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प्रेक्षा साहित्य
आज तक यह प्रश्न पूछा जाता रहा है कि क्या जैन परंपरा में योग मान्य है ? यदि मान्य है तो उसका प्रतिनिधि ग्रंथ कौनसा है ? जैन योग का स्वरूप क्या है ? इन प्रश्नों को समाहित करने का प्रयत्न किया गया है प्रस्तुत पुस्तक में। इसकी प्रस्तुति में युवाचार्य श्री ने जैन योग के विविध रूपों की चर्चा कालक्रम से की है। साथ ही साथ जैन योग के घटक तत्त्वों का विमर्श करते हुए वे लिखते हैं-जैन योग का प्राचीन रूप है मुक्तिमार्ग या संवर-सूत्र । इस पुस्तक में इस प्राचीन रूप को नए संन्दर्भो में प्रस्तुत किया गया है।
जैन योग के दो घटक तत्त्व हैं--संवर और तप । संवर पांच हैं--- सम्यक्त्व, व्रत, अप्रमाद, अकषाय और अयोग। साधना की ये ही पांच भूमिकाएं हैं। गुणस्थान इन्हीं का एक विकसित रूप है । ध्यान तपोयोग का एक महत्त्वपूर्ण अंग है ।..........."संक्षेप में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि प्रस्तुत पुस्तक के अनुशीलन से जैन योग के विस्मृत अध्यायों की स्मृति सहज हो सकेगी।
__इसके चार अध्याय हैं- १. साधना की पृष्ठभूमि २. साधना की भूमिकाएं ३. पद्धति और उपलब्धि ४. प्रयोग और परिणाम ।
पहले अध्याय में अपनी खोज, अहं-विसर्जन तथा क्रियावाद और प्रतिक्रियावाद के विषय में जानकारी दी गई है।
दूसरे अध्याय में अन्तर्दृष्टि के जागरण के उपायों और उनकी फल-परिणतियों की अवगति देने वाले पांच निबंध हैं, जो अन्तर्दष्टि के क्रमिक विकास की ओर संकेत करते हैं । अन्तर्दृष्टि जागने पर मैं शरीर नहीं हूं, शरीर मेरा नहीं है—यह विवेक चेतना जागती है, एक नई ज्योति मिलती है, सम्यग्दर्शन उपलब्ध होता है, ध्यान की गहराई बढ़ती है और समत्व का जागरण होता है।
तीसरे अध्याय में अन्तर्यात्रा, तपोयोग, भावनायोग, आभामंडल, चैतन्य-केन्द्र, तेजोलेश्या, (कुंडलिनी) तथा आंतरिक उपलब्धियों का परिज्ञान कराया गया है।
__ चौथे अध्याय में तीन प्रयोगों की विशेष चर्चा है.-अहं-विसर्जन, काय-विसर्जन, संकल्पशक्ति । इनके परिणामों की विशद चर्चा भी यहां प्राप्त है। इसके साथ दो महत्त्वपूर्ण परिशिष्ट भी संलग्न हैं--(१) महावीर के साधना-प्रयोग और (२) आचारांग में प्रेक्षा ध्यान के तत्त्व ।
यह कृति जैन योग या जैन साधना पद्धति को समझने का एकमात्र माध्यम है। प्राचीन कृतियां संस्कृत-प्राकृत में हैं, अतः उनको समझ पाना हर एक के लिए संभव नहीं है। यह पुस्तक प्रत्येक व्यक्ति को जैन योग का सरलता से ज्ञान करा सकती है।
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