________________
महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण
अध्याय में दान का पूरा विश्लेषण है । दान को अहिंसा के माध्यम से प्ररूपित करते हुए बताया गया है कि अहिंसक दान ही सुपात्र दान हो सकता है। शेष दान लौकिक हैं । तीसरे खण्ड में दो अध्याय हैं और उनमें अहिंसा का जीवन में क्या-कैसे उपयोग होता है, वह निर्दिष्ट है।
प्रस्तुत कृति अहिंसा को सम्पूर्ण रूप से समझने में बहुत सहायक
बाल
अहिंसा को सही समझ
तेरापंथ के अहिंसक दृष्टिकोण या मान्यता की दो शताब्दियों से आलोचना होती रही है । परन्तु आलोचना का स्तर कभी ऊंचा नहीं रहा, क्योंकि वह द्वेष या ईर्ष्यावश होती थी। आचार्यश्री बम्बई में चातुर्मास करने वि० सं० २०११ को पधारे । वहां के एक गुजराती साप्ताहिक के संपादक परमानन्द भाई ने भी तेरापंथ की आलोचना में अपनी पत्रिका में एक लेख छापा । उसका शीर्षक था- अहिंसा नी अधूरी समझण । उसको देखकर लगा कि आलोचना की दिशा बदली है, स्तर बदला है। उसमें तेरापंथ-सम्मत अहिंसा के बारे में जो आपत्तियां खड़ी की थीं, उनके विषय में तेरापंथ का जो दृष्टि-बिन्दु है, बह संक्षेप में प्रस्तुत लघु कृति में निबद्ध है।
यह लघु पुस्तक तेरापंथ की अहिंसा विषयक मान्यता को सप्रमाण प्रस्तुत करती है।
अहिंसा और उसके विचारक
अहिंसा और दया-ये दो तत्त्व जैन आचार-परम्परा की रीढ़ हैं। इनका विस्तार से चिंतन हुआ है। कोणों की भिन्नता ने इन दोनों को बहुत विवादास्पद बना डाला। अनेक आचायों ने इन दोनों को भिन्न-भिन्न कोणों से देखा और तत्त्व का निरूपण किया ।
उन्नीसवीं शताब्दी के महान् आचार्य श्री भिक्षु ने इन तत्त्वों को जिस सही दृष्टिकोण से देखा, प्रतिपादन किया, वह इस पुस्तिका में निबद्ध है। उनके दया-दान के निरूपण ने विरोध का बवंडर पैदा कर दिया। यह इसलिए कि लोग आचार्य भिक्षु की भावना को पकड़ नहीं पाए और तब अर्थ का अनर्थ घटित होने लगा । आचार्य श्री तुलसी इस निरूपण पद्धति की आन्तरिक भावना को यथावत् रखते हुए उसको सरलता से प्रस्तुत करने लगे। लोगों ने नये परिवेश को पसंद किया। प्रस्तुत पुस्तक आचार्य श्री के समय-समय पर अहिंसा-दया पर अभिव्यक्त विचारों का एक लघु काय संग्रह है। भाव आचार्य
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org