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८-सौख्याष्टक-इसमें त्रिपुर-सुन्दरी के विविध माङ्गलिक रूपों का निरूपण किया गया है। शरणागत के उद्धार में भगवती की कर्तव्यपरायणता का स्मरण कराते हुए भक्त द्वारा मनोवाञ्छित लौकिक एवं पारलौकिक दोनों प्रकार के सुखों की पूर्ति की प्रार्थना, तथा इस भाव के अनुरूप उनके सौख्यस्वरूप का चिन्तन करना बतलाया है।
8-अम्बा-वन्दना-इसमें 'श्रीयन्त्र' के आगमोक्त स्वरूप का प्रतिपादन है ।। मूलाधार-स्वाधिष्ठान आदि षट्चक्रों के द्वारा अन्तर्याग की भावना का प्रकार एवं श्रीचक्र के अन्तर्गत आवरण देवताओं के साथ श्री विद्या के दिव्य सौन्दर्य की सृष्टि, चिन्तामणि नामक दिव्य-आगार में उनके निवास, देवताओं द्वारा उनकी सामूहिक वन्दना तथा ब्रह्मा, विष्णु और शंकर को प्रसन्न होकर महर्षिपद देने का उल्लेख किया गया है ।
१०-आदेशावधाटी-यह प्रधान रूप से भगवती दक्षिणा-कालिका की “स्तुति है । इसमें उनके निरङ्कुश ऐश्वर्य और उच्चतम प्रभुशक्ति का प्रतिपादन किया गया है। इसके सिवा उपासना क्षेत्र में इनकी अपनी विशेषताओं का निर्देश करते हुए विविध विद्याओं और कलाओं का इन्हें प्रधान आवास माना है। भक्त द्वारा जानबूझकर किये गये दण्डनीय अपराधों का भी अपने सहजसुलभ वात्सल्य भाव से मन्दस्मित करते हुए क्षमादान कर देने का इनका लोकोत्तर साहस दिखलाया है। संस्कृत के अश्वधाटी छन्द में यह. स्तुति प्रस्तुत किये जाने और साथ ही आदेश लेजाने वाले अश्वों की दौड, का अर्थ लेकर इस स्तव का यह नामकरण किया गया है।
११-स्वाथोशंसनम्- इसमे अर्धनारीश्वर एवं गुरुरूप में भगवती के साकार भाव का प्रतिपादन करते हुए उनके उपासनात्मक स्वरूप का विवेचन है। इसके साथ साथ शास्त्र के विधि-विधान के अनुसार कष्ट साध्य उपासना-मार्ग का वोमा ले चल सकने में अपनी स्वाभाविक असमर्थता, फलतः इसके विकल्प में केवल आगमोक्त नामपारायण के सहारे अभीष्टलाभ मिल सकने की. निश्चिन्तता और एतदर्थ अपेक्षित तन्मयता को अक्षुण्ण रखने की कामना की है। इस तन्मयतारूप स्वार्थ पूर्ति की कामना ही इस स्तोत्र का प्रधान लक्ष्य है अतएयः इसे 'स्वार्थाशंसन' का नाम दिया गया है।