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'यस्मिन् द्यौः पृथिवी चान्तरिक्षमोतं मनः सह प्राणैश्च सर्वैः ।
तमेवैकं जानथ आत्मानमन्या वाचो विमुञ्चामृतस्यैष सेतुः ।।'
'अरा इव रथनाभौ संहता यत्र नाड्य. स एषोन्तश्चरते बहुधा जायमानः । ___ॐ मित्येवं ध्यायथ आत्मानं स्वस्ति व. पाराय तमसः परस्तात् ।'
'तमेव धीरो विज्ञाय प्रज्ञां कुर्वीत ब्राह्मणः ।
नानुध्यायावहूछब्दान्वाचो विग्लापनं हि तत् ।।' उपयुक्त श्रुतियों से यह स्पष्ट है कि मूलतः यह उपासना प्रणाली वेदप्रसूत है। इसी प्रकार पञ्चदेवोपासना की तांत्रिक-पद्धति भी वेद संमत मानी गई है। किन्तु यहां इसकी अधिक चर्चा करने का अवसर नहीं।
शिव-शक्ति-विष्णु-गणेश और सूर्य ये पांच देवता ही इस पंचधारा के उपास्य देव हैं। इनकी प्रमुखता के आधार पर ही सबकी अलग अलग और पञ्चायतन के रूप में एक साथ भी उपासना का क्रम शास्त्रों में वर्णित है। इसलिए आपस में यदि इन्हें एक दूसरे का पूरक कहा जाय तो कोई असंगति न होगी। क्योंकि गुणधर्मानुसार इनकी सत्ता अलग २ होने पर भी तात्विक दृष्टि से इनमें कोई अन्तर नहीं रह जाता। उपासना की दृष्टि से ये सभी समान रूप से फलदायक और ईश्वरीय शक्ति के प्रतीक हैं । अतः इस प्रसंग मे फल के तरतमभाव की कल्पना या एक दूसरे को छोटा वड़ा समझना केवल अज्ञान मूलक भ्रम है । इसलिए उपासना संबन्धी विभिन्नताओं और विविध कल्पनाओं के होते हुए भी परिणामतः मौलिक रूप की एकता असंदिग्ध
और एक निर्णीत तथ्य है। _____ नाम और रूप का द्वन्द्वात्मक सृजन ही दृश्य जगत् का स्थूल रूप है। दूसरे शब्दों में शब्द और अर्थ की सामूहिक सृष्टि का परिणामन ही यह विश्व है। इस बात को हृदयङ्गम कराने के लिए दार्शनिकों ने शिव और शक्ति की समन्वयात्मक पृष्ठभूमि में ईश्वर के अर्धनारीश्वर रूप की सार्थकता और उसकी व्यावहारिक आवश्यकता बतलाई है । 'शक्तयस्तु जगत्सर्व शक्तिमॉस्तु महेश्वर. ।' की रूपणा द्वारा इस लक्ष्य की प्रधानता मानकर अद्वयवाद की पुष्टि की है । यद्यपि इस क्षेत्र में देश-काल और परिस्थितियों के कारण अनेक मतों और वादों ने जन्म लिया और उनका पारस्परिक संघर्ष भी दीर्घकाल तक चलता रहा, किन्तु