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प्रस्तुति
कथित धार्मिकों को उन्होंने नए सिरे से सोचने के लिए मजबूर किया है। केवल शास्त्र की दुहाई एवं क्रियाकांड करने वाले धार्मिकों को संबोधित करते हुए वे कहते हैं-'जब-जब शास्त्रीय-वाक्यों की दुहाई बढ़ती है और आत्मानुभूति घटती है, तब शास्त्र तेजस्वी और धर्म निस्तेज हो जाता है । जब आत्मानुभूति बढ़ती है और शास्त्रीय वाक्यों की दुहाई घटती है तब धर्म तेजस्वी और शास्त्र निस्तेज हो जाता है। यहीं से विवेक चेतना का जागरण होता है।'
शिक्षा के साथ उन्होंने जीवनविज्ञान की जो बात लोगों के समक्ष रखी है उससे शिक्षा जगत् में एक क्रांति हुई है । उनका कहना है कि केवल पुस्तकीय ज्ञान से सर्वांगीण व्यक्तित्व का विकास नहीं किया जा सकता । जब तक उसके साथ मानसिक एवं भावनात्मक विकास की बात नहीं जोड़ी जाएगी तब तक एकांगी विकास होगा और मानव पंगु बना रहेगा। उनकी दृष्टि में बौद्धिक विकास के साथ-साथ भावात्मक विकास बहुत जरूरी है। इसके होने पर ही मनुष्य पूर्ण हो सकता है।
दर्शन जैसे जटिल एवं नीरस विषय को उन्होंने जीवन के साथ जोड़कर उसे सरस और व्यावहारिक बना दिया है । केवल शुष्क तर्क द्वारा किसी सिद्धांत या विचार की सिद्धि उन्हें अभीष्ट नहीं है । अतः उन्होंने दर्शन को नया परिवेश दिया है । वे दार्शनिक की कितनी सुन्दर, सटीक एवं नवीन परिभाषा करते हैं.---'जो आत्मा के सान्निध्य में रहता है उससे अधिक कुशल दार्शनिक और कौन होगा ? तर्क भटकाता है, पहुंचाता नहीं । जो आत्मा की परिधि से बाहर की बात सोचता-समझता है, वह उलझता है, पहुंचता नहीं।' भाषा-शैली
भाषा विचार अभिव्यक्ति का सशक्त साधन है। युवाचार्य श्री ने अपने विचारों को प्रकट करने के लिए प्राकृत, संस्कृत और हिन्दी- इन तीन भाषाओं को माध्यम बनाया है। उनकी भाषा दो रूपों में मिलती है। जब वे जन सामान्य के बीच बोलते हैं तब उनकी भाषा अत्यंत सरल, सुबोध उदाहरण तथा कथाप्रधान होती है। किंतु जब वे स्वयं अपनी लेखनी से कुछ लिखते हैं, तब उनकी भाषा साहित्यिक एवं दार्शनिक बन जाती है । भाषा की द्विरूपता का एक कारण यह भी है कि उनके प्रवचन एक ओर जहां ग्रामीणों, श्रमिकों एवं सामान्य जनता के बीच होते हैं तो दूसरी ओर प्रबुद्ध शिक्षाविदों, राजनेताओं, वकीलों और डाक्टरों के बीच भी होते हैं । इसलिए पात्रभेद के अनुसार भाषा में अंतर आना स्वाभाविक है।
भाषा की यह द्विविधता कहीं भी उनके भावों को स्पष्ट करने में बाधक नहीं बनी है। उसका अर्थ-गाम्भीर्य और गरिमा वैसी ही बनी रहती है । अभिव्यक्ति का अन्तर भले ही आ जाता है।
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