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________________ दर्शन और सिद्धान्त पादित किया है। सभी भगवान् को ज्ञातवंशी मानते हैं, पर इस लीक से हट कर युवाचार्यश्री ने भगवान् महावीर को नागवंशी सिद्ध किया है । और यह भी बताया है कि भगवान का नागवंश के साथ क्या और कैसा संबंध था। जैन आगमों के विचारणीय शब्द के अन्तर्गत पम्ह और पम्म, नाय और नात शब्दों का विमर्श है। इसी प्रकार 'बृहत्तर भारत का दक्षिणार्ध और उत्तरार्ध की विभाजक रेखा-वेयड्ढ पर्वत' यह निबंध भौगोलिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । सम्पूर्ण कृति में विभिन्न विषयों से संबंधित पच्चीस शोध निबंध हैं जो शोध विद्वानों को अनेक दिशा में नया आलोक प्रदान करते हैं तथा आगे चितन के लिए नया द्वार खोलते हैं । अहिंसा तत्त्व-दर्शन अहिंसा आज का सर्वाधिक प्रिय विषय है। हिंसा के तांडव नृत्य को आदमी देख चुका है। वह उससे त्राण पाने की बात सोचता रहा है और सदा ठगा जाता रहा है। हिंसा हिंसा को प्रज्वलित करती है। उससे हिंसा रुकती नहीं, आगे से आगे बढ़ती चली जाती है । उसको कम करने या रोकने का एकमात्र उपाय है अहिंसा की प्रतिष्ठापना । अहिंसा की भावना का विकास मानव जीवन के साथ जुड़ा हुआ है। जब से समाज बना है, प्रवृत्तियों की बहुलता हुई है, तब से अहिंसा की आवश्यकता महसूस होती रही है। अहिंसा के आधार पर ही सह-अस्तित्व सधता है । हिंसा उसका विघटन करती है। सभी धर्म-दर्शन अहिंसा के हिमायती रहे हैं । अहिंसा का स्वरूप-भेद सर्वत्र रहा है इसलिए इसकी परिभाषा को बांधा नहीं जा सका। पर दूसरे को उपताप देना, पीड़ा पहुंचाना--इसको सबने बुरा माना है और इससे उपरति को अहिंसा माना है। इसकी सूक्ष्म परिभाषाएं या अवयव जैन दर्शन में स्पष्ट प्रतीति में आते हैं। आचार्य भिक्षु तेरापंथ धर्मसंघ के आद्य-प्रवर्तक थे। उन्होंने जो अहिंसा के स्वरूप का निर्धारण किया, उसको लोग पूरा समझ नहीं पाए, इसलिए उसका विरोध हुआ। वह स्वरूप-निर्धारण नया नहीं था, पर उसकी प्रस्तुति नई थी। प्रस्तुत कृति में अहिंसा के आदि-स्रोत से लेकर आज तक की परिभाषाओं का आकलन और विश्लेषण है। इसके तीन खंड हैं। पहला खण्ड है-अहिंसा के स्वरूप के निर्णय का। इसमें चार अध्याय हैं और इनमें विभिन्न दृष्टियों से हिंसा और अहिंसा का प्रतिपादन है। दूसरा खंड है-अहिंसा की मीमांसा । इसके पांच अध्यायों में आचार्य भिक्षु के अहिंसा संबंधी विचारों तथा करुणा, दया, अनुकंपा आदि को समझाया गया है। एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003141
Book TitleMahapragna Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1988
Total Pages252
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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