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जैनदर्शन में तत्त्व-मीमांसा
यह युवाचार्यश्री की विशिष्ट कृति 'जैन दर्शन : मनन और मीमांसा' के 'दूसरे खंड ' 'दर्शन' का संक्षिप्त रूपान्तर है । इसके नौ अध्याय हैं
१. दर्शन
२. विश्व - दर्शन ३. लोक
४. विश्व विकास
महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
६. आत्मवाद ७. कर्मवाद
८. स्याद्वाद
६. नयवाद
५. जीवन-निर्माण
इन नौ अध्यायों में जैन दर्शन का समावेश हो जाता है । इनका संक्षिप्त किन्तु उपयोगी विवेचन प्रस्तुत कृति में हुआ है । इसे भी 'जैन विद्या' के पाठ्यक्रम में पाठ्य-पुस्तक के रूप में मान्यता प्राप्त है ।
जैन धर्म - दर्शन को समझने के लिए यह एक अनिवार्य कृति है । व्यक्ति इसके आधार पर जैन दर्शन के तत्त्ववाद को आसानी से समझ सकता है । इसमें स्थान-स्थान पर आधुनिक वैज्ञानिक मान्यताओं को भी तुलनात्मक ढंग से प्रस्तुत किया गया है । स्याद्वाद के विषय में उठने वाले आधुनिक विचारकों के प्रश्नों का समाधान भी उल्लिखित है । जैन तत्त्ववाद की जानकारी के लिए यह पुस्तक बहुत उपयोगी है ।
जैनदर्शन में प्रमाण-मीमांसा
प्रस्तुत ग्रन्थ में जैन न्याय और जैन प्रमाणशास्त्र को सहज-सरल भाषा में प्रस्तुत किया गया है । प्रमाणशास्त्र स्वयं एक जटिल और दुरूह विषय है । इसको हृदयंगम कर पाना बहुत कठिन होता है, क्योंकि इसमें भाषा की जटिलता और परिभाषाओं का जाल बहुत सघन होता है ।
प्रस्तुत कृति में जैन न्याय, प्रमाण, स्याद्वाद, नयवाद, सप्तभंगी, निक्षेप पद्धति, कार्य-कारणवाद आदि जटिल विषयों का सांगोपांग किन्तु संक्षिप्त विवेचन है । इसकी भाषा प्राञ्जल और प्रसादपूर्ण है । हिन्दी भाषा-भाषी लोगों को इस दुरूह विषय को समझने में कोई कठिनाई नहीं होगी ।
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अर्थ का सम्यक् निश्चय करना न्याय -शास्त्र का कार्य है । प्रत्येक दर्शन ने अपने-अपने ढंग से न्यायशास्त्र और प्रमाणशास्त्र का प्रणयन किया है । जैन न्यायशास्त्र का उद्गम विक्रमपूर्व पांचवीं शताब्दी माना जाता है । यह बीज रूप में आगमों में सुरक्षित है । उस समय इसका विकास नहीं हुआ था । मध्यकाल में इसका विस्तार हुआ और अनेक न्याय -ग्रन्थों की रचना हुई ।
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