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________________ महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण युवाचार्य श्री भावाभिव्यक्ति को प्रधानता देते हैं और भाषा को केवल माध्यम मानते हैं । भावों का स्पष्ट अवबोध कराने के लिए यत्र-तत्र मुहावरे, कहावतें, कथानक, चुटकले, व्यंग्य-विनोद आदि का समावेश बहुलता से मिलता है । यही कारण है कि युवाचार्य श्री के प्रवचन में सरसता का प्रवाह निरंतर बहता चलता है । वह आदि से अंत तक एक-सा रहता है, सूखता नहीं । आपकी भाषा सूत्रात्मक और सूक्त्यात्मक होती है । यदि उन सभी सूक्तियों का संकलन किया जाए तो एक बृहत् सूक्ति कोश तैयार हो सकता है । उदाहरण के लिए इन पंक्तियों को देखा जा सकता है १. विद्यावान् वही होता है, जो दूसरों को जानने से पूर्व अपने आपको भलीभांति जान ले । २. स्नेह जीवन के सूर्य का वह प्रकाश है, जो गहन अंधकार को भेदकर मानस की हर सतह को आलोक से भर देता है । ३. जो दिलाया जाता है वह अविश्वास है । विश्वास दिलाने की वस्तु नहीं वह स्वयं प्राप्त होता है । ४. आत्मा का अहित किए बिना दूसरों का अहित नहीं किया जा सकता । है । ५. शोषण का मूल जीवन की आवश्यकताएं नहीं, मानसिक अतृप्ति ६. रोटी के बिना मरता है मनुष्य और विवेक के बिना मरती है मानवता । भाषा की दृष्टि से उन्होंने उचित स्थान पर उचित शब्दों का सफल प्रयोग किया है । इसलिए उनकी भाषा भावों के अनुकूल बन पड़ी है । इस प्रकार उनकी भाषा में भव्यता, विशदता और माधुर्य आदि गुणों का समावेश है । शब्दों को अपना अर्थ तथा अर्थों को शब्द देने की अद्भुत क्षमता युवाचार्य श्री में है । इसी कारण से उन्होंने गहरे और सूक्ष्म विषयों को भी सरल भाषा में प्रस्तुत किया है । शैली किसी भी लेखक के व्यक्तित्व का अंग होती है । गेटे के अनुसार शैली मस्तिष्क की प्रामाणिक प्रतिलिपि है । शैली हर व्यक्ति की भिन्न होती है । यह किसी से उधार मांगी या दी नहीं जा सकती । पश्चिमी आलोचकों ने शैली के छह गुण बताए हैं - १. स्वच्छता २. सरलता ३. स्पष्टता ४. शक्तिमत्ता ५. सुसंबद्धता ६. लयात्मकता । शैली के ये सभी गुण युवाचार्यश्री के वक्तृत्व एवं साहित्य में मिलते हैं । उनकी शैली की यह अद्भुत विशेषता है कि वे स्वयं गंभीर, नैतिक एवं सामाजिक प्रश्न उठाते हैं तथा खुलकर उनका समाधान भी करते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003141
Book TitleMahapragna Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1988
Total Pages252
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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