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प्रेक्षा साहित्य
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के साथ-साथ भावना के माध्यम से अध्यात्म, सहिष्णुता, उदारता, प्रेम और एकता के भावों का संतुलित विकास कराया जा सकता है। जीवन-विज्ञान एक प्रायोगिक विधि है जो व्यक्तित्व का सम्पूर्ण रूपान्तरण कर सकती है।।
योगशास्त्र, कर्मशास्त्र और धर्मशास्त्र—ये तीनों प्राचीन विद्या की शाखाएं हैं। आधुनिक विद्या की तीन शाखाएं ये हैं--फिजियोलोजी, एनोटोमी और साइकोलोजी । इस प्रकार ये छहों विषय समवेत होकर शिक्षा की पूर्ण प्रणाली का निर्माण करते हैं । बस, यही है जीवन-विज्ञान ।
प्रस्तुत ग्रन्थ में १२ निबन्ध हैं जिनमें शिक्षा की समस्या, उसका समाधान तथा जीवन-विज्ञान के सभी पहलुओं का विशद विवेचन है। उसके कुछेक शीर्षक इस प्रकार हैं
१. जीवन-विज्ञान : क्या क्यों ? २. जीवन-विज्ञान : आधार और प्रक्रिया ३. शिक्षा की समस्या ४. जीवन-विज्ञान की शिक्षा क्यों ? ५. जीवन-विज्ञान और नई नीति ६. जीवन-विज्ञान और सामाजिक जीवन । आदि-आदि ।
जीवन-विज्ञान : स्वस्थ समाज-रचना का संकल्प
मनुष्य के दो रूप होते हैं -सामाजिक और वैयक्तिक । वह अनेक संबंधों के कारण सामाजिक है और जन्मजात वैयक्तिकता के कारण व्यक्ति है । जीवन-विज्ञान शिक्षा का नया आयाम है और उसमें सामाजिक और वैयक्तिक-दोनों पहलुओं का समन्वय है । इसके द्वारा ही आध्यात्मिक, नैतिक और सामाजिक मूल्यों का विकास किया जा सकता है।
शिक्षा और समाज व्यवस्था में गहरा अनुबंध है । वह समाज-व्यवस्था के अनुरूप होकर ही समाज को लाभान्वित कर सकती है। उसका मुख्य काम है--समाज-व्यवस्था को स्वस्थ और गतिशील बनाने वाले व्यक्तियों का निर्माण ।
जीवन-विज्ञान की शिक्षा पद्धति में सोलह मूल्य निर्धारित किए गए हैं । उनमें कुछ सामाजिक, कुछ बौद्धिक, कुछ मानसिक, कुछ नैतिक और कुछ आध्यात्मिक मूल्य हैं । वे ये हैं--
१. कर्त्तव्य निष्ठा ५. सम्प्रदाय निरपेक्षता २. स्वावलंबन
६. मानवीय एकता ३. सत्य
७. मानसिक संतुलन ४. समन्वय
८. धैर्य का विकास
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