Book Title: Durgapushpanjali
Author(s): Jinvijay, Gangadhar Dvivedi
Publisher: Rajasthan Puratattvanveshan Mandir
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान परातन ग्रन्थमाला प्रधान संपादक-पुरातत्वाचार्य, जिनविजय मुनि [सम्मान्य संचालक, राजस्थान पुरातत्त्वान्वेषण मन्दिर, जयपुर ] ग्रन्थाङ्क २२ महामहोपाध्याय-श्रीदुर्गाप्रसादद्विवेद-प्रणीतः दुर्गापुष्पाञ्जलिः प्रकाशक राजस्थान राज्य सस्थापित राजस्थान पुरातत्त्वान्वेषण मन्दिर Rajasthan Oriental Research Institute, Jaipur जयपुर (राजस्थान) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला - राजस्थान राज्य द्वारा प्रकाशित सामान्यतः अखिल भारतीय तथा विशेषतः राजस्थान देशीय पुरातनकालीन संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, राजस्थानी, हिन्दी आदि भाषानिवद्ध विविधवाड्मयप्रकाशिनी विशिष्ट ग्रन्थावलि प्रधान संपादक पुरातत्याचार्य, जिनविजय मुनि [ऑनररि मेंवर श्रॉफ जर्मन ओरिएन्टल सोसाइटी, जर्मनी] सम्मान्य सदस्य भाण्डारकर प्राच्यविद्या संशोधन मन्दिर, पूना; गुजरात साहित्य-सभा, अहमदाबाद विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोधनप्रतिष्ठान, होशियारपुर, निवृत्त सम्मान्य नियामक (ऑनररि डायरेक्टर)-भारतीय विद्याभवन, बम्बई. ग्रन्थाङ्क २२ महामहोपाध्याय-श्रीदुर्गाप्रसादद्विवेद-प्रणीतः दुर्गापुष्पाञ्जलिः प्रकाशक राजस्थान राज्याज्ञानुसार संचालक, राजस्थान पुरातत्वान्वेषण मन्दिर जयपुर ( राजस्थान) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामहोपाध्याय-श्रीदुर्गाप्रसादद्विवेद-प्रणीतः दुर्गापुष्पाञ्जलिः संपादक एवं व्याख्याता श्री गङ्गाधर द्विवेदी साहित्याचार्य-व्याकरणतीर्थ-विद्यारत्न व्याख्याता, महाराजा संस्कृत कालेज, जयपुर प्रकाशनकर्ता राजस्थान राज्यासानुसार संचालक, राजस्थान पुरातत्त्वान्वेषण मंदिर जयपुर (राजस्थान) विक्रमान्द २०१३] भारतराष्ट्रीय शकाव्द १८७६ [ ख्रिस्ताब्द १६५७ प्रथमावृत्ति मूल्य ४)रु० २५ नव्पै० मुद्रक-प्रभाव प्रेस, सवाई मानसिंह हाईवे, जयपुर. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला में प्रकाशित कुछ विशिष्ट ग्रन्थ संस्कृत साहित्य ग्रन्थ १. प्रमाणमञ्जरी-ताक्कि-चूड़ामणि-सर्वदेवाचार्य प्रणीत । तीन व्याख्यानों से समलड्कृत । २. यन्त्रराजरचना-जयपुरनरेश महाराज सवाई जयसिंह कारिता । ३. महर्पिकुलवैभवम्-विद्यावाचस्पति स्व० श्रीमधुसूदन श्रोझा विरचित । ४. तर्कसंग्रह फकिका-प० क्षमाकल्याणक्त । ५. कारकसंवन्धोद्योत-प० रमसनन्दिकृत । ६. वृत्तिदीपिका-प० मौनिकृष्णमट्टकृत । ७. शब्दरत्नप्रदीप-संक्षिप्त संस्कृत शब्दकोष । ८. कृष्णगीति-कविसोमनाथ-कृत गीतिकाव्य । ६. शृङ्गारहारावलि-हर्पकवि विरचित । १०. चक्रपाणिविनयमहाकाव्यम्-प०लक्ष्मीधरमट्टरचित । ११. राजविनोद महाकाव्य-कवि उदयराजविरचित | १२. नृत्तसंग्रह-नाट्यविषयक पठनीय ग्रन्थ । १३. नृत्यरत्नकोश ( प्रथम भाग)-महाराणा-कुम्मकर्ण-प्रणीत । १४. उक्तिरत्नाकर-पण्डित साधुसुन्दरगणीकृत । १५. दुर्गापुष्पाञ्जलि-महामहोपाध्याय ५० श्रीदुर्गाप्रसाद द्विवेदी रचित । राजस्थानी भाषा साहित्य ग्रन्थ १. कान्हडदे प्रवन्ध-कवि पदनाम विरचित । २. क्यामखां रासा-मुस्लिम-कवि जानकृत । ३. लावारासा-चारणकविया गोपालदानकृत । ४. वांकीदासरी ख्यात-वारणकवि वाकीदासरचित । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेसों में छप रहे ग्रन्थ (क) संस्कृतग्रन्थ१. त्रिपुराभारती लघुरतव- लघ्वाचार्यप्रणीत । २. शकुनप्रदीप-लावण्यशर्माकृत ! ३. करुणामृतप्रपा-ठक्कुर सोमेश्वर विरचित । ४ बालशिक्षाव्याकरण- ठवकर सग्रामसिंह कृत । ५. पदार्थरत्न-मंजूषा-पं० कृष्णमिश्र निर्मित । ६ काव्यप्रकाश-सकेत- मट्ट सोमेश्वर कृत । ७. वसन्तविलास- फागुकाव्य (मिन्न-मिन्न वाचना विभूषित) ८. नृत्यरत्नकोश (द्वितीय भाग)-राजाधिराज महाराणा कुम्भकर्णदेव कृत | ६. नन्दोपाख्यान-( सस्कृत और राजस्थानी में ) १०. रत्नकोश- विविध-वस्तु-सग्रह-विचारात्मक ! ११. चान्द्रव्याकरण- श्राचार्य चन्द्रगोमि-प्रणीत ! १२. स्वयंभू छन्द- स्वयभू कवि रचित । १३. प्राकृतानन्द- कवि रघुनाथ विरचित । १४. मुग्धावबोव आदि विविध औक्तिक संग्रह । १५. कवि कौस्तुभ- प० रघुनाथ मनोहर निर्मित । १६. दशकण्ठवधम्- महामहोपाध्याय ५० दुर्गाप्रसादजी द्विवेदी प्रणीत । १७. कर्णकुतूहल नाटक तथा श्रीकृष्णलीलामृतकाव्य-महाकवि भोलानाथ विरचित । १८ कविदपेण- प्राकृत-छन्दोरचनात्मक ग्रन्थ । १६ वृत्तजातिसमुच्चय- विरहाकविकृत । २०. ईश्वरविलासमहाकाव्य- कविकलानिधि श्रीकृष्णभट्ट कृत । (ख) राजस्थानी भाषा ग्रन्थ१ मुहता नैणसीरी ख्यात-जोधपुर के मु हता नेणसी लिखित । २ गोरा बादल पदमणी चउपई- जैनयति कवि हेमरतन कृत । ३. राठोडवंश री विगत- राठोड़ों के इतिहास को कथाएँ । ४ राजस्थानी साहित्य संग्रह- राजस्थानी माषा में लिखित विविध वृत्तान्त | ५ दाढाला एकल गिडरी वात-राजस्थानी भाषा की एक हास्यरस मिश्रित व्यङ्ग रचना । ६. सुजान-संवत- कवि उदयराम रचित । ७ चन्द्रवंशावलि- कवि मतिराम कृत | ८. राजस्थानी दूहा-संग्रह । इन ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्य अनेक संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, प्राचीन राजस्थानी, हिन्दी आदि भाषाओं मे रचे गये ग्रन्थों का संशोधन, संपादन आदि कार्य हो रही है। राष्ट्रभाषा हिन्दी मे भी उच्च कोटि के ग्रन्थों के प्रकाशन का आयोजन किया जा रहा है। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय वक्तव्य राजस्थान जहां एक ओर अपनी शूरवीरता और आन-वान के लिए इतिहासप्रसिद्ध है वहां दूसरी ओर विद्या और कला के क्षेत्र मे भी उसका पर्याप्त आदर और सम्मान है । यहां के विद्यानुरागी नरेशों ने अपनी गुण-ग्राहकता और उदारता के सहारे साहित्य-निर्माण और उसकी प्रगति में अच्छा योगदान किया है । मुख्यतः जयपुर, उदयपुर और बूदी के महाराजाओं के दरवार तो विद्वानों, कवियों और कलाकारों के केन्द्र ही रहे हैं। यहां के नरेशों ने संस्कृत, ब्रजभापा और राजस्थानी तीनों ही के साहित्य की श्रीवृद्धि करने मे महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। प्रस्तुत 'दुर्गा-पुप्पाञ्जलि' के रचयिता स्व० महामहोपाध्याय प० श्री दुर्गाप्रसादजी द्विवेदी, जयपुर राज्य के सम्मानित और प्रतिष्टित विद्वान थे । उनका सारा जीवन संस्कृत-साहित्य की सेवा में ही व्यतीत हुआ था। उनकी कतिपय कृतियों को देखते हुये यह ज्ञात होता है कि वे वास्तव में विशिष्ट प्रतिभाशाली, उच्चकोटि के विद्वान, कवि और दार्शनिक थे । उनकी रचना मे व्यापक पाडित्य और कवित्त्व-शक्ति का सुन्दर समन्वय है । राजस्थान के ही नहीं बल्कि भारत के प्राचीन प्रतिभा सम्पन्न विद्वानों मे भी उनका एक प्रमुख स्थान माना जाता है । इनकी अव तक अप्रकाशित रहने वाली कुछ रचनाओं को प्रकाश में लाने के लिये, श्री गङ्गाधरजी द्विवेदी व्याख्याता, महाराज संस्कृत कालेज, जयपुर ने, जो ग्रन्थ-कर्ता के पौत्र है, हमारा ध्यान आकृष्ट किया । चू कि प्रधान रूप से स्व० महामहोपाध्यायजी का कार्यक्षेत्र राजस्थान ही रहा है अत. इनकी कुछ विशिष्ट रचनाओं को हमने राजस्थान-पुरातत्त्वान्वेषण-मन्दिर द्वारा प्रकाशित करना उपयुक्त समझा । तदनुसार “दशकण्ठवधम्", "दुर्गा-पुष्पाञ्जलि" "भारतालोक" और "भारत-शुद्धि" नामक ग्रन्थों के प्रकाशन का कार्य स्वीकृत किया गया। इन पुस्तकों के सपादन-कार्य के लिए श्री गङ्गाधरजी द्विवेदी को ही हमने अधिक उपयुक्त और योग्य समझा, क्योंकि ये ग्रन्थकार के निकट सम्पर्क मे रहने के कारण इन ग्रन्यों के विषय से अच्छी तरह अभिज्ञ है। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत पुस्तक की रचना को देख कर हमारी यह इच्छा हुई कि इसके साथ एक अनुरूप संक्षिप्त व्याख्या का होना भी आवश्यक है । अतएव हमने संपादकजी को सलाह दी कि वे इसके उपयुक्त एक व्याख्या भी तैयार करके संलग्न करें। तदनुसार उन्होंने "परिमल" नामक विवृत्ति लिख कर इसकी उपयोगिता बढ़ा दी है और परिश्रम - पूर्वक अच्छे ढग से इसका संपादन किया है । इस पुस्तक को "राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला" में प्रकाशित करते हुये हमें हर्ष हो रहा है और आशा है कि सस्कृत-साहित्य के प्रेमियों को यह आदरणीय वस्तु प्रतीत होगी । चैत्र ५, शक स० १८७९ ता० २६-३-५७ मुनिजन विजय सम्मान्य सञ्चालक, राजस्थान पुरातत्त्वान्वेषण मदिर जयपुर । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्टाङ्क ३४ ४६ ५४ ५६ स्तोत्र-सूची प्रथम-विश्रामः १. परमार्थाकलनम् २. जगदम्वा-जयवादः ३. ईहाष्टकम् ४. देवकाली-महिमा ५. चण्डिका-स्तुतिः ६. महिपमर्दिनी-गीतिः ७. सकलजननी-स्तवः ८. सौख्याष्टकम् ६. अम्वा-वन्दना १०. आदेशाश्वधाटी ११. स्वार्थाशंसनम् १२ अन्तर्विमर्शः १३. आर्याभ्यर्चना १४ अवस्था-निवेदनम् १५. आत्मार्पणम् द्वितीय-विश्रामः १. दुर्गाप्रसादाष्टकम् २ नवदुर्गा-स्तवः ३. अष्टमूर्ति-स्तवः ४. चण्डीशाष्टकम् ५. हरिहराष्टकम् ६ शिव-गाथा ७. सरयू-सुधा ८. गोमती-महिमा ६. यमुना-कुलकम् १० मथुरा-माधुरी ११. आत्मोपदेशः દરે . ७३ ६४ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा पुष्पाञ्जलि Karahar... BHARAT ... . " . Email 'PARSH SN -. - - JA. APP महामहोपाध्याय पं श्री दुर्गाप्रसादजी द्विवेदी Page #10 --------------------------------------------------------------------------  Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री ॥ प्रस्तावना अवतरणिका - हमारा देश आरम्भ से ही अध्यात्मवादी विचारधाराओं का प्रमुख केन्द्र रहता आया है । यहां के परंपरागत इतिहास का अध्ययन और विश्लेषण करने से यह तथ्य सुगमता से जाना जा सकता है । व्यापक दृष्टि से देखें तो कहना न होगा कि अध्यात्म जगत् की लोककल्याणमूलक भावनाओं एवं प्रवृत्तियों के आदिम प्रवर्तक और परिष्कारक के रूप में इस देश का महत्व विश्व के अन्य देशों की तुलना मे कहीं अधिक बढा चढ़ा रहा है । 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' का दिव्य सन्देश और आध्यात्मिक पृष्ठभूमि मे होने वाला उसका व्यापक एवं सन्तुलित विकाश ये दोनो ही बातें वास्तव में इस देश की ही मूल्य देन हैं । अतएव यहा के अध्यात्म - साहित्य को यदि विश्व के अध्यात्म-मार्ग का उन्नायक किंवा पथप्रदर्शक कहा जाय तो इसमें कोई अनौचित्य न होगा । फलतः इस दिशा मे उसे दिया जाने वाला सन्मान उसके 'जगद्गुरु' पद के सर्वथा अनुरूप ही माना जायगा । इसमे सन्देह नहीं कि यहां के सास्कृतिक जीवन और उसके अध्यात्मचिन्तन की शैली अपने आप मे बडी सजीव और आकर्षक रही है । और यह उसी का प्रभाव है कि विभिन्न भौगोलिक बन्धनों की परिधि मे रहने और विविधता को अपना लेने पर भी राष्ट्र की आत्मा के रूप मे हमारी एकरूपता आज भी सुरक्षित है । इसलिए व्यापक अर्थो मे इसे राष्ट्रीय इतिहास का महत्वपूर्ण पृष्ठ कहना अधिक उपयुक्त और न्याय संगत होगा । स्तोत्र साहित्य का उद्गम और महत्व - संस्कृत का स्तोत्र साहित्य हमारी इसी पृष्ठभूमि का पोषक और महत्व पूर्ण अंग माना जाता है । वैदिक संस्कृति के प्रचार और प्रसार का युग ही मूलत स्तोत्र साहित्य की उत्पत्ति का समय कहा जा सकता है । क्योंकि देवस्तुतियों का प्रचलन सर्व थम वैदिक सूक्तों और ऋचाओं से ही आरम्भ होता है । त्रिविध दुखो से पीडित मानव के लिए ईश्वर की शरणागति के सिवा यात्मिक शांति का दूसरा कोई सुगम और सफल उपाय संभव नहीं होता । क्योंकि बुद्धिजीवी और सवेदनशील मानव के Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हृदय को अन्यत्र समाधान मिल सकना कठिन हो नहीं असंभव है। उसके संतप्त हृदय के साथ सहानुभूति रखने का सामर्थ्य यदि कही है तो वह सर्वशक्तिमान् परमेश्वर ही मे हो सकता है । वह अपने लौक्कि दुखों की कहानी उसके सिवा किसको सुनावे । जव सासारिक प्राणी प्रभु के समक्ष हृदय खोलकर अपनी करुण दशा पर क्रन्दन करने लगता है-तो निस्सन्देह प्रभु को भी उसकी दशा पर दया आजाती है । और इस प्रकार प्रभु की तन्मयता प्राप्त होने पर सहज ही वह संतापों से छुटकारा पाजाता है। ईश्वर-भक्त मानवहृदय को स्तोत्रों के द्वारा शब्द ब्रह्म की अनुभूतियों का जब प्रश्रय मिलजाता है तब उसका भावुक हृदय उसके सहारे अपने आपको सबल एवं पुष्ट अनुभव करने लगता है । क्योंकि जब जब वह अपनी पराधीनता और अपूर्णता से खिन्न किंवा विचलित हो उठता है तो उसे अपने इष्टदेव के गुणानुवाद से एक प्रकार की स्थायी सुखशांति का लाभ होता है । क्योंकि वह उसके अलौकिक सामर्थ्य और प्रभाव का हृदय से कायल होजाता है । भक्ति का अंकुर इसी प्रभु शक्ति का परिणाम है । ___ मनुष्य एक संवेदनशील प्राणी होने के नाते, जब तक वाह्यजगत् के वास्तविक रूप को सही अर्थों मे नहीं जान लेता तब तक वह अपने आपको भी नहीं पहचान पाता । यही उसकी अपूर्णता का माप दण्ड है। वह जव सृष्टि उसके नियन्ता और अपनी सीमित शक्ति पर विचार करने वैठता है तो सहसा निराश हुए विना नहीं रह सकता । क्योंकि सृष्टि का यह गोरख धन्धा प्रयत्न करने पर भी उसकी विचार शक्ति को संतुलित नहीं होने देता। अतएव गुरुजनों के मार्गदर्शन और उपदेश की आवश्यकता पड़ती है जो कि एक स्वस्थ मानव के लिए आवश्यक और अनिवार्य आवश्यकता है । वेदों और उपनिषदों मे इस प्रकार की जिज्ञासा और उसका समाधान भावपूर्ण भाषा मे प्रस्तुत किया गया है 'किं कारण ब्रह्म कुतः स्म जाता जीवाम केन क च संप्रतिष्ठाः । अधिप्ठिताः केन सुखेतरेपु वर्तामहे ब्रह्मविदो व्यवस्थाम् ।। 'काल. स्वभावो नियतिर्यहन्छा भूतानि योनि पुरुप इति चिन्त्या। संयोग एपां न त्वात्मभावादात्माप्यनीश. सुखदु खहेतो. ॥' Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'ते ध्यानयोगानुगत्ता अपश्यन् देवात्मशक्तिं स्वगुणैनिगूढाम् । यः कारणानि निखिलानि तानि कालात्मयुक्तान्यधितिप्ठत्येक. ।।' 'स्वभावमेके कवयो वदन्ति कालं तथान्ये परिमुह्यमाना । देवस्यैष महिमा तु लोके येनेदं भ्राम्यते ब्रह्मचक्रम् ।।' 'छन्दांसि यज्ञाः क्रतवो व्रतानि भूतं भव्यं यच्च वेदा वदन्ति । अस्मान्मायी सृजते विश्वमेतत् तस्मिंश्चॉन्यो मायया सनिरुद्ध. ॥' 'मायां तु प्रकृति विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम् । तस्यावयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगन् ।' 'यथोर्णनाभिः सृजते गृह्णते च यथा पृथिव्यामोषधय. संभवन्ति । यथा सतः पुरुषात्केशलोमानि तथाक्षरात्संभवतीह विश्वम् ।।' वास्तव में सृष्टि रहस्य और उससे सवन्धित आत्मवाद की यह समन्वयात्मक व्याख्या वैज्ञानिक दृष्टि से भी मूल समस्या के विवेचन के लिए काफी ठोस और परिणामत. हृदय को स्पर्श करने वाली है। इससे अधिक इस गुत्थी को सुलझाने का कोई सुगम प्रकार दिखाई नहीं देता। तात्पर्य यह कि अध्यात्म-मार्ग पर अवलंवित स्तोत्र-साहित्य मानवमात्र के आत्मिक-जागरण, स्फूर्ति एव प्रेरणाओं का स्रोत है। इसके रग में रगे हुए कर्मयोगियों के लिए ससार यात्रा का भार हलका पडजाता है और विभिन्न देशकाल में उपनत होने वाले कर्मफल की भुक्ति साविक जीवन में बाधक नहीं बनती। यही इसकी सफलता का निदर्शन समझा जाना चाहिए। उत्थान-पतन की भौतिक घटनाओं के प्रभाव मे न फंसना ही स्तोत्र साहित्य के महत्व का परिचायक है । यही नहीं-यदि गंभीर दृष्टि से विचार किया जाय तो यह मानना होगा कि आध्यात्मिक क्षेत्र मे भारत की प्रबल जागरूकता का श्रेय यदि किसी को दिया जासकता है तो वह हमारा स्तोत्र साहित्य है । जिसके द्वारा जनमानस की वास्तविक शुद्धि होकर उसमे सत्य की सत्ता प्रतिविम्बित होने लगती है। सस्कृत का स्तोत्र साहित्य एक विशाल और व्यापक अनुभूतियों का भण्डार है। ऋषि मुनियों से लगाकर कवियों और प्राचार्यों तक ने इसके द्वारा अपनी २ भावनाओं को मूर्त एवं सजीव रूप दे दिया है। प्राचार्य पुष्पदन्त का 'शिव महिम्नस्तोत्र' एवं आचार्य शंकर की 'सौन्दर्यलहरी' इसके Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिनिधित्व की कसौटी हैं । उनकी भावपूर्ण उक्तियों पर किसका हृदय नहीं पिघलता। इसी प्रकार जगद्धर भट्ट की 'स्तुति कुसुमाञ्जलि' और पंडितराज जगन्नाथ की 'गङ्गालहरी' के संमुख किसका मरतक श्रद्धा से नहीं झुक जाता ? कहने का मतलब यह कि यहां के स्तोत्र साहित्य की विशालता का अनुमान लगा सकना भी हमारे लिए दुप्कर है। ज्ञात अज्ञात सैकडों स्तोत्र और स्तोत्रकार इस भारत भूमि मे जन्म ले चुके हैं, जिनके नाम और कृति का पता तक चला सकना कठिन ही नहीं असंभव होगया है। हमारे निकटतम सहयोगियों में जैन और बौद्ध धर्मावलम्वियों की भी स्तोत्र साहित्य की संपत्ति कुछ कम महत्व नहीं रखती। उन्होंने भी इस क्षेत्र में पर्याप्त एवं उच्चकोटि के साहित्य का सृजन किया है- जो कि भाषा और भाव दोनों ही दृष्टियों से महत्वपूर्ण तथा आदर की वस्तु है । पंचधारा की उपासना-वैदिक युग की समाप्ति और पौराणिक युग के प्रारभ में पंचधारा की उपासना इस देश की एक व्यापक परंपरा वन गई थी। विकाशवाद की दृष्टि से ऐसा होना स्वाभाविक था । वयोंकि निगुण ब्रह्म तक पहुँच सकना सर्वसाधारण की शक्ति और समझ से परे की बात थी। इधर आस्तिकों के हृदयों मे बौद्धिक स्तर पर होने वाली विभिन्न प्रतिक्रियाओं के समाधान स्वरूप किसी सर्वसंमत और सुलभ प्रणाली का निर्देशन भी आवश्यक समझा जाने लगा था। उसीके फलस्वरूप पंचधारा की उपासना का प्रचलन हुआ। इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि चैदिक साहित्य मे उपासना प्रणाली का कोई निर्धारित लक्ष्य या स्वरूप न था | यह स्वरूप तो वहुत पहले ही निर्धारित हो चुका था। किन्तु उस युग में वैदिक यज्ञों और इष्टियों का विशेष प्रचलन होने से इसका प्रचार सीमित रहा । उपासना के लक्ष्य और उसके महत्व की पुष्टि के लिए यहां कतिपय श्रुतियों का उल्लेख कर देना इसके स्वरूप परिचय मे सहायक ही नहीं आवश्यक होगा 'धनुहीत्वोपनिषदं महास्त्रं शरं ह्यु पासानिशितं संधयीत । आयम्य तद्भावगतेन चेतसा लक्ष्य तदेवाक्षरं सौम्य विद्धि ।' 'प्रणवो धनु. शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते । अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ॥' Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'यस्मिन् द्यौः पृथिवी चान्तरिक्षमोतं मनः सह प्राणैश्च सर्वैः । तमेवैकं जानथ आत्मानमन्या वाचो विमुञ्चामृतस्यैष सेतुः ।।' 'अरा इव रथनाभौ संहता यत्र नाड्य. स एषोन्तश्चरते बहुधा जायमानः । ___ॐ मित्येवं ध्यायथ आत्मानं स्वस्ति व. पाराय तमसः परस्तात् ।' 'तमेव धीरो विज्ञाय प्रज्ञां कुर्वीत ब्राह्मणः । नानुध्यायावहूछब्दान्वाचो विग्लापनं हि तत् ।।' उपयुक्त श्रुतियों से यह स्पष्ट है कि मूलतः यह उपासना प्रणाली वेदप्रसूत है। इसी प्रकार पञ्चदेवोपासना की तांत्रिक-पद्धति भी वेद संमत मानी गई है। किन्तु यहां इसकी अधिक चर्चा करने का अवसर नहीं। शिव-शक्ति-विष्णु-गणेश और सूर्य ये पांच देवता ही इस पंचधारा के उपास्य देव हैं। इनकी प्रमुखता के आधार पर ही सबकी अलग अलग और पञ्चायतन के रूप में एक साथ भी उपासना का क्रम शास्त्रों में वर्णित है। इसलिए आपस में यदि इन्हें एक दूसरे का पूरक कहा जाय तो कोई असंगति न होगी। क्योंकि गुणधर्मानुसार इनकी सत्ता अलग २ होने पर भी तात्विक दृष्टि से इनमें कोई अन्तर नहीं रह जाता। उपासना की दृष्टि से ये सभी समान रूप से फलदायक और ईश्वरीय शक्ति के प्रतीक हैं । अतः इस प्रसंग मे फल के तरतमभाव की कल्पना या एक दूसरे को छोटा वड़ा समझना केवल अज्ञान मूलक भ्रम है । इसलिए उपासना संबन्धी विभिन्नताओं और विविध कल्पनाओं के होते हुए भी परिणामतः मौलिक रूप की एकता असंदिग्ध और एक निर्णीत तथ्य है। _____ नाम और रूप का द्वन्द्वात्मक सृजन ही दृश्य जगत् का स्थूल रूप है। दूसरे शब्दों में शब्द और अर्थ की सामूहिक सृष्टि का परिणामन ही यह विश्व है। इस बात को हृदयङ्गम कराने के लिए दार्शनिकों ने शिव और शक्ति की समन्वयात्मक पृष्ठभूमि में ईश्वर के अर्धनारीश्वर रूप की सार्थकता और उसकी व्यावहारिक आवश्यकता बतलाई है । 'शक्तयस्तु जगत्सर्व शक्तिमॉस्तु महेश्वर. ।' की रूपणा द्वारा इस लक्ष्य की प्रधानता मानकर अद्वयवाद की पुष्टि की है । यद्यपि इस क्षेत्र में देश-काल और परिस्थितियों के कारण अनेक मतों और वादों ने जन्म लिया और उनका पारस्परिक संघर्ष भी दीर्घकाल तक चलता रहा, किन्तु Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्वभौम मान्यता अथवा स्थिरता की दृष्टि से वे अधिक टिकाऊ नहीं बन पाये। कारण यह था कि सैद्धान्तिक वातों में कोई मौलिक अन्तर न होने से अधिकांश में असहिष्णुता की भावना तथा पृथक् वर्गीकरण की दुष्प्रवृत्ति ही इसके मूल में निहित थी। और वह समय पाकर धीरे २ स्वतः शिथिल पड़ती गई । अन्ततः अद्वैतवादी विचारधारा का ही दूरदर्शी बुद्धिजीवियों ने आश्रय लिया। जो कि एकता की अनुभूति के लिए आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी थी। इस दृष्टि से वेदान्तियों के जीव ब्रह्म की एकता का नारा कोरा शुष्क कलह न होकर अद्वैतवाद की वास्तविकता किंवा यथार्थता का ही निदर्शन था। पचधारा के अन्तर्गत शिव, शक्ति और विष्णु की उपासना के क्षेत्र में प्रमुखता पाई जाती है, और हमारा स्तोत्र साहित्य अधिकांश मे इन्हीं से सम्बद्ध है। जैसा कि पहले कहा गया है सुप्रसिद्ध काश्मीरक कवि जगद्धर भट्ट की 'स्तुति कुसुमाञ्जलि' तथा शंकराचार्य की 'सौन्दर्यलहरी' आदि इसके सुदृढ स्तम्भ हैं । आर्ष एवं पौरुप स्तोत्रों मे अपनी २ रुचि के अनुसार इन देवताओं के ऐश्वर्य की गाथा अथवा यों कहिये कि गुणानुवाद की त्रिवेणी प्रवाहित हुई है। दुर्गापुष्पाञ्जलि प्रस्तुत दुर्गापुष्पाञ्जलि प्रधान रूप से भगवती त्रिपुरसुन्दरी को समर्पित पुष्पाञ्जलि है । आगम की परिभाषा में त्रिपुर-सुन्दरी का ही दूसरा नाम दुर्गा भी माना गया है। अतएव इनके मौलिक रूप में कोई अन्तर न होकर केवल संज्ञा मात्र का भेद है । यही त्रिगुणात्मिका शक्तियों की समष्टि के रूप मे 'श्रीविद्या' भी कहलाती हैं। यहां इन्हीं 'श्री विद्या' अथवा त्रिपुर सुन्दरी के अर्थ में दुर्गा शब्द प्रयुक्त हुआ है। इस प्रसंग मे यह बतला देना आवश्यक होगा कि पुष्पाञ्जलि शब्द का प्रयोग भी यहां अपने आगमोक्त अर्थ मे किया गया है। जो कि एक नियत और भावना विशेष का द्योतक है। पुष्पाञ्जलि शब्द की सार्थकता भी यहां इसी अर्थ मे हैं। यों इसका प्रयोग सामान्य रूप से जिस अर्थ मे किया जाता है, वह अर्थ भी इसमें निहित हो जाता है। आगम के नियमानुसार श्री विद्या के उपासक बहिर्याग के समय नौ पुष्पाञ्जलियां समर्पित करते है, उस नियम का निर्वाह करते हुए पुष्पाञ्जलिकार ने इन स्तोत्रों की श्लोक संख्या भी नौ ही रक्खी है। और इस प्रकार आगमोक्त प्रणाली का पूरा २ पालन किया गया है। इसका प्रथम विश्राम ही Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6- मुख्य रूप से पुष्पाञ्जलि का प्रधान अंग है। दूसरे विश्राम से इसका कोई सीधा सम्बन्ध नहीं । यद्यपि उसमें भी अर्धनारीश्वर की महिमा ही वरिणत हुई है । किन्तु उसकी रचना स्तोत्र साहित्य की विशुद्ध काव्यात्मक शैली को लेकर हुई है । अतएव इसके अन्तर्गत भारत की प्रधान सप्तपुरियों तथा सरयू यमुना आदि कुछ प्रमुख नदियों का वर्णन भी इसमें समाविष्ट है । जो कि स्तोत्र एवं काव्य की सम्मिलित भावना की दृष्टि से एक विशिष्ट महत्व की वस्तु है । इस अंश को प्रकीर्णक पुष्पाञ्जलि कह देना अधिक उपयुक्त होगा । पुष्पाञ्जलिकार का परिचय - पुष्पाञ्जलिकार का जन्म संवत् १६२० श्रावण कृष्ण १०, शुक्रवार को अयोध्या से आठ कोस पश्चिम 'सरयू नदी के दक्षिण तट पर 'थरेरू' नामक गांव में हुआ था । आपकी जाति - सरयूपारीण ब्राह्मण, उपाख्या - द्विवेदी, गोत्र - काश्यप, वेद शुक्लयजु, शाखा माध्यन्दिनी थी । आपके पिता का नाम सरयूप्रसाद द्विवेदी था । जो अपने समय में एक तपस्वी, शास्त्रज्ञ, तन्त्रविद्या के रहस्यज्ञ, एवं सम्मानित महापुरुष थे । अपने पिता से ही आपने प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त की थी । यज्ञोपवीत संस्कार के बाद, पिता की आज्ञा से आप नित्यपार्थिव शिवपूजन किया करते थे । संस्कारवश इसका फल 'ईशानः सर्व विद्यानाम्' ने शीघ्र ही पूर्ण किया । एवं १८ वर्ष की अवस्था में आप में कवित्व शक्ति का उद्गम हुआ और उसके फलस्वरूप सर्वप्रथम आपने 'प्रसन्न -चण्डीपति' अष्टक बनाया । अनन्तर आपको पिताने अपने मित्र लखनऊ के विख्यात रईस मुंशी नवल किशोर सी. आई. ई. की अनुमति से काशी मे ज्योतिष शास्त्र पढाने का निश्चय किया । तव मुन्शीजी ने वनारस के राजा शिवप्रसाद 'सितारे हिन्द' के. सी. आई. ई के पास भेजा और उन्होंने सुप्रसिद्ध गणितज्ञ म. म. बापूदेव शास्त्री सी. आई. ई. के निकट ज्योतिष पढने के लिए गवर्नमेंट संस्कृत कालेज में भरती कर दिया । कालेज का समय प्रात काल का नियत था, अतएव दोपहर के बाद आप म. म. गंगाधर शास्त्री की सेवा मे उपस्थित होकर साहित्य दर्शन आदि विषयों का अध्ययन भी करते रहे । उस समय काशी का विद्यापीठ नाम सार्थक हो रहा था, और हिन्दी के हरिश्चन्द्र युग का आरम्भकाल था । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-कालेज के सरस्वती-भवन से 'काशी विद्यासुधानिधि' (The Pandit ) नाम का मासिक-पत्र निकलता था। उसमें संशोधित और परिष्कृत रूप में संस्कृत साहित्य के विभिन्न विषयों के प्राचीन ग्रन्थों का प्रकाशन होता था। उसको देखभालकर द्विवेदीजी ने नवीन रोति से अन्य संपादन-कला का ज्ञान प्राप्त किया और ऐतिहासिक तत्त्वों की छानबीन मे निपुणता प्राप्त करली। आपके प्रधानाध्यापक वापूदेव शास्त्री कोंकण देश के दक्षिणी ब्राह्मण और अगरेजी ग्रह गणित के मार्मिक विद्वान् थे। वे योरोपियन प्रकारों का भारतीय सिद्धान्तों के साथ तुलनात्मक विवेचन किया करते थे। इस प्रसंग से आप भी अंग्रेजी ग्रहगणित के मूल सिद्धान्तों से भलीभांति परिचित होगये थे। इस प्रकार काशी मे विद्योपार्जन पूरा होने पर कालेज से परीक्षा का प्रमाण पत्र लेकर आप अपने गांव पंडितपुरी को. वापस आगये। आपके पिता राज्याश्रित होने से जयपुर मे रहा करते थे। ____साहित्य सवन्धी कार्यक्षेत्र का सामयिक ज्ञान प्राप्त होने से आप लखनऊ में उक्त मुंशी महोदय से मिले और दो प्रस्ताव उपस्थित किये । पहला ऋग्वेद का हिन्दी अनुवाद और दूसरा ज्योतिष के पाठ्य गणित-ग्रन्थों का हिन्दी अनुवाद । मुन्शीजी ने प्रस्तावों का अनुमोदन किया और आपको ग्रन्थ संपादन का कार्य सौंपा। आपने प्रथम भास्कराचार्य की लीलावती और वीजगणित का क्रम से संस्कृत टीका, भापा भाप्य एवं गणितोपपत्ति के साथ अनुवाद किया। दोनों ही ग्रन्थ नवल किशोर प्रेस, लखनऊ से प्रकाशित किये गये। जो आज भी शिक्षा संस्थाओं में पाठ्यग्रन्थ हैं। ऋग्वेद का अनुवाद भी आपने कई मण्डलो तक किया, किन्तु मुन्शीजी का आकस्मिक देहावसान होजाने से यह महाकार्य अधूरा ही रह गया। उसके बाद आप अपने पिता के पास जयपुर को चले गये। जयपुर में आपने महाराजा सवाई रामसिंहजी के नाम से 'राम गुणोदय' नामक चम्पू-काव्य लिखना आरंभ किया और चार सर्ग तक लिखा भी, परन्तु राजवैद्य भट्ट श्रीकृष्णराम कवि 'जयपुर विलास' काव्य पहले ही वना चुके थे इसलिए आपने उक्त चम्पू काव्य को दूसरे चरितनायक भगवान् रामचन्द्र की ओर ले जाकर 'दशकण्ठवध' नामक चम्पू काव्य बनाया । जो कि अभी हाल ही मे राजस्थान सरकार के 'राजस्थान पुरातत्त्वान्वेपण मन्दिर' द्वारा प्रस्तुत ग्रन्थमाला Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में प्रकाशित होने जा रहा है। इसमें गद्य पद्य का सहज-सुन्दर पद विन्यास और श्लेष-विरोधाभास आदि काव्योचित विशेषताओं का समावेश है। रामचरित होने से परमार्थाकलन का भी संपुट है। कालक्रमानुसार, संस्कृत कालेज, जयपुर में ज्योतिषाध्यापक की मांग हुई और राज्य ने आपको उस पद पर नियुक्त किया। अध्यापन कार्य करते हुए, बाकी समय में आप नवीन विषयों का अन्वेषण किया करते थे। आपको युक्लिद की ज्यामेट्री (रेखा गणित) हिन्दी अक्षरों की, पर उर्दू भाषा में पढाने को मिली जो उस समय के ऐग्लो-वर्नाक्युलर स्कूलों के लिए बाबू आत्माराम बी० ए०, जैसे उद्भट उर्दू दा लोगों द्वारा अनुवादित थी, क्योंकि संस्कृत में कोई पुस्तक न थी। छात्र लोग उसीके पारिभाषिक शब्दों और शकलों को घोटा करते थे। इस कठोर यातना से पीछा छुडाने के लिए आपने जयपुर नगर के निर्माता महाराज जयसिंह के राज्य ज्योतिषी जान्नाथ सम्राट् (१७७४ ई०) का बनाया १५ अध्यायों का जो भीमकाय एवं त्रुटित संस्कृत मे लिखा हुआ 'रेखा गणित' पड़ा था उसमे से प्रयोजनीय भागों को योरस के हंदर आदि की पुस्तकों से मिलान करके आदि के ६ अध्यायों को दो भागों में, उत्तम संस्कृत के छोटे वाक्यों में उपपत्ति तथा क्षेत्रों के साथ लिखा और उसका नाम 'क्षेत्रमिति' रक्खा। ___ जयपुर के तत्कालीन शिक्षाविभागाध्यक्ष बाबू कालीपद बनर्जी ने इसको कलकत्ते में प्रकाशित करके पाठ्य मे नियुक्त किया। बाद मे इस क्षेत्रमिति को काशी, बिहार और बंगाल की सरकारी शिक्षा संस्थाओं ने भी स्वीकृत किया और वह आज भी पाठ्यग्रन्थ है। कुछ ही समय बाद आप उक्त संस्कृत कालेज में ज्योतिष शास्त्र के प्रधानाध्यापक नियुक्त हुए और आचार्योचित शिक्षा देकर कई छात्रों को सफल किया। भारत के विभिन्न प्रान्तों मे आपके शिष्य शिक्षा क्षेत्र में कार्य कर रहे हैं। इसी प्रसंग में आचार्यश्रेणि में पाठ्य 'जैमिनि सूत्र' को सुन्दर श्लोकबद्ध अनेक संस्कृत छन्दों में निर्माण कर 'जैमिनि पद्यामृत' नाम से प्रसिद्ध किया। इसमें जैमिनि मुनि के दुर्योध, जटिल और अव्यवस्थित सूत्रों की व्यवस्था करके रूढिवादी वृद्धफारिकाओं की संगति लगा कर उनका सोदाहरण स्पष्टीकरण किया गया। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० प्रसंगवश आप संस्कृत कालेज के अध्यक्ष पद पर नियुक्त किये गये और दीर्घकाल तक सुव्यवस्था एवं मर्यादा के साथ कार्यभार का संचालन किया तथा 'चातुर्वर्ण्य शिक्षा' आदि ग्रन्थों के निर्माण, और विभिन्न विषयों के अनेक ग्रन्थों के संस्करण में समय लगाया। जयपुर में निवास करते हुए श्राप सन् १६०४ ई० मे राज्य की आज्ञा से वंबई की 'पंचाग शोधन सभा' में अपने शिप्य वर्ग और दूसरे राज्यज्योतिपियो के साथ सम्मिलित हुए थे। यह सभा उस समय के शृंगेरी-मठाधीश श्रीशंकराचार्य की अध्यक्षता में हुई थी। इसके आयोजक लोकमान्य तिलक आदि प्रमुख धीरगम्भीर देश नायक थे। भारत के प्रत्येक प्रान्त से बडी संख्या में ज्योतिपियों का जमघट हुआ था। पंचाग विपयक सशोधन उपस्थित किया गया और तदनुसार सर्वसम्मति से नवीन करण ग्रन्थ ग्रहलाघव के नमूने का बनाना निश्चय हुआ। प्राचीन धार्मिक रूढिवादी और नवीन कायाकल्प के गणितन्त्रों ने उदयास्त ग्रहण आदि के दृक्प्रत्यय-कारक संस्कारों का विचार विनिमय किया। उसके वाद सालों तक चर्चा का प्रवाह जारी रहा और अन्त मे दक्षिण देश के 'सांगली' नगर में पुनः आपसी विवाद और काट-छांट के लिए ज्योतिप सम्मेलन रचा गया । परन्तु आज लगभग ७० वर्ष से काशी आदि मे जिन भीतरी प्रन्थियों को सुलझाने का विद्वानों ने प्रयास किया था उसका कोई सर्वसम्मत निपटारा न होसका। अपितु साम्प्रदायिक प्रन्थियां उलझती ही गई । अस्तु । ' उक्त अवसर पर आपने पूर्वापर के समन्वय, के साथ निर्णयात्मक 'पञ्चाङ्ग तत्त्व' नामक श्लोकवद्ध निवन्ध लिखा और वह विद्वत्समाज मे वितीर्ण किया गया । इस अवसर पर उक्त सभा के अध्यक्ष श्री शंकराचार्य महाराज ने आपको 'ज्योतिः कविकलानिधि' का प्रमाण पत्र अर्पित किया था। सन् १९१६ ई० मे आप हिन्दू-विश्वविद्यालय, वनारस के शिलान्यास समारोह मे जयपुर राज्य की ओर से प्रतिनिधि वनाकर भेजे गये थे। आपने वहां की संस्कृत शिक्षा संवन्धी पाठ्यपुस्तकों के बारे में अपनी स्वतन्त्र सम्मति दी थी, जो युनिवर्सिटी सम्बन्धी कार्यक्रम की रिपोर्टों में प्रकाशित है। आप वहां की ओरियन्टल फेकल्टी ( Faculty of Oriental Learning) के सभासद Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थे। बोर्ड आफ संस्कृत स्टडीज-यू० पी० (UP Board of Sanskrit Studies ) के भी सदस्य निर्वाचित किये गये थे। सन् १६१८ ई० में आपकी बनाई हुई 'चातुर्वर्ण्य शिक्षा' की हस्त लिखित प्रति डा० वेनिस प्रिंसिपल, संस्कृत कालेज बनारस ने, जो कि भारतीय दर्शनशास्त्र के विशेषज्ञ थे, देखी और आपकी विद्वत्ता पर मुग्ध होगये। कालेज के अन्य प्रमुख विद्वानों ने भी उक्त पुस्तक का अनुशीलन करके अपनी सम्मति प्रदान की। : तदनन्तर शिक्षा विभाग के उच्च अधिकारियों को उक्त ग्रन्थ का महत्व ज्ञात हुआ और युक्तप्रान्त की सरकार ने आपको 'महामहोपाध्याय की पदवी देने का निश्चय किया। आप यू०पी० के निवासी तथा प्रान्त के विद्वान थे । परन्तु जयपुर स्टेट सर्विस मे थे। सन् १६१८ ई० मे उक्त पदवी की पोशाक और प्रमाण पत्र जयपुर के रेजीडेट महोदय के द्वारा स्टेट कौंसिल को भेज दिया गया । यह सवादजवजयपुर नरेश धर्मप्राण महाराज श्री सवाई माधव'सिंहजी को बतलाया गया तो वे बहुत सन्तुष्ट और प्रसन्न हुए। इस उपलक्ष्य में जयपुर के प्रधान, पुष्पोद्यान 'रामनिवास बाग' में बडे समारोह के साथ सभा आमंत्रित की गई, एवं रेजीडेंट महोदय ने स्वयं आपको उक्त पदवी का प्रमाण पत्र अर्पित किया। . .. - . - इस प्रकार आपने प्रसंगागत अनेक लौकिक, धार्मिक और सामाजिक कार्यों का नियमानुसार संचालन करते हुए समयवश शारीरिक शिथिलता का अनुभव करके सन् १९२६ ई० में संस्कृत कालेज के अध्यक्षपद से अवकाश ग्रहण कर लिया। वारतव मे आप वानप्रस्थाश्रम के भाव से जयपुर मे अयाचित व्रत से निवास करते थे और शास्त्र चिन्तन एवं परमेश्वराराधन में सदा मग्न रहते थे । ससारी कर्मजाल और कृत्रिम बाह्याडम्वर के प्रलोभनों से अलग होने पर भी जनता की श्रद्धा और विश्वास के आश्रय थे। सन् १९३३ ई० में आपने जयपुर नगर के उपनिवेश ब्रह्मपुरी में, बस्ती के समीप ही सड़क पर एक स्वतन्त्र स्थान वनवाया था। इसका नाम 'सरस्वती पीठ' है। इस पीठ के बाहरी फाटक पर देवनागरी अक्षरों मे' 'तेजस्विनावधीतमस्तु' लिखा है। पीठ के भीतर कूप, पुष्पवाटिका और विभिन्न स्थानों Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ का सन्निवेश है । इस समय इसी में आपका विशाल पुस्तकालय स्थापित है । इसमें सभाप्य चारों वेद, उपनिषद्, और व्याकरण, दर्शन, अष्टादशपुराण, ज्योतिप, तन्त्र तथा काव्य - साहित्य के संस्कृतवाङ्मय का लिखित एवं मुद्रित रूप में संग्रह है । हिन्दी, बंगला, मराठी, और अगरेजी की चुनी हुई पुस्तकों तथा संस्कृत हिन्दी के मासिक पत्रों का संग्रह है । विद्याप्रेमी अधिकारी वर्ग इससे लाभान्वित होते रहते हैं । 1 आप इधर वृद्धावस्था के कारण प्रायः अस्वस्थ रहा करते थे और जयपुर से अपनी जन्म-भूमि को चले गये थे । वहीं अपने आश्रम 'पंडितपुरी' * में आपका औषधोपचार होता था । अन्त में समस्त परिवार स्त्री, पुत्र, पौत्र और प्रपौत्रों के समक्ष ध्यान मग्न होकर चैत्र कृष्ण में विक्रम संवत् १६६४ में आप ब्रह्मभाव को प्राप्त हुए। आपका अन्तिम संस्कार भगवती वासिष्ठी 'सरयू' नदी के तट पर कुलप्रथानुसार किया गया था । * अयोध्या ( जिला फैजाबाद उत्तर प्रदेश ) से पश्चिम आठ कोस पर यह स्थान है। ख़ास मौजा पिलखाचा हे । इसमें 'वयस' नामक क्षत्रिय और उनके धर्म-कर्म के आचार्य 'जोरवा' उपनाम के सरयूपारी पाण्डे ब्राह्मण रहते हैं । उत्तर रेलवे की लखनऊ - मोगलसराय लाइन पर फैजाबाद से चौथा स्टेशन 'देवराकोट' है । स्टेशन के दक्षिण पास मे ही 'पंडितपुरी' है। इसमें ५०७ घर अहीरों के और भूमि संपत्ति के साथ आपके पिता का बनवाया हुआ विन्ध्यपापाण का एक साम्बशिव का मन्दिर, कूप, फल-पुष्पवाटिका और पुस्तकालय आदि हैं । द्विवेदीजी ने इसका नामकरण 'शिव- दुर्गापीठ' किया है और अपने पिता के नाम से पीठ के प्रधान द्वार के समीप पाषाण पर खुदा हुआ एक कीर्ति स्तम्भ भी प्रतिष्ठित किया है। इस स्थान से दो मील उत्तर सरयू नदी बहती हैं | उक्त मंदिर मे संगमरमर के पाषाण मे उत्कीर्ण एक शिलालेख लगा हुआ है जोकि इस प्रकार है 'यः साक्षाद् यजुषा ऋचा च बहुशो वेदेषु मीमांस्यते यत्रैवेश्वरशब्दशक्तिविपयः शास्त्रेषु निर्धार्यते । यञ्चैकोऽपि विचित्रदर्शनदृशा नानाकृतिः कल्प्यते सोऽयं पापहरः शिव. शिवकृते वर्वर्ति सर्वोपरि ॥१॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ आपके द्वारा लिखित, अनूदित एवं संपादित विभिन्न विषयों की पुस्तकों की तालिका निम्नलिखित है - ज्योतिष १ - उपपत्तीन्दुशेखर - 'सरस्वती पीठ' द्वारा प्रकाशित । भास्कराचार्य की सिद्धान्त शिरोमणि का सोपपत्तिक संस्कृतभाष्य ।. २- जैमिनिपद्यामृत - निर्णयसागर प्रेस, बम्बई से प्रकाशित । जैमिनिमुनि के सूत्रों का परिष्कृत एवं श्लोकबद्ध निबन्ध | ३- लीलावती (भास्करीय पाटीगणित) नवलकिशोर प्रेस लखनऊ से प्रकाशित । 'विलासी' नामक संस्कृत टीका एवं भाषाभाष्य | १- बीज - गरिणत ( भास्करीय) न० कि० प्रेस, लखनऊ से प्रकाशित । 'विलासी' नामक संस्कृत टीका एवं भाषाभाष्य । स्वस्ति श्रीमान् महर्षीणा प्रवरोऽभूत् स काश्यपः । विभाण्डकर्घ्यशृङ्गाद्यो सन्तति र्यस्य विश्रुता ||२|| : तत्र श्रीभगवद्रामकरुणापरिवृ हिते । · • अभूवन् सरयूतीरवासिनो ब्राह्मणर्षभाः ||३| तद्गोत्रज. शुक्लयजुर्वेदाध्यायी विदांवरः । वेणीप्रसाद İइत्यासीद् द्विवेदपभूषित ||४|| राधाकृष्णस्ततो जज्ञे सांख्यशास्त्रनिषण्णधीः । कविना येन जनता दयादृष्टया चिकित्सिता ततोऽजनिष्ट सरयूप्रसाद शास्त्रतत्त्ववित् । य. स्निह्यत्यधिक नन्दकिशोरे स्वानुजे विदि ||६|| येन जालन्धरे पीठेऽवासि श्रीगुरुसन्निधौ । तीर्थेऽरण्ये जयपुरे तथा भावयतागमान् ||७|| अयोध्या पश्चिमप्रान्ते सरयूतमसान्तरे । स्वार्जिते 'पण्डितपुरी' ग्रामेऽत्र बहुपादपे ||८|| यातेषु विक्रमादेषु षष्टिगोशीतरश्मिषु (१६६०) ॥ तेन द्विवेदविप्रेण कारितोऽयं शिवालयः ॥६॥ धर्मार्थकाममोक्षाणां संसिद्धि र्जायते यतः । तत्र श्रीशङ्करे भक्ति: श्रद्धा च भवताद् दृढम् ॥१०॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५- क्षेत्रमिति-(रेखागणित ) न० कि० प्रेस, लखनऊ से प्रकाशित । ६- गोलक्षेत्रमिति । ७- गोलत्रिकोणमिति अप्रकाशित.. ८- सूर्य-सिद्धान्त-समीक्षा-नि० सा० प्रेस, बम्बई से प्रकाशित । १- अधिमास-परीक्षा-वेङ्कटेश्वर प्रेस, बम्बई से प्रकाशित । १०- पञ्चाङ्गतत्त्व-नवल किशोर प्रेस, लखनऊ से प्रकाशित । ११- पञ्चाङ्गाभिभाषण-नवल किशोर प्रेस, लखनऊ से प्रकाशित । दर्शन१- चातुर्वर्ण्य-शिक्षा-नवल किशोर प्रेस, लखनऊ से प्रकाशित । २- वेद-विद्या अप्रकाशित। ३- ब्रह्म-विद्या काव्य-साहित्य१- साहित्यदर्पण-'छाया' नामक विवृतिपूर्ति नि० सा० प्रेस, बम्बई से प्रकाशित । २- दशकण्ठवध-राजस्थान पुरातत्त्वान्वेषण मन्दिर, जयपुर द्वारा प्रकाशित । ३- दुर्गापुप्पाञ्जलि-राजस्थान पुरातत्त्वान्वेषण मन्दिर, जयपुर द्वारा प्रकाशित । ४- देवराज-चरित ( चम्पू काव्य ) नि० सा० प्रेस, बम्बई से प्रकाशित । प्रकीर्णक१- भारतीय-सिद्धान्तादेश-नि० सा० प्रेस, बम्बई से प्रकाशित । २- भारतशुद्धि । ३- भारतालोक राजस्थान पुरातत्त्वान्वेषण मन्दिर द्वारा मुद्रणार्थ स्वीकृत । ४- मनुयाज्ञवल्कीय-अप्रकाशित । ५- श्रीमद्भगवद्गीता-'सुवोध कौमुदी' सहित नि० सा० प्रेस, वंबई से प्रकाशित । ६- ईश्वरभक्ति (हिन्दी) नवल किशोर प्रेस, लखनऊ से प्रकाशित । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्रों का संक्षिप्त विवरण । प्रथम-विश्राम । १-परमाथोकलन-इसमें दार्शनिक दृष्टि से जीव ब्रह्म का वास्तविक अभेद बतलाते हुए एकमात्र ईश्वर की सत्ता, व्यापकता और उसके सच्चिदानन्द स्वरूप का परिचय कराया गया है । उसीके द्वारा दृश्य जगत् की सृष्टि, स्थिति और संहार रूप की क्रियाओं का परिणमन दिखलाया है । शक्ति और शक्तिमान् की अभिन्नता एवं ब्रह्मा-विष्णु-रुद्र आदि भेदक नामों की कल्पना, और ईश्वर के नामरूप की विभिन्नता के होते हुए भी वास्तव में उनकी एकता की स्थिति का प्रतिपादन किया गया है। और इस प्रकार दर्शनों द्वारा विभिन्न भूमिका मे आत्मपरीक्षण किये जाने एवं प्रस्थान-भेद के होने पर भी मौलिक रूप मे उनकी एकवाक्यता का निरूपण किया गया है। - २-जगदम्बा-जयवाद-इसमें शब्द और अर्थ की सृष्टि का प्रकार, उसकी व्यापकता और उसके द्वारा प्रधान रूप से स्थूल जगत् का परिणामन बतलाया गया है। वेदान्तियों की परिभाषा में इसी को नाम और रूप की संज्ञा दी गई है। शास्त्रों में वर्णित परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी इन चारों पारिभाषिक नामों के द्वारा शब्द-ब्रह्म की विभूति के रूप में भगवती के ही विविध रूपों का चित्रण होना दिखलाया है। शक्ति और शक्तिमान् का अभेद होने से शब्द और अर्थ की अभिन्नता और उसकी व्यापकता का संतुलन करते हुए भगवती के शंकर की अर्धाङ्गिनी कहलाने को यथार्थता और उपयोगिता का निदर्शन किया है, और सभी प्रकार के सुख-सौभाग्य की प्रतिष्ठा का प्रधान केन्द्र बिन्दु बतलाया है। श्रागमोक्त शक्ति-पीठों में प्रधान माने जाने वाले जालन्धर , पीठ की अधिष्ठात्री व शी (महालक्ष्मी) के स्थूल और सूक्ष्म दोनों तरह के संमिलित रूपों का इसमें वर्णन प्रस्तुत किया है। ३-ईहाष्टक-इसमें कांगडा की सुप्रसिद्ध ज्वालादेवी के ऐतिहासिक मन्दिर और वहां के प्राकृतिक दृश्यों का वर्णन किया गया है । इनके संबन्ध में प्रचलित पौराणिक आख्यान, ज्वाला नाम की प्रसिद्धि और उसकी सार्थकता, एवं उनकी लोकोत्तर महिमा और प्रभाव का चित्रण है । साथ ही भक्तजनोचित हृदय से और किसी बात की आकांक्षा न करते हुए एकमात्र उनके प्रति अटूट श्रद्धा और अपनी भक्ति की स्थिरता के लिए कामना की गई है। भक्त की Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निष्ठा का न डिगना ही उसका प्रमुख लक्ष्य होता है, क्योंकि वास्तव में यही उसकी सर्वोपरि सफलता मानी जाती है। इसीलिए इस स्तोत्र के ईहाप्टक नाम की सार्थकता है। ४-देवकाली-महिमा-देवकाली महाकाली का ही दूसरा नाम है। प्रस्तुत महिमा में महाकाली की ही प्रशस्त महिमा का वर्णन और उनकी उपासना द्वारा प्राप्त होने वाले आगमोक्त विशेष फलों का उल्लेख किया गया है । इसके अतिरिक्त, स्तुति की समाप्ति में सत्त्व, रज और तम तीनों के गुणधर्मानुसार, त्रिशक्ति के रूप में उनके अवतार का निरूपण एवं तीनों ही रूपों का आगम-संमत स्वरूप-परिणामन दिखलाया गया है। इस स्तुति की यही विशेषता है। . . ५-चण्डिका-स्तुति-यह भगवती चण्डी देवी के आश्रम का प्राकृतिक वर्णन और उनके चण्डी स्वरूप का प्रतिपादन है। उक्त स्थान गोमती के तट पर स्थित है। इसका विशेष परिचय आगे दिया गया है। ६-महिषमर्दिनी-गीति- इसमें भगवती महिषमर्दिनी (महिषासुर नामक राक्षस का वध करने वाली कौशिकी ) के प्रादुर्भाव से लगाकर उनके महालक्ष्मी स्वरूप की परिणति तक के आगमोक्त समष्टि रूप का वर्णन किया गया है। सुप्रसिद्ध नवार्णमन्त्र की यही प्रधान देवता हैं। इसके अतिरिक्त मार्कण्डेय पुराणान्तर्गत सप्तशती (दुर्गापाठ) में वर्णित प्रथम, मध्यम और उत्तम तीनों चरित्रों की अधिष्ठात्री महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती के स्वतत्र रूपों का भी क्रमशः निदर्शन है। नवार्णमंत्र के तीनों बीजों का महत्व और उनके प्रतिपाद्य अर्थों का परिचय कराया गया है । सङ्गीतकला के प्रेमियों के लिए गान के रूप मे उक्त गीति अपना और अधिक महत्व रखती है। ७-सकलजननी-स्तव- यह भगवती त्रिपुर सुन्दरी (श्रीविद्या) के प्राकृतिक किन्तु साकार-स्वरूप का वर्णन है। इसीके साथ २ उनकी पूर्ण विकसित अवस्था और महिमा का चित्रण किया गया है। आगम ग्रन्थों में इनको शक्ति-मण्डल की प्रधान नायका और महाराज्ञी बतलाया गया है। इसीलिए इनको सकलजननी कहा जाता है । स्तोत्र-साहित्य के प्राचीन प्रमुख-स्तोत्र 'पश्चस्तवी' मे भी इनकी स्तुति सकलजननी के नाम से की गई है। , Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८-सौख्याष्टक-इसमें त्रिपुर-सुन्दरी के विविध माङ्गलिक रूपों का निरूपण किया गया है। शरणागत के उद्धार में भगवती की कर्तव्यपरायणता का स्मरण कराते हुए भक्त द्वारा मनोवाञ्छित लौकिक एवं पारलौकिक दोनों प्रकार के सुखों की पूर्ति की प्रार्थना, तथा इस भाव के अनुरूप उनके सौख्यस्वरूप का चिन्तन करना बतलाया है। 8-अम्बा-वन्दना-इसमें 'श्रीयन्त्र' के आगमोक्त स्वरूप का प्रतिपादन है ।। मूलाधार-स्वाधिष्ठान आदि षट्चक्रों के द्वारा अन्तर्याग की भावना का प्रकार एवं श्रीचक्र के अन्तर्गत आवरण देवताओं के साथ श्री विद्या के दिव्य सौन्दर्य की सृष्टि, चिन्तामणि नामक दिव्य-आगार में उनके निवास, देवताओं द्वारा उनकी सामूहिक वन्दना तथा ब्रह्मा, विष्णु और शंकर को प्रसन्न होकर महर्षिपद देने का उल्लेख किया गया है । १०-आदेशावधाटी-यह प्रधान रूप से भगवती दक्षिणा-कालिका की “स्तुति है । इसमें उनके निरङ्कुश ऐश्वर्य और उच्चतम प्रभुशक्ति का प्रतिपादन किया गया है। इसके सिवा उपासना क्षेत्र में इनकी अपनी विशेषताओं का निर्देश करते हुए विविध विद्याओं और कलाओं का इन्हें प्रधान आवास माना है। भक्त द्वारा जानबूझकर किये गये दण्डनीय अपराधों का भी अपने सहजसुलभ वात्सल्य भाव से मन्दस्मित करते हुए क्षमादान कर देने का इनका लोकोत्तर साहस दिखलाया है। संस्कृत के अश्वधाटी छन्द में यह. स्तुति प्रस्तुत किये जाने और साथ ही आदेश लेजाने वाले अश्वों की दौड, का अर्थ लेकर इस स्तव का यह नामकरण किया गया है। ११-स्वाथोशंसनम्- इसमे अर्धनारीश्वर एवं गुरुरूप में भगवती के साकार भाव का प्रतिपादन करते हुए उनके उपासनात्मक स्वरूप का विवेचन है। इसके साथ साथ शास्त्र के विधि-विधान के अनुसार कष्ट साध्य उपासना-मार्ग का वोमा ले चल सकने में अपनी स्वाभाविक असमर्थता, फलतः इसके विकल्प में केवल आगमोक्त नामपारायण के सहारे अभीष्टलाभ मिल सकने की. निश्चिन्तता और एतदर्थ अपेक्षित तन्मयता को अक्षुण्ण रखने की कामना की है। इस तन्मयतारूप स्वार्थ पूर्ति की कामना ही इस स्तोत्र का प्रधान लक्ष्य है अतएयः इसे 'स्वार्थाशंसन' का नाम दिया गया है। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२-अन्तर्विमर्श-इसमे मुख्यतः कुण्डलिनी शक्ति के आरोह और अवरोह के क्रम का प्रतिपादन तथा योगदर्शन मे वर्णित संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात समाधियों द्वारा उसके साक्षात्कार का दिग्दर्शन कराया है। इसके अतिरिक्त साकार और निराकार दोनों अवस्थाओं मे उपासना की दृष्टि से भावना की प्रधानता, व्यापकता और उसके द्वारा विविध शक्ति रूपों का परिणामन दिखलाया गया है। समूचा स्तोत्र कुण्डलिनी के ही चमत्कार पूर्ण विलासों का निदर्शन है। तंत्रशास्त्र की परिभाषा में इसको अन्तर्याग की संज्ञा दी गई है। यहां इसी अन्तर्याग के वर्णन के कारण इसका नाम अन्तर्विमर्श रखा गया है। १३-आर्याभ्यर्चना-इसमें भगवती के निराकार रूप की प्रधानता बतलाते हुए सर्वसाधारण की दृष्टि से उनके साकार रूप की कल्पना तथा पञ्चायतन के रूप में उपासना प्रणाली की प्रमुखता का निर्देश किया है। साथ ही इस उपासना के द्वारा लौकिक सुखों के उपभोग तथा स्वर्ग और अपवर्ग (मोक्ष) तीनों की सुगम उपलब्धि का निरूपण है। शक्ति-पञ्चायतन के पूजा प्रकार में स्थूल और सूक्ष्म दोनों उपासना क्रमों का समन्वय और उनका एकत्र अन्तर्भाव होना भी बतलाया गया है। १४-अवस्था-निवेदन-इसमे भक्त की कठिनाइयों और उसकी अपनी करुणदशा का वर्णन प्रस्तुत किया गया है। एक ओर सामाजिक जीवन में होने वाले विपरीत और कटु अनुभव दूसरी ओर मानव सुलभ दुर्बलताओं 'का अनेक रूप से चित्रण करते हुए भक्त की विवशता एवं दयनीय दशा का हृदयस्पर्शी विश्लेषण उपस्थित किया है। दुनियादारी के जाल और प्रलोभनों में फंसकर मनुष्य किस प्रकार अपना विवेक खो बैठता है, स्वार्थ के वशीभूत होकर सत्य और असत्य की परवाह न करके किस प्रकार अपने कर्तव्यमार्ग से च्युत हो जाता है। परिणाम में उसे कैसी निराशाओं का सामना करना पडता है, और अन्त में अपने किये पर कितना अनुताप होता है, आदि व्यवहार क्षेत्र के संवन्ध में मार्मिक उद्बोधन है। इसकी रचना संस्कृत के शिखरिणी छन्द मे होने से करुण और वात्सल्य रस का संपुटित परिपाक अपनी चरम सीमा पर पहुंच जाता है। इसमें वर्णित अनुभूतियां हृदय को द्रवित करने वाली हैं। अत. यह अवस्था निवेदन मानसिक वेदनाओं की प्रधानता के कारण स्वसंवेद्य है। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. वास्तव मे विपन परिस्थितियों मे उलझे हुए मानव हृदय को बडी गहरी चोट लगती है, और उस अवस्था में उसके लिए माता की दया का ही एक मात्र अवलंब शेष रह जाता है । उसकी शरण में पहुँच जाने पर हृदय को शांति मिलना स्वाभाविक होता है, इधर व्यवहार दशा में भी बालक के कष्टों और ऊंचे नीचे अभाव-अभियोगों को स्नेहपूर्वक सुनना और उचित आश्वासन देकर संतुष्ट करना माता का स्वभाव-सिद्ध गुण हुआ करता है । १५ - आत्मसमर्पण- इसमें कवि ने जीवन में घटित होने वाले स्वयं के प्रमादों और मनुष्य सुलभ विवशताओं का लेखा-जोखा उपस्थित करते हुए भगवती की सहज सुलभ करुणा के प्रति हृदय का स्वाभाविक आकर्षण, उसकी छत्रच्छाया में सुरक्षा की स्थिरता, और उसके अकृत्रिम वात्सल्य का गुणानुवाद करते हुए, अपनी कमियों की ओर संकेत किया है और अनन्यगतिक होकर माता के चरणों मे आत्मसमर्पण कर दिया है । साथ ही यह अभिलाषा व्यक्त की है, कि उसका यह स्नेह बन्धन कभी टूटने न पावे । द्वितीय- विश्राम | १. दुर्गाप्रसादाष्टकम् - इसमें कामरूप, पूर्णगिरि आदि, तन्त्रों में वर्णित चारों प्रधान शक्ति पीठों की मूलाधार आदि कतिपय चक्रों में की जाने वाली भावना- प्रधान उपासना का मार्गदर्शन करते हुए आगमोक्त कालीकुल और श्रीकुल के अन्तर्गत परिगणित होने वाली विभिन्न शक्तियों के आविर्भाव और उनकी शास्त्र सम्मत मौलिक एकता का निर्देश है । इस प्रसंग से तन्त्र शास्त्र में वर्णित मेधा सामाज्यदीक्षा आदि कुछ प्रमुख दीक्षाओं का संकेत-रूप में निदर्शन और मूलशक्ति के साथ उनका श्रभेद बतलाया गया है । पराशक्ति की प्रधानता और उसके द्वारा स्थूल और सूक्ष्म दोनों उपासनाओं का उद्गम और उनके पारमार्थिक रूप का भी परिचय है। संक्षेप में, इसके भीतर श्रागम के कुछ रहस्यपूर्ण सिद्धान्तों का भी सूत्ररूप से उल्लेख हुआ है, जो गुरुगम्य हैं । २. नव दुर्गास्तव - दुर्गा सप्तशती के देवीकवच में निर्दिष्ट नवरात्र की में प्रधानता रखने वाली शैलपुत्री आदि नवदुर्गाओं की यह स्वतन्त्र स्तुति पूजा Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० है । नवदुर्गाओं का कोई स्वतंत्र स्तोत्र उपलब्ध नहीं होता। अतएव उनके संवन्ध में प्रचलित पौराणिक आख्यानों का सार और आगमोक्त विशेषताओं का समन्वय करते हुए गुणधर्मानुमोदित वर्णन है। तथा महाकाली आदि दुर्गापाठ मे वर्णित त्रिशक्तियों का इनसे संवन्ध और अन्त में इन सवका दुर्गा के रूप मे अन्तर्भाव होना बतलाया है । ३. अष्टमूर्ति-स्तव-अष्टमूर्ति शिव और शक्ति का संमिलित नाम माना गया है। पृथ्वी आदि पञ्चतत्त्व, यजमान और सूर्य-चन्द्र के रूप मे शंकर के जो आठ प्रकार के रूप शास्त्रों में निर्दिष्ट हैं उनके अनुसार प्रत्येक मूर्ति की अलग २ उल्लेखनीय विशेषताओं को लेते हुए यह स्तुति की गई है । महाकविकालिदास के अभिज्ञान शाकुन्तल के मङ्गलाचरण मे शिव की इन्हीं अष्टमूर्तियों की स्तुति की गई है, जो कि इस प्रकार है 'या सृष्टिः स्रष्टुराद्या वहति विधिहुतं या हवि र्याच होत्री ये द्वे कालं विधत्त. श्रुतिविषयगुणा या स्थिता व्याप्य विश्वम् । यामाहुः सर्ववीजप्रकृतिरिति यया प्राणिनः प्राणवन्तः प्रत्यक्षाभिः प्रपन्नस्तनुभिरवतुवस्ताभिरष्टाभिरीशः ॥' इस प्रसंग में शैवदर्शन में प्रतिपादित षट्त्रिंशत् तत्त्वों का शिव में अन्तर्भाव होना भी बतलाया है। ४. चण्डीशाष्टक इसमें रौद्ररस की प्रधानता है, और उसी के अनुरूप स्रग्धरा छन्द में इसकी रचना की गई है । मदन दहन, शिवजी के ताण्डव नृत्य तथा शिव-परिवार के सभी प्रधान अगों का प्राकृतिक और सुन्दर वर्णन है। रौद्ररस का परिपोष होने से स्तोत्र की सजीवता हृदयाकर्पक है। ५. हरिहराएक-यह विष्णु और शिव की संमिलित स्तुति है। दोनों फा आपस मे एक दूसरे के प्रति स्वाभाविक स्नेह-वन्धन बतलाया गया है। एक मे शृगार और दूसरे में वैराग्य की प्रधानता स्वीकार करते हुए मौलिक दृष्टि से दोनों की एकता का स्थापन किया है। साथ ही मनमानी खींचतान के द्वारा उपासना क्षेत्र मे संप्रदायागत दोनों के पारस्परिक विरोध को अवास्तविक और शास्त्रविरुद्ध ठहराया है। व्यास आदि मान्य ऋषि मुनियों को भी यही संमत है, क्योंकि दोनों ब्रह्म के ही प्रतीक हैं और उनमें कोई मौलिक भेद नहीं हैं। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. शिवगाथा- यह सरल-सुगम किन्तु भावपूर्ण श्रारात्रिक है। भाषा से इसे 'आरती' कहते हैं । हिन्दी और दूसरी प्रान्तीय भाषाओं में प्रायः सभी देवताओं की आरतियां पाई जाती हैं-किन्तु संस्कृत के क्षेत्र में इस ढंग के आरात्रिक बहुत कम देखने में आते हैं। ७. सरयू-सुधा-यह वसिष्ठतनया भगवती सरयू की भावपूर्ण स्तुति है। आर्ष किंवा पौरुष दोनों रूपों में सरयू का कोई प्रामाणिक स्तोत्र नहीं देखा जाता । इस अभाव पूर्ति की दृष्टि से इस स्तुति का विशेष महत्व समझा जाना चाहिए । इसमे सरयू के प्राकृतिक सन्निवेश, उनकी अगाध जलधारा की विच्छित्ति तथा 'देवतोचित महिमा का वर्णन है। अयोध्या में सरयू तट पर सुप्रसिद्ध नागेश्वरनाथ का ब्योतिर्लिङ्ग होने से इनका असाधारण महत्व माना जाता है। धार्मिक और साहित्यिक दोनों दृष्टियों से इनका वर्णन चमत्कारपूर्ण कहा जासकता है। ___ महाकवि राजशेखर ने बालरामायण में कावेरी आदि दक्षिण की नदियों का जो स्वाभाविक वर्णन किया है-उसी ढंग के भावपूर्ण दृश्यों का चयन यहां भी प्रस्तुत किया गया है। ८. गोमती-महिमा-सरयू की तरह गोमती का भी कोई सुन्दर स्तोत्र देखने में नहीं आता। केवल पुराणों मे ही इनका नाम सुना जाता है। किन्तु धार्मिक दृष्टि से इनका भी वही महत्व माना जाता है, जो अन्य पुण्य नदियों का है। इसमे गोमती की प्राकृतिक स्थिति का चित्राङ्कन, विभिन्न स्थानों पर उनका वैचित्र्यपूर्ण-सन्निवेश, जलप्रवाह की नानारूपता तथा पौराणिक आधार को लेते हुए अन्य विशेषताओं का भी उल्लेख किया गया है । पूर्वोक्त दोनों नदियों के स्तोत्रात्मक वर्णन की शैली एक ही रूप की है। ६. यमुनाकुलकम्-भगवान कृष्ण की लीलाओं को प्रश्रय देने वालीभगवती यमुना का यह साझोपाङ्ग वर्णन है। वहां के प्राकृतिक दृश्यों से लेकर-जलक्रीडा आदि नदी संवन्धी विशेपताओं और खासकर कृष्ण के बालसहचर गोपों (ग्वाल-मण्डल) के द्वारा संप्रदायागत आमोद प्रमोदों का चित्रण है। प्रसंगवश मथुरा की विच्छित्तियों का भी इसके साथ संमिश्रण होजाने से वर्णन का Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ सौन्दर्य और भी बढ गया है । स्तोत्र के अनुरूप देवतोचित भावनाओं को काव्य की वर्णन शैली में जिस समन्वय के साथ ढाला गया है वह अपने ढंग का एक अनूठा निदर्शन है। . १०. मथुरा-माधुरी-इसमें भगवान कृष्ण की प्रधान लीला भूमि मथुरा और व्रज के प्रदेश का वर्णन, तथा उनकी वाल-क्रीडा, रासलीला एवं राधाकृष्ण के संमिलित मधुर रूप की श्रृंगार प्रधान प्रवृत्तियों का सरस चित्रण है। मथुरा के हरे भरे प्रदेशों की सुन्दरता, उद्यानों की स्वाभाविक रमणीयता, पक्षियों के मधुर कलरव आदि से लगाकर भक्तों के भावावेशपूर्ण हरिकीर्तन आदि भगवद्गुणानुवाद के विविध प्रकारों और रूपों का निदर्शन है। द्रुतविलंवित छन्द में यमक का माधुर्य सरस एवं हृदयाकर्षक है। . इसी के अन्तर्गत श्लेष द्वारा अयोध्या-मथुरा आदि भारत की पुण्यभूमि माने जाने वाली प्रधान सप्तपुरियों को सांस्कृतिक और धार्मिक विशेषताओं का, मथुरा में एकत्र समावेश और समन्वय दिखलाते हुए काव्य-कला का अद्भुत कौशल दिखलाया गया है। संस्कृत साहित्य में अपने ढंग का यह निराला वर्णन है। ११. आत्मोपदेश-इसमे प्राचीन भारतीय संस्कृति के अनुरूप शुद्ध सात्विक जीवन की मान्यता वतलाते हुए अपने पूर्वजों के समान और उनकी भावनाओं का आदर करने की सलाह दी है । साथ ही लौकिक और पारलौकिक कर्तव्यों में मनमानी न करने का अनुरोध किया गया है। अहंभाव के कारण पैदा होने वाली परस्पर विरोधी भावनाओं को त्याग कर एकता के सूत्र में संगठित होने, तथा केवल तर्कों के आधार पर शास्त्र की उपेक्षा और आप-सिद्धान्तों की अवहेलना न करने का आग्रह किया है। इसके सिवा, सामाजिक जीवन में सत्यनिष्ठा और यथासंभव शास्त्रानुमोदित कर्तव्यपथ के अनुसरण, एवं आसचिंतन की आवश्यकता बतलाई गई है। - Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पाञ्जलि में वर्णित प्राचीन शकि-पीठों का परिचय। १-ज्वालामुखी कांगडा घाटी पंजाब प्रान्त (पूर्वी पंजाब ) का एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थान है । यह प्राचीन शक्ति पीठ होने के साथ २ प्राकृतिक सौन्दर्य की दृष्टि से भी हमारे आकर्षण का केन्द्र रहता आया है। यहीं पुराण प्रसिद्ध ज्वालामुखी या ज्वाला देवी का प्राचीन मन्दिर है। भारत के विभिन्न प्रान्तों से यहां प्रतिवर्ष सैकडों की संख्या में 'आस्तिक जनता ज्वाला देवी के दर्शनार्थ आया करती है। ज्वालामुखी का मन्दिर कांगडा नगर से २४ मील की दूरी पर स्थित है। इस पवित्र ऐतिहासिक भूमि को हिमालय की श्वेतधवल पर्वतमालाओं ने दो ओर से घेर रक्खा है। यहां के पार्वत्य प्रदेश में बहने वाले झरने एवं वनवृक्षों की हरित-श्यामल पक्तियां प्राकृतिक दृश्य के सुन्दर नमूने हैं । मन्दिर के बाई ओर एक जल कुण्ड है, जो पर्वत खण्ड को काटकर बनाया गया है। यहां पर्वत के मध्य भाग से प्रवाहित एक धारा का जल गोमुख द्वारा निरन्तर गिरता रहता है। मन्दिर के मध्य भाग में एक हवन कुण्ड है, जहां सदा-सर्वदा स्वयमू ज्योति शिखाये प्रज्वलित रहा करती हैं। यों तो यहां अनेकों स्वयभू ज्योतियां जाज्वल्यमान दिखाई देती हैं, किन्तु प्रचलित प्रथा के अनुसार हिंगुलाज नामक देवी ज्योति तथा महाकाली नामक श्रादि ज्योति को ही सब ज्योतियों में प्रमुखता मानी जाती है। अतएव यात्रियों द्वारा इन्हीं दोनों का प्रधान रूप से पूजन किया जाता है। पूजन हवन द्वारा ही संपन्न होता है। 'दुर्गापुष्पाञ्जलि' के ईहाष्टक मे (देखिये पृ० सं० १६) इन्हीं ज्वालामुखी के प्रभाव एवं महिमा का वर्णन किया गया है। विशेषता-यहां की स्वयंभू ज्योतियां कभी प्रकट और कभी अपने आप अन्तर्धान होजाया करती हैं । किन्तु प्रत्यक्षदर्शियों के कथनानुसार कम से कम तीन और अधिक से अधिक तेरह ज्योतियां इस मन्दिर मे हमेशा प्रज्वलित दिखाई देती हैं । ज्योतियों का रंग श्वेत-रक्त और पीतवर्ण का रहा करता है। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किन्तु इनमें एक आश्चर्यजनक विशेषता यह देखी जाती है कि ये ज्योति शिखायें प्रातःकाल श्यामवर्ण की, मध्याह्न में रक्त और सायंकाल पीत एवं रक्तवर्ण की होजाया करती हैं। इस प्रकार दिन में तीन बार इनके रंग मे परिवर्तन होता रहता है। दीपशिखा के समान उक्त ज्योतियां शान्तमुद्रा मे प्रकाशित दिखाई देती हैं। इनमें उग्रता का कभी लेशमात्र भान नहीं होता। कुछ समय तक विज्ञानवेत्ताओं की यह धारणा बनी हुई थी, कि इसके भूगर्भ मे कहीं ज्वालामुखी छिपा हुआ है और इसीलिए इस ढंग की ज्योतिकिरणों का प्रस्फुटन होता रहता है। किन्तु वर्तमान में आवश्यक अपेक्षित परीक्षण के बाद यह धारणा भ्रान्त और निर्मूल सिद्ध हुई है। ____ ज्वालामुखी का उद्गम स्थल पर्वत का शिखर भाग माना जाता है, किन्तु उक्त मन्दिर के पर्वत की उपत्यका (तलहटी) में स्थित होने से यहां इस आशङ्का का कोई समन्वय नहीं बैठता । इसके अतिरिक्त यह निर्विवाद है कि ज्वालामुखी से लावा निकलता रहता है, और वह दुर्गन्धयुक्त रहा करता है। किन्तु इन ज्योतियों में इस प्रकार की दुर्गन्ध का कहीं नाम-निशान तक नहीं पाया जाता । इसी के साथ यह भी कुछ कम आश्चर्य की बात नहीं, कि इन शिखाओं से किसी प्रकार की कालिख उत्पन्न होती नहीं देखी जाती । सन् १९०५ मे अकस्मात् यहां भूकम्प का एक प्रवल आक्रमण भी हुआ था, किन्तु उससे मन्दिर को कोई क्षति नहीं पहुंची । फलतः विज्ञानवादी इस संवन्ध में अपना चाहे जो दृष्टिकोण क्यों न बनावें, वास्तव में यहां की इन सब घटनाओं को देखकर यही कहा जासकता है कि यह सव ज्वालाजी की कृपा और महिमा का ही फल है। प्राचीन किवदन्ती-ज्वाला देवी के सम्बन्ध मे पंजाव प्रान्त मे एक किंवदन्ती बहुत समय से यह चली आती है कि किसी समय सुप्रसिद्ध मुगल सम्राट अकवर ने इन ज्योति शिखाओं को वन्द करा देने का विचार किया, और कुण्ड के ऊपरी भाग में लोहे के तवे जडवा दिये। किन्तु ऐसा किये जाने पर भी ज्योतिशिखायें उस लोह के कृत्रिम आवरण का भेदन कर पुनः अपने पूर्वरूप में प्रकट होगई। इस पर सम्राट अकबर को अपनी भूल का ज्ञान हुआ और इस भूल के प्रायश्चित्त स्वरूप उसने सवा मन का एक स्वर्ण-छत्र उपहार स्वरूप देवी को चढाया, किन्तु भगवती ने उसकी यह भेंट स्वीकार नहीं की, और वह सोने का छत्र एक साधारण धातु के रूप में बदल गया, जो Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवतक वहां सुरक्षित रक्खा है । लोगों का यह भी कहना है, कि उनकी इस प्रत्यक्ष महिमा से प्रभावित होकर ही अकबर ने उस समय इस पर्वतीय प्रदेश में एक नहर निकलवाई थी, जो 'अकबर नहर' के नाम से आज भी प्रसिद्ध है। ऐतिहासिक महत्व-यह मन्दिर बहुत प्राचीनकाल से ही हिन्दू आर्यों का पवित्र तीर्थ स्थान माना जाता रहा है। लाहोर के यशस्वी नरेश महाराजा रणजीतसिंह ने अपने राज्यकाल में इस स्थान की तीन महत्वपूर्ण यात्रायें की थीं। ईसवीय सन् १८१५ में उन्होंने इस ऐतिहासिक मन्दिर के शिखर पर स्वर्णपत्र चढवाया था। अमृतसर का सिखों का सुप्रसिद्ध गुरुद्वार जिसे दरबार साहब एवं स्वर्णमन्दिर भी कहते हैं-उस पर तथा ज्वालादेवी के मन्दिर पर एक ही समय में और एक ही शिल्पी के द्वारा ताम्र पत्र पर स्वर्ण का कलात्मक सृजन किया गया था । उक्त दोनों ही स्थानों के स्वर्ण पत्रों के प्राचीन होजाने से अव उनका स्वर्णिम सौन्दर्य यत्र-तत्र धुल गया है । सुना जाता है, कि भारत की वर्तमान राष्ट्रीय सरकार इसकी सुरक्षार्थ जीर्णोद्धार कराने का विचार कर रही है। __महाराजा रणजीतसिंह के पौत्र राजकुमार नौनिहालसिंह ने भी ज्वालाजी के दर्शनार्थ यहां की यात्रा की थी, और मन्दिर के प्रधान द्वार पर लगे हुए किवाडों पर चांदी के कलापूर्ण पत्रे चढवाये थे। इसी प्रकार पटियाला और नाभा के भूतपूर्व नरेशों ने भी इस स्थान की यात्रा की थी, और मन्दिर में श्वेत संगमरमर की फर्श बनवायी थी। वर्तमान नेपाल नरेश के प्रपितामह भी देवीजी के दर्शनार्थ यहां आए थे, और मन्दिर में एक विशाल घण्टा लगवाया था। कांगडा प्राचीन काल से ही हस्तनिर्मित-चित्रकला मे अपना एक विशिष्ट स्थान रखता आया है। कांगडा कलम के बने हुए चित्र कलात्मक दृष्टि से बहुत सजीव-सुन्दर एवं आकर्षक होते हैं । उक्त ज्वालाजी के मन्दिर में यहां की शैली से बनाये हुए देवी-देवताओं के अनेक चित्र अङ्कित हैं जो वास्तव में चित्र-कला प्रेमियों के लिए महत्व के होने के साथ २ दर्शनीय भी हैं। पौराणिक-आधार-शिव-पुराण की ज्ञानसंहिता के अन्तर्गत सातवें अध्याय मे ज्वाला देवी की उत्पत्ति कथा उपलब्ध होती है। उस कथा का सारांश इस प्रकार है Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सती के पिता दक्षप्रजापति ने किसी समय गङ्गा नदी के तट पर कनखल (कर्णखलु) में एक यज्ञ किया था। इस यज्ञ मे दक्ष ने समस्त देवताओं को आमन्त्रित किया था किन्तु जामाता शंकर से किसी कारणवश रुप्ट रहने से उन्हें आमन्त्रित नहीं किया। सती को यद्यपि यह सब कुछ पहले से ही ज्ञात होगया था, किन्तु फिर भी वह शंकर का अनुरोध न करके यज्ञ के अवसर पर अपने पिता के घर चली गई। वहां जाकर जव उन्होंने यज्ञ मण्डप के द्वार पर, अपमान करने के निमित्त द्वारपाल के रूप मे खडी की गई शंकर की मूर्ति को देखा तो उनके दुःख का ठिकाना न रहा। इसके सिवा किसी भी आत्मीयजन ने वहां पहुंचने पर उनका यथोचित स्वागत-सत्कार भी नहीं किया। यज्ञ की समाप्ति के समय पूर्णाहुति के अवसर पर शंकर को छोडकर अन्य सभी देवताओं के नाम से पूर्णाहुति दी गई। सती को शंकर का यह घोर अपमान सहन न हुआ, और उन्होंने इस दुख के कारण यज कुण्ड मे कूद कर अपने प्राण छोड दिये। इस दुःखपूर्ण और अप्रत्याशित घटना से यज्ञ मण्डप के चारों ओर हाहाकार मच गया । इतने ही मे इधर कैलाश से सती के साथ आये हुए, शंकर के प्रमुख सेनापति वीरभद्र ने कुपित होकर इस यज्ञ को नष्ट कर दिया और दक्ष का शिरच्छेद कर डाला। ___यज्ञ में उपस्थित देवतागण इस घटना से दुःखी और भयभीत हो उठे। उन्हें यह भी डर लगा कि इस समय यदि कहीं कुपित होकर शंकर ने रौद्ररूप धारण कर लिया तो सारी सृष्टि ही समाप्त होजायगी । इस हेतु वे शंकर की प्रसन्नतार्थ उनकी स्तुति करने लगे। शंकर तत्काल ही यज्ञ मण्डप में आ पहुंचे और देवताओं के अनुनय-विनय एवं प्रार्थना करने पर यज्ञ को पुनः यथावत् कर दिया। इस प्रसंग में सती के योगाग्निदुग्ध शरीर से जो ज्वाला निकली वह एक पहाड़ पर चली गई। इस प्रकार सती के शरीर त्याग कर देने पर शंकर अत्यन्त दु:खी हो उठे और मोहवश वे सती के उस दग्धशरीर को अपने कन्धों पर रखकर उन्मत्त की तरह, विलाप करते हुए इधर उधर घूमने लगे। देवताओं ने जव उनकी यह दशा देखी तो उन्हें डर लगा कि यदि कदाचित् शंकर इसी अवस्था में रहे, तो जगन् का संहार कार्य बन्द होजायगा, और सृष्टि का कोई ठिकाना न रहेगा। फलतः मनुष्यलोक में अनाचारों की वृद्धि होजायगी। इस मौके पर भगवान् Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विष्णु को एक उपाय सूझा | उन्होंने शंकर का पीछा किया और अवसर पाकर धीरे २ सती के समस्त अगों को काट दिया। सती के ये अंग जहां २ गिरे वहीं पर शंकर की अर्धाङ्गिनी के रूप में देवी का आविर्भाव हुआ। और शंकर भी उन स्थानों में अनेक रूप से प्रतिष्ठित हुये । ज्वालामुखी पर्वत के ऊपर सती की जिह्वा (जीभ ) गिरी और वह सती के देह से पहले निकले हुये आलोकमय तेज के साथ अग्निज्वाला के रूप में परिणत होगई। जिन इक्यावन स्थानों पर सती के अवयव उस समय गिरे वे ही बाद में शक्तिपीठ' के नाम से प्रसिद्ध होगये । काव्यगत-चमत्कार-कवि ने जहां एक ओर ज्वालादेवी के सहज सुन्दर पर्वतीय दृश्यों का संयत और भावपूर्ण प्राकृतिक वर्णन किया है वहां दूसरी ओर उनके अलौकिक प्रभाव का भी हृदय-ग्राही चित्रण किया है। यही नहीं, पौराणिक धरातल से ऊपर उठकर, कविजनोचित हृदय से, भक्तिरस की धारा प्रवाहित करते हुये जिस अनोखी सूझ-बूझ के साथ अपने भावोद्गार प्रकट किये हैं, वे बहुत ही मार्मिक हैं। यहां उदाहरण के लिये केवल दो श्लोक उद्ध त किये जाते 'मन्ये विहारकुतुकेषु शिवानुरूपं रूपं न्यरूपि खलु यत्सहसा भवत्या । तत्सूचनार्थमिह शैलवनान्तराले ज्वालामुखीत्यभिधया स्फुटमुच्यसेऽद्य ।।४।। सत्या ज्वलत्तनुसमुद्गतपावकार्चि र्वालामुखीन्यभिमृशन्ति पुराणमिश्रा । श्रास्तां, वयं तु भजतां दुरितानि दग्धु . ज्वालात्मना परिणता भवतीति विद्मः ॥५॥ (ईहाष्टक श्लोक. ५.६.) भावार्थ-शिव अग्निरूप हैं, इसलिये उनको त्रिलोचन कहा जाता है। आप शिव की अर्धाङ्गिनी कहलाती हैं, अतः उनके साथ अपनी एकरूपता प्रमाणित करने के लिये ही मानों आप पर्वत और जगल के मध्य में ज्वालामुखी नाम से प्रसिद्ध हुई हैं। इसीलिये 'अग्नीसोमात्मकं जगत् ।' यह उक्ति चरितार्थ होती है। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौराणिक आचार्य-महानुभाव सती के योगाग्नि-दग्ध शरीर की ज्वाला से आपके इस ज्वालामय शरीर की उत्पत्ति भले ही बतलाते हों, और यह भी संभव है कि यह पौराणिक आख्यान तथ्यभूत भी हो किन्तु हम इस पौराणिक पचड़े में न जाकर इतना ही कहना पर्याप्त मानते हैं कि भक्तों के ज्ञात-अज्ञात पापकर्मों को भस्म कर देने के लिए ही आप ज्योति-शिखा के रूप में प्रकट हुई हैं। २-व्रजेश्वरी-कांगड़ा में वज्र श्वरी देवी जिनको महामाया भी कहते हैंका अतिप्राचीन ऐतिहासिक मन्दिर है । आगम की परिभाषा में इस पवित्र भूमि का ही दूसरा नाम 'जालन्धर पीठ' है । इसकी गणना शक्ति के प्रधान तीर्थों में की गई है । शक्ति के सुप्रसिद्ध इक्यावन पीठों में जालन्धर पीठ महाशक्ति पीठ माना जाता है । महालक्ष्मी का निवास स्थान होने से इसकी गणना प्रमुख शक्ति पीठों मे की गई है। यहीं पर भगवती वज्रेश्वरी और ज्वालादेवी का प्रधान आवास माना गया है । उक्त दोनों देवियों का उल्लेख देवी भागवत में पाया जाता है। ( देखिये देवी. भाग. ७ स्कन्ध ३८ अ ६ श्लोक ) इसी प्रकार पद्मपुराण में भी 'जालन्धरे विष्णुमुखी ऐसा उल्लेख मिलता है। पुराणों के लेखानुसार देवराज इन्द्र ने किसी समय भगवती की प्रसन्नता के लिये तपस्या की थी, उसके फलस्वरूप महामाया ने सन्तुष्ट होकर अपने प्रसाद के रूप मे इन्द्र को अमोघ-शक्ति वाला वज्र प्रदान किया था । इन्द्र को अभीष्ट वन देने के कारण तब से इनका नाम वनेश्वरी पड़ गया । उक्त कथा विस्तृत रूप से ब्रह्माण्ड-पुराण मे पाई जाती है । ललिता-सहस्रनाम में-शृङ्गाररससंपूर्ण जया जालन्धरस्थिता।' इत्यादि उल्लेख इस पीठ के महत्त्व का परिचायक है। आगम-ग्रन्थों में भी इस पीठ का बड़ा महत्व बतलाया गया है। मकर-संक्रान्ति के दिन यहां एक बड़ा मेला भरता है । और घृत तथा तरह तरह के मेवा आदि भगवती को चढाये जाते है। इसके सिवा यहां चैत्र और आश्विन के नवरात्रों मे विशेष रूप से देवीजी के दर्शनार्थ दूर-दूर से आने वाले यात्रियों का तांता सा लगा रहता है। प्रत्यक्षदर्शी आप्तवृद्धों का कथन है, कि यहां आने वाले दर्शकों की मनोभिलापा प्राय. पूर्ण होती देखी गई है। मन्दिर की सेवा पूजा का प्रवन्ध भी चिरकाल से सुव्यवस्थित रहता आया है। यहां के मन्दिर प्रवन्धकों की यह विशेषता रही है कि वे स्वयं कर्मनिष्ट और आगमोक्त Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजा पद्धति के मार्मिक ज्ञाता एवं विद्वान होते रहे हैं, और साथ ही जनता के विश्वास-भाजन रहते आये हैं। ३-देवकाली-उत्तर प्रदेश के, फैजाबाद नगर के दक्षिण, सिटी रेलवे स्टेशन से थोड़ी ही दूर पर 'देवकाली' देवी का प्रसिद्ध प्राचीन मन्दिर है। कई शताब्दियों तक यह प्रदेश अयोध्या राज्य के अन्तर्गत रहा है । किन्तु अवध (अयोध्या ) के नबाबों के समय में यह प्रदेश प्राचीन अयोध्या से अलग कर लिया गया था और मुस्लिम शासकों ने इसका स्वतंत्र नाम करण फैजावाद कर दिया था । वास्तव में फैजाबाद वनने से पूर्व का यहां का इतिहास अयोध्या के इतिहास के ही अन्तर्गत है । ईसवी सन् १७६० में अवध के नबाब शुजाउद्दौला ने फैजाबाद को अवध की राजधानी बना लिया, और इस प्रकार अठारहवीं सदी से यहां के इतिहास की दिशा बदल गई। कई वर्ष हुए हिन्दी के पुराने प्रतिष्ठित लेखक अवधवासी स्वर्गीय लाला सीताराम बी. ए. उपनाम 'भूप कवि' ने अयोध्या का जो इतिहास लिखा है, उसमें पौराणिक काल और उसके बाद होने वाले अब तक के अयोध्या संवन्धी ऐतिहासिक परिवर्तनों और कायाकल्पों का जो प्रामाणिक विवेचन किया है, वह कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण और अध्येतव्य है । उसमे अयोध्या के प्राचीन और नवीन दोनों तरह के इतिहास पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है । (देखिये-हिन्दुस्तानी एकेडेमी, प्रयाग द्वारा प्रकाशित 'अयोध्या का इतिहास') ___ उक्त देवकाली का मन्दिर लोक प्रसिद्धि के अनुसार इक्ष्वाकुवंशी किसी सुदर्शन नामक राजा का बनवाया हुआ है। यद्यपि प्रचलित 'विष्णु पुराण' मे सूर्यवंशी राजाओं की जो वशावली प्राप्त होती है, उसमें इनका नाम नहीं पाया जाता। किन्तु पौराणिक विद्वानों की मान्यता है कि ये इक्ष्वाकुवंश के ही कोई पूर्वपुरुष थे । कारण वाल्मीकीय रामायण के बालकाण्ड मे राम के विवाह प्रसङ्ग मे वसिष्ठ द्वारा शाखोच्चार के समय जिन पूर्ववर्ती राजाओं का नाम गिनाया गया है, उनमें उनतीसवां नाम सुदर्शन का आता है, और इसलिए यह मान लेना तर्कसगत प्रतीत होता है, कि ये राम के पूर्वज वही सुदर्शन हैं। इस कथन मे कहां तक तथ्य है, यह नहीं कहा जा सकता । क्योंकि पौराणिक राजवंशों के सम्बन्ध मे इतिहास लेखकों मे पर्याप्त मतभेद पाया जाता है । किन्तु इतना तो निश्चित ही है, कि इस प्रतिमा की स्थापना सुदर्शन नामक राजा के द्वारा हुई है। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भले ही वे इक्ष्वाकुवंशी या अन्य किसी राजवंश के क्यों न रहे हों । इस नाम के सम्बन्ध में पुष्पाञ्जलिकार ने प्रस्तुत देवकाली-स्तोत्र के उपसंहार में जो श्लोक लिखा है, उससे भी इस कथन की पुष्टि होती है 'अयोध्याप्रान्तवासिन्याः सुदर्शनकृतस्थितेः । देवकाल्याः स्तोत्रमेतत् पठतां घटतां शिवम् ॥' इसमें कोई सन्देह नहीं कि उक्त प्रतिमा अति प्राचीन काल से अवध-प्रान्त में प्रसिद्ध चली आती है । जहां तक जाना गया है, इससे प्राचीन प्रतिष्ठित अन्य कोई शक्ति-प्रतिमा उस प्रान्त मे नहीं है। __मन्दिर के सामने एक विशालवापी (बावड़ी) है जो अनुमानतः मन्दिर के समसामयिक बनी हुई प्रतीत होती है। क्योंकि प्रायः ऐसे स्थानों की स्थिति अधिकतर निर्जन-प्रदेश में ही हुआ करती थी, और वहां जल-सुलभ करने की दृष्टि से वावड़ी या तालाव बनवाये जाने की प्राचीन भारत मे व्यापक प्रथा थी। आजकल इसके आस पास अनेक धनिकों ने बड़ी-बड़ी कोठियां बनवा डाली हैं, जिससे अव इस स्थान के चारों ओर काफी चहल पहल होगई है, किन्तु तीर्थ के प्राचीन महत्व को इससे धक्का पहुंचा है । खासकर, इसके समीप एक आयल फैक्टरी खुल जाने से कुण्ड के मधुर जल की जो क्षति हुई है और जिस प्रकार जल में तैलांश का सञ्चार होगया है, वह यात्रियों तथा स्वयं मन्दिर के महत्व की दृष्टि से भी चिन्ता का विषय है । अस्तु, यों तो इस प्रान्त की अधिकांश शिक्षित और अशिक्षित जनता का यहां प्राय. नित्य ही जमघट लगा रहता है किन्तु विशेष रूप से श्रावण के महीने मे और अन्य प्रसिद्ध पर्यों पर दर्शनाथियों और मानता वाले लोगों की यहां काफी भीड़ हो जाया करती है। यहां इन्हीं देवकाली की महिमा का वर्णन दुर्गा-पुष्पाञ्जलि में किया गया है। उदाहरणार्थ दो छन्द उद्धृत किये जाते हैं'ते देवकालि ! कलिसम्पदमर्दयन्ति दुर्वासनान्धतमसानि विमर्दयन्ति । सौभाग्यसारिणि ! जगन्ति पवित्रयन्ति ये श्रीमती हृदयवेश्मनि चित्रयन्ति ।।' 'ते देवकालि ! सुखसूक्तिमदभ्रयन्ति विद्याकलापकृषिमण्डलमभ्रयन्ति । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देशान्तरेषु चरितानि विशेषयन्ति ये शर्मधाम तव नाम निरूपयन्ति ।।' (देवकाली-महिमा श्लो० ५, ६) भावार्थ-हे देवकालि ! जो लोग आपको अपने हृदय मन्दिर में चित्रित करते हैं, उनपर कलि का दुष्प्रभाव असर नहीं डाल पाता-साथ ही अनेक दुर्वासनाओं के रूप में प्रकट होने वाले घोर अन्धकार का भी वे लोग सफलता पूर्वक दमन कर देते हैं। इतना ही नहीं-आप सुख सौभाग्य की अक्षय भंडार हो-अत आपके भक्तों के संपर्क में आने वाले अन्य सांसारिक जन भी आपकी कृपा के प्रभाव से पवित्र होजाते हैं। हे देवकालि ! आपके भक्तों के मुख से जो सुखद उक्तियां निकलती हैं, उनका शुभपरिणाम चतुगुणित बन जाता है। वे लोग ज्ञान-विज्ञान और कला कौशल रूपी कृषि समूह के लिए बादलों का काम करते हैं-अर्थात् वर्षा होने पर जिस प्रकार कृषि ( खेती ) की पैदावार बढ जाती है, उसी प्रकार भक्तजनों की विद्या संबन्धी प्रवृत्तियां खूब फलती फूलती हैं। न केवल स्वदेश ही में, बल्कि दूसरे देशों तक मे उनके चरित्र की विशेषताओं का बखान किया जाता है। परन्तु यह सब महत्त्व उन्हीं लोगों को प्राप्त होता है जो आपके मङ्गलमय नाम का नियमित स्मरण करते हैं। ४-चण्डिका-उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से दक्षिण की ओर १६ मील पर चण्डी देवी का यह सुप्रसिद्ध प्राचीन मन्दिर है। उत्तर रेलवे की लखनऊ-सीतापुर लाइन पर चौथा स्टेशन 'वक्सी का तालाब' है । यहां एक विशाल ऐतिहासिक तालाब है जो कि इस प्रान्त में काफी प्रसिद्ध चला आता है। बक्सी महाशय शाही जमाने में किसी उच्च सरकारी पद पर आसीन थे और उन्होंने ही यह तालाब बनवाया था, तभी से यह स्थान उनके नाम से प्रसिद्ध होगया । तालाब का आकार प्रकार वास्तव मे कलात्मक और दर्शनीय है । उसे देखने पर सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि शाही जमाने की छोटी-छोटी किन्तु सुन्दर लखोरी ई टों से बना हुआ, यह तालाब सचमुच किसी समय दर्शकों के आकर्षण की वस्तु रही होगी । निर्माणकर्ता ने प्राचीन भारतीय प्रथा के अनु सार जनता के लाभार्थ इस पर लाखों रुपये व्यय किये होंगे । किन्तु आजकल Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसकी वर्तमान जीर्ण-शीर्ण अवस्था को देखकर उसके दुर्भाग्य पर तरस आता है । यहां के खरबूजे बड़े मधुर और सुस्वादु होते है। किन्तु प्रायः लखनऊ के लक्ष्मीपतियों को ही उसका रसास्वादन सुलभ होता है । अस्तु । रेलमार्ग से आने वाले यात्री यहीं उतरते हैं । चण्डीजी का स्थान यहां से ६ मील पड़ता है । आजकल रोड़वेज पर सरकारी वस सर्विस के चल जाने से यातायात की सुविधा अधिक सुलभ होगई है । अधिकतर नागरिक यात्रियों का दल रोडवेज द्वारा ही यहां पहुंचा करता है । यहां से एक कच्ची सड़क चण्डीजी के आश्रम तक चली गई है । मन्दिर से लगभग २ फर्लाङ्ग पहले ही 'चांदन कूड़ा' नामक एक गांव पड़ता है जो चण्डीजी के नाम से ही प्रसिद्ध होगया है । यात्रियों को हवन-पूजन की सामग्री यहीं से खरीदनी होती है। चण्डीजी का मन्दिर निर्जन प्रदेश में गोमती नदी के तट पर स्थित है। किन्तु नदी का वास्तविक रूप यहा विलीन होकर तालाब के रूप में बदल गया है- यह इसकी विशेषता है । चण्डीजी के इस जलाशय को देखकर अपरिचित व्यक्ति यह नहीं जान सकता कि वास्तव में गोमती का ही यह प्रच्छिन्न रूप है। वैसे गोमती का जल प्रवाह-मार्ग स्वभाविक ढङ्ग से बहुत टेढा-मेढा और दुर्गम है । तो भी यत्र तत्र उनका अद्भुत रूप परिवर्तन देखकर आश्चर्य होने लगता है। उक्त जलाशय (कुंड) का पानी वहुत मधुर और शीतल है। यात्री लोग इसी जल से स्नान करते हैं और यही जल मन्दिर की सेवा-पूजा तथा पीने के काम में भी लाया जाता है । तालाव की गहराई का सही अनुमान लगा सकना कठिन है। ऐतिहासिक मान्यता-चण्डीजी के सम्बन्ध मे कोई ऐतिहासिक विवरण नहीं मिलता । केवल किंवदन्तियों अथवा दन्तकथाओं के आधार पर ही अपेक्षित तथ्य जाना जा सकता है । इस स्थान के सम्बन्ध मे स्थानीय जनता में चिरकाल से अनेक किंवदन्तियां प्रचलित है। जो कि सत्य के निकट पहुंचने में सहायक हैं। यहा संक्षेप मे उनका सार उपस्थित किया जाता है प्राचीनकाल में यहां एक दुर्गम और घना जङ्गल था, जो कि तालाब के चारों ओर दूरतक फैला हुआ था । इस जगह एक ऊँचा और विशाल निम्ब का वृक्ष था। उसके आलवाल के रूप में चारों तरफ से एक चबूतरा बना हुआ था, जो चण्डीजी के चबूतरे (चत्वर) के नाम से प्रसिद्ध था । हमारे देश में निम्ब Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ देववृक्षों में गिना जाता है, और इसलिए उक्त वृक्ष का यह चबूतरा ही चण्डीजी के रूप में पूजा जाने लगा। अठारहवीं सदी के मध्य से इस स्थान की महिमा वढने लगी, और वह बहुत दूर २ तक फैल गई । स्थानीय वृद्धों के मुख से सुना जाता है कि विद्यानाथ नाम के कोई तपस्वी महात्मा भ्रमण करते हुये किसी समय इस अरण्य प्रदेश में आगये थे । उन्होंने 'सरिद्गर्भस्तडागः सिद्धिभूः ।' अर्थात् नदी के मध्य में यदि कहीं प्राकृतिक तालाब बन जाय तो वह सिद्ध स्थान होता है। इस आगमोक आधार पर उन्होंने इस प्रदेश को 'सिद्धपीठ' मानकर यहीं पर तपस्या करना प्रारम्भ कर दिया। थोड़े ही दिनों में उन्हें कई आश्चर्यजनक चमत्कार दृष्टिगोचर हुये और कुटी बनाकर वे यहीं रहने लगे। एक अर्से तक यहां रहकर उन्होंने आध्यात्मिक साधना की, किन्तु शनैः शनैः जब यहां जन-संचार बढ़ने लगा तो वे इस स्थान को छोड़कर कहीं अन्यत्र चले गये, और दुबारा फिर यहां नहीं लौटे। ___ इस प्रान्त में यह प्रसिद्धि भी है कि सर्वप्रथम उक्त महात्मा के समय में ही इस सरोवर में कमलपुष्पों की उत्पत्ति हुई थी, जिन्हें वे भगवती को चढाया करते थे । किन्तु उनके चले जाने के बाद इन पुष्पों का उद्गम स्वतः बन्द होगया । अब तो वहां कमलपुष्पों की कोई चर्चा ही नहीं रह गई है। ___कालक्रम से, चण्डीजी का महत्व दूर-दूर तक फैलता गया और जनता अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के निमित्त इस ओर अधिकाधिक आकृष्ट होती गई। कुछ ही समय बाद, जब यहां आने वाले यात्रियों की संख्या हजारों तक पहुँचने लगी, तब यहां प्रतिमास अमावस्या के दिन एक मेला भरने लगा और इस प्रकार नगर तथा देहात के सभी श्रेणी के लोग अपने अपने अभीष्ट को लेकर यहां आने लगे, और प्रायः सफल मनोरथ हुये । जहां तक ज्ञात हुआ है, उक्त महात्मा साधक के यहां निवास करने के बाद से ही इस स्थान का महत्व दिन प्रतिदिन बढता गया और हजारों दर्शनार्थी यहां आने लगे। इनके समय तक यहां कोई मूर्ति न थी, केवल चबूतरे के ऊपर ही जनता पत्र-पुष्प चढ़ाया करती थी। वीसवीं सदी के प्रारम्भ में चण्डीजी की प्रेरणा से इसी प्रान्त के एक अन्य तपस्वी महात्मा सरस्वत्यानन्दनाथ देशाटन करते हुये प्रसङ्गवश यहां आ पहुंचे। वे भी विरक्त प्रकृति के एकान्त प्रिय साधक थे । उन्होंने कई वर्ष तक यहां रहकर Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ तपस्या की, और इस स्थान की गौरव-वृद्धि में सहायक बने । कहा जाता है कि इनके समय मे पुनः इस तालाब में कमल-पुष्प उत्पन्न होने लगे थे और उनके निवास के समय तक यहां यही क्रम चलता रहा । इनके निवास के कारण इस तपोभूमि का महत्व और अधिक बढा तथा आस पास की गरीब जनता इनके सम्पर्क में आने लगी। यहां रहते हुये उक्त महापुरुष ने जन-साधारण का लौकिक उपकार तो किया ही साथ ही, जनता के वढते हुये अनुराग और भावना को देखकर दैवी प्रेरणा से प्राचीन चबूतरे के निकट महिषमर्दिनी की एक प्रतिमा भी स्थापित की जो आज भी विद्यमान है। इस प्रकार चण्डी जी की महिमा उत्तरोत्तर प्रान्त व्यापी वनती गई और लखनऊ तथा उसके आस पास की नागरिक एवं ग्रामीण जनता भगवती की कृपाभाजन बन गई। चण्डीजी का यह आश्रम पहले की अपेक्षा अव पर्याप्त उन्नति कर चुका है। लखनऊ के भक्त धनिकों ने यहां यात्रियों के लिये स्वतन्त्र धर्मशाला वनवादी है । इसके सिवा पुष्प-वाटिका तथा अन्य सुविधाजनक आवश्यक साधन भी उन लोगों की ओर से जुटा दिये गये हैं, और अव वहां जाने वाले यात्रियों के लिए पहले जैसी कोई विशेष असुविधा नहीं रही है। सुना जाता है कि यातायात वढ जाने के कारण वक्सी तालाब से चण्डिकाश्रम तक पक्की सड़क बनाये जाने की योजना सरकार के समक्ष विचाराधीन है, आशा है, जनता की यह इच्छा-पति निकट भविष्य मे पूरी होकर रहेगी। चण्डिका स्तुति में इन्हीं भगवती चण्डिका के आश्रम का प्राकृतिक वर्णन तथा जङ्गल मे मगल करने वाली इनकी असाधारण महिमा का चित्रण किया गया है। पृथ्वीचन्द में निर्मित संस्कृत की यह सरस स्तुति उनकी महिमा के अनुरूप वहुत सुन्दर बन पड़ी है । परिचयार्थ उसके कुछ श्लोक यहां दिये जाते हैं 'अनुग्रहरसच्छटामिव सरःश्रियं यान्तिके ____ विकासयति, पद्मिनीटलसहस्रसन्दानिताम् ।' प्रतिक्षणसमुन्मिपत्प्रमदमेदुरां तामहं भजामि भयखण्डिका सपदि चण्डिकामम्बिकाम् ।।' Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ 'इतस्तत उदित्वरव्रततिनद्धवृक्षावली - लुलविहगमण्डलीमधुररावसंसेविताम् । स्खलत्कुसुमसौरभप्रसरपूर्यमाणाश्रमां भजामि भयखण्डिकां सपदि चण्डिकामग्बिकाम् ।। 'द्विषत्कुलकृपाणिकां, कुटिलकालविध्वंसिकां । विपद्वनकुठारिका, त्रिविधदुःखनिर्वासिकाम् । कृपाकुसुमवाटिकां, प्रणतभारतीभासिकां भजामि भयखण्डिका सपदि चण्डिकामम्बिकाम् ।।' (चण्डिका-स्तुति ४.७.८) भावार्थ-जो अपने पास मे स्थित सरोवर की शोभा को संहस्रदलकमलों के विकाश के द्वारा प्रफुल्लित करके मानो अपने कृपामृत की प्रचुरता का ध्यान दिलाती है । एवं प्रतिक्षण उत्पन्न होने वाली हर्पप्रद घटनाओं के सृजन करने कारण अत्यन्त स्निग्धस्वभाववाली तथा भय को दूर भगाने वाली माता चण्डिका की शरण लेता हूँ। जिनके आश्रम मे विकसित लताओं एवं वृक्ष-श्रेणियों में स्वच्छन्दता से इधर उधर विहार करने वाले पक्षियों के मुण्ड अपने मधुर कलरव द्वारा भगवती की सेवा करते हैं। तथा वृक्षों से गिरने वाले विभिन्न पुष्पों की सुगन्ध से जिनका आश्रम महका करता है। ऐसी अलौकिक प्रभावशालिनी का स्मरण करता हूँ। जो शत्रुवर्ग के लिए कृपाण की धारा हैं; और कुटिल काल का भी अन्त करदेने वाली हैं; विपत्तियों के वन को जो सहज ही कुठार की तरह काट देती हैं, और त्रिविध दुखों को दूर करने वाली हैं, जो कृपारूपी पुष्पों की फुलवाडी हैं, और केवल प्रणाम करने मात्र से ही अभीष्ट विद्याओं का प्रकाश करने वाली हैं-ऐसी भगवती चण्डी की वन्दना करता हूँ। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ परिमल-पुष्पाञ्जलि की रचना की प्रौढता एवं आगमोक्त अर्थों की गम्भीरता को देखते हुए यह आवश्यकता प्रतीत हुई कि इसके साथ एक व्याख्या का होना भी आवश्यक है। जिससे कि स्तोत्रों के प्रतिपाद्य अर्थों का अनुगम सरलता से हो सके । तदनुसार स्तोत्रगत अर्थों के स्पष्टीकरण के लिए 'परिमल' नामक विवृति भी इसके साथ लगादी गई है। परिमल को लिखने में यह ध्यान रखा गया है कि यथासंभव सरल और सुबोध शैली में, साथ ही संक्षेप में, आवश्यक विवरण दिया जाय ताकि अनावश्यक कलेवर-वृद्धि से बचा जा सके और पाठकों को किसी प्रकार की अरुचि भी न हो। क्योंकि लम्बी-चौड़ी व्याख्याओं को पढने वालों की संख्या प्रायः कम ही हुआ करती है और अधिकतर, पढने वालों को भी इससे अरुचि होने लगती है । अतएव इन सभी बातों को दृष्टि में रखकर ही यह परिमल लिखा गया है। फिर भी, विषय गांभीर्य के कारण कुछ स्तोत्रों में अपेक्षित स्पष्टीकरण आवश्यकतानुसार करना ही पड़ा है। इसके सिवा, प्रकरणागत दर्शन-संवन्धी विचारों को अधिक न फैलाकर केवल नपे तुले शब्दों में सारभूत विश्लेषण करके ही छोड दिया है। ताकि सिद्धान्तभूत बातों का परिचय भी होजाय, और व्यर्थ के वितण्डावाद और ननु-नच एवं किन्तु परन्तु के झमेलों और शाखा-प्रशाखाओं से भी वचा जाय । इसी प्रकार जहां आवश्यकता समझी गई है वहां प्रमाण के रूप में उस विषय के सहायक और मान्य ग्रन्थों का उल्लेख, तथा उनके कुछ चुने हुए उद्धरण भी दे दिये गये हैं। इतना सब होते हुए भी विवृति-लेखक अपने प्रयास में कहां तक सफल हो सका है यह देखना विद्वानों का काम है। मैं तो यहां इतना ही कहना चाहूंगा कि जहां तक मूल रचना में वर्णित अर्थों की योजना और उपयोगिता का संवन्ध है दोनों ही बातों को लक्ष्य मे रखकर ही यह प्रस्तुत की गई है। यदि इससे स्तोत्र साहित्य के रसिकों को कुछ भी संतोष हुआ, तो यह प्रयास सफल समझा जायगा। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विवेदीजी के ग्रन्थों के प्रकाशन का उपक्रम द्विवेदी जी के अप्रकाशित ग्रन्थों को प्रकाशित करने का विचार एक अर्से से चल रहा था। इधर इस सम्बन्ध में कुछ साहित्य-सेवी मित्रों और सहयोगियों ने भी यथासमय आग्रहपूर्ण अनुरोध किये । किन्तु परिस्थितियां कुछ ऐसी विषम चल रही थीं कि इस विचार को मूर्तरूप दे सकना संभव न होसका । कारण यह था कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद देश में कुछ ऐसे परिवर्तन आये कि यहां का सामाजिक और आर्थिक ढांचा एकदम बदल गया । या यों कहिये कि जनतन्त्र युग का प्रारम्भ होने के साथ साथ समाज की प्रवृत्तियों मे क्रान्तिकारी परिवर्तन होगया । संस्कृत भाषा और उसके साहित्य की गतिविधि यों तो पहले भी विशेष आशाप्रद न थी, किन्तु फिर भी इतनी निराशाजनक स्थिति न वनी थी। स्वराज्य के मिलते ही कुछ ऐसी हवा चली कि संस्कृत की ओर जनता की जो थोड़ी बहुत अभिरुचि थी उसको भी धक्का लगा और वह शिथिल पड़ती गई। यहां तक कि संस्कृत के प्रति समाज में निराशा का वातावरण छागया। ऐसी अवस्था में, संस्कृत साहित्य के प्रकाशन की कौन कहे, संस्कृत का नाम लेते ही लोगों के मुख पर उपेक्षा और उदासीनता के भाव स्पष्ट झलकने लगते। वैसे अवसर आने पर संस्कृत की सहानुभूति मे दिल खोलकर लम्बी शब्दावलियों द्वारा प्रशंसा के पुल बांधने का क्रम अवश्य चलता रहा । किन्तु सहयोग करने का प्रश्न सामने आते ही प्रकारान्तर से नकारात्मक उत्तर मिलने के सिवाय कोई परिणाम न निकला । इधर संस्कृत पुस्तकों के प्रकाशकों से जब इस विषय में बातचीत चलाई तो उनमें भी आवश्यक उत्साह का अभाव पाया । कारण, आज के व्यावसायिक युग मे उनका एक मात्र लक्ष्य पुस्तक प्रकाशन द्वारा अधिक से अधिक आर्थिक लाभ लेना है । स्कूलों और कालेजों की पाठ्य-पुस्तकों और उनके नोट्स को जो कि बाजार में धड़ल्ले से बिक जाते हैं, छोड़कर, संस्कृत साहित्य के स्वतन्त्र प्रकाशन की ओर वे भला ध्यान ही क्यों देने लगे ? क्योंकि इन प्रकाशनों में उन्हें उस अनुपात में लाभ होने की संभावना कहां १ अतएव मैंने सोचा 'कि इस समय इसको चर्चा चलाना ही निरर्थक है इसलिए अभी कुछ समय तक और चुप रहा जाय, और अनुकूल परिस्थिति की प्रतीक्षा की जाय । इधर कुछ ही दिनों बाद, वर्तमान अलवर-नरेश महाराज श्री तेजसिंहजी महोदय, जो कि भारतीय साहित्य और संस्कृति के प्रेमी नरेश हैं, के आमन्त्रण पर Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुझे अलवर जाने का अवसर मिला । साहित्यिक चर्चा के प्रसङ्ग में पुष्पाञ्जलि के प्रकाशन की बात उनके सामने आई और उन्होंने इसके लिये आर्थिक सहयोग देने का निश्चय प्रकट किया और किसी हद तक सहयोग दिया भी। इसी प्रकार इस सिलसिले में जयपुर के साहित्य एवं कला प्रेमी रईस ठाकुर श्यामकरणसिंहजी से भी प्रसङ्गवश चर्चा हुई और उन्होंने भी इसके प्रकाशन में रुचि दिखलाई और कुछ आर्थिक सहयोग भी दिया। तदनुसार उक्त पुस्तक के प्रकाशन की सारी तैयारियां पूरी करली गई और कागज आदि की उपयुक्त व्यवस्था भी आवश्यकतानुसार बिठाली गई । किन्तु संयोगवश इसी बीच नवलकिशोर प्रेस, लखनऊ के दोनों मालिकों में आपसी वटवारा छिड़ गया. और प्रेस में भारी अव्यवस्था फैल गई। प्रेस मालिकों के साथ अपने पुराने संबन्धों को देखते हुए हमारे सामने चुप रहने के सिवा कोई विकल्प न रहा। इसके कारण प्रकाशन तो रुक ही गया साथ ही आर्थिक हानि भी उठानी पड़ी जो कि अनिवार्य बन गई थी, और प्रकाशन का विचार कुछ समय के लिए स्थगित कर देना पड़ा । राजस्थान-पुरातत्त्वान्वेषण-मन्दिर, द्वारा पुष्पाञ्जलि का प्रकाशन . सन १६४६ मे जव संस्कृत कालेज जयपुर मे साहित्य के व्याख्याता (Lecturer) के पद पर मेरी नियुक्ति हुई, तो मुझे इस ओर ध्यान देने का पता अवसर मिला । मैने द्विवेदीजी के कतिपय अप्रकाशित ग्रन्थों के प्रकाशनार्थ आवश्यक सहयोग दिये जाने के सम्बन्ध मे राजस्थान सरकार से प्रार्थना की। इस प्रसंग में संस्कृत कालेज के तत्कालीन कार्यवाहक प्रिंसिपल और राजस्थान संस्कृत पाठशालाओं के निरीक्षक श्री के० माधवकृष्ण शर्मा एम० ओ० एल० महोदय ने इस ओर सरकार का ध्यान आकृष्ट करने में अपना जो सहयोग दिया उसके लिये उन्हें धन्यवाद देना संपादक अपना कर्तव्य समझता है। . . ' Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ सरकार ने राजस्थान-पुरातत्त्वान्वेषण-मन्दिर के सम्मान्य संचालक पुरातत्त्वाचार्य मुनि श्रीजिनविजय जी से इस संबन्ध मे सम्मति मांगी, और मुनिजी ने पुरातत्त्वान्वेषण-मन्दिर द्वारा उक्त पुस्तकों का प्रकाशन करना स्वीकार कर लिया । तदनुसार उक्त विभाग द्वारा सर्वप्रथम 'दुर्गा-पुष्पाञ्जलि' के प्रकाशित करने का निश्चय किया गया । मुनिजी ने इसका संपादन सम्बन्धी कार्यभार मुझ जैसे अल्पज्ञ व्यक्ति के हाथों में सौंप दिया। मैंने उनके आदेश का पालन करते हुए यथाशक्ति अपने दायित्व को निभाया और यह कार्य पूरा किया। यहां यह कहना अनुचित न होगा कि यह जो कुछ जैसा भी बन पडा है उसका श्रेय वास्तव में मुनिजी महाराज को है। क्योंकि यदि समय २ पर उनके द्वारा प्रेरणा और सत्परामर्श न मिलता रहता तो यह कार्य इस रूप में संभव न हुआ होता । अतः संपादक उनके बहुमूल्य सहयोग के लिए हार्दिक आभार मानता है । इसके अतिरिक्त, उक्त मन्दिर के प्रधान __ अनुसन्धान कार्य व्यवस्थापक पं० श्री गोपालनारायणजी बहुरा एम.ए., महोदय ने जिस तत्परता और लगन के साथ इसके प्रकाशन कार्य में अपना सौहार्दपूर्ण योग दिया है उसके लिए संपादक उनके प्रति हृदय से कृतज्ञ है । प्रूफ आदि के संशोधन में जयपुर राज्य के परंपरागत पश्चाङ्ग कर्ता पं० मदनमोहन शर्मा ने जो श्रम किया है, तदर्थं उन्हें धन्यवाद है। अंत में, यदि स्तोत्र-साहित्य के प्रेमियों को इससे कुछ भी संतोष मिला, तो मैं अपना यह प्रयास सार्थक समझूगा। ) 'सरस्वती पीठ' जयपुर २७-१२-५६ ई० -गंगाधर द्विवेदी Page #50 --------------------------------------------------------------------------  Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ॐ नमः शिवाय ॐ महामहोपाध्याय-पण्डित-श्री-दुर्गाप्रसाद-द्विवेद-विरचित. दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः। परमार्थाकलनम्। सता चितानन्दरसेन जुष्टं स्वयंप्रकाशं गुरुमाश्रितोऽस्मि । यस्माद् विमर्शादिव मेयमानं परादिसंविन्मयमाविरस्ति ॥१॥ * परिमलः * यद्वक्त्रपीयूषमयूखबिम्बं प्रेम्णा समं सेवितुमृक्षराजिः । उपेयुषी हारलतामिषेण न तु सा कापि ममास्यरङ्ग ॥१॥ सरस्वतीकल्पलतैककन्दं वन्दे गुरोस्तच्चरणारविन्दम् । यस्य प्रसादादयमात्मतुष्टेरुपक्रम कोऽपि विजृम्भतेऽत्र ॥२॥ स्वान्तर्विमर्शद्रु मसौरभोद्यत्भावप्रसूनानि महेश्वरस्य । उच्चित्य सन्त. स्फुरदा भावाः श्रेयोऽभिवृद्ध्यै हृदि भावयन्तु ॥३॥ १ - सतेति । सता संप्रतिपत्तिरूपया सत्तया । श्रूयते चोपनिषदि 'प्रसन्नेव स भवति असद् ब्रह्मति वेद चेत् । अस्ति ब्रह्मोति चेद् वेद सन्तमेनं ततो विदु ॥ अस्तेर्धातो शतरि सन्निति, तत सतेति । सतेत्यनेन या सत्तोक्ता सैव चित्त्वमुच्यते । सत्त्वचित्त्वयोश्च सामरस्य आनन्द । स च रसनाद् रस इत्युच्यते । तेन जुष्टम् , आनन्दरसैकनिर्भरम् । स्मरन्ति च शास्त्रकृत - 'या चित् सत्त व सा प्रोक्ता सा सत्तव चिदुच्यते । यत्र चित्सत्तयोर्व्याप्तिस्तत्रानन्दो विराजते ॥ यत्रानन्दो भवेद् भावे तत्र चित्सत्तयो स्थितिः ।' १-दुर्गो नाम दैत्यविशेषः । 'यं हत्वा चण्डिकायास्तु दुर्गा नाम बभूव हो इति । तथा 'तामग्निवर्णा तपसा ज्वलन्ती वैरोचनी कर्मफलेषु जुष्टाम् । दुर्गा देवीं शरणमहं प्रपद्य सुतरसि तरसे नम ॥' (तैत्ति पार० १० प्रपा० १ अनु०) इत्यादि श्रु तिरपि । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः तदेवं सच्चिदानन्दस्वरूपः स्वात्मैव परमेश्वर इति प्रतिष्ठितं भवति । उक्तञ्च आचार्य: 'सच्चित्सुखमयः शम्भुस्विरूपः सर्ववस्तुपु ।' स्वयंप्रकाशं अन्यानपेक्षप्रकाशैकरूपं चैतन्यमहेश्वरं विश्वप्रतिष्ठाभूमिमिति यावत् । तथा च प्रत्यभिज्ञाशास्त्रे 'प्रागिवार्थोऽप्रकाशः स्यात् प्रकाशात्मतया विना । न च प्रकाशो भिन्न. स्यादात्मार्थस्य प्रकाशता ।' गृणाति प्रकाशयति विश्वव्यवहारमिति गुरुः । सर्वानुग्राहक. स्वात्ममहेश्वर., तम् । आहस्म भगवान् पतञ्जलि' 'स पूर्वेषामपि गुरु' कालेनानवच्छेदात् ।' 'तत्र निरतिशय सार्वजबीजम् ।' (योगदर्श० १. २४-२५) शिवसूत्रेष्वपि 'गुरुरुपाय' इति । आश्रितोऽस्मि शरीरादिकृत्रिमाहंकारगुणीकारेण तदेकसामरस्यभावमापन्नोऽस्मि । यस्मात् प्रकाशपरमार्थात् , विमर्शादिव इच्छाशक्तवैभवभरादिव, मेयमानं, मातु योग्यं मेयं विश्ववत्तिवेद्यवर्गः, तस्य मानं उत्कर्पकक्षाधिरोहणं, परादिसंविन्मयं, पराद्यनन्तशक्तित्रातरूपेण स्फुरत् संविदेकरूपत्वम् । ब्रह्ममयं जगदित्यादाविव अभेदार्थको मयट् । आविरस्ति जगदाद्यात्मना प्रकाशते । तथा चोक्तम् - 'चिदात्मैव हि देवोऽन्त स्थितमिच्छावशाद् बहिः । योगीव निरुपादानमर्थजात प्रकाशयेत् ॥ इहेदमनुसन्धेयम् - स्वस्वरूपानन्दानुभवतृप्तोऽपि परमेश्वरो यदा स्वात्मानमेव शब्दार्थात्मकप्रपञ्चात्मना विवर्तयितुमिच्छति तदा शिव इति व्यपदेशं लभते । अस्यैव चिद्रूपस्य भगवत 'विश्वं भवामि' इति परामृशत. आनन्दरूपा विश्वभावस्वभावमयी संविदेव किश्चिदुच्छूनतारुपा सर्वभावाना वीजभूमि शत्तयवस्था प्रतिपद्यते । अतएव परमार्थप्टथा शिव. शक्तिरिति नार्थान्तरम् । एतदेवाभिप्रेत्य 'शिवः शक्तिरिति ह्य के तत्वमाहुर्मनीपिण' इत्यागमविट । किञ्च, अयमर्थः स्पन्दशास्त्रप्रक्रिययापि 'यस्मात् सर्वमयो जीवः सर्वभावसमुद्भवः । वत्सवेदनरूपेण तादात्म्यप्रतिपत्तितः ॥ इति प्रकृत्य Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमार्थाकलनम् उपास्महे सिद्धि-समृद्धि-सम माहेश्वरं ज्योतिरनन्तशक्ति । यस्मात् परस्मादिव शासनस्य विश्वस्य जन्म-स्थिति-भङ्गमाहुः ॥२॥ यो गीयते ब्रह्मपदेन सूत्रे वेदागमेऽपीश्वरशब्दितेन । तमेकदेवं परमार्थतत्वमात्मानमात्मन्यवधारयामि ॥३॥ तेन शब्दार्थचिन्तासु न साऽवस्था न य शिव । भोक्तव भोग्यभावेन सदा सर्वत्र संस्थितः ।।' इत्यादिना सिद्धान्तितः साधु संगच्छते । तत्प्रकारस्त्वेवंरूपः- संवित्स्वरूपस्य सर्वप्रकाशकस्य प्रभेव प्रकाशनशक्तिर्या वर्ण-पद-वाक्याजीवभूता अन्त संजल्परूपा वाक् , सा एव पदार्थरूपतया वहिर्भवतीति प्रबुद्धहृदयानामनुभवसाक्षिकम् । भोग्यं हि नाम प्रमेयमुच्यते । तच्च सत्यपि तदुपसर्जनवृत्तित्वे प्रमाणशरीरान्नातिरिच्यते । तस्मान्न भोग्य भोक्तुरतिरिक्तं किमपि पृथक्तया परिगणनीयं भवितुमर्हति । सर्ववस्तूनां अन्ततः प्रमातर्येव विश्रान्ते । अतश्च अनुभवितैव अनुभाव्यतया आहोस्वित् निष्कृष्य निरूप्यमाणे ज्ञानमेव वा ज्ञेयतया सदा सर्वत्र प्रथत इति संक्षेपः। २-उपास्महे इति । सिद्धयः, स्वात्ममहेश्वरस्य विभूतिस्पन्दा, अणिमाद्या अष्टमहासिद्धयश्च, तासां समृद्धिः हृदयहारित्वोत्कर्षलक्षणं सौभाग्यम् । तस्य सद्म उत्पत्तिस्थानम् । तत्तत्साधकजनहृदयोल्लासरूपाः चिदानन्देच्छाज्ञानक्रियानुभवस्मृत्यपोहनात्मकाः धर्मा एव ब्राह्मयादिमात्रष्टकाधिष्ठिताः सन्तो बहिविभूतिरूपतामापद्यन्त इत्यासामष्टकत्वमाख्यायते । माहेश्वरं ज्योतिः स्वसंवित् । प्रकाशैकवपुषः सर्वभूतात्मन. परमेश्वरस्य स्वभावभूतो योऽनवच्छिन्नोऽहविमर्शः स ज्योति.पदेन अभिधीयते । यथोक्तमन्यत्र- 'स्वसंवित् त्रिपुरा देवी ।' इति 'स्वरूपज्योतिरेवान्त. परावागनपायिनी।' इति च । अनन्तशक्ति, अनन्ता. अनवच्छिन्नाः संख्यातुमशक्या , शक्तयः इच्छाज्ञान-क्रियाशक्तीनां पल्लवभूता. ब्राह्मथाद्याः शब्दराशिसमुत्स्था यस्य तत् । उपास्महे स्वहृदयोन्मुख्येन परामृशाम । उपोपसृष्टादास् धातोः कर्तरि लट् । यस्मात् यत. परस्मात् अन्यस्मादिव शासनस्य स्वोल्लासरूपस्य विश्वस्य सृष्टि-स्थिति-सहाराः प्रवृत्त्युन्मुखाः जायन्ते । .. ३-यो गीयत इति । यः भगवतः पाराशर्यस्य 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः बोभूयते सर्वचराचराणामाधारभूमिः खलु यो हि भूमा । विशिष्य यस्य प्रतिमानभूता ब्रह्मादिवृन्दारकतास्ति सोऽहम् ॥४॥ इति वेदान्तसूत्रे ब्रह्मशब्देन, वेदे मन्त्रब्राह्मणलक्षणे, आगमे प्रत्यभिज्ञादिदर्शने च 'ईश्वर' शब्देन गीयते प्रख्याप्यते, तम्, एकदेवं एकं असहायं अद्वितीयं वा देवम् । चिदैक्येन स्फुरणात् भेदस्य अनुपपत्तः। तथा च श्वेताश्वतरोपनिपदि ‘एको देव. सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा । कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवास. साक्षी चेता केवलो निगुणश्च ।। अन्या अप्येवंजातीयका. पर.शता श्रु तय उदाहार्याः । तदेवं ईष्टे इतीश्वरापरपर्याय वृहतीति ब्रह्म व देवतानामेका देवता । ततश्च ईश्वर-ब्रह्म-आत्मेति नार्थान्तरमिति भावः । परमार्थतत्त्वं, तत्वदृशा विचार्यमाणे सर्वतत्वानामधिष्ठानभूतं प्राणप्रदमिति यावत् । आत्मानं अनवच्छिन्नचिदानन्दैकघनं श्रात्मनि अवधारयामि परामृशामि | अहमेव स्वात्ममहेश्वरस्वभावो विश्वात्मना सर्वदा सर्वत्र स्फुररामीत्याशय । अत्र च शिवसूत्रमवतरति - 'चैतन्यमात्मा' ( शिवसूत्र०१.१.) चैतन्य चिति', चेतन श्रात्मा इति तु राहोः शिरः इतिवत् काल्पनिकम् । वस्तुतस्तु एकमेव सर्वम् । चितिक्रिया प्रकाशाभिमर्श', तस्य भावः चैतन्यम् स्वातन्त्र्यम् । तदुक्तम् - ____ 'परमात्मस्वरूपं तु सर्वोपाधिविवर्जितम् । चैतन्यमात्मनोरूपं सर्वशास्त्रेषु पठ्यते ।। इति । एवमिह एकस्मिन्नपि शिवशत्त्यात्मके चिदानन्दमात्रपरमार्थे प्रकाशविमर्शरूपे चा तत्त्वे संविद्वैतवादे शक्तिप्राधान्येन व्यवहार , ईश्वराद्वैतवादे शक्तिमत्प्राधान्येनेति विशेपोऽग्याकलनीय । ४- वोभूयत इति । खलु इति वाक्यालङ्कारे अध्ययम् । भूमा परमात्मा । वैपुल्यवाचकात् बहुशब्दात् पृथ्वादित्वादिमनिचि 'वहोर्लोपो भू च बहोः' (पासू० ६. ४. १५८ ) इति प्रकृतेभू भाव प्रत्ययादेरिकारस्य लोपश्च । 'भूमा संप्रसादादध्युपदेशात् ।' धर्मोपपत्तेश्च ।' (ब्रह्मसू० १ ३.८-६) इति भूमाधिकरणस्थ ब्रह्मसूत्रमप्यनुसन्धेयम । सर्वचराचराणाम् , सर्वेषां रुद्रक्षेत्रज्ञादिप्रमातृप्रमेयरूपाणां चराचराणां जडाजडस्वभावानां अाधारभूमि विश्रान्तिस्थानं अध्यक्षत्वेनानुप्रविष्टमित्यर्थ । चोभूयते पुन:पुनरतिशयेन वा भवति । भवतेर्य Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमार्थाकलनम् प्रथाकथाकारकलामुपेतो, ब्रह्मा च विष्णुश्च ततश्च रुद्रः । यानाश्रयन्ते समवायिनीव, सरस्वती श्रीरमलापि गौरी ॥५॥ ॥ इति परमार्थाकलनम् ।। डन्ताल्लट् । यस्य महेश्वरस्य विशिष्य प्रतिमानभूता प्रतिविम्वभूता 'प्रतिमानं प्रतिविम्बं प्रतिमा प्रतियातना प्रतिच्छाये'त्यमरः । ब्रह्मादीनां ब्रह्मविष्णुरुद्राणां वृन्दारकः यूथपतिः, तस्य भावः । वृन्दं ऋच्छति इति वृन्दारः स एव वृन्दारकः । स्वार्थे क. । ब्रह्मविष्णुरुद्राणामप्यतिशयभूमित्वरूपा महेश्वरता अस्ति स 'अहम्' अहंप्रत्ययप्रत्ययी प्रत्येतव्यः । अतएव अजडप्रमातृसिद्धौ इदमित्यस्य विच्छिन्नविमर्शस्य कृतार्थता । या स्वस्वरूपे विश्रान्तिविमर्शः सोऽहमित्ययम् ।।' इति । तथा-'प्रकाशस्यात्मविश्रान्तिरहंभावो हि कीर्तितः ।। इति चोपन्यस्तम् । इदमत्र तात्पर्यम् - 'ब्रह्मविष्णुशिवादीनां यः परः स महेश्वरः इति योगवार्तिकम् । 'यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वम्-' इति श्वेताश्वतरश्रुतिश्च । महेश्वरो हि प्रकाशात्मा, प्रकाशश्च विमर्शस्वभावः । यदि निर्विमर्शः स्यादनीश्वरो जडश्च प्रसज्येत । स एवात्मा स हि अहप्रत्ययप्रत्ययी। अहंप्रत्ययश्च धूमेन धूमध्वज इव 'इन्द्रियमिन्द्रलिङ्गमिन्द्रदृष्टमिन्द्रसृष्टमिन्द्रजुष्टमिन्द्रदत्तमिति वा-' (पा.सू.५. २. ६३) इति पाणिनिसूत्रव्युत्पादितेन जडचेतनभेदनिबन्धनेनेन्द्रियेण इन्द्र आत्मा अनुमीयते । आत्मा हि इच्छाशक्तिसंश्लिष्टोऽन्तःकरणादिशाली यथावैभवं व्यवहारभूमिपु प्रवर्तते । अन्यत्रापि ॐ नमोऽहं पदार्थाय लोकानां सिद्धिहेतवे। सच्चिदानन्दरूपाय शिवाय परमात्मने ।।' इत्येवमादि पठ्यते । ५- प्रथेति । प्रथन प्रथा ख्यातिः, सैव कथा तस्या आकारो रूपाधान तस्य कला विभूतिमुपेत' कथाशरीरात्मना प्रथित इत्याशय. । भगवतः पाराशर्यस्य कवित्वविभ्रमभूमिरियं कथा पुराणरूपतां दधती सुप्रसिद्धा तावत् । अयमत्र ब्रह्मादीनां सर्जनक्रम - ___ ईश्वरो यदा स्वस्मात् पृथगिव भासमानं विश्वं स्वमाययैव प्रकृतिसंज्ञया रजोगुणमवलम्व्य महदादिक्रमेण पृथगेव करोति तदा ब्रह्मा (स्रष्टा) इत्युच्यते । तत्रैवान्तर्यामित्वेन प्रकृते. सत्त्वगुणमवलम्ब्य अनुप्रविश्य यदा नियमयति तदा Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः प्रथम-स्तवः। जय जगदम्ब ! कदम्बविहारिणि ! मङ्गलकारिणि ! कामकले ! जय तनुशोभाकम्पितशम्पे ! लसदनुकम्पे कान्तिनिधे ! । जय जितकामेऽपि जनितकामे ! धूर्जटिवामे । वामगते ! जय जालन्धरपीठविलासिनि ! दुःखविनाशिनि ! भक्तिवशे! ॥१॥ विष्णुः । स एव प्रकृतेस्तमोगुणमवलम्ब्य यदा संहरति तदा रुद्रः। तदेवमसौ महतोऽस्य जगन्नाट्यसर्गस्य प्रवर्तयिता सूत्रधार स्वेच्छया स्वभित्तौ विश्वमुन्मीलयन नानाभूमिकां प्रतिपन्नोऽपि परमार्थत एकत्वमेवावगाहत इति चतुरस्रम् | यान् ब्रह्मादीन् समवायिनी इव समवायो नित्यसंबन्धः सोऽस्ति अस्या.। तादात्म्यभावमुपगता. शक्तिपदवाच्याः ब्राह्मी-वैष्णवी-रौद्रीपदाभिलप्या. आश्रयन्ते आश्रयीभूय प्रथन्ते । इहेदं रहस्यम् - एकः खलु परमेश्वर इति सर्वतन्त्रसिद्धान्त. । यत्त्वस्य प्रादुर्भावावताराभ्यां अनेकत्ववर्णनं तत्सकलं सातिशयं प्रतिपत्तव्यम् । अस्यैव पुनब्रह्म-विष्णु-रुद्रपदव्यपदेश्या जगदुत्पत्ति-स्थिति-संहारकृतः प्रधानशक्तयः। कथामर्यादया तु ब्रह्मा-ब्रह्माणीत्येवमादि दाम्पत्यभावमधुराः प्रकाराः पुराणेतिहासेषु सुव्यक्ता एवेति शम् । इति परमार्थाकलनम्। प्रथम-स्तवः १-जयेति यथायथं सर्वत्र योजनीयम् । जगदम्वेति संवोधनं स्वाभिमुखीकरणार्थम् । कदवे कदंबकुसुमे विहरति तच्छीला कदम्बविहारिणी । भगवत्याः कदम्वप्रियत्वमागमेपु सुप्रसिद्धम् । 'कदम्बकुसुमप्रियेति ललितासहस्रनामस्तवे । मगलं कल्याणं करोति इति तथाभूता । कामकले कामः यावन्मनोरथमानं तस्य कला प्रकाशभूमिका । अथवा कामः कलाशरीरघटको विन्दुरग्नीपोमाख्यो रविः । तदुक्त कामकलाविलासे 'विन्दुरहकारात्मा रविरेतन्मिथुनसमरसाकारः । काम. कमनीयतया कला च दहनेन्दुविग्रही विन्दू ।। आचार्यशङ्करभगवत्यादैरपि 'मुखं बिन्टुं कृत्वा कुचयुगमधस्तस्य तदधो हरार्ध ध्यायेद् यो हरमहिपि । ते मन्मथकलाम् ।' १-चिदानन्दघनस्वात्मपरमार्थानुचिन्तनमिति यावत् । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमस्तवः। इत्यादिना सौन्दर्यलहर्या कामकलास्वरूपं प्रतिपादितम् । यत्फलं च 'हरिस्त्वामाराध्य प्रणतजनसौभाग्यजननीमित्यादिना तत्रैव स्पष्टमभिहितम् । कमनीयत्वाद्वा काम. । तथा च कालिकापुराणे जगत्सु कामरूपत्वे त्वत्समो नैव विद्यते । अतस्त्वं कामनाम्नापि ख्यातो भव मनोभव ।।' इति । जगत्सिसृक्षावानीश्वरः कामपदवाच्यः । श्रूयते च वृहदारण्यकोपनिषदि 'आत्मैवेदमग्र आसीत् एक एव सोऽकामयत...... इत्यादिना - एतावान्दै कामः' इत्यन्तम् । तदिदं कामकलास्वरूपं गुरुमुखैकवेद्यामति इहैवोपरम्यते । तनो शरीरस्य शोभा कान्तिः तया कम्पिता शम्पा विद्यु दनयेति तत्संबोधनम् । लसन्ती अनुकम्पा दयाभावो यस्याः सा । कान्तीनां भासां निधिः, तत्संबुद्धिः । प्रकाशनिधानभूतामिति तात्पर्यम् । जित. स्वायत्तीकृतः कामः अनझोऽनया । जनित. पुनरुज्जीवितः कामोऽनया । भण्डासुरहननोत्तरं ब्रह्मादिभिर्देवैः प्रार्थितया ललिताम्बया पुनर्मन्मथो जीवित इति ब्रह्माण्डपुराणोक्ता कथात्र गर्भीकृता द्रष्टव्या । धूर्जटेमहेश्वरस्य वामे वामानविलसनशीले । वामगते वामं सुन्दरं गतगमनं यस्याः सा तत्संवुद्धिः । जालन्धरपीठस्य प्रोड्याणादिप्रमुखशक्तिपीठचतुष्टये ललामभूतस्य विलासिनि अलंकृते | | जालन्धरपीठं पीठान्तरेभ्योऽम्बायाः प्रियतरमिति भावः । 'पञ्चाशत्पीठरूपिणी' इति ललितासहस्रनामस्तवः । किमियता-अस्या एव विवर्तभूतं परिणामभूत वा सकलमिद दृश्यजातमेव । तत्रानन्तवैचित्र्यचित्रितेन विशेषेण वर्तनमेव विवर्तो नतु कश्चित् पारिभाषिकः । मिथ्यात्वमात्रानुप्राणितव्यवहारेण आप्रलयं विश्ववैशिष्ट्यचमत्कारासंभवात् । परिणामो वा आस्ताम् । स च परा-पश्यन्ती-मध्यमा-वैखरीलक्षणः शाब्द. । शिवादिधरण्यन्तः षट्त्रिंशत्तत्त्वरूप आर्थ । स एष वैशेपिकसप्तपदा नैयायिकपोडशपदार्थीव सांख्यस्य योगस्य वा तत्त्वानामुपवृहणभूतो वस्तुतस्तु सारभूत एव परीक्षणीयस्तैर्थिकै. । बिन्द्वादिभूपुरान्तस्तु चाक्रः । अयमेव यान्त्र. परिणाम इत्यपि व्यपदिश्यते । शारीरो याजमानस्त्वत्रैवान्तर्भवति । उक्तच ___'तस्यां परिणतायां तु न किञ्चिदवशिष्यते ।' इति । इह - 'यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमर्जितमेव चा !' इत्यादयो गीताद्यु क्तयोऽप्युपास्तिधिया संनिहिता एव परीक्षणीया इत्यलं पल्लवितेन । दुःखस्य सांसारिकस्य संतापस्य विनाशिनी उच्छेदकी । 'तदत्यन्तविमोकोऽपवर्ग' इति तत्रभवान् Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः नानालङ्कृतिझङ्कृतिशालिनि ! मौक्तिकमालिनि ! केलिपरे ! मुनिजनहृदयागारनिवासिनि ! विद्यास्वामिनि ! वोधधने !। सान्द्रानन्दसुधारसभासिनि ! वीणावादिनि ! वेदनुते ! जय जालन्धरपीठविलासिनि ! दुःखविनाशिनि ! भक्तिवशे !॥२॥ गौतमः । 'दु खेनात्यन्तविमुक्तश्चरति' इति श्रुतिश्च । भक्तिवशे भक्त्या भक्ती वशा इत्यु भयथा व्याख्येयम् । भक्तिपराधीनेत्यर्थः । द्विविधा हि खलु भक्तिर्मु ख्या गौणी च । तत्र ईश्वरविषयक अनुरागात्मक. चित्तवृत्तिविशेप एव प्रथमा भक्तिः । तथाचाप भक्तिसूत्रम् - 'सा परानुरक्तिरीश्वरे ।' इति, द्वितीया तु 'गौण्या समाधिसिद्धिः' इत्युक्तलक्षणा । सा च सेवनभजनादिनानास्वरूपसंकुला ततोऽवरकोटौ परिणमति | सांप्रतं तु जाग्रति कलिचाकचक्ये, उद्वल्लति च भक्तिरससिन्धौ, कीर्तनगीतगद्यतौर्यत्रिकादिनव्यभव्यभावपरिष्कृता मनसो मधुरतरै ापारैरुदञ्चत्कलेवरा भक्तितपस्विनी अनेकविधां भजन्ती परीक्ष्यत इति सर्वजनप्रत्यक्षमित्यास्तां भक्तिविवेकाख्यानेन । २ - नाना अनेकाः रत्नरौप्यसौवर्णादिघटिता' अलंकृतयः आभूषणानि तासां झकृति. झणत्कारशब्दः तया शालते। नानाविधरत्नाद्यलकारप्रियेत्यर्थः। मौक्तिकमालिनि मुक्तैव मौक्तिकम् स्वार्थे ठक् । तस्य माला स्रक सास्ति यस्याः, तत्संबुद्धि । केलि. क्रीडा तत्सरे तदासते। मुनिजना मन्वत्रिप्रभृतय तपोविभूतय. तेषां हृदयागारे दहरपुण्डरीके निवास' अस्ति अत्याः । मुनिश्व 'दु खेष्वनुद्विग्नमना सुखेषु विगतस्पृहः । वीतरागभयक्रोव स्थितधीर्मु निरुच्यते ॥' इति भगवद्वासुदेवाद्यनुशिप्टो नतु विचित्रवेपलिङ्गपरिग्रहो धर्मध्वजस्तदाभासो वा । विद्यानां अप्टादशप्रस्थानभिन्नानां स्वामिनी ईश्वरी । बोधघने बोधो जान, बुर्भावे घन् । तेन घना सान्द्रा, जानैकस्वरूपेत्यर्थ । सान्द्रा निविडा या श्रानन्दसुवा अमृतरस स भासते अस्याम् । वीणां कच्छपी वादयतिइति वीणावादिनी, तत्संबुद्धि. । वेदैः संहिताब्राह्मणोभयात्मकै 'मन्त्रव्राह्मणयोर्वेदनामधेयम' इत्यापत्तन्वः । नुते स्तुते 'स्तवः स्तोत्रं नुतिः स्तुति' रित्यमरः । घरमं चरणद्वयं प्राग व्याख्यातम् । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-स्तवः आपत्तूलमहानलकीले ! पालनशीले ! भूतिखने ! धु तिजितचम्पकदामकलापे ! मधुरालापे ! हंसगते ! । विभ्रमरञ्जितशङ्करहृदये ! कृतजगदुदये ! शैलसुते ! जय जालन्धरपीठविलासिनि ! दुःखविनाशिनि ! भक्तिवशे ! ॥३॥ मूले दीपककलिकाकारे ! विद्यासारे ! भवसि परा तस्मादपसृतिकलनावृद्ध ! मणिपुरमध्ये पश्यन्ती । स्वान्ते मध्यमभावाकूता, कण्ठे वितता वैखरिका जय जालन्धरपीठविलासिनि ! दुःखविनाशिनि ! भक्तिवशे!॥ ४॥ ३ - संसारविषवृक्षोत्था आपद एव तूलाः कार्पासाः तदन्तर्ध्वलितो यो महानलः तीव्रतमो ज्वलन. तं कोलति अवष्टभ्नाति, तत्संबुद्धिः । पालनं योगक्षेमप्रदानरूपं शीलं यस्या । भूतीनां अणिमाद्यानां खनि.आकरः 'खनिः स्त्रियामाकरःस्यात्' इत्यमरः । द्यु तिजितचम्पकदामकलापे द्योतते इतिद्युतिः कान्ति., तया जितःन्यगभावं नीत', चम्पकदाम्नां स्वर्णसवर्णानां कलापः कदम्बकं अनया। मधुरः श्रवणप्रिय आलाप. आभाषणं यस्याः । हंसगते हंसवाहने। विभ्रमेण विलासेन रञ्जितं प्रसादितं शंकरस्य हृदयमनया | कृतजगदुदये कृतः जगतां स्थावरजङ्गमात्मनां उदय. उद्गमोऽनया। शैलस्य हिमवत सुता तनयात्वरूपेणावतीर्णा । अन्यत्पूर्ववत् । ४-मूले पराधाम्नि मूलाधारचक्र, दीपकस्य पुष्पवर्तिकायाः कलिका इव कोरक इव आकारः स्वरूपं यस्या । विद्यानां भुक्तिमुक्तिश्रियोपश्लिष्टानां सारे सारस्वरूपे त्वं परा भवसि परेति लोके गीयसे । तस्मात् परामण्डलात्, अपसृति. अपसरणं, अग्रगमनमिति यावत् । तस्या. कलना व्यापार', तया वृद्ध वृद्धिमपगते । मणिपुरमध्ये, मणिपुरं नाभिस्थितं दशदलं पद्मम्, तन्मध्ये तदन्तः । सामयिकपूजायां मणिभी रत्नैः पूर्यते देवी इति तच्चक्र मणिपुरमित्युच्यते । अस्मिन् चक्र विष्णोरवस्थानमित्यागमः । पश्यन्ती, पश्यन्तीति व्यवहारपदयोग्या संपद्यसे । स्वान्ते हृदयपरिसरे मध्यमभावः अनाहतनादात्मा प्राकृत अभिप्रायो यस्याः । कण्ठे कण्ठकुहरे वितता व्याप्तिमागता वैखरिका वैखरीवाकस्वरूपा । पट्चक्रादिनिरूपणे प्रसिद्धाया. 'चत्वारि वाक् परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीपिण. । गुहा त्रीणि निहिता नेगरन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति ।' Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः पश्चादाविर्भवदनवद्ये ! श्रेयःपये ! यत्तदिदम् शब्दब्रह्मतया खलु गेयं, खमिवामेयं किमपि धनम् । पञ्चाशल्लिपिभेदविचित्रं वाङ्मयमानं त्वमसि परे ! जय जालन्धरपीठविलासिनि ! दुःखविनाशिनि ! भक्तिवशे !॥ ५ ॥ इति पातञ्जल-महाभाष्य-पस्पशान्हिकोद्धतया-ऋग्वेदश्रु त्या बोधितायाः परापश्यन्ती-मध्यमा-वैखरीलक्षणायाः शब्दब्रह्मविभूतेभूरिति पिण्डार्थः । अयमत्र परादीनां विभागक्रमः-शब्दब्रह्मरूपस्य वीजस्योच्छूनतावस्था परा । तदुक्तमागमे 'येयं विमर्शरूपैव परमार्थचमत्कृतिः।। सैव सारं पदार्थानां परा वागभिधीयते ।। नादाख्या सर्वभूतेषु जीवरूपेण सस्थिता । अनादिनिधना सैव सूक्ष्मा वागनपायिनी ।।' एतल्लक्षणाक्रान्ता शब्दब्रह्मशक्तिरेव परेति व्यपदिश्यते । वहिरुन्मिपन्त्या अस्याः प्रथमो विवर्तः पश्यन्ती। पराया मध्यमायाश्वावस्थां तटस्था पश्यतीतियोगात् । तत एतदुदीरयामीत्यन्तःसंकल्पलक्षणा प्राणवृत्तिमतिक्रम्य श्रोत्रग्राह्यवर्णाभिव्यक्तिरहिता क्रमरूपानुपातिनी मानसिकवर्णोच्चारप्रक्रियया द्वितीयो विवर्ती मध्यमा । पश्यन्तीवैतर्यामध्ये वर्तमानेति योगात् । ततश्च स्थान-करण-प्रयत्नक्रमव्यज्यमानस्तृतीयो विवर्तो वैखरी । विशिष्टं खं आकाशं मुखरूपं राति गृह्णाति इति विखर । प्राणवायुसंचारविशिष्टं वर्णोच्चारणं, तेनाभिव्यक्तेति योगात् । एतत्सारभूनैव 'मूलाधारात्प्रथममुदितो यश्च भावः पराख्यः पश्चात्पश्यन्त्यथ हृदयगो बुद्वियुड् मध्यमाख्यः । व्यक्ते वैखर्यथ रुरुदिपोरस्य जन्तो सुपुरणा वद्धस्तस्माद्भवति पवने प्रेरिता वर्णसंज्ञा ।।' इत्याचार्याणामुक्ति पप्रथे। अधिक तु नित्यातन्त्राद्याकरग्रन्थेभ्योऽवसेयम् । ५-हे अनवद्य ! नास्ति अवद्य गह्य रूपमस्याः तत्संबुद्धिः अनघेत्यर्थः । हे श्रेय पद्य अतिशयेन प्रशस्यं श्रेयः । 'द्विवचन विभज्यो' (पा.सू. ५. ३.५७) इति ईयसुन् । 'प्रशस्यस्य श्र.' (पा. सू. ५. ३. ६०) इति श्रादेशश्च । पादाय हिता पद्या, शरीरावयवत्वाद्यत्प्रत्ययः, पद्भावश्च । श्रेयसां कल्याणानां पद्या सरणिः तत्संबुद्वि । भुक्ति-मुक्तिरूपाणां श्रेयोवम॑नामेकान्तवाहिनीत्याशयः । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-स्तव: भवभवविभवपराभवहेतो ! गिरिकुलकेतो ! भक्तहिते!।। नानाविधवृजिनोत्करवारिणि ! करुणासारिणि ! शान्ततरे ! । सहसोत्सादितसाधकविघ्ने ! श्रद्धानिध्ने ! सुखकलिके ! । जय जालन्धरपीठविलासिनि ! दुःखविनाशिनि भक्तिवशे!॥६॥ पश्चात् वैखर्यात्मना परिणतायां भवति आविर्भवत् बहिरुल्लसत् यत् अकारादिक्षकारान्तो वर्णराशिः तदिदं शब्दब्रह्मतया शब्दात्मकेन ब्रह्मस्वरूपेण खलु गेयं, गातुं योग्यम् । गेयमित्यत्र 'भव्यगेयप्रवचनीय-' (पा.सू. ३.४.६८) इति कर्तरि यत् । खम् आकाशः शून्यस्थानं, तद्वत् अमेयं, मातु परिच्छेत्तुं योग्यं मेयं, तन्न भवत्ति इत्यमेयं परिच्छेदानहम् । किमपि वाचातिक्रान्तम् । धनम् व्यापकम् । पञ्चाशल्लिपिरिति त्रिषष्टेरप्युपलक्षणम् । तथाच शारदातिलकस्थं पद्यम् - 'नित्यानन्दवपुनिरन्तरगलत्पश्चाशदर्णैः क्रमात् ।' इति । तथा-'पश्चाशल्लिपिभिविभक्तमुखदो पन्मध्यवक्षस्थलम् ।' 'पञ्चाशद्वर्णभेदैविहितवदनदोः पादयुक्कुक्षिवक्षः।' इत्येवमादय कविकुलालापाश्चापि द्रष्टव्याः। पञ्चाशत् लिपिः लेखनं तस्य भेदै. प्रकार. विचित्रं विविधवैचित्रीसमुद्भासितं, वाड्मयमात्रम् हे परे । त्वम् असि । पराया एव सर्वासां वाचामन्तःसाररूपत्वादिति तत्त्वम् । लघ्वाचार्या अपि 'शब्दानां जननीत्वमत्र भुवने वाग्वादिनीत्युच्यसे त्वत्तः केशववासवप्रभृतयोऽप्याविर्भवन्ति ध्रुवम् । लीयन्ते खलु यत्र कल्पविरमे ब्रह्मादयस्तेऽयमी सा त्वं काचिदचिन्त्यरूपमहिमा शक्तिः परा गीयसे ।। ६-भवः ससारः, तत्र भवः उत्पन्नो यो विभवः, ऐश्वर्य पराभवः अनादरश्च तस्य हेतुः हेतुभूता, तत्संबुद्धिः। अनुकूलप्रतिकूलवेदनीययोः सुखदुःखयोस्त्वमेव केवलं बीजभूतेत्याशयः । गिरीणां कुलं वंशः तस्य केतुः, पताका । लोकोत्तरकार्यसंपादनप्रवृत्ततया वशप्रतिष्ठाकारिणीत्यर्थः । भक्तहिता भक्तेभ्यः सपर्यापरायणेभ्यो हिता, पथ्यभूता । नानाविधं वहुप्रकृतिकं यत् वृजिनं अंह, तस्य य उत्करः राशिः तस्य वारिणी, उत्सारिणी तत्सबुद्धिः । करुणायाः सारिणी प्रसारिणी तत्संबुद्धिः । 'सृ' धातोणिनि. । शान्ततरा अतिशयेन शान्ता | अतिशायने तरप् । सहसोत्सादितसाधकविघ्ने सहसा सद्य एव उत्सादितं प्रतिहतं साधकस्य साधनभाजो विनम् चिचविक्षेपरूपं वा अमङ्गलं अनया । श्रद्धया विश्वासातिशयेन निन्ना अधीना Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः सिन्दूरद्रवचुम्बितभाले ! सेवितहाले ! प्रेमभरे ! मातश्चिन्तामणिभवनान्ते ! निर्भरकान्ते ! विततततम् । सोत्कं गायसि किन्नरदारैः, साकमुदारैः पतिचरितम् जय जालन्धरपीठविलासिनि ! दुःखविनाशिनि ! भक्तिवशे!॥७॥ क्लेशं भञ्जय, रञ्जय चित्त, वित्त स्फारीकुरु वरदे ! शत्रु मर्दय, वर्धय शक्ति, भक्ति सान्द्रीकुरु सरले ! 'अधीनो निन्न आयत्त.' इत्यमर.। सुखस्य ऐहिकस्य आमुष्मिकस्य च कलिका कुडमलभूता | त्वत्त एव समस्त. सुखराशिराविर्भवतीत्यर्थः । शेपं सुगमम् । ७ - सिन्दूरस्य यो द्रवः रस तेन चुम्बितम् आश्लिष्ट भालं ललाटं यस्याः सा,तत्संबुद्धिः । सेविता स्वात्मनि योजिता, हाला पासवद्रव्यमनया । प्रेम्णः अनुरागस्य भर' आविक्यमस्ति अस्यामिति तत्संबुद्धि । रागातिशय विभ्रती इति भाव । चिन्तामणिभवनं द्वादशारं कमलं तदन्ते तन्मध्ये । सर्वेषां चिन्तितार्थप्रदानां मन्त्राणां निर्माणमण्डपं चिन्तामणिगृहमाख्यायत इति गौडपादीये सूत्रभाष्ये । तन्त्रान्तरेऽपि 'तत्र चिन्तामणिमयं देव्या मन्दिरमुत्तमम् । शिवात्मके महामञ्चे महेशानोपवर्हणे ।। अतिरम्यतले तत्र कशिपुश्च सदाशिव. । भृतकाश्च चतुष्पादा महेन्द्रश्च पतद्ग्रहः ।। तत्रास्ते परमेशानी महात्रिपुरसुन्दरी ।' इति । निर्भर' अतिमात्रमाश्रित कान्तो अस्याम् । अथवा नि शेपेण भरः अतिशयः कान्ते यस्या सेति । विततं विशेषेण व्याप्तं ततं वीणादिवाद्य यस्मिन् कर्मणि तत् यथा स्यात्तथेति-गायनक्रियां विशिनष्टि । उदार दक्षिणैः, किन्नरदार. किन्नराणां देवयोनिविशेपाणां दारा. पत्न्यः, तैः साकं सह । सह उत्केन वर्तमान सोत्कं सोत्कण्ठं । 'उत्क उन्मना' (पा० सू० ५।२।८०) इति उद्गतमनस्कवृत्तेरुच्छद्वात् स्वार्थ कन् । उद्गतं मनः अस्येति उत्क , तदस्ति यस्मिन्निति वा । पत्युमहेशानस्य चरितं चरित्रम् । अन्यत् स्पष्टम् । ८-क्लेश आधि-व्याध्युत्यं शारीरं मानसं च कष्टं, तत् मजय भिन्धि । चित्तं मानसं रस्जय रञ्जितं कुरु । वित्तं लोकोद्भवं वैभवं स्फारीकुरु । अस्फारः स्फारः Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-स्तवः नास्ति कृपानिधिरम्ब ! त्वत्तो मत्तो मत्ततमो न शिवे ! जय जालन्धरपीठविलासिनि ! दुःखविनाशिनि भलिवश !॥ ८ ॥ वज्रालङ्करणायाः वज्रातटिनीविहारशीलायाः । वज्र श्याः स्तवमेतं पठतां सङ्गच्छतां श्रेयः ॥ ६ ॥ इति जगदम्बा-जयवादः ॥ १॥ सपद्यतां तं कुरुष्वेति विग्रहः । प्रार्थनायां लोट् । वृद्धि प्रापयेत्यर्थः । शत्रु प्रतिद्वन्द्विनं मर्दय, उपमर्दित संपादय । शक्तिम् अन्तःस्फुरणात्मिकां वर्धय, बलोजितां विधेहि । सरले सरलस्वभावे, भक्तिं तव चरणयोरासक्तिं, सान्द्रीकुरु घनीभूतां सपादय । हे अम्ब । त्वत्त. भवत्याः विशिष्ट. कृपानिधिः करुणासमुद्र. नान्य. कश्चन अस्ति । हे शिवे | कल्याणिनि ! शिवं करोति इति शिवशब्दात् 'तत्करोतितदाचष्टे' इति एयन्तात् पचाद्यचि, टाप् । शेते अस्यां सर्वमिति अथवा शिवा. शोभनाः गुणा अस्या सन्तीति, अर्शआदित्वादच् । मत्त. मदपेक्षया, मत्ततम. अतिशयेन मत्त , प्रमादयुक्त नान्य. कोऽपि क्वचिदिति । शेप सुगमम् । ६- वज्रालङ्करणायाः वज्र पविः अलङ्करणं विभूषणं यस्याः तस्याः । वज्रातटिनी आगमप्रसिद्धा सरित् । तस्यां विहारशीलायाः स्वरं विहरन्त्या. । वज्रस्य ईशी वन शी, षष्ठीतिथिनित्या जालन्धरपीठाधिष्ठात्री तस्या., इन्द्रवज्रप्राणप्रदायाः । अनयैव तपस्यत इन्द्राय वज्रोऽपि प्रसादीकृत इत्यादिकथा ब्रह्माण्डपुराणतो द्रष्टव्या । एत मदुक्तं स्तवं स्तोत्रं पठतां अर्थानुसन्धानेन सह सश्रद्धं भावयतां जनानां श्रेय. मङ्गलं सङ्गच्छतां संघटताम् । इति जगदम्बा-जयवादः । १-श्रीपुरस्य द्वादशः प्राकारो वज्रमणिमयः, तत्र एकादशस्य मध्ये वज्राख्यानदी, तत्स्वामिनी । तथा च तत्रभवतो दुर्वाससः ललितास्तवरत्ने 'तत्र सदा प्रवहन्ती तटिनी वज्राभिधा चिरं जीयात् । चटुलोमि-झाटनृत्यकलहसी-कुल-कलक्वणितपुष्टा ।। रोधसि तस्या रुचिरे व शी जयति वज्रभूषाढ्या. । वज्रप्रदानतोषितवनिमुखत्रिदशविनुतचारित्रा ।। , माटो निकुञ्ज कान्तारं वा । अन्यत्सुगमम् । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः द्वितीय-स्तवः। जालन्धरावनिवनीनवनीरदाभ प्रोत्तालशैलवलयाकलिताधिवासाम् । आशातिशायिफलकल्पनकल्पवल्ली ज्वालामुखीमभिमुखीभवनाय वन्दे॥१॥ ज्येष्ठा क्वचित् , क्वचिदुदारकला कनिष्ठा, मध्या क्वचित्, क्वचिदनुद्भवभावभव्या । एकाप्यनेकविधया, परिभाव्यमाना __ज्वालामुखी सुमुखभावमुरीकरोतु ॥ २॥ द्वितीय-स्तवः । १-जालन्धरः त्रिगत देश इति हेमचन्द्रः । अत्र भगवती विश्वमुखी भूत्वा विराजते । तथा च देवीभागवते - 'जालन्धरे विश्वमुखी तारा किष्किन्धपर्वते ।' (दे० भा० ७.३.७६) जालन्धरावनौ जालन्धरेति नामके शक्तिपीठे, या वनी अरण्य, तत्र नवो नूतनः यो नीरदो जलधर, तद्वत् आभा दीप्तिर्यस्य, एतादृशे नूतनमेघसन्निभे, प्रोत्ताले अत्युन्नते, शैलवलये पर्वतमण्डले, कलित. गृहीत., अधिवासो निवासः, यया सा ताम् । श्राशातिशायिफलकल्पनकल्पवल्ली, आशां मनोवाञ्छितमतिशेते इत्याशातिशायि तादृश यत् फलकल्पनं भक्तजनेभ्य समोहितप्रदानं तत्र कल्पवल्ली कल्पलतेव विश्रुतगौरवाम् । ज्वालामुखी ज्वालैव मुखं यस्या. सा, ताम् । अजस्र प्रज्वलिताभि ालाभिरेव पूजादिकं गृह्णाति देवीत्यतोऽस्यास्तथात्वम् । अभिमुखीभवनाय सामुख्यसंपादनाय वन्दे प्रणतोऽस्मि । ___२- कचित् ज्येष्ठा वृद्धिंगतचालाकारा, कचित् उदारा सरला कला अर्चिः यस्या सा, कनिष्ठा लघुरूपा, मध्या अनुभयरूपा । नास्ति उद्भवो उत्पत्ति यस्य स अनुद्भव. प्राकृतिक', तादृशो यो भाव. श्रद्धाभर , तेन भव्या रमणीया । अनादिकालादसौ बालात्मना परिकुरन्ती विराजत इत्यस्यां कश्चन भावोदक समुन्मिपति भक्तजनत्येत्यर्थः । एका केवला, अपि अनेका Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय-स्तवः अश्रान्तनिर्यदमलोज्वलवारिधारा सन्धाव्यमान-भवनान्तरजागरूका । मातजलज्ज्वलनशान्त-शिखानुकारा, रूपच्छटा जयति काचन तावकीना ॥३॥ मन्ये विहारकुतुकेषु शिवानुरूपं, रूपं न्यरूपि खलु यत्सहसा भवत्या । तत्सूचनार्थमिह शैलवनान्तराले, ज्वालामुखीत्यभिधया स्फुटमुच्यसेऽद्य ॥४॥ या विधा प्रकारः तया, नानाकारतयेत्यर्थ. । परिभाव्यमाना समन्ततो विभाव्यमाना । सुमुखभावमिति क्रियाविशेषणम्, प्रसादोन्मुखत्वं उरीकरोतु अङ्गीकरोतु । 'कृभ्वस्तियोग'-(पा० सू०५. ४. ५०) इत्यभूततद्भावे च्विः । ३- अश्रान्तं निरर्गलं, निर्यत् निर्गच्छत्, अमलं पङ्कादिभिरनाविल, अतएव उज्ज्वलं निर्मलं यत् वारि सलिलं, तस्य धाराभिःप्रवाहैः सन्धाव्यमान प्रक्षाल्यमानम् । 'धावु गतिशुद्धयो.' इत्यतः कर्मणि शानच् । यद् भवनं मन्दिरं तदन्तरे तन्मध्ये जागरूका देदीप्यमाना । हे मातः जननि ! ज्वलंश्चासौ ज्वलनश्च ज्वलज्ज्वलन प्रज्वलितोऽनल', तस्य या शान्ता अनुत्कटा, शिखा अर्चि., तां अनुकरोति अनुसरति इति तथाभूता । काचन अनिर्वचनीया तावकीना त्वदीया 'युष्मदस्मदोरन्यतरस्यां खञ्च' (पा. सू. ४. ३.१.) इति खञ् । 'तवकममकावेकवचने (पा. सू ४. ३. ३) इति युष्मदस्तवकादेशः । रूपच्छटा रूपसंपत् जयति सर्वोकर्पण वर्तते। ४- विहरणं विहारः लीलाविलसितं, तदनुपगिषु कुतुकेषु कौतुकेपु, भवत्या त्वया सहसा झटित्येव, शिवस्य पत्युः अनुरूपं योग्यमिति शिवानुरूपम् । अनुरूपमिति योग्यतार्थे ' अव्ययं विभक्ति' (पा. सू. २.१ ६.) इत्यादिना समासः । त्रिलोचनत्वरूपं रूपं न्यरूपि निरधारि । मन्ये शङ्क, तत्सूचनार्थ तस्य सर्वसमदं प्रकटीकरणाय, शैलं च वनंचइति शैलवने तयोरन्तरालं तस्मिन् । अद्रिकाननयोमध्ये 'ज्वालामुखी' इत्यभिधया अभिधानेन स्फुटं स्पष्टं यथास्यात्तथेति क्रियाविशेषणम् । उच्यसे जनैरभिधीयसे । वचः कर्मणि लट् । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः सत्या ज्वलत्तनुसमुद्गतपावकार्चि र्वालामुखीत्यभिमृशन्ति पुराणमिश्राः । आस्तां, वयं तु भजतां दुरितानि दग्धु, वालात्मना परिणता भवतीति विद्मः॥॥ यावत् त्वदीयचरणाम्बुजयो ने राग स्तावत् कुतः सुखकराणि हि दर्शनानि । प्राक् पुण्यपाकचलतः प्रसृते तु तस्मिन् , नास्त्येव वस्तु भुवने सुखकृन्न यत् स्यात् ॥६॥ आत्मस्वरूपमिह शर्मसरूपमेव, वर्ति किन्तु जगदम्ब ! न यावदेतत् । उद्घाटयते करुणया गुरुतां वहन्त्या, तावत् सुखस्य कणिकापि न जायतेऽत्र ॥७॥ ५- सत्या पार्वत्या 'सती सती योगविसृष्टदेहा' इति कालिदासः । ज्वलन्ती या तनुः शरीर, तया समुद्गता वहि.प्रसृता, पावकार्चि अग्निशिखा, 'ज्वालामुखी' इति पुराणमिश्रा , पौराणिका. सूरय. प्रतिपद्यन्ते । मिश्रशब्दोऽयं गौरवातिशयद्योतक. । 'आर्यमिश्रा.' इतिवत् । अभिमृशन्ति परामृशन्ति । तदेतदास्तां तावत् प्राचां व्याहार. । वयं तु भजताम् आराधयताम् , चरणाहितचेतसामितिभावः । दुरितानि दुप्कृतानि, दग्धु भस्मसात्कतु, भवती अत्रभवती, ज्वालात्मना ज्वालाकारेण, परिणता परिणतिं गता, इति विद्मः जानीमः । ६- त्वदीयौ चरणावेव अम्बुजे पझे तयो , यावत् राग. अनुरागः न वर्धते, तावत दर्शनानि तव प्रत्यक्षतो वीक्षणानि, कुतः सुखकराणि स्वान्तः सुखोत्पादकानि । प्राक् पूर्वस्मिन् जन्मनि कृतं यत् पुण्यं, तस्य यः पाकः परिणतिः, तस्य वलतः अभिनिवेशत , तस्मिन् सुकृतप्राग्भारे, प्रसृते व्याप्रियमाणे, तद् वस्तु पदार्थः, भुक्ने संसारेऽस्मिन् नास्त्येव नेवास्ते यत् सुखकृत् सौख्याधायक हर्पकरं वा न स्यान्नानुभूयेत । ७- हे जगदम्ब । जगतां मात. I आत्मस्वरूपं, आत्मनः चैतन्यमहेश्वरस्य स्वल्पमेव शर्मणो नि श्रेयसत्य रूपं पन्थाः वर्वति वरीवृतीति । 'वृतू वर्तने' इत्यतो Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय-स्तवः आस्तां मतिर्मम सदा तत्र पादमूले, तां चालयेन चपलं मन एतदम्ब ! | याचे, पुनः पुनरिदं प्रणिपत्य मात ज्वालामुखि ! प्रणतवाञ्छित सिद्धिदे ! त्वाम् ॥८॥ इतिहाष्टकम् ||२|| १७ यङ्लुगन्ताल्लट् । ‘यङो वा' इति ईडभावपचे 'रुत्रिकौ च लुकि' (पा सू. ७.४.६१) इति रुगागमः | स्वात्मचिन्तनमेव सुखसंपदं उल्लासयतीति भावः । किंतु यावत् "करुणया वात्सल्यरसपूरेण गुरुतां, गुरोर्भावो गुरुता तां गुरुस्वरूपताम् 'गुरुमूर्तिगुणनिधिर्गोमाता गुहजन्मभू' इति ललितासहस्रनामसु पठ्यते । वहन्त्या धारयन्त्या, भवत्या यावद् एतत् हृदयाम्बुजं हृत्कमलं न उद्घाट्यते नोन्मील्यते तावत् सुखस्य करिणका लव अपि न जायते नोत्पद्यते । करुणार्द्रहृदयया भवत्या गौरवं रूपमास्थाय यावत् श्ररणवं - कार्म - मायीयं च मलमपनुद्य न प्रसाद्यते हृदयागारं तावत् कथमुन्मिषेयुभुक्तिमुक्तिश्रिय इति तत्त्वम् । 1 5- हे अम्ब । तव भवत्या पादमूले चरणसरोरुहे, मम मति मनीषा सदा सर्वस्मिन् काले, सर्वासु चावस्थासु, आस्तां निश्चला रमताम् । तां भत्त्युपहितां शेमुषीं चपलं मनः, चञ्चलं चेतः न चालयेत्, नान्यथाभावम् नयेत् । हे मातः । ज्वालामुखि ! प्रणतानां वाड्मनः कायैः प्रह्वीभवतां वाञ्छितस्य मनोभिलषितार्थस्य, सिद्धिं ददाति इति तत्संबुद्धिः । पुनः पुन. भूयोभूय. प्रणिपत्य नतमस्तको वृद्धाञ्जलिश्च भवन् इदमेव याचे अभ्यर्थये । अतः परं मुक्तिपदमभिलषतां किमन्यदुद्भ्यर्थनीयं भवेदिति तात्पर्यम् । इति ईहाष्टकम् ॥ २ ॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः तृतीय-स्तवः। ते देवकालि ! कलिकर्म विनाशयन्ति, - वन्दास-संहतिषु शर्म विकाशयन्ति । ज्ञानामृतानि हृदये परिवाहयन्ति, ये तावकीन-पदपङ्कजमर्चयन्ति ॥१॥ ते देवकालि ! कुलकीर्तिमुदञ्चयन्ति, दिनु प्रतापपटलीमवतंसयन्ति । तृतीय-स्तवः । १- 'कालसंग्रसनात् काली' इत्यागमः । आगमान्तरे च 'असितेयं समाख्याता चिदम्बरसती शिवा । भक्तानां कामनापूत्यै कालीरूपा बभूव ह ।' इत्येवमाद्यनुश्रूयते । महामहिमशालिन्या अस्याः प्रतिमासन्निवेशः कोसलमण्डले अयोध्यातो नातिदूरे दक्षिणस्यां दिशि 'देवकाली' ति नाम्ना प्रसिद्धिमुपगतः । पुरः स्फुरद्वापीसनाथ मेतन्मन्दिरञ्चाद्यापि पुराभवमात्मनो गौरवमनुस्मारयन् पुण्यां साकेतभुवमलंकरोति । हे देवकालि । ते जना., ये त्वयि भक्तिभाज., यत्तदोनित्यसंवन्धात् पूर्वेण परस्य आक्षेप.। कलिकर्म, कलेरेतन्नाम्नो युगस्य, स्वभावानुरूपं प्राणवियोगावधिक तत्तद्द्व्यवसितम् । अथवा कलि म विवादो वाग्युद्ध वा । तथा च माघः 'शठ । कलिरेप महॉस्त्वयाद्य दत्तः ।' इति । तदुत्त्थं कर्म व्यापारजातं, विनाशयन्ति समूलमुन्मूलयन्ति । वन्दारुसंहतिषु वन्दारवो वन्दनशीलाः, 'वदिअभिवादनस्तुत्योः' इत्यतः 'शृवन्द्योरारुः' (पा.सू.३. २. १७३) इति तच्छीलादिष्वारुप्रत्ययः । तेपांसहति समवाय., तासु । शर्म सुखं, विकाशयन्ति यथोत्तरं पल्लवयन्ति । हृदये अन्तःकरणे ज्ञानामृतानि, ज्ञानानि तवप्रसादलब्धा बोधसुधामयूखा एव अमृतानि, पीयूपपूराणि, तानि परिवाहयन्ति जलोच्छ वासवत् परित. समुच्छलयन्ति । ये तावकीनं त्वदीयं, पदपंकजं चरणसरोरुहं, अचर्यन्ति भत्त्या पूजयन्ति । २- 'देवकालि' इति सवोधनं यथायथं सर्वत्र संबध्यते । कुलकीर्ति शगौ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय-स्तवः विद्या - परिष्कृतिचरणानपि मूकयन्ति, येऽन्तः सदैव भवतोमधिवासयन्ति ||२|| ते देवकालि ! भुवनानि वशं नयन्ति, शिष्टिं नृपेन्द्र मुकुटेषु निवेशयन्ति । दुःखान्धकारपटलानि विपाटयन्ति, ये त्वामुदारकरुणामसृणां श्रयन्ति ||३|| ते देवकालि ! कवितामृतमूर्जयन्ति, १६ संसत्सु वादनिपुणानपि तर्जयन्ति । कामादिकर्कश - रिपुप्रकराञ्जयन्ति, ये तावकस्मरण सौभगमर्जयन्ति ॥ ४ ॥ रवं, उदन्चयन्ति उन्नमयन्ति । वंशो द्विधा - विद्यया जन्मना च । तदुभयविधस्य यशोवैजयन्त्याः प्रसारणेन उन्नायिकामिति तात्पर्यम् । दिक्षु दिगन्तपरिसरेषु प्रतापस्य तेजोराशेः, पटलीम् प्रभावपर परां 'पटवेष्टने' कलच्, ततो गौरादिर्डीष् । अवतंसयन्ति भूषर्यान्त | विद्या आन्वीक्षिक्यादय. प्राक्तन्यस्तथा भौतिकविज्ञानवन्धुरा नवनवोन्मषन्त्य आधुनिक्यश्च । तासां परिष्कृत्या परिष्करणसंभारेण चरणा. विचाः । 'तेन वित्तश्च नचुपचरणपौ' (पा सू ५. २. २६) इति तृतीयान्तात् वित्त इत्यर्थे चणप् प्रत्यय. । मूकयन्ति वाग्मिनोऽपि मूकवन्मुग्धान् विदधते । मूकं कुर्वन्ति मूकयन्तीत्यर्थे 'तत्करोति तदाचष्ट े ' इति णिच । अन्तः हृदयाकाशे, सदैव प्रमादमवहत्य, अधिवासयन्ति, अन्तरुल्लसितां कलयन्ति । ३- भुवनानि लोकान् । वशं नयन्ति स्वानुकूलं संपादयन्ति । शिंप्टि आज्ञां, 'शास्' धातोर्भावे क्तिन् । नृपेन्द्रमुकुटेषु, नृपेन्द्राणां चक्रवर्तिनां, मुकुटानि शिरोभूषणानि तेषु निवेशयन्ति विन्यसन्ति । दुःखान्धकारपटलानि दु खमेव त्रासजनकत्वादन्धकार. तम, तस्य पटलानि समूहानि विपाटयन्ति उच्चाटयन्ति । ये, त्वां भवतीं, उदारकरुणामसृणां उदारा सा चासौ करुणा च तया मसृणा स्निग्धा, ताम् । श्रयन्ति सेवन्ते । ४ - कवितामृतं कवितायाः गद्यपद्यमयस्य वाग्विलासस्य यत् अमृतं, पीयूषं तंत् ऊर्जयन्ति बलातिशययुक्तं घटयन्ति । संसत्सु विद्वद्गोष्ठीयु, वादनिपुणान् Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः ते देवकालि ! कलिसम्पदमर्दयन्ति, ___दुर्वासनान्धतमसानि विमर्दयन्ति । सौभाग्यसारिणि ! जगन्ति पवित्रयन्ति, ये श्रीमती हृदयवेश्मनि चित्रयन्ति ॥५॥ ते देवकालि ! सुखरक्तिमदभ्रयन्ति, __ विद्याकलापकृषिमण्डलमभ्रयन्ति । पण्डितमानिनो वादशूरान् । अथवा वादो नाम तत्वनिर्णयार्थ प्रमाणतर्काभ्यां उत्थाग्यमान सावनाक्षेपसहिता वीतरागकथा । तथा च गौतमसूत्रम् 'प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भ. सिद्धान्ताविरुद्धः पञ्चावयवोपपन्न. पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहो वाद.' (गौ० सू० १.२.१) । तत्र निपुणान् निष्णातान् प्रगल्भानित्याशय. । तर्जयन्ति त्रासयन्ति । कामादिकर्कशरिपुप्रकरान् कामादयः कामक्रोधलोभमोहमदमात्सर्यादय. पटसंख्याकाः, त एव कर्कशाः, क्रूरस्वभावाः रिपवः परिपन्थिनः, तेषां प्रकर. समूह , तान् जयन्ति स्वाधीनान् कुर्वते । ये तावकं त्वदीयं यत् स्मरणं वाचिकम् , उपांशु, मानसं वा चिन्तनं, तस्य सौभगं सुभगस्य कर्म अण् प्रत्यय , सौभाग्यं अर्जयन्ति प्राप्नुवन्ति । ५-कलिसम्पदं कलेश्चतुर्थयुगस्य, 'कलिः स्त्री कलिकायां ना शूराजि कलहे युगे' इति मेदिनी । संपदं स्वभावोल्वणं माहात्म्यं अर्दयन्ति, अभिभवन्ति 'अर्द गतो याचने च' । टुप्टाः परिणामतो दु खपर्यवसायिन्य', याः वासना. मनोरथप्रगताः, तान्येव अन्धतमसानि निविडान्धकाराः तानि । अन्धयति ताम्यति अनेनेत्यन्धं तादृशं च तत् तमश्चेति समासान्तोऽच् प्रत्ययः । विमर्दयन्ति चूर्णयन्ति। सौभाग्यमारिणि । सौभाग्यं सुभगवं सरति तच्चीला, तत्संबुद्धिः । 'सृ' धातोणिनि , डीप च । भाग्योत्कर्षदायिनीत्यर्थ. । चे श्रीमतीम् सुपमाशालिनीम् । हृदयवेश्मनि मानमाभोगे, चित्रयन्ति चित्रचदुदृड्कयन्ति । ते जगन्ति भूरादीन् त्रयो लोकान् , पवित्रयन्ति पारनं कुर्वन्ति । ६-मुखमूक्ति सुखोल्लासितां वाचम् । द अल्पं, न दभ्रं अदभ्रं, तत्कुर्वन्ति श्रभ्रयन्ति प्रचुरयन्तीत्यर्थः । तत्करोतीति णिच् । विद्यानाम् कलापः समूहः, स ग्य कृषिमण्डलं मस्यकदम्बकम् , तं अभ्रयन्ति मेघेर्मेदुरयन्ति । देशान्तरेषु संदेशाद् दूरतर-तमेष्वपि जनपदेषु, चरितानि लोकवृत्तानि कर्माणि, विशेषयन्ति Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-स्तवः देशान्तरेषु चरितानि विशेषयन्ति, ये शर्मधाम तव नाम निरूपयन्ति ॥६॥ ते देवकालि ! कुकृतानि निकृन्तयन्ति, संसार-दुःख-निगडानि विभञ्जयन्ति । शान्ति परामधिमनः परिचारयन्ति, ये त्वत्कथामृतरमान् सततं धयन्ति ॥७॥ ते नूत्नेन्दीवरामे ! भवभयजलधिं शीघूमुल्लंघयन्ति, प्रध्मातस्वर्णवर्णे ! निखिलसुखकलोल्लासमासादन्ति । वैशिष्ट्यमानयन्ति । शर्मणः मङ्गलस्य धाम, लोकातिशायिपदम् तव भवत्याः नाम निरूपयन्ति हृदयारूढं कुर्वन्ति । 'विभावयन्ति' इत्यपि पुस्तकान्तरे पाठः । ___ ७-कुकृतानि, निरयोपभोगफलानि कुत्सितानि कर्माणि, निकृन्तयन्ति कृत्स्नं छिन्दन्ति | संसारदुःखनिगडानि संसारोद्भवानि दु.खान्येव निगडानि, शृङ्खलारूपाणि बन्धनानि, तानि विभञ्जयन्ति त्रोटयन्ति । अधिमनः चित्ताभोगे, सामीप्यार्थेऽव्ययीभावः । परांशान्तिं एकान्तिकम्शमसंतोषसुखम्, परिशीलयन्ति, अनुभवन्ति । त्वत्कथा, भवत्याश्चरितोपवर्णनं एव अमृतरस पीयूषद्रव तान् , सततं अविश्रान्तं यथा स्यात्तथेति क्रियाविशेषणम् , धयन्ति पिबन्ति । 'घेट पाने' कर्तरि लट् । _____-नूत्नेन्दीवराभे ! नूत्नं नवीनं, यदिन्दीवरं नीलकमलं, तद्वदेव आभा दीप्तियस्या , तत्संबोधनम् । महाकालीस्वरूपेणानुग्राहिणी इत्यर्थ. । भवः संसार एव त्रासजनकत्वात् दुस्तरत्वाच्च भयजलधिः, भीतीनां समुद्र, तं शीघ्र द्रागेव, उल्लङ्घयन्ति उत्प्लवन्ते । प्रध्मातस्वर्णवर्णे । प्रध्मातं उत्तप्तं यत् स्वर्ण हेम, तद्वत् वणे. कान्तियस्या. सा, तत्सबुद्धिः, उत्तप्तहेमरुचिरे इत्यर्थः । निखिलसुखकलोल्लासम् , निखिला उच्चावचा या' सुखकला.आनन्दोद्गमा,तासां उल्लास स्फारा समृद्धिः, तम् । श्रासादयन्ति, अनायासेन लभन्ते । महालक्ष्मीस्वरूपेण जगतामनुग्रहकर्ती इत्याशयः । फुल्लन्मल्लीमतल्लीप्रतिभटसुषमे ! फुजन्ती विकसन्ती, या मल्लीमतल्ली प्रशस्ता मल्ली, कुटजवृक्षोद्भवं श्वेतवर्ण मल्लिकापुष्पम्, तस्य प्रतिभटा प्रतिस्पद्धिनी सुषमा शोभा यस्याःसा, तत्संबुद्धि । 'मतल्लिका मर्चिका प्रकाण्डमुद्धतल्लजौ। प्रशस्तवाचकान्यमूनी'त्यमरः । प्राशस्त्यवाचकरूढ़िशब्दत्वात्' 'प्रशंसावचनैश्च Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः फुल्लन्मल्लीमतल्लीप्रतिभटसुपमे ! हर्पमुत्कर्पयन्ति श्रीमातः! संततं ये तव भजनविधौ चित्तमायोजयन्ति ।।८।। अयोध्याप्रान्तवासिन्याः सुदर्शनकृतस्थितेः। देवकाल्याः स्तोत्रमेतत् पठतां घटतां शिवम् ।।६।। इति देवकाली-महिमा ॥३॥ (पा० सू० २. १.६६) इति समास. 1 मतल्लिकादयो नियतलिगा अव्युत्पन्नाश्चेति प्राञ्च । अर्वाञ्चस्त्वेपामपि व्युत्पत्तियोगं समर्थयन्ते । हर्षे नैसर्गिकं मन प्रसाद उत्कर्पयन्ति उत्कर्पयुक्तं घटयन्ति । श्रीमातः ! सकलानामपि शक्तिविग्रहाणां समष्टिभूते ! श्रीविद्यारूपिणि । ये तव भवत्याः, भजनविधौ सेवासरणिषु, चित्त प्रायोजयन्ति, तदेकरुपतां नयन्ति । आद्य चरणत्रये महाकाली महालक्ष्मीमहासरस्वतीनामभिमुखीकरणम | चरमे तु सर्वसमष्टिरूपाया राजराजेश्वर्याः इत्यवधेयम् । ___-अयोध्या-प्रान्तवासिन्या , साकेतपरिसरे दक्षिणस्यां दिशि प्रतिमात्मना सुशोभिताया , सुदर्शनेन इक्ष्वाकुवंशोद्भवेन भूभृता कृता विहिता स्थितिः प्रतिमाप्रतिष्ठापनं यस्याः, तस्या' देवकाल्या एतन्नाम्ना सुप्रथिताया स्तोत्रं स्तव, पठतां असकृदावर्तयता, लोकाना शिव श्रेय', घटताम् सङ्गच्छताम् । ॥ इति देवकाली-महिमा ।। १अयं अयोध्यानगरीनाथ सुदर्शन., कस्मिन् समये प्रादुरभूत् इत्यैतिहासिकदृशा न किमपि वक्तुं पारयामः । विष्णुमहापुराणादुपलभ्यमानासु राज्ञा वंशपरम्परासु तत् कालकलनासु च नास्योल्लेख. क्वचन दृष्टिमुपगतः । तथाप्ययं इक्ष्वाकुकुलोत्पन्न , अतिचिरतनश्चेति पौराणिकाः । यतो वाल्मीकिरामायणस्य बालकाण्डे रामविवाहावसरे पुरोधसा वसिष्ठेन गोत्र-शाखोच्चारप्रसङ्गे ये पूर्वपुम्पा नाममाहं निर्दिष्टा', तेप्वयं एकोनत्रिंशत्तम इति भारतभ्रमणोपदर्शितान यंशानुक्रमादवगम्यते । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-स्तवः . चतुर्थ-स्तवः । विविक्ततरगोमतीजठरमध्यसिद्धाश्रमां पुरोगतसरोवरस्फुरदगाधपाथश्छटाम् । । विशालतलतुङ्गभूलुलितनिबमूलालयां भजामि भयखण्डिकां सपदि चण्डिकामम्बिकाम् ॥१॥ न लक्ष्यघटनाश्रयां न च विशेषवेश्मावहां, घटानुकृतिगोमतीवहनभाव्यमानास्पदाम् । चतुर्थ-स्तव. । . ५-अतिशयेन विविक्तं विविक्ततरम् । एकान्ततो जनशून्यम् । अतिशायने तरप् । 'विविक्तं पूतविजने' इत्यमरः । गोमत्याः प्रसिद्धाया' स्रोतस्विन्या यत् जठरं कुक्षि , तन्मध्ये सिद्धः आशुसिद्धिदः, आश्रमो वासस्थानं यस्या. सा, ताम् । 'सरिद्गर्भस्तडाग' सिद्धिभूः' इत्यागमः । पुरोगते संमुखस्थिते सरोवरे स्फुरत् चकासत् यत् अगाधं अतिगभीरं पाथ जलं तैश्छटा दीप्तिर्यस्याः, ताम् । विशालं विस्तीर्ण, यत् तलं आधारभूमिः, तत्र या तुङ्गा उन्नता भूः, तत्र लुलिते लुटिते निम्बमूले आलयो वासस्थानम् यस्या , ताम् । सपदि सद्य., भयं भीति खण्डयति विदारयति इति भयखण्डिका, ताम् । चण्डिका अम्बिकां, मातरम् भजामि सेवे। २-लक्ष्यं ज्ञयं घटनायाः प्रतिमाया आश्रयः आधारो यस्या. सा, ताम् । निमूत्तिकेनापि चत्वरेण समूतिकेव भासमानामिति भावः । विशेषं वेश्म गृहं आवहति इति विशेषवेश्मावहा, ताम् । मन्दिरादिसन्निवेशशून्यामित्यर्थः। घटानुकृति , कुम्माकारेण प्रवहन्ती या गोमती, तस्याः वहने तटोपकण्ठे वहिवरूपे वा भाव्यमानं प्रतीयमानं आस्पदं स्थानं यस्याः, ताम् । उद्यते अनेन इति बहन, __ करणे ल्युट । 'तरणो भेलको वारिरथो नौस्तरिकः सवः ।। होडस्तरान्धुर्वहनं वहिनं वाटः पुमान् ।' इति त्रिकाण्डशेषः । भाव्यमानमिति भवतेणिजन्तात् कर्मणिं शानच् । नमतां __ भक्तथा प्रतीभवतां, जनानां लोकानां, ये मनोरथाः मनोऽभिलाषा., तेषां पारचनं Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः नमज्जनमनोरथारचनचारुचिन्तामणिं, भजामि भयखण्डिका सपदि चण्डिकामम्बिकाम् ॥२॥ निरन्तरसमुल्लसत्कमलकीणपाथोजिनी प्रतानघनसंपदा कमपि संमदं तन्वतीम् । त्रिकोणसरसीमयीं, परिणति पुरो विभ्रतीं, भनामि भयखण्डिका सपदि चण्डिकामम्बिकाम् ॥३॥ अनुग्रहरसच्छटामित्र सरःश्रियं यान्तिके विकासयति, पद्मिनीदलसहस्रसन्दानिताम् । प्रतिक्षणसमुन्मिपत्प्रमदमेदुरां तामहं, भजामि भयखण्डिका सपदि चण्डिकामम्बिकाम् ॥४॥ सर्वतो घटनं, तत्र चारुः मनोज्ञः, चिन्तामणिरिव चिन्तामणिः, ताम् । चिन्तामात्रेण अभीष्टसंपादिकामित्यर्थः । चरमः पादः पूर्व विवृत., सर्वत्र योजनीय. । ___३-निरन्तरं अश्रान्तं समुल्लसन्ती शोभमाना, या कमलकीणी जलाच्छन्ना, पाथोजिनी पद्मिनी, तस्या' प्रतानेन विस्तारेण घना सान्द्रा संपत संपत्ति , तया । पाथसि जले जायते इति पाथोजम् । जनेर्ड , ततो इनिः । संपदिति किवन्तम् । कमपि लोकोत्तर, संमदं प्रमोद, तन्वती विस्तारयन्तीम् । त्रयः कोणा यस्या सा त्रिकोणा, त्रिकोणाकारेण परिणमन्ती या सरसी सरः, तन्मयों तदाकाराम् । 'कासारः सरसी सर.' इत्यमरः । 'सरसीः परिशीलितुम्' इति नैपधीयचरिते । परिणति अवस्थानं पुर. स्वसंमुखे विभ्रती धारयन्तीम् । अन्यत्पूर्ववत् । ४-या अन्तिके समीपे, अनुग्रह. अभीष्टसंपादनेच्छारूप' प्रसाद , स एव आनन्दप्रदत्वात् रस , तस्य च्चटामिव परम्परामिव । पद्मिन्या. नलिन्या' यत् दलसहस्रं सहस्रावधीनि पनि, तेन सन्दानं दाम संजातमस्याः सा, ताम् । सरस. तडागस्य, श्री शोभा, ताम् । सरोविच्छित्तिमित्यर्थः । विकासयति उन्मीलयति । प्रतिक्षणं अनुवेल, समुन्मिपत् उदय गच्छत् , यः प्रमदो हर्पः, तेन भेदुरा अनिशयस्निधा, ताम् । 'मेधैर्मेदुरमम्बरमिति' जयदेवः । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रचण्डयति विक्रम, झटिति खण्डयत्यापदः, सुमण्डयति वाक्कलां, सदसि दण्डयत्युद्धतान् । करण्उयति रोदसी, गुणसमृद्धिभिर्या हि तां __ भजामि भयखण्डिकां सपदि चण्डिकामम्बिकाम् ॥५॥ श्रुताऽभिलपिता, मता, सुकलिता, समभ्यर्चिता, सुधापृषतवर्षिभिनवनवैर्वचोभिः स्तुता। जयाय खलु कल्पते बहुविधाहता, तामहं भजामि भयखण्डिका सपदि चण्डिकामम्बिकाम् ॥६॥ ५-विक्रम पराक्रम, प्रचण्डयति उल्बणस्वभावतां नयति । 'चडि कोपे'। आपद त्रिविधदुखोद्भवाः विपदः, झटिति सद्य एव खण्डयति, खण्डखण्ड विदधाति । वाक्कलां, वाचामैश्वर्य सुमण्डयति, सम्यग् भूषयति । 'मण्ड भूषणे' चुरादिः। सदसि अधिसभम् , उद्धतान् , दुविनीतान् दण्डयति दण्डप्रयोगैरनुशास्ति। गुणानां रजोगुणभुवां शौर्यादीनां, समृद्धिः अतिशयिता वृद्धिः, ताभिः । रोदसी भुवमन्तरिक्षं च 'द्यावाभूमीतुरोदसी' इत्यमर. 1 करण्डयति करण्डमञ्ज व अनायासेन परिपूर्ण संपादयति । करण्डो नाम वंशादिभिनिर्मित, ताम्बूलपूगादिफलानां निवानपात्रम्, यस्य प्रचुरः प्रचारो भारतभूमौ बहुधा दृष्टचरः । करकोऽप्यत्र प्रयुज्यते । 'ताम्बूलकरकवाहिनी' इत्येवमादिप्रयोगाश्च बाणभट्टोक्तिपु सुलभाः । तदित्यं जगदम्बाचरणचिन्तकस्य गुणसमृद्धिः स्कारीभवन्ती भूलोकादन्तरिक्षलोकान्तं यावत् व्याप्रियत इति भाव. । अन्यत् पूर्ववत् । ६-श्रुता कर्णकुहरं प्रविष्टा, अभिलषिता सर्वात्मना अभीष्टा, मता हृदयान्ताता, सुकलिता सम्यक् परिशीलिता, समभ्यर्चिता, गन्धादि-पञ्चोपचार. सम्यगुपासिता । सुधायाः पृषताः विन्दव, तान् वर्पन्ति स्रावयन्ति इति सुधापृषतवर्षिणः, तै. । 'पृषन्ति विन्दुपृषताः' इत्यमरः । नवनवैः नूतन-नूतनैः कल्पनाचमत्कृतिरमणीय., वचोभिः वाग्विलासैः स्तुता, सम्यङ् निातो, बहुविधाभिः विविधाभिः सपर्याभगिभिः, श्रादृता हृदयान्त प्रवेशिता, स्वनु जयाय अभ्युदयाय, कल्पते प्रभवति । अन्यत् पूर्ववत् । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः इतस्तत उदित्वरव्रततिनवृक्षावली लुलद्विहगमण्डलीमधुररावसंसेविताम् । स्खलत्कुसुमसौरभप्रसरपूर्यमाणाश्रमां : .. .. भजामि भयखण्डिकां सपदि चण्डिकामम्बिकाम् ।।७।। द्विपत्कुलकृपाणिको, कुटिलकालविध्वंसिकां, , विपद्वनकुठारिकां, त्रिविधदुःखनिर्वासिकाम् । कृपाकुसुमवाटिका, प्रणतभारतीभासिका, भजामि भयखण्डिकां सपदि चण्डिकामम्बिकाम् |८|| । ७-इतस्ततः, उदित्वराः उदयोन्मुख्यः, उत्पूर्वादिणः 'इणनशिजिसर्तिभ्यः करप्' (पा० सू० ३.२. १६३) इति करप् ! याः व्रततय. लताप्रतानानि, तासु नद्धा उद्वृत्ता, 'णह बन्धनेत । या वृक्षाणं श्रावली द्रुमपंक्तिः, तस्यां लुलन्ती इत्त' ततो वा विलुठन्ती, विहगानां पक्षिणां या मण्डली समूह', तस्याः मधुररावैः सरसकूजितैः, ससेवितां संस्तुताम् । स्खलन्ति वृन्तश्लथानि पतयालूनि वा यानि कुसुमानि, तेपां सौरभं सुगन्धि',' तस्य -प्रसरेण व्याप्त्या पूर्यमाणः सर्वतो व्याप्रियमाणः, आश्रमो यस्या. सा, ताम् । अन्यत् पूर्ववत् । -द्विपनां परिपन्थिना कुलं द्विपत्कुल, सपत्नजनानां वंशः । तस्य कृते कृपारिणकेव पाणिका शुरिका, ताम् । निशितकपाणधारेव अनायासेन रिपकलं उत्सादयति इति भावः । कुटिल. चक्रस्वभावों य. काल , कृतान्त. तस्य विध्वंसिका, विनाशकरी ताम् । स्वयं जगतामन्तक. कालोऽयस्याः अनुचर इव आज्ञावशंवद इत्याशय । विपद', संसारोत्था श्रापद., ता एव दु.खबहुलत्वादिना दुर्गमत्वात् वनानि काननानि, तेपां कृते कुठारिका कुठारवदुच्छेदकी, ताम् । कुठारोनाम 'कुल्हाडी ति लोके प्रसिद्ध काप्टच्छेदकमस्त्रम् । त्रिविध आधिप्रभृतिभिरुद्धतं यद् दु.खं, संतापः तस्य निर्वासिका निर्वासनचतुरा, ताम् । कृपाः अनुकम्पा एव कुसुमानि प्रसूनानि, तेयां वाटिका पुप्पोद्यानमित्यर्थः । प्रणतेपु पादवन्दनपरेषु भारत्याः वाग्देव्याः भासिका स्कृतिप्रदा ताम् । विद्यार्थिभिराराव्यमाना यथाभिलपितां चैदुप्यसम्पद प्रसादीकरोति इत्याशय. !! , Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-स्तवः ब्रह्माडाधिकदेहापि गोमतीतीरचङ्क्रमा | जयाय भजतां भूयाच्चण्डिका चण्डविक्रमा ॥६॥ 1,MAM इति चण्डिका - स्तुतिः || ४ || " さ P 9ܕ ६- ब्रह्माण्डाधिकः देहो यस्याः इति ब्रह्माण्डाधिकदेहा । ब्रह्माण्डभाण्ड-तोऽपि विपुलशरीराभोगा सती, गोमत्या. सुप्रसिद्धायाः सरित', तीरे तटप्रदेशेचक्रम. भूयिष्ठं भ्रमणं, यस्या. सा । या हि विश्वशरीरा न सा तटभ्रमणपरायणा भवितुमर्हति इति विरोधाभासो नामात्र अलकारः । 'आभासत्वे विरोधस्य विरोधाभास इप्यते' इति लक्षणात् । तत्परिहारस्तु - अधिकदा वाञ्छितादयधिकं दातु ईहा इच्छा यस्याः सेति तथाभूता । तत एव च ललितासहस्रनामादिषु - 'सर्वेश्वरो सर्वमयी सर्वमन्त्रस्वरूपिणी' इत्यादि पठ्यमानं संगच्छते । लीलाकैवल्यमिति वा मन्तव्यम् । पर्यन्ते तु 'विश्ववपुश्चिदात्मा' इत्येव पर्यवस्यति । चण्ड अत्युप्र·, विक्रमः पराक्रमो यस्या. तथाभूता, चण्डिका स्वनामधन्या भजता जयाय भूयादिति शम् | ॥ इति चण्डिका - स्तुतिः ॥ १ चण्डी - ( चांदन- कूडा ) इत्याख्यया व्यपदिश्यमानं तदिदं प्राचीनतमं चण्डिकायतन सांप्रतिक- उत्तरप्रदेशगौरवभूतात् लखनऊनगरात् पश्चिमस्या दिशि उपगोमतीतीरं अष्टक्रोशान्तरे विजनप्रायं प्रदेशमध्यास्ते । विद्यानाथनामा कश्चन सिद्धपुरुष पुरा इह तपश्चरितवानिति तत्रत्येभ्यो ब्राह्मणवृद्ध ेभ्यः संशृणुमः । एतत्कुटीरस्य भग्नावशेषश्चाद्याप्यस्मान् स्मारयति तपोभूमेरस्या: महत्त्वम् । एतदुत्तरं सुगृहीतनामधेय सरस्वत्यानन्दनाथो महात्मा चिरायात्र तपस्यन् प्रानिमूर्तिकमपि चण्डिकाचत्वरं महिषमर्दिनीस्थापनेन समूर्तिकं संपादितवान् । यद्दर्शनार्थमधुना परः सहस्रा जनता प्रत्यमावास्यं एकत्रिता भवति । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ दुर्गा - पुष्पाञ्जलिः पञ्चम- स्तवः । इच्छामात्रसुपर्वविनिःसृत तेजःपुञ्जरचितलजिताङ्गि ! | निगुणतो गुणभावमुपेयुपि ! जय जय, विकसद्दीर्घापाङ्गि १ ॥१॥ पञ्चम- स्तत्रः । १- इच्छामात्र 'तद्दैक्षत बहुस्यां प्रजायेय' इत्याद्याम्नायप्रसिद्धो बहिरुन्मुखीभाव, तदेव सुपर्व शोभनो वशः, तस्मात् विनिःसृत. बहिरुल्लसित, यः तेजपुञ्जो भासां चय:, तेन रचितं ललितं सुन्दर अङ्ग देहो यस्याः तत्संबुद्धिः । 'सर्वस्याद्या महालक्ष्मीस्त्रिगुरण परमेश्वरी' इत्यादिना प्रतिपादितस्वरूपा । शिव एव यदा स्वहृदयवर्तिनमर्थतत्त्वं वहिः कतु मुन्मुखो भवति, तदा शक्ति रिति प्रथामाधत्ते । तथा च परासूक्ते 'कृत्येषु देवि ! तव सृष्टिमुखेषु नित्यं स्वाभाविकेषु विसरत्सु यदुन्मुखत्वम् । इच्छेति तत् किल निरूपितमागमज्ञ र्जानासि येन विदधासि च तं तमर्थम् ॥ वासिष्ठरामायणे च 'शिवं ब्रह्म विदुः शान्तमवाच्यं वाग्विदामपि । स्पन्दशक्तिस्तदिच्छेयं दृश्याभासं तनोति सा ॥ इति । अयमेवार्थः सारभूतो मालिनीविजये वितत्य प्रतिपाद्यते'या सा शक्तिर्जगद्धातु कथिता समवायिनी । इच्छात्वं तस्य सा देवी सिसृक्षोः प्रतिपद्यते ॥ एवमेतदिति ज्ञ ेयं नान्यथेति सुनिश्चितम् । ज्ञापयन्ती जगत्यत्र ज्ञानशक्तिर्निगद्यते ॥ एवंभूतमिदं वस्तु भवत्विति यदा पुन. । ज्ञात्वा तदैव तद्वस्तु कुर्वन्त्यत्र क्रियोच्यते ॥ एवमेपा त्रिरूपापि पुनर्भेदैरनन्तताम् । अर्थोपाधिवशाद् याति चिन्तामणिरिवेश्वरी ॥ इति Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ पञ्चम-स्तवः अष्टादश भुजवल्लिसमर्पित शस्त्रक्षपितमहासुरपालि ! । महिषासुरवधरक्षितलोके ! . जय-जय, जननि ! जयाम्बुजनालि !॥२॥ एकाप्यङ्गकलामिरनेका वृतिवरिवस्यासुषमामेषि । निर्गुणतः गुणशून्यत्वरूपायाः 'साक्षी चेता केवलो निगुणश्च' इति श्रुतेः। गुणास्तावत् केवलं शरीरधर्माण एव इति न ते चिद्धर्मवत्वमाश्रयन्त इति भावः । एतदुहिश्य मात्स्ये हिमवन्तं प्रति नारदः 'लक्षणं देवकोट्यङ्कः शरीरकाश्रयो गुणाः । इयं तु निगुणा देवी नैव लक्षयितु क्षमा ॥' गुणंभावं सत्त्वरजस्तमोरूपगुणत्रयरूपं विग्रहं उपेयुषी उपादधाना तत्संबुद्धिः । विकसन्तौ दी! आयते अपाङ्गो नेत्रप्रान्ते यस्याः । 'जय जयेति महालक्ष्मी लक्ष्यीकृत्य वीप्सा । ..... २-अष्टादशभुजाः एव वल्लयः व्रतत्यः, तासु समर्पितः सम्यगाहितैः, शस्त्र: आयुधैः, क्षपिताः निःशेषीकृता महासुराणां उद्दामरक्षसां पाली पंक्तिरनया। महिषासुरस्य सुप्रसिद्धस्य दुर्दान्तस्य वधात् रक्षितः लोकः संसारोऽनया । अम्बुजस्य पट्चक्ररूपस्य देहस्य नाली नालदण्ड तत्संबुद्धि. | माया-बीज-स्वरूपिणी इति परमार्थः । तत एव पराप्रावेशिकादौ भड्ग्यन्तरेण 'यथा न्यग्रोधबीजस्थ शक्तिरूपो महाद्रं मः। तथा हृदयवीजस्थं विश्वमेतच्चराचरम् ।।' इत्येवंरूपो राजानक-क्षेमराजाचार्यप्रभृतीनां त्रिकदर्शनविदामुद्घोषः ।। प्रकृतिमयपत्र-विकारमय-केसर-संविन्नालादिविशेषार्थयोजनमपि भागमोक्तदिशा यथायथमवधेयम् । आधारपद्मस्य कामगिरिपीठत्वं कामेश्वरीस्थानत्वश्चापि आगमेष्वाम्नायत इति संक्षेपः । अधिकं तु वरिवस्यारहस्याद्यागमसन्दर्भेभ्य आकलनीयम् । ३-एका अपि अङ्गकलाभिः अणिमाद्याभिः, अनेका नानाविधशक्तित्रातरूपेण स्फुरन्ती अनेकतामुपयाता, आवृतिः आवरणं, तत्सहिता या वरिवस्या Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः ब्रह्म-विष्णु-शिव-सृष्टिविधायिनि! जय-जय लोकालोकमहेशि ! ॥३॥ भक्तशोकशङ्क द्धातिनिपुणे ! , शरणागत-सौहित्य-विधात्रि ! । नैसर्गिककरुणारसस्ते ! ___ जय-जय, भूपणभूषितगात्रि ! ॥४॥ सपर्या, तस्याः सुपमां श्रियं, एपि प्रपद्यसे । ब्रह्म-विष्णु-शिवानां सृष्टिः सर्जनं विदधाति इति तत्संबुद्धिः । अतएव लघुस्तवे- 'त्वत्तः केशववासवप्रभृतयोऽप्याविर्भवन्ति ध्रुवम्' इत्याधु पश्लोक्यते । तत एव च शिवसूत्रेषु 'चितिः स्वतत्रा विश्वसिद्धिहेतुः । सा स्वेच्छया स्वभित्तौ विश्वमुन्मीलयति । तन्नानाऽनुरूप ग्राह्यग्राहकभेदात्' इत्यादिना प्रोन्मीलितः स्वातन्त्र्यवादो महान्तं हृदयसंवादमावहति । अस्य च स्फीततरमुपवृहणमपि आगमानुभवयुक्तिवादपुरस्सरं प्रत्यभिज्ञादर्शने महामाहेश्वरैराचार्याभिनवगुप्तपादैः क्रियमाणं हृदयावर्जकमिति विभावनीयम् । 'चितिरूपेण या कृत्स्नमेतद् व्याप्य स्थिता जगत् ' इति चण्डीपाठ. । पश्चस्तव्यामपि 'विरिब्च्याख्या मातः | सृजसि हरिसंज्ञा त्वमवसि त्रिलोकी रुद्राख्या हरसि विदधासीश्वरदशाम् । भवन्ती सादाख्या शिवयसि च पाशौघदलने. त्वमेवैकानेका भवसि कृतिभेदैगिरिसुते ॥ इति । लोको नाम मुख्यया वृत्त्या प्रकाशस्वभावत्वात् प्रमाता, अलोकश्च तदधीनप्रकाशत्वात् प्रमेयम् । तथा च ग्राह्यग्राहक-उभयकोट्यु पश्लेषरूपो लोकालोक', तस्य महेशी महती स्वामिनी । अथवा लोकालोको नाम अरुणोदयशैलः, तस्य महेशी । राजराजेश्वर्याः सूर्यमण्डलान्तरवर्तिनीत्वमागमप्रथेपु सुप्रसिद्धम् । ४-भक्तानां शोक. मन्युः स एव पीडाकरत्वात् शंकुः सूच्यग्र. कीलक', तस्य या उद्धतिः उद्धारः वहिरुत्तेपो वा तत्र निपुणे विदग्धे || शरणं आगतस्य चरणशरणमापन्नस्य दुःखसंतप्तस्य यत् सौहित्यं सुहितस्य तृप्तस्य भावः ष्यञ् , तर्पणम् , तस्य विधात्री संघटयित्री, तत्संबुद्धिः । नैसर्गिक. स्वाभाविको य करुणारसः वात्सल्यरसपूरः स. सूत' यस्या सा | करुणारसस्य प्रसवभूरित्यर्थ.। भूषणेन स्वर्णरत्नाद्यलंकारेण भूपितं अलंकृतं गात्रमस्याः तत्संबोधनम् । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम-स्तवः सृष्ट्यादौ साचिव्यमुपेतम् , यत्तस्यापि च सारमुदेति । मातस्तव तव विग्रहघटकं ____ जय-जय दुर्मतिशातनहेति ! ॥५॥ तत्रायत्रिकमैन्दवमारुण मानलमञ्चति, मञ्ज लधाम । ५-सृष्ट्यादौ सृष्टि-स्थिति-संहाररूपे त्रिगुणकर्मणि, यत् साचिव्यं सचिवस्य कर्म साहाय्यमित्यर्थः, उपेतं संप्राप्तं, तस्यापि यत् सारं वाग्भवमायाकामानां समष्टिः, उदेति उदयं यावि, हे मातः ! तत् मूर्धाभिषिक्तं बीजकदम्बक, तव विग्रहस्य मंत्ररूपशरीरस्य, घटक योजकम् । दुष्टा विवेकशून्या, या मतिः तस्याः शातनं विनाशनम् 'जायते पत्रशातनम्' इति मीमांसा, तत्र हेतिः शस्त्रभूता । मन्त्रवर्णा हि ध्याननिरूपितस्य ध्येयस्य विग्रहघटका इति परमार्थः । तदित्थं प्रकृते वक्ष्यमाणमाद्यत्रिकम्'वागबीजमादीन्दुसमानदीप्त, . हीमतेजोधु तिमद् द्वितीयम् । कामं च वैश्वानरतुल्यरूपं, तृतीयमानन्त्यसुखाय चिन्त्यम् ॥' इत्यादिकमस्मत्परमगुरोः सप्तशतीसर्वस्वतोऽनुसन्धेयम् । तत्र सप्तशतीति तालव्यादिः पाठो मन्त्रगणनाभिप्रायेण, दन्त्यादिस्तु नन्दादिसप्तशक्तीनां चिख्यापयिषयेति तत एवावधार्यम्। ६-तत्र नवार्णमंत्रविद्महे, अयं चण्डिकाम्बायाः नवार्णो मन्त्ररान कलिवि. संस्थुलेऽपि समये आस्तिकसत्तमानां आर्त्तानां कल्पद्रु मायमाणः सकलेऽपि भारतमण्डले श्रद्धास्पदीभवन् परीक्ष्यते । श्राद्य आदौ भवं, त्रिकं त्रयाणां सवः, कन् । ऐन्दवं वाग्भवबीजं, आरुणं मायाबीजं, आनलं कामबीजमित्येतत्त्रितयसमष्टेः, मजुलं मनोहरं च तद्धाम पञ्चेति कर्मधारयः । यतो भवती एव समस्तमपि प्रपञ्चसारभूतं अञ्चति क्रोडीकरोति । अतएव यथाक्रमं तत्तद्बीजस्वरूपमास्थाय वाणी-वाक् , माया-श्री., कामः-इच्छाविशेषः एतेषां समष्टे Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ दुर्गा - पुष्पाञ्जलिः वाणी - माया कामविकाशिनि ! जय-जय सिद्धि- विधानललाम ! ||६|| मध्यं जाम्बूनदवन्धूक स्फुटितेन्दीवर - भान्यक्कारि || उग्रार्तिच्छिदुरे ! दयमाने ! जय-जय जङ्गलमङ्गलकारि ! ॥७॥ अन्तिममञ्जन पाण्डुर धूम्र द्युतिसंकाश महितकुलहन्त्रि ! | र्व्यण्टेश्च विकाशिनी स्फारोल्लासिनी, तत्संबोधनम् | सिद्धीनां अष्टविधानां यद् विधानं सफलीकरणं तत्र ललाम प्रधानभूते इत्यर्थः । ७-मध्यं नवार्णमन्त्रस्य मध्यो भागः । जम्बूनदे भवं जाम्बूनदं सुवर्णम् । तथा च पठ्यते 'तीरमृत् तद्रसं प्राप्य सुखवायुविशोषिता । जाम्बूनदाख्यं भवति सुवर्ण सिद्धभूषणम् ॥' बन्धूकं जपारुणं पुष्पविशेष । स्फुटितं विकसितं यत् इन्दीवरं नीलकमलं तस्य भां द्युतिं न्यक्करोति तिरस्करोति इति तत्संबुद्धिः । उग्रा उत्कटा सा चासौ श्राति पीडा च तस्याः छिदुरा छेडनकारिणी इत्यर्थ. तत्संवोधनम् | 'आपनार्तिप्रशमनफलाः सम्पदो ह्युत्तमानाम् इति कालिदासः । दयते इति दयमाना कर्तरि शानच् । जंगले वनप्रदेशे मंगलं शुभोदकं करोति इति तत्संबुद्धिः । - हे श्रहितकुलहन्त्रि ! न हिताः श्रहिताः शत्रवः नन् तत्पुरुष । तेपां कुल वंशः तस्य हन्त्री विनाशकर्त्री । अन्तिमं चरमो नवार्णमन्त्रभागः । अञ्जनं कृष्णवर्ण, पाण्डरं श्वेतवरण, धूम्र कृष्णलोहितं, तेपां समुदिता या घुतिः दीप्तिः तत्संकाशं तत्समानम् । केनाप्यनिर्वचनीयेन तेजपुञ्ज ेन भासमानामित्यर्थः । सकलानि समस्तानि यानि समीहितानि मनोरथा', तेषां साधने मंपादने, चुख: प्रवणा, 'तेन वित्त' इति चुप् प्रत्ययः । जगद्रूपेण , Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ-स्तवः सकलसमीहितसाधनचुञ्चो ! जय-जय-जय, जगदङ्क रकत्रि ! ॥८॥ अयोध्या-पश्चिमप्रन्ति-कल्पितप्रतियातना । यातनाक्षतये भूयादेषामहिषमदिनी ॥६॥ इति महिषमर्दिनी-गीतिः ॥५॥ भासमानं यदडकुरं, बीजस्य प्रथमः परिणामः, तस्य की विधात्री । भवत्या एव सकलः सृष्टिप्रपञ्चः प्रवर्त्यत इति भावः । -अयोध्यायाः पश्चिमप्रान्ते, सरयू-तमसयोरन्तरालवर्तिन्यां पण्डितपुर्या, 'शिवदुर्गापीठ' इत्यपराभिधानायां, कल्पिता प्रतिष्ठापिता, प्रतियातना प्रतिमा यस्याः सा । एषा समनन्तरं स्तुता, महिषमर्दिनी महिषं महिषासुराख्यमसुरं मृगाति इति महिष-मर्दिनी, कौशिकी स्वरूपमापन्ना चतुर्भुजा महालक्ष्मीः । महिषासुरस्य वधकथा चण्डीपाठादौ सुप्रसिद्धा । यातना' संसारोद्भवाः तीव्रवेदनाः तासा तये विनाशाय भूयात् । ॥ इति महिषमर्दिनी-गीति ॥ १-अस्या. संनिवेशप्रमाणं तु भगवता वल्मीकजन्मना इत्थं निर्दिष्टम् 'मनुना मानवेन्द्रण या पुरी निर्मिता स्वयम् । आयता दश च द्वे च योजनानि महापुरी ।। श्रीमती त्रीणि विस्तीर्णा सुविभक्तमहापथा ।।' इति । (वाल्मीकिरामा० बालका० ५,सर्ग) २-सांप्रतिक-अयोध्यापुरीसंनिवेशात् पश्चिमायां दिशि अष्टकोशान्तरे 'पण्डितपुरी' इत्याख्यया सुप्रसिद्ध तदिदमाश्रमपदम् । इह कूपारामसंनिकर्ष जगज्जननीपीठसंभूत विन्ध्यपाषाणे निर्मितमेकं मनोहरं लघु शिवमन्दिरं विद्योतते। यत्र जगतां मातापितरौ पार्वतीपरमेश्वरौ विराजत.। अत्र चैकः शिल्पकलाकमनीयः पाषाणोत्कीर्णः शिलालेखोऽपि निर्मातु परिचयमावहन्नेतेन सह संल्लेषित्त आस्ते । इत उत्तराशामुखे क्रोशैकमितान्तरिते भुव. प्रदेशे घर्घरेण संश्लिष्या वासिष्ठी भगवती सरयूः प्रवहति । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः षष्ठ-स्तवः। जननमरणजन्मत्रासघोरान्धकार प्रशमनकरणायानाय काचित्प्रदीप्तिः । तरुणतरणिरागं, म्लानिमानं नयन्ती, विहरतु मम चित्ते चन्द्रखण्डावतंसा ॥१॥ न भवति खलु यावत्कायवैक्लव्यभावो, न च पतति, कृतान्तरदृष्टि-प्रपातः । ननु हृदय ! समुद्यद्दीनदैन्यावसाद प्रणयनरसिकां, तां तावदासादयाशु ॥२॥ सरससरसिजातस्फारसौन्दर्यसार स्फुरदवयवकाण्डोदामलावण्यवापी । पष्ठ-स्तवः। १-जननं देहोत्पत्तिः, मरण पञ्चभूतेषु लयः, ताभ्यां जन्म प्रसवो यस्य एवंभूतो यः त्रास. भयं तदेव घोरं दारुण, अन्धकारः तमिस्र, तस्य प्रशमनकरणाय दूरोत्सारणाय, अन्हाय वासराय, काचित् अतिशयोर्जिता, प्रदीप्तिः प्रकृष्टा द्य तिः,। तरुण. नवोदितः स चासौ तरणि सूर्य , तस्य रागं लोहितवर्णत्वं म्लानिमान मलिनत्वं म्लानादिमनिच् । नयन्ती प्रापयन्ती । चन्द्रस्य खण्डः शकलं स अवतंसो भूपण यस्याः सा, चन्द्रखण्डावतंसा, मम चित्ते मनोमन्दिरे, विहरतु विहरताम् । प्रार्थनाया लोट् । २-कायस्य शरीरस्य, वैक्लव्यभाव वाक्यप्रयुक्त शक्तिक्षयरूपो व्याकुलीभावः । यावत् न खलु भवति, नोत्पद्यते । कृतान्तस्य यमस्य करा कठोरा सा चासौ दृष्टिश्च तस्याः प्रपातः परिपतनम् न च भवति । नन्विति आमन्त्रणे अव्ययम् । हृदय ! मानस ! समुद्यत् समुद्गच्छत् यत् दीनस्य दुर्गतस्य दैन्यं दारिद्रय तस्य यो अवसाद विरामः, तत्प्रणयने तत्संपादने, रसिकां रसज्ञां, ताम् जगदम्बाम्, तावत् तदवधि, प्राशु यथा स्यात् तथेति क्रियाविशेषणम् । प्रासादय भजस्व । ३-रसेन सहितं सरसं, ताशं यत् मरमिजातं कमलं, तस्य स्फारेण विपुलेन, सौन्दर्यसारेण चारुत्वोत्कर्पण स्फुरन्तः स्फूर्ति वहन्तः, ये अवयवाः Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ- स्तवः अनुसरदनुकम्पापूरपूर्णातिमात्रं शमयतु, मम तापं सा शशाङ्कार्थचूडा १३ || जननि ! नतनिलिम्पी मौलिमन्दारमाला श्लथकुसुममरन्दम्लानपादारविन्दे ! | भवपरिभाविद्धे वासनाजालरुद्धे, ३५ मसृणनयनपातं पातयास्मिन् वराके ||४|| सकलभुवनभारं पंचकृत्यावसानं, नतिसुकृतिषु देवेपूच्चकैरर्पयित्वा । 'गानि, तेषां ये काण्डाः स्कन्धाः तेषु यद् उद्दाम अत्युत्वणं, लावण्यं देहसौन्दर्य, तस्य चापी दीर्घिका । लावण्यपदार्थश्च 'मुक्ताफलेषु छायायास्तरलत्वमिवान्तरा । प्रतिभाति यदंगेषु तल्लावयमिहोच्यते ॥ ' इत्येवंरूपो द्रष्टव्य | अनुसरत्सु अनुगमनं कुर्वत्सु विषये, या अनुकम्पा कृपारसः, तस्या. य पूरः प्रवाहरूप:, तेन पूर्णा भरिता । सा शशाङ्कार्धचूडा, शशाङ्क. पीयूपकिरण तस्य अर्थ खण्डः, चूडायां जूटिकायां अस्याः सा । अतिमात्रं एकान्तनः, मम भक्तहृदयस्य तापं व्यथारूपं सतापं, शमयतु दूरीकरोतु | , ४ - हे जननि । मातः ! नताः प्रणता, याः निलिम्य. देवांगनाः, तासां मौलिषु केशपाशेपु, याः मन्दारमालाः पारिजातस्रजः, ताभ्यः श्लथानि च्युतानि यानि कुसुमानि तेषां यो मरन्द. रज. करणरूपः तेन म्लानं विच्छायं पादारविन्दं चरणसरोरुहं यस्याः सा तत्संबुद्धिः । भवात् संसारात् यः परिभव. तिरस्कारः, तेन विद्धे शरव्यभूते छिद्रिते वा । वासनानां अन्तरङ कुरितानां चिरन्तनीनां, जालै समूहै, रुद्ध े सर्वात्मना बद्ध, अस्मिन् वराके, शोचनीये मयि, मसृणं स्निग्धं प्रेम्णा परीतं च यन्नयनपातं दृष्टिनिक्षेपः, तं पातय असारय | ५-सकलस्य समस्तस्य, भुवनस्य जगत, यो भारः संभाररूपः सृष्टिप्रपन्नः, तम् । पञ्चकृत्यानि उत्पत्ति-स्थिति-संहार-तिरोधानानुप्रहात्मकानि अवसानं समाप्तिर्यस्य तथाविधम् । पञ्चविधैः कृत्यैरेव जगतः सर्वोऽपि सृष्टिप्रपचः परि Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः किमपि निगमरूढं गूढतत्त्वं प्रपन्ना शिशिरयतु, मदीयं स्वान्तमश्रान्तमेषा ॥५॥ जननि ! यदि भवत्याः शकिरात्मप्रभावं - व्यपनयति, तदानीं निष्क्रियो लोक एषः। इति परिचिततत्त्वेऽप्यज्ञभावं भजन्त स्तवसमयविमूढाः संसरन्ति, स्खलन्ति ॥६॥ प्रकृतिगुणविकाराः प्राकृते व्याप्रियन्ते, न खलु पुरुषभावे दर्शनेऽस्मिन् स्फुटेऽपि । समाप्यत इत्यर्थः । इयं पञ्चकृत्यसमष्टिरेव यथाक्रमं श्राभासन-रप्ति-विमर्शनवीजावस्थापन-विलापनतश्च भागमेपूद्धध्यत इति प्रत्यभिज्ञाहृदयादिषु स्पष्टम् । नतयः प्रणतयः, ताभिः ये सुकृतिन. पुण्यवन्तः तेषु । देवेषु ब्रह्माप्रभृतिषु । उच्चकैरित्यकचप्रत्ययान्तमव्ययम् । अत्यर्थ भृशं, अर्पयित्वा तदधीनं विधाय । किमपि चेतोहारि, निगमाः, वेदाः, चतुःषष्टिसंख्याकानि तंत्राणि .च, तेपु रूढं प्रसिद्वं यत् गूढतत्वं अन्तःसारं, तं प्रपन्ना संप्राप्ता सती, एपा विश्वेषामपि मातृरूपेणावस्थिता, अश्रान्तं वाढं यथा स्यात् तथा मदीयं स्वान्तं मानसं, शिशिरयतु शीतलयतु । ६-हे जननि ! यदि भवत्याः शक्तिः पूर्णाहन्ताचमत्कार', आत्मन स्वस्य प्रभावं सामथ्र्य व्यपनयति निरस्यति, तदानीं एष पुरो दृश्यमानो लोक संसारः निस्क्रिय. निप्पन्दः संपद्यते । इति इल्यं, परिचिततत्त्वे अपि, ज्ञातसारेऽपि वस्तुनि, अशभावं मूढप्रायामवस्थां भजन्त. श्रासेव्यमाना., तव भवत्याः, समयविमूढाः समयाचारपराङ्मुखाः, मुग्धात्मान इति यावत् । संसरन्ति भूयोभूय. ससारिभावं भजन्ते, स्वजन्ति पतनमनुभवन्ति च । द्विमुखा एव नरा. पदे पदे व्यामोहभाजः पतनपर्यवसायिनश्च जायन्त इति भावः । तथा च शान्तिस्तव - 'पापदो दुरितं रोगा समयाचारलानात् ।' इति । -प्रकृतेः मूलप्रकृतेः, ये गुणविकाराःगुणानामुपप्लवभूताः विकृनयः । ते च नप्रकृतिरयिनिर्मदाद्या प्रनिविलय सप्त । पोखराकम्नु विकारो न प्रफुतिर्न विकृतिः पुरुष ।। ( मांख्यकारिका) Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ- स्तवः तव समय सपर्या भावनान्धः शरीरी, सकलजननि ! नाहं भावभावं जहाति ||७|| श्रुतिरपि परिमातु यां न शक्नोत्यशेषातदितरजनगाथा जल्पनास्तां, सुदूरे - ३७ इति सांख्यनये संख्याताः । प्राकृते प्रकृतेरयं प्राकृतः, तस्मिन् प्रकृतिसम्बन्धिनि । व्याप्रियन्ते व्याप्त्या श्रवतिष्ठन्ते । पुरुषभावे पुरि शयाने जीवपदाभिलप्ये स्वात्ममहेश्वरे, न खलु व्यापूता भवितुमर्हन्ति । 'असङ्गोऽयं पुरुष: ' (सांख्यसू० १. १५) इति शासनात् । इति एवंरूपेण, अस्मिन् प्रकृतिपुरुषविवेचनापरे दर्शने, स्फुटे स्फीते सत्यपि तव भवत्याः या समयसपर्या समयाचारैः समृद्धा अन्तर्याग-बहिर्यागरूपा वरिवस्या, तस्याः भावनया पुनः पुनचिन्तनरूपया अन्धः आनन्दनिमीलितनयनो भवन्निव । शरीरी पाशत्रयसंदानितो जीवः । हे सकलजननि ! अशेषभुवनमातः ! अहंभावस्य श्रहङ्कारापरपर्यायस्य अहमितिस्फुरणात्मकस्य, भावं अवस्थाम् न जहाति न मुञ्चति । प्रत्युत श्रहंभावभरित एवोल्लसति इति तात्पर्यम् । 1 ८-यां श्रुतिः, श्राम्नायोऽपि, अशेषात् अशेषविशेषभावात्, परिमातु श्रभिधातु न शक्नोति न प्रभवति । तदितराः, ये जनाः श्रस्मदादयः, तेषां गाथा पद्यमयी जल्पना, सुदूरे विप्रकृष्टतरे, आस्तां तिष्ठतु । इति एवंरूपेण विहितविवेक, कृतनिश्चयः 'पाहि पाहि' 'रक्ष रक्ष' इति जल्पन्, श्रतभावेन प्रलपन्, कथमपि येन केनापि रूपेण तव भवत्या, पादयो ध्याने तदेकतानतारूपे चिन्तने, दत्तादरः बहुमान., स्याम् भवेयम् । श्रयमत्र निष्कर्ष - श्रूयत एव हिरण्यगर्भादिगुरुपरपरया न तु केनचित् क्रियत इत्यपौरुषेयी स्वयं प्रमाणभूता वागपि यदभिधातु नालङ्कर्मीरणा, तदा वागन्तरस्य का कथा । तत एव 'अतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि' इत्येवमादि प्रवृत्तम् । इह प्रकाशाशेन शिव इति विमर्शाशेन शक्तिरिति व्यवहारस्तु भेदविवक्षायैव प्रववृते । शिवाद्वयदर्शने 'शक्तिश्च शक्तिमद्रपाद् व्यतिरेकं न वाञ्छति । तादात्म्यमनयोर्नित्यं वन्दिदाहिकयोरिव ॥' इत्यादिनिरूपणात् । तत एव च Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः इति विहितविवेकः पाहि पाहीति जल्पन् कथमपि तव पादध्यानदत्तादरः स्याम् ॥८॥ ॥ इति सकल-जननी-स्तवः ॥६॥ 'सा स्फुरत्ता महासत्ता देशकालाविशेपिणी । सैषा सारतया प्रोक्ता हृदय परमेष्ठिनः ।।' इत्येवं प्रत्यभिज्ञादिषु सारनिष्कपः । 'पुरमथितुराहोपुरुपिका' 'परब्रह्ममहिषी' इत्येवंविधा आलापास्तु उपासनाभिप्रायेणैव नीयमाना- सङ्गच्छन्त इति संक्षेपः । ॥ इति सकलजननी-स्तवः ।। १-इयमेव भुवनेश्वरीप्रभृतिविद्यासमष्टीनां प्रसवभूमिः, सर्वतत्त्वानामधिष्ठानभूता च । अस्याः सकलजननीत्वम्'कामो योनि. कमला वज्रपाणि गुहा हसा मातरिश्वाभ्रमिन्द्र । पुनर्गुहा सकला मायया च पुरूच्येषा विश्वमातादिविद्या ।।' इति शौनकशाखीयया आथर्वणश्रुत्या यावेद्यते । तथा ऋग्वेदेऽपि 'इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयत' इत्येवमाद्या प्रतिपत्तय । तत एव चास्या महिमानं पुरस्कृत्य 'त्रिपुरा परमाशक्तिराया जाता महेश्वरी। स्थूलसूक्ष्माविभागेन त्रैलोक्योत्पत्तिमातृका ॥ कवलीकृत-नि शेपतत्त्वग्रामस्वरूपिणी । यस्यां परिणताया तु न किंचित परिशिप्यते ॥'इत्यागमवेदिनां घण्टाघोष इनि दिक् । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम-स्तवः सप्तम-स्तवः। निरर्गलसमुन्मिपन्नवनवानुकम्पामृत प्रवाहरसमाधुरीमसृणमानसोल्लासिनि ! । नमज्जनमनोरथप्रणयनकदीक्षाव्रते ! निधेहि मम मस्तके चरणपङ्कजं तावकम् ॥१॥ नमन्मृडजटाटवीगलितगाङ्गतोयश्रिते ! ___ स्फुरन्मधुरविग्रहप्रचुरकान्तिसंदानिते! । सुसौरभकरम्बिते ! त्रिपुरवैरिसीमन्तिनि ! त्वदीय-पदपङ्कजे मम मनो मिलिन्दायताम् ॥२॥ सप्तम-स्तवः। १-निरर्गलं स्वच्छन्दं, समुन्मिषन्ती आविर्भवन्ती, या नवनवा नवोल्लासप्रचुरा, अनुकम्पा कारुण्यं, तदेव अमृतं सुधा, तदुत्त्यो य. प्रवाहरसः रसनिझर , तस्य या माधुरी मधुरिमा, तया मसृणं स्निग्धं मानसं उल्लसति यस्या. सा तथाभूता । तत्सबुद्धिः । नमन्तः श्रद्धया प्रवीभवन्तः ये जना , तेषां ये मनोरथा हृदयोत्त्था अभिलाषाः, तेषां प्रणयनं सम्यक् पूरणमेव, एका दीक्षा यागः, सैव व्रतं नियमो यस्याः तत्सबोधनम् । मम मस्तके शिरसि, तावकं त्वदीयं, चरण.पङ्कजं पादपद्म, निधेहि स्थापय प्रार्थनायां लोट् । पृथ्वीछन्दः। २-नमन्ती मृडस्य शिवस्य, या जटाटवी जटैव अटवी, जटाभरः ततो गलित स्खलितं, यत् गाङ्गतोय मन्दाकिनीसलिल, तेन श्रिता सेविता । स्फुरन् उल्नसन् , यो मधुरविग्रह लावण्यमय शरीर, तस्य या प्रचुरा कान्ति छवि , तया सन्दानिते बद्ध । 'बद्ध संदानितम्' इत्यमरः । सन्दान संजातमस्य इत्यर्थे तारकादित्वात् इतन् । त्रिपुरवैरिणः त्रिपुरासुरहन्तु' शिवस्य सीमन्तिनी योषित् । त्वदीय यत् पदपङ्कजं चरणारविन्दं तस्मिन् । मम मनः मिलिन्दायताम् मिलिन्दो भ्रमरः स इव तन्मयीभावम् आपद्यताम् । मिलिन्दायतामित्याचारार्थे क्यच । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः उदञ्चय गञ्चलं, रचय सान्द्रसान्द्रां दयां विकासय निजं पदं, विघटयाशु दुःखत्रयम् । अये ! प्रकटयाधुना विधुततर्कजालामल प्रबोधरसमाधुरी विविधमङ्गलारम्भिणि ! ॥३॥ त्वयैव जगदङ्क रो भवनविक्रियां नीयते, किमित्यपरकल्पना तदुदरान्तरालम्बिनी । अनन्यसदृशक्रिये ! भगवतीं विहायाहकं कथं कथय चेतनः शशविपाणमाप्तुयते ॥४॥ ३-दृशौ अपाङ्ग एव अञ्चलं, तत् उदञ्चय उन्मीलय । सान्द्रसान्द्रां घनाधनां, दयां रचय विस्तारय । निजं पदं, स्वकीयं धाम विकासय, दुःखत्रयं आध्यात्मिक-आविदैविक-आधिभौतिकरूपं आशु विघटय वियोजय । अये इति कोमलामन्त्रणे अव्ययम् । विविधानि यानि मङ्गलानि अभीष्टार्थसिद्धिरूपाणि तेषां प्रारम्भ. उन्मेष. अस्ति अस्याम् , तत्संबुद्धिः । विधुतः दूरं उत्तिप्तः, तर्कजालो यस्मात् तादृशः, निरस्तशङ्कातक. य' अमलः निर्मलः प्रबोधरसः स्वसंविदुल्लासः, तस्य माधुरी प्रकटय प्रकाशय । ४-त्वया भवत्या एव, जगदड्कुर. जगदुत्पत्तिवीज, भवनविक्रियां भावविकाररूपामवस्थां, नीयते इति कल्पनैव स्थेयतया हृदयसंवादमादधाति । तस्या. उदरं तदुदरम् तदुदरान्तरमालम्वते इति तदुदरान्तरालम्विनी, तदन्तःपातिनी प्रतिप्रसवायमाना, अपरा कल्पना कारणान्तरवादः, किमिति निःसारतया प्रस्तूयताम् । समानमिव दृश्यते इति सदृशः । न विद्यते अन्यसदृशी क्रिया व्यापार अस्यामिति तत्संबुद्धिः । लोकोत्तरघटनातत्परे इतिभावः । भगवती ऐश्वर्योल्लासमयीं, विहाय उत्सृज्य, चेतन. सचेतनो भवन् , अहकं अहं, 'अव्ययसर्वनाम्नामकच प्राक् टे.(पा-सू०५३.७१)इत्यकच् प्रत्यय । शशविषाणम् अवस्तुरूपं कल्पनामात्रसार शशशृद्भ, श्राप्तुं अधिगन्तुं, कथं यते उद्युक्तो वर्ते इति कयय, त्वमेव अभिधत्स्व । जगतः सृष्टिनिरूपणप्रस्तावे क्वचिद् विश्रामो वाच्य इति नयेन विविधकारणकल्पनासंघट्ट केवलं गौरवाय परिणमन् न तोदक्षम इति लाघवात् भवत्या सकाशादेव सर्वमपीदं दृश्यजानं प्रसूयत इत्यभ्युपगम एव हृदयंगम पन्या इति भावः। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम स्तवः भवेद्यदि जपावनी सरिदुदञ्चदर्कच्छटास्फुटारुणिम मज्जिमा मसृणलोहितेहान्जिनी । ४१ कथंचन तदा मनो जननि ! तावकाङ्गप्रभा श्रियं तुलपितु व्रजेत्तदपि तस्य कापेयकम् ||५|| निसर्गमधुराकृते ! गिरिशनेत्ररा कायिते ! नवावृतिचमत्कृते ! परिलसत्सपर्याकृते । मयाद्य मनसा धृतेऽचिरय मातरुद्यद्दया सुधाहदनिमज्जनाकरणकेलिसीमायिते ! ॥ ६ ॥ ५-यदि अवनी धरामण्डलं जपापुष्पवत् अरुणारुणं भवेत् । संभावनायां लिड् । जपापुष्पं, 'गुडहल' इति लोके प्रसिद्धं रक्तवर्णं पुष्पम् । सरित् तटिनी, तस्यां उदुश्र्वतः उदयं गच्छत, अर्कस्य विवस्वतः, या छटा दीप्तिपुञ्जः तस्या अपि यः स्फुटः स्फीत, अरुणिमा लौहित्य, तस्य मजिमा मज्जनम् अवगाहनमिति यावत्, यदि नाम भवेत् । इहापि पुनर्मसृणलोहिता स्निग्धरक्तवर्णस्वर्णा, अन्जानां समूह अब्जिनी कमलवनी यदि स्यात् । तदा हे जननि ! तावकानि यानि अगानि सिन्दूरारुणवर्णानि करचरणादीनि तेषां प्रभाश्रियं दीप्तिसौन्दर्य तुलयितु' उपमातु कथञ्चन कथं कथमपि व्रजेत् यायात् । परं तदपि तादृशम् उपमासामञ्जस्यमपि, तस्य कविकर्मासक्तस्य कवितुः, कापेयकं कपिचापलवदुपहासास्पदमेव केवलं भवेत् कापेयकमिति 'कपिज्ञात्योर्दक' (पा० सू० ५. १. १२७ ) इति ढक् प्रत्ययः, ततः स्वार्थे कन् । ६ - निसर्गमधुरा स्वभावसुन्दरा आकृति स्वरूपं यस्या. तत्सबोधनम् । गिरिशस्य शिवस्य वामनेत्रस्वरूपेण राकायिते, पूर्णचन्द्रमण्डलत्वेन शोभमाने । नव नवसंख्याका' या आवृतयः आवरणानि ताभि: चमत्कृते मञ्जु लस्वरूपे । राज्राजेश्वर्या नवावरणत्वं आगमशास्त्रे सुप्रसिद्धम् । परितः नवावरणमण्डलरूपेण सह लसन्ती या सपर्या वरिवस्या, तस्याः कृते सपरिवारायास्तव अर्चनार्थम्ति भावः । मया श्रद्य पूर्णचन्द्रोल्लासिते पूर्णातिथिपर्वणि, मनसाधृते, एकतानेन हृदयान्त. प्रतिष्ठापिते, उद्यन्ती या दया तस्याः य. सुधाहृदः श्रगाधपीयूष सरः, तत्र निमज्जनाकरणे स्नानावगाहनसंपादने या केलि. क्रीडा तस्याः सीमायिते सीमाभूते हे मातः ! अचिरय स्नानादिकं निर्वर्त्य सत्वरं यागमण्डपमलङ्क ुरुष्व । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः महेश्वरपरिग्रहे ! स्तुतिपरायणानुग्रहे ! महास्फुरणविग्रहे ! निरययातनानिग्रहे ! । प्रसीद सुखसंग्रहे ! प्रणतदुःखभङ्गाग्रहे ! विनाशितमहाग्रहे ! विमलभक्तियोगग्रहे ! ॥७॥ महाभयनिवारिणी, सकलशोकसंहारिणी, भवाम्बुनिधितारिणी, दुरितजातविद्राविणी । अहंमतिविदारिणी, पतितमण्डलोद्धारिणी, ममान्तरविहारिणी, भवतु सौख्यसञ्चारिणी ॥८॥ ।। इति सौख्याप्टकम् ॥७॥ ७-महेश्वरेण परिग्रहः स्वीकारो यस्याः सा, तत्संबुद्धि । महेश्वरस्य परिग्रह. कलत्रमिति वा विग्रहः । परिगृह णाति परिग्रहणं वा परिग्रहः । 'प्रहवृनिश्चि'(पा.सू.३.३.५८) इत्यादिना अप् । 'परिग्रहः कलत्रे च मूलस्वीकारयोरपि' इत्यजय । महेश्वरसद्भिनि इत्यर्थः । स्तुतौ परायणः तत्परः, तस्मिन् अनुग्रहः अभीष्टप्रदानरूप. प्रसादो यस्याः । महास्फुरणं पूर्णाहन्ताचमत्कारसारः स्वसंविदामोदभर. तदेव विग्रह कायो यस्या. । निरययातनाः नरकोत्या तीव्रवेदनाः, तासां निग्रहा निरोधिनी । सुखस्य चतुर्वर्गप्रभवस्य संग्रह समाहरणं यस्याम्, तथाभूता । प्रणतानां दु खभङ्ग दु खोत्सादने आग्रह अभिनिवेशो यस्याः । महान् स चासौ ग्रहश्च महाग्रह महत्संकटं, नवग्रहाद्युत्थो रोगादिजनितो वा मृत्युसमो दुःखसपातः । विनाशितः महाग्रहोऽनया । विमलेन शुद्ध न भक्तियोगेन ग्रहः ग्रहण यस्या । सर्वाणि पदानि संबोधनान्तानि इत्यवधेयम् ।। ___-महाभय आधि-व्याध्युत्त्थ शारीर मानसं च उद्वगकरं साध्वसम्, चौरादिभूतोपद्रवश्च तस्य निवारिणी दूरोत्सारिणी । सकला. संसारोद्भवा. ये शोका. शुच , तेपां सहारिणी सहारकी । भव ससार एव, दुस्तरत्वात् अम्बुनिधिः समुद्र', तस्य तारिणी तारयित्री । दुरितजात दुष्कृतराशिः तस्य विद्राविणी क्षरणकर्ती । अहमतिः 'अहो अहम्' इत्येवरूपो मायिकोऽहन्तावेशः तस्य विदारिणी । पतितानां पथच्युतानाम् यन्मण्डलं समूहः, तस्य उद्घारिणी उद्धारपरायणा | मम अन्तरे हृदये विहारिणी विहरणशीला | सौख्यस्य आत्मानन्दरूपस्य लौकिकस्य च सचारिणी संचारोद्यता भवतु जायताम् । प्रार्थनायां लोट् । ॥ इति सौख्याष्टकम् ।। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम-स्तवः अष्टम- स्तवः । श्रादावेकां लोकसिसृक्षारसजुष्टां, द्वन्द्वाभ्युष्टां भृतनिकायान् कलयन्तीम् । मायामुख्यैर्नामभिराद्यैरुपदिष्टां, " मूलाधारादा च विशुद्धेः प्रविभक्तां, वन्देऽमन्दद्योतकदम्यां जगदम्बाम् ||१|| शाब्दी सृष्टि, पात्रविशेषाद् घटयन्तीम् । श्रौतैः स्मार्तैः पौरुषमूक्त रुपगीतां, ४३ वन्देऽमन्दद्योतकदम्बां जगदम्बाम् ||२|| अष्टम- स्तवः । १ - आदौ जगन्निर्माणात् प्राक्, एकां द्वितीयां, लोकस्य जगतः, या सिसृक्षा स्रष्टुमिच्छा, तद्रसेन रागेण जुष्टा आनन्द निर्भरा ताम् । द्वन्द्व ं दाम्पत्यरूपं स्त्रीपुंसयोर्मिथुनं, तत्र अव्युष्टां कृताधिवासाम् भूतनिकायान्, जरायुज- अण्डज - स्वेदजोद्भिज्जेति चतुर्विधान् भूतसङ्घान् कलयन्तीं घटयन्तीम् । मायामुख्यं एषु तै', 'माया कुण्डलिनी क्रिया' इत्येवमादिभिः पारायणप्रशस्तैः नामभिः अभिधानै., आद्यः ऋषिमुन्यादिभि आप्तवर्गे, उपदिष्टां विशिष्य वोविताम् । अमन्द' स्फार. द्योतकदम्ब प्रकाशस्तोमोऽस्यामिति अमन्दद्योतकदम्बा ताम्, सकलजननीं वन्दे अभिवादये | : २- मूल चासौ आधारश्च मूलाधार भूतत्त्वप्रधानं कुलकुण्डादिव्य . पदेश्यं षडादिचके प्रथमम् । तत आरभ्य सुषुम्णाध्वना स्वाधिष्ठान - मणिपूरानाहतचक्रान् विभेदयन्ती, आ च विशुद्ध े विशुद्धिपर्यन्तम् । प्रविभक्तां वितताम् । आडभिविधौ । विशुद्धिर्नाम षोडशदलपद्माधिष्ठानभूतं श्रीवाकूपम् । पात्रविशेषात् कृपाकटाक्षपूतादनुरूपभाजनात् । पात्रत्व चैवं स्मर्यते 1 'न विद्यया केवलया तपसा वापि पात्रता । यत्र वृत्ती इमे चोभे तद्धि पात्रं प्रकीर्तितम् ॥' शाब्दी सृष्टिं, शब्दात्मकं विवर्त, घटयन्तीमित्यत्रान्तर्भावितण्यर्थः, प्रेरण्या तथा कलयन्तीम् । श्रौतैं. श्रुतिभवै., स्मार्तैः स्मृत्युपारूढैः, पौरुपसूक्तै श्रुतिमधुराभि. पौरुषकृतिभिः, उपगीतां भावोपहारैरचिताम्, अन्यत् पूर्ववत् । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः ऐन्द्रीं भूतिं भक्तजनेभ्यो वितरन्ती, ही कुर्वाणां, तद्विमुखेषु प्रतिवेलम् । श्री निर्दोलां तद्भवनान्ते विदधानां, वन्देऽमन्दद्योतकदम्बां जगदम्बाम् ॥३॥ ३-भक्तजनेभ्यः भक्त्युच्छलितहृदयेभ्यश्चरणाराधकेभ्यः, ऐन्द्री इन्द्रोपभोगयोग्यां, भूतिम् ऐश्वर्य,वितरन्ती सप्रसादमुपहरन्तीम् । तेभ्यो विमुखा. तद्विमुखाः भक्तजनसपत्नाः, तेषु प्रतिवेलं प्रतिनिमेपं, ह्रीं कुर्वाणाम् , पराजितत्वेन लज्जाऽधोमुखान् विदधतीम् । अथवा मायावीजप्रतिपाद्याः सृष्टिस्थितिसंहारास्तदर्थत्वेन पर्यवस्यन्ति इति तान् जन्मजरामरणक्लेशकदर्थितान् कुर्वाणाम् । अत्र 'ही ई' इति पदयोः समासे हीमिति रूपम् । तच्च कूटपारायणवर्त्मना सद्गमय्य नेयम् । अस्य विष्णो. पत्नी 'ई' इत्येवं रूपोऽर्थोऽपि यथासंभवमुन्नेयः । तदित्यं कल्पद्रु मायमाणस्यास्य मायावीजस्य तत्प्रतिपाद्यायाश्रियश्चार्थो यथाप्रसङ्गमूहनीय. । एवमुत्तरत्र श्रीपदेऽपि द्रष्टव्यम् । हीमिति स्वरादेराकृतिगणत्वादव्ययत्वम् । अतएव ललितात्रिशत्यां 'हीं नमः' इति चतुर्थ्यन्तं प्रयुज्यमानमुपपद्यते । वस्तुतस्तु 'ऐम्' इत्यादीनां वर्णविशेषाणां तद्विशेषघटितानां कूटानां च यथान्यायं यथादर्शनं वा पञ्चाशतस्त्रिपष्ट वर्णानामिव व्यवस्थैव न्याय्या । अतएव पोडशस्वरेपु पश्चस्वरान् गृह णाना ज्योतिपिका, नवस्वरान् गृहणाना वैयाकरणाश्च स्थेयभावं न जहति । दीक्षितैः शब्दकौस्तुभस्य पस्पशाह्निके दीर्घलकारं पश्यद्भिः किञ्चिदभिहितमपीति तत एवाकलनीयम् । अपि च, जात्यादिशब्दविभागसंरम्भोऽपि केवलीभावेन ईश्वरं नाभिधत्ते । जात्यादिकक्षातिक्रान्त वस्तु कथमिवाभिध्यात् । परमेश्वर इति वृत्तिस्तु अभिधत्ते इत्यन्यदेतत् । किमियता, ओङ्कारोऽपि तादृशदोषावर्तान्नातिरिच्यते । अतएव च - 'ईशानः सर्वविद्यानाम् इति प्रतिपादितं वस्तु स्वाभिधेयं वर्णकूटपारायणं चतुरस्र मन्यत इत्यलं प्रसक्तानुप्रसक्त्या। तद्भवनान्ते भक्तजनास्यावासेपु, निर्दोलां निश्चला, श्रीं श्रियोऽवस्थानं विधानाम्। वराटिकान्वेपणाय प्रवृत्तश्चिन्तामणि लब्धवानिति वासिष्ठरामायणोक्त आभाणकन्यायेन इह वाग्भव-माया कमलावीजप्रयोगः भगवत्या स्त्रिपुरसुन्दर्यानितारीयोगोऽपि श्लेपमर्यादया ध्वनितो यथायथं विभावनीय । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम-स्तवः किं वन्धूकः, किं नु जपाभिः, किमु रक्त - ___ जैस्यद्भास्कररागैरुत सृष्टः। अङ्ग रिङ्गत्कान्तिवितानैरभिरामां, वन्देऽमन्दद्योतकदम्बां जगदम्बाम् ॥४॥ याऽपाहो तापनिरासाय सपर्णा, वर्णातीता वर्णविशेपाञ्ज पमाणा। तां वैचित्र्योद्भासनसूनावलिवल्ली, - वन्देऽमन्दद्योतकदम्बां जगदम्बाम् ॥५॥ __४-बन्धूकः बन्धूकपुष्पैः किं नु, जपाभिः जपापुष्पैर्वा किं नु, रक्तैररुणवर्णैः अजैरुत्पलै र्वा किमु ? उद्यतः उदयं गच्छतः भास्करस्य बालातपमूर्तः, रागैः लोहितवर्णे, सृष्टैरभिनिष्पन्न र्वा किमु? यतो हि अरुणिमातिशयमावहन्तोऽप्यमी लौकिका पदार्थसार्थाः नियतिनियन्त्रणया स्वस्वोत्कर्पविश्रान्तिभुवो गुणाधान शा स्पृहणीया भवन्तोऽपि नाम्बया अरुणागरागया सह उपमातुलामधिरोद्ध अलङ्कर्मीणा इति किमेभिः सृष्टैरसृष्टैर्वा फलमुपकल्पनीयम् । रिङ्गन्तीनां स्फीतं समुपसर्पन्तीनां, कान्तीनां भासां, वितानः विस्तारः येषु एवंभूतैः अङ्गः करचरणादिभिः अभिरामा सुन्दरीम् । | ५-अहो इत्याश्चर्येऽव्ययम् । या, अपर्णा न विद्यते पर्ण पत्रं अदनीयत्वेन यस्या. सा तथाभूता । तथा च पुराणे 'आहारे त्यक्तपर्णाभूत् यस्माद् हिमवतः सुता । तेन देवरपर्णेति कथिता पृथिवीतले ।।' अथवा 'अपर्णा तु निराहास तां माता प्रत्यभाषत' इति निराहारा इत्यर्थः । कुमारसंभवेऽपि'स्वयं विशीर्णद्र मपर्णवृत्तिता परा हि काष्ठा तपसस्तया पुन' । तदप्यपाकीर्णमतः प्रियंवदां वदन्त्यपर्णेति च तां पुराविदः ।। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः नीपश्रणीशालिनि चिन्तामणिगेहे, पीठासीनामावृतिचक्ररुपगूढाम् । ब्रह्मादिभ्यो वाञ्छितमर्थं प्रथयन्ती, वन्देऽमन्दद्योतकदम्यां जगदम्बाम् ॥६॥ पर्ण पतनमिति निरुक्त्या पतनरहिता वा। अथवा अपगतं ऋणं यस्या. सेति । तदुक्तं देवीस्तवे 'ऋणमिष्टमदत्त्वैव त्वन्नाम जपतो मम । शिवे ! कथमपर्णेति रूढि रायते न ते ।' प्रत्यक्षं पश्यतो लोकस्य, तापनिरासाय संतापापनुत्त्यै, सपर्णा पर्णमात्मनि गृहणाना । वर्णेभ्यः पश्चाशतस्त्रिपण्टेर्वा अतीता अतिक्रान्ता । अथवा वर्णाः सत्वरजस्तमांसि, तेभ्यः अतीता निष्क्रान्ता, साम्यावस्थाभिमानिनी इत्यर्थः । वर्णविशेषान् मातृकोद्भवान् मन्त्रशरीरघटकान् जुषमाणा सेवमाना । वैचित्र्यस्य नानाविधस्य प्रमातृप्रमेयपरिगतस्य उद्भासनाय वहिरुल्लासाय याः सूनाः तनयात्वमनुप्रपन्नाः स्वाङ्गादेवोल्लसन्त्यः सहस्राधिकाः शक्तयः, तासां आवलिः पङ्क्तिः, तस्याः वल्ली व्रततीम् । ६-नीपानां कदम्बकुसुमानां श्रेणी वीथीं शालते तथाभूते, कदम्बप्राकारपरिवृते चिन्तामणिगेहे पीठासीनाम् । पीठमिह श्रीमातुरुपवेशनार्थ पञ्चभिव्रह्मभिनिर्मितो मञ्चकविशेपः, तत्र आसीनाम् उपविष्टाम् । श्रावृतिचक्रः आवृतीनां आवरणदेवतानां चक्रः समुदायः उपगूढां कृतपरिरम्भाम् । ब्रह्मादिभ्य. ब्रह्मविष्णुरुद्रेभ्यः वाञ्छितमिष्टमर्थ प्रयोजनजातं प्रथयन्ती पातन्वतीम् । चिन्तामणिगेहं भगवत्याः प्रधान वासभवनम् । तच्च 'सुधासिंधो मध्ये सुरविटपिवाटीपरिवृते मणिद्वीपे नीपोपवनवति चिन्तामणिगृहे । शिवाकारे मञ्चे परमशिवपर्यङ्कनिलयां भजन्ति त्वां धन्या. कतिचन चिदानन्दलहरीम् ।।' इत्येवमुपवर्ण्यमानं अलौकिकं किमपि दिव्यमागारम् । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम-स्तवः स्फूर्जत्सान्द्रामोदतरङ्गावलिलीनै रर्चामाप्तां, पोडशमुख्यरुपचारैः। उद्यन्नानालङ्क तिरत्नश्रुतिपुञ्जा, वन्देऽमन्दद्योतकदम्बां जगदम्बाम् ॥७॥ माद्यद्द वारन्धनमस्यानिकुरम्बा, व्यापच्छैलच्छेदविलक्षीकृतशम्बाम् । ७-स्फूर्जत् स्फारस्फुरत् , यः सान्द्रः प्रामोदः घनानन्दः, तस्य या तरंगावलिः वीचिप्रवाह', तत्र लीनः अन्तःसंपृक्तैः, पोडशमुख्यैः गन्धादिभिरुपचारैः भावोपहारायमाणैः । यत्तु परमाद्वयदर्शने संविन्मयतयावस्थानमेव यागः, तत्समापत्तिरेव च फलमिति प्रतिपादयता स्वात्मतया प्रत्यभिज्ञानमेव इह पूजापदार्थ इत्यादि सिद्धान्तितम् , तत्केवलं उत्तमाधिकारिपरमेव मन्तव्यम् । अस्मदादीनाम् लौकिकउपासनामार्गस्त्वस्माद् भिन्नप्रणालिक एवेति देशिकसमयः। तत एव च तन्त्रालोके 'पूजा नाम न पुष्पायर्या मतिः क्रियते दृढ़ा। निर्विकल्पे महाव्योम्नि सा पूजा ह्यादराल्लयः ।। इत्यादि पठ्यते । अतएव आगमविदः 'इन्द्रियद्वारसंग्राह्य र्गन्धाद्यरात्मदेवता । स्वभावेन समाराध्या ज्ञातु सोऽयं महामखः ॥ इति । तथा - 'करणेन्द्रियचक्रस्थां देवों संवित्स्वरूपिणीम् । विश्वाहंकृतिपुष्पैस्तु पूजयेत् सर्वसिद्धये ।।' इत्येवमादि च प्रतिपद्यन्त इति सुदूरेक्षिकया पर्यालोच्यम् । उद्यन्त्यः चकासन्त्य., याः नाना अनेकाः अलंकृतयः आभूषणानि, तासु जटितानां रत्नानां धु तिपुञ्जः दीप्तिचयः अस्ति अस्याम् । ८-माद्यन्तः हर्षोल्लासपरीताः, देवाः द्रुहिणप्रभृत्तयः, तैः प्रारब्धा. प्रवर्तिताः, याः नमस्याः नतय., तासां निकुरम्बः समूहः अस्ति अस्याम् । व्यापदां भयकरापदां यः शैलः कूटः, तस्य च्छे देन सम्यगुच्छेदेन, विलक्षीकृत. विस्मयमानीतः शम्बो वनमनया, ताम् । आज्ञादाने अनुचरत्वमापन्न भ्यो ब्रह्मादिभ्यः आदेशप्रदाना Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः श्राज्ञादानान्दोलनहृद्याधरविम्ब, वन्देऽमन्दद्योतकदम्बां जगदम्बाम् ॥८॥ ब्रह्मविष्णुमहेशांश्च गमयन्ती महर्षिताम् । १ यन्त्रात्मना परिणता पुनातु परमेश्वरी ॥६॥ || इत्यम्वा-वन्दना ||८|| वसरे यत् आन्दोलनं इतस्ततो वा विजृम्भणं तेन हृद्यं रमणीयं अधरविम्वं अधरोष्ठकान्ति र्यस्याः ताम् । ६- ब्रह्मविष्णुमहेशान् महर्पितां महर्षिभावं, गमयन्ती प्रथयन्ती, यन्त्रात्मना त्रिकोणादियन्त्राकारेण परिणता परिणतिमासादयन्ती परमेश्वरी परब्रह्म महिषी पुनातु पवित्रयतु लोकान् । इह ब्रह्मादीनां ऋपित्वमित्युत्कर्षस्य पराकाष्ठा । 'अतस्त्वामाराध्यां हरिहर विरिञ्च्यादिभिरपि' इति, तथा 'त्वदन्य. पाणिभ्यामभयवरदो दैवतगणः, त्वमेकानैवासि प्रकटितवराभीत्यभिनया' इति च वस्तुस्थितिकथनमेव प्रतिपत्तव्यं, न पुनश्चाटूक्तिरिति शम् । ॥ इत्यम्बा-वन्दना ॥ १ - यन्त्रपदेन श्रीचक्रमिह परामृश्यते । यन्महिमाशंसनं वेदेषूपनिषत्सु च विविधभङ्गिभिरुपवर्ण्यमानं परीच्यते । अस्योद्धारो यामले 'विन्दुत्रिकोणवसुकोणदशारयुग्म मन्वस्रनागदल संयुतषोडशारम् । वृत्तत्रयं च धरणी सदनत्रयं च श्रीचक्रमेतदुदितं परदेवतायाः ॥' इति । एवं - 'चतुर्भिः शिवचक्रश्च शक्तिचक्रश्च पश्चभिः । शिवशक्त्यात्मकं ज्ञेयं श्रीचक्रं शिवयो वपुः ॥ इति च । शिवशक्तिसंपुटमचे मोमसूर्यानलात्मके चास्मिन् यन्त्रराजे ऊर्ध्वमुखानि त्रिकोणानि शिवात्मकानि अधोमुखानि च शक्त्यात्मकानीति प्रतिपत्तव्यम् । 'अधोमुखं चतुष्कोणं शिवचक्रात्मकं विदुरित्यपि तन्त्रान्तरानुशिष्टो मार्गः । तत्र च यथाम्नायं स्व-स्वदेशिकमतानुसरणमेव शरण्यं प्रतीमः । एकमपीदं मातृकादितादात्म्यमहिम्ना मेरु- कैलास - भूप्रस्तारैस्त्रिधा पर्यवस्यति । अस्योल्लेखप्रकारोऽपि संहार-सृष्टि-स्थितिभेदैः कल्पसूत्र- विशुद्ध श्वरतन्त्रादिष्वनेकधा प्रपचित इति । सुन्दरीतापिनी - प्रपञ्चसारसंग्रह- वामकेश्वरादिषु च भूयानस्य विस्तर इत्यधिकं तत एव द्रष्टव्यम् । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम-स्तवः नवम-स्तवः। रक्तामरीमुकुटमुक्ताफलप्रकरपृक्ताङ्घ्रिपङ्कजयुगां, व्यक्तावदानसृतसूक्तामृताकलनसक्तामसीमसुषमाम् । युक्तागमप्रथनशक्तात्मवादपरिषिक्ताणिमादिलतिकां, भक्ताश्रयां श्रय विविक्तात्मना धनघृणाकामगेन्द्रतनयाम् ॥१॥ आद्यामुदग्रगुणहयाभवन्निगमपद्यावरूढसुलभां, गद्यावलीवलितपद्यावभासभरविद्याप्रदानकुशलाम् । नवम-स्तवः । १-रक्ताः अनुरक्ताः, या अमर्यः देवाड्गनाः तासां मुकुटेषु मुक्ताफलानां यः प्रकर' समूहः, तेन पृक्त चुम्बितं अनपङ्कजयो. पदपद्मयोयुगे युगल यस्याः । व्यक्तं प्रसिद्ध यत् अवदानं कर्मवृत्त, तेन सृत व्याप्त सूक्तं प्रशंसावाद, एब अमृतं तस्य आकलने श्रवणे सक्तां प्रसक्ताम् । असीमा सीमामतिक्रान्ता सुषमा सौन्दर्य यस्याः सा ताम् । युक्त. योग्यतया संमत , यः आगमः अर्धनारीश्वरमुखोद्गत, तस्य प्रथने प्रख्यापने, शक्तः सामर्थ्यभरित , य. आत्मवादः अहमामर्शः तेन परिषिक्ता आर्द्राकृता अणिमादिलतिका यस्या सा ताम् । भक्तस्य आश्रया शरणीभूता, ताम् । विविक्तः दम्भाहकारादिशून्यः स चासौ आत्मा च तेन । धना निविडा या घृणा अनुकम्पा तया श्राक्तां आर्द्राम् । अगानां इन्द्रः हिमालयः तस्य तनयाम् । श्रय शरणं प्रपद्यस्व । २-आद्यां मूलकारणरूपां, उग्राः उत्कटा. ये गुणा दयादाक्षिण्यादयः तैः हृद्या मनोज्ञा भवन्ती, निगमपद्या तन्त्रानुशिष्टो मार्ग , तस्मिन् अवरूढानां, परिनिष्ठितानां कृते सुलभा सुखेन लभ्या । गद्यानां अपादाना पदसमूहानां या श्रावली वीथी, तया वलित. समेत. य. पद्यानां छन्दोबद्वाना अवभासभर. स्फूर्तिप्राचुयें, तथाविधायाः विद्यायाः ज्ञानराशेः प्रदाने वितरणे कुशलां निपुणाम् । विद्याधरीभिः किन्नरवधूभिः विहितं सपादितं, पादाय हितं पाद्यं पादप्रक्षालनजलं तदादिकं यस्या , ताम् । भृशं अत्यन्तं यथास्यात्तथा अविद्याया अज्ञानस्य अवसादनं उच्छेदः तस्य कृते निरवद्या सुन्दरा प्राकृतिर्यस्या. ताम् । मननेन अन्त Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः विद्याधरीविहितपाद्यादिकां, भृशमविद्यावसादनकृते। हृद्याशु धेहि निरवद्याकृति मननवेद्यां महेशमहिलाम् ॥२॥ हेलालुलत्सुरभिदोलाधिकक्रमणखेलावशीर्णघटना लोलालकग्रथितमालागलत्कुसुमजालावभासिततनुम् । लीलाश्रयां, श्रवणमूलावतंसितरसालाभिरामकलिका, कालावधीरणकरालाकृति, कलय शूलायुधप्रणयिनीम् ॥३॥ खेदातुरः किमिति भेदाकुले, निगमवादान्तरे परिचिति क्षोदाय ताम्यसि वृथादाय भक्तिमयमोदामृतकसरितम् । र्भावनया वेद्यां वेदितुं योग्याम् । महेशस्य शिवस्य महिला पत्नोम् । हृदि आशु घेहि धारय । ३-हेलया विलासेन लुलन्ती विलुठन्ती या सुरभे वसन्तसमयस्य दोला, 'हिन्दोलेति' प्रसिद्धा तस्याः अधिकक्रमणे पद्भ्यां अतिवेगेन परिचालने या खेला क्रीड़ा, तया अवशीर्णा विपर्यस्ता घटना केशपाशो यस्याः सा तथाभूता । लोलाः चञ्चलाः येः अलकाः चिकुराः तेषु ग्रथिताः गुम्फिता. याः मालाः पुष्पस्रजः ताभिः गलन्तः अधोनिर्गच्छन्तः ये कुसुमजालाः पुष्पप्रकराः तैरवभासिता शोभिता तनुर्देहो यस्याः, ताम् । लीला विलासः आश्रयो यस्याः, ताम् । श्रवणमूले कर्णप्रान्ते अवतंसिता विभूषिता रसालस्य चूतस्य अभिरामा मनोहारिणी कलिका मञ्जरी यस्याः ताम् । कालस्य अन्तकस्य अवधीरणे अवज्ञायां तत्प्रतिद्वन्द्वितया कराला भयोत्पादिनी आकृतिः स्वरूपं यस्याः ताम् । शूलं त्रिशूलं आयुधं प्रहरणं यस्य सः शुलायुधः शङ्करः, तस्य प्रणयिनी प्रियसहचरीम् कलय हृदि भावय । ४-भक्तिमयं भक्त्युच्छलितं यत् आमोदामृतं तस्य एका सरित् तरंगिणी ताम् । आदाय अविगम्य । भेदैः अन्योन्यमतोपमर्दकैः प्रस्थानः आकुले संकुले, निगमस्य वेदादे यो वाद अहंपूर्विकया जल्प. तदन्तरे परिचितये परिचयमधिगन्तु यः क्षोदः आम्रडनम् तस्मै । खेदातुर. विषादव्यप्रः सन्, किमिति वृथा निरर्थक ताम्यसि विलश्यसि । पादौ एव अवनी धरित्री, भगवत्याश्चरणयोरवनी वेन आगमे निरूपणात् । तस्या या विवृतिः विवरणभूता वेदावली त्रयी, तस्याः स्तवननादः स्तुतिशब्दः अस्ति यस्यां सा, ताम् । उदित्वरायाः वृद्धिंगतायाः Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम-स्तवः पादावनीविवृतिवेदावलीस्तवननादामुदित्वरविप च्छादापहामचलमादायिनी भज विषादात्ययाय जननीम् ॥४॥ एकामपि त्रिगुणसेकाश्रयान्पुनरनेकामिधामुपगतां, पङ्कापनोदगततकाभिषङ्गमुनिशङ्कानिरासकुशलाम् । अङ्कापवर्जितशशाङ्काभिरामरुचिसंकाशवक्त्रकमलां, मूकानपि प्रचुरवाकानहो विदधतीं कालिकां स्मर मनः ॥५॥ वामां गते, प्रकृतिरामां स्मिते, चटुलदामाञ्चलां कुचतटे, श्यामां वयस्यमितभामां वपुष्युदितकामां मृगाङ्कमुकुटे । विपदः यः छादः छादनं तं अपहन्ति, ताम् । विपच्छायाप्रमाथिनीमित्यर्थः । अचला स्थिरा यामा लक्ष्मीः तस्याः दायिनीम् । जननी विषादात्ययाय खेदापगमाय भज सेवस्व । ५-एकां अद्वितीयां अपि, त्रिगुणानां सत्वरजस्तमसां यः सेकः आर्दीकरणं, तदाश्रयात् तत्कारणात् पुनः अनेकाभिधां नानाभिधेयतां उपगतां प्राप्तां, असंख्यैर्नामभिरभिहितामित्यर्थः । पङ्कस्य पापस्य अपनोदगतः निवारणोत्त्य यः तङ्कः दुःखं तस्य अभिषगण पराभवेन 'अभिषङ्गः पराभवे' इत्यमरः । मुनीनां या मुक्तिविषयिणी शङ्का सन्देहः तस्य निरासे निरसने कुशला, ताम् । अङ्कापवर्जितः कलङ्करहित , य शशाङ्क चन्द्र' तस्य या अभिरामा हृद्या, रुचिः शोभा तत्सकाशं तत्तुल्यं वक्त्रकमलं मुखाम्बुजं यस्याः सा ताम् । मूकान वाक्शक्तिरहितानपि प्रचुरः वाकः येषां तान् वाचालान् विदधतों सम्पादयन्ती, हे मनः ! कालिकां श्यामां स्मर चिन्तय । दक्षिणदेशीयो मूककविसार्वभौमः अम्बाप्रसादात् 'मूकपञ्चशती' प्रणिनायेति लोकप्रसिद्धिः । ६-गते गमने वामां मनोहरां, स्मिते ईषद्धसने प्रकृतिरामा नारीस्वभावां,कुचतटे स्तनतटे, चटुल चञ्चलं दाम एव अञ्चलं अंशुकं यस्याः सा ताम् । वयसि श्यामां षोडशवार्षिकी तरुणीम् । वपुषि शरीरे अमितः भामः क्रोघो यस्याः, सा ताम्। मृगाङ्क. चन्द्रः मुकुटे यस्य तस्मिन् महेश्वरे उदितः उदीर्णः कामः इच्छाविशेपो यस्या ताम् । मीमांसाम् वेत्ति अधीते वा इति मीमांसिका, ताम् , सिद्धान्तप्रतिष्ठापिकाम् । दुरितस्य या सीमा पराकाष्ठा तस्या अन्तिकां अन्तकरीम् । मयस्य Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः मीमांसिकां, दुरितसीमान्तिकां वहलभीमां भयापहरणे - नामाङ्कितां, द्रुतमुमां मातरं, जप निकामांहसां निहतये ॥६॥ सापायकांस्तिमिरकूपानिवाशु वसुधापान भुजङ्गसुहृदो हापास्य मूढ ! बहुजापावसक्तमुहुरापाद्य वन्द्यसरणिम् ।। तापापहां, द्विपदकूपारशोषणकरी, पालिनी त्रिजगताम् ., . पापाहिता, भृशदुरापामयोगिभिरुमां, पावनी परिचर ॥७॥ स्फारीभवत्कृतिसुधारीतिदां, भविकपारीमुदर्करचना-.'. . . . . कारीश्वरी, कुमतिवारीमृषिप्रकरभूरीडितां, भगवतीम् । अपहरणे दूरीकरणे, बहलं भीमं यस्याः, ताम् अतिदारुणाम् । नामभिः सहस्रनाम्ना अङ्कितां निर्दिष्टाम् । उमां मातरं पार्वती, निकामानि पर्याप्तानि यानि अंहांसि दुरितानि तेषां निहतये अपनुत्तये द्रुतं जप सेवस्व । ... ७-हा इति खेदे अव्ययम् । मूढ ! मुग्धमते ! तिमिरस्य तमसः कूपान् गर्तानिव आशु अपायकैः सहिताः तान् , विनाशोन्मुखान् । भुजङ्गाः, विटाः सुहृदः सखायो येवां तान् । वसुधां पान्ति इति वसुधापाः भूभूजः तान् । अपास्य दूरमुत्सृज्य, बहु जापावसक्तः बहु विपुलं यथा स्यात् तथा जपनिष्ठः सन् , मुहुः भूयोऽपि, वन्द्यसरणिं लोकानुमतशासनाम् । तापं त्रिविधं संतापं अपहन्ति, ताम । द्विषतां शत्रूणां य. अकूपारः समुद्रः, तस्य शोषणकरीम् । त्रिजगतां त्रयाणां लोकानां पालनी योगक्षेमसम्पादिनीम् । पान्ति अस्मादात्मानं इति पापं तस्मै अहितां नाशकतया विरोधिनीम् । अयोगिभि. संयमादिशून्यै. इतस्ततो व्यासक्तचित्तश्च जनै भृशं अत्यन्तं दुरापां दुःखैकलभ्यां, पावनी पावित्र्यभूमि उमा शैलतनयाम् पार्वती परिचर परिचर्यापरो भव । ८-स्फारीभवन्ती विकाशमुपगच्छन्ती याः कृतिः रचनारूपो गुम्फः, तस्यै सुधारीर्ति पीयूपप्रस्रवणं ददाति तथाभूताम् । भविक कल्याण तस्य पारी पयःपूरम्, लोके 'भारी' इति प्रसिद्ध जलपात्रं कल्याणकलशीमित्यर्थः । पारयति पार्यते वा 'पृ पूत्तौ' घम् डीप च । गर्गरीपूरयोः पारी' इति विश्वः । उदकस्य भाविन. कर्मफलस्य 'उदर्क एष्यत्कालीनफले मदनकण्टके' इति मेदिनी । या रचना निर्माण तस्य कारि शिल्पिनी, सा चासौ ईश्वरी स्वामिनी च ताम् । कुमतेः Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम-स्तवः चारीविलासपरिचारी भवद्गगनचारी हितार्पणचणां, मारीभिदे गिरिशनारीमम्प्रणम, पारीन्द्रपृष्ठनिलयाम् ॥८॥ ज्ञानेन जातेऽप्यपराधजाते विलोकयन्ती करुणादृष्ट्या । अपूर्वकारुण्यकलां वहन्ती, ___सा हन्तु मन्तून् जननी हसन्ती ॥६॥ ॥ इति आदेशाश्वधाटी ॥६॥ कुबुद्धः कृते वारी बन्धनरज्जुः ताम। वार्यते अनया इति वारी । '' धातोणिच इन् च । 'वारी स्याद् गजबन्धिन्यां कलस्यामपि योषिति' इति मेदिनी ! ऋषिप्रकरैः ऋषिसङ्घ भूरि ईडितां स्तुताम् 'ईड स्तुतौ' । भगवतीं ऐश्वर्योल्लासिनीम् । चारः चारुगतिः नृत्यांगविशेषभूतः पदनिक्षेपः स अस्ति अस्यां, तस्या यो विलासः तेन परितः चारो अस्ति अस्याः तथाभूता भवन्ती गगनचारी आकाशचारी । भूमिचार्याकाशचार्यादिषोडशचारीणां लक्षणानि संगीतग्रन्थेषुद्रष्टव्यानि । हितानां अर्पणं प्रसादीकरणम् तेन वित्ता चणा ताम् । मारी महामारीभयं भिनत्ति, तस्मै । गिरिशनारी शिववल्लभाम् । पारीन्द्रः सिंहः, तस्य पृष्ठं निलयो यस्या. सा ताम् । प्रणम प्रणतिपरो भव । ____-ज्ञानेन बुद्धिपूर्वकं अपराधजाते आगः समूहे, जाते अपि करुणाट्या करुणासिक्तदृशा, विलोकयन्ती सस्नेहं पश्यन्ती, सा जननी अपूर्वा अप्रतिमा या कारुण्यकला करुणोदयः ताम् । वहन्ती धारयन्ती, हसन्ती हासमाचरन्ती मन्तून् अपराधान् । 'आगोऽपराधो मन्तुश्चेत्यमरः । हन्तु दूरीकरोतु । - ॥ इत्यादेशाश्वधाटी । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ दुर्गा - पुष्पाञ्जलिः दशम- स्तवः । श्रये ! मातरव्याजकारुण्यपूर्णे ! पदं तावकं मामकं चित्तमेतु । जगद्वासनाभासनाधर्पणाभिः परिक्लिष्टमालम्बमन्विष्यते मनोभूतम श्रान्तमश्रान्तमेत्र, भ्रमद्भ ूतसर्गेषु नो शंशमीति 1 न विन्देऽरविन्देक्षणे ! स्वास्थ्यभावं वत् ॥१॥ भवत्याः प्रसादं समन्तात् प्रतीक्षे ||२|| शरण्ये ! भवत्या लभे येन पादं न मय्यस्ति तादृग्गुणस्यांशकोऽपि । दशम- स्तवः । १- ये इति कोमलामन्त्रणे अव्ययम् । मातः ! जननि ! अव्याजं निर्मायं यत् कारुण्यं करुणारसप्रवाहः तेन पूर्णे ! भरिते ! मामकं मदीयं चित्तं तावकं त्वदीयं पदं चरणाम्बुजं एतु अधिगच्छतु । जगद्वासनाः संसारोत्था एषणापरपर्याया मनोभिलाषाः । तासां या भासना उद्दामविजृम्भणाः, तासां घर्षणाभिः अवमाननाभिः परिक्लिष्टं व्याकुलीभूतं मनः, अतएव मया तत् चरणरूपं लम् अवलम्वं अन्विष्यते मृग्यते । २- अश्रान्तं अशान्तं यत् मनोभूतं पिशाचस्वभावं मनः, दुर्निग्रहतया मनसो भूतत्वरूपणम् । भूतसर्गेषु पञ्चभूतान्तःपातिनीषु सृष्टिपरम्परासु श्रश्रान्तं निरर्गलं यथा स्यात् तथा भ्रमन् आहिण्डमान. नो शंशमीति सम्यक्तया नो शाम्यति । शाम्यतेर्यङ्लुगन्ताल्लट् | अरविन्दवत् ईक्षणं नयनं यस्याः सा तत्संबुद्धिः । कमललोचने इत्यर्थः । स्वास्थ्यभावं शमसुधोर्जितां श्रात्मनः स्वाभाविक स्थिति, न विन्दे नलभे । भवत्याः प्रसादं अनुग्रहं समन्तात् सर्वतः प्रतीक्षे आशोन्मुखः प्रतिपालये । ३- शरणे साधुः शरण्या, तत्संबुद्धिः । शरणागतवत्सले ! येन यत्प्रभावेण भवत्याः पादं चरणशरणं लभे, ताच्कू तथाभूतः गुणस्य ज्ञानविनयादेः अंशकोऽपि लवोऽपि मयि नास्ते न वर्तते । सर्वथाहं गुणैः परिवर्जित इत्यर्थः । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम-स्तवः परित्राणकत्रि ! त्वमेवात्मदृष्ट्या रुजाजालजीर्णाङ्गक मामवाशु ॥३॥ यदाचार्यमूर्त्या भवत्या प्रदिष्टं न तत्साधने सावधाना मतिर्मे । अहो विस्फुरद्वासनाक्लेशपाशा __वृतो बम्भ्रमीम्याशु मातः ! प्रसीद ॥४॥ लमद्भ रिसिन्दूरपूरप्रकाशं किमप्युद्यदुद्दाममोदप्रवाहम् । अकम्पानुकम्पापरीतं प्रसन्न भवत्याः स्वरूपं ममान्तश्चकास्तु ॥५॥ परित्राणकत्रि रक्षणपरायणे, त्वं एव भवती एव आत्महष्ट्या स्वतः प्रवृत्तया दयाहशा, रुजायाः विविधप्रकृतिकस्य रोगवृन्दस्य यो जालः इन्द्रजालसदृशः, तेन जीर्ण जरायुक्तं अङ्ग देहो यस्य, तम् । मां अनन्यगतिकम् । आशु सत्वरं अव रक्ष । प्रार्थनायां लोट । ४-आचार्यमूल् गुरुमूल् । आचार्यश्च 'आम्नायतत्त्वविज्ञानाचराचरसमानतः । यमादियोगसिद्धत्वादाचार्य इति कथ्यते ॥ इत्युक्तलक्षण । 'तामिच्छावित्रहां देवों गुरुरूपां विभावयेत्' इत्यागम. । भवत्या त्वया यत्प्रदिष्ट कर्तव्यतयादिष्टं तत्साधने तस्य संपादने मे मतिः प्रज्ञा न सावधाना न जागरूका | अहो इति खेदे अव्ययम् । विस्कुरन्ती विस्फूर्जन्ती या वासना मनोमञ्जरी सा एव क्लेशपाशः दुःखजन्मा बन्धनरज्जु', तेन आवृतः निगडितः वम्भ्रमीमि इतस्ततः पर्यटामि । हे मातः ! आशु प्रसीद प्रसन्ना भव । ५-लसत् विद्योवमानः यः भूरि बहलः सिन्दूरपूरः सिन्दूरप्रवाहः तस्य प्रकाशः उद्योतो यस्मिन् तत् । किमपि चेतोहारि, उद्यतः उद्गच्छतः, उद्दाममोदस्य प्रमोदातिशयस्य प्रवाहः परीवाहो यस्मिन् तत् । अकम्पा दृढा या अनुकम्पा तया परीतम् परिपूर्ण प्रसन्न प्रसादयुक्त भवत्याः स्वरूपं अरुणप्रभापूर ममान्तः अन्तरात्मनि चकास्तु उल्लसतु । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः चतुर्वर्गसम्पत्प्रदानप्रवीणैः, स्फुरद्भिश्चतुर्भिभुजैर्भासमानम् । धनुर्वाणपाशाङ्क शं साधु विभ्र भवत्याः स्वरूपं ममान्तश्चकास्तु ॥६॥ ६-चतुर्णा वर्गः चतुर्वर्गः, धर्मार्थकाममोक्षाणां समवायः स एव परमाभिलषणीयतया संपत् संपत्तिः । तस्या प्रदान वितरणे प्रवीणैः निष्णातैः, स्फुरद्भिः शोभामावहद्भिः, चतुर्भिः चतुःसंख्याकैः भुजैः हस्तै र्भासमानं दीव्यन्तम् । धनुः पुण्ड्रेतुमयं चापः । वाणाः पुष्पमयाः सायकाः । पाशांकुशौ स्वनामप्रसिद्धौ । साधु यथा स्यात् तथा बिभ्रत् धारयत् भवत्याः श्रीमत्याः स्वरूपं सर्वाङ्गसुभगं ममान्तः हृदयाम्बुजे चकास्तु दीव्यतु । अस्या एव 'आधाराब्जे धनुर्वाणवरदाभयलक्षिताम् । ध्यायेद् बन्धूकपुष्पाभां कामराजस्वरूपिणीम् ॥' इत्येवमादीनि कामनाघटकानि ध्यानानि । तत एव परापरवासनाभैदेरेकस्य एव वस्तुनः सहस्रधा क्रियमाणं वर्णनवैचित्र्यं नातिभिद्यते । अतएव च उत्तरचतुःशत्यादिपु 'इच्छाशक्तिमयं पाशमंकुशज्ञानरूपिणीम् । क्रियाशक्तिमये वाणधनुपी दधदुज्ज्वलम् ।' तथा 'मनो भवैदिक्षुधनुः पाशो राग उदीरितः । द्वषः स्यादड्कुशः पञ्चतन्मात्राः पुष्पसायकाः ।।' इति तन्त्रराजादिपु प्रतिपादितं तत्त्वोपवृहणं मन प्रसादफ्लकमेकवाक्यतयैव नैतव्यम् । योगवासिष्ठादिपु 'सामान्यं परमं चेति व रूपे विद्धि मेऽनघ ।। पाण्यादियुक्तं सामान्यं यत्तु मूढा उपासते ॥ परं रूपमनाद्यन्तं यन्ममैकमनामयम् । ब्रह्मात्मा-परमात्मादि शब्दैरेतदुदीर्यते ॥' इत्युक्तरुपा सरणिस्तु सामान्यजनगम्या प्रचरत्येव इति किं वहूक्त्या । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दशम-स्तवः ... शिवे ! यत्र नेत्रायते त्रायतेऽपि . . . . . . ..... स्फुरन्नर्यमा चन्द्रमा जातवेदाः । तदाह्रादि कामेश्वराङ्कानुषक्त ...", " - भवत्याः स्वरूपं ममान्तश्चकास्तु ॥७॥ तदास्तां, त्वदीयं स्वरूपं विरूपं .. ... यदुद्भासने श्रन्तिमेत्यागमोऽपि । -शिवे ! शिवस्वरूपिणि ! यत्र निसर्गसुन्दरे तव रूपे स्फुरन् अर्यमा औदयिकावस्थो रक्तवर्णः सहस्रकिरणः, चन्द्रमा पूर्णकल . सुधांशु', जातवेदाः प्रदीप्तो ज्वलन । नेत्रायते नेत्रमिवाचरति आचारार्थे क्यड लोचनायत इत्यर्थः ।। ब्रायते. अपि, रक्षाकर्मयपि जागरूकम् । 'त्रैड् पालने' कर्तरि लट् । किमियता, त्रिभिरेभिरेवाधिष्ठितं सकलमिदमाभाति भुवनतलमिति त्रयोऽप्येते, विश्वस्य स्फूर्तिप्रदातारो अवन्त्यस्मान् । अतएव लघुस्तवे- ... - 'देवानां त्रितयं त्रयी हुतभुजां शक्तित्रयं त्रिस्वरा . स्त्रैलोक्यं त्रिपदी त्रिपुष्करमथो त्रिब्रह्म वर्णास्त्रयः। - - यत् किंचिजगति त्रिधा नियमितं वस्तु त्रिवर्गात्मकं, . .. ... - - तत्सर्व त्रिपुरेति नाम भगवत्यन्वेति ते तत्वतः ॥ इति । एवं तन्त्रराजादिषु त्रिकूटाविद्यायामेषों. एकैककूटाधिपत्यमभिदधता मूल'विद्यया सह अभेदः प्रकाशितः। तदित्यम्- - ।। २. . . . 'नित्यानित्योदिते मूलाधारमध्येऽस्ति पावकः ।। सर्वेषां प्राणिनां तद्वद्धृदये च. प्रभाकरः॥ मूर्धनि ब्रह्मरन्ध्राधश्चन्द्रमाश्च व्यवस्थितः । तत्त्रयात्मकमेव स्यादाद्यानित्या-त्रिखण्डकम्-' --', तत् आह लादि पूर्णोल्लासकर कामेश्वरस्य- शिवस्य अङ्कानुषक्तं उत्सझोपगूढ अर्धनारीश्वरात्मना परिणतमिति भाव । भवत्या स्वरूपं मम चरणासक्तस्य अन्तः हृदयाकाशे चकास्तु विलसतु। ८-त्वदीयं भवत्याः, विरूपं निर्गुणं सूक्ष्म वा रूप प्रास्ता, यथायथं तिष्ठतु तावत् । दुर्जेयतया तस्य तु प्रसङ्ग एव नायाति । यदुद्भासने यस्य विस्फारकरणे, आगमः आम्नायोऽपि, श्रान्ति एति विश्रान्ति भजते । वेदादयोऽपि तव निराकारायाः वर्णने विश्रान्ता इत्यर्थः । वयं तु, तत् कारुण्यामृतकोमलं महेशानुपङ्गि महेश्वरासक्तं स्फुरत् यत् सान्द्रकारण्यं करुणोजित.कटाक्ष Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः तां व्यामृशामि विश्वेशी दहराकाशरूपिणीम् ॥३॥ यदाज्ञया स्वस्वकृत्ये पञ्चभूतानि जाग्रति । तां सिद्धिपाणिग्रहणकल्याणकलशी . स्तुवे ॥४॥ 'वितर्कविचारानन्दास्मितारूपानुगमात् . संप्रज्ञातः ।' विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः ।' (यो० द. १. १७-१८) ध्यानोत्कर्षमहिम्ना कर्तृकरणानुसन्धानमन्तरेणैव ध्येयमात्रगोचरतया निर्भासमानः समाधिः । स एव यथाविधि सेवितः निरस्तरजस्तमस्तोमः सत्त्वगुणस्योद्रे कात् यथोत्तरमुत्कर्षभूमिमश्नुवानः, चिरतरमासेव्यमानश्च संप्रज्ञातः । अस्यापि निरोधे सर्ववृत्तिनिरोधरूपो निर्वीजश्व द्वितीयः परिणमति । भवति चात्र सारसंग्राहिका पद्यद्वयी-- - . 'ब्रह्माकारमनोवृत्तिप्रवाहोऽहंकृति विना। . . संप्रज्ञातसमाधिः स्यात् ध्यानाभ्यासप्रकर्षत. ।। मनसो वृत्तिशून्यस्य ब्रह्माकारतया स्थितिः । यासंप्रज्ञातनामासौ समाधिरभिधीयते ।।' इति । अन्तः हृदयागारे, प्रत्यक्षीक्रियते अनुभवमार्ग नीयते । तां दहराकाशरूपिणीं दहरपुण्डरीकात्मना भासमानां, विश्वेशी विश्वेषामीश्वरीम्, व्यामृशामि अन्तःपरामशामि । दहरमहिमा छान्दोग्योपनिषदि एवं श्रूयते 'अथ यदिदमस्मिन् ब्रह्मपुरे दहरं पुण्डरीकं वेश्म, दहरोऽस्मिन्नन्तराकाश', तस्मिन् यदन्तः, तदन्वेष्टव्यं तद्वाव विजिज्ञासितव्यम् ।' इति । - स्तुतिकुसुमाञ्जलावपि भन यन्तरेण- - 'ओमिति स्फुरदुरस्यनाहतं ... .. . . . . गर्भगुम्फितसमस्तवाड्मयम् । दन्ध्वनीति हृदि यत्परं पदं तत्सदतरमुपास्महे मह' ॥ इत्याधु पश्लोकितम्। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश- स्तवः श्यामामपि परिस्फूर्जतडित्कान्तकलेवराम् । वन्दे त्रिविग्रहां नानाविग्रहामप्यविग्रहाम् ||५|| संसारसर्प- संदष्ट-स्वास्थ्यसंपादनोद्यताम् । श्रये ॥६॥ उद्यत्सान्द्रदयादृष्टि-दृष्ट-भक्तकुलां दुर्वासनासरिन्मग्नसमुद्धरण तत्पराम् । उपासे परमेशानीं स्थास्नुसौहित्य साधनीम् ||७|| ४- यदाज्ञया यन्निदेशमनुवर्तमानाः, पञ्चभूतानि पृथिव्यादीनि, स्वस्वकृत्ये स्वस्यव्यापारजाते जाप्रति व्याप्रियन्ते । तां सिद्धिरूपाभ्यां पाणिभ्यां ग्रहणं आदानं यस्य एवंभूतस्य कल्याणस्य मङ्गलस्य कलशीं पयःपूरम् स्तुवे स्तौमि । 'ष्टु स्तुतौ ।' ६१ ५ - श्यामां रजस्तमोबहुलामपि सत्त्वाश्रयां शांभवीम्, तथा च गौडपादीयं सूत्रम् - ' शांभवीविद्या श्यामा' इति । एवं देवीभागवते ऽपि 'शांभवी शुक्लरूपा च श्रीविद्या रक्तरूपिका । श्यामला श्यामरूपास्यादित्येता गुणशक्तयः ।।' इति । परिस्फूर्जन्ती स्पष्टमुल्लसन्ती या तडित् विद्युत् तद्वत् कान्तं मनोहरं कलेवरं वपु र्यस्या' सा ताम् । त्रिपुरसुन्दरीविप्रहामित्यर्थः । त्रिविमां त्रयो विग्रहाः इच्छा - ज्ञान-क्रियारूपाः यस्याः सा ताम् । नाना अनेके विग्रहाः शरीराणि यस्या, ताम् । अनेकशक्तित्रातरूपेणस्फुरन्तीं जगदात्मना वा उल्लसिताम् । अविग्रहां निराकाराम् । साकार निराकाररूपाभ्यां अनेकधा परिणमन्तीमिति परमार्थः । घन्दे प्रणतोऽस्मि । 'वदि अभिवादनस्तुत्यो' इत्यतः कर्तरि लट् । " ६-संसार एव सर्पो भुजग:, तेन संदष्टस्य कवलितस्य जन्तोः स्वास्थ्यसंपादने आरोग्यकरणे उद्यताम् सन्नद्धाम् । उद्यन्ती विकसन्ती या सान्द्रा धना दयादृष्टिः करुणोर्जितो दृकपातः तया दृष्टं निभालितं भक्तकुलमनया ताम् । श्रये शरणं प्रपद्ये । 'श्रिन् सेवायाम् ' कर्तरि लट् । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः अन्तरूलमधोविश्वग्विकसन्महिमाश्रयाम् । विद्यामविद्याहतये प्रतिपद्य' महेश्वरीम् ॥८॥ ये चैकतानमनसः समुदीरयन्ति दुर्गाप्रसादगदितं स्तवरत्नमेतत् । " दुर्वासना दुराशोत्त्था मृगमरीचिका, सा एव सरित् तटिनी तस्यां मग्नस्य अन्तर्निपतितस्य समुद्धरणे उद्धारकरणे तत्परां समुद्यताम् । स्थास्तु स्थिरस्वभावं शाश्वतं वा 'ष्ठा गतिनिवृत्तौ'इत्यतः 'ग्लाजिस्थश्च पस्नुः' (पासू०३. २.१३६) इति ताच्छील्ये रस्नुः । यत् सौहित्यं तृप्तिः तस्य साधनी साधनरूपाम् । परमेशानी परब्रह्ममहिषीं उपासे भजे ।उपोपसृष्टात् आस् धातोः कर्तरि लट् । ८-अन्तः ब्रह्माण्डगर्भे, ऊर्ध्व उपरिभागे, अधः अधोभागे, विष्वक् सर्वतः विकसन् विजृम्भमाणः यो महिमा तस्य आश्रया आधारभूता, ताम् । विद्यां षोडशमातृकां । विद्यान्तःपातिनां अकारादिक्षकारान्तानां वर्णानां शुक्लादिरूपाण्यपि आगमेष्वाम्नातानि । तथा च सनत्कुमारसंहितायाम् 'अकाराद्याः स्वरा धूम्रा सिन्दूराभास्तु कादयः । डादिफान्ता गौरवर्णा अरुणाः पञ्चवादयः ।। लकाराद्याः काञ्चनाभा' हकारान्तौ तडिनिभौ ।' इति । मातृकाविवेके तु 'श्रकार सर्वदेवत्यं रक्तं सर्ववशंकरम् ।' इत्यादिना प्रत्यक्षरं वर्णविशेपोऽप्युक्तः । अविद्याहतये अविद्या अनित्येषु नित्यत्वाभिमान. अनात्मनि देहेन्द्रियादौ च 'आत्मबुद्धिरित्येवं वासनाप्रतानः , तस्याः हतये समूलघातं निवृत्तये महेश्वरी स्फारश्वर्यशालिनी प्रतिपद्ये प्रपन्नोऽस्मि । प्रपूर्वात् पद्यतेः कर्तरि लट् । ___-ये जनाः एकतानमनस. अनन्यवृत्तिकाः सन्तः, एतत् प्रकृतं दुर्गायाः परमेश्वर्याः प्रसादेन अनुग्रहभरेण अभिहितं गदितं त्वदीयाभिर्वाग्भि स्तव जननि ! Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादश-स्तवः तेऽन्तःप्रमादमबहत्य समूलघातं दुर्गा-प्रसादनकृते प्रगुणीभवन्ति ॥६॥ ॥ इत्यन्तर्विमर्शः ॥११॥ द्वादश-स्तवः । शोधय मानससरणिं, बोधय विज्ञानकोरकाएपभितः । साधय सकलमनोरथमपारकरुणानिधे ! मातः ! ॥१॥ जननि ! यदि त्वमुपेचामस्मद्वीक्षाकते समाश्रयसे । श्रादिश कुमुदविकाशे धन्या चन्द्रद्युतेः कान्या ॥२॥ वाचा स्तुतिरियम् । इत्येवमादि निदर्शनात् । एवं पुष्पाञ्जलिसमर्पकेन एतन्नाम्ना प्रसिद्धन लविना गदितमित्येवंरूपोऽर्थोऽपि यथायथमनुसन्धेयः । स्तवरत्नं स्तवेषु रत्नायमाणमिदं समुदीरयन्ति भक्न्या अभिष्टुवन्ति, ते समूलघातं पञ्चविधक्लेशानां मूलोच्छेदपुरस्सरम् । समूलाकृतजोवेषु हन्कृग्रहः (पा० सू० ३.४. ३६.) इति णमुल । अन्तःप्रमादं चित्तविक्षेपसहभुवां अन्तर्वतिनी अनवधानतां अवहत्य उच्छिद्य दुर्गायाः स्वनामधन्यायाः जगन्मातुः यत् प्रसादनं स्फारं हृदयावर्जनं तस्य कृते प्रगुणीभवन्ति अतितरां सामर्थ्य भाजो भवन्ति । वसन्ततिलका-वृत्तम् । द्वादश-स्तवः । १-मानससरणिं मनोरूपां पद्यां शोधय विमला विधेहि । अभितः समन्ततः, विज्ञानकोरकाणि विज्ञानरूपाः कलिकाः बोधय विकासय । हे अपारकरुणानिधे ! निरवधिकारुण्यनिधाने! सकलं मनोरथं सर्वविधां मनोऽभिलाषां साधय संपादय । आर्यावृत्तम् । २-हे जननि ! अस्मद्वीक्षाकृते अस्माकं स्नेहेक्षणव्यापारे यदि त्वं उपेक्षा समाश्रयसे, उपेक्षाभावं औदासीन्यं वा भजसे तर्हि आदिश कथय कुमुदविकाशे कारोदये चन्द्रा तेः ज्योत्स्नायाः, अन्या अपरा का धन्या उपकाररूपस्थ श्रेयसो भाजनीभूता । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः . साधुर्वाऽसाधुर्वा यौष्माकत्वेन विश्रुतो जगति । मावरुपेक्षायोगे कथय कथं जीवनं घटते ॥३॥ इदमर्थये त्ववश्यं कर्मकलाप्रसरवाध्यमानोऽपि । जन्मनि जन्मनि भवती, न विस्मरामि स्मराम्येव ॥४॥ प्रतिफलतु चित्तफलके भवती भवतीत्रवासनाशमनी । शमनप्रशमनसरणी शरणीभूता प्रपञ्चस्य ॥२॥ उद्घ तमानसशल्यां, स्फूर्जकल्याणकल्पनाकल्याम् । भक्ताय साधुवल्लीं कलये ललितां स्फुरन्माल्याम् ॥६॥ ३-साधुः शिष्टः, असाधुरशिष्टो वा, यौष्माकत्वेन त्वदीयत्वेन जगति इह संसारे, विश्रु तोऽस्मि विख्यातो वर्ते ।हे मातः ! उपेक्षायोगे अवज्ञाप्रसङ्ग जीवनं प्राणनमेव कथं केन रूपेण घटते संभविष्यति । भविष्यदर्थे लट् । इति कथय वाचं देहि । ४-इदम् यक्ष्यमाणं, अवश्यं नूनं भर्थये अभ्यर्थये, यत् कर्मणः लोकवृत्तस्य प्रपन्चैकजन्मनः व्यापारजातस्य, या कला नवनवो उदयः, तस्य प्रसरेण आधिक्येन वाध्यमानः अनन्यगतिकत्वेन न्यग्भावं नीयमान , जन्मनि जन्मनि भवे भवे संसरणदशामधिशयानोऽपि भवतीं त्वाम् स्मराम्येव सोत्कण्ठं अन्तर्विमृशामि, न विस्मरामि त्वद्विमुखो न भवामि । ५-चित्तफलके चित्तादर्श, भवस्य जगतः याः तीव्रवासनाः उद्दामव्यापारजन्मानो मनोरथाः तासां शमनी विश्रान्तिदायिनी भवती प्रतिफलतु प्रतिबिम्बतु । शमनप्रशमनस्य शमनो यम तस्य प्रशमनस्य अभिभवस्य सरणी प्रवाह. । प्रपश्वस्य विश्वोत्त्थस्य शरणीभूता आश्रयत्वमापन्ना। ६-उद्ध तं उत्क्षिप्तं मानसस्य चित्तस्यशल्यं दुस्सहत्वेन दुःखरूप कीलकं अनया ताम् ।स्फूर्जत् यत्कल्याणं निःश्रेयसं तस्य या कल्पना रचनापारम्परी, तत्र कल्या निपुणा ताम् । भक्ताय उपासकाय नतु वैषयिकप्रवाहपतिताय, साधुवल्ली कल्पभूरुहनततीम् । स्फुरत् दीन्यत माल्यं दाम यस्याः सा, ताम् । ललितां महात्रिपुरसुन्दरी कलये चिन्तये । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादश-स्तवः कमले भास्करभामिव कुमुदे चान्द्रीमिवामला भासम् । भवने दीपशिखामिव, चेतसि भान्ती समीहे त्वाम् ॥७॥ वन्धूकबन्धुराङ्गी, विलसत्कारुण्य सुन्दरापाङ्गी । भास्वद्भ पणभङ्गी, मानससङ्गीकृते भूयात् ॥८॥ याविग्रहापि सर्वत्र पञ्चायतनविग्रहा । यजतां स्मरतां सास्तु, भोगस्वर्गापवर्गदा ॥६॥ ॥ इत्यार्याभ्यर्चना ॥१२॥ ७-कमले पद्म भास्करस्य भामिव अर्कस्य दीधितिमिव,कुमुदे कुमुद्वत्यां, अमला निर्मला, चान्द्री ऐन्दवी भासं ज्योत्स्नामिव । भवने वासगृहे दीपशिखामिव दीपज्योतिरिव त्वां चेतसि भान्ती चकासन्ती समीहे अभिलषामि ।। ___-वन्धूकवत् बन्धूकपुप्पारुणिमेव वन्धुरं सुन्दर अङ्गम् यस्याः सा । बन्धूक. बन्धुजीवकनामा बगदेशप्रसिद्धो महावृक्षः। विलसत् विशेषेण भासमानं यत् कारुण्यं करुणोदय तेन सुन्दरे रुचिरे अपाङ्ग नेत्रप्रान्ते यस्या सा : भास्वद्भपणानां द्यु तिमता अलङ्काराणां भङ्गी रचनाविशेषपात्रीभूता। मानसस्य एकाकिनो मनस' सङ्गीकृते सहवासाय भूयात् । ६-या सर्वत्र अविग्रहा अपि अशरीरा अपि पश्चानां आयतनं पञ्चदेवतास्मक विग्रह शरीरं यस्याः सा। इह पञ्चायतने भगवत्या एव प्राधान्यात् इतरेपा च गुणीभावात् पञ्चायतनविग्रहत्वमस्या इति द्रष्टव्यम् । उपासनात्मे सगुणब्रह्मपञ्चधारासु 'यथाभिमतध्यानाद्वा' (यो० द० १. ३६) इति नीत्या अन्यतमाया प्राधान्यमास्थीयते । तथा च पञ्चायतनीमुद्दिश्य गणेशविमशिन्याम्'शम्भौ मध्यगते हरीनहरभूदेव्यो, हरौ शंकरे भास्येनागसुता रचौ हरगणेशाजाम्विका. स्थापिता. । देव्यां विष्णुहरैकदन्तरवयो लम्बोदरेऽजेश्वरे नार्या शकरभागतोऽतिसुखदा व्यस्तास्तु ते हानिदा. ॥ इति । सा यजताअन्तर्याग-बहिर्यागवताम् । स्मरतां नामपारायणादिकेन स्मरणं कुर्वताम् । भोग ऐहलौकिक नवनवोपभुज्यमान. श्रियोल्लास , स्वर्ग स्वर्लोकसुख,, अपवर्ग कैवल्य च, तान् ददाति इति तथाभूता अस्तु । ।। इत्यार्याभ्यर्चना ॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः त्रयोदश-स्तवः । अयं दाता तुष्येदयमपि धरित्रीपरिवृढः प्रसीदेदित्याशा जगति बहु तावद् भ्रमयति । शिवे ! यावद्युष्मच्चरणयुगले नम्रकमले व्यपेतान्यासक्तिनहि भवति भक्तिः शिखरिणी ॥१॥ दिवा तत्तत्कार्यव्यतिकरपरीतेन मनसा निशायामप्यारान्मुहुरुपचितस्वप्नमहसा । पराक्रान्तो दृये जननि ! जगतामेकशरणे ! कथं वीक्षोपेक्षासरणिमनुसतु प्रभवसि ॥२॥ त्रयोदश-स्तवः। १-अयं अमुकनामा दाता दानकर्ता तुष्येत् संतुष्टो भवेत् । अयं एपः, धरित्रीपरिवृढः भूभर्ता अपि 'प्रभुः परिवृढोऽधिप. ।' इत्यमरः । प्रसीदेत् प्रसन्नो भवेत् । प्रपूर्वकात् 'षद्लु' धातो. लिड् । इति एवंरूपा आशा तृष्णामरीचिका, तावत् बहु अतिमात्रम् , भ्रमयति गृहाद् गृहं संचारयति । हे शिवे | कल्याणिनि ! यावत् भवत्या. नम्रकमले कमलादपि कोमले चरणयुगले । व्यपेत. निर्गत. अन्यस्मिन् आसक्तिरूप प्रणयो यस्याः सेति भक्तेर्विशेषणम् । शिखरिणी शैलशृङ्ग इवोन्नतस्वभावा न भवति । शिखरिणीपदमिह श्लिष्ट द्रष्टव्यम् । तेन प्रकृतस्तवे शिखरिणीछन्द इत्यपि सूचितम् । २-दिवा प्रातरारभ्य दिनावसानम् यावत् , तत्तत्कार्याणां अवश्यकर्तव्यतया प्रत्यहमुपस्थितानां, यो व्यतिकर' सम्बन्ध , तत्र परीतेन परिवेष्टितेन मनसा । निशायां रजन्याम् अारात समीपतो दूरतश्च, पाराद् दूरसमीपयो इत्यमर. ।' मुहु उपचितं वृद्धि गत यत् स्वप्नरूपं महः तेजोरूपं चाकचक्य तेन । पराक्रान्त. परितोऽभिभूतः दूये परितापं सहे । 'दूइ परितापे' इति देवादिकात् कर्तरि लट् । हे जगतामेकशरणे । एकावलम्बभूते ! वीक्षाया स्नेहष्टे., या उपेक्षा औदासीन्यं, तस्या सरणि मार्ग, कथं केन रूपेण, अनुसतु अनुगन्तु प्रभवसि शक्नोसि । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C.. त्रयोदश-स्तवः बहु भ्रान्तं मातर्दिशि दिशि दुराशाहतधिया परां काष्ठां नीतं मलिनमपि भूपालचरितम् । इतिप्रायः कृत्यैः परिकलितकाये मयि दया सुधाधारासारैः शिशिरितदृशं पातय मनाक । ३॥ परित्यक्तो मित्रैरपि बहु विचित्रैरहरहः कथैवान्येषां का प्रतिपदनिजार्पितधियाम् । दुराधिव्याधिभ्यां व्यथित इह वर्ते त्रिजगतां शरण्ये ! कर्णे किं गमयसि न मे क्रन्दितमिदम् ।।४।। ३-हे मात । दिशि दिशि प्रतिदिशं वी'सायां द्विर्भाव ।दुराशया मरुमरीचिसन्निभया हता कुण्ठिता धी यस्य स तेन । बहु यथास्यात्तथा भ्रान्त चड कमितम् । मलिन अपि परिवादगन्धैः कलुषितं अपि, भूपालानां लक्ष्मीदुर्ललिताना राज्ञां, चरितं उच्चावचं विलसितं, परां काष्ठां चाटुकारितादिभिः अतिरञ्जितामवस्था नीतं प्रापितम् । आशाग्रहास्तै. मर्यादामतिलड्घ्य असपि सदिव ख्यापितमिति भावः । इतिप्रायै. एवमादिभि कृत्य करणचेष्टितैः परिकलितं अहरह. अतिवाहितं क्षपित वा कायं देहो यस्य स , तस्मिन् । मयि दयनीये, दयैव सुधा तस्या धारासारै धारासंपाते । शिशिरिता चासौ दृक् च शिशिरितहक् ताम्, शीतला दृष्टिं मनाक ईपत् , पातय संघटय । ४-अहरह. दिने दिने, बहु विचित्र उच्चावचै विचित्रस्वभावै. मित्र. मित्रतया जगति विश्रुतै , परित्यक्त. सर्वथोपेक्षित. । प्रतिपद पदे पदे निजाथै स्वार्थसन्धानफले समर्पिता समासक्ता धीविषणा येषां तेषाम् । अन्येषां गजनिमीलिकया पश्यतां संसारिणां तु कथा एव का ? तेषां वार्तंव नोदेति । हे त्रिजगतां एकशरणे । एकावलम्बभूते । शरण्ये ! शरणागतपरायणे दुराधय. दुसहा मानसोत्त्था सतापा , व्याधय. शरीरोपमर्दिन्यो रोगवेदना , ताभ्यां व्यथित. अन्त संतप्त , इह संसारे वर्ते तिष्ठामि । मे मम अशरणस्य क्रन्दित विलपितं कर्णे किं न गमयसि न शृणोषि । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः धृताप्युच्चैर्वाणी व्रजति बहुधा संशयपथं कथं तिष्ठेत् पद्मा क्रमलशितनालक्षतपदा । इदानीं कारुण्यं जननि ! यदि चिचे न कुरुपे तदार्तिव्यस्तस्य प्रकथय कथंकारमवनम् ॥५॥ त्वयाचार्याकृत्या कथितमपि पथ्यं न कलितं । न तथ्यं त्वत्सेवासरणिषु ममाद्यापि करणम् । अहो ध्यातु वाञ्छन्नपि. चटुलचित्तेन भुक्नं विहतु जंघालः कथमिव भजाम्यम्ब भिवतीम् ॥६॥ न सक्तिस्त्वत्पूजाविधिषु न च भक्तिस्तव पदे क्न वा शक्तिाने भवतु तरलानामविपये । ५-उच्चै. उदात्तहृदयेन धृता वशीकृता अपि वाणी बहुधा नानाभञ्या संशयपचं व्रजति सन्देहमड् कुरयति । कमलस्य यत् शितं तीक्ष्णं कण्टकितं वा नाल', तेन क्षत विक्षते पदे चरणे यस्या सा। एवभूता कमला कथं कथङ्कार तिष्ठेत् स्थातुं प्रभवेत् । हे जननि ! इदानी अस्मिन्नपि समये यदि चित्त कारुण्यं दयाभावं न कुरुपे नोन्मीलयसि तदा आतिव्यस्तस्य पीडाविधुरस्य, कथकार केन रूपेण अवनं रक्षण भवेदिति प्रकथय धानापय । ६-त्वया भवत्या प्राचार्याकृत्या गुरुमूल् कथितं श्रादिप्टं पथ्यं हितोपदेश न कलितं मनसि न कृतम् । त्वत्सेवासरणिपु त्वदाराधनमार्गेषु मम करण इन्द्रियवर्ग ,अद्यापि अधुनापि, न तथ्य न सम्यक् प्रवृत्तम् । अहो। चटुलचिन्तन चञ्चलेन मनसा ध्यातु एकतानः सन् त्वन्मयो भवितुम्, वाञ्छन्नपि अभिलपन्नपि भुवनं संसारं विहाँ जहाल इव, जरा वेगवती अस्ति अस्येति लच् । जहाजीवको धावक इव, अम्ब ! भवतीं त्वा,कथं केन प्रकारेण भजामि श्राराधयामि । ___ ७-त्वत्पूजाविधिपु सपर्यासरणिषु न सक्ति. न प्रसक्ति , न च तव पदे भक्ति , न वा त्वदीयचरणे अनुराग. । अविपये विषयातिक्रान्ते वस्तुनि ध्याने नदेकनानतास्पे तरलानां चलचित्ताना शक्ति. सामर्थ्य क्व वा भवतु कथमिव संघटताम् । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदश-स्तवः इति क्लेशक्लिष्टे मयि यदि न ते मातरधुना दयायोगो योगो भवति जनुषो निष्फल इह ॥७॥ सुधाधाराकारां मयि वितर दृष्टिं सकरुणा मये! मातस्त्वत्तो गतिरिह ममान्या न भुवने । प्रसूपाचं त्यक्त्वा कथय कथमन्यं शिशुरिया हया वा दण्डो वा भवतु पुनरौदास्यमतुले ॥८॥ संसारपङ्कनिर्मग्नसमुद्धरणपण्डिता। मण्डिता सकलैश्वर्यैः सा परा संप्रसीदतु ॥६॥ ॥ इत्यवस्था-निवेदनम् ॥१३॥ इति क्लेशै. अविद्यास्मितादिभिः पञ्चविध , क्लिष्टे व्याकुलिते मयि मद्विषये, हे मात । यदि ते अधुना दयायोगः करुणाप्रसरो न जायते, तदा जनुषः पञ्चभूतपिण्डस्यास्य देहस्य योगः उत्पत्तिः, इह संसारे निष्फल एव निरर्थक एव । ____-मयि सुधाधाराकारां पीयूषसारसरसां, सकरुणां कृपापरीतां, दृष्टिं दृष्टिपातं वितर ददस्व । अये इति विषादे अव्ययम् । मात । इह भुवने अस्मिन् जगति त्वत्त' अन्या अपरा काचन मम गतिः गन्तव्यस्थानं न सभवति । शिशुर्वाल. प्रमूपाश्व मातुरुत्सङ्गं त्यक्त्वा विहाय अन्यं अपर कथं इयात् यायात् । 'इण गती' इत्यत सभावनायां लिड् । इति त्वमेव कथय अभिधेहि । हे अतुले । निरुपमे । दया करुणा दण्डः ताडनादिकम् वा, औदास्यं तटस्थभावो वा भवतु जायताम् । ६-संसाररूपं यत् पङ्क कर्दमम् तत्र निमग्नानां नि शेपेण मग्नानाम् अतएव कूर्मपुराणे 'ये मनागपि शर्वाणी स्मरन्ति शरणार्थिन । दुस्तरापारससारसागरे न पतन्ति ते ॥ इति । समुद्भरणे सम्यगुद्धारकरणे पण्डिता कुशना, सकलै. समस्तै ऐश्वर्य. विभूतिभि., मण्डिता विभूषिता, सा परा कुलकुण्डाधिवासिनी त्रिपुरसुन्दरीति प्रसिद्धा संप्रसीदतु प्रसादसुमुखी भवतु । ॥ इत्यवस्था-निवेदनम् ।। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः चतुर्दश-स्तवः । अपारकारुण्यसुधासमुद्र-रिङ्गत्तरङ्गावलिलीनचेताः । वन्दास्वृन्दाथितकल्पवल्लि ! दुर्गाप्रसादस्य गतिस्त्वमेका ॥१॥ असीमसारल्यलताप्रतान-विजम्भणोद्यानविशालसीमा।। निःशेषभक्तातिविनाशशीले ! दुर्गाप्रसादस्य गतिस्त्वमेका ॥२॥ उदारचारित्रविकाशगन्ध-सञ्चारणाडम्बररोदसीका । हृद्यावदानोत्करभासमाने ! दुर्गाप्रसादस्य गतिस्त्वमेका ॥३॥ चतुर्दश-स्तवः । १-अपार अपरिमेयं यन् कारुण्यं, तदेव सुधासमुद्र सुधासागर , तत्र रिङ्गन्तीपु शनैरुपसर्पन्तीपु तरगाणां ऊर्मीणां श्रावलिपु पडिक्तपु लीनं निमग्नं चेतो मानसं यस्याः सा, तथाभूता । वन्दारवः वन्दनशीला 'शूवन्द्योरारुः (पा० सू० ३.२ १७३) इति प्रारुप्रत्ययः । तेषां वृन्देन सङ्घन अर्थिता अभ्यर्थिता कल्पवल्ली पारिजातव्रतती तत्संबुद्धि । दुर्गाप्रसादस्य पुप्पाञ्जलिनिवेदयितु. त्वं भवती एका अनन्या गतिः शरणीभूता । असि इत्यध्याहार्यम् । वंशस्थेन्द्रवंशयोरुपजाति । २-असीम सीमामतिक्रान्तं यत् सारल्य औदार्य तदेव लताप्रतान' वल्लीविस्तार. तस्य विजृम्भणाय विकाशाय यदुद्यान उपवनम् तस्य विशाला महती सीमा पर्यन्तभूमि । नि शेपा समस्ता या. भक्तानां सेवासक्ताना आत य. दुखपरम्पराः, तासां विनाश समुच्छेदकरणमेव शीलं स्वभावो यस्या तत्सम्बुद्धि । चतुर्थश्चरण. पूर्ववदेव सर्वत्र व्याख्येयः । ३-उदारं सरल यत् चारित्रं चरितम् । स्वार्थे अण । तस्य यो विकाशगन्धः उत्फुल्लतया संसर्पन सुरभि., तस्य सञ्चारणे सर्वत प्रमारणे य आडम्बर संरम्भ, स रोदसीकः भुवो गगनान्तं व्याप्त यस्या सा । हृद्य मनोज यत् अवदानं पराक्रम. तस्य उत्करेण राशीभूतेन भासमाने । विद्योतमाने ! । शेपं प्राग्वदेव योजनीयम । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दश-स्तवः संसारदावानलदीनभक्तप्रसादनकामृतपूरपूर्तिः । उपासकप्रीणनवद्धकक्षे ! दुर्गाप्रसादस्य गतिस्त्वमेका ॥४॥ दौर्भाग्यतूलज्वलनायमानसहस्रनामश्रवणार्द्र चित्ता । निसर्गसौभाग्यविसर्गनिष्ठे ! दुर्गाप्रसादस्य गतिस्त्वमेका ॥५॥ क्लिश्यत्कवित्वत्रततीवितानप्रकाशनानभ्रनभस्यवृष्टिः । समुच्छलद्भक्तिविशेषतुष्टे ! दुर्गाप्रसादस्य गतिस्त्वमेका ॥६॥ दृकपातमात्रार्पितसाध्यसिद्धि निषेवणानन्दितसाधकेन्द्रा । वदान्यसीमायितचित्तवृत्त ! दुर्गाप्रसादस्य गतिस्त्वमेका ॥७॥ ४-ससार एव दावानल. दवदहन, तत्र ये दीनाः दयनीया भवता' कृपाकाक्षिणः, तेषां प्रसादनाय प्रसन्नताये एका अमृतपूरस्य पीयूषप्रवाहस्य पूर्ति पूरणी । 'पृ पालनपूरणयो 'इति क्तिन् । उपासकानां सपर्यापरायणानां प्रीणनाय सतोषाय बद्धः दृढीकृत. कक्षः अंचलमनया तत्सद्धि । अन्यत्पूर्ववत् । ५-दौर्भाग्यं दुरदृष्टं, तदेव तूल कार्पास तस्मिन् ज्वलनायमानस्य अग्निसाद्भवत सहस्रनाम्नाम् 'श्रीमाता श्रीमहाराजी श्रीमत्सिंहासनेश्वरी । चिदग्निकुण्डसंभूता देवकार्यसमुद्यता ।।' इत्यादिरूपाणा श्रवणेन आद्रं विलन्न चित्त मनो यस्या' सा | निसर्ग अकृत्रिम यत् सौभाग्य सौभग, तस्य विसर्गे वितरणे निष्टा व्रतं यस्या सेति संबुद्धि । शेष स्पष्टम् । ६ पिलश्यन्ती म्लानिमानं भजन्ती, कवित्वस्य कविकर्मजीवातु , शक्तिः सामथ्य सा एव व्रतती, तस्याः यो वितान स्वैरोल्लास , तस्य प्रकाशने जीवनदाने अनभ्रा निर्मेघा नभस्यस्य भाद्रपदमासस्य 'स्युनभस्यप्रौष्ठपदभाद्रभाद्रपदा:समा. ' इत्यमर । वृष्टि धाराप्रवाहो जलप्रपातः । समुच्छलत् समुद्रिवतो भावरितश्च यो भक्तिविशेष', अनुरागातिशयः तेन तुष्टा प्रसन्ना । शेषं प्राग्वत् । ७-दृशो' पातः दृक्पात , दृष्टिसमर्पणम् । तन्मात्रेणैव तावतैव अर्पिता प्रसादीकृता, साध्यस्य चिकीर्पितस्य, या सिद्धिः साफल्यं, तस्या निपेवणेन आचरणेन आनन्दित प्रमोदमानीतः साधकेन्द्र' साधकसत्तमः अनया । वदान्यः बहुप्रन', तस्य सीमायिता सीमाभूता चित्तवृत्तिर्मनोव्यापारो यस्याः सा तत्संबुद्धिः। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः पद्मामनोपेन्द्रमहेन्द्रमौलिमन्दारमालाङ्कितपादपीठा । मातः ! शिशूक्तिश्रवणस्वभावे ' दुर्गाप्रसादस्य गतिस्त्वमेका ॥८॥ सेवासक्तसुरासुरावलिशिरोमाल्यान्तरालस्खलखूलीधूसरपादपीठविलुठत्सौभाग्यसीमायिते ! । निर्व्याजस्थिरभक्तियोगसुलभे! मातस्तवाराधने चेतो मेऽनिशमुद्गताधिकरसं चैपुल्यमालम्बताम् ॥६॥ ॥ इत्यात्मार्पणम् ॥१४॥ ८-पद्मासन. परमेष्टी, उपेन्द्रो विष्णु', महेन्द्रः शंकर , तेषा मौलौ मूनिसश्लिष्टे किरीटे या मन्दारस्य माला पारिजातस्रक तया अड्वितं चिहिनतं पादपीठं पादस्थापनासन यस्या सा । हे मातः ! शिशोक्तेः सुलभस्खलितस्य बालभाषितस्य श्रवणस्वभावः श्रवणे अभिरुचिर्यस्या , तत्सबोधनम् । शेपं प्राग्वन्। ६-सेवासक्तानां सेवापरायणानां, सुरासुराणां देवानां दानवानां च या आवलि. श्रेणी तत्शिरसि मूनि, यत् माल्यं पुष्पदाम, तदन्तरालात् तन्मध्यात्, रखलन्ती विकिरन्ती, या धूली रज'कणिका, तया धूसरं किंचिन् पाण्डुरतां गत यत् पादपीठं चरणावारः, तत्र विलुठत् समन्ततो लुलन् यत् सौभाग्यं सुभगत्वं तस्य सीमायिते सीमामुपेते ! निर्व्याजा अकृत्रिमा निर्दम्भा च या स्थिरा भक्तिः दृढोऽनुराग , तम्याः योगेन संयोगेन सुलभे ! सुप्रापे ! तबाराधने तवोपासने, हे मात' ! मे चेत. स्वान्तं अनिशं नक्तदिवं उद्गतः उत्पन्न', अविक' आशातीत , रसो राग. यस्मिन् तदिति क्रियाविशेषणम् । वैपुल्यं प्राशस्त्यं, आलम्बतां समाश्रीयताम । 'लवि अवस्रसने' इति भौवादिकान् प्रार्थनाया लोट । शाल-विक्रीडितं छन्द । ।। इत्यात्मार्पणम् ॥ इति दुर्गापुष्पास्खलौ प्रथमो विश्राम । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-प्रसादाष्टकम् दुर्गा-प्रसादाष्टकम्। वन्दे निर्वाधकरुणामरुणां शरणावनीम् । कामपूर्णजकाराद्यश्रीपीठान्तर्निवासिनीम् ॥१॥ १-निर्बाधा स्वतन्त्रप्रसरा करुणा दयादाक्षिण्यं यस्यां सा तथाभूता, ताम् । करुणाघनामिति भावः । अरुणां लोहितवर्णाम् ! 'जयति करुणा काचिदरुणा' इत्यादि प्राचीनस्तवः । इह स्वात्मन एंव त्रिपुरारूपत्वमित्यागमसिद्धान्तः । तच्च विमृश्यमानं स्वात्मनि अनुरागरूपमेव पर्यवस्यति इति तेजस्तन्तुरूपात्मना परिणमन्त्याः शक्तिचक्र कनायिकाया अस्या अरुणत्वं स्वसंवेदनसिद्धम् । एतदुद्दिश्यैव तन्त्रराजे 'स्वात्मैव देवता प्रोक्ता ललिता विश्वविग्रहा । लौहित्यं तद्विमर्शः स्यादुपास्तिरिति भावना ।।' इत्येवमादि सविस्तरं निरूप्यते । शरणस्य लोकयात्राप्रपञ्चायमाणस्य रक्षणव्यापारस्य अवनीं विश्रान्तिधामतया एकावलम्बभूताम् । सृष्टि-स्थिति-लयकारिण्यः ब्रह्मादिरूपास्तिस्र. शक्तयः, तत्समष्टिरेका इत्येवं वामा, ज्येष्ठा, रौद्री, अम्बिकेति नाम्ना प्रसिद्धाश्चतस्रः शक्तयः सन्ति । तासामधिष्ठानभूताः कामरूपं पूर्णगिरिः, जालन्धरं, ओड्यानञ्चति चत्वारः प्रधाना. शक्तिपीठा. । चत्वारोऽप्येते आन्तरोपास्तिषु प्राधान्यमापन्नाः यथाक्रमं मूलाधारानाहँतविशुद्ध्याज्ञात्मनों प्रथितेषु चक्रपदाभिलग्येषु देवीरूपत्वेन विभाव्यन्त इति सक्षेपः । तत एव उत्तरचतु:शतीशास्त्रे 'वासनाद्विश्वरूपस्य स्वरूपे वाह्यतोऽपि च । एताश्चतस्र शक्त्यस्तु का पू जा ओ इति क्रमात् ॥' इत्यादिकमाद्याक्षरसकेतेन प्रतिपाद्यते । तदनुरूपमिहापि स्तवे श्राद्ययो' कामगिरिपूर्णगिरिपीठयो. 'नामैकदेशे नामग्रहणमिति' न्यायेन निर्देश' । जकार आयो यस्येति समानाधिकरणो बहुव्रीहिः । श्रीपीठशब्देनोड्ड्यानं परामृश्यते । 'पञ्चाशत्पीठरूपिणी' इति ललितानामसु पठ्यते । तत्र पञ्चाशच्छब्दो लक्षणया एकपञ्चाशत्परो द्रष्टव्यः । अन्तर्निवासिनीम् तदधिष्ठातृरूपेण अन्तःस्थिताम् । वन्दे स्तुवे अभिवादये च । 'वदि अभिवादनस्तुत्यो.' । वन्दनं हि तदनुप्रवेश इति सिद्धान्तात् सर्वथा तादात्म्येन तामनुप्रविशामीत्यन्ता अर्थाभिव्यक्तिरिह कवेरभिप्रेता यथायथमनुसन्धातव्या । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः . प्रसिद्धां परमेशानी नानातनुपु जाग्रतीम् । २-प्रसिद्धां पण्डितादिपामरान्तलोकै.अहमिति वेद्यतयानुभूयमानाम् | अकारादि हकारान्तमातृकास्वरूपेण अहमिति स्फुरणात्मिकामित्याशयः । तदुक्तं विरूपाक्षपञ्चाशिकायाम् 'स्वपरावभासनक्षम आत्मा विश्वस्य य प्रकाशोऽसौ । अहमिति स एव उक्तोऽहतास्थितिरीदृशी तस्य ।।' अमुमेवार्थं 'मातृकाचक्रसंबोध' इति शिवसूत्रे वरदराजाचार्योऽयुक्तवान् 'अतोऽकारहकाराभ्यामहमित्यपृथक्तया । प्रपञ्च शिवशक्तिभ्या क्रोडीकृत्य प्रकाशते ।।' अन्यत्रायुच्यते 'अकारः सर्ववर्णाग्य प्रकाशः परम शिव' । हकारोन्त्यः कलारूपो विमर्शाख्य प्रकीर्तितः ॥' इति । परमा उत्कृष्टा च सा ईशानी स्वामिनी च ताम् । परमैश्वर्यशालिनीमित्यर्थः। नानातनुपु ब्रह्मादिस्तम्वपर्यन्तासु जडाजडात्मिकासु सृष्टिव्यक्तिपु । जाग्रती प्रबुद्धां, . चैतन्यात्मना स्फुरन्तीमिति भाव । 'जागृ निद्राक्षये'। शत्रन्तान्डीप् । 'नाभ्यस्ताच्छतु' रिति नुम. प्रतिपेध. । अद्वयस्य परस्परं सामरस्यमापन्नस्य निरुपाधिकस्य शिवशक्तिरूपस्य, यः आनन्दसदोह. निरर्गलो आनन्दोल्लासभरः, तस्य मालिनी पञ्चाशद्वर्णमातृकाभिमानिदेवतास्वरूपिणीम् । ब्रीह्यादिपाठादिनि । यथोक्तमागमरहस्ये 'अकारादिक्षकारान्ता पञ्चाशद्वर्णमातृका । पृथग वर्णा. शशिधरा पञ्चाशद्वीजसजका ॥ मालिनी मैव विख्याता सर्वमंत्रस्वरूपिणी ।' इति । सृष्टिकारणतयाभ्युपगम्यमाने शिवशक्तिरूपे ब्रह्मणि अर्थत्ववच्छब्दत्वमपि प्रतितिष्ठतीति चतुरस्रम् । अड् कुरतच्छाययोरिव परस्परसंपृक्तयोरेव शब्दा. र्थसृष्टयो. प्रादुर्भावावगमात् । तत एव 'वागर्थाविध संपृक्तौ' इत्यादिकमप्युपपद्यते । वाक्यपदीये भगवद्भत हरिणा'युक्तम् Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गाप्रसादष्टकम् अद्वयानन्दसंदोहमालिनी श्रेयसे श्रये ॥२॥ जाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्यादौ प्रतिव्यक्ति विलक्षणाम् । 'न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके य शब्दानुगमादृते । अनुविद्धमिव ज्ञानं सर्व शब्देन भासते ।।' अथवा मालिनीपदमिह मायाबीजपरं द्रष्टव्यम् । तथाच मायावीजस्वरूपिणीमित्यर्थोऽपीह कण्ठरवेणोपात्त । 'ह्रींकार उभयात्मक.' इत्यादि ब्रह्माण्डपुराणोक्त्या मायाबीजेन मिथ समरसापन्नस्य शिवशक्त युभयात्मन' ब्रह्मण एव प्रतिपादनात् । किंच मालिनीपदस्य गौरीरूपोऽर्थोऽपि यथासंभवं उत्प्रक्षितु शक्य. । तथा च विश्व : 'मालिनी वृत्तभेदे स्यान्मालाकारस्त्रियामपि । चम्पानगयों गौया च मन्दाकिन्यां च मालिनी ।।' इति । श्रेयसे श्रेय.फलावाप्तये श्रये शरणं प्रपद्य । ३-जायदादयः कालक्रमानुप्राणिता अवस्थाविशेषाः । तत्र च सर्वसाधारण्येन अर्थ विषयीकृत्य बाह्यान्तरोभयविध इन्द्रियजन्य ज्ञानं लोकस्य जाग्रदवस्थेति व्यपदिश्यते । अन्त करणमानहेतु असाधारणार्थनिर्माणप्रकृति विकल्प एव स्वप्नावस्थेत्युच्यते । सर्वाकारेण अर्थस्फुरणशून्यता च सुषुप्तिरभिधीयते । तदित्थं एकस्यैव वस्तुनो निर्विकल्प-सविकल्पकतया प्रमितिविषयीभवन जाग्रत्स्वप्नौ। तत्रैव स्वरूपानभिज्ञान सौपुग्तमिति विवेक. । यदुक्तं शिवसूत्रेषु'ज्ञान जाग्रत्' 'स्वप्नो विकल्प' अविवेको मायासौषुप्तम् ।' (शिवसू. प्रथम उन्मे. ८,६,१०) एतेपां विशद व्याख्यानं तु शिवसूत्रविमशिन्यां द्रष्टव्यम् । एत एव जाग्रदादयो योगभूमिकासु धारणा-ध्यान-समाधिरूपतया प्रख्याप्यन्त इत्यवधेयम् । आदिशब्दात् तुरीयावस्थाया तुर्यातीतस्य च परिग्रह. । इयञ्च तुरीयावस्था शिवसूत्रेष्वेवं लक्षिता - १-एवमादिस्थलेपु बीजार्थावगतये अस्मत्प्रपितामहैराचार्यश्रीसरयूप्रसादद्विवेदचरणैः प्रणीतो वर्णबीजप्रकाशाख्यो मन्त्रकोशः सुधीभि ईप्टव्यः । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ दुर्गा - पुष्पाञ्जलिः सेवे सैरिभसंमर्दरक्षणेषु कृतक्षणाम् ||३|| तत्तत्कालसमुद्भ तरामकृष्णादिसेविताम् । 'त्रिपु चतुर्थ तैलवदासेच्यम् ।' (शिवसू तृतीय उन्मे २० ) अयं भाव -त्रिषु जाग्रदादि पदेपु, चतुर्थं शुद्धविद्याप्रकाशरूपं तुर्यानन्दरसात्मकं धाम, तैलवत्-आसेच्यम् । यथा तैलं क्रमेण अधिकाधिकं प्रसरद् आश्रयं व्याप्नोति तथा आसेच्यम् । एतदुपष्टम्भेनैव 'जाग्रत्स्वप्नसुषु तेषु तुर्याभोगसंभवः । इत्यादिकमप्यासूत्रितम् । जायदाद्यवस्थाभिरनुवृत्तमेतत्तरीयमेव महास्फुरत्तादिशरागमेपूद्धोप्यते । एतत्सर्वमभिप्रेत्य तन्त्रालोके 'यस्य यद् यत् स्फुटं रूपं तज्जायदिति मन्यताम् । यदेवास्थिरमाभाति स्वरूपं स्वप्न ईदृश ॥ अस्फुट तु यदाभाति सुषुप्त तत् पुरोऽपि यत् । त्रयस्यास्यानुसन्धिस्तु यद्वशादुपजायते । स्रकसूत्रकल्पं तत्तुर्यं सर्वभेदेपुं गृह्यताम् ॥' इति | आचार्य शंकरभगवत्पादैरपि सौन्दर्यलहर्याम् 'तुरीया कापि त्वं दुरधिगम निःसीममहिमा ।' इत्यादिना तुरीयाया माहात्म्यमुन्मीलितम् । तुर्यातीतञ्च परमप्रमातृतयावस्थितं महाप्रक्राशरूपं सर्वभावेष्वनुस्यूतम् । यदुक्त ं स्पन्दशास्त्रे 'जाग्रदादिविभेदेऽपि तदभिन्ने प्रसर्पति । निवर्तते निजान्नैव स्वभावादुपलव्धृतः ॥' इति । प्रतिव्यक्ति प्रतिप्रकाशं तत्तत्कार्यसंपादनवेलासु किमपि लोकोत्तरमद्भुत च कौशलमातन्वतीमित्याशयः । विलक्षणाम् अलौकिकैश्वर्यवतीम् । सैरिभो महिषासुर. तज्जनितो यो लोकानां समई: अरुन्तुदं निष्पीडनम्, ततो रक्षणेषु रक्षाकर्मसु, कृन. विहित क्षण. उत्सवो अनया ताम् । महालक्ष्मीस्वरूपेणावतीणां महिपमर्दिनीमित्यर्थ | सेवे तादात्म्येन आलये | ४- तत्तत्कालेषु कृतयुगादि द्वापरान्तेपु, समुद्भूताः अवतारविग्रहत्वेन पृथिव्यामवतीर्णा ये राम-कृष्णप्रभृतयः पूर्णपाड्गुण्यमहिमानों महापुरुषा. तै. सेविता Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ दुर्गा प्रसादाष्टकम् एकधा दशधा क्वापि बहुधा शक्तिमाश्रये ॥४॥ स्तवीमि परमेशानी महेश्वरकुटुम्बिनीम् । सविशेषमुपासिता, ताम् । दशावताराणां हृदयग्राहिचरितं काश्मीरिकस्य महाकवे. क्षेमेन्द्रस्य दशावतारचरिते द्रष्टव्यम् । एकधा एकत्वरूपया शक्तिसमष्ट्या प्रतिभासमानाम् , क्वचित् दशधा दशसख्याकाभि महाविद्याभि विग्रहत्वमापन्नाम् , क्वापि च बहुधा नानाशक्तिमूर्तिभिः परिणतिं बिभ्राणाम् । अत एव चास्याः चिच्छक्तेर्लीलाविजृम्भितम् 'नित्यैव सा जगन्मूर्तिस्तया सर्वमिदं ततम् । तथापि तत्समुत्पत्तिर्बहुधा श्रूयतां मम ।' 'सर्वस्याद्या महालक्ष्मीरित्रगुणा परमेश्वरी । लक्ष्यालक्ष्यस्वरूपा सा व्याप्य कृत्स्नं व्यवस्थिता ।।' इत्येवमादि श्रुतिसहोदर महावाक्यैस्तत्र तत्र बहुधा प्रतिपादितम् । शक्ति सर्वैश्वर्यशालिनी मातृकासरस्वती, आश्रये सर्वात्मना हृदि कलये । दशमहाविद्याश्चागमरहस्ये 'काली तारा महाविद्या षोडशी भुवनेश्वरी । भैरवी छिन्नमस्ता च विद्या धूमावती तथा । वगला सिद्धविद्या च मातंगी कमलात्मिका । एता दश महाविद्या. सिद्धविद्या प्रकीर्तिता' ।। इति । आसां दशावतारत्वं यथा मुण्डमालातन्त्रे 'प्रकृतिर्विष्णुरूपा च पुरूपश्च महेश्वर । एवं प्रकृतिभेदेन भेदास्तु प्रकृतेर्दश ।। कृष्णरूपा कालिका स्यात् रामरूपा च तारिणी । वगला कूर्ममूर्ति स्यान्मीनो धूमावती भवेत् ।। छिन्नमस्ता नृसिंह. स्याद् वामनो भुवनेश्वरी । कमला बौद्धरूपा स्यात् दुर्गा स्यात् कल्किरूपिणी ।। स्वयं भगवती काली कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् ।' इति । ५-परमेशानी स्वान्त क्रोडीकृतअशेषवेद्यवर्गोल्लासिनीम् । महेश्वरस्य शिवस्य, कुटुम्बिनी पतिपुत्रादिविभव. प्रशस्तसौभाग्यवतीं पुरन्ध्रीरूपा Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः सुदक्षिणामन्नपूर्णा लम्बोदरपयस्विनीम् ॥५॥ मेधा-साम्राज्यदीक्षादिवीक्षारोहस्वरूपिकाम् । मित्याशयः । सुदक्षिणां अतिशयितौदार्यशालिनीम् । श्यामलादिवरूपेण च शिवसहधर्मिणीम् । अन्नपूर्णा पश्चिमाम्नाय-प्रसिद्धविद्याधिदेवताम् , अन्वर्थनामगुणां च शिवपत्नीम् । लम्बोदरस्य लम्ब दीर्घमुदरं यस्य तस्य गणेशस्य । पयोऽस्यास्तीति पयस्विनी सौरभेयी । 'अस्मायामेधास्रजो विनिः' इति मत्वर्थीयो विनि । ताम् । शिशोः स्तन्यपानादिकर्मणा धात्रीस्वरूपमापन्नामित्यर्थ । वाल्ये वयसि दुर्गचामुण्डाभ्यां संभूय गणेशस्य परिपालनात् । अतएव सर्वदेवनमस्यस्य अर लम्बोदरत्वं द्वैमातुरत्वञ्च पुराणादिपूपवर्ण्यमानमुपपद्यते । तदेवामयमकापि लायात्रामपस्कत नानाविधां व्यवहारभमिकामारूढेति तात्पर्यम् । एवमादिभावनोपपाराय 'आसां मध्यात्तु देवीनां यदेका स्फुरति स्वतः । मस्तिदैव सततं सामरस्येन यान्त्यलम् ॥ यदेकतरनिर्याणे कार्य जातु न जायते । तम्मात् सर्वपदार्थानां सामरस्यं व्यवस्थितम् ।।' इत्येवरूपा अभेदपर्यवसायिनी आगमोद्दिष्टा उपसंहारसरणिः । स्तवीमि स्तौमि । ६-धियं जानं क्षिणोति प्रापयति इति दीक्षा । सद्गुरुणा आधीयमानः आगमप्रसिद्धः संस्कारविशेप । 'दीक्ष मौण्डेज्योपनयननियमत्रतादेशेषु' । तथाचोक्तं तन्त्रालोके 'दीयते ज्ञानसद्भाव. क्षीयन्ते पशुवासना.। दानक्षपणसंयुक्ता दीक्षा तेनेह कीर्तिता ।।' इति । सेय गुरुहृदयनिविष्टेन परमेश्वरेण कारुण्यात् कटाक्षपातादिना संपाद्यमाना अचिरादेव शिप्यस्य भुक्तिमुक्तिश्चियमुन्मीलयति । देशिकानुग्रहेकलभ्यश्चायं दीक्षामार्ग. आणव-शाक्त-शाम्भवादिभदै. ततोऽपि च शक्तिपातस्य तीव-तीव्रतरत्यादिना च नानाभेदोपश्लिप्टः आगमशास्त्रे बहुधा प्रपश्चितः । श्रुतिस्मृतिसमयाचारनिदः सद्गुरोरेवात्र दीक्षाकर्मण्यधिकार इति सर्वथा तदायत्त एवायं मुक्ति Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा प्रसादाष्टकम् तामालम्बे शिवालम्बां पराप्रासादरूपिकाम् ॥६॥ अवामा वामभागेषु दक्षिणेष्वपि दक्षिणा । सोपानरहस्यलाभः । स च विरलेन केनापि पुण्यवता भक्तिभाजा लभ्यत इति शास्त्रसमयः । अतएव यथावसर महाभारतादिप्वपि 'ऋतस्य दातारमनुत्तरस्य निधिं निधीनां चतुरन्वयानाम् । ये नाद्रियन्ते गुरुमर्चनीयं पापांल्लोकांस्ते व्रजन्त्यप्रतिष्ठान्।।' इत्यादिना देशिकनाथस्यैव एतदुपायतयान्वाख्यानमिति संक्षेपः। मेधा-साम्राज्यदीक्षादि आगमानुशिष्टानां तत्तहीक्षाविशेषाणां या वीक्षा अनुग्रहरसामु तं निभालनं सैव आरोह' कैवल्यधाम्नः उपर्युपरि उन्मीलनम्, तत्स्वरूपिकां तदात्मना स्फुरन्तीम् । अयमिह मेधादीक्षाक्रम - 'कालिका च तथा तारा छिन्नमस्ता च षोडशी । वगलेति च मेधाख्या दीक्षा सर्वोत्तमा स्मृता ।।' इति । इतोऽप्युपारोहक्रमेण सामाज्यमेवा - 'वाला तारा च वगला छिन्ना प्रत्यंगिरा तथा । साम्राज्यमेधा कथिता साधकाभीष्टदायिनी ।।' इति । पराप्रसादो रूपिका आकारो यस्याः सा ताम् । पराप्रासादो नाम शिवशक्तिसामरस्यात्मा बीजमन्त्रविशेषः । स च अर्धसकारहकाराभ्यामुपेत. चतुर्दशस्वरेण च सयुतोऽर्धचन्द्रघटित' 'स्हौ ' इत्येवंरूपः । अयमस्योद्धार' 'चन्द्रो वियत्समारूढोऽनुग्रहेन्दुद्वयात्मकः । बिन्दुमानेकवर्णात्मा पराप्रासाद संज्ञकः ।।' बिन्दु.-सकार , वियत्-हकारः, अनुग्रहः-औकारः । शेषं स्पष्टम् । शिव आलम्बो यस्या अथवा शिवस्य आलम्बा इत्युभयथा विगृह्य व्याख्येयम् । तथा च शिवसमरसाकारां चिदानन्दघनामित्याशय. 1 आलम्बे सर्वत शरणमाश्रये। ७-वामभागेषु वामाङ्गस्थिति सौभगं जुषमाणापि अवामा वामभावबहिभूता। या हि वामा न सा अवामा भवितुमर्हति इति विरोधाभासः । परिहारस्तु वामा Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः अद्वयापि द्वयाकारा हृदयाम्भोजगावतात् ॥७॥ मन्त्रभावनया दीप्तामवणी वर्णरूपिणीम् । प्रतिकूला इत्यर्थाश्रयणात् । सर्वावस्थासु पत्युरनुकूलतया समरसोज्वला इति तात्पर्यम् । दक्षिणेष्वपि दक्षिणभागमवलम्बमानेष्वपि दक्षिणा सरला उदारस्वभावा च । अद्वया शिवसामरस्यमश्नुवाना अपि द्वयाकारा द्वैतप्रथामवभासयन्ती । एकस्या एव विमर्शशक्तेरयमेतावान् विजृम्भणोल्लास. यद् द्वैताद्वैतमर्यादया तत्तदनन्तवैचित्र्यभूमिकां प्रतिपद्यमानापि स्वस्वातन्त्र्यभावमजहती सर्वमपि शब्दार्थप्रपञ्चभूतं भुवनाभोगं स्वात्मनि क्रोडीकरोति । उक्तञ्च चिद्गगनचन्द्रिकायाम् 'याहमित्युदितवाक् पराभिधा यः प्रकाश उदिताविग्रहः । द्वौ मिथः समुदिताविहोन्मुखौ तौ षडध्वपितरौ श्रये शिवौ ।।' इति । एवम् 'चित्स्वभाव्यादसौ देवः स्वात्मना विमृशन विभुः । अनाश्रितादिभूम्यन्ता भूमिकाः प्रतिपद्यते ॥ इति च । हृदयाम्भोजगा, हृदयमेव सुकुमारतया अम्भोजं पुण्डरीकं तस्मिन्नधिष्ठिता। हृदयं हि नाम प्रतिष्ठास्थानमुच्यत इत्यभिनवगुप्तगुरवः । तत एव चोपनिपदि हृदयं तद् विजानीयात विश्वस्यायतनं महत् ।' इत्यादिकं पठ्यते । वाम-दक्षिणशब्दाभ्यां इह लोकप्रसिद्धया उभयविधाचारप्रधानया उपासनाप्रणाल्या यथारुचि सेव्यमाना इत्येवंरूपो व्यड्यार्थोऽपि संभवदुक्तिको यथाथयमनुसन्धेय. । अवतात् रक्षतात् । इह अवतेरन्येऽयर्थाः संभवन्तो नोपेक्षणीया' । ८-मन्त्रस्य त्रैपुरादे. भावनया पुनपुनश्चिन्तनरूपया। दीप्ताम् प्रकाशकसामरस्यमुपागताम् । मननत्राणधर्माणो हि मन्त्रा. इत्याम्नाय. । शिवसूत्रेष्वपि'चित्त मन्त्र , 'महादानुसन्धानान्मन्त्रवीर्यानुभवः । इति । तथा च मन्त्रमन्त्रिणोरै कात्म्यानुसन्धानफ्लात्मिका क्रियैव इह मुख्यो भावना पदस्यार्थ. । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा प्रसादाप्टकम् परां कन्दलिकां ध्यायन् प्रसादमधिगच्छति ॥ ८ ॥ ॥ इति दुर्गा प्रसादाष्टकम् ॥ १५॥ ८१ अतएव विज्ञानभट्टारके - 'भूयो भूयः परे भावे भावना भाव्यते हि या । जपः स्तोत्रं स्वयं नादो मन्त्रात्मा जप्य ईदृशः ॥' इत्यादिकं पुरस्क्रियते । सेयं अन्तर्यागरूपायामुपास्तौ सकलः, सकलनिष्कलो, निष्कलश्चेति त्रिधा परिणमति । उक्तञ्च योगिनीहृदये आज्ञान्तं सकलं प्रोक्तम् ततः सकलनिष्कलम् । उन्मन्यन्ते परे स्थाने निष्कलञ्च त्रिधा स्थितम् ॥' इति । उपासकस्य चित्तशुद्धितारतम्यमेव आसां भूमिकानां भेदे नियामकम् । तदेवं पूर्व- पूर्व भूमिकामुपारूढस्यैव उत्तरोत्तरभूमिकायामधिकार इत्यर्थतः पर्यवस्यति । मीमांसकसमता लिडादिवाच्या शाब्दीभावना प्रवृत्तिरूपा आर्थीभावना च प्रकृतानुपयुक्ततया नात्र लक्ष्यभूतेति द्रष्टव्यम् | तत्त्वतस्तु विचार्यमाणे सापि विमर्शशक्तिक्रोडान्नातिरिच्यत इत्यन्यदेतत् । पदार्थोदयसंरम्भात्मनः स्वात्मसंवित्स्वरूपस्यैव मुख्यया वृत्त्या मन्त्रशब्दार्थत्वमिति देशिकसिद्धान्त । तत्स्वरूपपरामर्श एव जप इत्युच्यते । 'कथा जप' इति शिवशासनात् । परमार्थतस्तु प्रकाशकरूपस्यात्मनो विमर्शशक्तिरेवानुप्राणनमिति सिद्धान्तात् सा एव मन्त्रजपादिशब्दानाम भिधेयतया प्रथत इति कथनं नासमञ्जसम् । प्रकारभेदस्तु केवलमवशिष्यते । स च रुचिवैचित्र्यादि नानाकारणजातेन अपह्नोतुमशक्य एवेति विपश्चितो विभावयन्तु । अवर्णा वाच्यवाचकभेदव्यवहारमपृथक्तया परामृशन्तीम् । तत उत्तरकक्षामारूढा वर्णरूपतामवभासयन्तीम् | अध्वानो हि षट् इत्यागम | यदुक्तम् 'वर्ण कला पदं तत्त्वं मन्त्रो भुवनमेव च । इत्यध्वषट्कं देवेशि । भाति त्वयि चिदात्मनि ।' इति । तेषु भुवन-तत्त्व-कलान्तानामेको विभाग, मन्त्र - पद - वर्णान्तानाञ्च द्वितीयः । प्रथमो वाच्यवर्ग द्वितीयश्च वाचकवर्गमवभासयति । तदित्थं मन्त्रात्मकेन भावनाकरणेन श्रवर्णरूपां पूर्वामवस्थां उज्झित्य वरूपामुत्तरामवस्थां प्रविशन्तीमित्याशय । इदमिह प्रतिपत्तव्यम् - सर्ववर्णानां कारणभूतो नाद एक हि प्रथमं परारूप: मूलाधारचक्रादुत्थितो मणिपूरानाहतयोरागत्य प्रारणमनोभ्यां संयुज्यमान पश्यन्ती मध्यमात्मना परिणतः कण्ठे वैखरीरूपवर्णात्मकता Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः सापद्यत इति । एवमिह नित्योदितमहामन्त्ररूपा पूर्णाहंविमर्शमयी परा वाक्शक्तिः आदितान्तरूप-अशेषशक्तिचक्रगर्भिणी तत्तद्ग्राह्य-ग्राहकभूमिकां प्रकाशयति । अतभावभरितस्य परास्वरूपपरामर्श एवं पार्यन्तिको प्रतिष्ठेत्युच्यते । उक्तञ्चापि 'स्वदेहे जगतो वापि स्थूलसूक्ष्मतराणि च । तत्त्वानि यानि निलयं ध्यात्वान्ते व्यज्यते परा ।।' अयंभावः-निजदेहस्य आहोश्विन सर्वस्यापि जगत संबन्धीनि सूक्ष्माणि सूक्ष्मतराणि च प्रकृतिमहदकारादीनि तथा पृथिव्यादीनि तद्विकृतिभूतानि स्थूलशरीरघटकानि यानि सन्ति तेपां स्व-स्वकारणेषु लयं ध्यायतः पर्यन्ते पराभट्टारिकाविर्भाव इति । तत इदमपि न विस्मर्तव्यम्- स्वातन्त्र्यशक्तिरेव परा, सैव क्रम स्रष्टुमिच्छन्ती अपरा, सैव च क्रमरूपा सती परापरेति व्यपदेशं लभते । स्पष्टश्चायमर्थस्तन्त्रालोकादिषु महागुरूणां सन्दर्भेषु । किञ्च, एवमाद्यभिप्रायेणैव विज्ञानभैरवादिपु 'अविन्दुमविसर्ग च अकारं जपतो महान् । उदेति देवि । सहसा ज्ञानौघ. परमेश्वरः ।।' इत्यादिना अनुत्तरक्रम उन्मीलित. । विन्दुः अविभागस्य संवेदनम्अद्वैतज्ञानम् । विसर्गो भेदप्रथासर्जनात्मकः ककाराद्यक्षरसृष्टिरूपः । तद्रहितं प्रथमाक्षरमकारं अनुत्तरस्वरूप विमृशतः सर्वविधाया' ज्ञानभूमेः स्रष्टा परमेश्वरः प्रादुर्भवति । सोऽयमनुत्तरक्रमः 'न चैक तदन्यत् द्वितीयं कुत. स्यात् न वा केवलत्व न चाकेवलत्वम् । न शून्यं न चाशून्यमद्वतकत्वात् कथं सर्ववेदान्तसिद्ध ब्रवीमि ॥' इति शांकराद्वैत-सिद्धान्तसिद्धोऽपीति विमर्शकै. समनोनियोगं विभावनीयम् । एवंरूपां परां कन्दलिका प्रकाशाकुरवैजयन्ती ध्यायन् यावन्मनोलयं तदेकसामरस्यमनुभवन् । यदुक्तं विज्ञानभैरवे 'भुवनाध्वादिरूपेण चिन्तयेत् क्रमशोऽखिलान् । स्थूल-सूक्ष्म-परस्थित्या यावदन्ते मनोलयः ।। इति । प्रसादं पूर्णख्यातिरूपं आनन्दोल्लासं अधिगच्छति-स्वायत्तीकुरुत इतिशिवम्। ॥ इति दुर्गा प्रसादाष्टकम् ।। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवदुर्गा - स्तवः नवदुर्गा - स्तवः । कार्येण यानेकविधां श्रयन्ती पूर्वकारुण्यरसार्द्रचित्ता निवारयन्ती स्मरतां विपत्तीः । सा शैलपुत्री भवतु प्रसन्ना ॥ १ ॥ स्वर्गोऽपवर्गो नरकोऽपि यत्र विभाव्यते टक्कलया विविक्तम् | या चाद्वितीयाऽपि शिवद्वितीया सा ब्रह्मचारिण्यवताद् भयेभ्यः || २ || ८३ नवदुर्गा - स्तवः । १ - या कार्येण कार्यगौरवेण अनेकविधां श्रयन्ती नानास्वरूपं आदधती, स्मरतां चेतसि भावयतां, विपत्तीः श्रापदः, निवारयन्ती दूरीकुर्वन्ती, विजयते इत्यध्याहारः । सा अपूर्वकारुण्यरसाद्र चित्ता अपूर्व: य. कारुण्यरसः करुणाप्रवाहः तेन आर्द्र' द्रवीभूतं चित्त ं यस्या सा । शैलपुत्री हिमवत कन्या पार्वती, प्रसन्ना भवतु प्रसीदतु । उपजातिवृत्तम् । २-यत्र यस्यां स्वर्ग. दिव्यो लोकः, अपवर्गो मुक्तिमार्गः, नरकः निरयश्च दृक्कलया, दृश्यते श्रनया इति दृक् तस्याः कला सामर्थ्यं तया । ज्ञानदृष्ट्य त्यर्थ. । अतएवागमे 'नियतानेव निर्भिद्य कांश्चिदर्थान् निजेच्छया । उन्मज्जयति यत् स्वस्माद् दृक्शक्तिः सा निगद्यते ।' इत्युपबृ ंहणं पुरस्क्रियते । विविक्तं पूतं विभाव्यते अनुभूयते । या, द्वितीया १-सर्वविधैश्वर्यखनिरपि भगवती हिमवतस्तपश्चर्यया प्रसन्ना करुणापरवशा प्रतितुच्छतरमपि पुत्रीभावमापेदे इति कियदभिनन्दनीयमस्या वात्सल्यमित्यादिकथारसः कूर्मपुराणे स्फीतो द्रष्टव्यः । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः पादौ धरित्री कटिरन्तरिक्ष यस्याः शिरो द्यौरुदितागमेषु । अन्यद्यथायोगमयोगदूरा सा चन्द्रघण्टा घटयत्वभीष्टम् ॥३॥ स्वराड्-विराट्-संसृतिराडखण्ड ब्रह्माण्डभाण्डाकलनकवीरा । अपि, न विद्यते द्वितीयो यस्या' सा तथाभूता-अपि शिवद्वितीया शिवसहचरी। ब्रह्म सच्चिदानन्दरूप,तच्चारयितुप्रथयितुशीलमस्या सा ब्रह्मचारिणी ब्रह्मरूपप्रदा । भयेभ्य' संसारोत्त्थाभ्यो भीतिभ्य. 'भीत्रार्थानां भयहेतु.' (पासू० १.४.२५) इत्यपादाने पञ्चमी । अवतात् रक्षतात् । 'अव रक्षणे' । ३-यस्याः पादौ चरणौ आगमेषु वेदादिपु तदुपबृहणभूतेषु पुराणादिषु च धरित्रीरूपेण विश्वंभरात्वेन, कटिः कटिप्रदेशः अन्तरिक्षरूपेण नभोमण्डलत्वेन शिर. शिरोभागश्च द्यौ. सुरलोकतया उदिता कथिता । अन्यत् तदतिरिक्तो देहभाग. यथायोगं यथायथम् प्रथते । यदुक्त 'यस्याग्निरास्यं द्यौ मूर्धा खं नाभिश्चरणौ क्षितिः । सूर्यश्चक्षुर्दिशः श्रोत्रे तस्मै लोकात्मने नमः ॥ इति । सा अयोगदूरा, योगः शिवेन सह साहचर्यरूपः समागमः तादात्म्यसम्बन्धो वा, स न भवति इत्ययोग , तेन दूरा वर्जिता । शिवस्य सहधर्मिणीत्वमनुप्रविप्टेत्यर्थः । चन्द्रः घण्टायां यस्याः सा । चन्द्रवन्निर्मलां घण्टां बिभ्रतीम् । तथा च रहस्यागम.-'आह्लादकारिणी देवी चन्द्रघण्टेति कीय॑ते ।' इति । अभीप्टं मनोऽभिलषितं घटयतु संपादयतु । ४-स्वेनैव राजते इति स्वराट् । स च ब्रह्माण्डान्तरवर्तिसमष्टिलिङ्गशरीराभिमानी ईश्वरपदाभिलाय. । विशेपेण राजते, इति विराट् । ब्रह्माण्डात्मकस्थूलदेहाभिमानित्वप्रथां विभ्राण.। संसृत्या राजते इति संसृतिराट् । तदुभयकारणाव्याकृताभिमानी । एभिस्त्रिभि' समुदितं यदखण्डं ब्रह्माण्डम् ब्रह्मण उत्पादको अण्डाकारो Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवदुर्गा - स्तवः सा पापविध्वंसनसद्म कूष्मा - डाव्यादपायादयदानशौएडा ||४|| मातुरत्वे द्विरदाननस्य पाण्मातुरत्वे च कुमारकस्य । एकैव माता परमा मता या सा स्कन्दमाता मुदमादधातु ||५|| कतस्य गोत्रादथवाऽपरस्मात् ८५ किं वेतरस्मात् कथमेकिकैव । भुवनकोप, तदेव भाण्डं आधारपात्रम् । तस्य आकलने समन्तात् ग्रसने एकवीरा अद्वितीयवीर्या । पापानां यत् विध्वसनं शातनं तस्य सद्म धामभूता । अयस्य शुभोदर्कस्य दाने शौण्डा उदारा। 'सप्तमी शौण्डे' ( पा० सू० २.१.४० ) इति समासः । सा कूष्माण्डा, कुत्सित. ऊष्मा तापत्रयरूपः संतापो यस्मिन् संसारे स अण्डे यस्या. सा। संतापतप्तस्य विश्वस्य ग्रासकरी इत्यर्थ. । अपायात् विनाशात् श्रव्यात् रक्षेत् । 'अव रक्षणे' इत्यतो लिड । ५- द्विरदो हस्ती स इव आननं मुखं यस्य स द्विरदानन. गणेश तस्य । द्वयोर्मात्रीरपत्य पुमान् द्वे मातुर तस्य भावः तस्मिन् । दुर्गाचामुण्डाभ्यां परिपालितत्वात् गणपति मातुर इति नाम्ना प्रसिद्धिमुपगतो लोके । कुमारकस्य कार्तिकेयस्य । षण्णां मातॄणामपत्य पुमान् षाण्मातुरः तस्य भावः तस्मिन् । कृत्तिकात्रिकं, गङ्गा, पृथ्वी, पार्वती चेति षण्मातर. पुराणेष्वाम्नाताः । भगवत्या. प्रभव सनत्कुमारः स्कन्द इत्याख्यायते । तथा च छान्दोग्ये पठ्यते- 'भगवान् सनत्कुमारस्त स्कन्द इत्याचक्षते ।' इति । तस्य माता । या एकैव परमा माता ज्ञानिभिरपि मातृभावेनाभिलषिता, माता जन्मदा मता इष्टा । ६ - कतस्य महर्षे गोत्रात् वंशात् अथवा आहोश्वित् अपरस्मात् तद्भिन्नात् । किंवा इतरस्मात् अन्यस्मात् कस्माच्चन, कथं जाता उत्पन्ना इति वक्तुं न पारयाम. । या एका एका एव स्वार्थे कन् । माताह्वयतां मातृशब्दाभिधानं इता प्राप्ता, सा Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः जातेति माताह्वयतामिता या कायायनी सा ममतां हिनस्तु ॥६॥ कालोऽपि विश्रान्तिमुपैति यस्यां काऽन्या कथा भौतिकविग्रहाणाम् । प्रपेञ्चपञ्चीकरणकधात्री सा कालरात्री निहताद् भयानि ॥७॥ कालीकुलं श्रीकुलमप्यपारं कृष्णाद्युपासाप्रवणं यतश्च । साऽनन्तविद्याविततावदाना गौरी विदध्यादखिलान् पुमान् ॥८॥ कात्यायनी अज्ञातजन्मवृत्तान्ता ममतां मायारूपां ममत्ववुद्धिं हिनस्तु नाशयतु । 'हिसि हिंसायाम्' इति रुधादिगरणीयात् प्रार्थनायां लोट् । ७-काल साक्षान्मृत्युरपि यस्या जागरूकायां विश्रान्तिं विनाशं उपैति प्राप्नोति । अन्येषां भौतिकवित्रहाणां पञ्चभूतशरीराणां का कथा क. प्रसङ्गः । सर्वसंहारकस्य कालस्यापिसंही इत्यर्थ. । प्रपञ्चस्य सृष्ट्य पहितस्य यत् पञ्चीकरणं पञ्चीकरणप्रक्रियया एकत्वघटनं तस्य एकधात्री एकैव प्रसवित्री । एवंभूता सा कालस्य रात्री विनाशकीं। 'कृदिकारादक्तिन' इति डीप् । भयानि भीतयः निहतात् नाशयतात्। ८-यतः यस्याः सकाशादाविभूय । 'पञ्चम्यास्तसिल्' इति पञ्चम्यर्थे तसि. । कृष्णादीना योगविभूतीनामपि उपासायां प्रवण उपास्यतया समाहतं कालीकुलं आद्याया. सततिपरंपरा, श्रीकुलं श्रीमातुश्च वंशवितान., अपारं परि ५-सेयं देवकार्यसंपादनेच्छया कात्यायनाश्रमे अवतीर्णा, महर्षिणा च पुत्रीवदेव वात्सल्यस्नेहसंबविता कौमारभावमनुपालयन्त्यपि स्वतन्त्रप्रसरेव चिराय तस्थौ इत्यस्याः कात्यायनीति नाम लोके प्रथां प्रापदिति पुराणागममुखाद् विनायते । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवदुर्गा-स्तवः गृणन्ति यां वेदपुगणसांख्य योगागमादेव महर्षयश्च । पुपान् प्रपौत्रान् सुधियः श्रियश्च सा सिद्धिदा सिद्धिकरी ददातु ॥६॥ च्छेदातीतम् । कालीकुल-श्रीकुलान्ततिशक्तिमण्डलं यथा आगमरहस्ये 'काली तारा रक्तकाली भुवना महिषमर्दिनी । त्रिपुरा त्रिपुटर दुर्गा विद्या प्रत्यगिरा तथा ।। कालीकुलं समाख्यातं श्रीकुलं च ततः परम् । सुन्दरी भैरवी वाला वगला कमला तथा ॥ धूमावती च मातङ्गी विद्या स्वप्नावती प्रिये । मधुमती महाकाली श्रीकुलं भाषितं मया ।।' इति । अतः सा गौरी अनन्तविद्याभिः ज्ञानस्वरूपाभिः अनन्तशक्तिभिः, विततं व्याप्त अवदानं पराकमो यस्याः सा । अखिलान् लोक-परलोकसम्बन्धिन , पुमर्थान् पुरुषार्थसाध्यान् चतुर्वर्गान् , विदध्यात् सफलीकुर्यात् । विपूर्वात् दधातेलिड्। ___-महर्षय साक्षात्कृतमंत्ररूपदेवताशरीराः । यां महामहिमशालिनीम् । वेदात् त्रयीरूपात् । पुराणात् आख्यायिकेतिहासरूपात् । सांख्यात् प्रकृतिपुरुषविवेचनपरादात्मदर्शनाद् । योगात् चित्तवृत्तिनिरोधरूपात् मुक्तिप्रतिपादकशास्त्रात् । आगमात् अर्धनारीश्वर-मुखोद्गताद् । गृणन्ति निश्चिन्वन्ति । 'गृ शब्दे' इत्यत. कर्तरि लट् । सा सिद्धिकरी अनुरूपनामगुणा सिद्धिदा मुक्तिप्रदा । सुधिय विद्यावदातान् पुत्रान्, तद्वदेव शाखाप्रशाखोपचितान् योग्यतमान् प्रपौत्रान् । गुणोदारा अविच्छिन्नां च कुलसन्ततिमित्यर्थः । श्रियः लक्ष्म्यश्च ददातु वितरतु । १-आगमरहस्यं नाम अस्मत्प्रपितामहैराचार्यश्रीसरयूप्रसादद्विवेदपादै. संकलितः तन्त्रप्रमेयसन्दर्भः। . Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः या चण्डी मधुकैटभप्रमथिनी या माहिपोन्मूलिनी या धूम्रक्षणचण्डमुण्डदलिनी या रक्तवीजाशिनी । शक्तिः शुम्भनिशुम्भदैत्यदलिनी या सिद्धिलक्ष्मीः परा सा दुर्गा नवकोटिमूर्तिमहिताऽस्मान् पातु सर्वेश्वरी ॥१०॥ ॥ इति नवदुर्गा-स्तवः ॥ १०-या परब्रह्मस्वरूपिणी चण्डी कोपनशीला । भयजनककोपार्थकात् 'चडि कोपे' इत्यत. पचाद्यचि 'पिगौरादिभ्यश्च' इति डीप । उक्तञ्च भुवनेश्वरीसंहितायाम् 'यद्याद् वाति वातोऽयं सूर्यो भीत्या च गच्छति । इन्द्राग्निमृत्यवस्तद्वत् सा देवी चण्डिका स्मृता ॥” इति । तत एव रुद्राध्याय्यामपि 'नमस्ते रुद्रमन्यव-' इत्यारम्भमन्त्रे प्रथमं मन्यव ग्य प्रणतिः प्रयुज्यमाना साधु सङ्गच्छते । लोकेऽपि चण्डभानु. चण्डवात इत्येवमादिप्रयोगेपु भयजनककोपार्थकत्वं सुप्रसिद्धमेव । किञ्च 'भीपास्माद्वात. पवते भीषोदेति सूर्य ।। ___ भीपास्मादग्निश्चेन्द्रश्च मृत्युर्धावति पञ्चमः ।।' इत्यादि श्रुतिरप्यत्रमंवादिनीति द्रष्टव्यम् । मधुकैटभवधप्रधानं श्रीमहाकालीचरितं सप्तशत्या. प्रथमाध्यायरूपं प्रथमचरित्रम् । एवं द्वितीयाध्यायमारभ्य चतुर्थाध्यायान्तं महिपासुरवधाख्यं श्रीमहालक्ष्मीचरितं मध्यमचरित्रम् । ततः पञ्चमादारभ्य त्रयोदशाध्यायान्तं शुम्भ-निशुम्भवधात्मकं श्रीमहासरस्वतीचरितमुत्तरचरित्रम् । अनयैव च धूम्रक्षणस्य, चण्डमुण्डयो. रक्तवीजस्य च वधः कृत इत्येपामन्तर्भाव. उत्तरचरित्रे एव द्रष्टव्यः । विस्तरस्त्वस्मत्प्रपितामहानां सप्तशती-सर्वस्वत आकलनीयः । या चण्डी परा अनुत्तरा, सिद्धिलक्ष्मी सिद्वेः सौभाग्यभूता श्रीरूपेणावस्थिता, सा नवकोटिभि मूर्तिभिः स्वरूपवितानभूतैरङ्गशक्तिभि. महिता पूजिता, सर्वेश्वरी सर्वस्यापि चराचरस्य स्वामिनी अस्मान् पातु अवतु । ।। इति नवदुर्गा-स्तव.।। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमूर्ति-स्तवः अष्टमूर्ति-स्तवः। यः पार्थिवं लिङ्गमुपेत्य शाल ___ ग्रामो घटोऽश्वत्थमुखो भवँश्च । नानाविधान् मूर्तगुणान् प्रपेदे तमष्टमूर्तिशरणं प्रपद्ये ॥१॥ पञ्चदश-स्तवः। १-य. पृथिव्या इदं पार्थिवं, मृन्मयं लिङ्ग उपेत्य, शालग्रामः शालानां वृक्षाणां ग्रामः यस्मिन् सः । एतन्नाम्ना प्रसिद्धः पर्वतविशेषः, यदुद्भताः श्यामवर्णशिलाः विष्णुप्रतिमात्वेन पूज्यन्ते । चटः वटवृक्ष., अश्वत्थमुखः पिप्पलवृक्षप्रधानश्च भवन अर्थात् शैलूष इव तत्तद्भमिकामधितिष्ठन् । नानाविधान असंख्येयगुणधर्मान् , मूर्तगुणान् पृथिव्यादिभूतपञ्चकधर्मान् , प्रपेदे आसेदे, तं अष्टमूर्ति अष्टौ भूम्यादय. मूर्तयो यस्य स तम् । शरणं प्रपद्य शरणमापन्नोऽस्मि । शिवस्य अष्टमूर्तयश्चैवं संख्यायन्ते 'क्षितिर्जल तथा तेजो वायुराकाशमेव च । यष्टार्कश्च तथा चन्द्रो मूर्तयोऽष्टौ पिनाकिनः ।। इति । इहेदमवधेयम् तदिति सर्वनाम्न स्त्रीत्वेऽपि अष्टमूर्तिरिति समानम् । अष्टमूर्तिरिति प्रसिद्ध शिवशक्तिनाम । तथा च रघुवंशकार.-'अवेहि मां किङ्करमष्टमूर्ते' इति । 'अष्टमूर्तिरजा जैत्री' इति ब्रह्माण्डपुराणम् । उपबृहणं तु 'त्वमर्कस्त्वं सोम स्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवह.' इति शिवमहिम्नपद्यादौ । तथा 'मनस्त्वं व्योम त्व मरुदसि मरुत्सारथिरसि' इति सौन्दर्यलादी च द्रष्टव्यम् । यावद्द वताविशेषाणां समष्टि. परमेश्वर' । अभियुक्तानां यत्र देवतापदेन व्यवहारः सः श्रोतः स्मार्तो वा देवतापदार्थ एतस्माद् भिन्न । विस्तरस्तु निरुक्त-वृहद्दवतादिसन्दर्भतोऽवधेय. । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः योऽम्मासि पावित्र्यगुणस्य सीमा मासादयंस्तीर्थ परंपराभिः। एतां त्रिलोकी शतधा पुनीते तमष्टमूर्ति शरणं प्रपद्ये ॥२॥ य आश्रयात् त्रित्वमुपागतोऽपि ता त्रयीमन्त्रगुणेन भृयः । चराचराधारतयात्मभूत स्तमष्टमूर्ति शरणं प्रपद्ये ॥३॥ यो योगिनां योगविभूतिसिद्धय ।। समाधिसिद्धान्त-पथाधिरूढः । २-यः अम्भांसि आसादयन् , जलमूर्त्या स्फुरन् । तीर्थं नाम नद्यादेवतरणभूः पवित्र स्थानम् । तस्य परंपराभि. समूहै. पावित्र्यगुणस्य पवित्रतारूपस्योत्कर्पस्य सीमां आसादयन् एतां त्रिलोकी त्रयाणां लोकानां समाहारः, ताम् । 'तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च' (पा.सू २.१.५१) इति द्विगु.। 'अकारान्तोत्तरपदो द्विगुःस्त्रियामिष्ट.' इति भाप्यकारेप्ट्या स्त्रीत्वम् । 'द्विगोः' (पा सू ४.१.२१) इति डीप् च । शतधा अनेकप्रकारैः पुनीते पवित्रयति । 'पू पवने' इत्यत कर्तरि लट् । ___३-य. आश्रयात् आधारगौरवात् त्रित्वं सत्वरजस्तमोरूपं उपागतः प्राप्तः सन् , त्रयीमन्त्रगुणेन त्रय्या ये मन्त्राः तेषां गुणेन उत्कांधानरूपेण पुन. त्रेता, दक्षिणाग्नि-गाईपत्य-आवहनीयरूपेण समुदितः । चराचरस्य स्थावरजङ्गमात्मकस्य जगतः, आधारतया अधिकरणतया, आत्मभूत. अनलरूपेण अन्त स्थितः, तं अप्टमूर्ति शिवं शरणं प्रपद्य श्रये । ४-य. योगिनां योगयुक्तात्मनाम् । योगः प्राणसंयमनात्मक. संप्रज्ञातासंप्रज्ञातलक्षणः क्रियाविशेप. । तस्य विभूतेमहत ऐश्वर्यस्य, सिद्ध्यै साधनार्थ । समाधिः 'तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः' इत्युक्तरूपः, स एव सिद्धिप्रदत्वात् सिद्धान्तपथः सिद्धान्तभूतो मार्गः, तस्मिन् अधिरूढः उपारूढः । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमूर्ति-रतवः चतुर्विधप्राणि-निकायमूल स्तमष्टमूर्ति शरणं प्रपद्ये ॥४॥ योऽनन्तखस्यापि गुरूगरीया नोमित्यहो व्यस्तसमस्तरीत्या । 'खं ब्रह्म' पाठेन यजुष्ट्वमाप्त स्तमष्टमूर्ति शरणं प्रपद्ये ॥१॥ यो देवपौरोगवतां प्रयातः .. सूर्याश्रयात् तृप्तिकरः पितृणाम् । आप्यायकः सर्वमहौषधीनां तमष्टमूर्ति शरणं प्रपद्य ॥६॥ चतुर्विधानां अण्डजादिभेदभिन्नानां प्राणिनां शरीरिणां निकायस्य सङ्घस्य मूलं आदिकारणम् । शेपं पूर्ववदेव योजनीयम् । ५-अहो! य' अनन्तस्य अपरिमेयस्य, खस्य शून्याकृतेराकाशस्य । व्यस्तसमस्तरीत्या व्यस्तेन अकार-उकार-मकारात्मकेन, इच्छा-ज्ञान-क्रियाप्रतिपादकेन प्रणवान्त पातिना वर्णसङ्घातेन, समस्तेन अवतीति ओमिति पदेन ब्रह्म-विष्णु-रुद्रात्मकतामधिशयान । गरीयान् प्रशस्यमहिमा । गुरु सर्वानुग्राहक । 'ख ब्रह्म' इति चत्वारिंशदध्यायात्मिकायाः शुक्लयजुसंहिताया उपसंहारमत्र , तस्य पाठेन यजुष्ट्वं प्राप्तः याजुषमहिमां संप्रतिपन्न । अन्यत् पूर्ववत् । ६-यः देवानां पौरोगवतां पुरोऽग्रे गच्छति इति पुरोगः गमेर्डप्रत्यय' । तस्य भाव. पौरोगवता, ताम् । प्रधानत्वरूपां पुरोगामितां भजन , सूर्याश्रयात् सहस्रकिरणस्य संपर्कात् , पितृणां मरीचिप्रमुखानां तृप्तिकर. तर्पण-श्राद्धादिकर्मणा संतोषाधायकः । सर्वमहौषधीनां सर्वाः सहदेवी-शङ्खपुष्पीप्रभृतयः देवस्नानद्रव्यभूता अष्ट महौषधयः, अन्याश्च वनस्पतयः । तासां आप्यायक' तर्पकतया प्रीतिकरः । इतरत् प्राग्वदेव योजनीयम् । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गापुष्पाञ्जलिः य उष्णताद्योतखगर्दकेन्द्र मेकायनं मुक्तिपथोन्मुखानाम् । धामय॑जुःसाममहोदयानां तमष्टमूर्ति शिवमेकमीडे ॥७॥ आत्मा य एको यत एव विष्वग् ब्रह्माण्डवैचित्र्यविकाशभूमा । तमःप्रकाशादिविसर्गबीज तमष्टमूर्ति सहशक्तिमीडे ॥८॥ तर्काग्नितत्त्वनिलयं विलयं भ्रमाणा मानन्दसिन्धुसदनं कदनं कुसृष्टेः । ७-यः उष्णताया ऊष्मण , द्योतस्य आतपरूपस्य प्रकाशस्य । खगस्य चन्द्रादिनवग्रहमण्डलस्य, ऋक्षस्य अश्विन्यादेर्नक्षत्रवृन्दस्य च केन्द्र मध्यमणिः । मुक्तिपथोन्मुखानां सायुज्यसामी'यादिचतुर्विधं मुक्तिसोपानमारुरुक्ष णां, एकायन एकमयनं विपयो यस्य तत्, एकं गन्तव्यस्थानम् । त्रयीशरीरघटकाः ऋग्यजुःसामान एव महोदया उत्कर्परूपमहिमाभृतः । तेपां धाम पदम् । एक अद्वितीयं शिवं पार्वतीपति ईडे-स्तुवे । - ८-य एक केवल. आत्मा आत्मस्वरूपेण सर्वत्र आततः । यत एव यत्सकाशादेव, विष्वमञ्चतीति विष्वक् सर्वत., ब्रह्माण्डवैचित्र्यस्य, पाश्वर्यभूमेरस्याः ब्रह्माण्डमाण्डपरिगतायाः वैचित्रीपरंपराया., विकाशस्य वहिरुल्लासस्य भूमा अन्तर्यामित्वेनावस्थितः । यश्च तमस. प्रकाशादेश्च विश्वान्त क्रोडीकृतस्य यावद् वस्तुसंभारस्य, यो विसर्ग' अभिव्यक्तिरूपो बहिरुन्मेपः, तस्य वीज आदिकारणम् । अन्यत् पूर्ववत् । ___-'अड्वानां वामतो गतिरिति' नियमात् तर्काग्निशब्दाभ्यामिह पटत्रिंशतो ग्रहणमवसीयते । तथाच शैवदर्शनप्रपञ्चितस्य पत्रिंशत्तत्त्वप्रतिपाद्यस्य शिवादिधरण्यन्तस्य तत्त्वसमूहस्य परामर्शः । पट-त्रिंशत्तत्त्वानां निलयं आधार Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमूर्ति-स्तवः एतन्महेश्वरपदस्तवनं हि यस्मिन् ज्ञाते वसन्ततिलकायितविश्वमेतत् ॥॥ ॥ इत्यष्टमूर्ति-स्तवः ॥१६॥ भूमिम् । पर्यन्ततः परमशिवे एव सर्वतत्त्वसमष्टेर्विश्रमाभ्युपगमात् । भ्रमाणां मनोविकाराणां विलयं प्रलयभुवम् | आनन्दसिन्धोः आनन्दभरितस्य महार्णवस्य सदनं आगारम् । कुसृष्टे. कुकल्पनाजातस्य कदनं मर्दनम् । एवंविधं तदेतत् प्रक्रान्तं महेश्वरस्य सर्वविधैश्वर्यशालिनः पदस्तवनं चरणयोगुणानुवादः । यस्मिन् प्रशंसावादे ज्ञाते शब्दतोऽर्थतश्च हृदयान्तःकलिते सति एतत् पुरो दृश्यमानं विश्व वसन्ततिलकायितम् सुरभिसमय इव विविधामोदरसास्वादैः परिपूर्णम् विभाज्यते । वसन्ततिलकायितशब्देन-छन्दसो नामापि ध्वनितम् । ।। इत्यष्टमूर्ति-स्तवः ॥ • १ तन्यते सर्व तन्वादिकं यत्र तत् तत्त्वम् , तननात् वा आप्रलयं तत्त्वम् , तस्य भावः इति वा तत्त्वमिति व्युत्पत्तिसरणिः । अयञ्च तत्त्वव्यपदेशो उपदेश्यजनापेक्षयैव न वस्तुत इति दर्शनहृदयम् । यतोऽयं सर्वावभासः चैतन्यमहेश्वर विश्वप्रपञ्चस्वभावोऽपि सन् संविदेकपरमार्थ एव । पर्यन्ततः सर्वत्र संविद एवानुगमात् इति युक्त्यागमसिद्ध परीक्षणीयम् । तत एव स्थेयाः पठन्ति 'तीर्थक्रियाव्यसनिनः स्वमनीषिकाभि रुत्प्रेक्ष्य तत्त्वमिति यद्यदमी वदन्ति । तत् तत्त्वमेव भवतोऽस्ति न किंचिदन्यत् संज्ञासु केवलमयं विदुषां विवादः ।। इति । . अतएव च परमार्थसारे 'भारूपं परिपूर्ण स्वात्मनि विश्रान्तितो महानन्दम् । । । -- इच्छासंवित्करनिर्भरितमनन्तशक्तिपरिपूर्णम् ॥ सर्वविकल्पविहीनं शुद्ध शान्तं लयोदयविहीनम् । यत् परतत्त्वं तस्मिन् विभाति पत्रिंशदात्म जगत् ।। इति । ' तत्त्वपरिचयस्तु षट्-त्रिंशत्तत्त्वसंदोहादिषु द्रष्टव्य इति दिक् । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः चण्डीशाष्टकम् । आस्माकीनं करालं जवमिह भुवने कः सहेदित्यखळ हंकारोल्लासवल्गल्लहरिशतलुठल्लोलयादोमतल्ली । मल्लीमालेव यस्योद्भटविकटजटाकोटरे निष्पतन्ती दीव्यत्यभ्रस्रवन्ती स मम हृदि सदा भातु चन्द्रार्धचूडः ॥१॥ व्योम्नीवाम्भोदलेखा हृद इव लहरीधोरणी पूपणीव श्यामाकान्तांशुलक्ष्मीरुदयमथ लयं याति यत्र त्रिलोकी । चण्डीशाष्टकम् । १-इह भुवने जगतीतले श्रास्माकीनं आवयोरस्माकं वा अय आस्माकीन इति विग्रह', तम् । श्रास्माकमित्यर्थः । अस्मदः खन् , ईनादेश , ततः तस्मिन्नणि च युष्माकास्माको' (पा. सू ४.३.२) इत्यास्माकादेशः । करालं भयोत्पादकं जवं जलप्रवाहवेगं कः सहेत् , को नाम धन्यः सोढुं शक्नुयात् । इति हेतोः अखर्वः अत्युन्नत. य अहङ्कारोल्लास अभिमानोदय. गर्वाह्लादो वा तेन वल्गन्तीनां अहमहमिकया प्लुतं प्रवहन्तीनां, लहरीणां महातरङ्गाणां यत् शतं तत्र लुठन् इतस्तत उपसर्पन , लोल. चञ्चल', यादोमतल्ली प्रशस्तो जलचरः यस्यां तथाभूता । 'यादांसि जलजन्तव' इत्यमरः । अभ्रं गगनं ततः सवन्ती अभ्रस्रवन्ती जह नुतनया । मल्लीमालेव, मल्ली स्वेतवर्णो मल्लिकापुष्पः, तस्याः मालेव स्रगिव यस्य उद्भटविकटजटाकोटरे उद्भटा प्रशस्ता विकटा विशाला च या जटा केशपाशः तस्याः कोटरे गहरे निष्पतन्ती अधस्खलन्ती दीव्यति शोभामावहति । स चन्द्रार्धचूडः, चन्द्रार्धः चूडायां जूटिकायां यस्य एवंविधः भगवानिन्दुमौलि. मम तच्चरणैकशरणस्य हृदि हृदयाद” सदा निरन्तरं भातु उल्लसतु । स्रग्धरोवृत्तम् । २-योम्नि नभोमण्डले, अम्भोदलेखा इव अम्भो ददाति इति अम्भोदो वारिवाहः, तस्य लेखा इस पडिकरिव । हदे अगाधजलाशये लहरीणां महावीचीनां धोरणी इव परम्परेव । पूपरिण भास्करे श्यामाकान्तांशुलक्ष्मीरिव श्यामा रात्रिः Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चण्डीशाष्टकम् ज्वालाजिह्वाल फालज्वलनकवलितोद्दर्पकंद वीरो ६५ हीरो वृन्दारकाणां विशदयतुतरां शेमुषीं सोऽष्टमूर्तिः ॥ २ ॥ कण्ठपीठे उद्यत्सान्द्राम्बुवाहव्यतिकर सुषभासंनिभे शंपाराजीव यस्यावनिधर दुहितुर्दोलता जाज्वलीति । स त्रैलोक्यनाथोऽदितितनयधुनी मुग्धडिण्डीरपिण्ड प्रख्यः श्रीङ्कटीको मम निविडतमोग्रन्थिभेदाय भूयात् ॥ ३ ॥ तस्याः कान्तो निशापतिश्चन्द्रः तस्य अंशुलक्ष्मीरिव मयूखसुषमेव । त्रिलोकी स्वर्ग-मर्त्य-पाताल-लोकात्मकस्त्रिभुवनाभोगः, उदयं उन्मेषं, अथ लयं अस्तञ्च याति व्रजति । ज्वाला एव जिह्वा रसना तस्यां यत् आलं अनल्पं फालरूपं ज्वलनं, फालं नाम भूमिविदारणार्थ लाङ्गलमुखे आयोजितो लोहविशेषः । तेन कवलितः आत्मसात्कृतः, उद्दर्पः अहंकारावलिप्तः कंदर्पवीरः प्रशस्तबलोऽनङ्गः येन तथाभूतः । वृन्दारकाणां देवानां मध्ये निर्धारणे षष्ठी । हीर ः रत्नेषु हीरक इव मूर्धाभिषिक्तः । सः लोकवेदप्रसिद्धः । अष्टमूर्ति अष्टौ भूम्यादय. मूर्तयो यस्य तथाभूतः । तरुणेन्दुशेखर अस्माकं चरणाराधनत्रतिनां शेमुषीं प्रज्ञां विशदयतुतरां प्रकर्षविजृम्भितां संपादयतु । ३–उद्यत् उदयं गच्छत् य सान्द्र. अम्बुवाहः नूतनो जलधर. तस्य व्यतिकरेण संपर्केण या सुषमा सौन्दर्य तत्संनिभे तत्सदृशे, घनाघन इव सौन्दर्यवाहिनि इति भाव | यस्य कण्ठपीठे कण्ठप्रदेशे, शम्पायाः सौदामिन्या. राजी इव श्रेणी इव । अवनिधरस्य हिमशैलस्य, दुहितुः आत्मजायाः पार्वत्याः, दोर्लता वाहुवलयं जाज्वलीति प्रकाशातिशयं तनोति । सः त्रैलोक्यैकनाथ. त्रयाणां लोकानां समाहार त्रिलोकी । त्रिलोकी एव त्रैलोक्यम् । 'चतुर्वर्णादीनां स्वार्थे उपसंख्यानम्' इति स्वार्थे ष्यञ् । तस्य एकनाथः श्रद्वितीयो भर्ता । श्रदितितनयाः देवाः, तेषां या धुनी तटिनी गङ्ग ेति प्रसिद्धा, तस्या मुग्धः सुन्दर यो डिण्डीरपिण्डः फेनसमूहः तत्प्रख्यः तत्संनिभ' | श्रीकङ्कटीकः महादेवः, मम भक्तिप्रव 9 १- कङ्कटीक - रेरिहाणादि शिवपर्यायतया शारदादेश - प्रसिद्धाः शव्दा. काश्मीरककाव्येषु हरविजयादिषु द्रष्टव्याः । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः संतापस्विन्नचूडामृतकिरणगलत्स्फारपीयूपधारा भालाग्नौ यस्य दुग्धाहुतिरिव सततं स्यन्दमाना चकास्ति। स ब्रह्माण्डप्रकाशावनलयघटनानाटिकासूत्रधारो गौरीप्राणप्रियो नः प्रथयतु नितरां तानि तानीहितानि ||४|| श्रीपीयूपादिवस्तुप्रकरविभजनोद्भूतवादकविज्ञा देवंमन्या महेच्छा अहह कति दिवो भारभूता न सन्ति । णस्य निविडतमोग्रन्थिभेदाय निविडतमा अत्यन्तं घनीभूता या तमोग्रन्थिः तमोरूपं पाशवन्धनं तस्य भेदाय उन्मोचनाय शिथिलीकरणाय वा भूयात् जायताम् । ४-यस्य शशिशेखरस्य भालाग्नौ वह्निप्रदीप्ते ललाटफलके । संतापेन दाहोष्मणा, स्विन्ना स्वेदबहुला या चूडा जूटिका, तत्सकाशात् अमृतकिरणस्य चन्द्रमस', गलन्ती अध स्रवन्ती या स्फारा प्रशस्ता पीयूषधारा अमृतजलानज्यन्दः । दुग्धस्य पयस. आहुतिरिव प्रक्षेप इव सतत अश्रान्त यथा स्यात् तथेतिक्रियाविशेषणम् । स्यन्दमाना स्रोतोरूपेण क्षरन्ती, चकास्ति सौन्दर्य बिभर्ति । स. ब्रह्माण्डस्य त्रिभुवनाभोगरूपस्य, प्रकाशावनलयाना प्रकाशः आविर्भाव, अवनं रक्षणम् , लयः तिरोधानम् । एषां त्रयाणां या घटना रचनापाटवम् , सैव नाटिका जगन्नाट्यरूपो व्यापार तस्य सूत्रधारः अभिनयप्रवर्तको मुख्यः शैलूषः । गौर्या' पार्वत्या. प्राणप्रियः प्राणेभ्योऽपि प्रियतम । न अस्माकम् तानि तानि लोकदुर्लभानि मनोऽभिलषितानि, नितरां अतितरांप्रथयतु उपभोगाय विशदयतु । ५-श्रीपीयूषादिवन्तुप्रकराणां, समुद्रमन्थनादधिगतानां उच्चावचानां लक्ष्म्यादिनानावस्तुनिवहानां यद् विभजनं परस्परं विभज्य सविभागपूर्वकमादानम् । तत्र विभजनावसरे उद्भूतः समुत्पन्नो यो वाद. मिथःप्रसक्तः संघर्परूपो वाक्कलह , तस्मिन् एकविज्ञा मुख्यतया विदग्धाः । केवल विभागकरणकमात्रचतुरा इति तात्पर्यम् । देवंमन्याः अहंपूर्षिकया दिविपत्सु आत्मन. । प्राधान्यं पुरस्कुर्वाणा । महेच्छा. महानुभावाः । दिव स्वर्लोकस्य, भारभूताः धोभारैकवाहिन. । अहह इति खेदे अव्ययम् । कति न सन्ति, नामधारिण' के Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ चण्डीशाष्टकम् देवस्त्वेकस्त्रिलोकाद्मरविषकवलीकार केलीविदग्धो वर्धयर्तानुकम्पाधृततनुघटनासेचनो रेरिहाणः ॥ ५ ॥ पुष्पाने वाढं विबुधविटपिषूत्कर्षपुष्पप्रकर्षं तन्त्रसुप्तोऽपि सद्यो मयपुरदहनं यो व्यधाद्विश्वभूत्यै । सोऽव्यान्मूर्तोऽप्यमूर्ती यतिरपि सतताहीनभोगोपभोगी कान्ताश्लिष्टोऽप्यकान्तः शशधर मुकुटालंकृतिर्देवदेवः || ६ || वा नासते । एक: अनन्यसदृशः, त्रिलोकस्य अमर भक्षणप्रसक्त यत् विषं गरलं, तस्य कवलीकारः निगरणमेव केलिः क्रीडाव्यापारः, तत्र विदग्धः निपुणो रेरिहारण: देवदेव शिवः । आर्तानां त्रिविधदुःखतप्तानां उपरि या अनुकम्पा वात्सल्यरूपो दयाभाव; तया धृता धारिता या तनु शरीरं तेन आसेचन. अतिमनोहरः । वर्वर्ति अतिशयेन चकास्ति । ६- पुष्पाणां कुसुमसङ्घातानां नेहा सुरभिसमय । स इव बाढं अत्यन्तं यथा स्यात्तथेति क्रियाविशेषणम् । विबुधा. सुमनस एव विटपिन. पादपाः तेषां उत्कर्षरूप. सौभाग्यैक फलः यः पुष्पात्मक प्रकर्षः कुसुमसमृद्धिरूपो उदय तम् । सुप्त निद्रितः सन्नपि तन्वन् वितरन् । यो हि निद्राति स कथं अन्यस्मै उत्कर्ष वितरितु प्रभवेदिति विरोधाभासो नामात्रालङ्कारः । विरोधनिरासस्तु सुष्ठु ताजटा यस्येत्यर्थाश्रयणात् कर्तव्यः । यः विश्वभूत्यै जगतां वैभवस्य संरक्षणाय, लोकानामभ्युदयाय च । सद्य सपद्येव, मयपुरस्य मयेतिनाम्ना प्रसिद्ध ेन शिल्पिना निर्मितस्य, स्थापत्यकलारमणीयस्य नगरस्य । दहनं भस्मीभाव व्यधात् व्यधत्त । स महामहिममूर्ति, मूर्तः सन्नपि अमूर्त, लोकोपकृत्यै दयादाक्षिण्यादिभिरनुरूपै. सातिशयै गुणै. नानाशरीरमाश्रित. । अमूर्त अदृश्यतनुः । यो हि मूर्तः न स अमूर्तो भवितुमर्हति इति विरोधाभासः । परिहारस्तु सगुण-निगुणत्वरूपाभ्या विभ्राजमान इत्यर्थाश्रयणात् । यतिः भिक्षुः सन्नपि सततं अविरतं अहीनः अत्युत्कृष्ट यः उपभोग. नानाविधो विषयास्वादः तं उपभुङ्क्ते तच्छील' अहीनभोगोपभोगी । अत्रापि पूर्ववत् विरोधाभासो द्रष्टव्यः । तन्निरासस्तु हीनां सर्पाणां यः इनः स्वामी वासुकिः तस्य यः भोगः फरणा तामुपभुङ्क्ते इत्येवंरूपार्थकरणात् । कान्तया गौर्या लिष्टः लिङ्गित. सन्नपि, Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः देवानां सार्वभौमो विविधभवभवाज्ञानवाटीकुठारः श्रेयः श्रीरङ्गशालाखिलनिगमकलाकल्पनोल्लाससीमा । सा होभङ्गवीजं मुनिजनहृदयागाररत्नप्रदीप: कश्चिद्भ मास्तु भूत्यै स्फुटकुमुदवनीभार्गवीगेयकान्तिः ॥७॥ क्रोडक्रीडत्पृदाकूत्कटविकटजटाटोपटंकारकेलि त्रुध्यन्नक्षत्रचक्रक्रमिकचटचटाकारिवृष्टिप्रकृष्टम् । अकान्तः कान्तया रहितः विधुर इति यावत् । इहापि विरोधः आभासते । स च एवं परिहरणीयः- अकानां क्लेशानां पापानां वा अन्तो यस्मादिति । शशधरः शशं मृगभेदं धरति इति शशधरः चन्द्रः, स एव मुकुटस्य शिरोभूषणस्य अलंकृतिः आभरणं यस्य तादृश. । स. देवदेवो महादेवः अस्मान् अव्यात् रक्षेत् । -देवानां अमराणां सार्वभौम सर्वभूमेरीश्वर. 'सर्वभूमिपृथिवीभ्यामणबौ' इत्यण । चक्रवर्ती पार्थिव. । विविध' अनेकयोनिमुक्त. यो भवः उत्पत्तिः तत्र भवाना उत्पन्नानां अज्ञानाना तमोरूपाणां या वाटी उपवनं, तस्याः कृते कुठार. परशुरिव सद्यः संहारक. । श्रेयस' मुक्तिधाम्न. या श्रीः सुषमा, तस्याः रङ्गशाला अभिनयभूमिः । अखिला. ये निगमा' वेदोपवेदाः, उपनिषदादयो वेदशिरोभागाश्च तेपां या कला नवनवो उदय', तस्याश्च य कल्पनोल्लासः कल्पनाप्रसूत. अाह्नादः । तस्य मीमा पार्यन्तिकीभूः । सर्वाणि यानि अंहासि पापसङ्घाः तेपां भगस्य उच्छेदस्य बीजं आदिकारणम् । मुनिजनानां सनकादितपोमूर्तीनां हृदयागारस्य महतः प्रतिष्ठायतनस्य, रत्नप्रदीपः स्न इव भास्वरः प्रकाशस्तम्भः । स्फुटा विकसिता या कुमुदवनी कहारवाटिका । सा इव भासमाना या भार्गवी पार्वती, तया गेया कान्तिः सुपमासौभाग्य यस्य तथाविध । कश्चित् अनिर्वचनीयमहिमा । भूमा परमात्मा । भूत्यै सर्वविधोत्कर्षाय अस्तु जायताम् ।। ८- कोडे उत्सङ्गे क्रीडतां खेलां कुर्वतां पृदाकूनां सारणां, उत्कटे महति प्रशस्ते, विकटे विशाले जटाया आटोपे संभारे, या टंकारशब्दानां केलिः क्रीडा, तया त्रुट्यन यो ननाचक्र तारकवृन्द', तस्य च या कमिका यथोत्तरं Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चण्डीशाष्टकम् उच्चैर्दोर्दण्डखण्ड भ्रमणवलयिताशेभचीत्कारचण्डं εξ पादप्रक्षेपकम्प्रक्षिति मदनकृपस्ताण्डवं नः पुनातु ||८|| ॥ इति - चण्डीशाष्टकम् ॥ वेगवती चटचटाकारिणी चढचदेति शब्दायमाना, वृष्टिः वर्षणं तया प्रकृष्टं भव्यम् | उच्चैः उन्नतस्य, दोर्दण्डस्य भुजयुगलस्य, यः खण्डः शकलं तस्य भ्रमणेन इतस्तत. चलनेन वलयितानां सर्वतो वेष्टितानां, श्राशानां दिङ्मण्डलानां, ये इना करिणः तेपां चीत्कारेण चीत्कारशब्देन भयोत्पादकेन वृंहितेन वा चण्ड अत्युग्रम् । पादप्रक्षेपकम्प्रक्षिति पादप्रक्षेपेन पादन्यासेन कम्प्रा कम्पनवती क्षिति, धरित्री यस्मिन् । एतादृशं मदनकृषः मन्मथमानभञ्जकस्य शिवस्य ताण्डव तण्डुना मुनिना प्रोक्तः सुप्रसिद्धो नृत्यविशेष. । न अस्मान् पुनातु पवित्रीकरोतु । ॥ इति चण्डीशाष्टकम् ॥ १ - नृत्यं तावत् पुंस्त्रीभेदभिन्नतया द्विविधं परिभाष्यते । तत्र पुं नृत्यस्य प्रतिनिधिभूतं ताण्डव स्त्रीनृत्यस्य च लास्यम् । यथोक्तम् 'पु' नृत्यं ताण्डवं प्राहु स्त्रीनृत्यं लास्यमुच्यते ।' इति । तदिदमुभयं जगतो मातापितृभ्यां पार्वतीपरमेश्वराभ्यां प्रवर्तितं मिथुनसृष्टिरूपस्यास्य विश्व-प्रपश्चव्यापारस्य तद्गतस्य च आनन्दरसोल्लासस्य सर्वस्वभूतम् । कल्पनयैवास्य सकलमपि ब्रह्माण्डं परिभ्रमन्निव श्रलक्ष्यते । एकेनैवानेन सौरमण्डलादारभ्य धरामण्डलान्तः विश्वविकासस्काररूपः सर्वोऽपि क्रियाकलाप. प्रतिबिम्बितः सन् ताण्डवस्य विलक्षणं ज्ञानगूढं च रहस्यमाचेदयति । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० दुर्गापुष्पाञ्जलिः हरिहराष्टकम् । एकत्र शृङ्गाररसानुविद्ध परत्र वैराग्यपथाधिरूढम् । परस्परस्नेहगेकदृश्यं वन्दामहे हारिहरस्वरूपम् ॥ १ ॥ उपासनाकोटिकथानकेऽपि द्वतोपसर्गस्य जिहीर्षयेव । अद्वतभावार्पितकलिकायं वन्दामहे हारिहरस्वरूपम् ॥ २ ॥ हरिहराष्टकम् । १-एकत्र विष्णुरूपात्मना लीलाविग्रहतामुपेयुपि, शृङ्गाररसेन ललितमधुराभि शृङ्गाररस-विच्छित्तिभिः, अनुविद्धम् आश्लिष्टम् । शृङ्गाररसोजितां भूमिकामादधानमिति यावत् । परत्र शिवात्मना अवतीर्णः सन् । वैराग्यपथं विरागस्य भावो वैराग्यम् । तस्य पन्थाः वैराग्यपथः । समासान्तोऽच् प्रत्यय. । 'विषयवि. तृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् ।' (यो. द. १. १५) तस्मिन् अधिरूढः तम् । वैराग्यभावमनुप्रविष्टमिति यावत् । परस्पर अन्योन्यं स्नेहहशा अनुरागातिशयेन एक अभिन्न दृश्यं साक्षात्कारो यस्मिन् । तथाविधं हारिहरस्वरूपं हरिहरयोरिदं हारिहरं स्वरूपं वन्दामहे प्रतीभावेन आनताः स्म. 1 उपजाति-वृत्तम् ।। २-उपासनानां ईश्वरोपास्तीनां याः कोटयः उच्चावचा. भेदोपभेदाः तासां कथानके विविधाख्यानवैचित्र्योद्भासिते सत्यपि । द्वतोपसर्गस्य द्विधा इतं द्वीतं तस्य भाव द्वैतम् द्विवाभाव. पार्थक्यमिति यावत् । तदेव असद पप्रवृत्ततया उपसर्ग. उत्पातः तस्य जिहीर्या हातुमिच्छा । 'योहार त्यागे' इत्यत सन्नन्तादप्रत्ययः । तया इव । सर्वात्मना द्वैतच्छेदायवेत्यर्थः । अद्वैतभावे एकस्मिन् चिद्र पपरमार्थे अर्पितः उपसर्जनीकृत. केलिरूप. काय. विग्रहो यस्मिन् तथाभूतम् । तत एव अनुत्तरप्रकाशपश्चाशिकादिपु Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिहराष्टकम् हरिहरस्यैप हरो हरेश्च सौहार्दसीमानमुपैति बाढम् । इत्यादराद् व्यासगवीषु गीतं वन्दामहे हारिहरस्वरूपम् ॥ ३ ॥ एकत्र लक्ष्मीललितानुकारि परत्र गौरीगुरुतापहारि । 'शिवादिक्षितिपर्यन्तं विश्वं वपुरुदब्बयन् । पञ्चकृत्यमहानाट्यरसिकः क्रीडति प्रभुः ॥ इत्येवमायुक्तयः प्रथन्ते । चतुर्थश्चरणः सर्वत्र समानार्थको यथायथं योजनीयः । ३-एष हरिः हरस्य, हरश्च हरेः बाढं अत्यन्तं यथास्यात्तथा । सौहार्दस्य अन्योन्यानुरागरूपस्य सीमानं उत्कर्षातिरेकं उपैति प्राप्नोति । हरिहरयोः परमार्थतो न कश्चन भेदप्रसर इति तात्पर्यम् । इति हेतोः व्यासगवीषु कृष्णद्वैपायनोक्तिषु आदरात श्रद्धाभरात् गीतं सविशेषमुपश्लोकितम् । तथा च हरिहरयोः स्नेहानुबन्धमुदिश्य महाभारते 'यस्त्वां वेत्ति स मां वेत्ति यस्त्वामनु स मामनु । नावयोरन्तरं किंचिन्मा ते भूद् बुद्धिरन्यथा ॥ अद्यप्रभृति श्रीवत्सः शूलाको मे भवत्वयम् । मम पाण्यङ्कितश्चापि श्रीकण्ठस्त्वं भविष्यसि ।।' (शान्तिप. मोन. अ. ३४३ श्लो. १३३-१३४) तत एव च ' 'उभयोरेका प्रकृतिः प्रत्ययभेदाच्च भिन्नवद्भाति । कश्चिन्मूढः कलयति हरिहरभेदं विना शास्त्रम् ॥' इत्याधु च्यमानं पर संवादमावहति । हरतीति हरिः हरश्च । पूर्वत्र 'अच इ.' (उणा. ४।१३६ ) परत्र ‘पचाद्यच्' (पा. सू. ३. १. १३४)। - --४-एकत्र विष्णुरूपत्वप्रथां दधाने सति । लक्ष्म्याः ललितं शृङ्गारानुगुणश्चेष्टाविशेषः तं अनुकरोति अनुसरति इति तथाभूतम् । शृङ्गारोदयैरुपस्कृतमिति Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः सरस्वतीगीतगुणप्रवाह चन्दामहे हारिहरस्वरूपम् ॥ ४ ॥ गाङ्ग स्तरङ्गरधऊर्ध्वशोभि विशेषितं शेषविजृम्भितेन । शङ्खावदानाकलनासु कल्यं वन्दामहे हारिहरस्वरूपम् ॥ ५ ॥ अन्योन्यकायच्छविकल्पितेन श्यामेन गौरेण च रोचिषाढ्यम्। भावः । परत्र शिवरूपे, गौर्या. पार्वत्या. यो गुरुताप. पतित्वावाप्तिरूपफलकामनया गभीरतमः संतापः, तं हरति इति तथाभूतम् । सरस्वत्या वाग्देवतया गीतः वाच्य-लक्ष्य व्यङ्गथविधया प्रकाशितः गुणानां प्रवाहो यस्य तत् । शेष प्राग्वत् । ५-गागः मन्दाकिनीप्रभवै. तरङ्गः वीचिच्छटाभिः । अधः चरणप्रान्ते ऊर्ध्व शिरोभागे च शोभते इत्यधऊर्ध्वशोभि । विष्णुपदाद् शिवस्य जटाजूटाच्च भागीरथ्या उद्गम इति पुराणादिपु सुव्यक्तम् । तत एव चास्या विष्णुपदीति नाम लोके प्रथां प्रापत् । एवं मुद्राराक्षसादौ 'धन्या केयं स्थिता ते शिरसि' इत्युपक्रम्य 'देव्या निहोतुमिच्छोरिति सुरसरितं शाध्यमव्याद् विभोर्वः । इति । तथा 'स्खलन्ती स्वर्लोकादवनितलशोकापहृतये । जटाजूटग्रन्थौ यदसि विनिवद्धा पुरभिदा ।' इति गङ्गालहर्यादौ च कवीनां वानिष्यन्द. । शेप सर्पराजो वासुकिः तस्य विजृम्भितेन एकत्र शय्यास्तरणादिना परत्र कण्ठाद्याभरणतां गतेन तत्तद् विलसितेन । विशेषितं प्रेमास्पदीभूतम् । शङ्खः पाञ्चजन्यं नागविशेषश्च । तस्य यत् अवदानं विक्रमाचरितं तस्य आकलनासु अनुसन्धानेपु कल्यं निपुणम् । अन्यत्स्पष्टम् । ६-अन्योन्यस्य परस्परत्य या कायच्छविः देहा तिः तया कल्पितेन प्रतिविम्बितेन श्यामेन श्यामवर्णेन गौरेण गौरवर्णेन च रोचिपा प्रभया पाट्यम्विचम् । उत्सर्पिणी अन्योन्यव्यतिपक्ता या गङ्गायमुनयोः अमि. तरङ्गसंतति. Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिहराष्टकम् उत्सर्पिगङ्गायमुनोर्मिसंस्थं वन्दामहे हारिहरस्वरूपम् ॥ ६ ॥ पर्यन्तभीमा गुणभेददृष्टि .. मा भूच नौ मायिकविग्रहेऽपि । इत्युल्लसद्वर्णविपर्ययामं वन्दामहे हारिहरस्वरूपम् ॥ ७॥ न वस्तुतो ब्रह्मणि कल्पितेषु मायावतारेषु भिदावकाशः । तस्मिन् संस्थं अवस्थितम् । परस्परं संपृक्तयोः गङ्गायमुनयोः सङ्गम इव कमपि विच्छित्तिविशेषमावहन्तमिति भावः । एतवर्णनानुरूपमेव इहेदं पद्यद्वयम्'परिणतशरदिन्दुसुन्दराभं - वदनमनभ्रनभोनिभश्च कण्ठः। . . इति शुभमुभयं विभोरभिन्न त्रिदशधुनीयमुनाविडम्बि वन्दे ।। हिमहिमकरहारि वारि गाङ्ग कुवलयकान्ति कलिन्दकन्यकाम्भः । इवि शुभमुभयं प्रभुप्रसादाद् वपुरिव हारिहरं वरं प्रपद्ये ॥' ७- नौ श्रावयोः मायिकविग्रहे माया अस्ति अस्येति मायिकः ठन् । मायाजनितः काल्पनिको वा यो विग्रहः शरीराधानं तस्मिन्नपि । पर्यन्ते तत्त्वतः - परमार्थाकलनप्रसङ्गे भीमा भेदोपस्कारकतया भयोत्पादिनी । गुणैः सत्वरजस्तमोरूपः, या भेददृष्टिः पृथक्तया हरिहरयोः स्वरूपप्रतिपत्तिः, सा मा भूत् मा प्रसाङ्क्षीत् । 'न माझ्योगे' इत्यडागमप्रतिषेधः । इति हेतोः उल्लसन्ती स्फीतं चकासन्ती वर्णविपर्ययस्य अन्योन्यश्यामगौररूपायाः वर्णसङ्क्रान्तेः अाभा दीप्तिर्यस्मिन् तत् । शेष स्पष्टम् । ८- वस्तुतः परमार्थदृशा, ब्रह्मणि प्रत्यगात्मस्वरूपे परब्रह्मणि, कल्पितेषु उपासकजनचित्तावतरणार्थं नानाविधां नामरूपात्मिकां कल्पनाभूमिमवतीर्णेषु । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ १०४ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः इतीव सत्यापयितु निरूढं वन्दामहे हारिहरस्वरूपम् ॥८॥ एतन्मायिकनामरूपरचनाप्राग्भारविस्फूर्जितं सत्यं वानृतमेव वेत्युभयथावादेऽपवादास्पदम् । वन्दालहर मायावतारेपु त्रिगुणात्मिकां नामरूपशय्यामधितिष्ठत्सु । भिदायाः भेदनं भिदा । 'पिद्भिदादिभ्योऽड्' इत्यङ्प्रत्ययः । तस्याः अवकाशः अवसरः नोपतिष्ठते । तथा च रामतापिन्याम् 'चिन्मयस्याद्वितीयस्य निष्कलस्याशरीरिणः । उपासकानां कार्यार्थे ब्रह्मणो रूपकल्पना ।।' एवम् 'ब्रह्मविष्णुशिवा ब्रह्मन् प्रधाना ब्रह्मशक्तयः ।' इत्यादिकं योगवार्तिकादिपु प्रतिपद्यामहे । अस्यैवोपबृहणम् 'निर्विशेष परं ब्रह्म साक्षात्कर्तुमनीश्वराः । ये मन्दास्तेऽनुकम्प्यन्ते सविशेषनिरूपणै. ॥ वशीकृते मनस्येषां सगुणब्रह्मशीलनात् । तदेवाविर्भवेत् साक्षादपेतोपाधिकल्पनम् ।।' इति । इतीव सत्यापयितुं एवमिदमिति सत्याभिधित्सया एव । सत्यापशब्दात् 'सत्यापपाशे ति णिच् ततस्तुमुन् । निरुढं अनादिकालात् प्रसिद्ध हारिहरस्वरूपं चन्दामहे । ६- एतत् दृश्यात्मना परिणतं, जनैरनुभूयमानं वा । मायिकनामरूपरचनाप्राग्भारविस्फूर्जितं मायिकी मायोद्भाविता या परब्रह्मणः नामरूपयोः रचना अनन्तप्रकारायमाणः कल्पनाविन्यास', तस्याश्च य. प्रारभारः, उत्कर्षः तेन विस्फूर्जितं विविधाकारवहलम् । सत्यं ऋतं अनृतं असत्यं वा, इति एवंरूपेण * इह प्रकृतयोः हरिहरयोः परमार्थतत्त्वं परामशद्भिः पुष्पाञ्जलिकाराणां अस्मत्पितामहचरणानां चातुर्वर्ण्यशिक्षायाः वेददृष्टि सधीविभवं विभावनीया । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिहराष्टकम् १०५ सिद्धान्तं सुधियां हृदि प्रथयितु द्वधावसानायितं शान्तं हारिहरस्वरूपमवतासंसारभीतेर्जगत् ॥६॥ ॥ इति हरिहराष्टकम् ॥ उभयथा सदसद्र पतया, वादे तत्त्वनिर्णयपुरस्सरं निरूपणे, अपवादस्य विशेषविधिरूपस्य बाधकस्य, आस्पदं स्थानम् । सुधियां सत्यकामानां मनीषिणां न तु मत्सरिणाम् । हृदि चित्तादर्श, द्वैधस्य द्वैतरूपस्य यत् अवसानं विरामः, तदाकारतया निर्णीतो यः सिद्धान्तः, सत्यैकरूपो निष्कर्षः तम् । प्रथयितु यथायथं विज्ञपयितुम् । शान्तं शमतरङ्गितं अनास्थाकर दवादोपद्रवैश्व एकान्ततो विरहितम् । हारिहरस्वरूपं मिथो भिन्नतया प्रतिभासमानमपि परमार्थतोऽभिन्नम् । संसारभीतेः जगदेकजन्मनो भयावतरणात् । जगत् विश्वात्मकमिदं प्रतिष्ठानं अवतात् रक्षतात् । शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् । ॥ इति हरिहराष्टकम् ॥ १-एकः खलु परमेश्वर इति सर्वसम्मतः सिद्धान्तः । न च । 'अनस्तमितभारूपस्तेजसां तमसामपि । य एकोऽन्तर्यदन्तश्च तेजांसि च तमांसि च ।। स एव सर्वभावानां स्वभावः परमेश्वरः । भावजातं हि तस्यैव शक्तिरीश्वरतामयी ॥' इत्यादिना पुरस्क्रियते । ततश्च वेवेष्टि इति विष्णुः, शिवयति इति शिवः इति शब्दव्युत्पत्त्या उभयविधोऽपि वाच्यार्थः परस्परं संयुज्यमान एकामेव व्यक्ति निर्दिशति इति हरिहरयोरभेद शास्त्रेष्वभिहितः सङ्गच्छतेतराम् । तत एव अध्यात्मरामायणे 'अयं च विश्वोद्भवसंयमानामेकः स्वमायागुणबिम्बितो य. ॥ विरश्चिविष्ण्वीश्वरनामभेदान् धत्त स्वतन्त्रः परिपूर्ण श्रात्मा ॥' इत्युपश्लोक्यते । एवं कविसृष्टावपि___'हरिशंकरयोः सितासितं भुजगारातिभुजङ्गलाञ्छनम् । वपुरस्तु मुदे विरुद्धयोरपि संसर्गि न भिन्नतां गतम् ।। इत्येवमुपवण्यते । अधिकं दिनुभिरस्मत् पितामहानां हरिहरभेदनिरासो विलोकनीयः । यदन्ते एवमुपसंहृतम् 'मतिकर्दमेषु मग्नानुपासकानृजुपथं समानेतुम् । हरिहरभेदनिरासोऽजनिष्ट शास्त्राणि संधाय ||' इति । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः शिव-गाथा । जय जय गिरिजालंकृतविग्रह; .जय जय बिनताखिलदिक्पाल । जय जय सर्वविपत्तिविनाशन,. जय जय शंकर दीनदयाल ॥ १ ॥ जय जय सकलसुरासुरसेवित, जय जय वाञ्छितदानवितन्द्र । जय जय लोकालोकधुरंधर, जय जय नागेश्वर धृतचन्द्र ॥२॥ शिव-गाथा । १- गिरिजया पार्वत्या अलंकृत. विभूपितः विग्रह. देहो यस्य तत्संबुद्धिः । जय जयेति सर्वत्र वी'सायां द्विरुक्ति.। विनता. प्रणताः अखिलाः समस्ताः दिक्पाला दिशामधीशाः यस्य स. । सर्वासां विपत्तीनां आपदां विनाशनः संहारकः । दीनेषु दुर्गतेषु दयनीयेषु वा दयाल. दयालु' । दीनदयालशब्दो आर्तत्राणमभिदधत् ईश्वरपर्यायतया लोके वहुलं प्रयुज्यते । स चात्र कविनोपनिवद्धो भक्तस्य अधिकाधिका देवविपयां रतिं पुष्णाति । एवमादिस्थलेषु अपभ्रंशशब्दा अपि प्रयुज्यमाना रसभावादिपरिपोषकतया परं चारुत्वोत्कर्ष घटयन्तीति कविसमयः। क्वचित् सत्यावश्यके प्रासनिर्वाहार्थमपि तथा प्रयुज्यमानं न दोषायेति शब्दसाधुत्वपक्षपातिभिर्नात्र विमनायितव्यमिति सक्षेप. । एवमुत्तरत्रापि द्रष्टव्यम् । अस्यां गीतिकायां भगवतः स्वाभिमुखीकरणाय सर्वेऽपि संबोधनान्ता एव शब्दा प्रयुक्ता इति तेषां समास-विग्रह-प्रदर्शनावसरे प्रतिपदं संवोधननिर्देशो मन्दप्रयोजन इति कृत्वा नैवाहत इत्यवधेयम् । २- सकलै समस्तः सुरासुरै. देवः दानवैश्च सेवित. भक्त था समुपासितः । वाञ्छितस्य मनोमिलपितस्य दाने वितरणे वितन्द्रः विगता तन्द्रा यस्य तथाभूतः निरालस इत्यर्थः । लोकालोकस्य लोकानां त्रिभुवनरूपाणां आलोकः प्रकाशः Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिवगाथा जय जय पण्डितपुरीनिवासिन्, 1 1 जय जय करुणाकल्पितलिङ्ग । जय जय संसृतिरचना शिल्पिन् CT जय जय - भक्तहृदम्बुजभृङ्ग ।। ३ ।। जय जय भोगिफणामणिरञ्जित, जय भूतिविभूषितदेह । {1 जय यस्मिन् तादृशः यः उदयाचलशैलः तस्य धुर धरति बिभर्ति तथाभूतः । नागानां सर्पाणां ईश्वरः प्रभुः । धृतः मूर्ध्नि धारितः चन्द्रो येन स' | ३ - पण्डितपुर्यां एतन्नाम्ना सुप्रसिद्धे पण्डितानामावासे निवसति तच्छीलः पण्डितपुरीनिवासी ततः सम्बुद्धिः । अत्रेयं पुष्पाञ्जलिकाराणां पद्यद्वयी प्रसङ्गादुद्भियते १०७ 'अखण्डसौभाग्यविभूतिसूतिविश्वम्भरालंकरणैकहेतुः । समीहिताकल्प नकल्पवल्ली जयत्ययोध्या कमलालया च ॥ १ ॥ तस्याः पृष्ठचरीव पश्चिमदिशि क्रोशाष्टकाभ्यन्तरे पाण्डित्यास्पदमस्ति पण्डितपुरी पिल्खांबपर्यन्तभू । यत्राभ्यर्थनतोऽपि भूरिदतया गीतावदानोत्करः प्रायद्यतिशेखरो विजयते श्रीजङ्गलीवल्लभः ॥ २ ।। =1 करुणया अनुकम्पातिशयेन कल्पितं गृहीतं लिंग पार्थिवादिरूपं येन तथाभूतः । ससृतेः ससाररूपायाः या रचना निर्माणकौशलम् तस्य शिल्पी कारु. विश्वकर्मास्वरूपो वा । भक्कानां हृत् मानसमेव अम्बुजं कमलं तत्र भृन. भ्रमरायमाणः । ४ - भोगिनां श्रहीनां याः फणा: स्फटाः 'स्फटायां तु रणाद्वयोः' इति कोपः । तासु च ये मरणयः तैः रञ्जितः प्रसादितः । भूत्या भस्मना 'भूतिर्भसितभस्मनि ' इत्यमरः । विभूषितः सम्यगलङ्कृतः देहो यस्य सः । पितृवनं श्मशानभूमिः Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः जय जय पितवनकेलिपरायण, जय जय गौरीविभ्रमगेह ॥४॥ जय जय गाङ्गतरङ्गलुलितजट, जय जय मङ्गलपूरसमुद्र । जय जय बोधविजृम्भणकारण, जय जय मानसपूर्ति विनिद्र ॥ ५ ॥ जय जय दयातरङ्गिन्तलोचन, जय जय चित्रचरित्रपवित्र । जय जय शब्दब्रह्मविकाशक, जय जय किल्विपतापवित्र ॥ ६॥ 'श्मशानं स्यापितृवनम्' इत्यमरः । तत्र या केलि. क्रीडाव्यापार तस्यां परायणः प्रसक्तः । गौर्याः पार्वत्याः विभ्रमाणां शृङ्गारचेष्टितानाम् गेहः सदनम् । ५- गाङ्गैः सुरसरित्संभवैः तरङ्गैः वीचिभिः लुलिता इतस्तत आर्द्राभूता जटा केशसमूहो यस्य तथाभूतः । मङ्गलपूराणां माङ्गलिकानां अपां समुद्रः सागरः । वोधः ज्ञानम् तस्य यत् विजृम्भणं स्फारोल्लास तस्य कारणं निदानभूतम् ) मनसि भवं मानसं मनोवाञ्छितं तस्य पूर्ती यथायथं संपादने विनिद्रः विगतनिद्रः प्रबुद्ध इति यावत् । ६- दयया वात्सल्यरसपूरेण तरङ्गिते सिक्के लोचने नयने यस्य तादृशः । चित्रै. विस्मयकरैः, चरित्रैः लोकोद्दिधीर्पया यथावसरमनुष्ठितः तैस्तैापारजाते, पवित्र पूतम् । शब्दब्रह्मणः अकारादि ज्ञान्तस्य वर्णराशे', विकाशकम् प्रकाशकभूमिम् । तथा च पठ्यते वाक्यपदीये 'अनादिनिधनं ब्रह्मशब्दतत्त्वं यदक्षरम् । विवर्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यत' ।।' इति । किल्विषं पापमेव संतापजनकत्वात् तापः तस्य धवित्रम् । धूयते अनेन इति धवित्रं व्यजनम् । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिवगाथा १०४ जय जय तन्वनिरूपणतत्पर, जय जय योगविकस्वरधाम । जय जय मदनमहाभटभञ्जन, ___जय जय पूरितपूजककाम ॥७॥ जय जय गङ्गाधर विश्वेश्वर, जय जय पतितपवित्रविधान । जय जय वंनाद कृपाकर, जय जय शिव शिव सौख्यनिधान ॥८॥ ७- तन्त्राणां शिवशक्तिमुखोद्गतानाम् , निरूपणे सम्यक् प्रकाशने, तत्परं श्रासतम् । स्वयमद्वितीयो भवन्नपि परमशिवः प्रकाशविमर्शरूपं द्विविधं विग्रहं विरचितवान् । तत्र विमशीशेन प्रश्नः प्रकाशांशेन च तदुत्तरमित्येवंरूपेण तन्त्राणमर्धनारीश्वरमुखादाविर्भावः । तथाचोक्तं स्वच्छन्दतन्त्रे 'गुरुशिष्यपदे स्थित्वा स्वयमेव सदाशिवः । प्रश्नोत्तरपरैर्वाक्यैस्तन्त्रं समवतारयत् ।।' इति । तथा तन्त्रं जज्ञे रुद्रशिवभैरवाख्यमिदं त्रिधा ।। वस्तुतो हि त्रिधैवेयं ज्ञानसत्ता विजृम्भते । भेदेन भेदाभेदेन तथैवाभेदभागिना ॥' इति ।। तदेवं भेद-भेदाभेद- अभेदप्रतिपादकतया शिव-रुद्र-भैरवाख्यं इदं शास्त्र विधा समुद्भूतमिति तात्पर्यम्। योगेन चित्तवृत्तिनिरोधरूपेण विकस्वरं विकशनशीलं धाम पद यस्य तथाभूतः । मदनः कामदेवः स एव लोकस्य अजेयतया महाभटः अत्युग्रपराक्रमो वीरः तस्य भञ्जनः मानभङ्गकरः । पूरितः पूर्णतां नीतः, पूजकस्य अर्चनतत्परस्य काम मनोरथं येन सः । ८-धरतीति धर. पचाद्यच् । गङ्गायाः धरः धारकः । विश्वेषां ईश्वरः स्वामी विश्वेश्वरः । पतितानां लोक-परलोकभ्रष्टानां वर्णाश्रमबहिभूतानां वा पवित्रं Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-पुष्पाञ्जलि य इमं शिवजयवादमुदार - । पठति सदा शिवधाम्नि । तस्य सदाशिवशासनयोगा न्माद्यति संपन्नाम्नि ॥ ६ ॥ ॥ इति शिव-गाथा ।। पूतं विधानं विधिरूपेण स्थितम् । सुखस्य भावः सौख्यम् । भोगमोक्षोभयात्मकं यत् स्वान्तःसुखम्, तस्य निधानं निधिरूपेण वर्तमानम् । ___-यो जन. इमं प्रकृतं मदुक्त उदारं उदारभावेन शुद्धान्तःकरणेन च रचितं, शिवस्य सर्वलोकगुरोः जयवादं जयजयेति शब्दैः प्रतिपदमुदीरितं वादं गुणानुवादरूपं श्रारात्रिक, सदा अविच्छिन्नतया शिवधान्नि शिवालये शिवसन्निधाने वा पठति अर्थानुसन्धानपुरस्सरं उच्चरति । तस्य नाम्नि नामोच्चारसमकालमेव, सदाशिवस्य करुणैकधाम्नः शंकरस्य, शासनयोगात्-शासनं आज्ञाप्रदानं तस्य योगात् संवन्धघटनात्। संपत् सर्वविधा अपि संपत्ति माद्यति मोदमुपयाति । ॥ इति शिव-गाथा ।। १-अराव्यापि निवृत्त आरात्रिकम् नीराजनम् । ठञ् । 'भारती' इति लोके प्रसिद्धम् । दीपं हि निश्येव प्रदर्श्यते, इदं पुनर्दिनेऽपि दय॑ते । तन्निमित्तकः स्तुतिपाठोऽयुपचारादारात्रिकमित्युच्यते । अयमत्र विशेषः 'ततश्च मूलमन्त्रेण दत्वा पुष्पाञ्जलित्रयम् । महानीराजनं कुर्यात् महावाद्यजयस्वनैः ।। प्रज्वालयेत्तदर्थं च कपूरेण घृतेन वा । आरात्रिकं शुभे पात्रे विषमानेकवर्तिकम् ॥ इति । अन्यच्च'आदौ चतुप्पादतले च विष्णो नाभिदेशे मुखमण्डलैकम् ।। सर्वेषु चाङ्ग पु च सप्तवारा नारात्रिकं भक्तजनस्तु कुर्यात् ।।' इति । प्रायेण तत्तदेशभापावेव देवानामारात्रिकानि सुप्रसिद्धानि सन्ति । देववाण्यां पुनरेषां विरल प्रचारो दृष्टः । प्रकृता शिव-गाथा'यारात्रिकभावमधुरा परं मनस्तोपं जनयति । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *'सरयू-सुधा १११ - सरयू-सुधा । तेऽन्तः सत्त्वमुदश्चयन्ति रचयन्त्यानन्दसान्द्रोदयं दौर्भाग्यं दलयन्ति निश्चलपदः संभुञ्जते संपदः । शय्योत्थायमदभ्रभक्तिभरितश्रद्धाविशुद्धाशया मातः ! पातकपातकत्रि.! सरयु त्वां ये भजन्त्यादरात् ॥ १ ॥ किं नागेशशिरोवतंसितशशिज्योत्स्नाछटा संचिता किं वा व्याधिशमाय भूमिवलयं पीयूषधाराऽऽगता । सरयू-सुधा। १-हे मातः । पातकपातकत्रि । सरयु । पातयति अधो गमयति इति पातकम् । पातित्यसपादकं पापम् । तस्य पातं पातन करोति इति तत्सबोधनम् । ये जना. लोकाः, त्वाम् भवतीम् । शय्योत्थायं शय्योत्त्थानादुत्तरक्षणे । 'अपादाने परीप्सायाम' (पा. सू. ३. ४. १२) इति णमुल् । परीसा त्वरा । एवं नाम खरते यदवश्यं कर्तव्यमपि नापेक्षते, केवलं शय्योत्स्थानमात्रमपेक्षते । अद्रभ्रभक्तिभरितश्रद्धाविशुद्धाशया. । अद्भा प्रचुरा या भक्तिः अनुरागबाहुल्यम्, तया भरिता परिपूर्णा या श्रद्धा आदरातिशय., तया विशुद्ध. अतिविमल. प्राशय. चेतो येषां ते तादृशाः सन्तः । आदरात्. सन्मानबुद्धथा भजन्ति स्नानादिना त्वदुत्सङ्ग सेवन्ते । ते अन्त हृदयधाग्नि सत्त्वं सीदन्त्यस्मिन् गुणाद्याः इति सत्त्वम् बलादिकम् । 'सत्त्वं गुणे पिशाचादौ बले द्रव्यस्वभावयो.।' इति मेदिनी । उदश्चयन्ति वर्धयन्ति । आनन्दस्य प्रमोदस्य यः सान्द्र' निविड', उदयः उल्लासः तम् । रचयन्ति संपादयन्ति । दुर्भाग्यस्य भावो दौर्भाग्यम् दुर्दैव दला त. खण्डयन्ति । निश्चलपद. निश्चलं स्थिरं पदं यासा ताः । संपद. नानाविधानि वैभवानि । संभुञ्जते आस्वदन्ते । 'भुजोऽनवने' (पा. सू. १. ३. ६६) इति कर्तरि तड् । इह उपभोगो भुजेरर्थः । शार्दूलविक्रीडितं छन्दः । २-किं नागेशस्य सरयूतटमलङ् कुर्वाणस्य ज्योतिलिङ्गस्य शिवस्य । 'नागेश दारुकावने' इति शिवपुराणात् । भवति चात्र नागेश्वरमहिमावेदकं मामकं पद्यम् Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः उत्फुल्लामलपुण्डरीकपटलीसौन्दर्य सर्वकषा मातस्तावकवारिपूरसरणिः स्नानाय मे जायताम् ॥२॥ प्रश्रान्तं तर संनिधौ निवसतः कूलेषु विश्राम्यतः पानीयं पित्रतः क्रियां कलयतस्तत्त्वं परं ध्यायतः । उद्यत्प्रेमतरङ्गभंगुरदृशा वीचिच्छटां पश्यतो दीनत्राणपरे ! ममेदमयतां वासिष्ठि ! शिष्ट व्यः॥३॥ विद्योतते यदुपकण्ठमुदारधानि ___नागेश्वरः स भगवान् दयमानमूर्तिः । यो गल्लनाद-सरयू-जल-विल्वपत्रै रभ्यर्च्यते जनतया नतया समन्तात् ।।' शिरसि मूर्ध्नि अवतंसितस्य विभूषितस्य शशिनः ज्योत्स्नाछटा चन्द्रिकाप्रवाहः । संचिता राशीभूता । किं वा व्याधीनां पञ्चभूतशरीरात्प्रभवन्तीनां शमाय दलनाय । पीयूषस्य धारा सुधारसप्रवाहः । भूमिवलयं वसुधामण्डलं आगता संप्राप्ता । उत्फुल्ला विकसिता, अमला मनोहारिणी च या पुण्डरीकस्य सिताम्भोजस्य, पटली समवायः, तस्याश्च यत् सौन्दर्य लावण्यं, तं सर्व कषति सर्वातिरेकमानयति इति तथाभूता । हे मातः ! जननि ! तावकं भवत्याः यत् वारिपूरं अपां राशिः तस्य च या सरणिः प्रचाह सा । मे स्नानाय अन्न_ह्यमलोत्साहनपुरस्सरं अवगाहनाय जायताम् संपद्यताम् । ३-हे वासिष्टि ! वसिष्ठस्य इयं वासिष्ठी तत्संबुद्धिः । वसिष्ठतनयात्वेन भूवलयमवतीर्णे । दीनानां दुर्वलात्मनां त्राणपरे रक्षणोद्यते । अश्रान्तं निरन्तरं यथा स्यात् तथेति क्रियाविशेषणम् । तव सन्निधौ भवत्या. समीपे, निवसतः निवासं कुवेतः । कूलेषु उभयतीरेपु विश्राम्यतः सुलभं निद्रासुखमम्चतः । पानीयं सलिल पिबत' आस्वादयत । क्रियां सन्ध्योपासनादिदेवपूजान्त व्यापार, कलयतः अनुतिष्ठतः । परं तत्त्वं नामविकारवज प्रत्यगात्मस्वरूपं ब्रह्मपदाभिधेयम् । ध्यायतः अन्तर्भावयतः । उद्यत्प्रेमतरङ्गभंगुरदशा उद्यन्तः उदयं गच्छन्तः प्रेमाणे एव तरङ्गा, तैः भंगुरा वक्रा या हक् द्रष्टिः, अपाङ्गप्रेक्षितं वा तया । वीचीनां इतस्ततो लुठन्तीनां ऊर्मीणा छटा सौन्दर्य तां पश्यत. अवलोकयत. । मम स्तुतिकतु, इदं शिष्टं अवशिष्टं वय. आयुष्यं अयताम् समाप्तिमापद्यताम् । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरयू-सुधा ११३ गङ्गा तिष्यविचालिता रविसुता कृष्णप्रभावाश्रिता क्षुद्रा गोमतिका परास्तु सरितः प्रायो यमाशां गताः। त्वं त्वाकल्पनिवेशभासुरकला पूर्णेन्दुविम्बोज्ज्वला सौम्यां संस्थितिमातनोषि जगतां सौभाग्यसंपत्तये ॥ ४ ॥ मज्जन्नाकनितम्बिनी-स्तनतटाभोगस्खलत्कुङ्कुमक्षोदामोदपरम्परापरिमिलत्कल्लोलमालावृते । ४-गङ्गा सुरदीर्घिका । तिष्येन कलिकालेन । 'तिष्यः पुष्ये कलियुगे' इत्यमरः । विचालिता विशेषतोऽन्यथाभावं प्रापिता । उक्तश्च पौराणिकैः 'कलौ पञ्चसहस्राणि विष्णुस्तिष्ठति मेदिनीम् । तदर्धं जाह्नवीतोयं तदर्धं ग्रामदेवताः ॥ इति । रविसुता यमुना । कृष्णस्य भगवतः प्रभावं सामर्थ्य प्राश्रिता प्रपन्ना । कृष्णैकवशंवदा इत्यर्थ । गोमतिका गोमतीनाम्नी सरित् । अल्पार्थे कन् । क्षुद्रा दुर्बलाड़ी। आसामेव तिसृणां उत्तरभारते अवस्थानात् । पराः आभ्यः अतिरिच्यमानाः, सरितः नद्य , यमाशां' दक्षिणां दिशं गताः सङ्गताः । त्वम् भवती एव एका । आकल्पनिवेशभासुरकला-कल्पान्तमभिव्याप्य वर्तते इत्याकल्पं 'आड्मर्यादाभिविध्यो' (पा. सू २. १. १३) इति समासः । तादृशं यो निवेश. सन्निवेश । तेन भासुरा दीप्तिशीला कला उदयो यस्या. तथाभूता । पूर्णेन्दुः राकासुधाकरः तस्य विम्बवत् किरणजालवत् उज्ज्वला शुभ्रा । जगतां लोकानां सौभाग्यस्य सुभगत्वस्य या संपत्ति प्राचुर्यम् तस्यै । सौम्यां स्वभावमधुराम् । संस्थिति अवस्थानम् । आतनोषि विस्तारयसि । प्राड् पूर्वात् तनोतेः कर्तरि लट् । ५-मजन्त्य स्नानं कुर्वत्यः, याः नाकस्य स्वर्लोकस्य, नितम्विन्यः देवाङ्गनाः, तासां स्तनतटस्य कुचकुड्मलस्य य आभोगः परिपूर्णता, तस्मात् स्खलत् निर्यत् यः कुड् कुमस्य केशरस्य क्षोदः चूर्णम् । तस्य आमोदपरम्पराभिः सुरभिसंतान. परिमिलन्त्य परस्परं सम्पर्कमनुभवन्त्यः याः कल्लोलमालाः तरङ्गाणां ततय. । ताभिः श्रावृते समन्तात् परिवेष्ठिते । हे मातः ! ब्रह्मण परिमेष्ठिनः Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः मातब्रह्मकमण्डलूदकलसत्सन्मानसोल्लासिनि ! त्वद्वारा निचयेन मामकमलस्तोमोऽयमुन्मूल्यताम् ॥ ५ ॥ इष्टान् भोगान् घटयितुमिवागाधलक्ष्मी पराया वातारब्धस्फुरितलहरीहस्तमावर्तयन्ती । गन्धद्रव्यच्छुरणविकसद्वारिवासो वसाना सा नः शीघ्र हरतु सरयूः सर्वपापप्ररोहान् ॥ ६ ॥ जयति विपुलपात्रप्रान्तसंरूढगुल्मव्रततिततिनिवद्धारामशोभा श्रयन्ती । कमण्डलोः, कस्य जलस्य मण्ड स्तरं लाति लभते वा इति कमण्डलुः । कुण्डीभूतो जलपात्रविशेष. । य एकान्तत इदानी चतुर्थाश्रमिणां स्नेहपात्रीभूतः । तस्य उदकेन जलेन लसन् सतां मानसस्य उल्लासः आह्नादः अस्ति अस्यामिति तत्संबोधनम् । त्वद्वारा अपां, निचयेन सलिलराशिना । अयं मामकः मदीयः मलस्तोमः बाह्याभ्यन्तरो मलपटलः । उन्मूल्यताम् निरवशेपं विधीयताम् । उत्पूर्वकात् मूलयतेः कर्मणि लोट् । ६-या इष्टान् मनसः प्रियान् । भोगान् ऐहिकामुष्मिकान् सौख्योपभोगान् । घटयितुं सम्पादयितुमिव । परार्ध्या श्रेष्ठतमा । अगाधा अननुमेया च लक्ष्मीः साक्षान्महालक्ष्मीरूपेणाविभूतेत्यर्थः । वातेन मरुता प्रारब्धाः प्रवर्तिताः, याः स्फुरिताः चञ्चलाः लहर्य कल्लोला एव हस्ताः यस्मिन्निति क्रियाविशेषणम् । तद् यथा स्यात् तथा आवर्तयन्ती अम्भसां भ्रमणं प्रवर्तयन्ती । गन्धद्रव्येण चन्दनादिसुगन्धद्रव्यजातेन यत् छुरणं सम्पर्कः, तेन विकसन् बहिरुल्लसन् यो वारिवासः सलिलरूपं परिधान वस्त्रम् , तस्मिन् वसाना वसनमाचरन्ती । 'वस आच्छादने' इत्यतः कर्तरि शानच् । सा सुप्रसिद्धा सरयू । सर्वान् नाताज्ञातान् ! पापप्ररोहान् पापाकुरान् । शीघ्र द्रुतं, हरतु दूरीकरोतु । ७- विपुलं विशालं यत् पात्रं तीरद्वयान्तरम् । यथाह विश्वः ___ 'पानं तु भाजने योग्ये पात्रं तीरद्वयान्तरे । पात्रं स वादौ पर्णे च राजमन्त्रिणि चेप्यते' ।। इति । तस्य प्रान्ते प्रदेशे, संस्ढः प्ररोहं गतो, यो गुल्म' अप्रकाण्डः स्तम्बः मूल Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरयू-सुधा निशि शशिकरयोगात्सकतेऽप्यम्वुसत्तां सपदि विरचयन्ती साऽपगावैजयन्ती ।। ७ ।। . अंहांसि नाशयन्ती घटयन्ती सकलसौख्यजालानि । श्रेयांसि प्रथयन्ती सरयूः साकेतसंगता पातु ॥८॥ य इमकं सरयूस्तवकं पठेन्निविडभक्तिरसाप्लुतमानसः । स खलु तत्कृपया सुखमेधतेऽनुगतपुत्रकलत्रसमृद्धिभाक् ॥६॥ ॥ इति सरयू-सुधा॥ प्रन्थिर्वा । व्रततीनां लतानां ततिः विस्तारः 'ततं व्याप्ते विस्तृते च' इति मेदिनी । तया निबद्धः परिवेष्टितो, य आरामः उपवनम्, तस्य शोभां सुषमां श्रयन्ती दधती। निशि रात्री, शशिकराणा चन्द्रकिरणानां, योगात् संपर्कात्, सकते वालुकामये प्रदेशे अपि 'सैकत सिकतामयम्' इत्यमरः । अम्बुसत्तां जलावस्थानभ्रमं सपदि सद्यः विरचयन्ती घटयन्ती। सा लोकप्रसिद्धा आपगानां नदीनां वैजयन्ती पताका जयति सर्वोत्कर्षेण वर्तते । मालिनी छन्दः । ८-श्रहांसि कल्मषानि, नाशयन्ती प्रक्षालयन्ती । सकलानि समग्राणि यानि सौख्यानां अन्तःकरणानुकूलतया वेदनीयानां, जालानि वृन्दानि, तानि घटयन्ती संपादयन्ती। श्रेयांसि मङ्गलानि प्रथयन्ती विस्तारयन्ती । साकेते रामस्य राजधान्यां अयोध्यायां, संगता समायाता, सरयू पातु अवतु । 'पा रक्षणे' कर्तरि लोट । श्रार्या-वृत्तम् । __-य. इमकं इमम् । 'अव्ययसर्वनाम्नामित्यकच ' । निबिड. सान्द्र. यो भक्तिरसः श्रद्धापीयूषम्, तेन आप्लुतं आHकृतं मानसं यस्य तथाभूत. सन् । सरवाः स्तवकं स्तवम् पूर्ववदकच् । पठेत् पाठं कुर्यात् । स खलु तस्या. कृपया, अनुगतपुनकलत्रसमृद्धिभाक् अनुगताः आज्ञावर्तिनः, ये पुत्राः प्रात्मजा., कलत्राणि गृहिण्यश्च, समृद्धिः स्फारमैश्वर्यम् । एताः भजते इति तथाविध. सन् । सुखं यथा स्यात् तथा एधते वृद्धिमुपगच्छति । ।। इति सरयू-सुधा ।। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः गोमती-महिमा। मातोमति ! तावकीनपयसां पूरेषु मज्जन्ति ये तेऽन्ते दिव्यविभूतिमतिसुभगस्वलॊकसीमान्तरे । वातान्दोलितसिद्धसिन्धुलहरीसंपर्कसान्द्रीभवन् मन्दारद्रुमपुष्पगन्धमधुरं प्रासादमध्यासते ॥१॥ आस्तां कालकरालकल्मपभयाद् भीतेव कार्यं गता मध्येपात्रमुढसकतभराकीर्णाऽवशीर्णामृता । गोमती-महिमा । हे मातः ! गोमति ! तावकीनपयसां त्वदीयसलिलानां पूरेषु प्रवाहेषु ये मन्जन्ति स्नानमाचरन्ति । 'टुमस्जो शुद्धौ' इत्यतः कर्तरि लट् । ते अन्ते देहपातानन्तरम् । दिवि भवाः दिव्याः, स्वर्गलोकभवाः या विभूतयः ऐश्वर्याणि, तासां च या सूतिः प्रसवः तया सुभगो रमणीय यः स्वर्लोक. देवभूमि. तस्य सीमायाः अन्तरे मध्ये । वातेन पवनेन, आन्दोलिताः कम्पिता', याः सिद्धसिन्धो. वियद्गायाः, लहर्यः तासां संपर्केण सान्द्रीभवन् घनीभावं गच्छन् । यो मन्दारद्रमः पारिजातवृक्ष', तस्य पुष्पगन्धेन कुसुमसोरभेण, मधुर हृद्य, प्रासाद हाय अध्यासते अधितिष्ठन्ति । तवायं अपूर्वः कोऽपि महिमा इति भावः । । शार्दूलविक्रीडितं छन्दः। २- कालस्य अन्तकस्य यत् करालं भयानक कल्मषं पापं तस्य भयात् । भीता इव बस्तेव, काय कृशस्य. भावः तम् । दौर्वत्यं गता आस्ताम् तिष्ठतु तावत् । मध्येपात्रं जलाधारभूमेरन्तराले उदूढ' राशीभूत' । उत्पूर्वात् 'वह प्रापणे' इति क' | यः सैकतस्य वालुकायाः भरः अतिशयः, तेन आकीर्णा समन्ततो व्याप्ता । पाइपूर्वात् किरतेः क्तः, निष्ठानत्वञ्च । अतएव अवशीर्ण शुष्कतां गत अमृतं जलं यस्या. सा । गङ्गा भागीरथी, यमुना कलिन्दुतनया वा । नितान्तविषमां अतितरां शोचनीयां, काष्टां दशां समालम्भिता प्रापिता । समाड् पूर्वात् लभतेय॑न्तात् क्तः । हे मातः ! जननि । त्व भवती तु, समा समाना, वैपम्यरहिता आकृति. स्वरूपं यस्याः तथा भूता खलु । यथापूर्व प्रागिक अधुनापि, वरीवर्तसे अवस्थितिं भजसे । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोमती-महिमा गङ्गा वा यमुना नितान्तविषमां काष्ठां समालम्भितामातस्त्वं तु समाकृतिः खलु यथापूर्वं वरीवर्तसे ॥ २ ॥ या व्यालोलतरङ्गाबाहु विकसन्मुग्धारविन्देक्षणं भौजङ्गी गतिमातनोति परितः साध्वी परा राजते । पीयूषादपि माधुरीमधिकयन्त्यारादुदाराशया साऽस्मत्पातकसातनाय भवतास्रोतस्वती गोमती ॥३॥ कुम्भाकारमुरीकरोषि कुहचित्वाप्यर्धचन्द्राकृति धत्से भूतलमानयष्टिघटनामालम्बसे कुत्रचित् । ३- येति कर्तृपदम् । व्यालोलाः अतिचञ्चलाः तरङ्गाः कल्लोला एव वाहू यस्मिन् तदिति गतेविशेषणम् । विकसत् यत् मुग्धं सुन्दरं अरविन्दं रक्तोत्पलं तदेव ईक्षणं नयनं यस्मिन् तादृशम् । भुजगो जारः, तस्य इयं भौजङ्गी ताम् । कुलटाजनोचितां गतिं प्रवृत्ति आतनोति रचयति । परितः समन्ततः परा उत्कृष्टा साध्वी सच्चरित्रा कुलवधूरिव राजते शोभते । 'राजृ दीप्तौ' इत्यतः कर्तरि लट् । या हि कुलटा न सा साध्वी भवितुमर्हति इति विरोधाभासो नामात्र अलङ्कार. । तत्परिहारप्रकारस्तु-भुजङ्गः सर्पः, स इव कुटिला वका गति गमनं यस्या सा तथाभूतेत्यर्थाश्रयणात् । एवं परत्र साध्वी मनोहरा इत्यर्थकल्पनाच । उदार कृपामसृणः आशय आकूतं यस्याः सा तथाभूता सती । आरात् समीपतः । पीयूषात् अमृतरसादपि माधुरी जलगतं माधुर्यं अधिकयन्ती अधिकमधिकं वर्धयन्ती । 'तत्करोतीति णिच् । सा स्रोतस्वती वेगवती, गोमती अस्मत्पातकस्य दुरितजातस्य, सातनाय तनूकरणाय, भवतात भूयात् । ४-कुहचित् कस्मिंचित् स्थले, कुम्भाकारं कुम्भो घट. स इव प्राकार स्वरूपं उरीकरोषि अङ्गीकरोषि । कुम्भसदृशं प्रवहन्ती दृश्यसे इत्यर्थः । क्वापि अर्धचन्द्राकृति अर्धचन्द्रखण्डमिव आकारं धत्से धारयसि । कुत्रचित् भूतलस्य भूमण्डलस्य मानयष्टि. मानदण्डम् । तस्या. घटना आकारं आलम्बसे प्रपद्यसे । क्वापि अन्त. स्वक्रोडे तडागस्य वर्तनतया संस्थापकतया सिद्धाश्रमं सिद्ध. सद्य. सिद्धिप्रदो य आश्रमः तम् । सिद्धिभूमि सुयसे प्रकटीकरोषि । अस्या Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-पुष्पाञ्जलि अन्तः क्वापि तडागवर्तनतया सिद्धाश्रमं सूयसे मात!मति ! यातभङ्गिविधया नानाकृतिर्जायसे ॥ ४ ॥ रोधोभङ्गिनिवेशनेन कुहचिद्वापीयसे पीयसे क्वाप्युत्तालतटाधराम्बुकलया कूपायसे पूयसे । मातस्तीरसमत्वतः क्वचिदपां गर्वायसे त्रायसे कुत्रापि प्रतनुस्पदेन सरितो नालीयसे गीयसे ॥ ५ ॥ तानासन्नतरानपि क्षितिरुहो याः पातयन्ति क्षणात्तास्वर्थो घुणकीर्णवर्णघटनन्यायेन संगच्छताम् । उपकण्ठे विभ्राजमानं चण्डिकायतनं सिद्धाश्रमतया लोके प्रसिद्धमित्यादि पुरावृत्तं चण्डिका-स्तुतौ विवृतं तत एव द्रष्टव्यम् । हे मातः गोमति ! यातस्य गतागतस्य या भङ्गिः रचनाविच्छित्ति', तस्याश्च या विधा प्रकार , तया नानाकृतिः विविधाकाररमणीया जायसे संपद्यसे । ५- रोधसः तीरस्य 'कूल रोवश्च तीरंच प्रतीरं च तटं त्रिषु ।' इत्यमरः । या भङ्गिः रचना, तस्याः निवेशनेन विन्यासेन कुहचित् कुत्रचित्, वापीयसे वापीमिव आचरसि । वापी इव परं गाम्भीर्य धारयसि इत्यर्थ । वापी नाम जलाशयविशेषः । 'वापी स्नातुमितो गतासि' इति काव्यप्रकाशः । पीयसे जनै. आस्वाद्यसे च । क्यापि उत्तालं उच्छितं, यत् तटं तीरं, तस्य अधरे तले अम्बुकलया जलसमृद्धथा कूपायसे कूपसदृश आकारं प्रपद्यसे । पूयसे लोकान् पवित्रीकरोषि । हे मात. ! तीरस्य समत्वत., समभागावस्थानात्, क्वचित् अपांजलानाम् । संवन्धसामान्ये पष्टी । गतः भूछिद्रं खातं वा । स इव आचरसि गर्ताकारेण परिणमसि । त्रायसे रक्षा करोपि । कुत्रचित् पदेन जलसन्निवेशेन प्रतनुः विशेषत. कृशशरीरा सती, सरित. नद्या , नाली इव जलनिर्गममार्ग इव आचरसि । गीयसे जनैः प्रशस्यसे च । ६- याः स्रोतस्विन्यः सरितः, आसन्नतरानपि तीरसश्लिष्टानपि किं पुनरगतानित्यर्थः । तान् सच्छायान् । क्षितिरुह. वृक्षकदम्बकान् । क्षणात् निमेषमात्रादेव, पातयन्ति धराशायिनं कुर्वन्ति । तासु घुणकीर्णवर्णघटनान्यायेन घुणा' काष्टादिभक्षकाः कृमिविशेपा , ते कीर्णा दष्टतया उत्कीर्णा या वर्णानां Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ गोमती-महिमा गोमन्ताचलदारिके ! तव तटे तूघल्लतापादपे सद्यो निवृतिमेति भक्तजनता तामैहिकामुष्मिकीम् ।। ६ ।। एतत्तापनतापतप्तमुदकं माभूदितीवान्तिके माद्यत्पल्लवतल्लजद्रुमतती यत्रातपत्रायते । मातः ! शारदचन्द्रमण्डलगलत्पीयूषपूरायिते । शय्योत्थायमजसमाह्निककृते त्वां बाढमभ्यथये ॥ ७॥ एकं चक्रमवाप्य तत्रभवतो दाक्षायणीवल्लभादेवो दैत्यविनाशकस्त्रिभुवने स्वास्थ्यं समारोपयत् । अक्षराणां घटना निष्पत्ति. । तन्न्यायेन, अर्थात् लोकप्रसिद्धेन घुणाक्षरन्यायेन । अर्थः प्रयोजनं, सङ्गन्छता संघटतां नाम । अप्रयासोपनत कदाचिदेतदेवं सम्भाव्यतां न पुनः सार्वत्रिकमिति भावः । हे गोमन्ताचलदारिके ! गोमन्ताचलस्य एतन्नाम्ना प्रसिद्धस्य शैलस्य दारिके तनये । उद्यन्त्यः उदयं गच्छन्त्यः प्ररोहन्त्यो वा लताः पादपाश्च यस्मिन् । तथाभूते तव तटे भक्तजनता श्रद्धालुर्लोकः । तां ऐहिकी इह लोकभवां । आमुष्मिकी परलोकभवां च । सद्योनिर्वृति स्नानसमकालमेव संसारिकं सुखं मुक्तिपदश्च । एति अधिगच्छति । ७- तापनः सहस्ररश्मि. सूर्य., तस्य तापेन ऊष्मणा संतप्तं उष्णं एतत् उदकं पानीय मा भूत् नैव जायताम् । इतीव एवं मत्वैव, माद्यन्ती हर्षोल्लासमधिगच्छन्ती, पल्लवतल्लजानां कोमलकिसलयानां, द्रुमाणां वृक्षाणां च तती पक्ति यत्र यस्याः तीरोपान्ते, आतपत्रायते प्रातपात् त्रायते इत्यातपत्रम् छत्रम् । तदिव आचरति । कूलस्थिताभिक्षश्रेणीभिश्छत्रच्छायामिव तन्वतीमित्याशय । हे मातः ! शारदचन्द्रस्य स्फीतप्रकाशस्य शरत्कालिकस्येन्दो मण्डलात, गलत् स्रवत् यत् पीयूपपूरं अमृतस्य निष्यन्द', तदाकारतां गते । अजस्र निरन्तरं, शय्योत्थाय प्रातःप्रबोधसमयादुत्तरक्षणे एव । आह्निकस्य अह्ना साध्यं आह्निकम् , ठन् । स्नान-सन्ध्या-तर्पणादिसंपादनार्थ त्वां भवतीम् । बाढं अत्यन्तं अभ्यर्थये संप्रार्थये । प्रत्यहं तवतीरमुपाश्रितस्य मम अशेषमाह्निकं संपद्यतामिति भावः । ८- दैत्यानां असुराण, विनाशक संहारक', देव भगवान् विष्णुः । तत्रभवतः सर्वलोकपूज्यात् दाक्षायणीवल्लभात्-दाक्षायणी पार्वती, तस्या. वल्लभ. Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः तचक्रं त्वयि भासतेऽपि वहुधा निश्चक्रमहोपहा यत्वं दीव्यसि तत्तवैष महिमा चित्रायते त्रायिनि ! ॥८॥ ये गोमतीस्तुतिमिमा मधुरां प्रभाते संकीर्तयेयुरुरुभक्तिरसाधिरूढाः । तेषां कृते सपदि सा शरदिन्दुकान्ति कीर्तिप्ररोहविभवान् विदधाति तुष्टा ॥६॥ ॥ इति गोमती-महिमा ॥ धवः शिव. तस्मात् । एक अद्वितीयप्रभावं चक्र सुदर्शनाख्यम् । यच्चैवमुपवय॑ते शिशुपालवधे 'तस्यातसीसूनसमानभासो भ्राम्यन्मयूखावलिमण्डलेन । चक्रेण रेजे यमुनाजलौघः स्फुरन्महावर्त इवैकवाहुः ॥ अवाग्य अधिगम्य, त्रिभुवनं त्रीनपि लोकान् । स्वास्थ्य आधिव्याधिरहिततया सुखसौभाग्ययुक्तम् । समारोपयत् प्रातिष्ठिपत् । समाङ पूर्वात् रुहधातोय॑न्तात् कर्तरि लड् । त्वयि भवति तत् सुप्रसिद्धं चक्रं जलावर्त. बहुधा नानारूपेण भासते विद्योतते । यत. निश्चक्रं निर्गतं चक्रं यस्या. तथाभूता सती चक्रं विनैवेत्यर्थः । अंहोपहा अंहासि पापानि अपहन्ति तथाभूता त्वं भवती, यत् दीव्यसि भासि, तत् तव भवत्या एव महिमा भूतिप्रकर्प. । हे त्रायिनि ! रक्षापरायणे ! चित्रं आश्चर्य आचरति इति चित्रायते- आश्चर्य जनयति भवती। अर्द्धर्चादिपाठात् चक्रशब्दस्य द्विलिङ्गत्वेऽपि लक्ष्यानुसारेण लिगनियम इत्यवसेयम् । ६- ये जना , प्रभाते अरुणोदयवेलायां, उरुभक्तिरसेन हार्दिकेन अनुरागरसेण । अधिरूढाः प्राप्लुताः सन्त., इमां मनापितां गोमतीस्तुति संकीर्तयेयुः कण्ठपाठं पठेयुः । तेषां कृते सा सपदि झटित्येव तुष्टा प्रसन्ना सती । शरदिन्दोः शारदचन्द्रिकाया कान्तिरिव कमनीयं, कीर्ते' यशस, प्ररोहान् अंकुरान् , विभवान् सम्पदश्च विदधाति संपादयति । वसन्ततिलका-वृत्तम् । ॥ इति गोमती-महिमा ।। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यमुना- कुलकम् यमुना - कुलकम् । चिरगृहीतजगत्तमसो रवे - र्जनितया प्रसृतेव तमश्छटा । 1 घनतमालसपत्नसमुच्छल लहरिका हरिकामित गोपिका ॥ १ ॥ 9 यमुना- कुलकम् । १- चिरं चिराय गृहीतं निपीतं जगतो विश्वसर्गस्य तमः श्रन्धकारप्रसरो येन तस्य । रवेर्विशेषणमेतत् । एवंविधस्य भगवतः सप्तसप्तेः जनितया कन्यारूपेण अवतीर्णया | अतएव तमसः घनान्धकारस्य छटा इव प्राग्भार इव, प्रसृता स्रोतोरूपेण परिणता इत्युत्प्रेक्षा व्यज्यते । उक्तञ्च दण्डिना 'मन्ये शते धवं प्रायो नूनमित्येवमादिभिः । उत्प्रेक्षा व्यज्यते शब्दैरिवशब्दोऽपि तादृशः ॥' इति । १२१ घन नीरन्ध्र' यस्तमाल हरितवर्णस्तमालपादपः तस्य सपनत्वेन प्रतिभटतया समुच्छलन्त्य. अम्बुकणैरुत्पतन्त्यः । लर्क्ष्य एव लहरिका. स्वार्थे कन् । तरङ्गसंततयो यस्यां सा, तथाभूता । हरे. यदुवंशमुक्तामणे. कृष्णाख्यधाम्न कामितं हृदयाभिलषितं गोपायति रहस्यवद्रक्षतीति तथाभूता । भगवतो लीलाविलसितस्य आश्रयभूरिति तात्पर्यम् । द्रुतविलम्बितं छन्दः । इत आरभ्य मथुरा-माधुरी पर्यन्त १ - एकवाक्यतापन्नः श्लोकसमुदायः कुलकमित्युच्यते । यथा समन्वय प्रदीपे 'यत्र वाक्यार्थविश्रान्ति: श्लोकेनैकेन जायते । तन्मुक्तकं युगं द्वाभ्यां त्रिभि. स्यातिलकं पुन. ।। चतुर्भिः स्याच्चक्कलक पञ्चभिः कुलकं ततः । महाकुलकमित्यार्याः कथयन्तिः ततः परम् ॥' इति । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः सलिलकेलिपरायणवल्लवी कमनकायरुचिच्छुरणादिव । दलितनीलमणिच्छविसोदरी सुरवरारवराजितवेणिका ॥२॥ असितपक्षनिशादिशिखास्खल त्तिमिरनिर्भरसंचयनादित्र । सर्वत्र यमकं शब्दालंकार. । अर्थालंकारस्तु यथासंभवं स्वयमूहनीय'। यमकलक्षणं त्वाचार्यदण्डिनोक्तम् 'अव्यपेतव्यपेतात्मा या वृत्तिवर्णसंहते । यमकं तच्च पादानामादिमध्यान्तगोचरम् ।। एकद्वित्रिचतुष्पादयमकानां प्रकल्पना । आदिमध्यान्तमध्यान्तमध्याद्याद्यन्तसर्वतः ।। अत्यन्तं बहवस्तेपां भेदा सभेदयोनय । सुकरा दुष्कराश्चैव दृश्यन्ते तत्र केचन ।।' इति । एवमस्य प्रभूततमभेदस्य यमकालंकारस्य तत्तद्विशेषान् दिक्षुभिरस्मत्पितामहचरणानां साहित्यदर्पणस्य छायाख्या विवृतिपूर्तिद्रष्टव्या । २- सलिलकेलिः जलक्रीडाव्यापारः, तस्यां परायणा आसक्तमना या वल्लवी गोपवधूः, तस्याश्च यः कमनः कामुक अभिरूपो वा कायः शरीराभोगः तस्य रुचे प्रभायाः छुरणादिव सम्पर्कादिव । दलितस्य द्विधाविभक्तस्य नीलमणे या छविः दीप्ति., तस्याः सोदरी सहोदरप्रसवा स्वसा इव नीलवर्णा । सुराः देवा. विद्वांसश्च तेषां ये वराः श्रेष्ठाः अभीष्टा वा पारवाः स्तवनशब्दा. तैः राजिता शोभिता वेणिका जलप्रवाहो यस्या सा । ३- असितः सितेतर. स चासौ पक्षश्च इति असितपक्ष कृष्णपक्षः । तस्य च या निशा यामिनी सा एव अन्धकारबहुलत्वात् अद्रि. शैलः, तस्य शिखायाः शृङ्गप्रदेशात् । स्खलन् अध. प्रवहन् यः तिमिरम्य निर. तमसा प्रपात., तस्य Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यमुना - कुलकम् प्रकटिता स्फुटकाल कुशेशय च्छविसमाऽविसमा प्रतिभासिनी || ३ || विकचपङ्कजकोश परिस्रव न्मधुरसाश्रयणादिव सभ्रमा । द्युतिसवर्णतया भ्रमरभ्रमद् व्रजवधूजवधूत जलान्तरा ||४|| घनपयः परिणामवशादिव प्रचुरनीलिममज्जिमभिद्रुमैः । १२३ सचयनात् इव राशीकरणाद् हेतोः स्फुटं विकसितं यत् कालकुशेशयं कृष्णवर्ण कमलम् । 'सहस्रपत्रं कमलं शतपत्रं कुशेशयम्' इत्यमरः । तस्य या छवि. कान्तिः तत्समा तत्सदृशी । श्रविः छागः मेषो वा । 'अवि नार्वे रवौ मेपे शैले मूषिककम्बले' इति मेदिनी । तद्वत् प्रतिभासते शोभते इति श्रविसमा प्रतिभासिनी । छाग इव कृष्णवर्णेनोल्लसन्ती इति भावः । ४ - विकचानि विकसितानि यानि पङ्कजानि अरविन्दानि तेषां कोश. कुड्मलैः, परिस्रवतः निष्यन्दमानस्य, मधुरसस्य पुष्परसस्य 'मधु मद्य पुष्परसे इत्यमरः । आश्रयणात् इव संचयकरणादिव हेतोः । सभ्रमा भ्रमेण श्रम्भसां आवर्तेन सहिता । 'आवर्तोऽम्भसां भ्रमः । ' इत्यमरः । द्युतिः कान्तिः तस्याः सवर्णतया साम्येन । द्वयोः कलिन्दकन्यायाः आभीरवधूनाञ्च श्यामवर्णतया इत्यर्थ' । भ्रमरै मधुपश्रेणिभिः हेतुभूताभि । भ्रमरसंपातहेतुनेति यावत् । भ्रमन्त्यः भ्रमरबाधया त्रस्यन्त्य. याः व्रजवध्वः गोपाङ्गनाः, ताभि जवेन वेगेन धूतं कम्पितं जलान्तरं सलिलप्रवाहो यस्याः तथाभूता । ५ - घनो जलद, स इव यः पयसां अपां परिणामः नीलवर्णत्वप्राप्तिः, तद्वशादिव तस्मादिव कारणात् । यामुनं हि जलं निसर्गत एव कृष्णवर्णाभमिति भावः । प्रचुरे पर्याप्ता या नीलिमा श्यामबर्णबाहुल्यं तत्र मज्जिमभिः कृतस्नानैः । उभयतीरगतैः तटद्वयोपान्तवर्तिभिः द्रुमैः पादपै. शमितं निवारितं आतपस्य प्रस Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः उभयतीरगतैः शमितातप प्रसरणा शरणागतवत्सला ॥५॥ सगणकालियभोगिफणैरिव प्रकटनीलसरोरुहकोरकैः । परिवृतोदितवल्लवमण्डली रसिकता सिकताश्रितधीवरा ॥६॥ प्रविततायतसैकतकैतवा दमरनिम्नगयेव करम्बिता । रणं व्याप्तिरनया । शरणागतेपु चरणशरणं संप्राप्तेषु वत्सला वात्सल्यस्नेहभरिता। ६- गणै. सहिताः सगणः, तथाभूताः ये कालिपभोगिन' कृष्णसर्पाः, तेषां फरणैः इव प्रकटा. स्कुटं दृश्यमाणा' नीलसरोरुहाण नीलकमलानां कोरकाः कुड्मलाः यस्यां तथाभूता । 'कलिका कोरक. पुमान्' इत्यमरः । परिवृता तत्तदावश्यकी चर्या समाग्य नदीसंतरणादि मनोविनोदाय वर्तुंलाकारेण संघटिता तटोपकण्ठमलड्कुर्वाणा इति यावत् । उदिता प्रसन्नवदना या वल्लवानां आभीराणां मण्डली, तस्या रसिका परिवृतोदितवल्लवमण्डलीरसिका, तस्या भावः तत्ता । वल्लवसमुदायस्य रस त्यर्थः । सिकतायां वालुकायां आश्रिताः शरणं गता. धीवराः कॅवर्ताः यस्या. सा तथाभूता।। ७- प्रविततं समन्ततो व्याप्तं श्रआयतं दीर्घ च यत् सैकत वालुकाप्रदेशः तस्य कैतवात् व्याजात् अमरनिम्नगया भागीरथ्या करम्विता आश्लिष्टा इव । करम्बः संजातो अस्या इति इतन् । सितासिते हि गङ्गायमुने इति घण्टापथ । प्रयागादन्यत्र च नानयो. कचित् संगम. संभवतीति सुप्रसिद्धं तावत् । परं कविसृष्टिपु मथुरायामपि द्वयोः संगम उत्प्रेक्षित इति द्रष्टव्यम् । अतएव रघुवीकारः 'यस्यावरोधस्तनचन्दनानां प्रक्षालनाद्वारिविहारकाले। कलिंदकन्या मथुरां गतापि गगोर्मिसंमतजन्नेव भाति ।। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यमुना-कलकम् विपुलकूलविकासिगतस्पृहा दिकमठा कमठावलि संकुला ||७|| नियमितेन्द्रिय कर्मठ मण्डला चरितसांध्य विधानविकस्वरा । करसरोजगृहीतघटस्फुर " त्सुकमनीकमनीयतटान्तरा ||८|| इत्येवमवर्णयत् । एवं माघकविरपि रैवतकवर्णने 'एकत्र स्फटिकतटांशुभिन्ननीरा नीलाश्मद्युतिभिदुराम्भसोऽपरत्र । कालिन्दीजलजनितश्रियः श्रयन्ते वैदग्धीमिह सरितः सुरापगाया. ॥ १२५ इति भङ्गयन्तरेण उभयोः संगममुपवरितवान् । विपुलं विशालं यत् कूलं तटं तस्मिन् विकाशिन. सुशोभिताः । गतं प्रशान्त स्पृहादिकं लोकैषणारूपं येषां तथाभूताः तेषाम् । विरक्तादिरूपेण वर्गीभूतानां साधूनां मठा आवासाः यस्यां तथाभूता । कमठानां कच्छपाना या आवलि. पक्ति. तया संकुला सङ्कीर्णा । 'कूर्मे कमठकच्छपौ इत्यमर' | , - नियमितानि निगृहीतानि इन्द्रियाणि कर्मज्ञानरूपाणि येषां ते नियमितेन्द्रिया । तेषां सयतात्मनां ज्ञानिनामित्याशय । कर्मठानां कर्मशूराणां यन्मण्डलं समुदाय तेन श्रचरितैः यथाविधि संपादितैः । सांध्यविधानविकस्वरा-सध्यायां भवं सान्ध्यं तस्य यत् विधानं विधि तेन विकस्वरा विकाशोन्मुखी 1 यथानियमं सायं प्रात. क्रियमाणेन परमेश्वरोपास्तिरूपेण संध्यावंदनादिकर्मणा प्रसन्नवदनामिवोपलच्यमाणाम् । करौ हस्तौ एव कोमलतया सरोजे कमले ताभ्यां गृहीतेन धृतेन घटेन जलकलशेन स्फुरन्ती शोभामावहन्ती या सुकमनी सुन्दरी तया हेतुभूतया । कमनीयं मनोहरं तदस्य तीरस्य अन्तरं मध्यं यस्याः सा । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः अधिजलोच्छितदारवपट्टिका तलनिविष्टयतीशपरिष्कृता । विकृतिभेदविजृम्भितसंहिता मधुरिमा धुरि मादकृतां गता ॥३॥ सरससंमिलदुन्मदमाधुरी प्रचुरमज्जनजर्जरितोमिका । भगवती यमुना वृजिनापहा विजयते जयतेजनकृत् सताम् ॥१०॥ ॥ इति यमुना-कुलकम् ।। -जलं अधि इत्यधिजलम् । सामीप्याथै अव्ययीभावः । जलोपकण्ठे उच्छितानां औनत्येन स्थापितानां दारवपट्टिकानां देवदारुप्रभृतिभिःकाष्ठनिर्मितानां पट्टिकानां तलेषु आधारेषु निविष्टः उपविष्ट. यतीशैः मुमुक्षुभिः परिष्कृता विभूषिता । विकृतिभेदाः जटा-मालादिरूपाः तैः । विकृतयस्त्वेवं स्मर्यन्ते 'जटा-माला-दण्डरेखारथध्वजशिखाघनाः । क्रममाश्रित्य निर्वृत्ता विकारा अष्ट विश्रुता ।।' इति । विजृम्भिता विभूषिता या संहिता यजुर्वेदादिरूपा तासां मधुरिमा मधुरस्य भाव. । माधुर्यामत्यर्थः । मादकृतां मादं हर्ष कुर्वन्ति इति मादकृतः तेषां मानसोल्लासकराणमित्यर्थः । धुरि गता प्रमुखरूपतां संप्राप्ता । १०- सरसं यथा स्यात् तथा सम्मिलन्त्य. गाढमाश्निपत्य., उन्मदा. यौवनोन्मादमधुरा., याः माथुर्यः मथुरानिवासिन्यः योपित , तासां प्रचुरैः यथारुचितैः, मननैः जलस्नानकेलिभिः, जर्जरिताः जीर्णतां गता. ऊर्मिकाः तरगावलयो यस्याः सा तथाभूता। वृजिनं पापमपहन्ति इति वृजिनापहा ज्ञाताजातेभ्यः पापकर्मभ्य. सद्यो मुक्तिदायिनी । भगवती ऐश्वर्यशालिनी, यमुना कलिन्दगिरितनया, सतां सन्मार्गाश्रयिणां जयतेजनं करोति इति जयतेजनकृत् । आशु विजयप्रदा विजयते इति शिवम् । ।। इति यमुना-कुलकम् ।। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुरा-माधुरी मथुरा-माधुरी। जयति सा परमाद्भुतराधिका रमणवृत्तपवित्रतरीकृता। कुसुमितद्रुमराजिविराजिता व्रततिकाततिकापरिवेष्टिता ॥१॥ सरसरासविहाररतस्वभू चरणपङ्कजलाञ्छितभूतला। वनगुहान्तरवासकसज्जिका नवरता वरतामरसोदका ॥२॥ मयुरा-माधुरी। १-सा लोकविश्रुता, परमश्वासावद्भुतश्च परमाद्भुतः अनेकाश्चर्याणां खनिः । एवंविधो यो राधिकाया. वृषभानुसुतायाः वृन्दावनललामभूतायाः, रमणः पतिः भगवान् वासुदेवः, तस्य यत् वृत्तं लोकातिशायिचरितं, तेन सविशेषं पवित्रीकृता इति पवित्रतरीकृता । पावित्र्योत्कर्षमानीता इत्यर्थः । कुसुमित्ताः सपुष्पाः याः द्रुमराजय पादपश्रेणयः ताभि. विराजित्ता विभूषिता । व्रतती एव व्रततिका लताप्रतानम् । स्वार्थे कन् । 'वल्ली तु व्रतत्तिलता' इत्यमरः । तासां ततिकाभिः पङ्क्तिभिः परिवेष्टिता परिवृता जयति । यमकालवार. । द्रुतविलम्बितं छन्द । २- रसेन मधुरालापेन सहितः सरसः । एवंभूतो यो रासस्य गोपप्रियस्य क्रीडाविशेषस्य, विहारः लीलाप्रसरः तस्मिन् रत्त. अनुरक्तः यः स्वभूः नारायणस्वरूपः श्रीकृष्णः । स्वेनैव भवति इति स्वभूः । किम् । तस्य चरणपङ्कजाभ्यां पादारविन्दाभ्यां लाञ्छितं अङ्कितं भूतलं यस्याः सा तथाभूता । नास्ति अवरता थस्याः सा अनवरता उत्कृष्टा । वनश्च गुहा चेति वनगुहे तयोः अन्तरे अरण्यपर्वतप्रदेशयोरन्तराले अपरा वासकसजिकेव सुशोभित्ता । वासकसजिका च'कुरुते मण्डनं यातु सज्जिते वासवेश्मनि । सा तु वासकसज्जा स्यात्-' इत्युक्त Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः अभिनवस्फुटशाखिशिखास्खलस्कुसुम संहतिसंकुल संचरा । नददुदारखगावलिरुच्चकै रुपेवना पवनाधुतपल्लवा ॥ ३ ॥ रुचिरकुञ्जगृहान्तरसंचर द्भुजगभोजिविकासितताण्डवा । सुनयनानयनादरजृम्भिता ||४|| विपुलसूरसुतापुलिनान्तरे विकिरकेलिविमर्दसमुच्चर त्कुसुमसौरभ सांद्रदिगन्तरा । रूपो नायिकाविशेषः । वरं सुन्दरं तामरसं कमलं उदकं जलन यस्यां तथाभूता । ३ - अभिनवाः नूतनाः, स्फुटाः विकसिताश्च ये शाखिनः तरवः, तेषां शिखाभिः शाखाभिः स्खलन्ती निपतन्ती या कुसुमानां संहतिः पुष्पचयः, तया संकुलः सम्बाधः संचर संचारो यस्यां तथाभूता । नदन्ती मधुरं कूजन्ती या उदारा महती चासौ खगावलिः विहगश्रेणि तया उच्चकै उन्नतानि उपवनानि यस्यां तथाभूता । पवनेन वायुना आ समन्तात् धुता कम्पिताः पल्लवाः किसलयानि यस्यां सा । ४ - रुचिरं मञ्जुलं यत् कुञ्जगृहं लतामण्डपं तदन्तरे संचरन्तः इतस्ततः सञ्चारं कुर्वन्तः ये भुजगभोजिनः भुजगान् सर्पान् भुञ्जते इति भुजगभोजिनो मयूराः । तैः विकासितं प्रकाशितं ताण्डवं नृत्यं यस्यां सा । ‘ताण्डवं नटन नाट्य' लास्यं नृत्यं च नर्तने' इत्यमरः । विपुलं अतिमहत् यत् सुरसुताया: कालिन्दया: पुलिनं तोयोत्थितं तटं तदन्तरे । शोभने नयने नेत्रे यासां तासां सुनयनानां कटाक्षवतीनां सीमन्तिनीनां, नयनादरैः श्रपानप्रेक्षितैः, जृम्भिता प्रसन्नवदना । ५ - विकिराः विहंगाः, तेषां यः केलिविमर्दः क्रीडारसासक्ततया परस्परमुपमर्द:, तेन समुचरन वहिर्निगच्छन् यत् कुसुमस्य सौरभ आमोदभरः, तेन Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ मथुरा-माधुरी किमपि चेतसि नर्म वितन्वती मुरजितोऽरजितोद्धतसंपदः ॥शा स्फुरित कविधच्छवितूलिका लिखितवर्णचयहरिनामभिः । मधुरचित्रभृतासु कनत्मजा सुखचिता खचिताऽऽलयभित्तिषु ॥६॥ निविडभावसमेधितभास्वर स्वरजुपां रजसां तमसामपि । क्षतिकृतां महतां हरिकीर्तन ध्वनिरमा निरमानितकल्मषा ॥७॥ - सान्द्र घन दिगन्तरं दिशामन्तरालं यस्यां तथाभूता । अर सत्वर जिता स्वायत्तीकृता उद्धतानां दर्पवतां रक्षसां सपत् येन स', तस्य । मुरजितः मुरमथनस्य । मुरो नाम दैत्यविशेष. । तस्य वधात् भगवतो मुरजिदिति नाम लोके प्रसिद्धि प्रापत् । 'पार्थेनाथ द्विपन्मुरम् ।' इति माघ. । चेतसि मानसाभोगे । किमपि लोकोत्तराह्लादकरम् । नर्म क्रीडां वितन्वती विस्तारयन्ती । ६- स्फुरिता उन्मीलिता, या नैकविधा अनेकवर्णवती । नेकविधेत्यत्र न शब्देन सह सुप्सुपेति समास. । छवेः सौन्दर्याधायकस्य रूपस्य, तूलिका कूर्चिका । शलाकेत्यर्थ. । 'तूलिका कथिता लेख्यकूर्चिका तूलशय्ययो' इति विश्व । तया लिखितः समुत्कीर्ण वर्णचयो वर्णावलिर्येषु तथाभूतै. । हरिनामभि. विष्णुवोधकैः राम-कृष्णादिशब्दै । खचिता संयुक्ता । मधुराणि हृदयप्रियाणि चित्राणि अालेख्यानि बिभ्रति इति मधुरचित्रभृत. तासु । मनोहराभिश्चित्रावलीभिरलड्कृतास्वित्यर्थः । एवंभूतासु आलयानां गृहाणां भित्तिपु कुड्य पु । कनन्ती चासौ प्रजा चेति कनत्प्रजा दीप्तिमल्लोकसमूह । तासां सुखै सौभाग्यसूचकै. चिता व्याप्ता। ७- निविडः सान्द्रीभूतो यो भावः श्रद्धातिशय. तेन समेधितैः दीर्घाकृतः, भास्वर प्रदीप्तै., स्वर वर्णोच्चारणध्वनिभि , जुषन्ते प्रीतिमाश्रयन्ते इति निविड Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः विवुधसमसु पल्लवितोल्लस ल्ललितभागवतामृतसेविभिः । विविधभक्तजनैश्च समन्ततो चलयिता लयितालविघूर्णिता |८|| अयोध्यादिपुरीश्लेषेण मथुरामहितरामचरित्रपवित्रिता ललितसारवनीरतरङ्गिता। भावसमेधितभास्वरस्वरजुष. तेपाम् । भक्त्यु केण तारस्वरं पठतामितिभावः । रजसां रजोगुणानां तमसां तमोगुणानाञ्चापि क्षतिकृतां विनाशकानाम् । महतां भक्ततल्लजानाम् । हरिकीर्तनं कलिप्रधानं नृत्यवाद्यवहुल भगवन्नामोच्चारणम् । तस्य ध्वनिषु नादेषु रमते इति तथाभूता । निरमानितं निःशेषेण तिरस्कृतं कल्मपं वृजिनमनया तथाभूता ! पापराशिभिरसंस्पृष्टेति भावः । 5- विवुधाः देवाः तेषां सद्मसु आलयेषु देवमन्दिरेष्वित्यर्थः । पल्लवितं विस्तारयुक्तं यथा स्यात् तथा उल्लसत् चकासत्, यत् ललितं शृङ्गारमधुरैः कथोपकथनैस्तरङ्गितं, भागवतं सुप्रसिद्ध भगवद्गुणाख्यानपरं पुराणम् । तदेव अमृतं पीयूपं तत्सेविभिः तदास्वादपरायणैः । श्रवणासक्तैरिति भावः । विविधैः अनेकधा विभक्तः, भक्तजनैः भक्तिरसाविष्टमानसैः पौरजनैः,समन्ततः परितः,वलयिता पुंस्त्रीमण्डलोपमण्डलैः परिवेष्टिता । लयितालविघूणिता-लयः नृत्य-गीत-वाद्यानामेकतानतारूपं साम्यम् । सोऽस्यास्तीतिलयी । तादृश. यः तालः मूर्च्छनारूप , करताल-करास्फोटनादिरूपश्च तेन विघूर्णिता सशिर कम्प आनन्दनिमीलिता। इत आरभ्य स्तवसमाप्तिपर्यन्तं कविना अयोध्यादिसप्तपुरीश्लेपेण मथुरायाः वर्णनमुपक्रान्तमित्यनुसन्धातव्यम्___६- महितं लोकेपु पूजितं, रामस्य रौहिणेयस्य वलरामस्य, पक्षे रामस्य दाशरथेः । यत् चरित्रं लोकवृत्तं चरितं, तेन पवित्रिता पूता । ललितानि सुन्दराणि, धारवैः कलकलशब्दैः सहितानि सारवाणि शब्दायमानानीत्यर्थ. । पक्षे सरय्वां Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१ मथुरा-माधुरी दशरथस्य पुरीव हरीक्षिता शुभरता भरताशयसंस्कृता ॥६॥ सततसंगतसाधुमहोदया ऽधिमणिकर्णिकविष्णुपदाञ्चिता । स्मरजित नगरीव शिवोज्ज्वला सुरुचिरा रुचिराजितनागरा ॥१०॥ गहनसालसमाकलितावने प्रतिदिनं विकसन्मधुसूदना । भवानि सारवाणि सरयूसमुद्भूतानीत्यर्थः । यानि नीराणि जलानि तै तरङ्गिता संजाततरङ्गा । दशरथस्य राज्ञः पुरी अयोध्या, सा इव हरिणा श्रीकृष्णेन पक्षे कपिमण्डलेन । ईक्षिता चञ्चलहप्ट्यादि परीता। शुभे मङ्गलकर्मणि रता अनुरक्ता। भरतो नटः कैकेयीसुतश्च । तस्य प्राशयेन विभवेन । एकत्र नाट्यकलानैपुण्येन, परत्र भरतस्य असाधारणेन भ्रातृसौहार्देन, संस्कृता भूषिता । १०- सततं निरन्तरं, संगता साधवो मनोहराः, महोदयाः उत्सवारम्भाः यस्यां तथाभूता। काशीपक्षे, सततं संगतः साधुः शोभन', महोदय' पुण्यजनको योगविशेषः अस्यामिति । स एप महोदयो नाम पुण्यप्रदो योगविशेषः काश्यां सर्वदैवास्तीति निर्णयसिन्धुप्रभृतिषु धर्मशास्त्रनिबन्धेषु स्पष्टम् । एवं साधव. साधुशब्दिताः चतुर्थाश्रमिणः, महोदयाः भाग्यशालिनो यस्यामित्यपि उभयत्र सङ्गमनीयम् । अधिका प्राचुर्यवती मणीनां मुक्तादिरत्नानां कर्णिका कुण्डलादिकर्णाभरणं येषु, तथाविधैः विष्णुपदै. विष्णुमन्दिरैः, अश्चिता प्रशस्ता । काशीपक्ष-अधिमणिकर्णिकम्-काश्यां सुप्रसिद्धस्य मणिकर्णिकातटस्य समीपे विष्णुपदेन एतन्नाम्नाप्रसिद्धन, स्थलविशेषेण अश्चिता समेता । स्मरजितः शिवस्य, नगरी काशीपुरी, सा इव शिवेन कल्याणेन उज्ज्वला रमणीया । काशीपक्षे- शिवेन विश्वनाथाभिधेन ज्योतिर्लिङ्गन उज्ज्वला भव्या । सुरुचिरा- सुमनोहरा । रुचिभिः अनुरागरसैः राजिताः सुशोभिताः नागराः विदग्धाः यस्यां तथाभूता। ११- गहनै घनीभूतैः सालैः पादपैः । 'रसालसालः समदृश्यत' इत्यादि नैषधीयचरितम् । समाकलिता समन्ततः परिवृता। द्वारकापक्षे- गहन. दुष्प्रवेश. Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-युनानलिः यद्पुरी व नागरमंश्रिता मधुमाधुरमा स्फुरद्धया ||११|| प्रविनविक्रमरम्यरमाश्रया मग्निमादधती बलु भास्वतीम् । स्फारितधाममहेशमवन्तिका कविकलाबिकलाकलनालया ॥१२॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुरा-माधुरी अधिगताऽधिकदक्षिणमण्डलं मुदितमुक्तिसतीवरकाञ्चिका सदनुकम्पकृतिस्थितिशालिनी । सुरचितारचिताघविनाशना ॥ १३ ॥ सृष्टिचातुर्यरूपा तस्याः अविकलं समग्र यत् आकलनं तस्य श्रलया गेहभुता । एवम् के यमुनाजले शिप्राजले वा वीनां पक्षिणां ये कलाः श्रव्यक्तमधुराः शब्दाः तेषा अविकलं यथायथं यत् कलनं ग्रहणं तस्य आलया शरणीभूता । पते कवीनां कालिदासादीनां याः कलाः कवित्वसाम्राज्यवैभवायमानाः तेषां अविकलं वास्तविकं आमूलचूडं च यत् आकलनं, वाग्विलासानां परिभावनं, तस्य आ समन्तात् लयः संश्लेषः अस्ति अस्यामिति तथाभूता । १३ – अधिकदक्षिणमण्डलं अधिकाः अनेके ये दक्षिणा : उदारपुरुषाः, तेषां मण्डलं वर्ग, अधिगता संप्राप्ता । काञ्चीपते - अधिकं सप्तपुरीणां मध्ये सर्वापेक्षया विशेषरूपेण, दक्षिणमण्डलं दक्षिणां दिशं अधिगता संप्राप्ता । यतः कावी हि दक्षिणभारते विराजते । ज्योतिर्गणनाक्रमेण तदिदं सोपपत्तिकमपीति परीक्षणीयम् । " श्रयमिह अक्षांशगणनाक्रमः सप्तपुरीणां नामानि कावी द्वारका उज्जयिनी काशी" अयोध्या ... ... ... ... ... ... :: ... ... ... ... ... ... ... ... २६° १४८ मथुरा २७ १२६ हरद्वार २६ १५५' एवमिह दर्शितेन गणनाक्रमेरा कान्च्याः सर्वतो दक्षिणत्वं गरिणतगोलसिद्धम् । सती प्रशस्ता अनुकम्पा दया येषां ते सदनुकम्पाः, दयाशालिनः तैः कृता विहिता या स्थितिः अवस्थानं तया शालते शोभते इति सदनुकम्पकृतिस्थितिशालिनी । ... .. १३३ अक्षांशा. ६५६ ... २२।१५ २३°१६' २५।२० Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः स्फुरदुदग्रसुपर्वतरङ्गिणी विवुधदक्षनिरूपितसत्क्रिया। व्रजवती महतां बहुमायका गमहिता महिता श्रुतशासनः ।।१४।। पक्षे, सती वर्तमाना। कम्पायाः अनु इत्यनुकम्पम् । कम्पानद्याः निकटे कृता विहिता या स्थितिः तया शालते इति तथाभूता । अत्रेदं मूककविसार्वभौमस्य मूकपञ्चशतीपद्य काळच्याः कम्पासत्वे मानम् - 'कम्पातीरवनान्तरं विद्धती कल्याणजन्मस्थली काञ्चीमध्यमहामणिविजयते काचित् कृपाकन्दली ।। इति। मुदिता प्रसन्नमना •मुक्तिरूपा यो सती साध्वी तस्याः वरा अभीष्टा काञ्चिका एकयष्टिः । 'चन्द्रहारेति' लोकप्रसिद्धमाभूपणम् । उक्तश्चान्यत्र-- 'एकयष्टिर्भवेत् काश्ची मेखला त्वष्टयष्टिका । रशना पोडश ज्ञेया-इति ।। पक्षे-मुदिता मोदवती मुक्तिरूपा सती यस्यां एवंभूता या वरा श्रेष्टा काञ्चिका काञ्चीति सुप्रसिद्धा नगरी । सुरचिता सुष्टु यथा स्यात् तथा रचिता निर्मिता । एवं सुरै. देवैः पण्डितैश्च चिना व्याप्ता । रचितापविनाशना-रचितं संपादित अघानां पापानां दु खानाञ्च विनाशनं संहार. अनया इति तथाभूता । एतदुभयं उभयत्र समानतया योजनीयम् । १४-स्फुरन् शोभमान उदा. उतमन यस्य तादृशः उच्चतम' य सुपर्वतः पर्वतेपु रमणीयो गोवर्धनः तस्य रगिणी अनुरागवती । एव स्फुरन्ती उदग्राणां उन्नतानां, पर्वणां उत्सवानां, तरङ्गिणी नदी यस्यां तथाभूता इत्युभयत्र योजनीयम् । हरद्वार-पक्षे स्फुरन् उदग्रः उन्नत य. सुपर्वतः शोभनो हिमालयः तत्र रङ्गिणी रागवती भागीरथी यस्यां सा । विवुधेपु विद्वत्सु ये दक्षा चतुरा तैः निरूपिता संघटिता सत्क्रिया सत्काररूपमातिथ्यं यस्यां तथाभूता । हरद्वारपक्षे-विवुधो देव. सचासौ दक्षश्चेति विवुवदक्ष दक्षप्रजापतिः, तेन निरूपिता अनुष्ठिता सत्रिया यज्ञादिसभाररूपा यस्यां तथाभूता । व्रजं गोप्टं मथुरासमीपस्थ' प्रदेशविशेषश्च तद्वती ब्रजवती । हरद्वारपक्षे Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुरा-माधुरी अमरराजपुरीच सुवज्रिका भुजगराजपुरीव सुभोगका । मधुपुरी प्रतिसद्म मनोहर नवसुधा वसुधामलभूषणा ||१५|| • ॥ इति मथुरा - माधुरी ॥ १३५ व्रजाः प्रशस्ताः पन्थानः सन्तियस्यामिति व्रजवती प्राशस्त्ये मतुप् । मायैव मायका स्वार्थे कः । बह्वी चासौ मायका च बहुमायका । महतां महापुरुषाणाम् वहुमायका प्रचुरानुरागवती । तथा धनादिसंपत्तिप्राचुर्येणापि बहुमायकात्वमनुसन्धेयम् । पक्षे - अघटनसाधिका या महती शक्तिः तत्स्वरूपिणी मायेति नाम्ना पुराणादिषु प्रसिद्धा पुरी । या सांप्रतं हरद्वारेतिनाम्ना प्रसिद्धिं भजते । इहेदं सप्तपुरीणा परिचायकं कस्यचित् पद्यम् 'अयोध्या मथुरा माया काशी कानी अवन्तिका । पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिकाः ॥ ' आग से पापाय पापकारिणे वा अहिता प्रतिकूला । आगमाय आगमोक्तक्रियाकलापादिसंपादनाय आगतजनतायै वा हिता हितोपपादिका । श्रुतं शास्त्र तस्य शासनै उपदेशः महिता समृद्धा । १५ - अमराणां राजा इति श्रमरराजः देवराजो इन्द्र' । समासान्तष्टच् । तस्य या पुरी अमरावती सा इव । वज्रमेव वज्रिका, शोभना वज्रिका यस्यामिति तथाभूता । एकत्र वज्र ं हीरकम् परत्र इन्द्रस्यायुधम् । भुजगराजपुरी काशीपुरी सा इव सुन्दराः भोगिकाः विलासिनः पते सर्पाश्च यस्यां तथाभूता । मधुपुरी मधो दैत्यस्य पुरी मथुरेति लोके प्रसिद्धा । प्रतिसद्म प्रत्यावास, मनोहरन्ती चेतश्चमत्कुर्वती । नवसुधा नवा नवीना या सुधा 'चूना' इति हिन्दीभाषायां प्रसिद्ध गृहलेपनद्रव्यम् । सा अस्ति अस्यामिति तथाभूता । वसुधायाः वसुन्धरायाः अमलं दिव्यं यत् भूषणं तत्स्वरूपा विजयते । ॥ इति मथुरा - माधुरी ॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः आत्मोपदेशः। शास्त्रप्रतिष्ठा गुरुवाक्यनिष्ठा सदात्मदृष्टिः परितोषपुष्टिः । चवस्त्र एता निवसन्ति यत्र स वर्तमानोऽपि न लिप्यतेऽधैः॥१॥ आत्मोपदेशः। १-शास्त्रप्रतिष्ठा । शिष्यते अनेन इति शास्त्रम् । 'शासु अनुशिष्टौ' । त्रयीतरङ्गितः आप्तजनैरुपदिष्टः अङ्गोपाङ्गतया प्रसिद्धः हितानुशासनपरो ग्रन्थराशिः । तस्य प्रतिष्ठा गौरवसंरक्षणम् । यतः शास्त्रादेव यावत्कर्तव्यकर्मणां निर्णय अवधार्यते । अतएव भगवान् वासुदेवः 'यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वतर्ते कामचारतः । न स सिद्धिमवाप्नोति, न सुखं न परां गतिम् ।। तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ । ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ।' (गी० १६. २३-२४) गिरति अज्ञानं, गृणाति उपदिशति च तात्त्विकमर्थमिति गुरुः शास्त्ररहस्योपदेष्टा । तस्य वाक्येपु उपदेशेषु निष्ठा एवमिदमिति निश्चयारूढतया अवस्थानम् । तथा च मुण्डकश्रुतिः 'तद्विज्ञानार्थ स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् ।' इति । एवं भगवद्गीतास्वपि 'तद् विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया । उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिन' ।। इति । सर्वदा सर्वस्मिन्नपि काले, आत्मनि दृष्टिः आत्मदृष्टि. । स्वात्मपरमार्थचिन्तनमिति यावत् । एवं व्यवहारदशायां आत्मनः कर्तव्यतया इष्टानां क्रियमाण-करिष्यमाण Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मोपदेशः उद्दश्यभेदेन विधेयभेदे शास्त्राण्यनेकानि भवन्ति तावत् । तत्रास्तिकैराद्रियमाणमेव विभावनीयं परमार्थसिद्धय ॥२॥ कर्मणां हृदयसाक्षिकं वास्तविकं वा निभालनम् । तत्र च मानुषस्वभावसुलभायाः दोषसंक्रान्तेः यथाकालं यथान्यायं च शुद्धनान्तःकरणेन परिमार्जनम् । तत एव सुहृद्भ त्वोपदिशत्याचार्य: 'अहन्यहनि वीक्षेत कृतं चरितमात्मनः । किं नु मे पशुभिस्तुल्यं किं नु तुल्यं महात्मभिः ।।' इति । तदेवमात्मन आलोचनं कुर्वता सर्वभावेन अप्रमादिना भवितव्यमिति तात्पर्यम् । परितोपस्य सर्वविधायाः संतोषवृत्तेः पुष्टि पोषणम् । न पुनरसटुपायानवलम्ब्य लुब्धकबुद्ध या केवलमर्थार्जनाय धावनमिति । एतदभिप्रायेणेव मनुण्याहस्म 'सतोषं परमास्थाय सुखार्थी संयतो भवेत् । संतोषमूलं हि सुखं दु खमूल विपर्ययः ।।' इति । पतञ्जलिरपि-'संतोपादनुत्तमः सुखलाभः ।' इत्युपदिदेश । तत इदमपि न विस्मर्तव्यम् 'यद् यत् परवशं कर्म तत् तद् यत्नेन वर्जयेत् । यद् यदात्मवशं तु स्यात् तत् तत् सेवेत यत्नतः ।। सर्व परवशं दुःखं सर्वमात्मवश सुखम् । एतद् विद्यात् समासेन लक्षण सुखदुःखयोः ॥ इति । तदित्थं लोकयात्रामनुवर्तमानेन यत्र क्वापि तिष्ठता यथालाभसतुष्टेन भाव्यमिति भावः । एता अनुपदं परिगणिताः, चतस्रो वृत्तय , यत्र यस्मिन् पुरुषपुंगवे निवसन्ति, स अघैः पापप्रकृतिभूतै १ खादिभिः, वर्तमानोऽपि तदन्तःपातमनुभवन्नपि, तै न लिप्यते न संस्पृश्यते । प्रत्युत अम्भसा पलाशपत्रमिव निर्लिप्तमेवात्मानमनुपश्यति । २-उद श्यस्य चिकीर्पितुमिष्टस्य, भेदेन विधेयस्य विधातुमुपात्तस्य कार्यजातस्य भेदो भवति । इदमन तात्पर्यम् Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ दुगा-पुष्पाञ्जालः व्याख्यानलेनाभिनिवेशभाजा प्रमेयभेदो बहुधाभ्युदेति । तत्रास्ति मात्सर्यकलङ्कमुक्ता मुक्तावदाता धिषणा प्रमाणम् ॥३॥ प्रयोजनापेक्षितयैव लोके व्यवहाराणां प्रवृत्तिर्वा निवृत्तिर्वा दृश्यते । सर्वेषाञ्चारब्धकर्मणां मूले यत्किमप्युद्दश्यतया अवश्यमन्तस्तिष्ठतीति सर्वैरेवानुभूयते । तत उद्देश्यस्य भेदोपगमे विधेयमपि स्वभावतया भिद्यत एव । तदेवमुढ श्यानुसारेणैव अनेकप्रस्थानभिन्नानां शास्त्राणामवतारः । तेषु च यथाप्रसङ्गं परस्पर वैषम्यसंपाते इदं ग्राह्यमिदं वेति अन्यतरपक्षप्रतिष्ठाने प्रतिभावतो मन्दप्रज्ञस्य च महद्वैशसमुपतिप्ठते । उभयत्र यत्किंचिद् गमकस्य अवश्यंभावात् । एवमा दिष्ववसरेषु आस्तिकैः ईश्वरोन्मुखै दूरदर्शिभिः, आद्रियमाणं कर्तव्यतया निश्चीयमानं कर्म, परमार्थसिद्धय तत्त्वनिर्णयोपलब्ध्य विभावनीयं सिद्धान्ततया सगमनीयम् । ३-अभिनिवेशो नाम यस्य कस्यचिद् वस्तुन सदसद पपरिचयानन्तरमपि कचित् गतानुगतिकतया क्वचिच्च अहंभावोद्रेकेण इदमेवं भवेदित्याग्रहपहिलतया अवस्थानम् । तत्र प्राधान्येन व्याख्याबलमेव सहकारिभावं भजते । तदाधारेण च यद् यथा प्रतिपादयितुमिप्यते तत् तथा प्रतिपाद्यते । यथा वस्तुदृष्टया एकमपिब्रह्मसूत्रं व्याख्यानरगभूमिप्ववतीणे मतिजम्बालेषु निमग्नं सहस्रशाखमिवाभूदिति नातिरोहितं मार्मिकाणम् शास्त्रवेदिनाम् । दर्शनान्तरेष्वप्येवंभूतानि निदर्शनानि बहुत्र सुलभानि प्रेक्षावद्भिः स्वयमुत्प्रेक्षितुं सुशकानीति किमत्र निदर्शनप्रयासेन । तदेवं प्रौढिवादसहकृतेन प्रकृति-प्रत्ययादिमूलकेन व्याकरणादिप्रपञ्चोपस्थापनेन, कांचच शान्नान्तरसंवादानुपपत्तिप्रदर्शनेन च स्वाभिमतार्थस्य स्थापनाये यावदलमनुधावनं क्रियते । येन च वस्तुस्थितिरन्यथान्यथा नीयमाना प्रमेयस्वरूपभगाय तद्विप्रलोनाय वा परिणमति । एवंभूते व्यतिकरे तटस्थेन शास्त्रसिद्वान्तजिनासुना विसंवादपरीते शात्रिके मार्ग कः पन्या पाश्रयणीयः, कथञ्च तत्र वर्तितव्यमिति प्रश्न समाहितुमुत्तरार्धमारमते तत्र विनयादन्याकुलीभृतेऽपि शान्नसमये, समुपनते च युक्तायुक्तपरीक्षणे। मात्सपलमुता-अन्यशुभ पो मत्सर, तस्य भावो मात्सर्य अनहिष्णुत्वमिति यावत् । तदेव कन मलिनत्वसंमग, तेन मुक्ता Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ आत्मोपदेशः तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रु तयो विभिन्ना नैको ऋषिर्यस्य मतं प्रमाणम् । धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पन्थाः ॥४॥ असंस्पृष्टा । मुक्तावदाता-मुक्तेव अवदाता मौक्तिकमिव धवलवर्णा । सत्त्वगुणस्निग्धेति भावः । धिषणा वस्तुतत्त्ववेदिनी प्रज्ञा एव प्रमाणम् - आत्मसाक्षिकतया प्रमाणभूता । तत्र च स्वहृदयसंवाद एव परं प्रामाण्यमित्ति तात्पर्यम् । एष एव च राजमार्गः । यत एतदन्तरेण नान्यत् किमपि विनिगमकान्तर हृदयसंवादसौष्ठवाय अलङ्कर्मीणमिति मन्वादिमहापुरुषाणां वाक्यबलेनाग्यनुसन्धेयम् । अत्रेदमभिज्ञानशाकुन्तलीयपद्यमवतरति 'सतां हि सदेहपदेषु वस्तुषु प्रमाणमन्तःकरणप्रवृत्तयः ।' इति । ४-पूर्वोक्तस्य विसंवादस्य निरासाय, स्वोक्तार्थस्य च पूर्वेषामपि संमतत्वेन प्रकृतार्थे महाभारतीयं पद्य किचित्परिवर्त्य उपोद्वलकतयोपन्यस्यते-'तर्कोऽप्रतिष्ठ इत्यादिना । तर्कलक्षणश्च यथाह गौतमः'अविज्ञाततत्त्वेऽर्थे कारणोपपचितस्तत्त्वज्ञानार्थमूहस्तर्क.।" (न्या. द.१-४०) तर्कस्य चैष स्वभावो यदयं एकेनोत्प्रेक्ष्यमाणः परेण बाध्यते, तेना युत्प्रेक्ष्यमाण अन्येन, ततोऽपीतरेण इत्येवं यथोत्तरं उपमर्दसगरेषु व्याहन्यमानो नवनवां भूमिकामाविष्कुर्वन् नैकत्र कचित् प्रतिष्ठां लभते । अतएव भगवता चादरायणेन 'तर्काप्रतिष्टानादग्यन्यथानुमेयमिति चेदेवमप्यनिर्मोक्षप्रसङ्गः । (वेदान्तद. २. १. ११) इति सूत्रयता तर्केष्वनास्था प्रतिपादिता । तत्र लोकैरुत्प्रेक्षितस्तों यावद् भूत-भौतिकपदार्थेषु प्रसज्यमानो नैवास्माकमिह लक्ष्यभूत । स तु स्वभावानुसारेण यथायथं संचरतां तावत् । परमागमिके वस्तुनि यदस्य स्त्रैरविजृम्भणं तन्मूलप्रच्यावाय भवन् वाच्यताकोटिष्वन्तर्भवति । तादृशश्चाचं तर्कः आगमप्रवणैराचार्य. सुपरीक्ष्य प्रत्याख्यात. । तर्ककोटीनामुद्गमः तासा भङ्गप्रकारश्च प्रकृतसूत्रे शारीरकभाष्ये सविस्तरमुपपादितरे दर्शनार्ह । तत एव Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः (महाभा. वनप. ३१३ अ. १७ श्लो.) अनेकशास्त्रार्थविमर्शनेन तत्तन्महाव्यक्तिनिदर्शनेन । त्रैकालिकज्ञानविकस्वरेषु महाजनत्वं गुरुपूपदिष्टम् ॥ ५ ॥ - मनुस्मृतिकार-- 'अचिन्त्याः खलु ये भावाः न तांस्तर्केण योजयेत् । प्रकृतिभ्यः परं यच्च तदचिन्त्यस्य लक्षणम् ।।' इत्येवं निरदिक्षत् । यत्पुनरनेनैव 'यस्तर्केणानुसन्धत्ते स धर्म वेद नेतरः ।' इत्यादिकं निरूप्यते तत्तु सत्तर्कविषयं, विनेयानां वस्तुस्वरूपावगमायातितरामुपादेयं समाद्रियत एवेति न तत्र विप्रतिपत्तेरवसर इति सक्षेपः । __ श्रूयत एव हिरण्यगर्भादिगुरुपरम्परया नतु केनचित् क्रियत इति श्रुतिः, अपौरुपेयी वाक् । तासु शब्दतोऽर्थतश्च विभिन्नता प्रतिपाद्यानां परस्परं विसंवादः । स च सहिताब्राह्मणादिग्रन्थेभ्यः विशिष्य वेदशिरोभागतया प्रसिद्धेभ्यः उपनिपदादिभ्यश्च सुप्रतीत एव । आम्नायार्थमधिकृत्य सायनाचार्याणां ऋग्वेदभाप्यभूमिकादौ कृतं विवेचनं श्रौतमार्गानुयायिनां सुविदितमेवेति किमत्र पौनरुत्त्येन । ऋपति आम्नायं पश्यति इति ऋपि. । अयमस्माकं आर्यावर्तः प्रधाना ऋपीणामावासभूमिरिति श्रुति-स्मृति पुराणपरम्परात. सुव्यक्तमेव । विभिन्नेषु कालेष्वाविभूतानाममीपा महाविभूतीनां हृदयागारेवाविर्भवन्ती वैदिकवाङ्मयस्य शब्दार्थरुपा महती संपत्तिभिन्नप्रकृतिका रहत्यार्थबहुला चेति प्रायेण सर्वेपामत्रविपये ऐकमत्यमेव परीक्ष्यते । एवञ्च रहस्योपदेशकानां ऋषीणां मतसंपाते कतरत् प्रमाणभूत इति प्रश्ने इदम्परतया न किमपि वक्तुं पार्यते । न वा तेवप्रामाण्यमास्थातुं शक्यत इत्युभयत. पाशारज्जु । एवंविचे व्यतिकरे आस्तिक महाजननुएणेनैव पथा गन्तव्यमित्युत्तराचैन सिद्वान्तवति । अभ्युदयनि.श्रेयससिद्धिरूपस्य भगवतो धर्मवृपस्य तत्त्व गुदायां हृदयगहरे निहितं प्रतिष्टितम् , न परमार्थतो ज्ञातुं सुकरम् । अतः Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ आत्मोपदेशः यदेतकत्पुत्रकलत्रमित्र विद्वष्युदासीनचराचरं हि । तन्नामरूपाख्यविकारवर्ज ब्रह्मति वेदान्तविदो विदन्ति ॥६॥ - गुर्वादिरूपो महाजनः, येन पथा गतः व्यवहारपथं प्रविष्टः, स एवाध्वास्माकमपि गन्तव्यतयाभिमत इति शास्त्रनिष्कर्षः । ५-अनेकानि अङ्गोपाङ्गतया बहुलानि यानि शास्त्राणि तेषु च प्रतिपादिताः ये अर्थाः प्रमेयावताराः, तेषां विमर्शनेन पूर्वापरसङ्गतिकेन यथायथमालोचनेन, एवं तत्तन्महाव्यक्तीनां महाप्रभावाणां भगवद्रामकृष्णादीनां एवं गुरुपरम्पराप्रविष्टानां अलौकिकप्रतिभावतां भगवद्वाल्मीकि-व्यासप्रभृतीनां तपोनिधीनां निदर्शनेन, संवादमापन्नेन तत्तदुदाहरणजातेन । त्रैकालिकज्ञान विकस्वरेषु-भूत-भवद्भविष्यतश्चार्थराशीन् करतलामनकवदालोकयत्सु योगवैभवसंपन्नेषु । महाजनत्वं महापुरुषत्वरूपस्य वाच्यार्थस्य विश्रमः , तत प्रतिफलन्त्याः लोकोत्तरप्रतिभायाः हृदगमत्वञ्च । गुरुप्वेव उपदिष्टम् समाख्यातम् । एतान् विहाय कोऽन्यो महाजनत्वरूपां गुर्वीमर्थव्याप्तिमात्मनि सन्धत्त इति एत एवास्माकमग्रेसरा पथप्रदर्शकाः महागुरवो वा व्यपदेष्टुमर्हा इति तात्पर्यम् । ६-यत् एतकत् दृश्यमाणं जगत् तदन्तर्वर्तमानश्च प्रातिश्विक. पुत्रकलनादिरूपोऽन्तरङ्गभूतः कौटुम्बिकः परिच्छद., यो वा विद्व युदासीनादिरूपो बहिरङ्गभूतः परिकरः । किंवा उभयो. समष्टिरूप यत् चराचरं, जडाजडस्वभावतया सृष्ट्य पहितो यावद्वस्तुसंभारमुक्तो लोकसर्गः , स सर्वोऽपि नामरूपाभ्यां वर्जितः ब्रह्मपदवाच्यतामेव प्रथयति । जायते, अस्ति, विपरिणमते, वर्धते, अपक्षीयते, नश्यति इति षड्भावविकारा एव नामरूपप्रथात्मकं सृष्टिव्यवहारमुद्दिशन्ति इति भाव । नामरूपविलये ब्रह्म व केवलमवशिष्यते । य वेदान्तिन औपनिषदा वा 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' 'नेह नानास्ति किंचन' इत्येवमादि श्रुतिसंवर्गः ब्रह्मेति परिचिन्वन्ति । तदित्यं ब्रह्मस्वरूपतोऽतिरिच्यमानं सर्वमपीदंनामरूपात्मकं जगत् असदपि सदिव प्रतीयमानं न खलु परमार्थसदिति तात्पर्यार्थ.। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः तदात्मरत्नं न बहुश्रु तेन न वा तपोराशिवलेन लभ्यम् । प्रकाशते तत्तु गुरूपदिष्ट ज्ञानेन जन्मान्तरखएडकेन ॥ ७ ॥ जात्या गुणेन क्रियया च सम्यग गतप्रमादो विदधद्विधेयम् । - ७-तदिदं प्राक् प्रतिपादितं आत्मरत्नं, रत्न इव महार्घ स्वरूपख्यातिरूपं, बहुश्रुतेन अनेकप्रस्थानबहुलेन शास्त्राडम्वरेण, न वा तपोराशिवलेन-कृछचान्द्रायणादि व्रतोपवासरथवा आगमोदिष्टः पञ्चधारोपासनै तदङ्गभूतैर्जप-पारायणादिभिर्वा प्रासादयितुं शक्यते । तत एव गीतासु-नाहं वेदैन तपसा न दानेन नचेज्यया' इत्येवमादि गीतम् (भग. १११५३)। किंतु केवलं तत् गुरुपदिष्टेन गुरुणा प्रतिबोधितेन । ज्ञानेन तत्त्वोपदेशेन । प्रकाशते यथायथमाविर्भवति । यस्य ज्ञानरूपस्य प्रकाशैकमूर्तेरधिगमे संसरणकधर्माणो जन्म-जरा-मरणादय. स्वतः पराभूताः न पुनरुद्भवायोत्सहन्ते । ८-जात्या-जायते प्रादुर्भवति इति जातिर्ब्राह्मणत्वादिरूपा । 'जनी प्रादुर्भावे' । जातिप्रभवेण अतिशयेन । स चायमतिशयः शुक्रशोणितसमारब्धः संस्कारशाणोल्लीढो वर्णधर्मतया परीक्षणीयः । न चायं जात्युत्कर्पः केवलं मनुष्यजातिनिष्ठ एव यावद् गजाश्वादिचेतनेषु एवमाकरोद्भवेषु रत्नाद्यचेतनेष्वपि समानभावेनाहितो द्रष्टव्यः । अत्रेमानि वर्णाश्रमसूत्राणि 'कूपतडागादिजलवद् ब्राह्मणादिजाति भिन्नस्वभावा ।' अश्वादिवजन्मनैव जाति., कर्मणा तु विशिष्यते ।' न ह्यवयवसाम्येऽपि कर्मणा कोपं वारि नादेयं भवति ।' एतेन वर्णा आश्रमाश्च व्याख्याता. । (१ श्राहिक. सू. ३. ४.५६) गुण्यते आमन्त्र्यते इति गुण. शीलादिरूप. | 'गुण आमन्त्रणे' । करणं क्रिया, व्यापार । तदेवं जातिगुणक्रियासमारब्धेनोत्कर्पण यथायथं व्यवहारद Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मोपदेशः लमेत यत्तेन सदैव तुष्यन् यतेत भाग्यार्पितकार्य कायः ॥८॥ शामवतीर्णः । गतप्रमादः मानुष्यकसुलभैः शारीरैः मानसैश्च प्रमादैःपरिवर्जितः । कर्तव्यकर्मस्वन्तः पातिनीभित्रुटिभिर्विवर्जित इति यावत् । विधेयं लोकयात्रास्वावश्यकतया समुपनतं तत्तत्कार्यजातं, विधद् यथायथं संपादयत् । यल्लभेत परिश्रमस्य प्रतिफलभूत बह्वल्पं वा जीवननिर्वाहार्थ यत्किमप्यासादयेत् , तेनैव संतुष्येत् । यतः परिश्रमानुरूपः संपल्लाभोऽपि भाग्यायत्त एव इति न तत्र पराश्रिते वस्तुनि उद्विग्नेन अन्यमनस्केन वा भवितव्यम् । प्रत्युत भाग्ये अदृष्टादि नानानामव्यवहार्ये दैवे, अर्पित. न्यस्तः कार्यकायः उच्चावचस्य कर्मण प्रसरो येन तथाभूत. सन् , यतेत उद्योगयन्त्रितो वर्तेत । उपपादितञ्चैतत् पुष्पाञ्जलिकृता चातुवर्ण्य शिक्षायाम्'उद्योगशस्त्रप्रणयीप्रमृष्ट- . धीदर्पणालोकितकार्यकाय. । बम्भ्रम्यमाणो वसुधान्तरेषु समीहितार्थान् क्रमशोऽभ्युपैति ।। उद्योगयन्त्रे परिवर्तितेऽपि चे वयोगान्न फलोदय स्यात् । - तथापि यत्न करणीय एव प्रारब्धशय्याशमितक्लमेन ॥ - (चातु. शि. त्रिवर्ग. १३६. १४०) तथा दशकण्ठवधाख्ये चम्पूरत्नेऽपि 'सर्वमेव हि संसारे पौरुषादेव लभ्यते । न तादृक् किंचिदप्यत्र यदलभ्यमुदीयते ।। शास्त्रोपदिष्टमार्गेण यद् देहेन्द्रियचेष्टितम् ।। तत्पौरुषं तत्सफलमन्यदुन्मत्तज़म्भितम् ।' इति । एवम् 'न यातव्यमनुद्योगै. साम्यं पुरुषगर्दभैः । उद्योगो हि यथाशास्त्रं लोकद्वि तयसिद्धये ॥ इति । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः निष्कामचित्त न किलकतानः परामृशन्वस्तु गुरूपदिष्टम् । उदारभावो रचयेत सौख्यं परं परेपामपि कि स्वनिष्ठम् ॥ ६ ॥ ॥ इति आत्मोपदेशः ॥ इत्ययोध्यापरप्रान्तवर्तिपण्डितपुरीवास्तव्यद्विवेदोपाख्याचार्यश्रीसरयूप्रसादसुतमहामहोपाध्यायश्रीदुर्गाप्रसादद्विवेदविरचिते दुर्गापुष्पाञ्जलौ द्वितीयो विश्रामः । समाप्तचायं दुर्गापुष्पाञ्जलिः । शं वोभत्रीतु। -निष्कामचित्तेन कामनाबहिर्भूतेन चेतसा, परमेश्वरसमर्पितेन अन्तःकरणेन च । एकनानः अनन्यवृत्तिर्भवन् , गुरूपदिष्टं गुरुणाभ्यनुज्ञातम् । वस्तु-परमार्थंकरूपं ध्येयम् । परामृशन्- यथोपदेशं अविछिन्नं विभावयन् । उदारभाकः रागद्वेषादिभिरनभिभूत. सर्वभूतहितैषितया वा प्रवृत्तः । अत इदमप्य लोचनीयम् 'अविद्वेपेण सर्वेषां कुर्वन् कर्म यथाकुलम् । सभाजयन् महेशानं विन्देन्नि श्रेयसं ध्रुवम् ।।' इति । परेपां अन्तरग-वहिरङ्गभावप्रतिष्ठानाम् लोकानाम् । परं. सौख्यं, आत्यन्तिकं मन प्रसादमात्मसंतोपं वा रचयेत पुरस्कुर्यात् । किं पुन स्वनिष्ठमात्मगतम् । यो हि विद्वेष्युदासीनानपि प्रसादयितुं समर्थो भवेत्- तस्मिन्नन्तःकरणसंपृक्त सुखराशिरनुरक्त इव प्रयासमन्तरेणैव प्रतिफलेदिति को वा विशेप स्वस्मिन् परस्मिन् वेति शिवम् । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमलनिर्मातुः परिचयः १४५ जयति जगति संविदात्मिकाया श्वरणसरोजरजोद्भवः प्रसादः। अभिमतकरुणाभरै र्यदस्या स्तवविवृतिः परिपूरिता मयैषा ॥१॥ इति परिमलगर्भ एष हृद्यः स्तुतिकुसुमैः कलितोऽञ्जलिः प्रकामम् । दिशतु सुमनसां मनःप्रसाद स्तवनरसालशिखास्तु पुष्पिताग्रा ॥२॥ शुभविक्रमाव्दरविविंशतिके (२०१२ वि.सं.) मधुमाधुरी - सुभगभावचिते । प्रमिताक्षरापि विशदार्थवती मम भारती गुरुमुदेऽस्तु सती ॥३॥ इत्ययोध्यापश्चिमप्रान्तवर्तिपण्डितपुरीवास्तव्य द्विवेदोपाख्याचार्यश्रीगिरिजाप्रसादसुतगङ्गाधरद्विवेदकृतिषु पुष्पाञ्जलिपरिमलः संपूर्ण इति शिवम् । अथ परिमलनिर्मातुः परिचयःअस्ति प्रशस्तजनता जनतापहन्त्री प्रत्याशभास्वरमणी रमणीयकान्तिः । उद्दण्ड-दण्डधरयोद्ध शतैरयोध्या । योऽध्येति नाम नगरी नगरीषु रम्या ॥१॥ चेतो हरन्ति मृदुकम्पनकेलिकम्रा यस्या उदपरिसरे सरयूतरङ्गाः । एभ्यः करालकलिकालमलाभिषङ्ग मूलावसादनकृते स्पृहयन्ति लोकाः ॥२॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ दुर्गा-पुष्पाञ्जलिः विद्योतते यदुपकण्ठमुदारवामिन नागेश्वरः स भगवान् दयमानमूर्तिः । यो गल्लनाद-सरयूजल-बिल्वपत्रै रम्यच्यते जनतया नतया समन्तात् ।।३।। यस्यामसीममहिमा महिमानपूर्व माराध्यते स पुरनायक श्राञ्जनेयः । रामाज्ञया सकललोकदिदृक्षयेव य स्तुङ्गहर्म्यनगमेत्य भृशं चकारित ॥४॥ साकेततो वरुणदिक्कृतसन्निवेशा भ्राजिष्णु-साम्बशिवमन्दिरम गर्भा । नानाद्रुमव्रतति-कुञ्जमनोऽभिरामा सा भाति पण्डितपुरी मम जन्मभूमिः ॥॥ अनन्यसाधारणधर्मकों य आगमादिश्रु तपारदृश्वा । स्फुरत्प्रभावः प्रपितामहो मे जनादृतः श्रीसरयूप्रसादः ॥६॥ सरस्वतीविभ्रमरङ्गभूमिः कविः परज्योतिनिविष्टचेताः । दुर्गाप्रसादाख्यपितामहो मे चकार यो नैकविधान् निवन्धान् ।।७।। सौभाग्यसौजन्यगुणैरुदारः साहित्यसेवी गणितागमज्ञः । अनेकभाषाकुशलश्वकास्ति मत्तातपादो गिरिजाप्रसादः ॥८॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमलनिर्मातुः परिचयः १४७ प्रास्ते स विद्याविनयावदातो ज्यायान् महादेव इति प्रसिद्धः । मयि स्फुरत्स्नेहरसोदय यः सोदर्यसौभाग्यमभिव्यनक्ति ॥६॥ तस्यानुजः शास्त्ररसानुविद्धो ___ गङ्गाधरो ज्ञानसतृष्णवृत्तिः । यश्चन्द्रचूडस्मरणाप्तकामः कुलश्रियः सौभगमादधाति ॥१०॥ जागर्ति योऽसौ जयपत्तनेऽस्मिन् गीर्वाणविद्यालय राजकीयः । अध्यापयन् छात्रगणानमुष्मिन् निर्मत्सरप्रेमपदं प्रयातः ॥११॥ यो ब्रह्मपुर्या नगरोपकण्ठे 'सरस्वती-पीठ' कृतप्रतिष्ठः। यत्रोल्लसद्ग्रन्थचयैरनेकै विपश्चितः स्वान्तसुखं लभन्ते ॥१२॥ शं वोभवीतु । Page #196 --------------------------------------------------------------------------  Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिमल में उद्घ त आचार्यों, कवियों तथा ग्रन्थों की अकारानुक्रमणिका । पृष्ठाक २१,७१,११५,१२५ १०१ १०५ १३६ ७४,७७,८६ is sit ३८ नाम अजडप्रमासिद्धि अभिनवगुप्त अमरकोश अनुत्तरप्रकाश-पश्चाशिका अध्यात्म-रामायण अभिज्ञान-शाकुन्तल अजयकोष आगम रहस्य आपस्तम्ब-सूत्र आथर्वणश्रुति उत्तरचतुःशती ऋग्वेद कामकलाविलास कालिदास काव्यप्रकाश कालिकापुराण कुमारसम्भव कूर्म-पुराण . गणेश विमशिनी गङ्गालहरी गौतमसूत्र गौडपादसूत्र गौडपाद-सूत्र भाष्य चण्डीपाठ ५६,७३ ३८ ur uru १५८ ४५ ६६,८३ •U ८,२०,१३६ १२ ३०,३३ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठाङ्क १०४,१४३ ८० ६०,८५ २४ ४७,७६,७८ ५६,५७,७३ १४३ १२१,१२२ १४,६१ [ ख ] नाम चातुर्वर्ण्य-शिक्षा चिद्गगनचन्द्रिका छान्दोग्योपनिषत् जयदेव तन्त्रालोक तन्त्रराज तैत्तिरीय आरण्यक दशकएठवध दशावतार-चरित दण्डी देवी-भागवत देवीस्तव नित्यातन्त्र निर्णय-सिन्धु निरुक्त नैषधीय चरित परशुराम-कल्पसूत्र परमार्थसार (अभिनवगुप्त) परासूक्त पराप्रावेशिका पश्चस्तवी पाताल महाभाष्य पाणिनि सूत्र प्रत्यभिज्ञा शास्त्र प्रत्यभिज्ञा हृदय प्रपञ्चसारसग्रह वाणभट्ट ब्रह्माण्डपुराण भगवद्गीता ३०,५८ ४८ २५ ७,७५ ८,१३६,१४३ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम पृष्ठाक ७६,१०१ ६२ २८ भक्तिसून भारतभ्रमण भुवनेश्वरी संहिता मत्स्यपुराण मनुस्मृति १४० महाभारत मातृका-विवेक माघ १८,१२६ मालिनी विजय मुद्राराक्षस १०२ मुण्डमालातन्त्र मुण्डकोपनिपद् १३६ मूकपञ्चशती ५१,१३४ मेदिनी २० ग्रामल ४८ योगदर्शन २,६०,१०० योगवार्तिक १०४ योगवासिष्ठ ५६,५६ योगिनी हृदय रघुवंश १२४ रामतापिनी २०४ लध्वाचार्य ११ लघुस्तव ३०,५७ ललिता त्रिशती ललिता सहस्रनाम २७,७१ ललिता स्तवरत्न १३ वरदराजाचार्य (शिवसूत्रवार्तिककार) ८४ वर्णवीज-प्रकाश वर्णाश्रम-सूत्र १४२ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ UUUUS ५८. ६६. 0 ६१. 0 0 . 0 0 0 [ घ ] नाम पृष्ठाङ्क वरिवस्या रहस्य वामकेश्वरतन्त्र वाक्य पदीय . ७५,१०८ वासिष्ठरामायण २८,४४ वाल्मीकीय रामायण २२,३३ विज्ञान भैरव विज्ञान भट्टारक विरूपाक्ष पश्चाशिका विश्व ५२,७५,११४,१२६ विशुद्धेश्वरतन्त्र विष्णुपुराण वृहद्देवता वृहदारण्यकोपनिषत वेदान्तकल्पतरु वेदान्त-सूत्र ४,१३६ सप्तशती-सर्वस्व सनत्कुमार संहिता समन्वय प्रदीप १२१ साहित्यदर्पण-विवृतिपूर्ति सांख्यकारिका सुन्दरी तापिनी ४८ सौन्दर्यलहरी ७,४६,७६ स्पन्दकारिका २,३,७६ स्वच्छन्दतन्त्र (काश्मीर सिरीज) स्तुतिकुसुमाञ्जलि शब्दकौस्तुभ शारदातिलक शान्तिस्तव शांकराद्वत ६७ ६६. • ६२ १२२ ३६ १०२. १०३. १०४. १०५. १०६. १०७. १०८ १०६. ११०. १११. Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ह ] सं० पृष्ठाङ्क 2,4,30,75,80 113. 86 114. 111 115. 75 116. 37 120,125 117. 118. शिवसूत्र शिवमहिम्नस्तोत्र शिवपुराण शिवसूत्रविमर्शिनी शिवाद्वयदर्शन शिशुपालवध शुल्कयजुः सहिता श्वेताश्वतरोपनिषत् षट्त्रिंशत् तत्त्वसन्दोह हरविजय हरिहरभेदनिरास हेमचन्द्र त्रिकाण्ड शेष 121. 122. 123. 124.