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प्रकाशकीय वक्तव्य
राजस्थान जहां एक ओर अपनी शूरवीरता और आन-वान के लिए इतिहासप्रसिद्ध है वहां दूसरी ओर विद्या और कला के क्षेत्र मे भी उसका पर्याप्त आदर
और सम्मान है । यहां के विद्यानुरागी नरेशों ने अपनी गुण-ग्राहकता और उदारता के सहारे साहित्य-निर्माण और उसकी प्रगति में अच्छा योगदान किया है । मुख्यतः जयपुर, उदयपुर और बूदी के महाराजाओं के दरवार तो विद्वानों, कवियों और कलाकारों के केन्द्र ही रहे हैं। यहां के नरेशों ने संस्कृत, ब्रजभापा और राजस्थानी तीनों ही के साहित्य की श्रीवृद्धि करने मे महत्त्वपूर्ण योगदान किया है।
प्रस्तुत 'दुर्गा-पुप्पाञ्जलि' के रचयिता स्व० महामहोपाध्याय प० श्री दुर्गाप्रसादजी द्विवेदी, जयपुर राज्य के सम्मानित और प्रतिष्टित विद्वान थे । उनका सारा जीवन संस्कृत-साहित्य की सेवा में ही व्यतीत हुआ था। उनकी कतिपय कृतियों को देखते हुये यह ज्ञात होता है कि वे वास्तव में विशिष्ट प्रतिभाशाली, उच्चकोटि के विद्वान, कवि और दार्शनिक थे । उनकी रचना मे व्यापक पाडित्य और कवित्त्व-शक्ति का सुन्दर समन्वय है । राजस्थान के ही नहीं बल्कि भारत के प्राचीन प्रतिभा सम्पन्न विद्वानों मे भी उनका एक प्रमुख स्थान माना जाता है । इनकी अव तक अप्रकाशित रहने वाली कुछ रचनाओं को प्रकाश में लाने के लिये, श्री गङ्गाधरजी द्विवेदी व्याख्याता, महाराज संस्कृत कालेज, जयपुर ने, जो ग्रन्थ-कर्ता के पौत्र है, हमारा ध्यान आकृष्ट किया । चू कि प्रधान रूप से स्व० महामहोपाध्यायजी का कार्यक्षेत्र राजस्थान ही रहा है अत. इनकी कुछ विशिष्ट रचनाओं को हमने राजस्थान-पुरातत्त्वान्वेषण-मन्दिर द्वारा प्रकाशित करना उपयुक्त समझा । तदनुसार “दशकण्ठवधम्", "दुर्गा-पुष्पाञ्जलि" "भारतालोक" और "भारत-शुद्धि" नामक ग्रन्थों के प्रकाशन का कार्य स्वीकृत किया गया। इन पुस्तकों के सपादन-कार्य के लिए श्री गङ्गाधरजी द्विवेदी को ही हमने अधिक उपयुक्त और योग्य समझा, क्योंकि ये ग्रन्थकार के निकट सम्पर्क मे रहने के कारण इन ग्रन्यों के विषय से अच्छी तरह अभिज्ञ है।