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प्रेक्षा साहित्य
चौथे अध्याय में जैन परम्परा में ध्यान के ऐतिहासिक स्वरूप का वर्णन है। यह अध्याय केवल ऐतिहासिक दृष्टि से ही नहीं, अपितु अन्य दर्शनों के साथ तुलनात्मक दृष्टि से भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
मैं कुछ होना चाहता हूं प्रस्तुत कृति के प्रतिपाद्य को सटीक और रोचक भाषा में प्रस्तुत करते हुए स्वयं लेखक कहते हैं---मनु य में तीन दुर्बलताएं हैं -- क्रूरता, विषमता और स्वभाव की जटिलता । इन तीनों के परिष्कार के तीन सूत्र हैंकरुणा का विकास, समता का विकास और कषाय-नियमन का विकास ।
दूसरे शब्दों में क्रूरता समाप्त हो और करुणा जागे, विषमता समाप्त हो और समता जागे तथा आवेश समाप्त हो और सहिष्णुता जागे। यही 'मैं कुछ होना चाहता हूं' का प्रतिपाद्य है। जिसमें कम्णा जागती है, वह क्रूरता से छुटकारा पा लेता है। समता का जागरण विषमता की कलुषता को धो डालता है। आवेशों के समाप्त होने पर सहनशीलता बढ़ती है और तब स्वभाव की जटिलता समाप्त हो जाती है। वहीं से व्यक्ति कुछ होने की दिशा में प्रस्थान कर देता है।
आदमी हूं' से संतोष का अनुभव नहीं करता । वह 'कुछ होना' चाहता है । यह चाह अनन्तकाल से है और इसी चाह ने उसे आत्मा से परमात्मा तक पहुंचाया है । पशु में यह चाह नहीं होती। वह आज भी वैसे ही भार ढो रहा है, जैसे दस-बीस हजार वर्षों पहले ढोता था।
__ प्रस्तुत ग्रंथ में इच्छा, आहार, इन्द्रिय, श्वास, शरीर, वाणी और मन-इन सबके अनुशासन-सूत्र उपलब्ध हैं। यह अनुशासन 'कुछ होने' का साधक सूत्र है। इसका फलित है ऊर्ध्वगमन । इसमें १५ विषय प्रतिपाद्य हैं जो व्यक्ति-व्यक्ति को 'कुछ होने' का मार्गदर्शन देते हैं और महाप्रयाण के लिए प्रेरित करते हैं । स्वयं लेख का विश्वास भी इस भाषा में बोलता है कि इस पुस्तक को पढ़कर यदि पाठक 'होने' की दिशा में प्रस्थान करेंगे तो निश्चित ही वे 'होकर' रहेंगे ।
मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता
यदि हमें अपने कर्तृत्व को विकसित करना है और 'मैं हूं अपना भाग्यनिर्माता'- इसको सत्यापित करना है तो हमें निरंतर अप्रमाद या जागरूकता की साधना करनी होगी। जो प्रमत्त है, दूसरों के प्रभावों से घिरा हुआ है, उनसे प्रभावित होता है, उसका सूत्र है -- 'वे हैं मेरे भाग्य-निर्माता ---- ऐसा
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