजते
गूंजते
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अनुभव
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भाव
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अनुभव
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३७
४४
२६.
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१२
गद्य-पद्य काव्य / ८७
Page #212
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मुखर : मौन
मुझे और कुछ नहीं चाहिए प्रकाश चाहिए
मूल में भूल
मूल्य
मूल्यांकन
मूल्यांकन
मूल्यांकन
मृत्यु और जीवन
मृत्यु- महोत्सव
मेरा देश
मेरे आचार्य
मेरे देव
मेरे भगवान्
!
मैं उन चट्टानों को याद करूं
मैं और मेरा
मैं और मेरा
मैं और वह
अनुभव
मैं कैसे मानूं ?
अनुभव
मैं जब-जब इन गगनचुम्बी किलों को देखता हूं गूंजते
मैं तुम्हें नहीं पढ़ सका हूं
गूंजते
मैंने कब कहा – तुम गधे हो
गूंजते
मैंने क्या किया ?
अनुभव
गूंज
मैंने तुम्हारे अनेक प्रतिबिम्ब देखे
मोह
मोत
मौन
मौन रहूं या बोलूं
यथार्थ
यथार्थता
$35
/ महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
बन्दी
गूंजते
गूंजते
फूल
अनुभव
भाव
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नास्ति
फूल
भाव
विजय
अनुभव
गूंजते
गूंजते
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Page #213
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१७
भाव अनुभव
१२७
भाव
१०५
२४
भाव भाव अनुभव गूंजते गूजते
१०१
१८६
गूजते
१२४
यन्त्र और चैतन्य यह और वह यह कैसा आश्चर्य ? यह कैसा ज्ञान ? यह कैसा साम्य ? यह कैसा स्वाद ? यह बिजली का युग है यह भार कोई उठाए यह मन की चिड़िया यह मुक्ति यह मेरे आकार की पहचान है यह सच है यहां और वहां याचना याचना यात्रा का निर्वाह यात्रा का निर्वाह याद रह-रह आ रही है युवक वह था ये लड़ाई और झगड़े ये हमारी आंखें
१२२
भाव गूंजते गूंजते अनुभव नास्ति विजय नास्ति
विजय
१२८
७०
फूल भाव
११४
गूंजते
७८
गूंजते
४४
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रंगमंच रंगमंच रात की अंधियारी में रूढिवाद की अन्त्येष्टि रूढिवाद की अन्त्येष्टि रेचक प्राणायाम रेचक प्राणायाम रोटी और पुरुषार्थ रोटी और मानवता
नास्ति विजय गूंजते विजय नास्ति नास्ति विजय
११०
५८
भाव
१२४ १०० १०१
भाव
गद्य-पद्य काव्य / ८६
Page #214
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________________
रोटी का दर्शन
भाव
१००
४८
भाव अनुभव भाव
३६
२४
लघु-गुरु लघुता का प्रसाद लचीलापन लुटेरा लोभ-विस्तार लोहावरण से परे लोहावरण से परे लौ से लौ
फूल अनुभव नास्ति विजय अनुभव
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३
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अनुभव विजय फूल गूंजते बन्दी नास्ति विजय विजय नास्ति
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विजय
५८
वकालत और अपराध वन्दना वरदान वह बुझ गया वाग्देवी वायुमंडल से परे वायुमंडल से परे विघ्न बाधाओं को चीरकर विघ्नों को चीरकर विजय का अधिकार विजय का अभियान विजय का अभियान विजय का गीत विजय-दुन्दुभि के स्वर विजय-दुन्दुभि के स्वर विदेशी सत्ता का प्रवेश विदेशी सत्ता का प्रवेश विद्यावान् कौन ? विनोद विपर्यय
४६
१७२
विजय नास्ति विजय नास्ति विजय विजय
नास्ति
अनुभव भाव बन्दी
६० / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
Page #215
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भाव भाव बन्दी भाव नास्ति विजय नास्ति
७४
विजय
विरोध विरोध का परिणाम विरोधाभास विवेक विशाल दृष्टिकोण विशाल दृष्टिकोण विश्व-राज्य विश्व-राज्य विश्वास और प्रेम विश्वास जब मर जाता है विश्वास-व्यंजना विश्वास-व्यंजना विष : अमृत विषपान विसर्जन विस्तार का मर्म व्यक्ति और विराट व्यक्ति और विराट व्यक्ति और समूह व्यक्तित्व की रेखाएं व्यक्तिवाद व्यक्तिवाद व्यापक या विशुद्ध व्याप्ति व्रत की भूमिका
बन्दी गूंजते विजय नास्ति बन्दी अनुभव बन्दी
२४
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भाव
भाव
अनुभव अनुभव
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भाव अनुभव अनुभव बन्दी अनुभव
शक्ति-स्रोत शब्द का संसार शरण शांति और संतुलन शांति कैसे मिले ?
बन्दी गूंजते विजय बंदी अनुभव
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गद्य-पद्य काव्य | ६१
Page #216
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________________
१२६
७४
शिकायत शूल और फूल शृंखला शेष क्या है ? श्रद्धा
६१
अनुभव फूल अनुभव अनुभव अनुभव भाव अनुभव बन्दी भाव
फूल
श्रद्धा श्रद्धा और तर्क श्रद्धा का चमत्कार श्रद्धा की भाषा श्रद्धा ने पाया आकार श्रद्धेय श्रद्धेय श्रद्धेय और श्रद्धा श्रम और बुद्धि श्रम और सोना श्रेष्ठतम
भाव बन्दी
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संकरी पगडंडी संकल्प संघर्ष संतुलन संयम....'शांति संयुक्त राज्य संयुक्त राज्य संविभाग संसार उसी के लिए है सचाई सचाई की समझ सत्यं शिवं सुन्दरम् सत्यं शिवं सुन्दरम् सत्यं शिवं सुंदरम्
फूल अनुभव अनुभव बंदी अनुभव विजय नास्ति फूल गूंजते अनुभव भाव नास्ति विजय भाव
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६२ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
Page #217
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सत्य का आवरण सत्य का विमोचन सत्य की झांकी सत्य-दर्शन सन्तों का साम्राज्य सन्तोष सपना आया सपनों की दुनिया में सफल किए चल सफलता का सूत्र सब कुछ सम और विषम समझ की भूल समझ से परे समता का क्षितिज समदर्शन समय की कमी समय के चरण समर्पण समर्पण सम : विषम समस्या और समाधान सम्यक् और मिथ्या सलिल और लहर सहज क्या है? सहानवस्थान सही समझ सांचा साधना का मार्ग साध्य के लिए
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गद्य-पद्य काव्य / ६३.
Page #218
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२६
३४
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अनुभव अनुभव बंदी अनुभव बंदी अनुभव अनुभव अनुभव अनुभव गूंजते
0
१११
सापेक्षता साम्य या अविवेक साम्यवाद सिद्धांत और अनुभूति सीधा मार्ग सीमा को तोड़कर सुन्दर बनूं सुन्दर या सुखी ? सुरक्षा सूने घर का स्नेह और तर्क स्नेह-दान स्पन्दन से अतीत स्मृति और विस्मृति स्मृति और विस्मृति स्रष्टा कौन ? स्वतंत्र-अस्तित्व स्व-दर्शन स्वार्थी
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फूल
बंदी नास्ति भाव भाव
१२४
५५
अनुभव भाव बंदी बंदी
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गंजते गूंजते गूंजते फूल
हजारों पथ हैं हम वहीं होते हैं हमारा आदर्श है हर्ष और विषाद हवा शून्य में क्या गाती है ? हस्तक्षेप हाथी और घोड़ा हार-जीत
फूल
फूल
फल
फल
६४ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
Page #219
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खण्ड ३
Page #220
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Page #221
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कथा साहित्य
कथा
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अंधकार अंधा ही रहने दो अकबर और बीरबल अकबर : बीरबल अकेला बनूंगा अचिकित्स्य अचूक निशानेबाज अच्छा पति अच्छी ही है अच्छे साधु हुए ! अज्ञान अज्ञान
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अज्ञान की उपलब्धि अटेन्शन अधीयतां : अन्धीयताम् अधूरा सपना अध्यात्म की पृष्ठभूमि अध्यापक : विद्यार्थी अनंत भूलें अनाचार अनायसेन शस्त्रेण अनुपम अनुपात अनुबंध
१४६ १०८
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Page #222
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अनुभवहीनता अनुभूति की तीव्रता अनुशासन अनेक काम अनोखापन अनोखा सपना
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अन्तर में प्रेम अन्धा मित्र
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अन्यथा अन्याय की जड़ गहरी नहीं होती अपना-अपना दृष्टिकोण अपना अपना मूल्य अपना-अपना स्वभाव अपनी धुन अपने को अच्छा बनाओ अपनेपन का आग्रह अपराध अब कैसे काढू अब क्या डरेगा ! अब वे रत्न नहीं रहे अभय की साधना अभयदान अभी नहीं अभेदानुभूति अमरत्व की खोज अम्म : निम्म अरबपति का अरबपति अर्थ का अनर्थ
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कथा
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१८ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
Page #223
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१५४
५२
अशब्द का शब्द अशुद्ध प्रयोग असभ्य कैसे कहें? असमय अस्तित्व की ऊंचाई अस्तित्व तक की पहुंच अहंकार अहं क्या है ?
६२
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५१
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आइन्स्टीन आइन्स्टीन आकर्षण आकर्षण आकर्षण का अभाव आकर्षण बदल गया आकांक्षा आकांक्षा
१२७ १३५ १०३
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३२
आग्रह
४८
आग्रह
४८
४८
१२६
२५
आग्रह का लोहावरण आघात आचार्य तुलसी ही आचार्य आचार्य भिक्षु आचार्य मानतुंग आचार्य हीरविजयजी और अकबर आत्म-ज्ञान आत्म-दर्शन की विधि आत्मबल आत्मविश्वास आत्मविस्मृति
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१०५ ६५
कथा साहित्य / ६६
Page #224
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आत्मशंसन आत्मा से आत्मा की बात
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आदत आदत की लाचारी आदेश आधार क्या है ? आनंद का घट आनंद का स्रोत आनंदघन को क्या ! आप कह सकते हैं आपका सहारा आप किस विश्वविद्यालय में पढ़े हैं ? आपकी नौकरी करता हूं आपत्ति आपत्ति आप महाठग हैं आभास आम्रपाली आम्र से मृत्यु आलस्य आलस्य आलू ही आलू आवरण
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आशा आशा ही जीवन आसक्ति दीखती है आस्था
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१८
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कथा
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१०८
इंजेक्शन नकली था १०० / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
Page #225
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________________
इतना उदास क्यों ?
इन्द्रासन
इन्द्रिय- ज्ञान को खाली रखें
इन्द्रियातीत चेतना
इसका क्या कारण है ?
इसमें क्या बात है ?
इसमें प्राण नहीं है
इसीलिए इतना नाम है
ईमानदारी
ईर्ष्या
ईर्ष्या
उत्कृष्ट वात्सल्य
उत्तरदायित्व
उदरंभरी
उद्देश्य
उधार ही उधार
उनका जागना अच्छा है
उपदेश का प्रभाव
उपाधि : एक समस्या
उपेक्षा
उल्लासकारी कल्याणकारी
उसने सोचा
उसमें न फंस जाऊं
उससे पहले
ऋणमुक्ति
एक के लिए सब
एक दुकान : दो काम
एकनाथ : तुकाराम
एकवचन : बहुवचन
कथा
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५७
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२४
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११०
११०
१७
Page #226
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________________
एक व्यंग्य
एक हाथ का शब्द
ऐसा तो हो सकता है ऐसा बीज
और काम ही क्या है ?
और कुछ नहीं
कच्चा जूता कठोर कार्य
कब करोगे ?
कमबख्त
करुणा
कर्तव्य-बोध
कलम और छुरी
कला का मूल्य
कल्पना
कल्पना की पीड़ा
कवि और सूर्य
कषाय-चेतना का परिणाम
कसोटी
काम में लो
कायोत्सर्ग का कवच
काल करे सो आज कर
कि ताए विज्जाए ?
कितना उठता था ?
कितना उपकारी !
कितना बड़ा लड्डू
कितना मूर्ख !
कितना समर्पण
कितने मूर्ख
कितने मूर्ख
१०२ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
कथा
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कथा
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६४
Page #227
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कथा
कथा
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किसी मतलब से कुछ नहीं कुछ नहीं, सब कुछ कुबुद्धि कुरूप ही कुरूप कुसीख का परिणाम कृतघ्न केवल कोरे कागज केवल दो आंखें केसरिया मोदक कैसा उपहार कैसे और कब कोई बचेगा या नहीं कोई बात नहीं कोरा कागज कोऽरुक् कोओं वाला घर कौन ठगा गया ? क्या तमाशा है ? क्या तुमने दूध में पानी मिलाया ? क्या तुम बनावटी हो ? क्या मैं जी सकता हूँ? क्या मैं नौकर हूं क्या मैं भी मरूंगा क्या साधना करोगे? क्योंकि यह आपका विचार है क्रिया का जीवन
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क्रोध
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क्रोध को विफल करो क्षेत्र का चमत्कार
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५ कथा साहित्य | १०३
Page #228
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खंडित व्यक्तित्व खांसी में दही खाली में भगवान् खुदा के साथ खोटा रुपया खोना ही साधना
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गदगी कहाँ ? गंध का चमत्कार गधे की पूंछ गया तो गया गर्म कर रहा हूं गांधी टोपी गुप्त-बात
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घर भरने वाला घुटाई का चमत्कार
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कथा
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चक्रवर्ती सनत्कुमार चमत्कार चरित्र निर्माण चाणक्य चाण्डाल कौन ? चाबी मेरे पास है चार महाग्रंथ एक श्लोक में चारों ओर का खिंचाव चित्त का निर्माण चिन्तन चिन्तन का असर चिन्ता मत करो चिन्ता मत करो चुगलखोर
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१०४ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
Page #229
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चूं तक चेला नहीं, गुरु बनूंगा चोर और तूंबे चौधराई
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छुरी किसके लिए? छोटा-बड़ा
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गागर
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जज : अपराधी जज को ठगा जड़ की बात जनतंत्र का चिर सत्य जरूरत जरूरत जहर और अमृत जहां भी जाओगे जागने का फल जाति का गर्व जाने बिना जितने तारे हैं जीता कौन है ? जीवन का गणित जीवन का मूल्य जीवन की सुरक्षा जीवन-शक्ति जीवन्त चित्र जूनूसूपी जोगी की जटा जो जीना जानता है जो दूल्हा खाएगा ज्ञान और संवेदन
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१४५
कथा साहित्य | १०५
Page #230
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झंकार के साथ टंकार झंझट
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झटका
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११५.
झूठ में भी भलाई झूठा प्रेम
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टैगोर डफोलशंख डबलरोटी डर से ज्वर डर सो ऊबर डाक्टर और वकील डाक्टर का परामर्श
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ढपोरशंख
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तड़प तथास्तु तपःचोर
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तरतमता तर्क का काम तर्क का चमत्कार तल्लीनता तात्पर्य तीन करोड़ स्वर्ण मुद्राएं तीन का उपकार तीसरा चक्षु तीसरा नेत्र तीसरा वर्ष तुम उत्तीर्ण हो
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गागर
कथा
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१०६ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
Page #231
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तुम एक काम करो
तुम एकान्त में चले जाओ
तुम कल्पना करो तुम कौन हो ?
तुम क्या करोगे ?
तुम चिन्ता मत करो
तुम झूठे हो
तुम ठीक कहती हो
तुम थाने में क्यों गए ?
तुम दोनों सही हो
तुम नहीं जानतीं
तुम निष्णात हो
तुम पागल हो
तुम बहुत भोले हो
तुम बेवकूफ हो
तुम मान लो
तुम मान लो
तुम मूर्ख हो
तुम मूर्ख हो
तुम मूर्ख हो
तुम योग्य नहीं हो
तुम योग्य हो
तुम वज्रमूर्ख हो
तुम विचित्र मित्र हो
तुम शरीर से मत उलझो
तुम सचाई को नहीं जानते
तुम सबको मालवीय बनना है
तुम्बे की बेल
तुम्हारा त्याग और मेरा त्याग
तेजस्विता का सूत्र
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दण्ड या अन्तर्योति दमड़ीवाला दर्शनों का एकीकरण दसवीं कला दासी के दास दिव्य-दृष्टि दिशा परिवर्तन दिशा-बोधः दिशाहीनता दीया जलाकर देखो दूध का तालाब दूसरों के चिन्तन पर दूसरों के सहारे दृश्य एक : दृष्टिकोण अनेक दृष्टि का अंतर देखना और देखना देखो तब जब मैं.... देवमाया दो गप्पी दो चित्रकार दोनों एक दोनों एक साथ नहीं दोनों बातें नहीं हो सकती दोनों सही हैं दो मित्र दो मिनट ठहरो
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१०८ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
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धर्म का मूल आधार धर्म चोला नहीं है धर्म नहीं छोड़ा धर्म-सम्प्रदाय धार्मिकता कितनी? ध्यान की शक्ति
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नकली क्यों ? नमस्कार न मुन्ना, न मुन्नी नया डर नवीन बात नशा कैसे चढ़ता है ? नाम का चमत्कार नामान्तरण निदान
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नियम नियम का ज्ञान नियम नियम है निरापद उपाय निर्लज्ज निविकल्प समाधि का उपाय निर्विचारता का मूल्य निविशेषण धर्म की आवश्यकता निषेध का अर्थ नीति और क्रियान्विति नीयत का असर
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पंखा जिद्दी है
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कथा साहित्य | १०९
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पकड़
पचीस पैसे का गोलमाल
पछतावा
पण्डिता एवं जानन्ति
पता ही नहीं चला
पत्नी द्वारा चालित
पद दिया जा सकता है, पर...
पप्पू की मां
परमात्मा और शैतान
परवाह नहीं
परिणाम
पहचान
पहचान
पहला अवसर
पागलपन
पादरी और वैज्ञानिक
पाप का परिपाक
पारस से भी मूल्यवान्
पार्थक्य का बिन्दु
पुण्य-पाप
पुद्गल का स्वभाव
पुरस्कार
पुरुष कम : स्त्रियां अधिक
पुरुषार्थ
पुरुषार्थ
पुरुषार्थहीन
पूर्वाग्रह से मुक्ति
पैतृक परम्परा
पैसा पैसा है
प्रकाश
११० / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
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प्रकाश : अंधकार प्रतिक्रिया प्रतिद्वन्द्वी प्रतिबिम्ब प्रतिविम्ब प्रतिबिम्ब का मूल्य प्रतिबिम्ब ही प्रतिबिम्ब प्रतिशोध प्रतिशोध प्रतिशोध प्रतीक्षा प्रतीक्षा प्रतीक्षा प्रदर्शन की भावना प्रभावित कौन ? प्रभु का संदेश प्रभु के लिए प्रभु के साथ प्रमु जागता है प्रभु सबको देखता है प्रमाद मत करो प्रयोजन प्रलोभन प्रवंचना और परिणाम प्रवचन कैसा लगा? प्रशिक्षण कैसा? प्रश्न एक : उत्तर दो प्रश्न है आकर्षण का प्रसन्नता-विषण्णता प्राकृतिक चिकित्सा
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कथा साहित्य | १११
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प्राणों का मोह
प्रामाणिकता
प्रामाणिकता
प्रायश्चित्त
प्रायश्चित्त
फिर कहीं चले जाओ
फूल तोड़ना मना है
बंधा हुआ कौन है ?
बच्चे का आग्रह
बड़प्पन की भूख बड़ा भिखारी है राजा
बदला
बनकर तो देखो
बहिर्मुखता
बहुत दिनों से
बात में आगे काम में पीछे
बाबा से भी बायीं
बीमारी मस्तिष्क तक न पहुंचे
बुद्धि और अनुभव
बुद्धि का खतरा
बुद्धि का चमत्कार
बुद्धि का चमत्कार
बुद्धि-बल
बुद्धिमान्
बुद्धिमान् रोहक बुरा कौन ?
बूढ़ी को क्यों लाया बैल और गधा
ब्रह्मचर्य का चमत्कार
११२ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
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भक्ति का स्वरूप भय का चमत्कार भय का भय भाई-भतीजावाद भान भामती भार भार कम हो जाएगा भाव का चमत्कार भावना का असर भावना का चमत्कार भावना का चमत्कार भावना-योग भावात्मक चेतना : अभावात्मक चेतना भावावेश भाषा का भेद भुलक्कड़ भूल का प्रायश्चित्त भैस का उपवास भैंस की मलाई भोजन का शौ।
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मन का जाना न करना मन का विसर्जन मन की आसक्ति मन की उड़ान मन की पटुता मन की बात मन की मृदुता मन की युति
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मन का शक्ति का विकास मन की स्थिरता मन को वश में करो मनुष्य की बुद्धि मनोबल मरने की शक्ति मरने के बाद का अनुभव मस्ती में जीता हूं महत्वाकांक्षा महाकवि कालिदास महाकवि गेटे महाकवि माघ महाकवि माघ महात्मा और सम्राट सिकन्दर महात्मा : भक्त महान् कौन ? महाप्राण-ध्यान महाराजा रणजीतसिंह महारानी विक्टोरिया मां-पुत्र मा प्रमादी निशात्यये मानदंड मानसिक शांति का सूत्र मायाशल्य माली और कुम्हार मिच्छामि दुक्कडं मित्रता मुक्ति का रहस्य मुखद्वार कम : मलद्वार अधिक मुझे क्या ?
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११४ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
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मुर्गा मूंछ का बाल मूखों से मूल की मजबूती मूल दृढ़ है मूल से आगे मूल-स्वरूप मूल्यवान् कौन ? मूल्यांकन मूल्यांकन की दृष्टि मेरा काम मेरा धर्म है मेरा पति बड़ा विचित्र है मेरी इच्छा मेरी रेखा मेरे साथ चलो मैं अपना गुरु हूं मैं अपने घर में था मैं अपराधी नहीं हूं मैं आजाद हूं मैं आपका भक्त हूं मैं आराधना कर रहा था मैं आश्वस्त हूं मैं इतना मूर्ख नहीं हूं मैं उन्हें दायित्व सौंपता हूं मैं कच्चा मित्र नहीं हूं मैं कहता हूं मैं कहां से दूं? मैं काम करूंगा मैं किसको क्षमा करूं?
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कथा साहित्य | ११५
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मैं कौन हूं ? मैं कौन हूं ? मैं क्या करूं ?
मैं क्या करूं ?
मैं क्या करूं ?
मैं क्या बताऊं
मैं क्यों चुकाऊं
मैं गीता पढ़ता रहूंगा
मैं चढ़ना नहीं चाहता
मैं चल नहीं सकता
मैं जल रही हूं
मैं जानता हूं
मैं जानता हूं
मैं जानती हूं
मैं तो छोटा डकैत हूं
मैं तो छोटा हूं
मैं तो जा रहा हूं
मैं दुनियां का सर्वश्रेष्ठ आदमी हूं
मैं देख रहा था
मैं नग्न हो जाऊं
मैं नदी में नहीं उतरूंगा
मैं नहीं कह सकता
मैं नहीं चलूंगी
मैं नियम का अपवाद नहीं हूं
मैं पंडित नेहरू बोल रहा हूं
मैं पकड़ा गया
मैं बीमार हूं
मैं भूल गया
मैं मनुष्य हूं
मैं लाचार हूं
११६ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
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मैं लुढ़कन खा रहा हूं मैं वहां नहीं जाऊंगी मैं संस्कृत नहीं जानता मैं सच्चा हूं मैं समझ गया मैं स्वामी हूं मैं हरामजादा हूं मैं ही इसको दंड दूंगा मैं ही डॉक्टर हूं मैं ही बचा हूं मैं ही हूं ग्रेमाल्डी मैत्रों का धरातल मोहजनित-आग्रह मौत से अभय मौन मौन की भाषा मौसेरा भाई
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यमराज की दीर्घ-दृष्टि यह कैसे सम्भव है ! यह तो बड़ा चोर है यह वही बैल है युक्ति ये घाव क्या कहते हैं ? येन-केन प्रकारेण ये भी बीत जायेंगे
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रक्स चाइल्ड रचनात्मक दृष्टिकोण रवीन्द्रनाथ टैगोर रस का चमत्कार
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रहस्य का ज्ञान रांका-बांका राजकुमार उदयन राजकुमारी अमृतकौर राजनीति के चार सूत्र राजनेता का हार्ट राजा और संन्यासी राजा और संन्यासी राज्य का मूल्य रामबाण दवा राष्ट्रपति अब्राहिम लिंकन राष्ट्रीयता रूढ़िवाद रोग कहीं, चिकित्सा कहीं रोग का आनन्द रोने के तीन लाभ
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लंघनं परमौषधम् लकड़हारा लज्जा लड़ते क्यों हो ? लापरवाही लिंकन लुढ़क गया लोजियां नहीं पढ़ीं लोभी और ईर्ष्यालु
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वक्रगति वरदान
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११८ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
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वरदान या अभिशाप
वर्धते भयम्,
वर्धते भयम्
वह क्या करता होगा ?
वह था शब्दकोश
वह बन्दी न था
वह बुद्धिव्यर्थ है
वहीं का वहीं
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वाणी का चमत्कार
वाणी का चमत्कार
वास्तविक शक्ति
विकास का मार्ग-ध्यान
विचार और चेतना
विचार का नशा
विचार- परिवर्तन
विचारशील
विचित्र अवस्था
विडंबना
विडंबना
विद्या का दुरुपयोग
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विपर्यय
विरल
विरोधाभास
विरोधी हितों का सामंजस्य
विवशता
विवाद
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'विश्वास विश्वास का मूल्य विस्मृति वृक्ष वही है वृत्ति का परिष्कार करो वैज्ञानिक न्यूटन व्यंग्य व्यंग्य व्यक्ति की अभिव्यक्ति व्यक्तिवाद व्यक्तिवादी मनोवृत्ति व्यवस्था व्यासं वा व्यासपुत्रं वा व्रत का उदय
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शक्ति शक्ति का जागरण शक्ति जागरण का परिणाम शब्द का असर शब्द का असर शब्द का चमत्कार शब्द का चमत्कार शब्द का प्रभाव शब्द की पकड़ शब्द-शक्ति शब्द-शक्ति का चमत्कार शरणागत शराब का नशा शरीर की आत्मा
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१२० / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
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कथा
शास्त्र-वासना शास्त्रीयसंगीत
शिक्षा
शीर्षासन शील का चमत्कार शीशमहल शेष कुछ नही बचा श्रम का मूल्य श्रीमज्जयाचार्य श्रोता श्वास की स्मृति श्वास ही सब कुछ
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षडयंत्र विफल हो गया
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संकल्प का चमत्कार संकल्प के प्रति समर्पण संकल्प-शक्ति संकुलता संत नामदेव संत राबिया सच्चा बादशाह सज्जन बनाया नहीं जा सकता सतयुग : कलियुग सत् की परिभाषा सत्य अपच होता है सत्य और भ्रांति सत्य के निकट सत्यनिष्ठा संन्यासी और किसान संन्यासी के झोले में सोना
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कथा साहित्य | १२१
Page #246
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संवेदन की शक्ति संसर्गजा दोषगुणा भवन्ति संस्कार संस्कार की खूटी संस्कारों का संक्रमण सफलता का मन्त्र सफलता का रहस्य सफल नाटक सब कुछ सब कुछ सबके लिए स्थान सब खर्च हो गये सबसे बड़ा ज्ञानी कौन ? सबसे बड़ा भक्त सबसे बड़ा याचक सबसे बड़ा शस्त्र सबसे बड़ा श्रावक सबसे बड़ी कला सबसे मीठा क्या ? सबसे योग्य सभी मार्ग लक्ष्य की ओर समझ का अन्तर
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१२२ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
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समाधि समाधि समृद्धि सम्बन्धातीत चेतना सम्मान ज्ञान का या सदाचार का सम्राट् कौन ? सम्राट् सिकन्दर सम्राट् हेनरी सरलता और माया सरसता सर्दी में बर्फ खाता हूं सलाह ससुराल की टिकट -सहनशीलता सहयोग सांझ तक साक्षात् भगवान् साधना साधना का उद्देश्य -साधना की सम्पन्नता साधुवाद ! धन्यवाद सामंजस्य सार सिंचन सिर पर भार सीमा सीमा का महत्त्व -सुकरात सुण हाकम संग्राम
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कथा साहित्य | १२३
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सूक्ष्म शरीर का सामर्थ्य
सूझ-बूझ
सूरज की यात्रा रात में
सेठ : कवि
सोने की गंध
सोने की गंध
सोने में गंध
स्त्री नहीं, पुरुष
स्थूलभद्र की विरक्ति
स्नेह और आंकाक्षा
स्मृति का जहर
स्मृति का भय स्व की चिंता
स्वतंत्रता का मूल्य
स्वधर्म : राजधर्मं
स्वयं की परिक्रमा
स्वयं देखें, स्वयं सोचें
स्वर्ग और नरक
स्वर्ग : नरक
स्वर्ग पर धरती की विजय
स्व शक्ति का विवेक
स्वागत कब और किसका ?
स्वाद का चमत्कार
स्वाधीनता
स्वार्थ
स्वार्थी का परिणाम
स्वार्थ का संसार
स्वार्थपरता
हजरत ऊमर
हम नहीं जानते
१२४ / महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
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कथा
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कथा साहित्य | १२५
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युवाचार्य महाप्रज्ञ को महत्त्वपूर्ण कृतियां १. तुम अनंत शक्ति के स्रोत हो। २. मैं : मेरा मन : मेरी शांति (हिन्दी अंग्रेजी ) ३. चेतना का ऊर्जारोहण (हिन्दी, गुजराती, बंगला) ४. महावीर की साधना का रहस्य ५. मन के जीते जीत (हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती, बंगला) ६. किसने कहा मन चंचल है (हिन्दी, अग्रेजी, गुजरानी) ७. जैन योग ८. एसो पंच णमोकारो (हिन्दी, गुजराती) ६. आभामंडल (हिन्दी, गुजराती, बंगना) १०. अप्पाणं सरणं गच्छामि ११. अनेकान्त है तीसरा नेत्र (हिन्दी, गुजराती) १२. एकला चलो रे १३. मन का कायाकल्प १४. संबोधि (हिन्दी, गुजराती, अंग्रेजी) १५. मैं कुछ होना चाहता हूं १६. जीवन विज्ञान : शिक्षा का नया आयाम (हिन्दी, अंग्रेजी,
बंगला) १७. जीवन विज्ञान : स्वस्य समाज रचना का संकला १८. कसे सोचें? १६. आहार और अध्यात्म २०. श्रमण महावीर (हिन्दी, अंग्रेजी) २१. घट घट दीप जले २२. मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि २३. मैं हं अपने भाग्य का निर्माता २४. अवचेतन मन से संपर्क २५. उत्तरदायी कौन? २६. जीवन की पोथी २७. सोया मन जग जाए २८. प्रस्तुति २६. महाप्रज्ञ से साक्षात्कार ३०. जैन न्याय का विकास ३१. जैन दर्शन : मनन और मीमांसा ३२. संभव है समाधान ३३. अमूत्तं चिंतन ३४. अपने घर में ३५. अभय की खोज
Jain Education Internatio
Page #252
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