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महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
अनेकान्त है तीसरा नेत्र
जैन दर्शन के आचार्यों ने कहा- प्रत्येक पदार्थ उत्पाद, व्यय और व्य-इस त्रिपदी से युक्त है । कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है जो सर्वथा नित्य हो या सर्वथा अनित्य हो । नित्य को देखने वाली आंख अलग होती है और अनित्य को देखने वाली आंख अलग होती है । इन दोनों आंखों से वस्तु का एक-एक पर्याय दृष्ट होता है । यह पूर्ण सचाई नहीं है । तीसरी आंख से देखने पर पूर्ण सचाई सामने आती है । यह तीसरी आंख है -- अनेकान्त | इसके खुल जाने पर कोई भी पदार्थ नित्य या अनित्य नहीं, नित्यानित्य प्रतीत होने लगता है । यही शाश्वत सचाई है । केवल नित्य भी मिथ्या है, केवल अनित्य भी मिथ्या है, सच है नित्य-अनित्य का समवेत रूप । अनेकान्त के बारे में अपनी नई धारणा प्रस्तुत करते हुए युवाचार्य प्रवर कहते हैं- 'आदमी की दो आंखें हैं। एक है प्रियता की आंख और दूसरी है अप्रियता की आंख । इन दोनों से सचाई हस्तगत नहीं होती । तीसरी आंख है अनेकान्त की। इ समता फलित होती है । यही वास्तविक है ।
अनेकान्त केवल तत्त्वदर्शन ही नहीं है, यह जीवन-दर्शन भी है । यह साधना का महान् सूत्र है ।
अनेकान्त तीसरा नेत्र है, इसलिए कि वह निश्चय की आंख से देखता
है ।
वस्तु सत्य की दृष्टि से तीसरा नेत्र है- ध्रौव्य | आचार की दृष्टि से तीसरा नेत्र है - समता । विचार की दृष्टि से तीसरा नेत्र है - तटस्थता ।
योग की दृष्टि से तीसरा नेत्र (थर्ड आई ) है भृकुटि के मध्य । इसे आज्ञाचक्र भी कहा जाता है । इसका प्रस्तुत कृति में विस्तार नहीं है, किन्तु अनेकान्त के परिपार्श्व में तीसरे नेत्र को उजागर करने का जीवन्त दृष्टिकोण इसमें प्रतिपादित हुआ है ।
अनेकान्तदृष्टि के सैद्धान्तिक स्वरूप से बहुत सारे लोग परिचित हैं, किन्तु उसके व्यावहारिक पहलू से लोग अनभिज्ञ हैं । इसलिए यह महान् दृष्टि सैद्धान्तिक मात्र रह गई । जीवनगत इसका उपयोग भुला दिया गया। इस सिद्धान्त के द्वारा अनाग्रह का विकास किया जा सकता है, विवादों को सुलझाया जा सकता है तथा संघर्ष की चिनगारियों को शांत किया जा सकता
है ।
प्रस्तुत कृति में अनेकांत के व्यावहारिक एवं सैद्धान्तिक पहलुओं पर विस्तार से चिन्तन हुआ है और किन-किन उपायों से इसे जीया जा सकता है, इसके उपाय और प्रयोग भी निर्दिष्ट हैं ।
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