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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
व्यक्ति कभी भाग्य का निर्माण नहीं कर सकता।
लेखक की दृष्टि में दो समस्याएं हैं। एक ओर है अहंकार की समस्या और दूसरी ओर है हीन भावना की समस्या । कुछ विचारक कहते हैं कि 'मैं हूं अपना भाग्य-निर्माता.-ऐसा मानना अहंकार से ग्रस्त होना है। कुछ कहते हैं-मैं कुछ नहीं हूं, सब कुछ परमात्मा का कर्तृत्व है । परमात्मा ही भाग्य का निर्माता है—ऐसा मानना हीन भावना का द्योतक है।
जैन दर्शन ने अंहकार को भी नहीं स्वीकारा और हीन भावना को भी स्वीकृति नहीं दी। उसका प्रतिपादन है कि आत्मा ही सुख-दुःख की कर्ता है । आत्मा ही अपना मित्र है और आत्मा ही शत्रु है। दूसरे शब्दों में भाग्य का निर्माता आत्मा है, दूसरा कोई नहीं। व्यक्ति अपने ही अच्छे-बुरे कृत्यों से अच्छे-बुरे भाग्य का निर्माण करता है, इस दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति ही अपने भाग्य के प्रति उत्तरदायी है । यह भाग्यवाद की स्वीकृति नहीं है, किंतु 'भाग्य को बदला जा सकता है, इस बात की पुष्टि है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में २६ निबन्ध हैं। उनमें जीवन का उद्देश्य, विद्युत् का चमत्कार, चेतना का रूपान्तरण, कुंडलिनी जागरण का अभियान, स्वास्थ्य और प्रसन्नता आदि-आदि विषय भाग्य-निर्माण के घटक हैं । उनका अनुशीलन और घटक तत्त्वों का जीवन में प्रयोग, व्यक्ति के भाग्य को तराश सकता है।
जो व्यक्ति अपने उत्तरदायित्व का अनुभव करता है, अपने उद्देश्य के लिए जीता है, वह अपने भाग्य का निर्माण करता है। लोग भाग्य की निष्पत्ति के प्रति जितने लालायित हैं, उतने भाग्य के निर्माण के प्रति नहीं हैं। इसीलिए वे दीन-हीन जीवन व्यतीत करते हैं।
योग साधना भाग्य-निर्माण का घटक तत्त्व है। जिसकी भावधारा निर्मल होती है वह अच्छे भाग्य का निर्माण करता है।
प्रस्तुत ग्रन्थ का अनुशीलन और प्रयोग भाग्य-निर्माण की दिशा में एक शुभ प्रयत्न होगा।
जैन योग
__भारत की तीन मुख्य धर्म-परंपराएं हैं-- वैदिक, जैन और बौद्ध । तीनों की अपनी-अपनी साधना पद्धति है । जैन परंपरा की साधना पद्धति का नाम 'मुक्ति मार्ग' है। इसके तीन अंग हैं—सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र । यही जैन योग है।
आगम ग्रंथों में जैन साधना पद्धति का सूक्ष्म प्रतिपादन प्राप्त है। उनमें साधना के बीज मिलते हैं, किन्तु उनका विस्तार और उनकी प्रक्रियाएं प्राप्त नहीं हैं । इनका विलोप कब कैसे हुआ यह विचारणीय है।
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