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व्यक्ति और विचार
आचार्य भिक्ष ने तेरापंथ संघ को अध्यात्म और चारित्र विशुद्धि का आधार दिया, शैथल्य के साथ कभी समझौता नहीं किया। यही कारण है कि आज भी तेरापंथ की त्रिपदी सभी के लिए प्रेरणा-स्रोत बन रही है ।
आज तेरापंथ समाज में यह पुस्तक बहुपठित है। इसके ८-१० संस्करण हो चुके हैं । आदमी इसको पुन: पुन: पढ़ने में उत्साहित होता है ।
उन्नीसवीं सदी का नया आविष्कार
तेरापंथ के आद्य प्रवर्तक आचार्य भिक्षु विक्रम की १६ वी सदी के महान् धर्माचार्य थे। उन्होंने धर्म के क्षेत्र में विचार क्रान्ति की। उस समय धन से धर्म अजित करने की बात समाज-मान्य हो गई थी। अनेक धर्माचार्य अपनी आंकाक्षा की पूर्ति के लिए धन का संग्रह करने के लिए धन से धर्म होता है, पुण्य होता है, यह प्रतिपादन कर जनता को धन-व्यय की और अग्रसर कर रहे थे। धर्म और पुण्य प्रलोभन पैदा करते हैं और व्यक्ति इस प्रलोभन में वह सब कुछ कर लेता है, जो गुरु चाहते हैं । आचार्य भिक्षु को अध्यात्मवाद के साथ धन-व्यय की स्थिति उपयुक्त नहीं लगी। विचारों की उथल-पुथल ने उन्हें अन्वेषण करने की ओर प्रस्थित किया और गंभीर चिन्तन, मनन और सर्वतोमुखी अन्वेषण के पश्चात् आचार्य भिक्षु ने कहा- धन-व्यय से की जाने वाली सार्वजनिक व्यवस्थाएं सामाजिक या राष्ट्रीय कार्य हैं। आध्यात्मिक धर्म से इनका कोई संबंध नहीं। धन से धर्म नहीं होता। धार्मिक जगत् के लिए उन्नीसवीं सदी का यह सबसे बड़ा और नूतन आविष्कार था ।
प्रस्तुत कृति में इसी तथ्य के प्रतिपादन में इसके पार्श्ववर्ती अनेक पहलुओं पर विचार किया गया है। पूंजी और धर्म, दया दान, आदि विषयों पर भी आचार्य भिक्षु के संक्षिप्त किन्तु मौलिक विचार इसमें संगृहित हैं।
प्रज्ञापुरुष जयाचार्य
श्रीमज्जयाचार्य तेरापंथ धर्म-संघ की आचार्य परम्परा के चौथे आचार्य थे। आप वि. सं. १९०८ में माघ सुक्ला पूर्णिमा को पदासीन हुए और तीस वर्षों तक आचार्य का उत्तरदायित्व निभाते हुए तेरापंथ को बहुत आयामों में विकसित किया।
__ वे एक कुशल अनुशास्ता और व्यवस्था-संचालक थे। उन्होंने तेरापंथ में अनेक व्यवस्थाओं का प्रचलन किया। आज का तेरापंथ आपकी दूरदर्शिता का ही परिणाम है, उसी का प्रतिबिम्ब है।
श्रीमज्जयाचार्य का जीवन बहुरंगी है। उसके अनेक कोण हैं । वे कवि,
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