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दर्शन और सिद्धान्त
मनन और मूल्यांकन
यह सतरह प्रवचनों का लघु संग्रह है। इसमें प्रथम पांच प्रवचन आचारांग आगम के आधार पर अहिंसा के विभिन्न पहलुओं को विवेचित करने वाले हैं। आचारांग का प्रथम अध्ययन है-शस्त्र परिज्ञा। इसमें हिंसा और अहिंसा का विशद विवेचन प्राप्त है। युवाचार्य श्री ने इसी एक अध्ययन को आधार बनाकर पांच प्रवचन दिए जो इन शीर्षकों में निबद्ध हैं(१) आचार-संहिता की पृष्ठभूमि (२) संबोधि और अहिंसा (३) आचार का पहला सूत्र (४) अहिंसा और अनेकान्त (५) आत्मतुला और मानसिक अहिंसा । इसके पश्चात् सूत्रकृतांग आगम के आधार पर आचार-शास्त्र के आधारभूत तत्त्वों की चर्चा दो प्रवचनों में है। दो प्रवचन पातंजल योगदर्शन से सम्बन्धित हैं । पातंजल योगदर्शन का तीसरा पाद है-विभूतिपाद । इसकी विस्तार से इसमें चर्चा है । नमस्कार महामंत्र से सम्बन्धित भी दो प्रवचन हैं । पहला है- मंगलवाद : नमस्कार महामंत्र । दूसरा है-नमस्कार महामंत्र का मूल स्रोत और कर्ता। इन दोनों निबंधों में महामंत्र नमस्कार पर विस्तार से चर्चा है। इसी प्रकार प्रज्ञा और प्रज्ञ, अतीन्द्रिय चेतना, जैन साहित्य में चैतन्य केन्द्र, जैन साहित्य के आलोक में गीता का अध्ययन, आत्मा का अस्तित्त्व, आदि प्रवचन भी तद्-तद् विषय को सांगोपांगरूप में प्रस्तुत करते हैं।
लेखक के शब्दों में—'मनन और मूल्यांकन में अतीत के साथ संपर्क स्थापित करने का एक विनम्र आयास है।' तुलनात्मक दृष्टिकोण से दिए गए ये प्रवचन व्यक्ति को तथ्यों का मनन करने और उनका सही-सही मूल्यांकन करने के लिए प्रेरित करते हैं।
कर्मवाद
यूवाचार्य श्री ने अनेक अवसरों पर कर्मवाद के विषय में अपने विचार व्यक्त किए हैं। वे सारे विचार विभिन्न ग्रंथों में समय-समय पर आते रहे हैं । प्रस्तुत कृति कर्मवाद विषयक सारी सामग्री के एकत्रीकरण का परिणाम है। एक ही स्थान पर सारी सामग्री आ जाने के कारण 'कर्मवाद' जैसा जटिल विषय भी कुछ सरल बना है । लोगों ने इसके माध्यम से जैन परम्परा सम्मत 'कर्मवाद' सम्बन्धी अपनी अवधारणाओं का परिमार्जन किया है।
जैन परम्परा प्रत्येक घटना के घटित होने में काल, स्वभाव, नियति, कर्म, पुरुषार्थ-इन पांच घटकों का समवेत अस्तित्त्व स्वीकार करती है। वह न कर्म की और न पुरुषार्थ की सार्वभौम सत्ता स्वीकारती है। सबका अपनाअपना उपयोग है, यह उसका अभ्युपगम है।
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