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________________ महाप्रज्ञ साहित्य : एक सर्वेक्षण प्रवर ने जीवनी साहित्य के अन्तर्गत अनेक पुस्तकें लिखी हैं। प्राय: जीवनियां घटना प्रधान होती हैं, किन्तु युवाचार्य श्री ने उन्हें घटनाप्रधान न बनाकर विचार-प्रधान अधिक बनाया है। जीवनी में उन्होंने अपने श्रद्धेय को केवल प्रशस्ति के रूप में ही प्रस्तुत नहीं किया है अपितु उनके यथार्थ व्यक्तित्व को अधिक उजागर किया है । वे स्वयं इस बात को अभिव्यक्ति इन शब्दों में देते हैं.--'मैं आचार्य श्री को केवल श्रद्धा की दृष्टि से देखता तो उनकी जीवनगाथा के पृष्ठ दस से अधिक नहीं होते। उनमें मेरी भावना का व्यायाम पूर्ण हो जाता है । आचार्य श्री को मैं केवल तर्क की दृष्टि से देखता तो उनकी जीवन-गाथा सुदीर्घ हो जाती, पर उसमें चैतन्य नहीं होता।' उनके द्वारा लिखे गए जीवनीग्रन्थ जीवनी साहित्य के अन्तर्गत अपना विशेष महत्त्व रखते हैं। गद्य-काव्य गद्यकाव्य का मूल आधार कथा होती है। किंतु हिंदी में भावात्मक निबंध भी गद्यकाव्य के अन्तर्गत आते हैं। इनमें भावना या कल्पना की प्रधानता, रमणीयता एवं सरसता की प्रतिष्ठा तथा कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक भाव व्यक्त करने की क्षमता होती है। युवाचार्य प्रवर ने अत्यन्त सरस, मार्मिक और सुबोध गद्यकाव्य लिखे हैं । 'भाव और अनुभाव' तथा 'अनुभव चिंतन मनन' आदि कृतियां उसका उत्कृष्ट उदाहरण है । 'गागर में सागर' पुस्तक कथात्मक गद्यकाव्य है। इसके गद्यकाव्य अत्यन्त संक्षिप्त हैं । अखंडित व्यक्तित्व को अभिव्यक्ति देते हुए वे कहते हैं - 'वहां सारी भाषाएं मूक बन जाती हैं जहां हृदय का विश्वास बोलता है । जहां हृदय मूक होता है वहां भाषा मनुष्य का साथ नहीं देती। जहां भाषा हृदय को ठगने का प्रयत्न करती है वहां व्यक्तित्व विभक्त हो जाता है । अखंड व्यक्तित्व वहां होता है जहां भाषा और हृदय में द्वैध नहीं होता। इसी प्रकार जोड़ने और तोड़ने की बात को वे एक रूपक के माध्यम से कितनी सशक्त शैली में कहते हैं- 'काटना सहज है, सांधना कठिन । कैंची अकेली चलती है, सुई धागे के बिना नहीं। कैची का कार्य सीधा है, सूई के कार्य में असंख्य उलझनें हैं----असंख्य घुमाव हैं।' कुछ गद्यकाव्य उन्होंने स्वयं को सम्बोधित करके लिखे हैं, किंतु वे सार्वजनीन हैं --- 'आग्रह में मुझे रस है, पर आग्रही कहलाऊं, यह मुझे अच्छा नहीं लगता, इसलिए मैं आग्रह पर अनाग्रह का झोल चढ़ा लेता हूं। रूढ़ि से मैं मुक्त नहीं हूं, पर रूढ़िवादी कहलाऊं यह मुझे अच्छा नहीं लगता, इसलिए मैं रूढ़ि पर परिवर्तन का झोल चढ़ा लेता इसके अतिरिक्त इन गद्यकाव्यों में दर्शन की गहराई को भी उन्होंने जिस दक्षता के साथ प्रस्तुत किया है, वह स्तुत्य है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003141
Book TitleMahapragna Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1988
Total Pages252
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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