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प्रस्तुति
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और कर्म समरेखा पर मिलते हैं तभी युग-प्रवर्तक साहित्यकार का जन्म होता है । युवाचार्यश्री के साहित्य में भावना, ज्ञान और कर्म की त्रिपदी का सामंजस्यपूर्ण प्रयोग है । हजारीप्रसाद द्विवेदी साहित्यकार की विशेषता इन शब्दों में व्यक्त करते हैं.--'सच्चा साहित्यकार वह है जो दुःख, अवसाद और कष्ट के भीतर से उस मनुष्य की सृष्टि करे जो पशुओं से विशेष है, जो परिस्थितियों से जूझकर अपना रास्ता साफ कर सके तथा जो सत्य और कर्तव्यनिष्ठा के लिए किसी की स्तुति या निंदा की बिल्कुल परवाह न करे।' युवाचार्यश्री के साहित्य ने मानव-मानव में यह सामर्थ्य पैदा किया है कि वह जीवन-मरण, हर्ष-शोक, निंदा-प्रशंसा, लाभ-अलाभ आदि सभी द्वन्द्वों में सम रह सके, संतुलन बनाए रख सके और अपनी कर्तव्यनिष्ठा से तनिक भी विचलित न हो।
महावीर प्रसाद द्विवेदी के विचारों में महान् सहानुभूति से परिपूर्ण हृदय और अनासक्तिजन्य मस्ती ही साहित्यकार को बड़ी रचना करने की शक्ति देती है। ये दोनों विशेषताएं युवाचार्यश्री के हर प्रवचन एवं निबंध में दृग्गोचर होती हैं।
____ भारत के मूर्धन्य कवि रामधारी सिंह दिनकर ने युवाचार्यश्री के विश्वजनीन साहित्य का पारायण कर कहा---'युवाचार्यश्री भारत के दूसरे विवेकानंद हैं । इस एक वाक्य में उन्होंने हजार पृष्ठों के हजार ग्रंथों में कही जाने वाली बात कह दी है। साहित्य का उद्देश्य
युवाचार्य श्री के करुण मन से साहित्य का जो संगीत प्रस्फुटित हुआ वह जीवन के सर्वांगीण पहलुओं को छूता हुआ मानव मन की वीणा को झंकृत करता है। वे साहित्य-सर्जन को साधना का अंग मानकर चलते हैं, इसलिए बिना प्रयोजन वे न बोलते हैं और न लिखते हैं । वे तब बोलते हैं या लिखते हैं जब उसकी सार्थकता या प्रयोजनीयता उन्हें प्रतीत होती है।
____आचार्य श्री तुलसी साहित्य सृजन का उद्देश्य इन शब्दों में व्यक्त करते हैं--- 'साहित्य का सही लक्ष्य है --आत्मसाधना की ज्योति से जाज्वल्यमान वाणी द्वारा जन-जन को प्रकाश देना ।' प्रसिद्ध साहित्यकार नवीनजी का अभिमत है --'मेरे निकट सत्साहित्य का एक ही मापदंड है। वह यह कि किस सीमा तक कोई साहित्यिक कृति मानव को उच्चतर, सुंदरतम, परिष्कृत एवं समर्थ बनाती है।'
युवाचार्य श्री का हर प्रवचन तथा हर वाक्य एक सार्थकता लिए होता है। उनकी साहित्य रचना के निम्न उद्देश्य हैं
० व्यक्ति-व्यक्ति का निर्माण एवं सुखी समाज की संरचना करना ।
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