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दर्शन और साहित्य
प्रस्तुत ग्रंथ जैन न्याय की ऐतिहासिकता तथा उत्तरवर्ती विकास का सप्रमाण विवरण प्रस्तुत करता है ।
जीव-अजीव
भगवान महावीर कहते हैं...जो जीव को नहीं जानता, अजीव को नहीं जानता, जीव-अजीव को नहीं जानता, वह संयम को कैसे जान पाएगा? वह संयम को नहीं जान सकता। वह अहिंसा के मर्म को नहीं जान पाता । इसलिए अहिंसा की साधना के लिए जीव और अजीव, उनके भेद-प्रभेद, उत्पत्ति-भाव का पूरा ज्ञान होना अनिवार्य है। जैन दर्शन में जीव-अजीव का विशद वर्णन प्राप्त है : भिन्न-भिन्न दृष्टियों से इसका प्रतिपादन हुआ है।
प्रस्तुत ग्रंथ जीव-अजीव की कुछेक दृष्टियों से व्याख्या प्रस्तुत करता है । अन्यान्य आगमों में इनका विस्तार से वर्णन प्राप्त है, पर यह छोटा-सा थोकड़ा (स्तबक) होने के कारण, इसमें संक्षिप्त व्याख्या है, केवल अंगुलीनिर्देश मात्र है । यह थोकड़ा जैन परंपरा में बहुत प्रचलित रहा है और हजारों नर-नारी इसको कटस्थ रखते हैं । एक प्रकार से यह जैन सिद्धांतों की मूल कुंजी: । यह पचीस बोल' के नाम से प्रसिद्ध है। प्रस्तुत पुस्तक में पचीस बोलों की संक्षेप में व्याख्या है। जैसे - जीव की उत्पत्ति के चार प्रमुख स्थानों का निर्देश, इन्द्रियों के आधार पर जीवों का वर्गीकरण, प्राण, पर्याप्ति, यांग, आत्म-विकास की चौदह भूमिकाएं.--गुणस्थान, कर्म, लेश्या, चारित्र आदिआदि का उल्लेख है । यथार्थ में इन पचीस बोलों में सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र का ही निरूपण है। उनके परिपाश्र्व में उनके साधकबाधक तत्त्वों का भी प्रतिपादन हुआ है। यह ग्रंथ जैन दर्शन और जैन सिद्धांत के अध्येताओं के लिए प्राथमिक आवश्यकता है।
इस ग्रंथ के अब तक दस संस्करण निकल चुके हैं और यह 'जैन-विद्या' के पाठ्यक्रम में भी स्वीकृत है।
जैन धर्म : बीज और बरगद
जैन धर्म अत्यन्त प्राचीन धर्म है। भगवान महावीर के निर्वाण की छह शताब्दी तक यह एक और अखंड था। फिर इसका विस्तार हुआ और यह अनेक शाखा-प्रशाखाओं में विभक्त हो गया।
प्रस्तुत पुस्तक में चार अध्याय हैं। इनमें बहुविध सामग्री संकलित है। प्रथम अध्याय के ११ लेखों में जैन धर्म के विविध पहलुओं पर चर्चा है। दूसरे अध्याय के ६ निबंधों में तेरापंथ धर्मसंघ का अनेक कोणों से प्रतिपादन है।
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