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________________ महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण मन के जीते जीत 'मन के जीते जीत' पुस्तक का नाम जितना आकर्षक है, उतनी ही आकर्षक शैली में विषय का प्रतिपादन हुआ है । प्रस्तुति में मन का विश्लेषण करते हुए लेखक कहते हैं-मन को जीतना जितना आसान है, उतना ही कठिन है। आसान इसलिए कि वह हमारी आन्तरिक चेतना का विनम्र आज्ञाकारी कर्मकर है । उसको जीतना तव कठिन हो जाता है जब हम उसी को सर्वोच्च चेतना के रूप में स्वीकृति दे देते हैं । उसमें उसका कोई दोष नहीं है। यह हमारे ही अज्ञान का फलित है। हम मन को जीतने का अभियान प्रारंभ करें उससे पहले अपने अज्ञान की तमिस्रा को निरस्त करें। प्रस्तुत पुस्तक में अपनी भ्रांति के आवरण को दूर करने की दिशाएं निदर्शित हैं। हर आदमी मन को वश में करना चाहता है, किंतु सही दिशादर्शन के अभाव में परिस्थिति के आते ही वह मन के सामने हार जाता है । प्रस्तुत पुस्तक में मन के साथ युद्ध की एक अभिनव प्रक्रिया बताई गई है। लेखक का अभिमत है कि 'निश्चयपूर्वक कोई नहीं कह सकता कि मन से लड़ने वाला मन को जीत लेता है। मन की उपेक्षा करने वाला, उसे देखने वाला तटस्थ होता है, मध्यस्थ होता है । उपेक्षा की बात कितनी बड़ी होती है, उसे कोई झेल नहीं सकता। मन भी उसे नहीं झेल सकता और वह किसी लड़ाई के बिना अपने आप पराजित हो जाता है।' इस कृति में २८ निबंध हैं । ये सभी विजय-अभियान के प्रेरक हैं। इनमें व्यावहारिक धरातल से हटकर कुछ नवीन तथ्यों की भी प्रस्तुति हुई है। जैसे-करने, बोलने तथा सोचने का मूल्य सभी जानते हैं किंतु इसमें न करने, न बोलने तथा न सोचने के मूल्य से पाठक को अवगत कराया गया है । इसको पढ़ने का अर्थ है मन को जीतना ।। इस ग्रन्थ के आठ संस्करण हो चुके हैं जो इसकी लोकप्रियता और मनुष्य की मन को जीतने की तमन्ना के साक्ष्य हैं। मन को जीतने की बात सबको प्रिय है। मनुष्य हारना नहीं चाहता । वह हर क्षेत्र में विजयी बनने को उत्सुक है। उसी उत्सुकता की पूर्ति का पथ उपलब्ध है इन विभिन्न निबंधों में । यही इस कृति की प्रियता का रहस्य है। एकला चलो रे पुलिस एकेडेमी, जयपुर के माध्यम से पुलिसकर्मियों के बीच एक शिविर आयोजित हुआ। उस में पुलिस के जवानों से लेकर इन्स्पेक्टर ग्रेड तक के अधिकारियों ने भाग लिया। यह शिविर पन्द्रह दिन तक चला। उसमें जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003141
Book TitleMahapragna Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1988
Total Pages252
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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