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गद्य-पद्य काव्य
से प्रताडित होकर, अपने ज्ञान के बोझ से भारी बनकर भगवान् को अपनी पांत में लेने समवसरण में आया। पर घटित कुछ और ही हुआ। वह स्वयं भगवान् की शरण में चला गया । भगवान् ने उसे संबुद्ध किया और एक दिन वह स्वयं भगवान् बन गया।
प्रस्तुत कृति में मर्त्य से भगवान् बनने का यात्रापथ निरूपित है । मर्त्य का भगवान बनना ही विजय यात्रा है। इसमें पांच विश्राम हैं-- १. बोधिलाभ
४. समाधिलाभ २. चारित्रलाभ
५. सिद्धिलाभ ३. दृष्टिलाभ
इसका प्रणयन अनूठे ढंग से हुआ है। प्रत्येक विश्राम के प्रत्येक चरण को काव्य में अभिव्यक्ति दी है और साथ ही साथ उसका आलोक भी प्रस्तुत किया है । अतः पाठक :गद्य-काव्य' की गूढ़ता को आलोक के प्रकाश में समझ लेता है। इसमें जैन दर्शन के मुख्य तत्त्वों का प्रतिपादन आगमों के संदर्भ में हुआ है । टिप्पणों में उनकी सप्रमाण नोंध भी है।
पाठक इसमें गद्य-काव्य का अवर्णनीय आनन्द और सिद्धांत की गहराई को सहज हृदयंगम कर आगे बढ़ता है।
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