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सम्बोधि
अनेक लोगों ने युवाचार्य श्री से निवेदन किया था कि एक ऐसे स्वाध्याय ग्रंथ की आवश्यकता है, जिसमें जैन तत्त्वज्ञान और जीवन विज्ञान का समावेश हो । केवल तत्त्वज्ञान शुष्कता पैदा करता है और केवल जीवन विज्ञान आधारहीन होने के कारण अधिक टिकाऊ नहीं होता । संबोधि ग्रन्थ का प्रणयन इसी निवेदन का परिणाम है। इसमें प्रश्न और उत्तर के माध्यम से जैन तत्त्व और जीवन विज्ञान दोनों अभिव्यक्त हुए हैं। प्रश्न कर्ता है- सम्राट् श्रेणिक का दीक्षित पुत्र मुनि मेषकुमार और उत्तरदाता हैं--भगवान् महावीर।।
__इस ग्रंथ का मूल आधार है-जैन आगम । यह जैन परंपरा की गीता है। गीता दर्शन में ईश्वरार्पण की भावना का प्राबल्य है तो जैन दर्शन में आत्मार्पण की महिमा है । इसमें आदि से अन्त तक आत्मा की परिक्रमा करते हुए चलने का निर्देश है।
युवाचार्यश्री के शब्दों में गीता का अर्जुन कुरुक्षेत्र के समरांगण में क्लीव होता है तो सम्बोधि का मेघकुमार साधना की समरभूमि में क्लीव बनता है। गीता के गायक योगीराज कृष्ण हैं और संबोधि के गायक हैं-श्रमण भगवान् महावीर । अर्जुन का पौरुष जाग उठा कृष्ण का उपदेश सुनकर और महावीर का उपदेश सुनकर मेघकुमार की आत्मा चैतन्य से जगमगा उठी। दीपक से दीपक जलता है । एक का प्रकाश दूसरे को प्रकाशित करता है। मेघकुमार ने जो प्रकाश पाया, वही प्रकाश व्यापक रूप से सम्बोधि में है।
संबोधि ग्रंथ के १६ अध्यायों में ७०३ श्लोक हैं। इनका हिन्दी में अनुवाद तथा विस्तृत व्याख्या भी संलग्न है। इस एक ग्रंथ के पारायण से जैन परंपरा के तत्त्ववाद और जीवन शैली को समझने में सुविधा हो सकती है। संस्कृत के श्लोक सरल और सुबोध हैं। यह ग्रंथ आचार्य श्री की दो महायात्राओं में निर्मित हुआ था। एक यात्रा थी बम्बई की और दूसरी यात्रा थी कलकत्ता की।
आचार्यश्री अपने आशीर्वचन में पुस्तक के बारे में अपना अभिमत प्रस्तुत करते हुए कहते हैं-संबोधि के पद जहां सरल और रोचक बन पड़े हैं वहां उतनी ही सरलता पूर्वक गहराई में पेठे हैं। उनकी सरलता और मौलिकता का एक कारण यह भी है कि वे भगवान् महावीर की मूलभूत वाणी पर आधारित हैं। बहुत सारे पद्य तो अनूदित हैं, पर उनका संयोजन सर्वथा नवीन शैली लिए हुए है।
इस कृति का प्रत्येक अध्याय एक-एक विषय को अपने में समेटे हुए
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