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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
संस्कार इतने गहरे में चले जाते हैं कि प्राणी उस भावित सत्य से अनुप्राणित हो जाता है । वह उस सत्य को जीने लगता है और तब उसे सत्य का साक्षात्कार होता है । जो सत्य आज तक ज्ञानगत था, वह व्यवहार में उतरकर व्यक्ति को तमस् से प्रकाश की ओर प्रस्थित कर देता है ।
प्रस्तुत कृति में अनुप्रेक्षा और भावना — दोनों का सांगोपांग प्रतिशदन है । इसमें सतरह अनुप्रेक्षाएं और सोलह भावनाओं का विशद वर्णन है। एकएक अनुप्रेक्षा और एक-एक भावना को समझने के लिए साधक-बाधक तत्त्वों की पूरी जानकारी इसमें है ।
इस कृति के तीन अनुच्छेद हैं । पहले में सोलह भावनाओ का विशद दर्णन है और दूसरे में सतरह अनुप्रेक्षाओं का विवरण है । तीसरे में अनुप्रेक्षा के प्रयोग और पद्धति पर चर्चा है । कोई भी व्यक्ति इस पद्धति से अनुप्रेक्षाओं का अभ्यास कर लाभान्वित हो सकता है ।
लेखक ने मार्मिक ढंग से प्रस्तुत कृति का प्रतिपाद्य इन शब्दों में अभिव्यक्त किया है- 'जिन मनुष्यों ने तमस् से ज्योति की ओर प्रस्थान किया अथवा जो लोग उस दिशा में प्रस्थान करना चाहते है, उनके लिए मूर्त से अमूर्त की ओर जाना अनिवार्य है । उस अनिवार्यता को प्रस्तुत पुस्तक में आकार दिया गया है । जो लोग विभिन्न कारणों से मानसिक कठिनाइयां भोग रहे हैं, उनके लिए यह एक समाधान है और जो मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य बनाये रखना चाहते हैं, उनके लिए यह एक संजीवन है ।'
उत्तरदायी कौन ?
मनुष्य की दृष्टि बहिर्मुखी होती है । वह सदा वाहर को देखती है । इसीलिए आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला चलता है । व्यक्ति अपने दायित्व का अनुभव कम करता है । किंतु प्रत्येक अच्छे कार्य का दायित्व तो वह अपने ऊपर ओढ़ लेता है, पर बुरे कार्य का दायित्व सदा दूसरों पर लाद देता है । सफलता का यश स्वयं ले लेता है और असफलता का आरोप दूसरों पर लगा देता है ।
घटना घटती है । उसके प्रति उत्तरदायी अनेक घटक होते हैं । घटकों का विश्लेषण अनेक दृष्टियों से होता है । विद्वान् लेखक स्वयं अनेक कोणों को प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि व्यक्ति के आचरण और व्यवहार के प्रति उत्तरदायी हैं - आनुवंशिकता, वातावरण और स्थिति । रसायनशास्त्री कहते हैं कि व्यक्ति के आचरण के लिए उत्तरदायी हैं-- शरीरगत रसायन । ईश्वरवादी सारा उत्तरदायित्व ईश्वर पर और कर्मवादी धार्मिक व्यक्ति सारा उत्तरदायित्व कर्म पर थोपता है। कुछ दार्शनिक काल को, कुछ स्वभाव को
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