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व्यक्ति और विचार
उसे पढ़कर मनुष्य नए उच्छ्वास, नई प्रेरणा और नई शक्ति का अनुभव करता है।
पुरुषार्थ की इतिहास परम्परा में इतने बड़े पुरुषार्थी पुरुष का उदाहरण कम ही है, जो अपनी सुख-सुविधाओं को गौण कर जन-कल्याण के लिए जीवन जीए।
आचार्य श्री के आचार्यपद के पचासवें वर्ष के अवसर पर उनकी जीवन-गाथा से परिचित होना, नए आलोक की नई रश्मियों से परिचित होना है । इस परिचय का अर्थ होगा अपने आप से परिचित होना, अपनी समस्याओं से परिचित होना और उनका समाधान प्राप्त करना ।
लेखक आचार्य श्री के प्रति सदा से समर्पित रहे हैं। उनके मन में गुरु के प्रति कृतज्ञता का अनन्त पागर लहराता रहता है। उसी श्रद्धा और कृतज्ञता की अभिव्यक्ति इस पुस्तक में लेखक के इन शब्दों में झलक रही है --आचार्य श्री ने मुझे जो दिया वह बहुत ही गुरु है। उसकी तुलना में मेरा प्रयत्न बहुत ही लघु है। पर कहीं-कहीं लघु गुरु से प्रिय होता है। मैं मानता हूं मेरी यह लघुतम श्रद्धांजलि जनता को गुरु से कम प्रिय नहीं होगी । गुरु में लघु का समावेश कभी आश्चर्यजनक नहीं होता, पर लघु में गुरु का समावेश अवश्य ही आश्चर्यजनक होता है।
आचार्य श्री के वर्चस्वी, तेजस्वी और महान् जीवन को प्रस्तुत करने वाला यह ग्रंथ पठनीय और मननीय है । अमृत महोत्सव पर आचार्य श्री के व्यक्तित्व को नए संदर्भ में प्रस्तुत करने वाला यह अद्भुत ग्रंथ है जो आने वाली दिग्भ्रांत पीढी को नया मार्ग-दर्शन देता रहेगा।
प्राचार्य श्री तलसी : जीवन और दर्शन
वि० सं० २०१८ । आचार्य श्री तुलसी के आचार्य-काल के पचीस वर्ष पूरे हो रहे थे । उस उपलक्ष्य में धवल-समारोह का आयोजन किया गया। उस समय आचार्य श्री के जीवनवृत्त की मांग सामने आई। उसी मांग की पूर्ति के लिए युवाचार्यश्री ने इस कृति का प्रणयन किया। मनीषी लेखक ने श्रद्धा और तर्क का समन्वय करते हुए यह जीवनवृत्त लिखा है।
इस पुस्तक का प्राण क्या है ? लेखक ने अपनी प्रस्तुति में उसे इस प्रकार अभिव्यक्त किया है.--मैं आचार्यश्री को केवल श्रद्धा की दृष्टि से देखता तो उनकी जीवनगाथा के पृष्ठ दस से अधिक नहीं होते। उनमें मेरी भावना का व्यायाम पूर्ण हो जाता। यदि आचार्यश्री को मैं केवल तर्क की दृष्टि से देखता तो उनकी जीवन-गाथा सुदीर्घ हो जाती, पर उसमें चैतन्य नहीं रहता । श्रद्धा में विस्तार नहीं होता, पर चैतन्य होता है। तर्क में विस्तार होता है, पर
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