________________
दर्शन और सिद्धान्त
प्रस्तुत पुस्तक में इस त्रिपदी का सांगोपांग वर्णन है। प्रत्येक अंग को विस्तार से समझाया गया है । साथ-ही-साथ साधना-पद्धति, श्रमण-संस्कृति की दो धाराएं-जैन और बौद्ध, जैन दर्शन और वर्तमान युग-इन विषयों पर भी गहरी चर्चा है। इसमें गुणस्थान, समिति, गुप्ति, मोक्ष, ईश्वर आदि-आदि छोटे-बड़े सभी विषय चचित हैं तथा आचार के साधक-बाधक तत्त्वों का भी विस्तार से प्रतिपादन है।
___ जैन आचार पद्धति के अवबोध के लिए यह पुस्तक एक अनिवार्य घटक है।
जैनदर्शन में ज्ञान-मीमांसा
संसार में तीन प्रकार के पदार्थ हैं-हेय, ज्ञेय और उपादेय। इनको जानने का साधन है ज्ञान । ज्ञेय और ज्ञान दोनों स्वतन्त्र हैं। ज्ञेय हैं----द्रव्य, गुण और पर्याय । ज्ञान है आत्मा का गुण । न तो ज्ञेय से ज्ञान उत्पन्न होता है और न ज्ञान से ज्ञेय उत्पन्न होता है। हमारा ज्ञान जाने या न जाने फिर भी पदार्थ का स्वतन्त्र अस्तित्व है।
जैन दर्शन में पांच ज्ञान माने हैं--मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान । प्रथम दो इन्द्रिय-ज्ञान हैं और शेष तीन अतीन्द्रिय-ज्ञान हैं। इनके भेद-प्रभेदों तथा कार्यक्षेत्र का जितना सूक्ष्म विवेचन जैन दर्शन में प्राप्त है, वह अन्यत्र दुर्लभ है।
प्रस्तुत कृति युवाचार्यश्री की बृहद् कृति 'जैन दर्शन : मनन और मीमांसा' का एक खंड है । इसके मुख्यतः दो अध्याय हैं । पहला है.---ज्ञान और दूसरा है--- मनोविज्ञान । प्रथम अध्याय में ज्ञान की उत्पत्ति की प्रक्रिया, ज्ञान के विभाग, मन का लक्षण और कार्य तथा मति, श्रुत आदि पांचों ज्ञानों के विषय में चर्चा है। दूसरे अध्याय में जैन मनोविज्ञान के स्वरूप और आधार की विस्तार से चर्चा है। इसमें मन के विभिन्न पहलुओं का विश्लेषण इन शीर्षकों के अन्तर्गत हुआ है-मन क्या है ? शरीर और मन का पारस्परिक सम्बन्ध, इन्द्रिय और मन का ज्ञान-क्रम, मन इन्द्रिय है या नहीं ? इन्द्रिय और मन का विभाग-क्रम तथा प्राप्ति-क्रम, मन की व्यापकता आदि-आदि।
यह कृति जैनदर्शन सम्मत ज्ञान-मीमांसा को सहज सुबोध भाषा में समझने का अनुपम साधन है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org