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________________ महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण परिभाषा । शांत सिंघु में शक्ति संगोपित रहती है और तरंगित सिंधु में वह अभिव्यक्त हो जाती है। अभिव्यंजना का आधा योग सिंधु की जलराशि का है और आधा पवन का।। _ 'भाव और अनुभाव' गद्यकाव्य की रचना है। इसमें युवाचार्य श्री का दार्शनिक रूप नहीं अपितु कवि हृदय अधिक बोल रहा है। __ इन गद्य काव्यों में कवि की अनुभूतियों की तीक्ष्णता पाठक के हृदय को बींधे बिना नहीं रहती। पाठक स्वयं उन्हीं पंक्तियों के सत्य में स्वयं को खोकर समाधान पा लेता है । यह इस पुस्तक के अध्येताओं से सुना गया है। गद्य काव्य छोटे हैं, किंतु मामिक हैं। अनेक वाक्य व्यक्ति (स्वयं) को सम्बोधित करके लिखे हैं, किंतु वे समष्टि को प्रभावित करते हैं । जैसे० आग्रह में मुझे रस है, पर आग्रही कहलाऊं, यह मुझे अच्छा नहीं लगता, इसलिए मैं आग्रह पर अनाग्रह का झोल चढ़ा देता हूं। ० रूढ़ि से मैं मुक्त नहीं हूं, पर रूढ़िवादी कहलाऊं, यह मुझे अच्छा नहीं लगता, इसलिए मैं रूढ़ि पर परिवर्तन का झोल चढ़ा देता हूं। युवक और वृद्ध का पृथक्करण करती हुई ये पंक्तियां कितनी सुन्दर बन पड़ी हैं.--'जहां उल्लास अठखेलियां करे वहां बुढ़ापा कैसे आये ? वह युवा भी बूढ़ा होता है, जिसमें उल्लास नहीं होता । पेंड़ो भलो न कोस कोचलना एक कोस का भी अच्छा नहीं हैं. यह जिसने कहा वह युवक नहीं था। युवक वह था, जिसने कहा-चरैवेति, चरैवेति-चलते चलो, चलते चलो।' इस प्रकार प्रस्तुत गद्य-काव्य व्यक्ति के लिए प्रेरणा-स्रोत और आनन्द की अनुभूति कराने का माध्यम है। फूल और अंगारे प्रस्तुत कृति युवाचार्यश्री द्वारा समय-समय पर लिखी गई कविताओं का संग्रह है । परिव्रजन जैन मुनि का स्वाभाविक क्रम है। वे एक ही स्थान पर नहीं रुकते । निरंतर परिव्रजन के कारण देश और काल की विविधता में वे सोचते-समझते हैं। उनकी अनुभूति में देश और काल की छाप रहती है। प्रस्तुत कृति की कविताएं विभिन्न क्षेत्रों में, भिन्न-भिन्न अवसरों पर लिखी गई हैं । उनमें अनुभूति की तीव्रता है और व्यक्ति को बहा ले जाने की क्षमता है। मानव से मानवता को अलग नहीं किया जा सकता, किंतु इस विसंगति को देखकर उनका कवि हृदय बोल उठा--- मानवता के लिए स्वयं जब मानव ही अभिशाप हो गया। दानवता का रंगमंच तब विश्रुत अपने आप हो गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003141
Book TitleMahapragna Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1988
Total Pages252
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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