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मुख्य रूप से पुष्पाञ्जलि का प्रधान अंग है। दूसरे विश्राम से इसका कोई सीधा सम्बन्ध नहीं । यद्यपि उसमें भी अर्धनारीश्वर की महिमा ही वरिणत हुई है । किन्तु उसकी रचना स्तोत्र साहित्य की विशुद्ध काव्यात्मक शैली को लेकर हुई है । अतएव इसके अन्तर्गत भारत की प्रधान सप्तपुरियों तथा सरयू यमुना आदि कुछ प्रमुख नदियों का वर्णन भी इसमें समाविष्ट है । जो कि स्तोत्र एवं काव्य की सम्मिलित भावना की दृष्टि से एक विशिष्ट महत्व की वस्तु है । इस अंश को प्रकीर्णक पुष्पाञ्जलि कह देना अधिक उपयुक्त होगा ।
पुष्पाञ्जलिकार का परिचय - पुष्पाञ्जलिकार का जन्म संवत् १६२० श्रावण कृष्ण १०, शुक्रवार को अयोध्या से आठ कोस पश्चिम 'सरयू नदी के दक्षिण तट पर 'थरेरू' नामक गांव में हुआ था । आपकी जाति - सरयूपारीण ब्राह्मण, उपाख्या - द्विवेदी, गोत्र - काश्यप, वेद शुक्लयजु, शाखा माध्यन्दिनी थी । आपके पिता का नाम सरयूप्रसाद द्विवेदी था । जो अपने समय में एक तपस्वी, शास्त्रज्ञ, तन्त्रविद्या के रहस्यज्ञ, एवं सम्मानित महापुरुष थे ।
अपने पिता से ही आपने प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त की थी । यज्ञोपवीत संस्कार के बाद, पिता की आज्ञा से आप नित्यपार्थिव शिवपूजन किया करते थे । संस्कारवश इसका फल 'ईशानः सर्व विद्यानाम्' ने शीघ्र ही पूर्ण किया । एवं १८ वर्ष की अवस्था में आप में कवित्व शक्ति का उद्गम हुआ और उसके फलस्वरूप सर्वप्रथम आपने 'प्रसन्न -चण्डीपति' अष्टक बनाया ।
अनन्तर आपको पिताने अपने मित्र लखनऊ के विख्यात रईस मुंशी नवल किशोर सी. आई. ई. की अनुमति से काशी मे ज्योतिष शास्त्र पढाने का निश्चय किया । तव मुन्शीजी ने वनारस के राजा शिवप्रसाद 'सितारे हिन्द' के. सी. आई. ई के पास भेजा और उन्होंने सुप्रसिद्ध गणितज्ञ म. म. बापूदेव शास्त्री सी. आई. ई. के निकट ज्योतिष पढने के लिए गवर्नमेंट संस्कृत कालेज में भरती कर दिया । कालेज का समय प्रात काल का नियत था, अतएव दोपहर के बाद आप म. म. गंगाधर शास्त्री की सेवा मे उपस्थित होकर साहित्य दर्शन आदि विषयों का अध्ययन भी करते रहे । उस समय काशी का विद्यापीठ नाम सार्थक हो रहा था, और हिन्दी के हरिश्चन्द्र युग का आरम्भकाल था ।