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गद्य-पद्य काव्य
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युवाचार्यश्री प्रारंभ से ही दर्शन के विद्यार्थी रहे हैं। विभिन्न दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन कर आज वे प्रखर दार्शनिक के रूप में प्रस्तुत हुए हैं, पर आपने यथार्थ द्रष्टा बनकर ही दर्शन को समझा है, जाना है । आप मानते हैं कि जो आत्मा की सन्निधि में रहता है, आत्मा का साक्षात् करने का निरंतर प्रयत्न करता है, उससे बड़ा दार्शनिक या द्रष्टा कौन होगा ?
आपने शुष्क दार्शनिकता से ऊपर उठकर सरसता और मृदुता का जीवन जीया है। इसलिए दर्शन के ईश्वर जैसे जटिल विषय को भी कितना सरल, सहज और सजीव भाषा में प्रस्तुत किया है -----
कौन कहता है अरे, ईश्वर मिलेगा साधना से । मैं स्वयं वह, वह स्वयं मैं, भावमय आराधना से ॥ वह नहीं मुझसे विलग है, नहीं मैं भी विलग उससे ।
एक स्वर है एक लय है, त्वं अहं का भेद किससे ?।
कविता स्वयं के प्रमोद का बहुत बड़ा कारण बनती है और कवि और श्रोता को भाव-विभोर कर देती है।
प्रस्तुत संग्रह 'फूल और अंगारे' जीवन के दोनों रूपों का स्पर्श करता हुआ चलता है । जीवन में फूल सी कोमलता है तो अंगारों की दाहकता भी है । यह संग्रह व्यक्ति को दोनों रूपों से अवगत कराता है ।
नास्ति का अस्तित्व
यह एक लघु काव्य-कृति है। इसमें जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्वों--- आत्मा, परमात्मा, सम्यक्त्व, धर्म, अनेकान्त, स्याद्वाद आदि-आदि का काव्यात्मक भाषा में निरूपण है। 'विजययात्रा' ग्रन्थ का ही यह काव्य-भाग
है।
इन्द्रभूति गौतम ब्राह्मण थे। वे वेदों के पारगामी विद्वान् और व्याख्याता थे। उन्हें अपने अस्तित्व के विषय में संदेह था। वे महावीर के समवसरण में महावीर को पराजित करने आए, परन्तु स्वयं महावीर की शरण में चले गए । महावीर ने उनके मन को पढ़ा, संदेह को जाना और उनकी नौका, जो विविध प्रश्नों के प्रवाह में प्रवाहित हो रही थी, उसे संभाला, थामा और पार लगा दिया। महावीर ने उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य की व्याख्या की, पूर्वजन्म और पुनर्जन्म में विविध रूप धारण करने वाली आत्मा का अस्तित्व साधा और उसके मौलिक स्वरूप का अवबोध कराया। इस अवबोध से इन्द्रभूति गौतम के अस्ति से नास्ति की ओर जाने वाले चरण मुडे और वे अस्ति में स्थित हो गए । यह सब कुछ इस लघु काव्य कृति में है। इसका आलोक सूक्ष्म मनन और निदिध्यासन की अपेक्षा रखता है।
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