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विविधा
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पदार्थ-मुक्त समाज का यह अर्थ नहीं है कि वह समाज पदार्थों का उपभोग नहीं करता । परन्तु ऐसे समाज में पदार्थ साधन मात्र रहता है, साध्य नहीं बनता।
___समाज अपनी अवधारणों से शासित होता है। धर्म ने इस क्षेत्र में कुछ महत्त्वपूर्ण अवधारणाएं दी हैं । वे समाज की व्यवस्था में आधारभूत तत्त्व बनती हैं। उनमें से कुछेक ये हैं---
१. जीवन के सर्वांगीण विकास में आकांक्षा का नहीं, संतोष का समावेश ।
२. श्रमनिष्ठा की प्रतिष्ठा और मूल्यांकन । ३. शिक्षा के प्रचार-प्रसार में आध्यात्मिक मूल्यों का समावेश ४. प्रतिक्रियाओं से बचकर क्रियात्मक जीवन जीने का प्रशिक्षण । ५. प्रतिबिम्ब नहीं, बिम्ब को पकड़ने की क्षमता का विकास । ६. सहिष्णुता का विकास ।
ये कुछ सूत्र स्वस्थ समाज की संरचना में आधारभूत बनते हैं । इन सब सूत्रों का विवेचन इस लघु कृति के चौदह निबन्धों में संग्रहीत हैं, जो समाज व्यवस्था को चेतनावान् बनाने की दिशा में मार्ग-दर्शन हेतु हैं। इसके अतिरिक्त प्रस्तुत पुस्तक में भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट सामाजिक अवधारणाओं का भी आधुनिक संदर्भ में निरूपण हुआ है।
संभव है समाधान
प्रत्येक व्यक्ति में जानने-समझने की ललक होती है । वह आगे से आगे अपनी जानकारी को बढ़ाना चाहता है । यही है जिज्ञासा । यह जीवन का वह सूक्ष्म तंतु है, जो जीवन को बांधे रखता है।
प्रेक्षाध्यान के शिविरों तथा अन्यान्य प्रवचनों में उपस्थित श्रोता तद्तद् विषयक प्रवचनों को सुनकर आनन्द से ओत-प्रोत हो जाते हैं। उनके मन में उन विषयों से सम्बन्धित अनेक प्रश्न उभरते हैं और जब वे प्रश्न समाधान के धरातल पर उतरते हैं तब उन्हीं श्रोताओं को अपूर्व आनन्द की अनुभूति होती है।
समस्या और समाधान, प्रश्न और उत्तर-दोनों साथ-साथ चलते हैं। समस्या हो और समाधान न हो या प्रश्न हो और उसका उत्तर न हो, ऐसा नहीं होता। हां, इस विधा में बहुश्रुत व्यक्ति का सान्निध्य अपेक्षित होता है ।
युवाचार्य श्री ने प्रस्तुत पुस्तक की प्रस्तुति में जो लिखा है, वह स्वयं इस पुस्तक का परिचय देने में पर्याप्त है----'जिज्ञासा समाधान को न छुए और समाधान जिज्ञासा को न छुए तो दोनों अनछुए रह जाते हैं । इस अवस्था में
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