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प्रेक्षा साहित्य
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समाधि शब्द ध्यान के अर्थ में तथा अन्यान्य अर्थों में भी प्रचुरता से प्राप्त है। इस कृति के माध्यम से हम समाधि का पूर्ण ज्ञान और उसकी प्रयोग-विधि को जान सकते हैं।
पुस्तक की महत्ता का अंकन करते हुए स्वयं आचार्य श्री तुलसी कहते हैं'अप्पाणं सरणं गच्छामि' महाप्रज्ञ की उस अनुभवपूत वाणी का संकलन है, जो आत्म-समाधि के क्षणों में उद्गीत हुई है। समाधि की खोज में निकले हुए यायावरों के लिए यह कभी नहीं चुकने वाला पाथेय है । इसका पठन, मनन और निदिध्यासन समाधान की नई दिशाओं का उद्घाटन करेगा और व्यक्ति को अपनी शरण में पहुंचा देगा, ऐसा विश्वास है ।'
अमूर्त चिन्तन मनुष्य का व्यक्तित्व व्यावहारिक और वास्तविक सचाइयों की संयुति है । व्यावहारिक सचाइयों का सम्बन्ध चिंतन से है और वास्तविक सचाइयों का सम्बन्ध अचिंतन से है। चिंतन पुद्गल-स.पेक्ष होता है। वह अमूर्त नहीं होता । जो पुद्गलातीत है वह है अमूर्त । आंतरिक सचाइयों का क्षेत्र परमार्थ है और वह चिंतन से परे है।
मूर्त और अमूर्त-दोनों का क्षेत्र बहुत बड़ा है। जो लोग इन्द्रिय चेतना के आधार पर जीते हैं वे मूर्त चिंतन को जितना महत्त्व देते हैं उतना अमूर्त चिंतन को नहीं । जो लोग परमार्थ सत्य को पाना चाहते है, उन्हें मूर्त से अमूर्त की ओर प्रस्थान करना होगा। यही है अंधकार से प्रकाश की ओर गमन और यही है मृत से अमृत या असत् से सत् की ओर जाना । परम अर्थ अर्थात् मोक्ष लक्ष्य है । वह अमूर्त द्वारा ही प्राप्तव्य है ।
__ प्रस्तुत पुस्तक में मुख्यत: परमार्थ के साधक घटकों का सांगोपांग वर्णन है । वे घटक दो हैं--अनुप्रेक्षा और भावना। मन की मूर्छा को तोड़ने वाले विषयों का अनुचिंतन करना अनुप्रेक्षा है। जिस विषय का बार-बार अनुचिंतन या अभ्यास किया जाता है, उससे मन प्रभावित होता है, संस्कारित होता है । इसलिए उस चिंतन या अभ्यास को भावना कहा जाता है।
अनु+प्रेक्षा शब्द से बना है अनुप्रेक्षा । अनु का अर्थ है बाद में और प्रेक्षा का अर्थ है—देखना, विचार करना । अनुप्रेक्षा का अर्थ है – ध्यान में जो देखा उसके परिणामों पर विचार करना । अनुप्रेक्षा की पद्धति स्वयं को स्वयं के द्वारा सुझाव देने की पद्धति है। इसे आज की भाषा में 'सेल्फ सजेशन' की पद्धति कहा जा सकता है ।
अनित्य, अशरण, एकत्व, संवर, मैत्री, प्रमोद, आदि सोलह भावनाएं हैं । इन के सतत अभ्यास से मन भावित होता है, अनुरंजित होता है और ये
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