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दर्शन और सिद्धान्त
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जा सकता है—आध्यात्मिक और बौद्धिक । आध्यात्मिक दर्शन स्व और वस्तु के साक्षात्कार या प्रत्यक्षीकरण की दिशा में गतिशील रहे हैं । बौद्धिक दर्शन स्व और वस्तु से सम्बन्धित समस्याओं को बुद्धि से सुलझाते रहे हैं । आध्यात्मिक दर्शनों ने देखने पर अधिक बल दिया, इसलिए वे तर्क-परम्परा का सूत्रपात नहीं कर सके । बौद्धिक दर्शनों का अध्यात्म के प्रति अपेक्षाकृत कम आकर्षण रहा, इसलिए उनका ध्यान तर्कशास्त्र के विकास की ओर अधिक आकर्षित हुआ ।
जैन दर्शन में तर्क का विकास बौद्धों के बाद हुआ । अन्यान्य दार्शनिकों की श्रेणी में टिके रहने की इच्छा से तर्क - शास्त्र के अनेक ग्रंथ जैन परंपरा में रचे गए और समय-समय पर इस तर्कवाद के आधार पर अनेक जयपराजयात्मक वाद हुए । क्वचित् जैन आचार्य जीते और क्वचित् पराजित भी हुए । प्रस्तुत ग्रंथ इसी तर्क- परम्परा का एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है । लेखक स्वयं इस बात को मानते हैं कि जैनों में ऐसी कोई स्वतंत्र तर्क- परम्परा स्थापित नहीं हो सकी, फलतः अध्यात्म और तर्क का मिलाजुला प्रयत्न चलता रहा । इस भूमिका में जैन दर्शन के तर्कशास्त्रीय सूत्रपात और विकास का मूल्यांकन किया जा सकता है ।
राजस्थान विश्वविद्यालय में स्थापित 'जैन विद्या अनुशीलन केन्द्र' के अन्तर्गत 'जैन न्याय' विषय पर एक भाषणमाला आयोजित हुई । उसमें अनेक विद्यार्थियों, प्रोफेसरों के साथ-साथ राजस्थान विश्वविद्यालय के कुलपति श्री गोविन्दचन्द्र पांडे और कला संकाय के डीन श्री दयाकृष्ण आदि सम्मिलित थे । उन्हीं भाषणों का संकलन प्रस्तुत पुस्तक में हुआ है ।
प्रस्तुत ग्रंथ के नौ मुख्य अध्याय ये हैं
१. आगम युग का जैन न्याय
२. दर्शन युग का जैन न्याय ३. अनेकान्त व्यवस्था के सूत्र ४. नयवाद : अनन्त पर्याय, अनन्त दृष्टिकोण |
५. स्याद्वाद और सप्तभंगी न्याय
६. प्रमाण व्यवस्था
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७. अनुमान
८. अविनाभाव
६. भारतीय प्रमाणशास्त्र के विकास में जैन परम्परा का योगदान ।
इन अध्यायों के साथ-साथ इसमें पांच परिशिष्ट भी हैं—
१. प्रमाणों के प्रकार, २ . व्यक्ति, समय और न्याय - रचना, ३. न्यायग्रंथ के प्रणेताओं का संक्षिप्त जीवनवृत्त, ४. पारिभाषिक शब्द-विवरण, ५. प्रयुक्तग्रंथ सूची ।
तर्कशास्त्र के अध्येता विद्यार्थी के लिए यह ग्रंथ अत्यन्त उपयोगी और पठनीय है । यह राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर से प्रकाशित हुआ है ।
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