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________________ महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण विषय पर विस्तृत प्रकाश डाला है । जैन दर्शन सम्मत पांच प्रकार के ज्ञानोंमति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यव और केवल पर विशद विवेचन इस खंड में प्राप्त है । प्रथम दो इन्द्रिय ज्ञान हैं और शेष तीन अतीन्द्रिय ज्ञान । इन सब भेदप्रभेदों का वर्णन इसमें प्राप्त है। मतिज्ञान विषयक चर्चा मनोविज्ञान के संदर्भ में भी की गई है। इसके आधार पर और आगे खोज की जा सकती है। ___ इसके दूसरे उपविभाग में मनोविज्ञान की चर्चा है। जैन मनोविज्ञान आत्मा, कर्म और नो-कर्म---- इस त्रिपदी पर आधृत है । इसके अन्तर्गत मन के विषय में अनेक पहलुओं से चर्चा प्राप्त है । 'मन क्या है ?' शरीर और मन का पारस्परिक सम्बन्ध, इन्द्रिय और मन का ज्ञानक्रम, मन इन्द्रिय है या नहीं ? मन की कार्य-क्षमता-ये विषय यहां चचित हैं। इनके साथ-साथ दस संज्ञाएं, कषाय, नो-कषाय, स्वप्न विज्ञान, लेश्या, ध्यान आदि विषय भी प्रतिपादित हैं। प्रस्तुत कृति का पांचवां खंड है--प्रमाण-मीमांसा। इसके आट उपविभाग हैं--१. जैन न्याय २. प्रमाण मीमांसा ३. प्रत्यक्ष प्रमाण ४. परोक्ष प्रमाण ५. आगम प्रमाण ६. निक्षेप ७. लक्षण ८. कार्यकारणवाद । इस प्रकार पांच मुख्य खंडों में विभाजित यह बृहद् ग्रन्थ जैनधर्मदर्शन का पूरा अवबोध देता है। प्रस्तुत ग्रन्थ की समीक्षा करते हुए अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विद्वान् डाक्टर नथमल टाटिया ने लिखा है---प्रस्तुत ग्रन्थ के विद्वान् लेखक की मनीषा अपने विविधरूपों में ग्रंथ में सर्वत्र प्रगट हुई है। प्राचीन दर्शनों में अनेक लोक-हितकर सिद्धांत भरे पड़े हैं। परन्तु उनका आधुनिक चिन्तन-धाराओं के सन्दर्भ में विवेचन प्राय: उपेक्षित है। इस अवहेलना का निराकरण प्रस्तुत ग्रंथ में प्रचुर-मात्रा में उपलब्ध है। जैन विद्या के क्षेत्र में यह ग्रंथ एक विशिष्ट रचना के रूप में स्वीकृत हो चुका है और अनेक विद्वानों ने इसकी गम्भीरता का मूल्यांकन किया है । यह पुस्तक राजस्थान विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर दर्शनशास्त्र के जैन विद्या पाठ्यक्रम में सहायक ग्रन्थ के रूप में निर्दिष्ट है। स्वयं लेखक ने थोड़े शब्दों में इस ग्रंथ की उपयोगिता को इस प्रकार प्रगट किया है -- 'जैन दर्शन के अध्ययन का अर्थ है सब दर्शनों का अध्ययन और सब दर्शनों के सापेक्ष अध्ययन का अर्थ है जैन दर्शन का अध्ययन। इस उभययोगी दृष्टि से किए जाने वाले अध्ययन के लिए यह ग्रंथ प्रस्तुत है ।' जैन न्याय का विकास इस पुस्तक की प्रस्तुति का प्रारम्भ लेखक इन शब्दों में करते हैं—जैन दर्शन आध्यात्मिक परम्परा का दर्शन है। सब दर्शनों को दो श्रेणियों में विभक्त किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003141
Book TitleMahapragna Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1988
Total Pages252
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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