Book Title: Anusandhan 2014 03 SrNo 63
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त, ५२९) अनसन्धान -६३ श्री हेमचन्द्राचार्य प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका संपादक : विजयशीलचन्द्रसूरि ROCESAROJECRECARTO ('रामकुंवरबाईनी पच्चक्खाणवही' नामे आ अङ्कमा प्रकाशित कृतिनी हाथपोथीमां आलेखायेल चित्रो) कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि 2014 For Personal & Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू ( ठाणंगसुत्त, ५२९ ) 'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे' अनुसन्धान प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य - विषयक सम्पादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका ६३ सम्पादक : विजयशीलचन्द्रसूरि श्रीहेमचन्द्राचार्य कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि अहमदाबाद २०१४ For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान ६३ आद्य सम्पादक : डॉ. हरिवल्लभ भायाणी सम्पादक : विजयशीलचन्द्रसूरि सम्पर्क: C/o. अतुल एच. कापडिया A-9, जागृति फ्लेट्स, पालडी महावीर टावर पाछळ, अमदावाद-३८०००७ फोन : ०७९-२६५७४९८१ E-mail: sheelchandrasuriji@yahoo.com प्रकाशक : कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अहमदाबाद प्राप्तिस्थान : (१) आ. श्रीविजयनेमिसूरि जैन स्वाध्याय मन्दिर १२, भगतबाग, जैननगर, नवा शारदामन्दिर रोड, आणंदजी कल्याणजी पेढीनी बाजुमां, अमदावाद-३८०००७ फोन : ०७९-२६६२२४६५ (२) सरस्वती पुस्तक भण्डार ११२, हाथीखाना, रतनपोल, अमदावाद-३८०००१ फोन : ०७९-२५३५६६९२ प्रति : २५० मूल्य : ₹ 200-00 मुद्रक : क्रिश्ना ग्राफिक्स, किरीट हरजीभाई पटेल ९६६, नारणपुरा जूना गाम, अमदावाद-३८००१३ (फोनः ०७९-२७४९४३९३) For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन संशोधननी अनिवार्य शरत छे सज्जता. संशोधक सज्ज होवो जोईए : अनेक रीते. ते स्मृतिसज्ज होय, सन्दर्भसज्ज होय, भाषासज्ज होय, ज्ञानसज्ज होय, माहितीसज्ज होय, कल्पकता-कल्पनाथी पण सज्ज होय, अने तर्कसज्ज पण होय. संशोधन करनारना दिमागमां अनेक सन्दर्भो स्मृतिरूपे रमता होवा जोईए. एक शब्द तेनी नजरे चडे के तरत ज तेनी सुसज्ज कल्पनाशक्ति कार्यरत थई जाय, अने तेने पोते वांचेला, जाणेला, सांभळेला, जोयेला एम यथासम्भव विविध सन्दर्भो सांभरी आवे. ए सन्दर्भो भाषाशास्त्रीय पण होय, पुरातात्त्विक पण होय, ऐतिहासिक पण होय अने अन्य विविध शास्त्र-शाखाओना पण होय. आमांनो कोई पण, उपयुक्त होय तेवो सन्दर्भ, पेला शब्द साथे, संशोधक पोतानी कल्पकतानी तेमज योग्य तर्कनी मददथी जोडी आपे छे, अने कोई नवो ज अर्थ, पदार्थ के मुद्दो आपणने जड़ी आवे छे. प्राचीन ग्रन्थनो कोईक शब्द, आ रीते, घणीवार, इतिहासनी स्वीकृत धारणाने बदली नाखे छे, तो क्यारेक पुरातात्त्विक उत्खनन तथा अन्वेषणने शास्त्रीय समर्थन पण लाधे छे. आम, संशोधकनी सज्जता, घणीवार, मजानां परिणाम नीपजावी आपे छे. भाषासज्ज एटले भाषाशास्त्र-सज्ज एवो अर्थ अभिप्रेत नथी. पण भाषाकीय सज्जता साधवामां उपकारक एवां साधनो - कोश, व्याकरण, अन्य साहित्यिक विधाओ इत्यादिनी जाणकारी, उपयोग करवानी फावट तथा आदत तेमज विपुल वांचन - आ बंधांमां तेने रस पडतो होवो जोईए. आवा संशोधकोना संशोधनमां दम होय छे, अने तेमनी रजूआत पण प्रमाणभूत बनी शके छे. ____ ज्ञान अने माहितीने अहीं साभिप्राय जुदां पाड्यां छे. पोते जे विषय परत्वे काम करता होय ते विषयने लगतां साहित्य तथा साधनोनी तलावगाही जाणकारी ते ज्ञान; अने ते विषय साथे एक या बीजी रीते सांकळी शकाय तेवी बाबतो तथा तेना सन्दर्भो तथा ते विषे काम करनार विद्वानों तेमज तेमनां कामो विषे For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाणकारी ते माहिती. संशोधक आ उभयथा सज्ज होय तो तेना संशोधनमां एक विशिष्ट जीवन्तता अवश्य आवी शके. ___ कल्पकता अने तर्क ए तो एनामां अनिवार्यपणे होवा घटे. दा.त. हस्तप्रतिनुं वांचन चालु होय, तेमां एक स्थाने ४-५ अक्षरोवाळो भाग फाटी के तूटी गयो होय, अने ते भागमां कया शब्द के अक्षर, आजुबाजुनां वाक्योना सन्दर्भमां बंधबेसता आवे, तेनो निर्णय एकला ग्रन्थाभ्यासने आधारे न थई शके; ते माटे तो तेणे पोतानी कल्पनाशक्तिने तेमज तर्कशक्तिने पण कामे लगाडवी ज पडे. आम, एक प्रमाणभूत संशोधक त्यारे ज बनी शकाय ज्यारे तेनी पासे उपर सूचवी तेटली तेमज ते प्रकारनी विविध सज्जता होय. अस्तु. - शी. श्रुतभक्तिं आ अङ्कना प्रकाशनमां श्रीमाटुंगा जैन श्वे. मू. पू. सङ्घ - वासुपूज्यस्वामी जैन देरासर, किंग्स सर्कल, माटुंगा, बुंबई ओ पोताना ज्ञानखातामांथी सम्पूर्ण आर्थिक सहयोग आपेल छे. श्रीसङ्घनी श्रुतभक्तिनी हार्दिक अनुमोदना. For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका सम्पादन श्रीरामचन्द्रसूरिविरचिता स्तवचतुर्विंशतिका - सुयशचन्द्र सुजसचन्द्रविजय १ महोपाध्यायश्रीरत्नशेखरविरचितं स्तवनचतुष्कम् (सावचूरि) - म. विनयसागर ७ पं. श्रीहेमविजयगणिविरचितं कीर्तिकल्लोलिनीकाव्यम् (स्व.) अम्बालाल प्रेमचन्द शाह २३ 'नालिकेरसमाकाराः' इति वाक्यस्य चत्वारिंशदर्थाः सुयशचन्द्र - सुजसचन्द्रविजय ६४ पं. श्रीगम्भीरविजयजीओ आपेलो हर्मन जेकोबीना पत्रनो उत्तर त्रैलोक्यमण्डनविजय ७० श्रीअमरविजयविरचित श्रीश्रेयांसनाथस्तवन सा. ज्योतिर्मित्राश्री ७७ ऋषभदेवस्तवन ___सा. ज्योतिर्मित्राश्री ८६ श्रीनेमविजयकृत स्तम्भन-शेरीसा-शङ्केश्वर पार्श्वस्तवन सा. श्रीकुमुदरेखाश्री ८८ चार प्रकीर्ण काव्यो अनिला दलाल १२० रामकुंवरबाईनी पच्चक्खाणवही धर्मकीर्तिविजय १२६ लेखन .. जैन चित्रशैली का पृथक् अस्तित्व विजयशीलचन्द्रसूरि १४३ उपाङ्गसाहित्य : एक विश्लेषणात्मक विवेचन प्रो. सागरमल जैन १४६ श्रीमण्डपीयसङ्घप्रशस्ति विषे त्रैलोक्यमण्डनविजय १५५ द्रव्यपुद्गलपरावर्त शक्य छे के नथी? त्रैलोक्यमण्डनविजय १८४ प्रकीर्ण डॉ. नगीन जे. शाहनी विदाय १९१ For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरामचन्दसूरिविरचिता स्तवचतुर्विंशतिका (अपूर्ण) - सं. मुनि सुयशचन्द्र-सुजसचन्द्रविजय जैन साहित्यमां सौथी वधु रचना प्रायः २ प्रकारोनी थई छे : १. भक्तिप्रधान रचनाओ २. चरित्रात्मक रचनाओ. तेमां पण. भक्तिप्रधान रचनाओमां पण स्तोत्र, स्तवनादि रूप साहित्य प्रचुर मात्रामा प्राप्त थाय छे. प्रस्तुत कृति ते भक्तिप्रधान साहित्यना स्तोत्रचतुर्विशतिका (चोवीशी) नामना काव्यप्रकारनी अद्भुत रचना छे. कृतिनुं फक्त प्रथम पत्र ज मळतुं होवाथी पांचमा तीर्थंकरना स्तोत्रना अगियारमा श्लोक सुधी ज रचना प्राप्त थाय छे. बाकीनी कृति अनुपलब्ध ज रहे छे. अलबत्त कृतिनुं पदलालित्य जोतां कृति कोई उत्तम विद्वान कविनी रचना होय तेमां कोई ज संदेह नथी लागतो. दरेक स्तोत्रनो छेल्लो श्लोक समान छे. तेमां कृतिकारे पोताना नामनो उल्लेख पण कर्यो छे. छतांय स्तोत्रकारना नामनो निर्णय करवामां मुंझवण थाय तेवू छे. 'कनकाभिराम' पदथी ओक हेमचन्द्र एवं नाम विचाराय, बीजु रामचन्द्र अर्बु पण बने.* पत्रनी लेखनशैली. कागळ वगेरे जोतां प्रत प्रायः १५मी सदीनी होवानुं अनुमान छे, तेथी कर्ता पण ते पूर्वे ज थया होय तेवू नक्की करी शकाय. छतां आ अंगे विद्वानो योग्य मार्गदर्शन आपशे. ___ आ तिने उकेलवामां - शुद्ध करवामां पू. उपा. भुवनचन्द्र म. तथा मु. त्रैलोक्यमण्डन वि. म.सा.नो तेमज प्रस्तुत कृतिनी हस्तप्रत आपवा बदल श्रीनेमि-विज्ञान-कस्तूरसूरि ज्ञानमन्दिर(सुरत)ना व्यवस्थापकश्रीनो खूब खूब आभार. __स्तोत्रसङ्ग्रह - भाग १मां मुद्रित कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यना पट्टशिष्य श्रीरामचन्द्रसूरिनां स्तोत्रोनी साथे प्रस्तुत स्तोत्रोने सरखावतां आ स्तोत्रो ते श्रीरामचन्द्रसूरिजीनां ज होय ओवी कल्पना दृढ बने छे. त्रीजा स्तोत्रना १२मा श्लोकमां 'स्वतन्त्रता'नी मांगणी तेमज चोथा स्तोत्रना ५ अने ७मा श्लोको पण स्वातन्त्र्यप्रेमी उपरोक्त आचार्यनां ज आ स्तोत्रो होय तेवी विचारणाने पुष्टि आपे छे. - शी. For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६३ [श्रीआदिजिनस्तवनम्] पादाः पुष्णन्तु पुण्यानि, देवस्य प्रथमस्य वः । चक्रचापजुषां येषां, त्रिलोकी शरणं गता ॥१॥ देव! देवान्तरैः क्षिप्ता, निःस्ताघे भववारिधौ । त्वां क्षमाधरमालम्ब्य, यत् तरन्ति तदद्भुतम् ॥२॥ तमांसि भिन्दतो विश्व-विश्वत्रयगतान्यपि । सन्तापहरिणस्तुल्य-स्तिग्मरोचिः स ते कथम्? ॥३॥ अपारेऽस्मिन्नपारेऽपि, संसारारण्यवर्त्मनि । स्मरतस्त्वां कुतः पुंसः, स्मरतः सिंहतो भयम्? ॥४॥ नरा न राजशब्दस्य, पात्रं ते स्युः कदाचन । तवांऽहिकैरवे प्रीति, येषां गावो न कुर्वते ॥५॥ तामसे तामसेर्बन्धौ, यः पथीच्छां रुणद्धि सः । स्वप्नेऽपि नाथ! नाऽभ्येति, नरकं नरकम्पनम् ॥६।। पारकं विपदां भद्र-वारकन्दद्विषां तव ।। यः शृणोति वचः सम्प-दास्यं वास्यं स किं स्पृशेत्? ॥७॥ सातङ्कस्त्रिदिवस्याऽपि, सातं कलयति ध्रुवम् । त्वत्पथं यः परित्यज्य, श्रेयस्यति पथान्तरैः ॥८॥ प्रभावतस्त[त्व]दुक्तस्य, सिद्धान्तस्य प्रभावतः । निर्वाणसम्पदां धाम-धाम पश्यन्ति जन्तवः ॥९॥ वीक्ष्य(क्ष)ते जातु या नैव, सापदं विषयोत्सवम् । सा पदं वीक्ष्य ते देव!, दृष्टिः शाश्वतिकोदयम् ॥१०॥ शङ्के नु केन मुक्तेस्ते, कर्मणा स्पृहयालवः । न स्यन्ति ये तमस्काण्डं, नश्यन्ति च तवाऽध्वतः ॥११॥ पुण्यापुण्यक्षयाल्लभ्य-मसभ्यारम्भविद्विषः । देहिनः कर्मनिर्भेदि, देहि नः परमं पदम् ॥१२॥ रोमाञ्चपक्ष्मलतनुः कनकाभिराम!, चन्द्रांशुपुञ्जधवलं भवतो गुणौघम् । यः स्तौति संस्मरति गायति च त्रिसन्ध्यं, तत्र स्वयं भगवती समुपैति मुक्तिः ॥१३।। *** For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ ३ [श्रीअजितजिनस्तवनम्] जितो येन जितब्रह्म-चक्रपाणि-हरः स्मरः । अजिताय नमस्तस्मै, विश्वविस्मयकारिणे ॥१॥ क्व ते ब्रह्मादयो देवा, लक्ष्य(क्ष्यं) कामधनुष्मतः? । क्व च त्वं शीर्णनिःशेष-विशेषभवविप्लव:? ॥२॥ क्व हिंसापिच्छिला यज्ञ-सूनायां धार्मिकी क्रिया? । क्व ते पन्था जगज्जन्तु-रक्षासत्रैकदीक्षितः? ॥३॥ परप्रशमपीयूष-पेशलाः क्व च ते गिरः? । क्व चाऽपरेषां संसार-तन्त्रसूत्रणकश्मला:? ॥४॥ अनादिकलुषध्वान्त-विध्वस्तस्पष्टदृष्टयः ।। तथाऽपि केऽपि पाप्मानो, नैव तत्त्वं विचिन्तते ।।५।। किं कुर्महे महेशैते, वयं क्रूरेषु जन्तुषु । मूर्ति तवाऽपि ये वीक्ष्य, न माद्यन्ति मनागपि ॥६॥ भवं तीक्ष्णाभिलाषोऽपि, विषयेषु क्षणोति सः । भवन्ती भवति श्रद्धा, यस्य नाऽन्दोल्यते परैः ॥७॥ नाऽलं ना लङ्घने तुङ्ग-पापशैलस्य स ध्रुवम् । न यस्य सिद्धस्त्वन्नाम-मन्त्रराजो जडात्मनः ।।८।। भवते शक्रपूज्याय, त्रिसन्ध्यं प्रणयंस्त्रिधा । स्वर्गसोपानमारुह्य, भवते पदमन्तिमम् ॥९॥ कोपरोगस्मरोन्माद-मोहतः पश्यतोहरात् । जगत्त्रयं परित्रातुं, कोऽपरो भवतोः क्षमः? ॥१०॥ तानितानितराप्राप्यां, लक्ष्मी मन्ये जनानहम् । नमस्यन्ति क्रमौ विघ्न-शान्तये शान्त! ये तव ॥११॥ तवांऽहिपद्मिनी देव!, या श्रियः कुलमन्दिरम् । सा पायाद् भविनां चक्रं, सापायाद् भवकाननात् ॥१२॥ रोमाञ्चपक्ष्मलतनुः कनकाभिराम!, चन्द्रांशुपुञ्जधवलं भवतो गुणौघम् । यः स्तौति संस्मरति गायति च त्रिसन्ध्यं, तत्र स्वयं भगवती समुपैति मुक्तिः ॥१३।। *** For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६३ [श्रीसम्भवजिनस्तवनम्] प्रातःप्रातर्भवत्पाद-पङ्कजस्य स्मरन्ति ये । लक्ष्मीर्दवीयसी तेषां, नृणां किं देव! सम्भव! ॥१॥ अयं संसारपाथोधि-स्तेषामेव भयङ्करः । निःशेषमार्गसन्दर्शी, त्वं न येषां नियामकः ॥२॥ प्रसीद सीदतेऽमुष्मै, जगते जगतः पते! । निदे(धे)हि विदलं(विमलां?) कुन्द-काशोत्सङ्गोज्ज्वलां दृशम् ॥३॥ विकाशिमल्लिकाभासो, यत्र खेलन्ति ते दृशः । तस्यांऽहिपीठे खेलन्ति, शक्रचूडामणित्विषः ॥४॥ प्रभौ देवेऽपि लोकोऽयं, क्लिश्यते यत् तदद्भुतम् । साम्राज्ये भास्वतः किं स्यु-निश्रियः कमलाकराः? ॥५॥ येषां त्वं शासकस्तेषां, गुरूणामपि लाघवम् । इदं प्रमोदवैषम्यं, न गम्यं मन्दमेधसाम् ॥६॥ न यद् वाच्यं न यस्याऽन्तः, परं यस्मान्न किञ्चन । सम्भवे सम्भवेदेव, देवे तुष्यति तन्नृणाम् ॥७॥ याऽपनीय तमस्तोमं, प्रकाशं कुरुते परम् । यापनीयमिदं विश्वं, पवतां सा भवद्गवी ॥८॥ भवं तिसृषु निक्षिप्य, ये विनिघ्नन्ति गुप्तिषु । भवन्ति देव! ते मुक्तेः, कण्ठपीठविलोठिनः ॥९॥ मानवानां भवद्वाक्य-सुधाबन्धुरचेतसाम् । मा नवा पाणिपद्मं चे-दावसेत् किमु कौतुकम्? ॥१०॥ का पिमाकिनि सद्बुद्धि-स्तत्र देव! सुमेधसाम्? । काऽपि नाकिजनसु(स्तु?)त्या, न यत्र प्रशमस्थितिः ॥११॥ तत् त्वं [प्रभो!] प्रसीदाऽस्य, दास्यसन्त्रस्तचेतसः । विश्वस्य येन सा काचि-दाविरस्ति स्वतन्त्रता ।।१२।। रोमाञ्चपक्ष्मलतनुः कनकाभिराम!, चन्द्रांशुपुञ्जधवलं भवतो गुणौघम् । यः स्तौति संस्मरति गायति च त्रिसन्ध्यं, तत्र स्वयं भगवती समुपैति मुक्तिः ॥१३॥ *** For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१४ [ श्रीअभिनन्दनजिनस्तवनम् ] रजःप्रभञ्जनो मुक्ति-कामिनीमुखमण्डनम् । चन्दनं क्लेशतप्तानां, नन्दतादभिनन्दनः ॥ १ ॥ कौतुके (कं) तेऽपि वाञ्छन्ति, संसारे शिवसम्पदम् । ये स्वप्नेऽपि न पश्यन्ति, त्वन्मूर्तिं शर्मकार्मणम् ॥२॥ वारि-वारिज-नीहार-हार - शीतांशुरश्मयः । अन्त:तापमुचां युष्मद्-वाचां बहु तृणं पुरः ||३|| त्वयि प्रसन्ने पश्यामो, लुठन्तीं मुक्तिमग्रतः । स्वाधीन भास्वतो ध्वान्त-ध्वंसः किं नाम दुर्लभः ? ||४|| क्लाम्यतां पारवश्याग्नि- ज्वालाभिरभितः सताम् । पद्मचक्राञ्चिता त्राणं, त्वत्पादसरसी परम् ॥५॥ मां सलावण्यसौरभ्य-मांसलाऽनन्तवस्तुभिः । सपर्याया सपर्याया-मुत्सुकं ते करोतु वाग् ॥६॥ भवति प्राणिनो यस्य, भवति प्रीतिरन्वहम् । वसतीश ! स्वत्रन्तत्व- वसती शर्मणो रमाम् ॥७॥ काञ्चनाभ! श्रियं त्वत्तः काञ्चनाऽहं वृणोमि ताम् । यस्यां पुण्यमपुण्यं च, क्षयं याति समन्ततः ॥८॥ शङ्खवज्राञ्चितौ पादौ, यस्य ते न प्रसीदतः । शं खवर्गप्रवासोत्थं, शाश्वतं किं स भोक्ष्यते ? ॥९॥ याऽतियाति स्वयं द्रष्टुं दृष्टिं तीर्थान्तरां नृणाम् । सापराधा ध्रुवं देव!, सा पा (प) राक्रियते त्वया ॥१०॥ परा यत् तावदाधत्ते, सेवास्ते मानुषं क्षणम् (?) । परायत्ता वदान्यस्य, तस्याऽपि न शिवश्रियः ॥ ११ ॥ पाति पातितपञ्चेषु-या(र्या) ते मूर्त्तिर्जगत्त्रयम् । तनुतां तनुतां नाथ!, सा सर्वस्य ममाऽहंसः ॥१२॥ रोमाञ्चपक्ष्मलतनुः कनकाभिराम !, चन्द्रांशुपुञ्जधवलं भवतो गुणौघम् । यः स्तौति संस्मरति गायति च त्रिसन्ध्यं तत्र स्वयं भगवती समुपैति मुक्ति: ॥१३॥ *** For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६३ [श्रीसुमतिजिनस्तवनम्] एकमर्हन्तमस्ताघ-मनश्वरमकल्मषम् । अनामवा(क)मनाबाध-मनन्तं सुमतिं स्तुमः ॥१॥ रुचिर्न यस्य दुःकर्म-नाशने शासने तव । स्वर्गो(गा)पवर्गसाम्राज्ये, रुचिस्तस्य न तन्व(न्य)ते ॥२॥ पापीयसां ध्रुवं तेषां, विरोध: कृपया समम् । कृपैकरूपाद् ये देव!, पराञ्चस्तव दर्शनात् ॥३॥ कुटुम्बिभिरसंविग्नै-र्दैवतैः कामगर्दभैः । अज्ञातपरम[तत्त्वै]-र्वञ्चकैर्वञ्च्यते जनः ॥४॥ भूयांसो वञ्चका देवा-स्त्वमेकस्तु यथार्थवाक् । कियानेव ततो लोकः, परमार्थं विगाहते ॥५॥ महता पुण्यपु(प)ण्येन, प्राप्यते स भवान् भवान् । तत् पुनर्देव! सर्वस्य, किं नाम करगोचरः? ॥६॥ भास्वतो भा स्वतोऽप्येषा, प्रदोषे यस्य नश्यति । शाश्वतज्योतिषः सोऽयं, तपस्वी पुरतस्तव ॥७॥ याऽन्तिमेऽपि पदे नेतु-मलं विश्वत्रयीमपि । तां तवांऽहिद्वयीं प्राप्ता, यान्ति चेत् स्वः किमद्भुतम् ॥८॥ मानसं मानसम्पर्का-दनच्छमपि देहिनाम् । अच्छायते भवद्वाक्यैः, सलिलं कतकैरिव ॥९॥ आराधयति शुद्धात्मा, भवन्तं यो जगद्धितम् । पति लक्ष्मीरपास्तान्या, भवन्तं तं प्रतीक्ष्य(क्ष)ते ॥१०॥ विभवन्त: सकौटिल्या, ये तन्वन्ति शुभां क्रियाम् । न ते स्वप्नेऽपि लप्स्यन्ते, *** For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी- २०१४ महोपाध्याय श्रीरत्नशेखरविरचितं स्तवनचतुष्कम् (सावचूरि) सं. म. विनयसागर (तपगच्छपति श्रीरत्नशेखरसूरिजीओ (सं. १४५२ - १५१७) उपाध्यायपणामां रचेलां आ चार स्तोत्रोनुं अवचूरि साथे, म. विनयसागरजीओ घणा वखत पूर्वे हस्तलिखित प्रतना आधारे सम्पादन कर्तुं हशे तेनी छायाप्रति (Xerox ) तेओए थोडा वखत पहेलां अनु. मां छापवा माटे मोकली. सम्पादन थोडुंक अशुद्ध हतुं अने Xerox पण थोडीक झांखी हती. छतां ते वयोवृद्ध विद्वानना विद्याप्रेम प्रत्येना सद्भावथी ज स्तोत्रोनुं मूल हस्तलिखित प्रतना आधारे यथाशक्य संमार्जन करीने प्रकाशन कर्तुं छे. स्तोत्रोनो परिचय पण उपलब्ध माहितीना आधारे अंशतः आप्यो छे. श्रीरत्नशेखरसूरिजी सं. १४९३मां उपाध्याय बन्या हता अने सं. १५०२मां श्रीमुनिसुन्दरसूरिजीना हाथे तेमनी आचार्यपदवी थई हती. ओटले अ १० वर्षना गाळामां ज आ स्तोत्रोनी रचना थई हशे . तेमना नामे प्रस्तुत स्तोत्रो उपरान्त अन्य ग्रन्थो पण नोंधायेला छे : श्राद्धप्रतिक्रमणवृत्ति - अर्थदीपिका (सं. १४९६), श्राद्धविधिकौमुदी (सं. १५०६), आचारप्रदीप (सं. १५१६), लघुक्षेत्रसमास, हेमव्याकरणअवचूरि, प्रबोधचन्द्रोदय, रत्नचूडरास, तपगच्छगुर्वावली व. ७ प्रस्तुत स्तोत्रो आचार्यनी विद्वत्ता अने काव्यकौशल प्रत्ये अहोभाव जन्माववा माटे पर्याप्त छे. ओक ओक स्तोत्र पोतानी तद्दन अनोखी विशिष्टता धरावे छे. प्रथम स्तोत्र 'भाषात्रयसमं चतुर्विंशतिजिनस्तवनम्' प्रासादिक छे अने काव्यकलाना उत्तम नमूना समान छे, पण अनी खरी खूबीनो ख्याल आखुं स्तवन वांची जईओ, तो पण न आवे से सम्भवित छे. आ काव्यनी खूबी ओ छे के ओ 'भाषात्रयसम' छे, मतलब के आ काव्यनो प्रत्येक श्लोक संस्कृत, प्राकृत (- महाराष्ट्री ) अने शौरसेनी अत्रणे भाषामां समजी शकाय तेम छे. केमके ओमां ते ज संस्कृत शब्दो के प्रयोगो प्रयोजाया छे के जे प्राकृत के शौरसेनीमां पण स्वरादिपरिवर्तन पामता नथी. ध्यानमा रहे के आम करवा जतां - For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६३ महदंशे संयुक्ताक्षर धरावता शब्दो के प्रयोगो तेमज श, ष, ऋ, ऐ, औ - आ अक्षर धरावतां तमाम पदो अने बीजा पण ढगलाबंध शब्दो छोडी देवा पडे छे, केमके प्राकृतमां ओवा शब्दो के प्रयोगो शक्य ज नथी. आमां पण शौरसेनीनो ख्याल करवा जतां तकारादि जेवा बीजा पण घणा शब्दो छोडवाना थाय छे. अने तेम छतां मर्यादित शब्दभण्डोळ वापरीने पण कविले जे चमत्कृतिसभर अने अर्थगौरवथी समृद्ध २५ श्लोको बनाव्या छे ते काबिले दाद छे. एक ज श्लोक जोईए - "कुवलवलयकायं कुन्दजिद्दन्तपाली च्छविभरपरिभोगं देवमल्लीपुरोगम् । तमरिहमिह सेवे वारिवाहं सवारिं, किमसमबिसकण्ठीमण्डलीलीढकण्ठम् ॥" (नीलकमल जेवी श्रीमुनिसुव्रतस्वामीनी काया अने कुन्दपुष्पोनी शोभाने य झांखी पाडे तेवी तेओनी दन्तपङ्क्ति. जाणे श्याम मेघमालानी आरपार ऊडती हंसोनी हार जोई लो! आवा सौन्दर्यनो तो हुं आशक ज थाउंने भला !) _ 'घोघामण्डन-नवखण्डपार्श्वस्तवन' शब्दचमत्कृतिथी आनन्दित करती रचना छे. कृतिना प्रशस्तिपद्य सिवायना ७ श्लोकोना चारे चरणमां 'नवखण्ड' शब्द प्रयोजायो छे. जो के दरेक श्लोक, चोथु चरण तो समान ज छे, पण अन्य त्रण चरणोमां दरेक वखते अलग-अलग सन्दर्भे 'न-व-खं-ड' अक्षरो गोठवाया छे. जेमके - 'दानवखण्डनाय॑', 'कार्शानवखण्ड', 'नव खं डयन्ते' व. कविनी कल्पनाशक्ति केटली अद्भुत हशे! ___'नवग्रहस्तुतिगर्भं पार्श्वजिनस्तवनम्' ओ द्विसन्धान काव्य जेवू छे. अमां ओक तरफ ९ श्लोकोथी पार्श्वनाथनी स्तुति करी छे, तो बीजी तरफ अमांना १-१ श्लोकथी १-१ ग्रहनी पण स्तुति थती जाय छे. आवा अनेकसन्धान काव्यो सामान्य रीते अकाक्षरी शब्दोनो वपराश, अप्रस्तुतकल्पना, अजाण्या शब्दोनो प्रयोग व.ने लीधे क्लिष्ट थई जतां होय छे. पण अत्रे कर्ताओ प्रासादिकता जाळवी राखी छे ते आश्चर्यजनक छे. 'तीर्थद्वयस्तवन' पण उपरोक्त काव्यनी जेम अनेकसन्धान ज छे. कविले तेमां अर्बुदगिरिमण्डन श्रीआदिनाथ, श्रीनेमिनाथ अने जीरापल्लीतीर्थपति For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ श्रीपार्श्वनाथनी अकसाथे स्तुति करी छे. कविओ चारे स्तोत्रोना अन्ते पोतानुं नाम न लखतां पोताना दीक्षागुरु श्रीसोमसुन्दरसूरिजी- नाम ज गूंथ्युं छे, जे तेमनी गुरुभक्तिनुं सूचक छे. चारे काव्यो पर कोई अनामी पुण्यात्माओ अवचूरि लखी छे, जे काव्यनो आस्वाद कराववामां घणी ज सहायक बने छे. काव्यो अने तेमनी अवचूरि धरावती दिव्य अक्षरोमां लखायेली प्रत पञ्चपाठी छे अने २ पानानी छे, जे मोटे भागे अवचूरिकार महात्माओ पोते ज लखी हशे अम जणाय छे. अवचूरिकार पोते रत्नशेखरसूरिजीनो उल्लेख 'महोपाध्याय' तरीके करे छे, ते सूचवे छे के श्रीरत्नशेखरसूरिजीना कोईक शिष्ये ज स्तोत्ररचनाना नजीकना समयमां अवचूरि लखी होवी जोईए. आवां मूल्यवान स्तोत्रो प्रकाशमां लाववा बदल म. विनयसागरजी खरा अभिनन्दनना अधिकारी छे. - त्रै.मं.) (१) , भाषात्रयसमं चतुर्विंशति-जिन-स्तवनम् (सावचूरि) (मालिनीवृत्तम्) अमरगिरिगरीयोमारुदेवीयदेहे, कुवलयदलमालाकोमला कुन्तलाली । सजलजलदपाली किन्नु "सन्नीलकण्ठी धवनिवहममन्दं नन्दयन्ती जयाय ॥१॥ अवचूरिः - १. सुवर्णाद्रिगरिष्ठं यत् श्रीऋषभसम्बन्धिदेहं, तस्मिन्नर्थादंसलक्षणे । २. कुवलयदलश्रेणिश्यामा जटा । ३. सजलजलदमालेव । ४. साक्षात् सन्त एव नीलकण्ठीधवा- मयूराः तत्समूहम् । अमन्दं यथा स्यात् एवं समुल्लासयन्ती । जयाय, अस्तु इत्यध्याहारः ॥१॥ असमसमरलीला-लालसाभावभाव च्छलपरबलहेलाभङ्गरङ्गं गमीव । करिवरपरिधारी वो विमोहावहारी, २भवजयिविजयाभू रङ्गभूमी रमासु ॥२॥ For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६३ अव० - १. असमः समरलीलायां लालसाभावो येषां, ईदृशा ये भावरूपाः च्छलपराः शत्रवो रागादयः, तत्सैन्यभङ्गात् यो रङ्गस्तं गमिष्यन्निवाऽङ्कमिषात् करीन्द्रधारी । अन्योऽपि यः शत्रुजयैषी स्यात् [स] करीन्द्रसङ्ग्रहं करोति, अस्त्वित्यध्याहार्यम् । २. भवजयी यो विजयाभूःश्रीअजितः । ३. रङ्गस्थानं सकलश्रीविषये । यथा नर्तक्यो रङ्गभूमौ लास्यलीलां कलयन्ति तथा विश्वश्रियः श्रीअजिते इत्यर्थः ॥२॥ भविविभुमभिवन्दे 'सम्भवं सम्भवन्तं, निविडजडिमभङ्गेऽभङ्गरङ्गेण गेयम् । "तरणिहयवरेणाऽऽबद्धसेवं 'विबोधो दयरयविरलाहङ्कारभारेण किन्नु ॥३॥ अ० – १. भविनां प्राणिनां प्रकरणात् गणभृदादिकानाम् । २. तृतीयं जिनम् । ३. निविडजडिम्नो भङ्गे सम्भवन्तं- घटमानम् इत्यर्थः, अर्थात् इन्द्रादिभिः। ४. अङ्ककैतवात् । ५. विशिष्टो बोध:- केवलज्ञानं तस्योदये तत्कालमेव लोकालोकव्यापकत्वात् यो रयः- वेगस्तेन विरल:- दूरीभूतः अहङ्कारभारो वेगविषयो यस्य ईदृशेनेव ॥३॥ 'समसमयमिवाऽलं चञ्चलं चित्तमङ्का . हरणहरिवरं वाऽचञ्चलीभावयन्तम् । उरसि विरसभावं हन्त! हन्तुं तुरीयं, तमरिहरमणीयं धारणीयं धरेऽहम् ॥४॥ अ० – १. अत्यर्थं चपलं चित्तं तथा अङ्के आहरणं- आनयनं यस्य तं हरिवरं- कपिवरं च समसमयं- युगपत् अचञ्चलीभावयन्तं- स्थिरीकुर्वाणमिव । चित्तं कपिश्च प्रकृत्याऽतिचपले, तद्वयमपि स्वामिपार्वे सुस्थिरं दृश्यते इतीयमुत्प्रेक्षा। २. 'विरसभावं' प्रकरणात् सांसारिकक्लेशसम्भवं हन्तुम् । ३. हन्त इति प्रीतौ । यदाह शाकटायनः - "हन्त सम्प्रदान-प्रीति-विषादेषु" इति । ४. तुरीयं- चतुर्थं तं गुणैर्जगत्प्रसिद्ध अर्हद्वरं श्रीअभिनन्दननामानं उरसि इत्यस्योभयत्र सम्बन्धात्, उरसि धारणाहँ उरसि धरेऽहम् इति सण्टङ्कः ॥४॥ • १असमसमयपारावारपारीणरीण च्छलचरणधुरीणच्छन्नमच्छिन्नमीडे । For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ `महिमभरनिरुद्धामङ्गलं मङ्गलाभूविभुमिदमसुबद्धं मङ्गलाकारणं तु ॥५॥ अ० १. असमसिद्धान्ताब्धिपारीणा गतच्छलाश्च ये चरणे- चारित्रे धुरीणा यतयस्तैः सेव्यत्वेन छन्नं- व्याप्तं निरन्तरं स्तौमि । २. महिमभरेण निरुद्धं- निषिद्धममङ्गलं जगतोऽपि येन तं तथा । ३. मङ्गलाङ्गजं जिनं श्रीसुमतिम् इत्यर्थः । इदमसम्बद्धं यो मङ्गलाभूः स मङ्गलायाः कारणं कथम्? । विरोधाभावपक्षे मङ्गलानामाकारणं निमित्तत्वादाकारणं- आकर्षणं इति भावः। मङ्गलानामाकारणं यस्मात् इति बहुव्रीहिर्वा ॥५॥ 'तमुदयगिरिचूलाचुम्बिभूच्छायभूरि - अ० २०१४ ― `सहभवमिव रागं कुङ्कुमाभं वहन्तं, च्छिदुरतरणिबिम्बाभङ्गधामाभिरामम् । १. तं प्रसिद्धमुदयाचलचुम्बीत्यनेन अभिनवं भूच्छायस्य- तमसो भूरिच्छिदुरेत्यनेनाऽतिदीप्रं यत् तरणिबिम्बं तद्वदभङ्गं यद् धामाऽर्थादारक्तवर्णं वपुस्तेजः, नव्यरवेराताम्रधामत्वात् तेनाऽभिरामम् इदं जिनविशेषणम् । २. सहजमिव कुङ्कुभाङ्गरागं वहन्तं, हृदीति शेषः । ३. श्रीपद्मप्रभम् ॥६॥ 'अवममवहरन्तु च्छन्दसञ्चारिपञ्चा वहविदुरसुसीमासम्भवं देवदेवम् ॥६॥ — रणभुवि किल भङ्गे मारवीरेण दूरं, Saणुसमणिफणा मे देवदेवोरुदेहे । "सममिह "परिहीणा ' पञ्चबाणी रयेण ||७| अ० १. निन्द्यं- अभिप्रायगतं मे अवहरन्तु इति योगः | २. अर्थात् सुपार्श्वः । ३. इवार्थे । ४. युगपत् । ५. परित्यक्ता । ६. पञ्चफणानां पञ्चबाणीवेत्युत्प्रेक्षा ॥७॥ 'सममिव `हिमभाजिद्देहदन्तोरुकूलं धयधवलकरालंसारिभावारिणेदम् । समलममलयन्तं भूविहायोऽहिगेहं, ११ ३हिमकरधरमङ्के देवदेवं वामि ॥८॥ For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ अनुसन्धान-६३ अ० - १. युगपदिव, इदं वा 'अमलयन्तम्' इत्यत्र योज्यम् । २. हिमभासां जैत्रदेहस्य दन्तानां तथोरुकूलन्धय ऊरुतटस्थायी यो धवलकरो लाञ्छनचन्द्रस्तस्य चाऽत्यर्थप्रसारिकान्तिजलेन क्रमात् पृथ्व्याकाशपातालानि निर्मलयन्तमिव । ३. अङ्के चन्द्रभृतं अर्थाच्चन्द्रप्रभम् ॥८॥ नरवर! कुरु रामानामरामालिचूडा मणिभुवमभवन्तं चित्तवासे वसन्तम् । नवमममलेभासं भासमिद्धोरुभाल च्छलधवलकराभासङ्करेणेव विद्धम् ॥९॥ अ० – १. 'रामा'नाम्नी या स्त्रीश्रेणिचूडामणिस्तज्जं सुविधिमित्यर्थः । चित्तवासस्थाने वसन्तं कुरु इति अन्वर्थः । २. शुक्रः । ३. कान्तिदीप्तौ गुरुश्च यो भालच्छलाद् धवलकरश्चन्द्रस्तत्कान्तिसङ्गमेन व्याप्तमिव सन्तम् अमलभासम् ।।९।। निरवमतमनन्दासुन्दरोदारतुन्दि. च्छलसलिलरुहाली केवली केवलाय । नवमरसनिलिम्पाहारसाराभिरामं, _ नवमचरमकुण्डं किन्तु भूखण्डमण्डि ॥१०॥ अ० – अनिन्द्यतमाया नन्दाया सुन्दरोदारा या तुन्दिः- कुक्षिस्तच्छलकमलेऽली- भ्रमरः, अर्थाच्छीतलः । २. अस्तु इति योगः । ३. शान्तरस एव निलिम्पाहारः- सुधा । ४. नवमचरमं- दशममित्यर्थः । ५. पाताले नव सुधाकुण्डानि, शीतलस्तु भूखण्डस्थदशमसुधाकुण्डमिव ॥१०॥ भवभयजयिनन्दाभूपुरोगामिदन्त.. च्छविनिवहभवाभा' भूरिभद्रङ्करा मे । इह किल कलयन्ती भाववन्दारुदेवा . सुरनरवरभाले काममुत्तंसकेलिम् ॥११॥ - अ० - १. भवभयजयी यो नन्दाभुवः शीतलजिनात् पुरोगामी श्रीश्रेयांसः । २. शोभा ॥११॥ 'दुरवमपरमोहं हन्तु मोहं जयाभू, रविनववसुहासी कासरेणाऽवभासी । For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ "सहजलजलवाहालिङ्गिभागाभिरामो दयगिरिगरिमाणं हन्त! धत्ते किलाऽयम् ॥१२॥ अ० – १. दुष्टो- गीः परम ऊहो यत्र । २. वासुपूज्यः । ३. रक्तवपुःश्रिया । ४. लक्ष्ममहिषेण । ५. सजलजलदालिङ्गी यो भागस्तदभिरामोदयाद्रिशोभाम् ॥१२॥ सगिरिधरणिभाराधारलीलाधुरीणं, 'किरवरममुमते धारयन्तं निरन्तरम् । परमगरिमलाभं लम्भयन्तं किमेवं, विमलममलदेहं चित्तगेहं नयेऽहम् ॥१३॥ अ० - १. वराहः । २. सततम् । ३. साद्रिभूभारक्षमत्वात्, अङ्के धारणेन ॥१३॥ 'विभुविमलपुरोगाभङ्गरागावलीभि चरणकररुहालीभास्त्रमूढा जयन्ति । नमिपरसुरबालाभालभागे सरागं, किल परमललामाडम्बरं धारयन्ति ॥१४॥ अ० - १. श्रीअनन्तस्य यौ निविडरागश्रेणिभिदौ चरणौ । २. नख । ३. नमन । ४. कर्ता पूर्वार्द्धगत एव ॥१४॥ चरणसरसिसारे किन्नु निस्सीमधामा ___ऽमलसलिलसमूहे हेमपङ्केरुहाणि । 'पविधरविभुवङ्गासङ्गिभापिङ्गरङ्गा, कररुहवरमाला वो विरुद्धं रुणद्ध ॥१५॥ अ० - १. पविधरस्य- वज्राङ्कस्य विभोः श्रीधर्मस्य अङ्गासङ्गिकान्त्या पिङ्गरना- पीतवर्णा, विभुवनेत्यत्र परमतेन वत्वम् । २. नखः ॥१५॥ दिवि भुवि चिरकालं चन्द्रभि हुकण्ठी रवभवभयंभूयोरीणरङ्ग कुरङ्गम् । तरुणकरुणमङ्के "लालयन्तं किलाऽमुं, भविवर! भगवन्तं धेहि हे धीर! चित्ते ॥१६॥ For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ अनुसन्धान-६३ अ० – १. चन्द्रग्रसनपरः । २. बहुक्षीणरङ्गम् । ३. लालनक्रियाविशेषणमेतत्, कृपालुत्वादिति भावः । ४. अर्थाच्छान्तिम् ॥१६॥ नर! नम 'परपङ्कावासहिंसोधुरीणा खिलभविभयभीरुं दूरभीपङ्कमङ्कम् । छगवरमवगाढं पालयन्तं सुगूढं, सदयमनयमन्थं कुन्थुदेवं सुसेवम् ॥१७॥ अ० - १. पाप । २. शौनिकवृकादिजीवः । ३. अजवरविशेषणमिदम् । ४. भीरुत्वादेव निर्भयमङ्कमाश्लिष्टवन्तं छागवरम् । केलेति(?) शेषः । ५. मन्थनं मन्थोऽनयस्य मन्थो यस्मात् सोऽनयमन्थः, यद्वा मन्थतीत्यचि मन्थः । ततो अनयस्य मन्थत्वम् । ६. फलदायित्वेन अतिशायिनी सेवा यस्य ॥१७॥ तमरममरदर्तामन्दमन्दारमाला ___ परिमलरसबोलम्बिरोलम्बमालम् । निरवमनवहेमच्छायंकायं नमामो __ऽमरगिरिमिव कण्ठे वारिवाहावगाढम् ॥१८॥ अ० - १. पूजार्थम् । २. आलम्बिनी । ३. परितोलना, ४. आश्लिष्टम् ॥१८॥ बहुलमिह वहन्तं कुन्दमन्दारमल्ली कुसुममसमवल्लीमञ्जुलंमल्लिदेवम् । चिरमुरसि वहामो भूरिताराऽविरामा वलिविमलविहायोमण्डलं किन्नु नीलम् ॥१९॥ अ० - १. जात्यपेक्षमेकवचनम् । २. नीलवर्णत्वात् । ३. भूरिताराणा- . मविरामा- अपारा आवलयो यत्र विहायोमण्डले तत्तथा ॥१९॥ 'कुवलवलयकायं कुन्दजिद्दन्तैपाली ____च्छविभरपरिभोगं देवमल्लीपुरोगम् । तमरिहमिह सेवे वारिवाहं सवारिं, .. . "किमसमबिसकण्ठीमण्डलीलीढकण्ठम् ॥२०॥ अ० - १. श्यामत्वात् कुवलमण्डलदेहम् । २. श्रेणिबद्धत्वात् पालीव For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अ० पाली, तत्कान्तिभरस्य समन्ताद् भोगो यस्य । ३. मुनिसुव्रतम् । ४. बलाका श्रेण्याऽऽश्लिष्टः ॥२०॥ जयभुवि विजयन्ते भासुरा भूरिभासो, भावः ॥२१॥ २०१४ - किमहिमकिरणाभार भाववन्तं नयन्ते, सुदिवसमविरामं चण्डभावं विहाय ॥२१॥ १. जयोत्पत्तिस्थाने । २. दमिनो - मुनयः, अत्र षष्ठ्यर्थे सप्तमी, कलासु इत्यत्रापि । ३. एता: किं रविकान्तयश्चण्डभावं त्यक्त्वा सौम्यत्वापन्ना नत्यर्चादौ भावभाजं प्राणिनं निरन्तरं सुदिवसं - शोभनदिनं प्रापयन्ति ? रविकान्तितुल्याभिर्नमिजिनतनुद्युतिभिर्भाविनां नित्यं श्रेयोदिनमेव क्रियते इति 'दमिवरनमिदेहे केलिगेहे कलासु । हरिमुरु धरमाणं कम्बु सम्बन्धबन्धु, ३नवनवभवकारावासवारी ४वरीयो - 3 ―――― किमु इह बहुमन्ता' कम्बुधारी चिरेण । गवलविमलना(धा)मा नेमिनामा' ममाऽयम् ॥२२॥ अ० - १. पुन्नपुंस्त्वात् कम्बुशब्दस्य क्लीबत्वम् । ततो गुरुशङ्खं पाञ्चजन्याभिधानं धरन्तं सम्बन्धेन बान्धवं कृष्णं बहुमन्तेव कम्बुधारी अङ्के, पाञ्चजन्यकम्बुधारिस्वबन्धुकृष्णबहुमानार्थमिव स्वयमप्यङ्के कम्बुभृदित्युत्प्रेक्षा । २. अत्र शीलार्थस्तृन्, तेन तत्कर्मणि द्वितीया । ३. नवनवभवा एव कारा गुतिगृहाणि, तत्र वासं वारयतीत्येवंशीलः, अस्तु इत्यध्याहार्यं च । ४. वरतरं नवमहिषवन्निर्मलं धाम वपुः सम्बन्धि यस्य । ५. जिनः ॥२२॥ 'फणिगुरुफणिमालालम्बिचूलामहीयो मणिगणकिरणालीसङ्गरङ्गावगाढम् । रुमिव "गुणयं चित्तधेयं धरेयम् ॥२३॥ अ० १. फणिगुरुर्धरणेन्द्रस्तत्फणमालायामालम्बिनो ये चूडासु महत्तरा मणयः। २. सङ्गेन यो रङ्गो - रक्तिमा तेन व्याप्तम् । ३. अर्थात् पार्श्वम् । ४. विश्वेऽपि गरिमास्पदत्वेनोरुमहेलात्वं सिद्धेर्युक्तम् । तस्यां सम्पन्नो यो रागस्तेन १५ अरिहमुरुमहेलासिद्धिसम्पन्नरागा For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६३ रञ्जितमिव । ५. गुणैर्गेयम् । ६. चित्ते धेयं- धारणाह, तत एवाऽहं धरेयमच्चित्ते ॥२३॥ 'गिरिभुवि हरिभावे 'बाहुलीलाविभिन्ना विरलनिबिडपीडासङ्गमे गाढखिन्नम् । "परिभवपरिहारायेव वोढारमङ्के, हरिवरमरिहन्तं हे नरा! धत्त चित्ते ॥२४॥ अ० – १. शालिक्षेत्रासन्नायाम् । २. प्राग्भवे त्रिपृष्ठवासुदेवत्वे । ३. बाहुलीलया यद् विभिन्नं, क्लीबे क्तान्तत्वात् विदारणं, तेन निरन्तरा, निबिडा च या पीडातस्याः सम्पर्के । ४. गाढखेदाद् यः परिभवः तदपहरणार्थमिव सिंहवरमङ्के वोढारम् । शीलार्थोऽत्र तृन् । अर्थात् श्रीवर्द्धमानम् ॥२४॥ इत्थं स्तोत्रपथं कथञ्चन जिना नीता विनीतात्मना, . वृत्तैः प्राकृतसंस्कृतैः समुदितैस्तैः शौरसेन्या समैः । दधुः श्रीगुरुसोमसुन्दरमुदाऽऽस्वादं प्रसादं जवाद्, येनाऽसौ रसिकेव,केवलकला लीलायते मय्यपि ॥२५॥ [शार्दूल०] इति संस्कृत-प्राकृत-शौरसेनीरूपभाषात्रयसमं २४ जिनस्तवनम् । म. श्रीरत्नशेख० ग० वि० । अव० - श्रिया गुरुः सोमस्तद्वत् सुन्दराऽतिविशदा या मुत्, तस्या अनुभवो यत्र प्रसादे तं तथा ॥२५॥ इति भाषा–यसम २४ जिनस्तवावचूरिः । (२) श्रीनवखण्ड-पार्श्वस्तवनम् (सावचूरि) (उपजातिवृत्तम्) जय प्रभो! त्वं नवखण्डपृथ्वी प्रख्यातकीर्ते! नवखण्डमूर्ते! । • भव्याब्जभानोऽनवखण्डसंविद्, विश्वेश्वर! श्रीनवखण्डपार्श्व! ॥१॥ For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ १७ अवचूरिः - लोकप्रसिद्ध्या पृथ्वी नवखण्डा । सम्पूर्णा संवित्केवलज्ञानं यस्य ॥१॥ ते तत्क्षणेनाऽनवखण्डमुच्चै विघ्नानशेषानवखण्डयन्ति । ये त्वां स्तुयुर्दानवखण्डनाW!, ____ विश्वेश्वर! श्रीनवखण्डपार्श्व! ॥२॥ अ० - अनवं- जीर्णं ततो जीर्णखण्डमवखण्डयन्तीति योगः । यथा जीर्णमनायासेवनेनेव (यासेनैव) खण्ड्यते तथा ते विघ्नान् सर्वान् खण्डयन्ति । अत्र अनवखण्डं खण्डयन्तीति कृत्वा पश्चादेवोपसर्गेण योगः । प्रथममेवोपसर्गयोगे त्वनवखण्डमित्यत्र णम्प्रत्ययस्य असम्भवः, "व्याप्याच्चेवात्" इति सूत्रे तस्यैवेति नियमात् । यद्वा अवशब्दश्चाऽऽदिपठितो भर्त्सनार्थे क्रियाविशेषणत्वेन योज्यः । भर्त्सनपूर्वं विघ्नान् खण्डयन्तीति भावः । अथवा अवतीति अचि अवस्ततो जिनसम्बोधनं - हे अव!- रक्षक! । दानवखण्डना- इन्द्राः ॥२॥ माधुर्यधुर्या नवखण्डमैत्री, गीस्तेऽथ कार्शानवखण्डवारि ।। भात्युद्यदादीनवखण्डमाना, . - विश्वेश्वर! श्रीनवखण्डपार्श्व! ॥३॥ अ० - यत एव माधुर्यधुर्या तत एवाऽभिनवमधुधूलिजैत्री । अथान्येव(?) कार्शानवानि कृशानुसम्बन्धीनि यानि खण्डानि ज्वाला इत्यर्थः, तत्र नीरसदृशा। आदीनवान् दोषान् खण्डमाना मथ्नन्ती, शीलार्थशानस्तेन मलयपवमान इति- वत्समासः सिद्धः, "श्रितादिभिः" इति सूत्रेण ॥३॥ नवप्रमुक्तानवखण्डलौटु भक्त्या कृतोच्चैर्नवखण्डगद्भिः । श्रितान् भवार्तानव खण्डमुळ, विश्वेश्वर! श्रीनवखण्डपार्श्व! ॥४॥ अ० - आनवखण्डलशब्दस्य नवप्रमुक्तत्वेन आखण्डलेति स्यात्, कृत उच्चैः स्तवो यस्य । खं- स्वर्ग, डलयोरैक्याल्लगद्भिः स्वर्गस्थैरित्यर्थः । उाः खण्डं- पीठं श्रितान् भवार्त्तान् अवेति योगः ॥४॥ For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६३ व आम्ना(?)तिनो मानवखण्डनादौ, दर्पण येऽन्यानव! खं डयन्ते । गिरोऽपि तैस्तेऽनवखण्डनीया, विश्वेश्वर! श्रीनवखण्डपार्श्व! ॥५॥ अ० - मनोरिदं मानवं शास्त्रं स्मृत्यादि, खण्डनग्रन्थ(?) । नौतीति नवः, स्तोता, न नवो अनवः, अन्येषामनवोऽन्यानवः, त्रिजगतोऽपि स्तुत्यत्वात् । ये दर्पण खं- व्योमं डयन्ते- उत्प्लवन्ते । यद्वा अवखण्डयन्तीति पाठस्ततो ये अन्यान् अवखण्डयन्ति- तिरस्कुर्वन्तीत्यर्थः । खंवं (अनवखण्डनीया)अवखण्डयितुमशक्याः ॥५॥ वितन्वते ते नवखण्डतिं ये, स्वभक्तितोऽर्हन्नवखण्डमाशु । ते नित्यनिस्तानवखं डभन्ते, विश्वेश्वर! श्रीनवखण्डपार्श्व! ॥६॥ अ० – स्वार्थे तिक्प्रत्ययेन नवशब्दयोगे च नवखण्डतिस्तमवखण्डं'वखण्डे'तिवर्णत्रयहीनमेतावतः नतिमित्यर्थः । निस्तानवमतुच्छं खं- सुखं डलयोरैक्याल्लभते ॥६॥ - व्याधींस्तथाधीनवखण्डसे तत्, . त्वमेव विश्वे नवखण्डहीनः । मनीषिणां मानवखण्डना), विश्वेश्वर! श्रीनवखण्डपार्श्व! ॥६॥ अ० – यत् इत्यध्याहार्यम् । मानवखण्डनार्हपदस्य 'नवखण्डे'तिवर्णचतुष्कहीनत्वे 'मानार्ह' इति शिष्यते । ततो मनीषिणां माननीय इत्यर्थसिद्धिः ॥७॥ इति श्रीनवखण्डपार्श्वस्तवावचूरिः । इति स्तुतः श्रीनवखण्डनामभृत्, प्रसिद्धघोघापुरभूवि[भू]षणः । पार्श्वः प्रभुः श्रीगुरुसोमसुन्दर स्फुरद्यशाः शाश्वतसम्पदेऽस्तु वः ॥८॥ - इति श्री महोपाध्याय श्री र० वि० ॥ For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१४ ( ३ ) नवग्रहस्तुतिगर्भं श्रीपार्श्वजिनस्तवनम् (सावचूरि ) (आर्यावृत्तम्) पार्श्वः श्रियेऽस्तु भास्वा - नजस्थितेरुच्चतां परां बिभ्रन् । विश्वप्रकाशकुशलः, कुतुकं तु कलावदुल्लासी (निस्तुलाश्रयः) ॥१॥ अवचूरिः भास्वान् दीप्रसूर्यश्च । [अज: ] न जायतं इत्यतः सिद्धः, पक्षे ‘अज:' मेषराशिस्तत्रस्थो हि रविरुच्चः स्यात् । निस्तुल आश्रयः सिद्धिलक्षणो यस्य, सूर्यस्तु तुल (ला) राश्याश्रयोऽपि स्यात् इति चित्रम् ॥१॥ पार्श्वः स जयति सोमः, परमोन्नतिभृद् वृषप्रयोगेण । शैवे शिरसि निवासी, चित्रं तु तमोग्रहग्रासी ॥१२॥ अ० सौम्यश्चन्द्रश्च । वृषः- पुण्यं, तत्प्रयोग- उपदेशांदिना; पक्षेवृषराश: (शे:) प्रकृष्टयोगेन । [ शैवे ] मोक्षसम्बन्धिनि, ईशसम्बधिनि । तम:अज्ञानं तदेव ग्रहो भूतादिस्तद्विनाशी, पक्षे तमोग्रहो - राहुः ॥ २॥ - श्रीपार्श्वं सद्वृत्तनवा- - चिषं नमत मङ्गलात्मानम् 1 पृथ्व्या नन्दनमद्भुत-मवक्रमर्पितबुधमुदं च ॥३॥ -- - अ० सच्छोभनं वृत्तं शीलं यस्य; पक्षे - शोभनश्चाऽसौ वृत्तोवृत्ताकारश्च । नवमर्चिः- तेजो ज्ञानरूपं यस्य, पक्षे नवसङ्ख्यकिरणम् । कल्याणमयात्मानं, पक्षे - मङ्गलः - भौमः । पृथ्व्या आनन्दनं, पक्षे सुतम्। मङ्गलस्य हि बुधो रिपुर्गीयते ॥३॥ पृथ्व्याः - वामाभूः श्यामाङ्गः, सौम्यः स्तादमृतसिद्धियोगकृते । मैत्रीप्रयोगतो वः, कुतुकं तु कलावक (दु) ल्लासी ॥४॥ अ० क्षे श्यामाङ्ग इति बुधनाम | पक्षे - सौम्यः - बुधः । मैत्रीप्रयोगेण वो मोक्षनिष्पत्तियोगाय स्तात् इति सम्बन्धः, पक्षे - मैत्र्यनुराधा, तस्याः प्रयोगतो बुधो अमृतसिद्धियोगकृत् स्यात् । पक्षे - बुधस्य हि चन्द्रो रिपुः 11811 १९ - जगति गुरुः श्रीपार्श्वः, शुभदृष्ट्या दोषलक्षमपि मुष्णन् । पुष्णञ् श्रियश्च जीया-न्न कुत्रचिच्चित्रमतिचारी ॥५॥ - For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६३ अ० - गुरु:- गरिमास्पदं, पक्षे - बृहस्पतिः । अतिचारःचारित्रमालिन्यं, शीघ्रगतिश्च ॥५॥ गुरुपदलाभादुच्चः, श्रीपार्श्वः श्रेयसेऽस्तु सत्काव्यः । दोषाकरद्वेषी न, जातु यात्यस्तमिति तु नवम् ॥६॥ अ० – गुरुपदं सिद्धिर्मीनराशिश्च, मीनराशौ हि शुक्र उच्चः । सद्भिः स्तुत्यः, पक्षे - संश्चासौ शुक्रश्च । दोषाणामाकरं विद्वेष्टीति शीलः, पक्षे - दोषाकरश्चन्द्रो विद्वेषी यस्य । सिद्धौ शाश्वतोदयस्थितिकत्वात्, शुक्रस्तु अस्तं यात्येव ॥६॥ परसिद्धियोगमसित-स्तनुतां पार्श्वः प्रयोगतो ब्रायाः । धर्मं पुष्णन् धर्मा-श्रयेण न पुनः क्वचिन्नीचः ॥७॥ अ० - असितः नीलवर्णः शनिश्च । ब्राह्मी वाग् रोहिणी च, तस्याः प्रयोगतः- उपदेशादेः प्रकृष्टयोगाच्च, परसिद्धियोगं प्रकृष्टमुक्तिसम्बन्धम् अमृतसिद्धियोगं च तनुतामित्यन्वर्थः । चारित्रधर्माश्रयेण चतुर्विधं धर्ममुपदेशादिना पुष्णन् । पक्षे - धर्म भवताश्रयणेन (?) धर्मपोषी । शनिस्तु मेषे नीच: स्यात् ॥७॥ दुरितभिदे दोषाकर-तमोरिपुग्रासलालस: पार्श्वः । .. ____ कीर्त्या विधुन्तुदस्ता-न्न क्रूरः कौतुकं क्वाऽपि ॥८॥ अव० – दोषाणामाकरभूतं यत् तमोऽज्ञानं, तदेव रिपुः- शत्रुस्तस्य ग्रासे- विनाशे लालसा- श्रद्धा यस्य; पक्षे - दोषाकरश्चन्द्रस्तमोरिपुः- सूर्यः, तयोर्ग्रसनपरः। कीर्त्या विधुन्तुदश्चन्द्रस्य जेता, पक्षे - विधुन्तुदो- राहुः ॥८॥ .. श्रीवामेयोऽनवम-स्त्रिजगति केतुः श्रियां परमहेतुः । जयतु स्फुरत्फणर्द्धि-नवरं नित्योदयी शुभदः ॥९॥ अव० - अनवमः- श्लाघ्यः, पक्षे - नवमो नवसंख्यापूरणः । त्रिभुवने विभूषकत्वात् केतुर्ध्वज इव, पक्षे - केतुनामा ग्रहः । पक्षे - परं केवलं श्रियामहेतुः । उभयोरपि सफणत्वात् । केतुस्तु कदाचिदुदयी, उदितोऽप्यरिष्टकृच्च ॥९॥ For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ श्रीपार्श्वस्तवमेवं, नवग्रहस्तवनगर्भमध्येतुः । .. श्रीसोमसुन्दरमते-रप्यशुभाः स्युर्ग्रहाः शुभदाः ॥१०॥ इति श्रीवामेयस्तवनं नवग्रहस्तुतिगर्भ महोपाध्याय० श्रीर० वि० ॥ . अव० - [अध्येतुः-] पाठकस्य, इह तृन् । पूर्णेन्दुवत् सुन्दरानिर्मला मतिर्यस्य ॥१०॥ श्रीपार्श्वस्तवावचूरिः ।।छ। (४) श्रीतीर्थद्वयस्तवनम् (सावचूरि) श्रीअर्बुदाद्रिमुकुट-श्रीजीरापल्लितीर्थसुप्रथितिम् । स्तौमि श्रीमत्पाश्र्वं, जिनर्षभं श्रीशिवाङ्गभुवम् ॥१॥ अवचूरिः - ऋषभपक्षे - अर्बुदाद्रिमुकुटश्चाऽसौ श्रीजीरापल्लितीर्थेनाऽऽसन्नत्वात् सुप्रसिद्धिश्च । श्री[मत्] पार्वं समीपं यस्य । श्रीशिवानामङ्गमभ्युपायो धर्मस्तदुत्पत्तिंपदम् । नेमिपक्षेऽप्येवं, परं जिनर्षभम् जिनप्रवरम् । पार्श्वपक्षे - अर्बुदाद्रिर्मुकुटो यस्येदृशा जीरापल्लितीर्थेन सुप्रसिद्धम् ॥१॥ तव सद्वर्ण्यसुवर्ण-श्रीघनरोचिष्णुरोचिरङ्गलता । कल्पलतातोऽप्यधिकं, दत्ते दृष्टाऽप्यभीष्टानि ॥२॥ अ० - सुवर्णश्रीवद् घनं- सान्द्रं रोचिष्णुरोचिर्यस्याः । नेमि-पार्श्वपक्षे - शोभनवर्णश्रीघनोमेयस्तद्वद्रोचिष्णु० ॥२॥ जय नाभिभूत! निःसम-सुसंविदां श्रीसमुद्रविजयभव! । वामाङ्गज! जयहेतो!, भवाऽब्धिसेतो! दुरितकेतो! ॥३॥ अ० - निःसमससंविदां श्रीयुक्तसमुद्रविजयस्य भवो- जन्म यस्मात् । वामः- प्रतिकूलः अङ्गज:- स्मरस्तज्जयहेतो! । नेमिपक्षे - निःसमसुसंविदां नाभिभूताऽऽधारभूत! । पार्श्वपक्षे - हे वामाङ्गज! हे जयहेतो! ॥३॥ For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६३ बिभ्रद् वृषभासनतां, निर्मलजलजाङ्कितांहिकमलश्च । भोगीन्द्रसेव्यमानः, प्रभो! जय त्वं निरुपमानः ॥४॥ अ० – भोगिनो ये इन्द्राः । नेमिपक्षे जलजः - शङ्खम् ॥४॥ श्रीअर्बुदादिविदित श्रीजीरापल्लितीर्थसुन(?) वृषभ! । श्रेयः समुद्रनेमे!, देयाः श्रीसोमसुन्दरस्वपदम् ॥५॥ (गीतिः) इति तीर्थद्वये जिनत्रयस्य प्रत्येकं स्तवस्त्र्यर्थः । एतानि महोपाध्यायश्रीरत्नशेखरग० वि० । अव० – श्रीजीरापल्लि: पार्श्वे यस्याऽऽश्रयस्य । समुद्रनेमिभूः । पार्श्वपक्षे - हे अर्बुदाद्रिणाऽऽसन्नत्वात् सुप्रसिद्धिः । शेषं सुगमम् ।।५।। इति तीर्थद्वयस्तवावचूरिः ॥छा। -x For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ पं. श्रीहेमविजयगणिविरचितं कीर्तिकल्लोलिनीकाव्यम - सं. (स्व.) अम्बालाल प्रेमचन्द शाह (तपगच्छपति श्रीविजयसेनसूरिजीना प्रताप, कीर्ति अने सौभाग्यने हृदयङ्गम रीते वर्णवतुं प्रस्तुत काव्य, तेमना ज साम्राज्यवर्ती पं. हेमविजयजीओ रच्युं छे. कर्तानी गुरुपरम्परा, विद्वत्ता, रचनाकर्म, काव्यनी महत्ता व. अंगे विशद माहिती आपतो श्रीअम्बालाल प्रेमचन्द शाहे लखेलो लेख, जैन सत्यप्रकाश - वर्ष ५, अङ्क १, पृष्ठ ३८-४२मा प्रकाशित थयो हतो. ते "महाकवि हेमविजयगणि" नामनो लेख अत्रे यथावत् मुद्रित करवामां आवे छे) _ "थोडा समय अगाउ मने 'कीर्तिकल्लोलिनी' नामनी हस्तलिखित प्रति प्राप्त थई हती. आ ओक खण्डकाव्य छे. तेनी रचना कोई अद्भुत हाथे थयेली होवी जोईओ ओम जणातां तेनी तिहासिक माहिती मेळववा में प्रयत्न कर्यो अने तेना संशोधन अंगे आवश्यक सामग्री पण मेळवी. कर्तानी तिहासिक माहितीओ खास मळी शकी नथी, छतां जेटलुं प्राप्त थइ शक्युं ते वाचको समक्ष मूकुं छु. _ 'कीर्तिकल्लोलिनी' नामना खण्डकाव्यना कर्ता पण्डित हेमविजयगणि छे. श्रीहेमविजयजी, गृहस्थावस्थानुं कंइ पण वृत्तान्त, महाप्रयत्ने पण, जाणवा मळी शक्युं नथी; अने तेमना साधुजीवनमां तेमनी अनेक कृतिओ रूप साहित्य-सेवा सिवाय बीजा कंई पण विशिष्ट कार्योनो उल्लेख कोई पण ग्रन्थोमां मळतो नथी. केवळ श्रीहीरविजयसूरिनी सम्राट अकबर साथेनी मुलाकातमां तेओ साथे हता तेवो उल्लेख 'हीरविजयसूरिरास' अने 'सूरीश्वर अने सम्राट' वगेरे ग्रन्थोमांथी मळी शके छे. तेओ मुनिसुन्दरसूरिनी पट्टपरम्परानी लक्ष्मीभद्रीय शाखाना हता, तेम तेमना 'विजयप्रशस्ति महाकाव्य'ना [पूर्तिकार] गुणविजयजी कृत अन्तिम प्रशस्ति परथी जणाय छे. मुनिसुन्दरसूरि → लक्ष्मीभद्र (लक्ष्मीभद्रीय शाखा) For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ अनुसन्धान-६३ → रत्नशेखर → हेमविमल → शुभविमल → अमरविजय → कमलविजय → हेमविजय, गुरुभाई विद्याविजय → गुणविजय* आ कवि विक्रमीय सत्तरमी शताब्दीना अनेक महान कविओमांना अक हता. साधारण रीते हीरविजयसूरिनी शिष्यपरम्पराना अने ते वखतना समकालीन साधुओ मोटे भागे विद्वान अने कविओ हता अम तेमनी प्राप्त थती रचनाओ उपरथी मालूम पडे छे. संस्कृत भाषा करतां सोळ, सत्तर अने अढारमी सदीमां गूजराती भाषा साहित्य जैन कविओना हाथे वधारे फूल्युफाल्युं छे अम कोई पण साहित्यशोधकने लाग्या विना नथी रहेतुं. आ कविना कवित्व माटे गृहस्थ कवि ऋषभदास पण पोताना कुमारपाळ रास अने हीरविजयसूरि-रासमां मोटा कवि तरीकेनो मानभर्यो उल्लेख करे छे. हंसराज वाछो देपाल माल हेमनी बुद्धि विशाळ. – कुमारपाळरास हेमविजय पण्डित वाचाल काव्यदुहामां बुद्धि विशाळ - हीरविजयसूरिरास पृ. १०८ * वास्तवमा विजयप्रशस्तिमहाकाव्यनी प्रशस्ति प्रमाणे 'लक्ष्मीभद्र' मुनिसुन्दरसूरिजीना राज्यमां थया हता, तेमनी परम्परामां न हता. रत्नशेखरसूरिजीओ रचेली अर्थदीपिका (अपरनाम - श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रवृत्ति, र.सं. १४९६)नुं लक्ष्मीभद्रे संशोधन कर्यु हतुं, अने हेमविमलसूरिजीना राज्यमां लक्ष्मीभद्रनी परम्पराना 'शुभविमल' थया; अटलो ज उपरोक्त प्रशस्तिमां निर्देश छे. ते सिवाय ओ बे सरिभगवन्तोनो अम्बालालभाईओ जणाव्यो तेवो लक्ष्मीभद्रनी परम्परा साथे कोई सम्बन्ध नथी. जैन परम्परानो इतिहास-भाग-३, पृ. १९८-१९९ पर लक्ष्मीभद्रीय परम्परा सम्बन्धे घणी हकीकतो दर्शावाई छे. पण अन्य सन्दर्भो साथे ओ हकीकतोने सरखावता घणीखरी शङ्कास्पद जणाय छे. जेमके तेमां लक्ष्मीभद्रने मुनिसुन्दरसूरिजीना शिष्य, रत्नशेखरसूरिजी (दीक्षा सं. १४६३)ना विद्यागुरु, अने हेमविमलसूरिजीना काळमां विद्यमान जणाव्या छे. आ हिसाबे तेमनो दीक्षापर्याय लगभग १०० वर्ष करतां पण वधु थवा जाय छे. ते भाग्ये ज संभवे. वळी, रत्नशेखरसूरिजी अने हेमविमलसूरिजी लक्ष्मीभद्रीय परम्परामां थया छे एवी त्यां सूचवेली हकीकत पण आ प्रशस्तिना आधारे खोटी ठरे छे. For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी २०१४ - हेमविजय मोटो कविराजो हेम वडो कविराय. हीरविजयसूरिरास पृ. ३०२ आ सिवाय तेमना गुरुभाई श्रीविद्याविजयगणीना शिष्य श्रीगुणविजयगणी ओ पण तेमना अधूरा मूकेला ( सुधारो स्वर्गगमनने लीधे अधूरा रहेला) 'विजयप्रशस्ति' नामना महाकाव्यनी पूर्णाहुति करी तेनी अन्तिम प्रशस्तिमां श्रीहेमविजयनी विद्वत्ता अने कवित्वनुं महत्ताभर्युं वर्णन कर्तुं छे. प्रस्तुत 'कीर्तिकल्लोलिनी' काव्यसम्बन्धे ते ज प्रशस्तिमां तेमणे जणाव्यं छे के - - हीरविजयसूरिरास पृ. २७४ - २५ "स्वर्गकल्लोलिनीतुल्या कीर्तिकल्लोलिनी मता" खरेखर आ काव्य माटे स्वर्गङ्गानी उपमा जराय अतिशयोक्ति विनानी छे, ओम तेना वाचकने लाग्या विना नहि ज रहे. प्रत्येक पद्यनी गगनविहारिणी कल्पनाओ, मनोहर उपमा, उत्प्रेक्षादि अलङ्कारोनी सजावट अने रचनामाधुर्य कोई विद्वान वाचकने मेघदूतादिनी रचनाओने पण भूलावे तेवुं आ खण्डकाव्य छे. आ • काव्य श्रीविजयसेनसूरिनी स्तुति रूपे ज बनावायुं छे; पण कर्ताओ श्रीविजयसेनसूरिना चरित्र विषेनो उल्लेख प्रथमना बे श्लोकोमां तेमना कमा पिता, रूपश्री माता अने गृहस्थावस्थानुं जेसंग नाम सिवाय कंई पण चरित्रदृष्टिनुं वर्णन नथी कर्यु. चरित्र माटे तो तेमणे विजयप्रशस्ति वगेरे ग्रन्थो बनाव्या ज छे. कविनी श्रीविजयसेनसूरि प्रत्येनी पूज्यत्व अने मानभरी जे दृष्टि छे ते तेमना अनेक काव्योमां प्रतीत थाय छे. छतां आ काव्यमां तो तेमणे पोतानुं प्रौढ कवित्व सुन्दर लालित्यभरी रचनामां वहेतुं मूकी श्रीविजयसेनसूरि प्रत्येनी भक्ति बताववा साथे आपणा माटे ओक अपूर्व कवित्वभर्यो ग्रन्थ- वारसो सोंपी जनताने ऋणी बनावी छे. आ काव्य तेमनी नैसर्गिक कवित्वशक्तिनी छाप माटे पूरतुं छे. आ काव्यमां त्रण अधिकारो छे : १. प्रतापाधिकार, २. कीर्त्त्यधिकार अने ३. For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६३ सौभाग्याधिकार; अम स्रग्धराछन्दना* कुले २०७ श्लोकमांथी प्रथममा ७६, बीजामां ८९ अने त्रीजामा ४२ श्लोकोथी आ काव्यने पूर्ण कयुं छे. प्रत्येक अधिकारना प्रत्येक पद्यमां ते ते अधिकारना प्रताप, कीर्ति अने सौभाग्य शब्दनो उल्लेख पर्याय शब्दोथी पण कर्यो छे. आ काव्यनी आ एक विशिष्टता गणाय. प्रत्येक पद्य ओक ओक कल्पनार्नु कोहीनूर-रत्न छे, अम कहेवू अतिशयोक्तिभर्यु नथी. भिन्न भिन्न कल्पनावगाही रत्नोनो बनेलो आ प्रशंसात्मक काव्यरूप हार श्रीविजयसेनसूरिना यशःशरीर पर चढावी तेमनी कीर्तिने अमर करे छे. अन्ते कवि ज पोताना आ काव्यनी यथार्थतानो स्पष्टताभर्यो उल्लेख करे छे : नानाश्लेषोक्तियुक्तिप्रकरमकरभूभूरिभावाभिधायिस्फारालङ्कारकाव्यव्रजजलजयुता प्रौढपुण्यप्रवाहा । ' सिञ्चन्ती गोविलासै वनवनमिदं 'कीर्तिकल्लोलिनी'यं, धामल्लीलामरालैर्भवतु सुगहना गाह्यमानाऽचिरश्रीः ॥ आ ग्रन्थ, संशोधन तेमना समकालीन पण्डित श्रीलाभविजयजीओ कर्यु छे. आ उपरान्त लगभग तेमनी बधीय कृतिओ श्रीलाभविजय पण्डिते तपास्याना केटलाक उल्लेखो मळे छे. नीचे आपेली जैन साहित्यना सक्षिप्त इतिहासमांथी केटलीक माहिती उपयोगी छे ते वाचको समक्ष रजू करूं छु. पृ. ५८३ – धर्मसागरे सं. १६३९मां जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति पर वृत्ति रची. आ छेल्ली वृत्तिनी अक प्रशस्ति (वे. नं. १४५९)मां अम जणाव्युं छे के ते त. हीरविजयसूरिओ दिवाळीने दिने रची अने तेमां कल्पकिरणावलीकार धर्मसागर उ. अने वानर ऋषिो (विजयविमल) सहाय आपी. तेमज तेनुं संशोधन पाटणमां त. विजयसेनसूरि, कल्याणविजय गणी, कल्याणकुशळ अने लब्धिसागरे कर्यु हतुं. तेनी आ प्रशस्ति हेमविजये रची. वास्तवमां सौभाग्याधिकारना १८-२२, ४२ अ ६ अनुष्टुप्छन्दना श्लोको अने अन्तिम स्रग्धरा छन्दना श्लोकने बाद करता बाकीना २०० श्लोको शार्दूलविक्रीडित छन्दना छे. For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ २७ पृ. ५८६ – मुनिसुन्दरसूरिराज्यमां थयेला लक्ष्मीभद्रनी शाखामां शुभविमलअमरविजय-कमलविजयना शि. हेमविजय ओक सारा कवि अने ग्रन्थकार हता. तेमणे सं. १६३२मां पार्श्वनाथचरित्र (प्र. मोहनलालजी जै. ग्रन्थमाळा नं. १), सं. १६५६मां खम्भातमां ऋषभशतक जेने लाभविजयगणिजे संशोध्युं (काथ. १८९१. ९५ रीपोर्ट) अने सं. १६५७मां अमदावादमां दशतरङ्गमा २५० कथावाळो कथारत्नाकर (कां. वडो) रच्या. तेमना बीज़ा ग्रन्थो - अन्योक्तिमुक्तामहोदधि, कीर्तिकल्लोलिनी (विजयसेनसूरिनी प्रशंसा रूपे), 'सूक्तरत्नावलि, सद्भावशतक, चतुर्विंशतिस्तुति, स्तुतित्रिदशतरङ्गिणी, कस्तूरीप्रकर, विजयस्तुति अने सेंकडो स्तोत्रो छे. अने ते उपरान्त महाकाव्य तरीके विजयप्रशस्ति काव्य रचेल छे. तेमां १६ सर्ग करी पोते स्वर्गस्थ थतां ते पछीना पांच सर्गो तेमना गुरुभाई विद्याविजयना शिष्य गुणविजये, सर्व सर्ग परनी पोतानी टीका नामे विजयदीपिका सहित, पूरा कर्या १६८८मां. ___ आ काव्यमां मुख्यपणे विजयसेनसूरिनुं वृत्तान्त छे. छतां हीरविजयसूरि अने विजयदेवसूरिनां वृत्तान्तो अने घणी जैतिहासिक हकीकतो मळे छे (प्र. य. ग्रं. नं. २३). गुणविजये आ टीका ईलादुर्गमां आरम्भी माधपुर दुर्ग (जोधपुर), श्रीमालमां रची, छेवटे श्रीरोहिणी(सिरोही)मां पूरी करी, अने चारित्रविजय वाचके शोधी (जूओ. विजयप्रशस्तिनी छेवटनी प्रशस्ति). ___ पृ. ६०७ – हेमविजय, कमलविजय रास, १६६१, महेसाणा. पृ. ५४३ – हीरविजयसूरिना समागमथी अकबर बादशाहे शुं कर्यु ए ट्रंकामां तेमना ज समयमां शत्रुञ्जय परना आदिनाथ मन्दिरना हेमविजयगणि रचेला १६५०ना प्रशस्तिलेखमां जणाव्युं छे. जिनविजयजी सम्पादित प्राचीनलेखसङ्ग्रहमां हेमविजयगणि (त. आनन्दविमलसूरिना आज्ञावर्ती शुभविमलकमलविजय पं. शि.). नोट - तेमनी केटलीक कृतिओ पाटणना हालाभाईना भण्डारमा छे. पं. लाभविजय व्याकरणशास्त्रमा अत्यन्त प्रवीण हता. योगशास्त्रना "नमो दुर्वाररागादि" श्लोक उपर ५०० अर्थ करेल छे, अम पट्टावलीओमां उल्लेख छे. सं. १६४४ना श्रीमालवंशीय श्रेष्ठी भारमल्ल पुत्र सङ्घपति इन्द्रराजे वैराटनगरमां नवीन बंधावेला जिनमन्दिरनी प्रशस्ति अमणे रची छे (जुओ जिन. वि. र. For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ अनुसन्धान- ६३ ३७९). सं. १६५२मां विजयसेनसूरिशिष्य विनयकुशळे रचेला स्वोपज्ञवृत्तियुक्त 'मण्डळप्रकरण' (प्र. आ. सभा), सं. १६५६ खम्भातमां हेमविजये रचेला ऋषभशतक, सं. १६५८मां कल्याणविजय तथा मुनिविजयना शिष्य देवविजयगणि कृत जिनसहस्र नामनुं स्तोत्र ( तेनी सुबोधिकावृत्तियुक्त) अने कमळविजयशिष्य हेमविजयगणि रचित चिन्तामणि पार्श्वनाथ नामक देरासरनी प्रशस्तिनुं ओमणे संशोधन कर्यु. कल्याणविजयसूरिरास तेमणे बनाव्यो छे. * * * ( हवे आ काव्यना सम्पादन अंगे थोडीक वात. आ काव्यनी श्री अम्बालाल प्रेमचन्द शाहे ई.स. १९३८ मां हस्तप्रत परथी नकल करेली. आ नकल करवामां तेमणे मुख्य आधार, मुनि श्रीविद्याविजयजी द्वारा मळेली आग्राना विजयधर्मलक्ष्मी ज्ञानमन्दिरनी प्रतनो * राखेलो. आ सिवाय तेमणे, मुनि श्रीविद्याविजयजी द्वारा ज प्राप्त थयेली भाण्डारकर इन्स्टिट्यूट - पूनानी तेमज श्री पुण्यविजयजीना सागर उपाश्रय- पाटण खातेना सङ्ग्रहगत तथा केसरीचन्द हीराचन्द झवेरीओ मेळवी आपेली जैन आनन्द पुस्तकालय - सुरतनी प्रतनी पण आमां सहाय लीधी छे. श्री अम्बालालभाईओ करेली कीर्तिकल्लोलिनी काव्यनी आ नकल अमारा वडील पूज्यपाद आचार्य श्रीविजयहेमचन्द्रसूरिजी म. पासे सचवाई रहेली. थोडाक वखत पूर्वे आ नकल तेओए आशीर्वादपूर्वक 'अनुसन्धान' माटे आपी. तेना आधारे ज आ सम्पादन थयुं छे. योगानुयोगनी ज वात छे के थोडाक वखत पूर्वे आ ज काव्यनी बीजी नकल मुनिश्री सुयशचन्द्र - सुजसचन्द्र विजयजी द्वारा अमने मळेली. आ नकल म. विनयसांगरे श्रीपूज्य श्रीपूनमसागरसूरिसङ्ग्रह - कोटानी प्रत (ले. अनुमानित १७मी उत्तरार्ध) ने आधारे ई.स. १९७०मां करेली छे. प्रत अशुद्ध हशे तेथी नकल पण अशुद्ध थई छे. तो पण श्री अम्बालालभाईनी नकलमां चावीरूप सुधारा करवामां आ नकल घणी ज उपयोगी थई छे. जो आ नकल न होत तो काव्य थोडुंक अशुद्ध रह्युं होत. अ ज रीते कोईक अनामी विद्वाने * प्रतनी पुष्पिका लि. योधपुरवास्तव्य - ललितरामात्मजो बालाराम: । वि.सं. १९७२ ज्येष्ठ शुक्ला २ उदयपुरमध्ये लिखिता For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ . २९ अम्बालालभाईवाळी नकल लगभग १०० श्लोक जेटली वांचीने केटलाक महत्त्वपूर्ण सुधारा करेल छे. जे अत्रे उपयोगी थयेल छे. ___ अक आश्चर्यजनक वात ओ छे के बन्ने नकलोमा केटलाय पाठ, शब्दो, पङ्क्तिओ अने श्लोको तद्दन जुदा छे. लगभग भाव बधे ज सरखो छे, पण शब्दरचना भिन्न छे. प्रतलेखकना हाथे आटली भिन्नता न सर्जाय. अटले ओवी कल्पना सूझे छे के कर्ताओ सौ प्रथम कोटानी प्रतमा जे वाचना छे, ते तैयार करी हशे. अने त्यारबाद तेमणे ज सुधारा-वधारापूर्वक नवी वाचना तैयार करी हशे, जे अन्य तमाम प्रतोमां छे. कोटानी प्रतनी विनयसागरजीओ करेली नकलमां जे भिन्नता छे, ते अत्रे 'वि.' संज्ञाथी टिप्पणमां सूचवी छे. केटलीक जग्याओ "वि.' नो पाठ वधु योग्य जणातां तेने मूळ तरीके मूकी, अम्बालालभाईवाळी नकलना पाठने 'अं.' तरीके टिप्पणमां नोध्यो छे. काव्यने वाचक रसपूर्वक वांची शके ते हेतुथी सुधारा प्रायः ( )मां न दर्शावतां सीधा मूळमां ज कर्या छे. काव्यनी प्रासादिकता सौ सहृदय रसिकंजनोने अवश्य आनन्दित करशे. काव्यनो आस्वाद करनार वाचकना चित्तमां श्रीविजयसेनसूरिजीना गुणो प्रत्ये, पं. हेमविजयजीनी काव्यशक्ति, परत्वे तेमज आ काव्यने प्रकाशमां लावनारा उपरोक्त गुणिजनो प्रत्ये बहुमान न जागे ओ शक्य ज नथी. - त्रै.मं.) कीर्तिकल्लोलिनीकाव्यम् प्रतापाधिकारः ऐन्द्रं वृन्दममन्दमोदमभजद् यत्पादकामाङ्कशश्रेण्यन्तःप्रतिबिम्बनेन मुकुरप्राप्तेः प्रयत्नं विना । पारावारमिवेन्दुमूर्तिरमला वागीश्वरी सा स्तुतौ, कुर्यात् कोडिमदे-तनूरुहगुरोर्मा काममुल्लासिनम् ॥१॥ रूपश्रीतनुजन्मने जनमनःपाथोजलीलालिने, स्फूर्जत्स्वर्णवरेण्यकायरुचये जेसङ्गनाम्ने नमः । वादिव्रातमदैकतारकभिदाकात्यायनीजन्मने. भूयात् सूरिशिरोऽवतंसमणये तस्मै कमाजन्मने ॥२॥ For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० अनुसन्धान-६३ विश्वं विश्वमटन् निरङ्कुशतया युष्मत्प्रतापो घनः, पीयूषांशुघटं स्फुटं निहतवान् स्वस्वामिवाक्स्पर्धिनम् । तद्वाहाद् वियदापगेयमभवत् तद्घाततोऽङ्को विधौ, नो चेद् व्योम्नि कुतः सरिद् द्विजपतौ कोऽयं (केयं?) पुनः कालिमा ॥३॥ विद्युद्वाडवसूरजित्वरममुं युष्मत्प्रतापं वयं, पृच्छाम: परदाहशक्तिमभणः क्वेमामनन्याश्रयाम् । गर्भागारजुषोऽपि येन युगपत् सर्वेऽप्यमी वादिनो, दह्यन्ते सुहृदस्तु यान्ति हिमतामाविःस्थिता अप्यमी ॥४॥ उच्चस्तीव्रमहोभरे प्रसृमरे युष्मप्रतापे जगद्गेहान्तर्गलनात् पितुः समभवच्छोकाकुला कालिका । तां चैवं गिरिशश्चकार मुदितां मा सुभ्र! खेदं कृथाः, शुष्काऽसौ तव वैरिणी सुरसरित् शंसन् सपत्नीक्षयम् ॥५॥ • विद्यो देव! नितान्तकान्तमहसां धाम्नः प्रतापस्य ते, मित्रोऽमित्रमयं त्विषां समुदयैर्व्याप्तस्य विश्वोदरे । येनाऽसौ भुवि वादिवृन्दहृदयानन्दोत्पलानां श्रियं, पादैः संहरते करोति च भवढुग्मित्रपाथोरुहाम् ॥६॥ विस्तारोऽसहनीयरश्मिवसतेस्तात! प्रतापस्य ते, मेने वादिवरैरतीव रतिकृत् तेषां च योषिज्जनैः । साऽध्यानः (सो ध्यातः?) सुरसुध्रुवां रतिरदःस्पर्शान्मृतानां सुखं, यत् कान्तेषु मृतेषु नश्च हृदयान्नष्टः करोपद्रवः ॥७॥ पद्मोल्लासपटीयसि प्रकटितच्छायाप्रमोदप्रथे, विश्वान्तस्तरुणे प्रतापतरणौ युष्माकमभ्युद्गते । नाऽत्याक्षुर्मुखचत्वराणि तिमिरं लोकोत्तरं वादिनां, नोद्योतं वदनेन्दवश्च सुहृदामस्माकमित्यद्भुतम् ॥८॥ योऽश्नाति स्वकमाश्रयं प्रतिपदं यः स्वाश्रयं शोषयत्याप्नोत्यस्तमनं च यः प्रतिदिनं या वाऽस्थिराभीशुभाक् । १. ०माश्रयं च परितो यः - वि. । For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ ३१ किं तेन ज्वलनेन वाडवशमीगर्भेण किं भानुना, किं किं वा तडिता तया यतिपते! युष्मत्प्रतापः सदृक् ॥९॥ स्वैरं दुःसहरश्मिजालजटिलो युष्मत्प्रतापो भ्रमन्, भेजे पूर्वदिगङ्गनामियमभूद् गुर्वी च तत्सङ्गतः । सूतं पश्य तयोदयावनिभृतः शृङ्गे त्विषामीशितुबिम्बं बालमिमं पितुः समुचितैर्भासां भरैर्भासुरम् ॥१०॥ अत्युष्णैरिह वादिवृन्दसुदृशां बाष्पाम्बुभिर्निर्भरं, . संसिक्तः स्फुरति स्म 'कूर्मविटपो युष्मत्प्रतापद्रुमः । सच्छायच्छदनानि विद्रुममणिस्वर्णानि तस्याऽभवन्, दीपास्ते कुसुमोत्कराः फलमिदं तिग्मद्युतेर्मण्डलम् ॥११॥ कीर्ति कैरविणीं स्मयं कुवलयं भूपीठपद्माकरान्, जग्ध्वा वादवतां जगाम गगनं युष्मत्प्रतापो वृषः । तेनोत्सृष्टमिदं निजाशनगुणं स्व:कूलिनीकूलगं, पश्यन्तु द्विजराजमण्डलमिषाज्ज्योत्स्नामयं गोमयम् ॥१२॥ वादिव्रातमदीदहन्मुनिमणे! युष्मत्प्रतापानलस्तन्नारीनयनाम्बुसिन्धुभिरगात् तद्भस्म चाऽम्भोनिधिम् । तेन श्यामवपुः पुराणपुरुषस्तत्र प्रसुप्तोऽभवनोचेच्छ्यामलता कुतो भगवतस्तस्याऽपि विश्वेशितुः ॥१३॥ औग्नेिरशनेः सरोजसुहृदः सारैः सरोजासनश्चक्रे देव! भवत्प्रतापमतुलप्रद्योतपुञ्जास्पदम् । ३अस्त्येतत्समशोषतादहनताप्रोद्दीप्रतालक्षणा, "शक्तिव्यक्तिरनन्यजन्यरचना नाऽन्यत्र यत् तं विना ॥१४॥ स्थित्वा चेत् कनकाचले वितनुते स्नानं दवाग्न्यम्बुभिश्चेच्चच्चिरमङ्गमौर्व्वदहनश्रीखण्डखण्डद्रवैः । यद्युत्सङ्गनिषङ्गिनी च कुरुते सौदामिनी कामिनी, तत् साम्यं समुपैति दीधितिपतिः स्वामिन्! प्रतापस्य ते ॥१५॥ १. कर्मविटपो - अं.। ३. तेनैभ्योऽधिकशोषता० - वि. । २. तत् सांव मृगाङ्क - पु. पाठः(?)। ४. ०लक्षणां विद्मः शक्तिमनन्यजन्यरचनां - वि. । For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ अभ्रान्तर्भ्रमतोऽत्यदभ्रमहसः सङ्गात् प्रतापस्य ते, विद्युद् गर्भमधात् तया च सुषुवे सूनुस्त्विषामीश्वरः । मित्राणां सरसीरुहां तदनिशं सौन्दर्यमत्यद्भुतं, पौत्रोऽयं तनुते त्वदाननदृशोस्तत्सुन्दरस्फारयोः ॥ १६॥ व्योमव्याप्तवसुन्धरो द्युतिधरो युष्मत्प्रतापः प्रभो!, तत्स्थानाय मरालबालगतया यातीति वक्तुं किमु ? | 'कीर्त्तिर्नैव मदीशितुस्त्रिभुवने मात्यत्र तत् सूत्रयाऽन्यद्ब्रह्माण्डमकाण्डैविस्तरमयं ब्रह्मन्नमुष्याः कृते ॥१७॥ भ्रान्त्वा भूमिमिमामनन्तमटता युष्मत्प्रतापेन योऽस्फोटीन्दोः कलशः सुधारसमयः स्वस्वामिवाग्मत्सरी । पीयूषं निपतत् तदङ्कविवराद् दध्रे तृणौघाङ्कुरैनैवं चेदमृतं प्रयच्छति कथं तच्चारिणी गोततिः ॥१८॥ जानीमः किल नाकिनायककरक्रोडाब्जिनीवल्लभं, ४ "वज्रं दीधितिराजिराजिततनोरंशं प्रतापस्य ते । नेत्थं चेत् किमखर्व्वगर्व्वशिखरैर्व्याप्तान्तरिक्षाङ्गणा, ग्रावाणः कणशो बभूवुरभितस्तेनाऽऽहता अप्यमी ॥ १९ ॥ ये विद्याभिरमराजगुरवो येऽम्भोधयो भूतिभिये चौन्नत्यगुणेन देवगिरयः प्रोन्मादिनो वादिनः । तेऽप्यस्माकमणीयसामपि पुरोऽनश्यन् गुणोऽयं न नः, किं तद् जृम्भत एष देवमहिमा युष्मत्प्रतापोद्भवः ॥२०॥ घर्मांशुर्भृशमस्तवीत् शशधरोऽनिन्दच्च वर्यौजसामास्थानीं. भवतः प्रतापहरिणा धीशं भ्रमन्तं स्वयम् । 'तत्त्रस्तैस्तुरगैर्हुतं प्रियतमां प्रापैकको वारुणीं, नाशाद् गो: पतिते हरे च पतनात् खण्डीबभूवापरः ॥ २१ ॥ वि. । १. कीर्तिर्माति न मत्पतेस्त्रिभुवने चैकत्र तत्सूत्रया० २. ० विस्तरमयि - वि. । ३. ०विवरेणाऽधारि घासाङ्कुरै० - वि. । ४. ० क्रोडाब्जतीव्रच्छविं (वि) - अं. । ५. दम्भोलिं द्युतिराजि० वि. । अनुसन्धान- ६३ ६. शम्बाहता वि. । ७. त्रासादस्य हयैर्दुतद्रुतगतैः प्रापैकको - वि. । - For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ तात! त्वत्प्रबलप्रतापमृगराट्संरुद्धमध्यादसौ, सारङ्गः सदनाच्च गौश्च वदनान्नष्टाविमौ वादिनाम् । चन्द्रे चन्द्रधरे च 'संश्रितिमितौ नो चेत् कथं दृश्यते, एणोऽयं द्विजराजमण्डलगतो गेहे च गौः शाम्भवे ॥२२॥ देव! त्वद्गहनप्रतापदहनज्वालावलिव्याकुलो, गङ्गां मूनि दधौ हरः पतिमपां शय्यां व्यधात् केशवः । चन्द्रोऽस्थात् तटिनीतटे दिनमणिझम्पामदाद् वारिधौ, भूयः शैत्यगृहं गृहं च कृतवानम्भोजमम्भोजभूः ॥२३॥ पाताले मणयः फणेषु फणिनां मार्तण्डलक्ष्मीमुषः, क्षोणौ यन्मणिविद्रुमामरगिरिस्वर्णप्रदीपादि च । व्योमान्तर्ग्रहधोरणीकमलिनीप्राणेशशम्पादि यत्, तद् व्याप्तत्रिजगत्स्थितेविलसितं तात! प्रतापस्य ते ॥२४॥ आत्तैषा भवता द्विषज्जयकृते विद्या प्रतापाय ते, शश्वत् तीव्रतरायते न तनुते स्वामिन्नुपालम्भनम् । तैलेनेव जलेऽत्र यत् प्रसरता नीतास्त्वया पञ्चतां, सर्वेऽपि द्विषतां गणास्तदनृणा भर्तुर्भवेयं कथम् ॥२५॥ शम्बक्षोदविनोददक्षवदनो युष्मत्प्रतापो घनो, वादिव्रातहदेककुम्भनिकरानस्फोटयद् यत् स्फुटम् । तत् तत्प्राणपयांसि नाशमगमंस्तत्स्थान्यदो युक्तिभा-३ "गाधारेण विना स्थितिं न लभते ह्याधेयवस्तु क्वचित्" ॥२६॥ ध्यद् युष्मत्प्रबलप्रतापदहनः प्राजीज्वलद् वादवल्लोकास्तोककुटीरकोटिमभितः सूरीन्द्र! तत् सूनृतम् । तद्दाहेन निराश्रया निरसरच्छायालिरद्याऽपि तत् सार्थस्तद् यत एव न श्रवणयोरक्ष्णोश्च वत्मैति यत् ॥२७॥ १. सङ्गतिमितौ - अं । २. आत्ता वादिपरम्पराजय० - वि. । ३. तत्स्थान्यसौ वाक् सतामाधारेण - वि. । ४. स्वामिन्! वादिकुरङ्गदारकदृशां बाष्पाम्बुभि० इति पङ्क्त्या आरभ्यैकादशः श्लोक एव वि. इत्यत्र पुनरावृत्तो भवति अस्य श्लोकस्य स्थाने । For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ अनुसन्धान-६३ छत्राण्युत्सृजतामनातपपटुः प्राप्तोदयः सर्वदा, सर्वत्राऽभ्युदयी विपक्षवनितादृग्वारिजोद्वेगकृत् ।। कुर्खन् कोविदकैरवाणि कलितोल्लासानि भासां भरैर्जीयात् केलिगृहं रुचामभिनवो युष्मत्प्रतापो रविः ॥२८॥ धाम्नांधामभवत्प्रतापतरणेः सङ्गादभूद् गर्भिणी, प्राची शावमसूत वासरमणिं तत्तेजसामास्पदम् । उन्निद्रं तदयं तनोति कृतिनां दृग्मित्रमब्जाकरं, किं तेनाऽऽत्मसमुद्भवेन नहि यो धत्ते धुरं पैतृकीम् ॥२९॥ विद्युद्वाडववह्निदावदहनप्रद्योतनेभ्योऽधिकज्योतिर्जालयुतामवैमि भगवन्! युष्मत्प्रतापावलीम् । स्पृष्टा एव जनं दहन्ति यदमी साऽनु(तु?) ज्वरं निर्भरं, गर्भागारजुषामपि प्रथयति प्रोन्मादिनां. वादिनाम् ॥३०॥ विश्वान्तः प्रसरन् कुवादिविपिनं “पुप्लोष यः सर्वतश्चक्रे श्याममुखं च वैरिनिवहं योऽद्योतयत् सन्मनः । यः स्नेहान्निधनं निनाय कुदृशां स्नेहाभिषिक्तः सतां, शक्तास्तात! तव प्रतापशिखिनः शक्तिं न वक्तुं वयम् ॥३१॥ अस्माकं वचसां चयः किमु सहो जायेत वक्तुं स्थिरस्थाम्नांस्थानभवत्प्रतापपटलं दावनलैः सन्निभम् । कुर्युः काष्ठतृणादि भस्म यदमी तत् प्रस्तराऽय:पविप्राते(न्ते)भ्यः कठिनं करोति निकरं दुर्खादिनां भस्मसात् ॥३२॥ सावण्यं कथमब्जिनीप्रणयिना तात! प्रतापस्य ते, यत्तापः प्रधनं प्रयाति परितच्छत्रादिकच्छायया । तत्तापे रजनीकरः खरकरः कृप्न(क्लृप्त?)ज्वराश्चाऽमराः२ त्रैखण्डं सलिलं भुजङ्गगरलं सौदामिनी यामिनी ॥३३॥ तेजोभिर्न तिरोदधेऽपि बहुलैर्यः पद्मिनीप्रेयसः, शान्ति यः समियाय नैव कुदृशां निःश्वासवातोत्करैः । १. विपिनं यो निर्ममे भस्मसात् चक्रे - वि. । २. रजनीकरो विषधरो वढ्युत्कराश्चाऽमराः - वि. । For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ जान्युआरी - २०१४ नाभून्मन्दमहाः कुवादिभुजगैर्द(?)ष्टोऽपि यः कर्हिचित्, . प्रत्यग्रः प्रकटीबभूव भुवने दीपः प्रतापस्तव ॥३४॥ ईती (र्नी)तिमतां मतङ्गज! भवन्माहात्म्यधात्रीधनो(वो), यन्नाशं गमयाम्बभूव तदिदं सम्यग् न मन्यामहे । नाऽत्याक्षीदतिवृष्टिरस्थिरदृशां दृष्टीः क्षणं यद् भुवि, भ्राम्यद्भिर्भवतः प्रतापदहनैः प्लुष्टात्मनां वादिनाम् ॥३५॥ मित्रे तोयरुहां जिते यतिपते! युष्मत्प्रतापोत्करैरास्थानं रचयाञ्चकार वदने दुह्यदिनां तत्प्रिया । संवासं च तदीयवंशविषये तन्नन्दनो निर्ममे, यत् तत्रैव तयोविजृम्भितमगादस्माकमक्ष्णोः पथि ॥३६।। व्योम्नि व्यक्तिमुपेयुष: 'सुखस्वने(?) युष्मत्प्रतापानलप्राग्भारस्य निषङ्गरङ्गरसतः शम्पाऽभवद् गर्भिणी । स्वर्वापीपुलिने निभालय तया सूतः सुतः कान्तिमान्, नो चेद् वादिवयस्यकौशिकदृशां मुद्रा कथं तज्जनौ ॥३७॥ निद्राणां परवादिदृक्कुवलयश्रेणिं विलोक्योत्तमैः, सर्वत्राऽभ्युदयी प्रतापतपन: स्वामिंस्तव ज्ञायते । न स्फूर्जन्ननुमीयते हुतभुजां स्तोमस्तमःश्यामला, धूमस्य प्रविलोक्य मूलललितां लेखां किमभ्रंलिहाम् ॥३८॥ नाऽस्तं यः समुपैति यः कुवलयोद्वेगं विधत्ते न हि, प्रीतिं यः प्रकरोति कौशिकदृशां योऽश्नाति नित्यं तमः । रोद्धं नैव यदातपः प्रसृमरश्छत्रादिभिः शक्यते, प्रादुर्भावमुपेयिवानभिनवस्तत् त्वत्प्रतापोंऽशुमान् ॥३९।। रागोऽस्मद्वदनेऽमुना विरचितस्तुण्डे पुनर्वादिनां, श्यामत्वं विहितं भुवि प्रसरता युष्मत्प्रतापेन यत् । तद् ब्रूमः परमप्रियास्तमरुणं श्यामं च ते तं विदुः, सत्याः स्मः किमु तेऽथवा गुणगणैराकीण! निर्णीयताम् ॥४०॥ १. सुखखते (?) - वि. । For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ अनुसन्धान-६३ त्वं पीयूषमयूखमञ्जुलमुखः कान्तैर्गुणैर्भूषितस्त्वत्कान्ता कमलानना च समता कर्पूरपूरोपमा । प्लुष्टाशेषकुवादिदृक् कथमभूत् तद् वां प्रतापः सुतः, किं वा वैभवभारभूषितभुवां चिन्त्यं चरित्रं न यत् ॥४१।। 'देवारोधविरोधभाग्गुणयुगं युष्मत्प्रतापोद्भवं, संप्राप्नोति पदं कथं कथय तच्चेतस्विनां चेतसि । आताम्रोऽपि कुवादिवृन्दवदने य: कालिमानं व्यधादत्युष्णोऽपि चकार साधुहृदये य: शान्तिमानं पुनः ॥४२॥ व्याप्ताशेषजगन्मुनिव्रजमणे! युष्मत्प्रतापोद्भवस्तापौघः कथमेति विज्ञमनसां पुंसां गिरां गोचरम् । यत्प्लुष्टैः परवादिभिः क्षितिरुहां स्तोमैर्घने कानने, तिष्ठद्भिर्जलसंस्तवः क्षणमपि त्यक्तुं न यत् पार्यते ॥४३॥ . देवाऽकर्णय तद् बभूव भुवने यत् त्वत्प्रतापैभृते, मृत्युदवतां तदीयसुदृशां बाष्पैर्भुवः पङ्किलाः । ५आसन् नीररुहाणि तत्र सविताऽतुष्यत् स्वमित्रैर्घनैस्तस्मिंस्तुष्टिमिते ददौ प्रमुदिते तद्भूश्चिरायुस्तव ॥४४॥ ध्वस्तः कीर्तिभरैस्तव द्विजपतिस्तीत्रैः प्रतापोत्करैः, प्रत्यर्थी तमसां च सौवकिरणाश्लिष्टत्रिलोकीतलैः । प्राप्तौ स्वासुखमीरितुं ननु जगन्नाथस्य तौ तत्पदं, नो चेद् चण्डरुचेस्तथाऽमृतरुचेरेकास्पदे क्व स्थितिः ॥४५॥ गङ्गा रङ्गमुपेयुषी जलनिधेः पुत्री प्रमोदं दधौ, "पौलोमी प्रमना बभूव नितमां ब्राह्मी जहर्षोच्चकैः । एवं शङ्करशौरिशक्रशशिभिर्युष्मत्प्रतापे स्तुते, चक्रेऽसावसतां सतामपि च यद् धाम्नां ततिं “भूतिसात् ॥४६॥ १. भाव्यं न यद् वैभवम् - वि.। २. भूयोऽन्योन्यविरोध० - वि.। ३. ०शेषजगज्जगज्जनसुहृद्! युष्मत्प्रतापप्रथातापौ० - वि. । ४. ०मेतिकाव्यमनसां - वि. । ५. तस्मात् ते कमलोत्करो मुदमधाद् वार्यस्य वृद्ध्यांऽशुमान् तस्मिंस्तु० - अं. ६. सौवविभरै(?)राश्लिष्टविश्वोदरैः - वि. । ७. पौलोमी कलयाञ्चकार कमलां ब्राह्मी - वि.। ८. भूमिसात् - वि. । For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ ३७ मन्ये मान्यजनाऽवतंस! सबलाहङ्कारमूढात्मनां, प्रौढानां परवादिनामहमसून् फल्गूस्तृणेभ्योऽपि यत् । दीप्ते सन्ति भवत्प्रतापदहने तानि प्ररूढानि यत्, २सन्तः संवरपञ्जरे समभवन् भस्मावशेषाश्च ते ॥४७॥ सोन्मादे परवादिवृन्दहृदये शल्यं न तादृग् भवानुद्यद्भिर्महसां भरैर्भरितदिग् यादृक् प्रतापस्तव । . . . श्यत् त्वं सङ्गत एव देव! तनुषे तेषां हृदन्तर्खरं, सो दृष्टोऽप्यघटिष्ट नाशमचिरान्निद्रापिपासाक्षुधाम् ॥४८॥ वादोऽभूद् ५रुचिगोचरः कमलिनीकान्तेन साकं सदा, श्रेयोधामनिकामकर्कशरुचेर्युष्मत्प्रतापस्य यत् । तद्भङ्क्ता भवति स्म वादिविसरो निःसीमशम्र्मेहया, " स्वान्योकांसि विहाय शैलशिखरेऽतिष्ठत् प्रभूतातपे ॥४९।। धम्मिलः किमशोकपल्लवमयो बालप्रवालोल्लसन्, हारः किं किमु क्लृप्तलेपनविधिः काश्मीरनीरद्रवैः । कौसुम्भं च किमम्बरं वरतरं विश्वत्रयीसुध्रुवः, शोणः किंशुकराशिवद् द्विजपते! तात! प्रतापस्तव ॥५०॥ दावाचिनिचयाद् “भृशोष्णमहिमा युष्मत्प्रतापः प्रभो!, तद्दग्धास्तृणराशयो जलधरैः सिक्ताः प्ररोहन्ति यत् । 'तत्प्लुष्टा परवादिनां स्मयलता सिक्ता तदेणीदृशामश्रान्तं स्रवदश्रुवारिनिवहेर्नैषा तनोत्युद्गमम् ॥५१॥ १. ०दिमामसुभरं फल्गुं तृणे० - वि. । २. तिष्ठत् संवरपञ्जरेऽपि समभूद् भस्मावशेषश्च सः - वि. । ३. सद्यः सङ्गत - वि. । ४. यदन्तरं - वि. । ५. रविगोचरः - अं.। ६. ०कान्तेन कान्तत्विषामावासेन निकाम० - वि. । ७. विजयते - वि.। ८. निचयान्निकामकठिनो युष्मत्प्र० - वि. । ९. तत्प्लुष्टाः परवादिनां स्मयलताः सिक्तास्तदेणी० - वि. । १०. निवहेनोद्यान्ति यज्जातुचित् - वि. । For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ माद्यद्वादिजनाभिमानसमिधां सम्भारसम्पूरितः, सिक्तस्तत्कमलेक्षणेक्षणपतद्वाष्पौघतैलोत्करैः । हृष्यद्बन्दिविनोदिवाक्यविसरस्फारानिलैः फूत्कृतः, कामं स्फीतिमुपैति पिङ्गलमहा युष्मत्प्रतापानलः ॥५२॥ छायां रम्यतमां दधत् सहचरीमौपम्यमम्भोजिनीभर्तुर्यातु जगत्पितामह! महांस्तीव्रः प्रतापस्तव । केयं रीतिरुदञ्चयन्नपि चिरं देहेषु दुर्व्वादिनां, तापं शोषितचन्दनद्रवभरं जाड्यं न जह्रे क्वचित् ॥५३॥ माद्यद्वादिमतङ्गजद्विपरिपो! सर्व्वत्र विस्फूर्तिमाँश्चक्रे पाणिपयोजगं जयमयं प्रौढप्रतापस्तव । कुत्र स्मैति मदीयपुत्रहृदिति ध्यात्वा पतिः स्वर्गिणां, तं निध्यातुमना इव स्मितरुचामक्ष्णां सहस्रं दधौ ॥५४॥ पाताले वडवानलोरगशिरोरोचिष्णुरोचिर्मणीन्, क्ष्मापीठे च शुकास्यकिंशुकजपानिर्द्धमधूमध्वजान् । निर्जित्यैष भवत्प्रतापनिकरो दम्भोलिमर्कच्छलादू, जेतुं याति दिवीव चेन्नहि नभः पान्थः कुतोऽसौ स्मृतः ॥५५॥ 'दिक्स्कन्धाश्चतुरश्रिका घटततिः कुम्भाश्च दिक्कुम्भिनां, प्रोत्सर्पंस्तरणिर्व्रजो हुतभुजां दुर्वादिगर्व: समित् । प्रक्षेपो हविषां समेऽप्युदधयो विप्रा वयं बन्दिनो, जीयादेष भवत्प्रतापभुवनत्रय्योर्विवाहक्रमः ॥५६॥ दम्भादम्बुधिमध्यमौर्वशिखिनः खं घर्म्मरश्मिच्छलाद्, भालं कालरिपोस्तृतीयनयनव्याजासौ संस्थितः । युष्माकं प्रबलः प्रतापदहनो नो चेत् कथं तस्थुषा - मेषां नीरधिनीरदाश्रयसरित्कूले महस्तापकृत् ॥५७॥ कान्तारे भवतः प्रतापभयतः स्थानं श्रितैर्वादिभिः, साकं काननवासिनां समभवद् भूयान् विरोधोदयः । १. दिग्देशाश्चतुर २. ० तरणिस्त्री० अं. । अं. । अनुसन्धान- ६३ For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ तत्पीतैः सलिलैः फलैस्तदशितैरात्तैः कुटीरैश्च तैस्तेषामेव निपेयभक्ष्यभवनाप्राप्ते(सौ) रुषां यज्जनिः ॥५८॥ नष्टानीश! भवत्प्रतापनृपतेरातङ्कतः काननावासं वर्यमवागमन्नपि गृहाद् वृन्दानि दुर्वादिनाम् । लब्धाऽस्माभिरिह क्षितिश्च नितमां वर्तामहे भूषिता, अस्माकं यदभूदिहाऽपि हि शिवाश्लेषः समाधेः पदम् ॥५९॥ वादेऽस्माकमशेषविस्मयफलं यत् पैशलं कौशलं, तारुण्यं सुदृशामिवाऽपतिजुषामासीत् तदन्तर्गडु । वज्रोत्तेजितहेलिमण्डलबले युष्मत्प्रतापे सति, प्रापुर्यत् सहसैव वादिनिवहा द्वैधं श्रुतेर्गोचरम् ॥६०॥ चञ्चच्चन्द्रमरीचिसञ्चयशुभैर्युष्मत्प्रतापाभिधश्चीरं यद् रचयाञ्चकार यशसां वृन्दं कुविन्दो गुणैः । तेनाऽस्मिन् जगतां त्रयेऽपि पिहिते नाऽन्तः समेति स्म यत्, तत् सम्यक् शमिसिंह! तत्र निचिता आनन्त्यभाजो गुणाः ॥६१॥ चत्वारः पुरुषोत्तमस्य 'नियताः स्वःसद्गुरोर्वादश, द्विपङ्क्तिप्रमिता निशाचरपतेर्भानोः सहस्रं कराः । नैषा कोटिसहस्रलक्षनियमः स्वामिन्! प्रतापस्य ते, निःसङ्ख्यप्रतिवादिनां हि युगपद् यः श्रीकचानग्रहीत् ॥६२॥ पाथोधेरिव पाथसां मतिरलं केषां मनीषाजुषां, तापस्य प्रमिति विधातुमभवद् युष्मत्प्रतापोद्भुवः । यद्दग्धैः परवादिभिः श्रितवनै नुर्वयस्थोऽपि यत्, पीयूषांशुरमानि दावदहनः क्रीडातडागश्च यत् ॥६३।। किं नैष प्रगटप्रभापरिवृतप्रत्यग्रपूषत्विषा, सर्वेषामपि वादिनां गुणगणश्चक्रे प्रतापेन ते । ध्वान्तं ध्वान्तविरोधिनेव नयता प्रान्तं प्रमीलां बलादस्वप्ना अमुना सना विदधिरे प्राणान् धरन्तो ह्यमी ॥६४|| १. नियतं सप्तैव सप्ताचिषः, कामोद्दामतराः कराः कमलिनीभर्तुः सहस्रं पुनः, एतेषां न सहस्र० - वि.। For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६३ अप्याधातुमना मुनिव्रजमणे! युष्मत्प्रतापोल्लसद्भूयोविद्रुमरत्नहारममलैः प्रोतं त्वदीयैर्गुणैः । तेनाऽभूद् भुवनत्रयीहरिणदृक् तत्कर्ममन्दादरा, यच्छिद्राणि न सन्ति तत्र किमहो! नाऽन्तोऽपि तत्राऽस्ति यत् ॥६५॥ नाऽम्भोभिर्बहलैर्दलैर्न मृदुलैर्न स्यन्दनैश्चान्दनैः, सच्छायैर्न लसल्लतादिनिलयैः शैत्याकुलैर्नाऽनिलैः । 'कामानुष्णमरीचिना न शशिना शान्तः स तापः परश्चक्रे वादवतां स्फुरत्तमरुचा युष्मत्प्रतापेन यः ॥६६॥ कोलव्यालशृगालसिंहशरभव्याघ्रौघहिंस्रासुमद्व्रातात्ता न वदन्ति दुःसहतरं युष्मत्प्रतापं बुधाः । एभिः संभृतमप्यमी यदमुनाऽऽश्लिष्टा गृहेष्वक्षमाः, संस्थातुं परवादिनः प्रविविशुः कालाननं काननम् ॥६७॥ हे त्रातः! पुरुषोत्तमात् शमरमासम्भोगसंयोगतः२, प्राप्तप्रीतिरतिर्यदि प्रकटितस्त्वत्तः प्रतापोऽङ्गजः । कामोऽसाविति नो तथापि हि वयं वक्तुं भवामः क्षमा, अत्याक्षुर्विषयाननेन यदमी क्रोडीकृता वादिनः ॥६८॥ निर्दग्धाः परवादिपक्षतरवो युष्मत्प्रतापाग्निना, तेभ्यो धूसरधूमधोरणिरभूत् साऽसूत कादम्बिनीम् । साऽमुञ्चत् सलिलं ततोऽम्बुजमभूत् तस्माद् विधाताऽभवत्, तस्याऽऽसीत् तनया च सा श्रितवती त्वां त्वं च यत् तत्प्रियः ॥६९॥ एकश्चेद् वरिवति वाडवशिखी दम्भोलिरेकश्च चेदेका चेदचिरात्रयं हुतभुजां चेद् द्वादशाऽर्काश्च चेत् । नित्यानन्तभवत्प्रतापशिखिना तत् किं तुलां यान्त्यमी, साम्येनैव हि मेयमापकविधे:३ कर्म प्रशंसाऽस्पदम् ॥७०॥ यातु स्थाणुतृतीयलोचनतुलां युष्मत्प्रतापानलः, प्रोद्दीप्रः परवादिकामदहनप्राप्तप्रकर्षादयः । १. कामोद्दाममरीचिना - वि. । २. ०संयोगिनः - वि.। ३. ०मापकतुलायासः प्रशंसा० - वि. । For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ 'स्वान्तेऽस्माकमहर्निशं बहुतरो धत्ते विरोधः स्थिति, 'वैदग्ध्ये वसतां सतां हृदि कलाकेलिं च पुष्णाति यत् ॥७१।। भानून् व्योम्नि वसुंधरासु शिखिनः सर्वान् विजित्य श्रिया, पातालेऽब्धिपथेन वाडवभिदे याति प्रतापे तव । भीतो जम्भजितः कराम्बुजमसौ दम्भोलिदम्भादगानैवं चेत् प्रतिपक्षजीवनमयं सद्यः कथं शोषयेत् ॥७२॥ औो याति तरङ्गिणीप्रणयिनस्तोये वसन् पीनतां, विद्युद् वृद्धिमुपेत्यलं जलमुचः पाथःप्रवाहे स्थिता । स्याद् दुर्वादिवधूविलोचनजलैः पुष्टः प्रतापश्च ते, तेनैषां पटुरेक एव हि कलाचार्यस्त्रयाणामभूत् ॥७३॥ देव! त्वत्प्रबलप्रतापहुतभुक् प्रोजृम्भितो वादिनां, वंशवातमदीदहत् द्रुतमितस्तस्मादकस्माद्भवः । 'धूमौघो दिवमाकुलाम्बकततिर्वक्तीति पूर्वापतिः, पाणिभ्यां पिदधे कथं कथमहं द्वाभ्यां सहस्रं दृशाम् ॥७४॥ 'वारां शक्तिरनश्वरी हुतभुजां निवा॑पणे' गीरसौ, वातूलाहततूलतुल्यपदवीं लोकेऽत्र धत्तेऽधुना । संसिक्तोऽपि दृशां पयोभिरनिशं प्रत्यर्थिवक्रभ्रुवां, वृद्धि यत् कलयाम्बभूव महतीं युष्मत्प्रतापानलः ॥७५॥ घोषावंशवतंसकंसजिति यत् प्रेम श्रियोऽनीदृशं, मन्ये तत् पुरुषोत्तमे समजनि त्वय्यप्यजर्यास्पदे । श्रीकामः सुमनोमनोरथलताकन्दैककादम्बिनीकल्पोऽनल्पमहा बभूव तनुभूमेिव तत्कारणः ॥७६।। इति पण्डितश्रीहेमविजयविरचिते श्रीकीर्तिकल्लोलिनीनाम्नि समस्तसुविहितावतंसयुगप्रधानश्रीविजयसेनसूरीश्वरवर्णने प्रतापाधिकारः ॥ १. चेतस्येष विशेषचिन्त्यपदवीं धत्ते - वि.। २. वैदग्धो - अं. । ३. और्वः स्मैति - वि.। ४. मुपेयुषी - वि. । ५. धूमो व्योम तदाकुलाम्बकततिः प्राचीपतिः प्रोचिवा नित्थं हा पिदधे कथं द्वयमिदं पाण्योः सहस्रं दृशाम् - वि. । ६. सद्यः साम्प्रतमेव सङ्गतवती वातूलतूलैस्तुलाम् - वि. । For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ २ कीर्त्त्यधिकारः दत्ते चेद् रसनाः पतिः फणभृतामायुः सरोजासन:, प्रज्ञां स्वर्गसदां गुरुः कविकलां पातालधाम्नां गुरुः । स्थैर्यं निर्ज्जरभूधरश्च भगवान् सिद्धिं पशूनां पतिस्त्वत्कीर्त्तिं तदहं प्रभो! पथि नुतेर्नेतुं भवेयं क्षमः ॥१॥ न च्छिद्राणि मृगाङ्कमण्डलकले त्वत्कीर्तिमुक्ताफले, 'विश्वोल्लासविधाननित्यनिपुणे नाऽन्तो गुणानां गणे । लब्धाशेषविभूषणा कथमियं शश्वत् त्रिलोकीवधूरस्माकं नयनोत्सवं विदधती तद्धारिणी राजते ॥२॥ केयं कैरवकुन्दचन्दनरुचेस्त्वत्कीर्तिवक्रभ्रुवः, शक्ति: सूरिशिरोऽवतंस! जगतां चेतश्चमत्कारिणी । जज्ञे पुण्यजनप्रियाऽप्यनुदिनं स्वैरं भ्रमन्ती सती, विश्वेऽस्मिन्न भियां निबन्धनमियं यत् कस्यचित् कर्हिचित् ॥३॥ वैदग्धी नहि दुग्धनीरधिलसडिण्डीरपिण्डद्युतेस्त्वत्कीर्तेर्यतिचन्द्र! कोविदगिरामध्वानमारोहति । न श्यामा न पुनः २ प्रदोषकलिता नाऽप्येकपक्षे शुचि - र्नो दोषाकरमानसप्रणयकृद् या राजकान्ताऽप्यभूत् ॥४॥ त्वत्कीर्ते रसमुज्झितेतररसाः कुन्देन्द्वनिन्द्यद्युतेः, पीयूषादपि पेशलं स्वलपनान्मोक्तुं वयं नेश्महे । शश्वत्स्वैरविहारिणीमपि जना जानन्ति यां यत् सर्ती, सर्व्वज्ञप्रणयप्रकर्षनिपुणा याऽभूददुर्गाऽपि च ॥५॥ गोभिस्तापविभेदिभिः कुवलयोद्बोधप्रपञ्चे पटुविश्वाकाशपथे चरस्तव यशश्चन्द्रोऽतिसान्द्रद्युतिः । तेषामेव यतो बिभेद वदनब्राह्मीं विधौ प्रीतिदां, दुःकालोऽजनि वादिनां त्वदुदये युक्तोऽयमर्थस्ततः ॥६॥ १. ०ल्लासविधाविलासनिपुणे न त्वद्गुणेऽन्तः क्वचित् - वि. । २. न च न प्रदोष० वि. । अनुसन्धान-६३ For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ ४३ विश्वव्योम्नि भवद्यशःकुमुदिनीप्राणप्रियं प्रीणितश्रीमल्लोकचकोरमेतमुदयं व्यालोक्य कामप्रियम् । स्तोमः सान्तमसो विवेश वदने स्वान्ते च दुर्बोदिनां, तत्रैवैष तदुद्भवः पथि दृशोरायाति यत् कालिमा ॥७॥ व्योमस्था व्यमुचद् रसं प्रियमरुत् त्वत्कीर्तितारानिली, निःसीमा समुखैर्यपायि तरसा सद्युक्तिभिः श्रुतिभिः । नैवं चेल्लवणेऽपि सिन्धुसलिले तासु स्थितासु स्फुर- . ज्ज्योतिर्जालविलासिनां कथमभून्मुक्ताफलानां जनिः ।।८।। एते जह्वसुताभुजङ्गमपतिश्वेतांशवः स्वांशुभिस्त्वत्कीर्त्या विजिता महेश्वरमगुः किं कर्तुमित्यर्थनाम् । स्वामिन्! देहि रुचिं जगद्विजयिनीमेनां जयामो यया, नो चेदत्र रसारसातलनभःस्थानां स्थितिः कैकतः ॥९॥ भ्रान्त्वा सप्तपतीनपां यतिपते! त्वत्कीर्तिकान्ता दिवं, यान्ती शीतनिरस्तये स्थितवती तिग्मातेर्मण्डले । एतस्यास्तदुपासनान्मृदुतनोः प्रस्वेदपूरोऽभवत्, तज्जन्या गगनापगाऽजनि न चेत् खेऽसौ कुतः साम्प्रतम् ॥१०॥ क्षुभ्वत्क्षीरसमुद्रसान्द्रलहरीलावण्यलक्ष्मीमुषस्त्वत्कीतिः किमियं विभाति शुचिता श्रीमन्! कमानन्दन! । स्वज्योतिःसुधयाऽनया धवलिते ब्रह्माण्डभाण्डोदरे, सर्वेषामपि वादिनां न विजहुः श्यामत्वमास्यानि यत् ॥११॥ पद्मोल्लासिभवत्प्रतापनलिनीभ; सह व्यानशे, विस्फूर्जद् युगपज्जगद्गुणिगुरो! 'त्वल्लो(च्छलो)कशुक्लद्युतिः । नैवं चेत् परवादिकौशिकदृशां पङ्क्तिः प्रमीलामगात्, सश्रीका समकालमेव कुमुदां वीथी कथं चाऽभवत् ॥१२॥ २ज्योतिर्जालविलासिनी शुचितमां त्वत्कीर्तिमब्जासनं, कुर्वाणं प्रविलोक्य काममभवत् तद्यानमित्यतिमत् । १. त्वत्कीर्तिशीतद्युतिः - वि. । २. ज्योत्स्नाराजिविराजिनी प्रसृमरां कृत्वा दृशोः पथ्यभूत्, त्वत्कीतिविदधानमम्बुजभुवं तद्यान० - वि. । For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ अनुसन्धान-६३ अस्याः कान्तिभरैर्भृशं प्रसृमरैः शुभ्रीकृते पत्रिणां, सन्दोहे भविता कथं परिजनव्यक्तिप्रतीतिर्मम ॥१३॥ हंसश्रीभगवस्त्वदीययशसां चक्रेण चक्रे वृथा, तत्काङ्क्षी परमेष्ठिनं प्रतिगतस्तद्यानदम्भादसौ । नो चेद् गौरपरिच्छदः कथमिह त्यक्त्वा स सन्मानसं, प्राप्तः कल्पितकामितार्थघटनं लोकेशपादान्तिकम् ॥१४॥ त्वच्छ्लोकैर्धवलीकृते मुररिपौ सौवास्पदभ्रंशभाक्, कृष्णत्वं परवादिवृन्दवदने तस्थौ पुनस्तत्प्रिया । स्वेशानाप्तिमती त्वयि स्थितवती सूरीन्द्रचूडामणे!, नो चेत् तत्र कथं तदत्र च कथं सा सर्व्वदाऽऽश्चर्यकृत् ॥१५॥ शैलारेः सदने भृशोज्ज्वलतया विश्वकपद्माकरे, माद्यद्वादिजनाभिमानलतिकासंहारकर्मण्यलम् । श्रेयःकाननसेचने यतिपते! त्वत्कीर्तिराभाति गोनारीवन्नगनाथवन्नलिनवन्नीहारवन्नीरवत् ॥१६।। कैलासे शशिसोदराऽखिलधराभोगं भ्रमन्ती सती, त्वत्कीतिः सुरभिः शिवोक्षमिलनादापन्नसत्त्वाऽजनि । पश्य प्रीतिरसाधिपं कुमुदिनीप्राणप्रियं तर्णकं, गत्वा व्योम तया प्रसूतमुटजाभ्यपणे मुनीनामिमम् ॥१७॥ पाताले भुजगेश्वरोऽवनितले कैलासकुन्दोत्कर क्षीराम्भोनिधिमौक्तिकानि गगने स्वःकुम्भिगङ्गेन्दवः ।। १. एतद्धामसुधासुधाकरकरैः शुभ्री० - वि. । २. तस्थौ सदा तन्मुचि शुभ्रत्वादनवाप्तिभाक् त्वयिं रमानन्ते मदीयो विधौ (?) नो चेत् - वि. । ३. वि. इत्यत्र षोडशः श्लोक इत्थम् - श्यामः सिन्धुसुतापतिः पशुपतिः शुभ्रश्च तेनोभयोरेषोऽन्योन्यगुणेतरोऽपि महतोरासीद् विरोधो महान् । सोऽस्तः प्रीणयताऽखिलं कुवलयं युष्मद्यशःकौमुदी कान्तेन स्वमयूखयूषपटलैः शुभ्रं जगत् तन्वता ॥१६॥ ४. वि. इत्यत्राऽस्य श्लोकस्याऽऽद्यपदद्वयमित्थम् - कुन्देन्दुद्युतिसुन्दराऽजनि भुवां भोगं भ्रमन्ती सती, कैलासे गिरिशोक्षसङ्गवशतस्त्वत्कीर्तिगौगर्भिणी । For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ जान्युआरी - २०१४ दृश्यन्ते यदमी दमीश! भुवनत्रय्यां प्रकामोज्ज्वलास्त्वत्कीर्तेः कमनीयकान्तिवसतेविद्मस्तदुज्जृम्भितम् ॥१८॥ सौरभ्यप्रभवः खलैणमदयोः श्यामत्वतुल्यात्मनोः, कामं कोकिलकाकयोः स्वरकलाकौशल्यजन्यः पुनः । आसीद् विद्रुमगुञ्जयोरतिशयी भेदश्च भारोद्भवस्त्वत्की, धवलीकृते त्रिभुवने नीहारहारत्विषा ॥१९॥ रौलम्बे पटलेऽनया धवलिते भासां भरैर्भासुरैर्जीवां जीवनिभामनन्यघटनामप्राप्नुवन्निस्तराः । यज्जातोऽस्मि गुणोज्झितेन धनुषा कोदण्डदण्डायुधस्त्वत्कीर्ति भुवनत्रये प्रसृमरां न स्तौत्यतश्चित्तभूः ॥२०॥ आसीत् कैरर्वतुम्बिकालिकुसुमज्ञानं रटत्षट्पदैः, कर्पूराम्बुधिफेर्नेमण्डलमतिर्गन्धादधादुन्नतिम् । ज्ञायन्ते कलहंसकह्वततयो न्यासैः पदानां पुनस्त्वत्कीर्ते रुचिवीचिचन्दनजलैलिप्तेऽत्र विश्वत्रये ॥२१॥ केशास्त्रस्तकुरङ्गदारकदृशां संजगिरे यत् सिता, मद्वासेषु जरा पदं तदतनोत् तद्भीश्च मे भूयसी । मत्वेति प्रतिषिद्धशुद्धसरणिर्दुह्यदिनां मानसं, त्वत्कीर्त्या भुवनत्रये धवलिते सङ्कल्पयोनिर्ययौ ॥२२॥ तस्याः संयमिपुञ्जकुञ्जर! भवत्कीर्तेर्ऋते धीमतां, वाचां गोचरमञ्चति त्रिभुवने नाऽन्यत् स्फुरत्स्फूर्तिमत् । या तुण्डान्यसतां सतां च युगपद् दीप्रै रुचां सञ्चयैविश्वावासविसारिणी प्रविदधे कालान्यकालानि च ॥२३।। चेदस्मासु सदा प्रसादविशदः सूरीन्द्रचूडामणे!, स्वस्याः कीर्तिमृगीदृशो विलसितं तद् ब्रूहि नः पृच्छताम् । एषा यत् पुरुषोत्तमाशयसरोहंसीति गी: सर्व्वगा, "वो वैकुण्ठमनोविनोदमसृजत् काऽस्या द्विधैषा स्थितिः ॥२४॥ १. कैरवकुन्दमुख्यकुसुम० - वि.। ३. कलहंससारसबका न्यासैः - वि.। २. ४. फेन चन्दनमति० - वि. । नो चेत् कुण्ठ० - आं. । For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६३ लब्ध्या वर्तुलमिन्दुमण्डलतुलं कैलासकं कन्दुकं, तद्यष्टिं च भुजङ्गराजमतनुं त्वत्कीर्तिकन्या नवा । तत्क्रीडां प्रचिकिः परं प्रतिभटं तुल्यं गुणैरात्मनः, पश्यन्ती तदनाप्सितस्त्रिभुवने नाऽद्याऽपि तिष्ठत्यसौ ॥२५॥ मूलं स्थूलमसौ भुजङ्गमगुरुः स्कन्धश्च गौरीगुरुदुग्धाम्भोनिधिरालवालवलयो व्योमाङ्गणं मण्डपः । शाखा दिग्गजदन्तपङ्क्तिरुडवः पत्राणि पुष्पाणि च, त्वत्कीर्तेः सुरवीरुधः फलमिदं शीतयुतेर्मण्डलम् ॥२६॥ त्वत्कीर्ति यदुशन्ति शान्तदुरितश्वेतां सतां राजयस्तन्नः स्वान्तपथाधिरोहमकरोन्नाऽऽश्चर्यचर्यावहम् ।। अस्या येषु सकृत् पदं प्रविदधे रङ्गो हि रङ्गत्तमस्तेष्वन्यः सुभगोऽपि नैव कृतवान् रङ्गः पदं जातुचित् ॥२७॥ नित्यं सत्यपि कीर्तिरस्ति भवतो वेश्येव यत्स्वैरिणी, नित्याऽसत्यपि यत् सतीव गृहगा कीर्तिऍनर्वादिनाम् । तत् सूत्रं तव वेश्मनः शुभमिदं तेषां समेषामुत, ब्रह्येतत् तनुमत्पितामह! महत् कौतूहलं नः पुरः ॥२८॥ कीर्तिस्ते दुहिता सती यतिपते! ब्रह्माण्डभाण्डोदरे, क्रीडन्ती वरवाञ्छया गरभिणी सर्वज्ञसङ्गादभूत् । ब्रह्माम्बागुणसूचितं समजनि स्कन्दे प्रसूते तया, नैवं चेत् क्व भुजङ्गभूषणभवे तस्मिन् सुते ब्रह्म तत् ॥२९।। अम्भोधिः पुरुषोत्तमप्रियतमां मत्वाऽऽत्मपुत्रीं भवत्कीर्ति मौक्तिकशुक्तिसम्पुटमदात् स्वं सारभूतं महत् । सा यान्ती त्रिदिवं नभस्तलशिलापीठे तदस्फोटयद्, मुक्तास्तत्पतिता बभुवुरुडवश्चन्द्रः पुनस्तद्दलैः ॥३०॥ त्वत्कीर्तिस्त्रिदिवं व्रजन्त्यनुकृतस्पर्द्धं विलोक्याऽन्तरे, जातेाऽमृतपूर्णमिन्दुकलशं हन्ति स्म वामांहिणा । घातोऽङ्कोऽजनि सोऽमृतं च तदभूत् तन्निर्गतं स्वर्नदी, नो चेत् क्व द्विजराजिलाञ्छनमिदं काऽसौ सरिद् व्योमनि ॥३१॥ For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ ४७ स प्रालेयशिलोच्चये न सरसस्यन्देषु कुन्देषु न, क्षीराब्धौ न स नैव सोऽमृतभुजां वापीप्रवाहे पुनः । न ज्योत्स्नासु सितद्युतेः स च स च स्निग्धेषु दुग्धेषु न, त्वत्कीर्तेर्यतिचन्द्र! यच्छविपदप्रोज्जृम्भिते शुभ्रिमा ॥३२॥ यस्याः पूर्णमृगाङ्कमण्डलमिदं तुण्डं फणाभृत्पतिर्वेणी क्षीरपयोधिरम्बरमसौ तारा नखानां ततिः । . दन्ता मौक्तिकसन्ततिहिमगिरिगुर्वी नितम्बस्थली, जीयाद् विश्वविसारिणी चिरमसौ त्वत्कीर्तिसारङ्गदृक् ॥३३॥ माद्यद्वाद्ययशोनिषद्वरभरे त्वच्छ्लोकशुक्लच्छदः, शश्वत्पर्यटनादिह क्षितितटे जानन् पदौ पङ्किलौ । यात्वा व्योमनि धौतवान् हिमरुचौ पीयूषपद्माकरे, ' तत् तत्र प्रतिभाति पङ्कपटली सेयं कलङ्कच्छलात् ॥३४॥ : स्तोतव्यं द्वयमेव देव! विदुषां युष्मद्यशःशुभ्रिमा, विश्वाश्चर्यपदं च वादिवदनश्यामत्वमासीदिह । मुक्तात्माऽपि जहाति यो न विषयोल्लासं महेलाप्रियं, श्यामात्मन्यपि यत्र चाऽस्ति न मुदा पीनं कलावन्मनः ॥३५।। अत्युद्यद्भवदीयकीर्तिकिरणप्राग्भारशुभ्रीकृतक्रीडाक्रीडपरम्परासु कुसुमालाभाद् विषण्णा सती । गृह्णन्ती कुसुमान्यबोधि कुसुमाजीविप्रियारे षाट्पदे, तन्नादानुसृतिप्रसारितकराँदंशेऽपि शर्मोद्गमः ॥३६॥ कर्पूरस्पृहया करा निदधिरे सौगन्धिकैः कज्जले, भिल्लीभिर्बदरीफलानि दधिरे मुक्ताफलाकाङ्क्षया । पत्राङ्गाणि जनव्रजैर्जगृहिरे श्रीखण्डखण्डेहया, देवाऽस्मिन् भुवनत्रये धवलिते त्वत्कीर्तिचन्द्रत्विषा ॥३७|| चेन्मुञ्चेन्मृगमङ्कतो यदि घनैर्मज्जेदपामीशितुः, फेनैश्चेत् तनुयात् तनौ च रचनां श्रीखण्डखण्डद्वैः । १. विषण्णात्मना - वि. । ३. ०जीविस्त्रिया - वि. । २. गृह्णन्त्या - वि. । ४. प्रसारिकरया - वि. । For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६३ चेत् कैलासविलाससानुरचिते तिष्ठेदहीशासने, तच्छुभ्रत्वतुलामुपैति भवतः कीर्तेरुडूनां पतिः ॥३८॥ त्वत्कीर्त्याऽमलयाऽखिलं जगदिदं सञ्जायमानं सितं, दृष्ट्वा भीतिमती प्रियः सिततमो लक्ष्यः कथं रोहिणी । मत्वेत्यङ्कमिषान्यधाच्छशिनि किं कस्तूरिकाहस्तकं, नैवं चेद् द्विजराजिपेशलकले कोऽयं कलङ्कोदयः ॥३९॥ जिग्ये त्वद्यशसां श्रिया कुमुदिनीप्राणप्रियश्चक्षुषोः, सम्पत्त्या हरिणश्च विश्वजनताऽऽनन्दोपदाप्रह्वया । स्थित्वैकत्र तयोर्जयाय तनुतस्तन्मन्त्रमेतावुभौ, नो चेदम्बरचारिभूमिचरयोरेकत्र वासः कुतः ॥४०॥ पीयूषैः सवनं विधाय वसनं कृत्वा च दुग्धाम्बुधि, नीत्वा स्वर्गतरङ्गिणी निगरणे हारिश्रियं हारताम् । स्थित्वा निर्जरकुञ्जरे च भुवनाभोगे भ्रमन्ती भवकीर्ति ति यदीयलोचनपथे तेषामभाग्योदयः ॥४१॥ इत्थं वक्तुमनाः किमु व्रतिसदःकोटीरहीरस्य ते, कीर्तिः स्फूर्तिमती सती गतवती ब्रह्माश्रमं ब्रह्मणः । त्रैलोक्यौकसि नाऽत्र माति सकले प्रौढः प्रतापः पुमान्, मद्भर्तुः कुरु तत्कृते तदितराल्लोकेश! लोकान् परान् ॥४२॥ विश्वस्वान्तसरोजकोशशयने लोके पुनर्भोगिनां, दिक्सारङ्गदृशां मुखेषु नितमां विघ्नौघविध्वंसने । क्षोणीस्त्रीहृदयेषु भाति भवतः कीर्तिः स्थिरस्फूर्तिभाग, हंसीवद् हरहारवद् हसनवद् हस्त्यास्यवद् हारवत् ॥४३॥ वृत्तत्वं तुहिनधुतेः फणभृतां भर्तुः पुनः शुभ्रिमा, प्रालेयाचलेतुङ्गशृङ्गगरिमा स्वर्दीर्घिकादीर्घता । मान्यत्वं च मनोज्ञमौक्तिकततेरेकत्र चेज्जायते, त्वत्कीर्तेरुपमा तदैव हृदये मेधावतां धावति ॥४४॥ १. समीराशिनां - वि. । २. ०चलपुङ्गवस्य गरिमा - वि. । For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ 'स्वामिन्! वैश्रमणाश्रितस्त्वमनिशं कैलास एवाऽसि यत्, त्वत्कीर्तिश्च महाव्रतिप्रणयकृत् स्वर्गापगैवाऽस्ति यत् । तां त्वज्ञां भणतस्तथापि तनुतः प्रेक्ष्येति लोकोऽब्रवीत्, "स्यान्नूनं रसिकत्वमग्नमनसामीदृक् कवीनां वचः" ॥४५॥ पाताले पवनाशनेशमनिशं प्रेतां धरित्रीतले, प्रालेयाचलमासनं च गगने यानं मरुत्कुञ्जरम् । त्वत्कीर्तिर्विदधे सितास्तदभवन्नेते तदासङ्गतो, नो चेत् सर्पवसुन्धराधरगजेष्वेष्वेष कः शुभ्रिमा ॥४६।। यत् कीर्तिं भवतो जगज्जनमनोज्योत्स्नाप्रियप्रेयसीमप्युचुः किल चन्द्रिकामिति बुधाः श्रद्दध्महे नेह तत् । एता यन्निशि चाऽह्नि चोन्नतिमती ३तुल्योभयोः पक्षयोनित्यं कान्तिभराऽऽश्रिता कविमनःप्रीतिप्रदेषा च यत् ॥४७॥ विश्वेषां पुरतः प्रतापहुतभुक्साक्षन्त्वयोरीकृता, कीर्तिः ख्यातिरतेन सा च भवता चक्रेऽर्थिसात् सूरिराट् । निध्यायन्निति तावकीनचरितं वाचामगम्यं वधूवर्गोऽभूत् त्वयि चम्पके मधुपवत् सर्वोऽपि वैराग्यभाक् ॥४८॥ कण्ठेकालकपदकोटरकुटीकोणेऽशुभिर्भासुरां, क्रीडन्ती भवदीयकीर्तिमबलां दृष्ट्वा सुराणां सरित् । काऽप्यन्या विधृता शिवेन शिरसीत्या बभूवाऽब्धिसाद्, मन्यन्ते हि मृगीदृशः सुखमलं मृत्यु सपत्नीक्षणात् ॥४९॥ १. अस्य श्लोकस्य स्थाने वि. प्रतावयं श्लोको दृश्यते - "हस्तस्थेन घनेन घातमकरोच्चन्द्रे प्रतापेन ते, कीतिर्योमगताऽमिताऽमृतघटे स्वस्वामिवाक्स्पर्धिनि । पीयूषं निपतत् तदङ्कविवरेणाऽधारि घासाङ्करैनैवं चेदमृतं प्रयच्छति कथं तच्चारिणी गोततिः ॥" श्लोकस्याऽस्याऽन्तिमपदद्वयं प्रतापाधिकारस्थाष्टादशश्लोकस्याऽन्तिमपदद्वयेन सह सर्वथा समानतां भजते । २. पाताले पवनाशिनां परिवृढं प्रेक्षां च पृथ्वीतले - वि. । ३. ०मती तुल्यप्रभापेशला यत् कान्तोभयपक्षयोः कवि० - वि. । For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६३ १रूपश्रीपरिभूतवारिधिसुतासूनोर्वयं संस्तुति, वाचामध्वनि दध्महे तव कथं कीर्तेः कुरङ्गीदृशः । येनैषा प्रतिमीयते धवलतासौभाग्यमुख्यर्गुणैरस्माकं न दृशोर्न च श्रवणयोस्तन्मार्गमारोहति ॥५०॥ अप्येभ्यो भुजगेभ्य एष भगवाञ् शम्भुर्विशेषी पुरा, मय्यासीत् स च मामिमांश्च कुरुते ही सन्निभान् साम्प्रतम् । यद् विश्वे विशदीकृते द्युतिभरैरस्याः सुधौधैरिव, त्वत्कीर्तेः प्रथमानमेष विषभृद्भर्तेव न स्तौत्यत: ॥५१॥ एतस्या महसां भरैः प्रसृमरैर्जाताऽवदातद्युति,२ मां यन्निर्जरनिर्झरिण्यवसरे वारांनिधिः मद्विभुः । हे स्वापि! समेहि देहि वचनं चैवं ब्रुवन्नर्थति, त्वत्कीर्ति विजितेन्दुकुन्दकुमुदां स्तौतीति पुत्री रवेः ॥५२॥ निश्वासोच्छसितैः कृशानुभिरिवाऽतीवोष्णकैर्वादिनामुत्तप्तं यतिराज! तावकयशो जज्ञे सुवर्णं स्फुरत् । देवाऽस्मासु हिमांशुहंसकुमुदक्षीराब्धिदुग्धैः समं', मा भूया विदधत्सु रोषरसिको व्यग्रा कवीनां हि वाक् ॥५३॥ श्रीखण्डं सभुजङ्गमम्बरसरित् सेयं पुनर्निम्नगा, कैलासः स कुबेरधाम भुजगाधीशो द्विजिह्वः पुनः । रोहिण्या रमणः कलङ्ककलितो हंसाश्च वक्राङ्गकास्तत् कुर्मः कथमेमिरीश! सदृशं त्वत्कीर्तिमेणीदृशम् ॥५४|| पण्डोद्दण्डसुराद्रिणा निमथनाद् दुर्वादिसिन्धोः सतीं, जातां ते भजतो जयश्रियमभूत् कीर्तिः सुता निस्तुला । निःपाणिग्रहणाऽपि विश्वमभजद् विश्वं पणस्त्रीव सा, यत् पित्रोरनयोरपत्यमभवत् तादृग महाकौतुकम् ॥५५॥ १. अस्य स्थाने वि. प्रतावयं श्लोक : २. जातान्यथा विभ्रमं - वि. । "सर्पदर्पकदर्पसर्पविनतासूनो! कथं संस्तुति, ३. वारां विभुमद्विभुः - वि. । वाचामध्वनि दध्महे भुवि भवत्कीर्तेः कुरङ्गीदृशः। ४. कुमुदायैस्तत्समं निःसमं - वि.। येनैषा प्रतिमीयते धवलतासौभाग्यमुख्यैर्गुणै- ५. हंसाः पुनर्विष्किराः - वि. । रस्माकं न तदम्बक-श्रवणयोः पन्थानमारोहति ॥" ६. महत् कौतुकम् - वि. । For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ मां पीयूषमयूखसुन्दररुचिं ब्रूते जनः स्वैरिणी, यत् सर्वोऽपि सतीमपि प्रगटवाग् मद्रागमग्नोऽपि हि । तद् दीव्यं प्रचिकीर्षुरीश! दधती पाणौ प्रतापानलं, त्वत्कीतिर्जगतां पुरो भ्रमणतो नाऽद्याऽपि धत्ते स्थितिम् ॥५६॥ 'चञ्चच्चन्द्रकुलोद्भवात् त्वदभवद् रामादपि श्वेतरुक्, श्लोक: सुनुरयं बुधान्मतिमतां चित्तेऽस्ति चित्रं न तत् । यज्जग्धाः परवादिनां हठवता सर्वास्त्वया कीर्तयः, स्यादाहारगुणः पितुस्तनुरुहे नीतेरसौ विस्तरः ॥५७॥ कर्णाभ्यां भवदीयकीर्तिममृतं पीत्वा नरांश्चाऽमरान्, दृष्ट्वा पुष्टिमितान् जनुर्विषधरैर्मेने स्वमन्तर्गडु । ही धात्रा कृपणेन कर्णविकलाः क्लृप्ता वयं वञ्चिता, अस्याः पानसुखोत्सवादमृतभृद् भावी भवो नः कथम् ॥५८॥ कालिन्दीकुटिलोम्मिकोटिपटुभिः प्रत्यर्थ्यकीर्तिप्रथापूरैः कैरवकेतकीकुमुदिनीकर्पूरपूरोपमः । ज्ञानाध्वानमुपैति लोकतिलक! त्वत्कीर्तिभूः शुक्लिमा, किं न ज्ञातुमलं निपीतनभसा धूमेन धूमध्वजः ॥५९॥ स्वःसत्शैवलिनीजलैः सवनकृत् कृत्वा विलेपक्रियामुघृष्टैर्हरिचन्दनैः शशधरैर्दुग्धाब्धिदुग्धोत्करैः । कुर्यादङ्गनिषङ्गिचङ्गिमचयं चेच्चन्द्रिकाचीवरं, कैलासस्तदुपैति देव! भवतः कीर्तेस्तुलां निस्तुलाम् ॥६०॥ एषाऽशेषविशेषविद्विरचितप्रोद्दामकामक्रमात्, त्वत्कीर्तिः श्रितमार्गणाऽभ्रमदलं ब्रह्माण्डमुद्दण्डदृक् । तच्चित्रं किमु वादिवृन्दहृदयाहङ्कारकारस्करस्कन्धोऽवेधि यदेतया यदिषुणा वेध्यं सुवेध्यं नृणाम् ॥६१॥ शीतां शीतमयूखमण्डलगलत्पीयूषलेखामिव, त्वत्कीर्ति स्मरसिन्धुरद्विरदजिद्! ब्रूमः कथं ब्रूहि नः । १. नाऽस्त्ययं श्लोकः 'वि.' प्रतौ । २. वदनवद् - पाठान्तरम् । For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६३ विश्वानन्दनचन्द्रचन्दनमरुन्नीरैरपि प्रोच्छलंस्तापः शाम्यति वादिनां यदनया क्रोडीकृतानां न हि ॥६२॥ पण्यस्त्रीव भुजङ्गसङ्गमकरोद् गेहे बलेस्तस्थुषी, स्वर्गस्था च सुराभिषङ्गमसृजद् रम्भेव कीर्तिस्तव । नैषाऽभूदसती च नेयमजनि क्षीबा च यत् तन्महच्चित्रं चेतसि नः पदं प्रकुरुते कस्याऽग्रतो ब्रूमहे ॥६३॥ भल्ली चेतसि वेद्मि मार्गणमुखावस्थानतस्तावकी, कीर्तिं किन्त्वभवत् कुतूहलमिदं येषां हृदि प्राविशत् । एषा मार्गणतुण्डसक्तिरजनि स्वास्थ्यं च तेषां महद्, येषां च प्रविवेश नेयमुरसि स्वास्थ्यच्युतास्तेऽभवन् ॥६४|| लोकाह्लादकलाविलासपटुना शैत्येन विस्तारिणा, प्रद्योतेन च साधुसिन्धुरविधोः कृत्यं भवत्कीर्तिभिः । । जातं वीक्ष्य मुधा सुधाधुतिमिमं जानन् सरोजासनश्चिक्षेपाऽङ्कमिषान्मषीमिति न चेत् कोऽयं कलङ्को विधौ ॥६५॥ नित्यानन्दितदक्षजातममलं मन्ये त्वदीयं यशः, पीयूषत्विषमेव किन्तु समभूदस्य स्थितिः केतरा । पूर्णेऽप्यत्र न सङ्गमोऽजनि तमोग्रासोद्भुवां यद्भियामस्मात् प्रत्युत भीतिमेति नितमां चैतत् तमोमण्डलम् ॥६६॥ पानप्रीणितदेवदानवतति कीर्ति सुधां तावकी, दृष्ट्वा विश्वविसारिणी तदहयः स्वाकर्णतामस्तुवन् । . कर्णाभ्यां हि सुखं निपीयत इयं पाने त्वमुष्या विषं, सर्वं याति तदा च रज्जव इव स्यामः पदं न्यत्कृतेः ॥६७|| विश्वान्तर्गतवादिहन्मुखतटेरे लेशोऽप्यमुष्या न चेत्, तद् ब्रूमः कथमाप्तपुङ्गव! भवत्कीर्ति जगद्व्यापिनीम् । यद्वा ग्रावणि निष्ठुरे च चरणत्राणे च चर्मोद्भवे, बिम्बं न प्रतिबिम्बतां व्रजति चेद् बिम्बस्य तत् का क्षतिः ॥६८|| १. नित्यं नन्दित० - वि. । २. ०वादिहवदनयोर्लेशो० - वि. । ३. मिथ्यादुष्कृतमस्तु नः किमथवोपनत्तले चोपले - वि. । For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ कैलासा गिरयः समेऽपि करिणः सर्वेऽपि देवद्विपा, .. भोगीन्द्रा भुजगाः समेऽपि विहगाः सर्वेऽपि शुक्लच्छदाः ।। गौरीशाः पुरुषाः समेऽपि गिरिजाः सर्वोऽपि योषिज्जनो, विश्वव्यापिभवद्यशःशशिसुधासम्भारसङ्घट्टतः ॥६९॥ धर्मानन्दियमीहितोदयमिमं युष्मद्यशःसञ्चयं, भासामीशमुशन्ति चेत् कृतधियः श्रद्दध्महे तन्न हि। यस्मान्निर्मितवानयं कुवलयोल्लासं विलासै रुचां, सञ्जातं जलजातमेतदुदये नीरन्ध्रनिद्रं पुनः ॥७०॥ क्षीराम्भोधिलसत्तरङ्गधवलः सन्मानसाऽवस्थितिर्यद् वक्त्राम्बुरुहे विभो! तव यशोहंसो निवासं व्यधात् । ब्राह्मीसंस्थितिरस्ति तत्र नियतं कोऽसौ महान् विस्मयो, याता यानमधिष्ठितो यदि भवेत् किं तन्महत् कौतुकम् ॥७१॥ ३शश्वत् साधुशिरोऽवतंस! महसामेकास्पदं निर्मलं, मुक्तात्मानमिमं त्वदीययशसां स्तोमं वयं मन्महे । यद् वादिव्रजहृद्यनिर्वृतिपदे न स्थानमस्याऽभवत्, पुण्ये पुण्यजुषां यदक्षरपदे वक्त्रे च तस्थावयम् ॥७२॥ चेन्बाऽस्मासु करोषि रोषमनृतं नो वेत्सि चाऽस्मद्वचः, पृच्छामः प्रणयेन कीर्तियुवतेश्चित्रं चरित्रं तव । अस्माकं पुरतः सदैव यदियं भूत्वा सुरोल्लासिनी, संवासं च भुजङ्गधाम्नि कुरुते सा त्वत्प्रिया तत् कुतः ॥७३॥ त्वत्कीर्तेस्त्रिजगत्पितामह! रसास्वादं गिरां गोचरं, पकर्तं कस्य विपश्चितः प्रतिपदं प्रह्वा च जिह्वा भवेत् । यद् बीजं महिमद्रुमस्य परितः पीयूषपूर्णानना, अप्युज्झन्ति दिवौकसः स्ववदनान्नैनां कथञ्चित् क्वचित् ॥७४॥ १. विश्वानन्दिकविप्रियोऽतिधवलः - वि. । २. स्थाने तत्र पवित्रपुण्यवसते ब्राह्मीनिवासः सदा - अं. । ३. एनं - वि. । ४. कुरुते त्वं तत्प्रियस्तत् कुतः - वि. । ५. किं कर्तुं कतिचित् कदापि कृतिनां जिह्वा भवेयुः क्षमाः - वि. । For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ अनुसन्धान-६३ एनां नाथ! मनोहरां प्रतिदिनं सर्वज्ञचित्तस्थितां, जानीते मधुसूदनो हृदि भवत्कीर्ति स्वजामि ध्रुवम् । विद्वांसः पुरुषोत्तमप्रियतमां जानन्ति चैनामिमे, किं सत्यः स च तेऽथवेति हृदयं दोलाधिरूढं हि नः ॥७५॥ कर्पूरोत्करपेशलासु महसां पूरैः प्रधानासु न, च्छिद्राणि प्रतिभान्ति भाग्यभवन! त्वत्कीर्तिमुक्तासु चेत् । हारीकृत्य कथं वहन्ति तदिमां हृद्यास्पदं सम्पदां, पाताले धरणीतलेऽमरकुले चैताः कुरङ्गीदृशः ॥७६॥ राशिस्त्वद्यशसां शशाङ्कविशदोऽनन्तः स्मृतः कोविदैरस्मिन् स्वैरविहारकारिणि पदं स्थैर्यस्य यद् दिग्गजाः । भूरेषा गिरयोऽप्यमी जलधयश्चैतन्महत्कौतुकं, स्थैर्यं मुञ्चति धारके किमु भवेत् स्थैर्यं हि धार्ये क्वचित् ॥७७॥ पद्मानन्दनिदानसुन्दररुचेर्जज्ञे जगच्चक्षुषः, सूनुस्ते यश एव देव! भजतश्च्छायामनन्यप्रियाम् । स श्यामो न शनैश्चरो न च न च क्रूरः पुनर्नाऽसमज्योतिष्कोऽजनि चेति चेतसि महच्चित्रं ममोज्जृम्भते ॥७८॥ त्वत्कीतिर्जयवाहिनी 'सुमनसां दत्तप्रमोदोदया, सञ्जाता विबुधेशसंस्तववशादापन्नसत्त्वा सती । एतस्याः सुरसार्थकैरवशशीसूनुर्जयो जातवांस्तन्मातापितृता जनेऽत्र विदिता युक्ता तयोरेव यत् ॥७९॥ जानीमो नवनीतमेव मृदुलं युष्मद्यशःपाण्डिमख्यातं. ख्यातिमतां महेन्द्रसरसाद् यद् गोरसाज्जातवत् । भङ्गोद्विग्नकुवादिवंशविसरोद्धर्षप्रकर्षोद्भव"त्वत्तेजोऽग्नियुते स्थितं न गलितं विश्वेऽद्भुतं तन्महत् ॥८०॥ १. दिविषदां संनाससञ्चारिणी - वि.।। २. स्तन्माता विबुधर्षभप्रियतमा चैषेति नः सम्मतम् - वि.। ३. यद् गोरसात् सम्भवत् - वि. । ४. ज्वालाजिह्वयुते - वि. । For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ ५५ विश्वान्तविलसन्महःपरिमलः सूरीन्द्र! युष्मद्यशःकर्पूरः स्थिरतां बिभर्ति भविनस्तत्रैव हृत्पात्रके । यत्राऽङ्गारति वाद्यकीर्तिरनिशं रोलम्बमालासुहृत्, सुस्थैर्य हिमवालुका हि भजते नो तं विना जातुचित् ॥८१॥ त्वत्कीर्तिनितमामविग्रहवती कान्ता स्फुरद्विभ्रमा, चेतोऽस्माकमना च चेत् तदनयोः केयं रतिनिर्भरम् । किं चाऽस्या न रतिर्बभूव मनसा पण्डेन दुर्वादिनां, पण्डापण्डनिबन्धनं यदथवा न प्रेम वामभ्रुवाम् ॥८२॥ गौरत्वान्मयि चेतरासु तटिनीष्वासीदपामीश्वरः, प्रेयान् यत्कृतनिर्विशेषनयनव्यापारलीलाक्रमः । उद्दामैर्महसां भरैर्धवलितब्रह्माण्डभाण्डोदरां, त्वत्कीर्तिं न सुधान्धसां सरिदतः संस्तौति खेदादियम् ॥८३॥ जातैषा जयतः प्रियात् सुमनसामित्थं सतां संमतं, यज्जज्ञे विबुधप्रभुप्रणयिनी 'ज्योतिष्मतीयं प्रभो! । दोषश्चन्दनकुन्दसुन्दररुचेः पुण्यप्रथाया अपि, त्वत्कीर्तेरयमेक एव भगवन्! जागर्ति नश्चेतसि ॥८४॥ गन्ता शुभ्रितमस्तकाः स्मितदृशः प्रेक्ष्येन्दिरानन्दनो, जानञ्जातजराजरातिचकितो ह्याभिविना तं च किम् । त्वत्कीति निचयैरुचामतिसितां कर्तुं त्रिलोकीकृतप्रौढिप्रौढिमधाम! वीक्ष्य तदमी मम्लुस्तमां कामिनः ॥८५।। त्वत्कीर्ती निजवक्त्रविद्धहृदया भोगाङ्गणा मार्गणाः, संलग्नाः शमिकान्त! किन्तु यदसौ जाता चिरायुष्मती । अस्पृष्टाऽपि हि तैः परासुरभवत् कीर्तिश्च दुर्वादिनां, चित्रं विस्मितविश्वमानसमिदं स्वान्ते नरीनर्तिनः ॥८६।। १. गन्धोद्गारिविसारिवीचिरुचिरः सूरीन्द्र - वि.। २. भविनां - वि. । ३. किं स्थैर्य हिमवालुका हि भजतेऽङ्गारं विना जातुचित् - वि.। ४. खेदादसौ - वि.। ५. चैषा सुपर्वादरा - वि. । ६. सुन्दरमहःपुण्यप्रभाया अपि - वि.। ७. त्वत्कीर्ती वदनैर्निविद्धहृदया - वि.। For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६३ स्वर्गे स्वर्गिगजच्छलाद् बलिगृहे भोगीन्द्रभोगच्छलाद्, भूभागे हिमवच्छलाच्च परितः क्षीराब्धिनीरच्छलात् । त्वत्कीर्ति प्रणिधाय चेतसि चतूरूपस्वरूपामिमां, पञ्चत्वं तदसूयये च तरसा प्रत्यर्थिकीर्तिर्ययौ ॥८७॥ तद्यानं यशसाऽभ्यनावि शुचिना वक्त्रेण तस्याऽऽननं, तत्पुत्रीनिकरैगिरां कविकलाकौशल्यतः स त्वया । तत् त्वां जेतुमना गुरोः पदमगात् स द्यामितोऽधीतये, नो चेदस्य कवेरपि प्रतिदिनं का लेखशालास्थितिः ॥८८॥ कामं कामघटान् मणेर्मखभुजां धेनोर्नभःसद्मनां, देवानां द्रुमतश्च शश्वदधिकां त्वत्कीर्तिमुश्मो वयम् । पूजोपास्त्युपहारसेवनगुणैस्तुष्यन्त्यमी मृदृषत्तिर्यग्दारुभवाः श्रुतैव यदसौ चाऽर्चा(ऽर्च्य?)श्रियां दायिनी ॥८९।। इति पं. हेमविजयगणिविरचिते श्रीकीर्तिकल्लोलिनीनाम्नि समस्तसुविहितावतंस-युगप्रधान-श्रीविजयसेनसूरीश्वरवर्णने कीर्त्यधिकारः। सौभाग्याधिकारः आनङ्ग्येन विडम्बितो हृदयभूरङ्केन शीतद्युतिः, पाथोजप्रभवः प्रजापतितया भानुस्तमोहत्तया । स्वर्भाणोरसुहृद् गदाकरतया शम्भुः शिवाराट्तया, केनाऽसावुपमीयते मुनिपते! मूर्तिस्तवैतादृशी ॥१॥ सौभाग्यं विषमायुधात् कमलिनीकान्तात् प्रभापीनतामैश्वर्यं गिरिजापतेः कुमुदिनीनाथात् कलाशालिताम् । माहात्म्यं धरणीधरान्मखभुजां गाम्भीर्यमम्भोनिधेरादायाऽम्बुजभूः प्रभुः प्रविदधे त्वन्मूर्तिमेतन्मयीम् ॥२॥ १. यशसाऽन्यभावि - अं. । २. धाता तत् स्वगुरोः पदं दिवमगान् त्वां जेतुकोऽधीतये - वि. । For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ कोकानामिव भानुमान् हिमरुचिर्पोत्स्नाप्रियाणामिवा- .. ऽध्वन्यानामिव पादपः सलिलदः साहितानामिव । भृङ्गाणामिव वारिजं प्रियतमो लीलावतीनामिव, 'प्रीति प्राणभृतां तनोति भवतो मूर्त्तिर्मनोहारिणी ॥३॥ ईर्याऽसौ करटी कटिर्मगपतिस्तुण्डं तुषारद्युतिनेत्रे नीररुहे ध्रुवौ मधुलिहौ कायः स्मितश्चम्पकः । रोमाली यमुना भुजौ वरबलौ हृत्कैरवं वाक् शुचि- . स्तिष्ठन्त्यप्यरयो मिथः सुखममी मूर्तेर्महिम्नैव ते ॥४॥ तेषामाविरभूदयं दिविषदां शाखी मरुक्षोणिषु, ध्वान्तैधूसरितासु रात्रिषु रुचां प्रेयानुदेति स्म च । तापव्यापकदर्थितेषु पथिषु छायाद्रुमोऽभ्यागमद्, यैस्त्वन्मूर्तिरियं कलाविह विभो! नीता दृशोरध्वनि ॥५॥ . स्वामिन्! मूर्तिरसौ तव त्रिजगतामानन्दकन्दाङ्कुरः, किञ्चाऽत्रैव मनोज्ञसङ्गतिरसौ हारी गुणानां गणः । योगं रत्नसुवर्णयोरिव सृजन् धाताऽनयोर्दूषणं, सौवं रत्नविडम्बकाय(कोऽय)मिति यद् विद्मः पिधत्ते स्म तत् ॥६॥ नित्यं स्वान्तमणुप्रमाणमिह ये प्रोचुः परे वादिनः, सर्वं काममजागलस्तनतुलां धत्ते तदीयं वचः । तुङ्गा स्वर्गिगिरेरपि व्रतिपते! त्वन्मूतिरेषा सुखं, स्वान्तेऽस्माकमुवास यज्जलरुहे भृङ्गीव पद्मालया ॥७॥ १. प्रीति विग्रहिणां तनोति भवतः शान्ताऽपि मूर्तिः कथम् - वि. । २. विद्यन्तेऽप्यरयो - वि. । ३. मरौ नीवृतिः - वि. । ४. अस्य स्थाने वि. प्रतावयं श्लोकः - "यच्चेतस्यणुतां भणन्ति निपुणा ज्ञानावधि योगिनां, तद् वाचां चरितं विचारितमभूदस्माकमर्थाहतम् । तुङ्गा स्वर्गिगिरेरपि व्रतिपते! त्वमूर्तिरेषा सुखं, स्वान्तेऽस्माकमुवास यन्मधुकरी चाऽम्भोरुहामन्तरे ॥" For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६३ अस्वप्नप्रमदा सदा 'वृषरतिर्मूर्तिः प्रभो! तावकी, नित्योल्लासिजया वयं सुमनसः२ प्रीतिप्रकर्षादराः । हंसाः पङ्कजिनीमिव स्मितमुखीमामोदनिस्यन्दिनीमुज्झामो यदिमां ध्रुवं न हृदयात् कस्तत्र चित्रोदयः ॥८॥ त्वन्मूर्तिः प्रशमिप्रभो! वसुमती सूते स्म यन्मङ्गलं, दध्मः सम्प्रति वक्रतां वयममी येनाऽतिचारोद्यताः । सम्बन्धस्थितिरत्र याति महती जानन्ति तां धीधना, वामाऽस्माकमियं तथाऽपि तनुते कामोत्सवं ब्रूहि तत् ॥९॥ एनां विश्वमनोमनोरथलताकन्दैककादम्बिनीं, त्वन्मूर्ति प्रविधाय वारिजभुवा निर्णीतिरेषा कृता । नो कर्ताऽस्म्यपरामतः परमदस्तुल्यस्वरूपामहं, नाऽऽरोहच्छ्वसोद्देशोश्च पदवीमस्माकमन्येदृशी ॥१०॥ शान्तत्वं श्रमणावतंस! भवतो मूर्तेरदः कोविदैश्चित्ते चिन्तितमातनोति "नितमामुच्चस्तरां विस्मयम् । वाग्देवीकमलालये जगति ये आजन्म वैरं श्रिते, ते अप्यत्र गते इमे गतरुषे जाते स्वसाराविव ॥११॥ पकिं लक्ष्मीः पुरुषोत्तमप्रणयकृत् किं पार्वती वामदृक्, किं ब्राह्मी कवितुष्टिकृत् किमु शची शश्वद्वेषानन्दभूः । पकिं प्रीतिः कमनप्रमोदसदनं किं पद्मिनी मित्रमुत्, त्वन्मूर्तिं प्रविधाय वर्त्मनि दृशोश्चिन्तामिमां कुर्महे ॥१२॥ शश्वत् तीव्रतराः कराः पितृपतिः पुत्रः सुता तत्स्वसा, सुतो वज्रिजिदग्रजः प्रतिदिनं पाणौ स्फुरत्केतवः । १. वृषमना मूर्तिः - वि.। २. सुमनसश्चाऽमी गुरोः किङ्कराः - वि. । ३. यच्चाऽतिचारोद्यताः - वि.। ४. नितमां दत्तस्मयं - वि. । ५. किं मैषा पुरुषोत्तमप्रणयदा - वि. । . ६. किं प्रीतिर्मदनाशिनी किमु रुचिर्मित्राशयोल्लासिनी - वि. । ७. वि. प्रतावस्य श्लोकस्याऽऽद्यपदद्वयमित्थम् - "भ्राता स्वर्द्विरदः सुतः पितृपतिः पुत्री कलिन्दात्मजा, छाया स्त्री कमलाकरश्च सवयाः सूतः सुपर्णाग्रजः ।" For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ भानोर्यस्य न सोऽप्यभूदलमलं त्वत्तेजसां लङ्घने, सत्यं किं स्वपरिच्छदेन बलिना तस्येह योऽर्कः स्वयम् ॥१३।। भ्राता यस्य विषं पिता च जलधी राज्यं प्रदोषोदये, लोलाक्षी च तमस्विनी च भगिनी लोला तनूरङ्किता । वास: कृष्णपदे सखाऽपि च कुमुत् क्रोडे कुरङ्गः सदा, त्वत्कान्तत्वतुलामुपैति किमु तच्चन्द्रः स दोषाकरः ॥१४॥ स्वर्भाणोर्दधतः कलावति रुषं भीभूयसी व्योमनि, । त्रासस्तोयनिधौ प्रतप्तपयसो ज्योतिर्भिरौर्वस्य च । भाले कालरिपोर्द्विजिह्वसहितश्रोत्रस्य चाऽतिर्महत्यालोच्येति मिषान्मुखस्य सुखदं त्वां सेवते स्मोडुपः ॥१५॥ यच्छन्तीं पुरुषोत्तमत्वविबुधाधीशत्वराज्येशतासम्पत्तिं वहतां रमेन्द्ररमणीब्राह्मीभवानीसमाम् । ज्ञात्वाऽऽज्ञां तव तात! सूत्रितचतूरूपस्वरूपामिह, प्रोच्चैः स्मैति तदीर्घ्ययेव कुदृशां पञ्चत्वमाज्ञाद्विषाम् ॥१६।। आभोगेन गवां चिरं कुवलयोल्लासैकबद्धादरं, कृत्वा त्वद्वदनं स्वचेतसि मुधा वेधाः सुधांशुं विदन् । चिक्षेपाऽन्तरिमां मषीमलिकुलश्यामां कलङ्कच्छलान्नेत्थं चेद् द्विजराजमण्डलमिदं शश्वत्कलङ्कं कथम् ? ॥१७॥ म्लानिं बिभर्ति यो दत्त-कमलेऽपि घनाऽगमे । तुलां तेन त्वदास्यस्य, मुकुरेण करोति कः ॥१८॥ यन्नोज्झति जडे वासं, संवासं मधुपैश्च यत् । बिभर्ति कथमम्भोजं, तत् तवाऽऽननतुल्यताम् ॥१९॥ १. त्वद्भीमतालङ्घने - वि. । २. ०पयसश्चौर्वानलस्योल्बणः - वि. । ३. अस्य स्थाने वि. प्रतावयं श्लोकः "उत्साहं सततोत्तमासु तनुते नो भक्तवार्तासु यन श्लाघां प्रमदार्थिनीं प्रकुरुते यत् कामसम्पत्करीम् । धत्ते यन्नरशेषसंस्तुतिरति नाऽऽस्ते च सन्मण्डलोल्लासे यत् खलु दोष एष गुणिनि स्वामिन्! महांस्त्वन्मुखे ॥" For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० व्यनक्ति वस्तु मुकुरः, पुरोगं त्वन्मुखं पुनः । भवद् भूतं भविष्यच्च, साम्यं स्यादनयोः कथम् ॥२०॥ हित्वाऽङ्कं यदि भजते, वलक्षोभयपक्षताम् । तदा त्वदाननेनाऽय-मेति साम्यं सुधाकरः ॥२१॥ काठिन्यजडवासित्व-दोषोल्लासित्वदूषिताः । त्वन्मुखेन कथं तुल्या, दर्पणाम्भोरुहेन्दवः ॥२२॥ यद् वृन्देन गवां तमोऽन्तमनयच्चक्रे च सच्चक्रदृग्, येनाऽऽनन्दवतीव येन कमलोल्लासः कृतः सर्वदा । 'पद्योल्लाससृजावमित्रमहसाऽऽश्लिष्टेऽपि यत्र च्छविस्त्वत्तुण्डं तुहिनांशुबिम्बमपरं शश्वत्कलाभासुरम् ||२३|| 'त्वद्वक्त्रेण परप्रकाशपटुना सर्वस्तमःसञ्चयः, शीतांशुश्च कलाधरत्वशुचिना ध्वस्तस्ततस्तावुभौ । मन्त्रं कर्तुमिवोद्यतौ स्वमषडक्षीणं मिथः सङ्गतौ, स्यादेको ह्यसुहृद् ययोऽरिह तयोरेकत्र मन्त्रस्थितिः ||२४|| यः सूते स्म महः परं प्रकटित: पुण्यात्मनां हृद्गृहे, चक्रे चाऽतुलकालिमानमनिशं पापात्मनामानने । सस्नेहात् सुदशादनिन्दितरुचेस्त्वद्वक्त्रदीपादभूदेषोऽशेषविशेषविद्विरचित श्लाघोदयो विस्मयः ॥ २५ ॥ ३न स्थाणुस्त्रिभिरष्टभिर्नवनिधिः स्कन्दो न सूर्यप्रमैविंशत्या न च रावणः क्रतुभुजां भर्त्ता सहस्रेण न । १. वि. प्रतावस्य श्लोकस्याऽन्त्यपादद्वयमित्थम् "त्वद्वक्त्रं तुहिनांशुबिम्बमपरं जज्ञे सुधामाऽपि यच्चित्राच्चित्रममुत्र मित्रमहसा श्लिष्टेऽपि यत्र च्छविः ॥" २. अस्य स्थाने वि. प्रतावयं श्लोकः --- "शङ्के कज्जलजालकालमसमं चिह्नच्छलेनाऽषडक्षीणं कर्तुमिहाऽगमद् हिमरुचेरन्तर्विषण्णात्मनः । त्वद्वक्त्रेण निरस्तमन्धतमसं विध्वस्तपूर्णेन्दुना, स्यादेको ह्यसुहृद् ययोरिह तयोरेकत्र मन्त्रस्थितिः ॥” वि. । ३. न ब्रह्माऽष्टभिरीश्वरो न दशभिः स्कन्दो - - अनुसन्धान- ६३ For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ ६१ सितं यन्नेत्रैर्निरवर्णयन्निरवधि द्वाभ्यां नु ताभ्यां प्रभो!, तत् त्वं पश्यसि वस्तु संस्तुतमतेविद्मः स्वरूपं न ते ॥२६।। तद् विद्वज्जनचित्तमत्तमधुपश्रेणीभिरासेवितं, स्वामिन्! श्रीसदनं त्वदीयनयनाम्भोजं स्तुमः सर्वदा । मत्वा पन्नगराहुवाडवभियं पातालचन्द्राब्धिषु, स्फारं यद् भयहृत् सुधा प्रतिदिनं तारामिषाद् भेजुषी ॥२७॥ विद्मः सद्म धियां स्थितिं वितनुते दौर्गत्यदावानल- '' ज्वालाजालजलं सुता जलनिधेस्त्वच्चक्षुषोः पक्ष्मसु । नैवं 'चेदिह पश्यतः सुरचने यं यं भवल्लोचने, तं तं मुञ्चति सत्वरं चकितवद् दौःस्थ्यं कथं 'सप्रथम् ॥२८॥ नौपम्यं सरसीरुहा सरजसा त्वन्नेत्रयोः स्फारयो~क्तू(ङ्क?)नां न कलावदङ्ककरणप्रह्वात्मनां जातुचित् । . अन्यत्राऽनुपलभ्यमेतदुपमादुःस्थे जगत्कोटरे, सादृश्यं स्तुवतां भवेत् तदनयोरन्योऽन्यमस्मादृशाम् ॥२९॥ दृष्टिस्ते पुरुषोत्तमप्रणयिनी प्रत्यक्षपद्मोपमा, बीजं नाऽजनि यन्मनोजनिजनेर्नाऽस्माकमित्यद्भुतम् ।। शस्ताशस्तसमस्तवस्तुविषयासक्तौ रजःसम्भवो, नैतस्यां हि समस्त्यपत्यजनने साधारणं कारणम् ॥३०॥ तीक्ष्णत्वं भृशमस्ति केतकदले तत्कण्टकैर्दूषितं, दर्भाग्रे च विराजते जगति तज्जातं कुजातत्वभृत् । तद्दीपानुगतं तनोति नितमां स्नेहस्य हानि हठात्, सुश्लाघ्यं श्रुतिसङ्गतिं बहु सृजत् त्वन्नेत्रयोस्तत्र किम् ॥३१॥ आकारं भवतो दृशोः पथि दृशोराधाय मेधाविनो, धातारं धुरि कीर्तनीयमसकृत् कुर्वन्ति मूढात्मनाम् । कालं कज्जलजालतोऽपि वहतोर्मालिन्यमन्तश्चिरं, यद् येन श्रुतिसंस्तवः समतया रम्योऽनयोः कारितः ॥३२॥ १. चेत् प्रतिपश्यतः - वि. । २. कथं निष्कथम् - वि. । ३. साम्यं नैव सदा प्रयान्ति पटवः कामं कुरङ्गा मृगा - वि. । For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६३ धातुर्यत् सृजतो दृशां दशशतीं शत्रोर्धरित्रीभृतामासीत् कौशलमुत्तमं तदधिकं द्वन्द्वं भवन्नेत्रयोः । यत् पश्यन् स्पृशति क्षमां न हि स तैस्तावत्प्रमाणैरपि, त्वं तु श्रेष्ठरसावहां स्पृशसि तां तद्युग्मवानप्यलम् ॥३३॥ नाऽथैरर्थिमनोरथद्रुमजलैर्न स्मेरदृग्भिः स्मराऽहङ्काराम्बुसरिद्भिरादरघनाकाशैश्च दासैनहि । नोद्यानैर्मदमीननीरनिलयैः सा मुत् समुत्पद्यते, कूर्मीनेत्रतुलास्पृशोस्तव दृशोर्या सत्क्षणैरीक्षणैः ॥३४॥ नानाशास्त्ररतिस्मृतिस्मितदृशः 'संसक्तिरक्तात्मनां, तातानां पुरतः प्रयाति पृथुतां यत् किंवदन्तीरसः । शीतांशोः शिशिरात्मनामिव तमःशत्रोरिवाऽचिष्मतां, तेषां पुण्यजुषां व्रजे मम कदा. भावी प्रवेशः शिशोः ॥३५। राज्यं निर्जरकुञ्जरव्रजवरं सङ्गं समग्रश्रियां, . सम्भोगाभ्यसनं सरोरुहदृशां वैदग्ध्यमुच्चस्तरम् । यत् पुण्यं प्रददाति तत् प्रतिपदं शिष्टैरनुष्ठीयते, नो कुत्राऽपि तदस्ति येन भगवत्स्वान्ते क्षणं स्थीयते ॥३६॥ शास्त्रार्थाश्चरमाम्बुराशिसलिलप्रस्पर्धिनः सन्ति ये, तेऽपि प्रीतिमति त्वदीयहृदये सातेन तिष्ठन्ति चेत् । स्वामिन्! काममणीयसोऽप्यणुकणादुल्लासिलीलालये, तत् तत्रैव मम स्थितिं विदधतः का ब्रूहि सङ्कीर्णता ॥३७॥ जातं पातकजातकश्मलमलं कामं मदीयं मनो, *नैर्मल्यं श्रुतसिद्धसिन्धुसदृशात् त्वत्तोऽभिकाङ्गद् ध्रुवम् । नित्यं नाथ! भवन्तमेव भजति च्छायाच्छलादच्छलं, नेत्थं चेत् कथमर्चितस्य जगता श्यामा तवाऽप्यस्ति सा ॥३८॥ १. संसिक्तरक्ता० - अं० । २. तेऽपि प्रीतिमतस्तवोरसि मिथः सातेन - वि. । ३. जातकज्जलजलश्यामं मदीयं - वि. । ४. पूर्णेन्दोरतिशायिनी विशदतां वाञ्छद् भवत्सन्निधेः - वि. । For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ तात! त्वं पुरुषोत्तमः पुनरिदं स्वान्तं मदीयं जलं, यत् स्थानं वितनोषि तत्र नितमां किं तत्र चित्रं महत् । 'दोष्मानिद्धविशुद्धबुद्धिकमलाक्रोडीकृतोरःस्थलो, यत् तत्रैव सना करोषि शयनं भूयोऽद्भुतं तद् भुवि ॥३९॥ सत्पक्षः शमिसङ्घमानसरतस्त्वं राजहंसः पुनः, पङ्कालीकलुषं जडं मम मनः संशीतिरत्राऽस्ति न ।.. शश्वत् स्वच्छरसप्रियोऽपि न हि तत्त्यागं विधत्से क्वचित्, मन्येऽस्यैव जगत्सु तत्सुभगता विश्वातिशायिन्यभूत् ॥४०॥ सूक्ष्मः सर्षपतोऽप्यतीव लघुरप्यर्कद्रुतूलादपि, श्रीतातैः स्मृतिवर्त्म कर्हिचिदहं नीतोऽस्मि मन्ये हृदि । नेत्थं चेत् कथमत्र मित्रमहसां मित्रप्रतापप्रथाश्रीश्चैषाऽद्भुतवस्तुविस्तरवती तद्धेतुरुज्जृम्भते ॥४१॥ श्रीलाभविजयप्राज्ञ-प्रतिभाशरदा भृशम् । कीर्तिकल्लोलिनी जीयात्, सुचिरं विमलीकृता ॥४२॥ नानाश्लेषोक्तियुक्तिप्रकरमकरभूभूरिभावाभिधायिस्फारालङ्कारकाव्यव्रजजलजयुता प्रौढपुण्यप्रवाहा । सिञ्चन्ती गोविलासैर्भुवनवनमिदं 'कीर्तिकल्लोलिनी'यं धामल्लीलामरालैर्भवतु सुगहना गाह्यमाना चिरश्रीः ॥४३॥ इति पं० हेमविजयगणिविरचिते श्रीकीर्तिकल्लोलिनी नाम्नि समस्तसुविहितावतंस-युगप्रधानश्रीविजयसेनसूरीश्वरवर्णने सौभाग्याधिकारः ॥ इति श्रीकीर्तिकल्लोलिनी सम्पूर्णा ॥ १. केलीहंस इव धुसद्गृहसरित्कूले नु कूलच्छदो - वि. । २. सद्वाग्लीलामरालावलिललितरसा भूरि० - वि. । ३. धामन्मीनैरदीनैर्भवतु - वि. । For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ अनुसन्धान-६३ 'नालिकेरसमाकारा:' इति वाक्यस्य चत्वारिंशदर्थाः ___ सं. मुनि सुयशचन्द्र-सुजसचन्द्र विजय संस्कृत-प्राकृत भाषाना बंधारणमां ओवी विशिष्टता छे के जेने लीधे ओ भाषामां लखायेला ओक ज वाक्यना के श्लोकना अनेक अर्थो करी शकाय छे. परन्तु माटे शब्दशास्त्रमा पारङ्गतता, विपुल शब्दभण्डोळ, कोशज्ञान, ते प्रकारनो अभ्यास, कल्पनाशक्ति, तर्कशक्ति, लोकव्यवहारनी जाणकारी, कविसमयोनुं ज्ञान - आ बधुं आवश्यक होय छे. अने अथी ज आवा प्रकारनी कृति विद्वानोने आदरजनक ने सामान्य लोकोमा चमत्कारजनक बने छे. प्रस्तुति कृतिमां 'नालिकेरसमाकाराः' ओ वाक्यना चालीस अर्थो करवामां आव्या छे. आम तो आ वाक्यनो 'नाळियेर जेवा स्वरूपवाळा' ओवो सादो अर्थ छे. पण कर्ताओ समासविग्रह अने ओकाक्षरीकोशनी करामतने कामे लगाडी आना अर्थोनी सङ्ख्याने ४० सुधी पहोंचाडी छे, जे आपणने आश्चर्य पमाडे छे. कृति, सम्पादन साहित्यमन्दिर-पालिताणानी अेक पानानी प्रतने आधारे करवामां आव्युं छे. प्रतमां अक्षरो घणा ज झांखा अने त्रुटक छे. छतां पण घणा ज परिश्रमे यथामति उकेलवानो प्रयास कर्यो छे. घणी जग्याओ त्रुटि रही ज छे, पण विद्वानो अनुं संमार्जन करशे तेवी आशाथी ज सम्पादन करवानो प्रयत्न कर्यो छे. प्रत आपवा माटे साहित्यमन्दिरना व्यवस्थापकोना अमे आभारी छीओ. प्रतमां के कृतिमां कर्तानो उल्लेख नथी. प्रतना अक्षरोना मरोड जोतां उपाध्याय श्रीयशोविजयजी भगवन्तना हस्ताक्षर होय ओवी छाप पडे छे. पण प्रतमा रहेली ढगलाबंध अशुद्धिओ अने उपाध्यायजी पासे अपेक्षा होय तेवी प्रौढतानो अभाव उपरोक्त आशङ्कानी विरुद्धमा जता मुद्दाओ छे. विद्वानो निर्णय करी शके ते माटे प्रतनो थोडो अंश Scan करीने मूक्यो छे. For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ .. रोन्यरत नारियलमानसाधनमा ॥daiभागकरमजाकाराभाारसगारा.नानियोजिsaman mum: प्राकारासरवारकामवामनानरममावामिनोकnianinदंगा धिमायाकारागायचान।मालिकारममाका सचिमामालि प्तिमाकोनगीनाशन३६मालकैरेसमापनीतारमण नापासकिंन नाकाराभानामपूरणमातियशामांकाराचा फार मधमाशमिनारतम्राकारासा:गाराप्यमालमारिएपकनिखानि सिनेरशमाफएनपिंधानापा-सिनामाभूपकिलोगन्तिरियलिने यतिसमागमनिभरकाnि(लन (रमरनियासमतोमरसमाकाग हासिमपा:पमाकारालमानिraamफोहतारिफमानास्पारा नामानिमिikhit imarsifiesमिसला लगनरपासनाचमाभयोवनोकामूथानमनशमेघावाने यत्रालौकारारिकेशमा:गमितरकालावपमाघमारविनगन arwमास्नफेराव तारिफो।निकितालमापाराप्रतिकारात maSURAIfफादयधमानिसहनालिकेशविनापाकालगण समीक्षा करायारणाय तामाकागानासानालिकायद्याताकदितनाः कामनायगा:शिकाका111मिमगमिश्रकपरपरार मायाकानाशानाम:महाराषमता अपनललादेमातरनारसोगंधानेवारतिकाविरns: रामाय.NERaiरावधानी बनासकाकार रामरत्नागममततारन , "माएRanRI:समानामहाविद्यगयेवरा लहसमरसमानाका यामागम्यममाकरारानयनमा जयरातमतमातातिसम्म नवविकोदताम्मदनारसमालत्माकासावरवेकिंगकाराम सायनरपतदिन्दनमशानावरमारसरगंधस्पाय नाकारासुरमरियागकैकारागारवासारंगाna मामाभनमारमनारमविलक्षामित्र किरन कानारामाकानपिउत्तवधि 2017प्रवकमनधि हजा.मातिबंकरापरलपरात्पयरविमतिमिनकरा करकासपकायााकारानामनिजाकतकरालंjाम: कारागाना-सारितामयम्वापरामायमापकाश1123 गजिनानापमानिरसहायम्मानगरकाराबनिहायालयानma निधनानिविपराहता किरदारनाका कारोवधायमारकतताला: 'नालिकेरसमाकाराः' वाक्यस्याऽर्थाः ॥ ऐं नमः ॥ नालिकेरसमाकाराः ॥ (१) हे नालिकेर! समा- सज्जनाः 'समं तुल्ये च साधौ च' [इति वचनात्], 'वर्त्तते'(न्ते) इति शेषः । किंभूताः? काराः, क:- प्रकाशः, तस्याऽऽर: प्राप्तिर्येषु ते काराः ॥१॥ (२) हे आलिके- हे सखि! रसमाः, रं- कामं शमन्तीति रसमा:- शमिनो(नः) काराः(रा) न । कराणां- दण्डानां समूहाः- काराः(रा) विद्यन्ते येषु ते काराः, एवंविधा न ॥२॥ For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६३ (४) (६) (३) हे नालिकेर! समाकाः, शममकन्ति- कुटिलं गच्छन्तीति समाकाः, 'अकि कुटिलगतौ' । किंभूताः? राः, राजन्ते इति राः ॥३॥ हे आलिके! रसमा वर्तते रसस्य- पानीयस्य मा- शोभा । किंभूता? कारा, कानां- मयूराणामारः प्राप्तिर्येषु ते कारा, न कारा अकाराः(रा), अकारा न ॥४॥ [हे आलिके!- हे सखि!] किंभूताः शमिनाः(नः)? रसमाकाराः, रसाः शृङ्गारादयः, मा- लक्ष्मी[:] स्वर्णहिरण्यरूपा, अकानि- दुःखानि, तेषामारः- प्राप्तिर्येषु ते रसमाकाराः । एवंविधा न ॥५॥ हे अलिक! ना- पुमान्, अर्थाज्जिनो वर्त्तते । ईरयति- प्रेरयति समानिसमस्तानि अकानि- दुःखानि अराणि- वैरिसमूहानि [च] आ- समन्ताद् योऽसौ ईरसमाकारा ॥६॥ (७) हे नालिकेर! समा:- समस्ताः(स्ता) अकारा:- सुलक्षणानि वर्त्तन्ते तीर्थङ्करे ॥७॥ (८) हे नारिके! --- रसोरा (रसमा) वर्त्तते । रसवत्- पानीयवत् निर्मला मा- शोभा वर्त्तते । किंभूता? कं- सुखं आ- समन्ताद् राति- ददाति [कारा], 'रा-ला आदाने' । (९) हे नालिकेर! समाः- सज्जनाः(ना) घनाश्रयो वर्त्तते । कः सूर्यः आ समन्ताद् रा- मेघो वर्त्तते यत्राऽसौ काराः ॥९॥ (१०) हे नालिकेर! समाः- शर्मिनः किंभूताः? काला:- श्यामाः, मलमलिन गात्रत्वात् । (११) हे नालिकेर! समाः समुद्राः वर्तन्ते । किंभूताः? क:- अग्निः, अर्थाद् वडवानलः, तस्याऽऽर:- प्राप्तिर्येषु ते काराः, 'को ब्रह्मा आत्मप्रकाशकार्क केलिवायुयमाग्निषु' । (१२) हे नालिकेर! किंभूता व्याकरणगणाः? समा(:) सर्वेऽकारादयो वर्णा येषु ते समाकाराः ॥१२॥ (१३) हे नालिकेर! समाः तटाकाः किंभूताः? कानां- पानीयानामार:- प्राप्तिर्येषु ते काराः ॥१३॥ For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ (१४) हे ना० [समा] किंभूता कर्मणां गतिः? "अकं पापे च दुःखे च' इति विश्वः । अकानां- पापानामार:- प्राप्तिर्यस्यां सा अकारा ॥१४॥ (१५) हे अरजिन! 'ते' इति अध्याहारः । ते- तवाऽलिके- ललाटे मा न वर्त्तते, अपि तु वर्त्तते । आ- समन्तात् "रसो गन्धरसे स्वादे, तिक्तादौ विषरागयोः । शृङ्गारादौ द्रवे वीर्ये, देहधातौ च पारदे" इति विश्वः । रसं- विषं मनातीति रसमः, एवंविध: आ- समन्तात् कः- प्रकाशो यस्य, तत्सम्बोधनम् - हे असमाकः ॥१५॥ (१६) हे ना [नालिकेर!] समा(:) किं०? राजानः काराः, कराणां- दण्डानां समूहा विद्यन्ते येषु ते काराः ॥१६॥ (१७) हे अलिक!- हे भ्रमर! इया- लक्ष्म्या राजते इति इरः, तस्य सं० - हे इर!, समाकारश्चाऽसौ अश्च- समाकारा स्वयम्भूः, न वर्त्ततेऽपि तु वर्त्तते ॥१७|| (१८) नस्य- ज्ञानस्याऽऽलिर्वर्त्तते यत्र, एवंविधो नालिकः, तस्मिन् नालिके, हे ईर! समा- लक्ष्मीर्वर्त्तते । किंभूता? कारा- सुखप्राप्तिर्यत्र सा ॥१८॥ (१९) नस्य- सुखस्याऽऽलिर्वर्त्तते यत्राऽसौ नालिः, तस्य सम्बोधनम् । के वायौ. रसस्य गन्धस्य मा- शोभा वर्त्तते, कारा- सुखप्राप्तिर्यत्र सा ॥१९॥ (२०) हे आलिके! कारा- गुप्तिगृहं वर्त्तते । किं०? रसानां- शृङ्गारादीनां मा यत्र सा रसमा, एवंविधा न ॥२०॥ (२१) हे आलिके! शमिनः किंभूताः? अरः- शीघ्रः शमरूपो आकारो येषु ते अरसमाकाराः । न, अपि तु भवन्ति, "अरः शीघेरचक्राण" इति विश्वः ॥२१॥ (२२) हे नालिकेर! समाः किंभूताः(ता) वर्षा:? "करो वर्षोपले पाणौ, शुण्डा प्रत्ययरश्मिषु" इति विश्वः । कराणां- करकाणां समूहो यासु ताः काराः ॥२२॥ (२३) हे नालिकेर! समाः किंभूता हस्तिनः? कराणां- शुण्डानां समूहाः(हा) येषु ते काराः ॥२३॥ For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ अनुसन्धान-६३ (२४) हे नालिकेर! समाः किंभूता(ताः) सूर्या:? कराणां- किरणानां समूहो येषु ते काराः ॥२४॥ (२५) हे नालिकेर! समाः(मा) किंभूता पद्मा? करसमूहो यस्यां सा कारा ॥२५॥ (२६) "कारो बन्धे निश्चये च, बले यत्ने यतावपि । बन्धने बन्धनागारे" इति विश्वः । हे नालिकेर! समाः(मा) किंभूता सूना? कारा, कारो- बन्धो यत्र सा ॥२६॥ (२७) हे नालिकेर! समाः किंभूताः(ता) मल्लाः?, कारो- बलं येषु ते काराः ॥२७॥ (२८) हे नालिकेर! समाः किंभूताः शात्रवाः? कारो- बन्धनं येषु ते काराः ॥२८॥ (२९) हे नालिकेर! समाः किंभूता चिन्तामणिः(चिन्ता?)? कारो- यत्नं वर्त्तते यत्र सा कारा ॥२९॥ (३०) "कालो मृत्यौ महाकाले, समये यमे कृष्णे (यम-कृष्णयोः)। [कृष्णनिवृत्तौ काला] तु, नीलीमञ्जिष्ठयोः (रपि)" इति विश्वः । हे नालिकेर ! समाः किंभूताः(ता) मानवाः? कालो- मृत्युर्येषु ते कालाः, रलयोरैक्यात् ॥२९॥ (३१) [हे नालिकेर! समा] किंभूता क्षेत्रभूमिः? काला- धूली वर्त्तते यस्यां सा काला ॥३०॥ (३२) हे नालिकेर! समाः । ..... काला- मञ्जिष्ठा ॥३१॥ (३३) "अ: शिवे केशवे वायौ, ब्रह्म-चन्द्राग्नि-भानुषु । ई रमा-मदिरा-मोहे, महानन्दे शिरोभ्रमे ॥ आः स्वयम्भूस्तथोक्ते स्या-दव्ययं कोप-पीडयोः । इ: कुत्सार्थे पिपासेऽपि, निषेधे नयनभ्रमे ॥" इत्येकाक्षरी ॥ किंभूता वे(वैष्णवः? हे आलिके! हे अरस! मायाः कारः- निश्चयो येषु ते माकाराः ॥३२॥ (३४) आ:- स्वयम्भूः शं- सुखम् आर । हे ना० हे का! ॥३३॥ (३५) हे आलिके! हे अरस! त्वयि आ:- कोपो न वर्त्तते, अपि तु वर्तते ॥३४॥ For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ ६९ (३६) हे आ. [आलिके! हे अरस!] त्वयि इ:- पीडा न, अपि त्वस्ति ॥३५॥ (३७) हे आ. [आलिके! हे अरस!] त्वयि इ:- कुत्सा न, अपि त्वस्ति ॥३६॥ (३८) हे आ. [आलिके! हे अरस!] त्वयि [इ.] पिपासा न, अपि [त्वस्ति] ॥३७॥ (३९) हे आ. [आलिके! हे अरस!] इ:- निषेधो न, अपि त्वस्ति ॥३८॥ (४०) हे आ. [आलिके! हे अरस!] त्वयि इ:- नयनभ्रमो न, अपि त्वस्ति ॥३९॥ For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० अनुसन्धान-६३ पं. श्रीगम्भीरविजयजीओ आपेलो हर्मन जेकोबीना पत्रनो उत्तर - सं. मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय श्रीआचाराङ्गसूत्रना द्वितीय श्रुतस्कन्धना पिण्डैषणा अध्ययनना दसमा उद्देशामां "से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सिया णं परो बहुअट्ठिएणं मंसेण वा मच्छेण वा उवनिमंतिज्जा...." ओ प्रमाणेनो सूत्रपाठ छे. आ सूत्रनो फक्त शब्दार्थ जोवा जईओ तो साधु-साध्वी प्राचीनकाले मांस-मत्स्य, पण भिक्षामां ग्रहण करता हता अवं फलित थई शके. आ शब्दार्थने पकडीने ज डो. हर्मन जेकोबीओ श्रीआचाराङ्गसूत्रना सम्पादन दरम्यान 'जैन ग्रन्थोमां पण मांसाहारनुं विधान छे' एवा मतलबना शोधपत्रो प्रकाशित कर्या. अलबत्त, आम करवामां जैनोनी लागणी दूभववानो तेमनो आशय नहोतो ज, संशोधनवृत्ति ज मुख्य हती; पण "अहिंसा परमो धर्मः"नुं सूत्र गळथूथीमां पीनारा जैनोनी लागणी साथे जोडायेलो आ जेटलो नाजुक मुद्दो हतो के स्वाभाविक रीते जैनसमाज आने लीधे खळभळी ऊठ्यो हतो. . ओक वात नक्की छे के श्रीआचाराङ्ग, श्रीव्याख्याप्रज्ञप्ति व. सूत्रोमां आवा पाठो आवे छे तेनाथी जैन श्रमणवर्ग कई अजाण न हतो. आ पाठो जैनधर्मनी विभावना साथे आपाततः सुसङ्गत नथी ओ तेमना लक्ष्यमा हतुं ज. अने छतांय आ पाठो तेओए अत्यार सुधी जाळवी राख्या, अनेकशः थयेली वाचनाओ वखते ते पाठोनी कमी करवी शक्य होवा छतां तेम न कर्य, ओ तेओनी तटस्थता अने प्रामाणिकतानो निःशङ्क पुरावो छे. छतां पण जो आपणे पाश्चात्त्य के आधुनिक विद्वानोने सत्यना पक्षपाती गणीओ अने जैन श्रमणोने साम्प्रदायिक मानस धरावता चीतरीओ तो तेमां आपणी ज तटस्थता जोखमाय छे. जैन परम्परा सैकाओथी आवा पाठोमां आवता 'मांस' अने 'मत्स्य' शब्दोनो अर्थ गुरुगमथी अनुक्रमे 'फलनो गर' अने 'वनस्पतिविशेष' करती आवी छे. आम करवामां तेने कोशो अने वैद्यकशास्त्रोनो टेको तो छ ज, पण ओनी साथे ने साथे जैन ग्रन्थोमां ज मांस-मत्स्यना ग्रहणनो साक्षात् के परोक्ष रीते निषेध करता अटला बधा पाठो छे के उपरोक्त पाठोमां 'मांस-मत्स्य' For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ ७१ शब्दोनो साक्षात् मांस-मत्स्यपरक अर्थ करीने तेनुं ग्रहण-भक्षण करवानुं विधान करवू शक्य ज नथी. आनी सामे आधुनिक विद्वानो आ पाठोथी 'जैन श्रमणश्रमणीओ मांसाहार करता हता' अQ सिद्ध थाय छे तेवो अकान्त सेवे छे. ___हर्मन जेकोबीओ आ शोधपत्रो प्रकाशित कर्या ते वि.सं. १९५४-५५ना अरसामा बन्ने पक्षो तरफथी सामसामां घणां चर्चापत्रो अने निवेदनो छपायां हतां. तो बन्ने पक्षो वच्चे परस्पर पत्रव्यवहार पण घणो थयो हतो. तेमांथी हर्मन जेकोबी पर लखायेला बे पत्रो १. पं. गम्भीरविजयजीनो २. मुनिश्री नेमिविजयजी अने आनन्दसागरजीओ लखेलो ‘परीहार्यमीमांसा' पत्र ३. परीहार्यमीमांसानो हर्मन जेकोबीओ आपेलो जवाब अने ४. तेनो उपरोक्त बे मुनिवरोओ आपेलो प्रत्युत्तर - आ ४ वस्तुओ अनुसन्धान-४१मां छपाई हती. तेना अनुसन्धानमां ज पं. गम्भीरविजयजीओ वि.सं. १९५६मां हर्मन जेकोबीना प्रत्युत्तरात्मक पत्रना प्रत्युत्तररूपे लखेलो पत्र अत्रे प्रकाशित थई रह्यो छे. ___मतभेद के विरोध दर्शावतो पत्र होवा छतां, अमां प्रयोजायेली सौम्य भाषा, हर्मन जेकोबीने मानपूर्वक करेलां सम्बोधनो, पोताना परम प्रीतिपात्र अवा नेमिविजयजी- पण अर्थघटन अयोग्य जणायुं त्यां तेने 'प्रामादिक' जणाववा सुधीनी दाखवेली तटस्थता, शास्त्रवचनोनो परमार्थ जाणवानी शक्ति - आ बधुं आपणने पं. श्रीगम्भीरविजयजी प्रत्ये बहुमान जगाडे तेम छे. 'श्रमणो मांसभक्षण करता हता' अवो आधुनिक विद्वानोनो एकान्त आग्रह अने 'मांस-मत्स्य, ग्रहण साधुजीवनमा सम्भवित नथी ज' अवी दृढ जैन परम्परा वच्चे तटस्थ रहीने पं. श्रीगम्भीरविजयजी जे स्पष्ट निराकरण आप्यु छे तें सर्वथा स्वीकार्य बने तेम छे. तेओए श्रीशीलाङ्काचार्य-विरचित श्रीआचाराङ्गसूत्रनी वृत्तिना आधारे अर्बु समाधान सूचव्युं छे के प्रस्तुत पाठमां आवता 'मांस-मत्स्य' व. शब्दो पोताना स्वाभाविक अर्थमां ज छे, ते शब्दोनो खेंचताण करीने वनस्पतिपरक अर्थ करवानी जरूर नथी. तेथी आ पाठोना आधारे जैन श्रमण-श्रमणीओ मांस-मत्स्यनुं ग्रहण करी शके ओम सिद्ध थाय ज छे. पण ओ ग्रहण कंई आधुनिक विद्वानो कहे छे तेम आहारार्थे नथी होतुं. केम के मे पदार्थोनुं भक्षण निषिद्ध छे. पण 'लूता' (-ओक जातनो भयङ्कर त्वचानो रोग) जेवी महा आपत्तिओमां ज्यारे बीजो कोई ज उपाय न बचे अने For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ अनुसन्धान-६३ जीवन टकावी राखवामां वधु लाभ देखातो होय तेवा समये कुशल वैद्यना निर्देशानुसार बाह्य त्वचा पर लेपन करवा पूरतो तेनो उपयोग सप्रायश्चित्त अनुमत छे. ग्रहण आपवादिक छे अने कादाचित्क छे तेमज भक्षणनी जेम निःशूक परिणामथी नथी थतं, पण हृदयना साचा पश्चात्ताप साथे न छूटके करवू पडे छे. अने से वखते कई विधि साचववी ते निदर्शन ज श्रीआचाराङ्गना प्रस्तुत सूत्रमा छे. आ सूत्रथी मांस-मत्स्यनुं बाह्य परिभोग माटे ग्रहण सिद्ध करी शकाय, पण तेनुं भक्षण तो कदापि सिद्ध थतुं नथी. स्वाभाविक रीते आ समाधान तटस्थ छे, बुद्धिगम्य छे, शास्त्राधारित छे अने उभय पक्षोने स्वीकार्य बने तेम छे. आ पत्र द्वारा मे समाधान सौ पामे तेवी आशाथी ज आ पत्र प्रकाशित थई रह्यो छे. ॐ नमः ॥ ४ अज्ञानध्वान्तध्वंसनांशुमालिनं श्रीमत्परमात्मानं स्मृतिपूर्वाचलशिखरमानये । सम्प्रति भावनगरबन्दरे सञ्जातवसतिपंन्यासगम्भीरविजयगणिस्वानुभवमन्थाचलमथितशास्त्रसारांशक्षीरनीरधिसमुद्भूतपत्रशीतरश्मिः श्रीमद्याकोबि-विबुधवरहद्देशजलधिबोधवेलावृद्धि वितनोतुतराम् । __ अथाऽग्रे किञ्चिन्निवेदनं क्रियते तच्छीमतां सम्भावितदृग्लक्ष्ये समानेतुं योग्यमस्तीति । तच्चैवं - यो भवद्भिः स्वविरचिताचाराङ्गसूत्रस्याऽनुवादे मांसमत्स्यभक्षणार्थोऽभिहितः, तत्र च प्रथममस्माभिर्गुर्जरभाषया श्रीमतां समाधानं दत्तमस्ति । तथाऽन्यैरपि च । तदनु मुनिनेमविजयेनाऽपि गीर्वाणपदैर्दत्तम् । परन्तु तदर्थेऽद्यापि श्रीमतां मनोऽसमाहितमिव लक्ष्यते । तन्न समीचीनम् । यतो मुनिनेमविजयदत्तपरिहार्यमीमांसापत्रप्रत्युत्तरे श्रीमद्भिः पुनरुदाहृतं यथेदानीन्तनानां जनानां मांसभक्षणं निषिद्धं न तथा सर्वदाऽऽसीदिति । तन्न साधु । यतो जैनशास्त्रे नामग्राहं तद्भक्षणं कुत्रापि न दृश्यते । यथा धर्मोद्यतेनाऽमुकसाधुना श्राद्धेन वाऽमुकक्षेत्रेऽमुकप्रस्तावे भक्षितमस्तीति । यदि श्रीमद्भिः कुत्रापि दृष्टं भवेत् तदा नामग्राहं निवेदनीयम् । यच्चोग्रसेनादीनां तीर्थङ्करसम्बन्धित्वेनाऽऽर्हतत्वं भवद्भिरनुमितं तदर्हता For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ ७३ वृत्तापरिज्ञानाद् । यद् गार्हस्थ्ये वर्तमाना अर्हन्तो न किञ्चिद् धर्मादिकं कस्मैचिदुपदिशन्ति, तेषां तथाकल्पत्वात् । सुप्रतीतमेतज्जिनागमे । तथा समवसृतावपि जिनदेशनाश्रवणात् केषाञ्चिदेव श्राद्धत्वं जायते, न सर्वेषां, प्रबलमोहोदयपारतन्त्र्यात् । तर्हि तेषां तु सम्बन्धिमात्रत्वेन कथं नाम श्राद्धत्वं संपद्येतेति दिक् । यच्च किन्त्वित्यादिना जैनमुनिसमाचारस्याऽनेकभावाश्रयत्वं श्रीमद्भिवितर्कितं तद् विहितोत्तरमि(मे)व, तथापि किञ्चिदभिधीयते । यथाऽधुनातनजैनसाधूनां कनककामिनीहिंसारम्भवर्जने विहारावश्यकभैक्ष्यशुद्धौ शास्त्रदृष्ट्या पूर्वमुनिभिस्सह भेदो न दृश्यते तद्वत् पानभोजनेऽपि स न सम्भावयितुं योग्यः, न्यायस्य सर्वत्र समानत्वात् साध्यैक्याच्च । सर्वेषां प्रवृत्तेराश्रयो मोक्षः । किञ्चैतयोः पूर्वापरकालीनमुनिवृन्दयोः अन्यस्मिन् सर्वस्मिन् कनककामिन्यादित्यागविहारावश्यकादिक्रियाकलापव्यवहारे समत्वं शास्त्रदृष्ट्या आवयोः सिध्यति तर्हि केवलं पानभोजनविषये तयोः वैरूप्यकल्पनमिति कौतस्कुती नीतिः ? एवं च यत्र शास्त्रे पलाण्ड्वादिना संस्कृतभोजनग्रहणेऽपि प्रायश्चित्तमुक्तमस्ति, तत्र पिशितभक्षणस्य वार्ताऽपि क्व संभाव्येतेति ? ___ यच्चोक्तं - "एवं समाचारस्याऽन्यथाभावमापद्यमानत्वदर्शनात् कदाचित् कस्मिश्चित् पूर्वसमये मांसभक्षणं नाऽत्यन्तं निषिद्धमासीदित्यविरुद्धा कल्पने''ति । तत्र प्रायेण पूर्वोक्तसार्वकालीनसाध्वाचारैकतैव समाधिः । केवलं श्रीमद्भिः सहाऽस्माकं मांसभक्षणपदविषयैव विप्रतिपत्तिरस्ति । तद्विषयेऽग्रे वक्ष्यामः । मांसस्य भक्षणे त्वत्यन्तनिषेधो जिनागमेऽस्त्येव, परं कथञ्चित् कदाचिद् बहिः परिभोगार्थे स्वीकरणमुक्तमस्तीति । __यच्च प्रोक्तं - "किञ्च मांस-मत्स्यशब्दयो'रित्यादितः प्रारभ्य 'काव्यविषये बाहुल्येन दर्शनान्न तु जिनागमे' इत्यन्तं सम्बन्धः श्रीमद्भिः प्रोक्तोऽस्ति, तत् सत्यमेव । यत्तु तत्र विषये मुनिनेमविजयेन यद् हेमकोश-सम्मत्या प्रकृतसूत्रस्थ-मत्स्यशब्दस्य वनस्पतिविशेषावगमो निरणायि, तत् प्रामादिकमेवाऽवगच्छामः । कुतो महागम्भीराशयैः कण्ठगतप्राणैरपि नाऽन्यथाभिधायिभिः प्रकृतसूत्रवृत्तिकृद्भिः पूज्यश्रीशीलाङ्काचार्यैर्मत्स्यशब्दस्य वनस्पतित्वेनाऽव्याख्यातत्वादिति । यच्च भुजिरत्र बाह्यपरिभोगार्थे नाऽभ्यवहारार्थे वर्तते इत्येतद्विषये यद् For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ अनुसन्धान-६३ विद्वद्वर्यैर्भवद्भिर्भुजिधातोरभ्यवहारार्थत्वं स्वीक्रियते, आचाराङ्गसूत्रस्थदशमोद्देशके हि प्रकरणवशाद् भोजनपानविधिप्रतिषेधयोः प्रस्तुतत्वात् चिकित्सादेरनुपयोगाच्चैतदसमीचीनं कुतश्चिच्चिकित्सादेः प्रस्तुतत्वं परित्यज्य भोजनपानविधिनिषेधयोरेव प्रस्तुतत्वाङ्गीकारे मानाभावात् तत् प्राज्ञपञ्चाननानां कीर्तिकाननं नवपल्लवनं करोति ? यतोऽधिकृतसूत्रस्य सर्वकालविषयत्वेन चिकित्सादेरपि प्रस्तुतत्वं न विवादास्पदं, सर्वस्मिन् काले सर्वमुनिसमुदाये किं सा न सम्भवति ? । यत: पृथक् चिकित्साप्रकरणं तु सूत्रे नोपलभ्यते तदानीन्तनमुनयोऽपि भोजनपानविधिनिषेधानुसारेण औषधादिगवेषणं कुर्वन्ति तद्वत् पूर्वमुनिव्यवहारोऽप्यनुमेयो भवद्भिरिति चिकित्साऽपि प्रस्तुतैव । न चैतत् स्वमनीषया प्रोच्यते, किन्तु दशमोद्देशके विवादास्पदीभूतसूत्रस्याऽऽदौ सूत्रकारेण स्यात्-पदस्योपस्थापितत्वाद् वृत्तिकृताऽपि तथैव व्याख्यातत्वाच्च बाह्यपरिभोगार्थोऽपि युज्यते । तथाहि सूत्रम् - "सिया णं परो बहुअट्ठिएणं० ति"। ___अस्याऽर्थः - स्यात्- कथञ्चित् कदाचित् कुत्रचिदित्यर्थः । इत्यनेन महत्काल-व्यवधानादिकं विदुषां सुलभम् । अस्य वृत्तिस्त्वेवम् - "एवं मांससूत्रमपि नेयम् । अस्य चोपादानं क्वचिल्लूताद्युपशमनार्थं सद्वैद्योपदेशेन बाह्यपरिभोगेण स्वेदादिना ज्ञानाद्युपकारकत्वात् फ्लवद् दृष्टं भुजिश्चाऽत्र बहिःपरिभोगार्थे, नाऽभ्यवहारार्थे पदातिभोगवदिति ।" ___ तावत् साभिप्रायस्य वृत्तौ प्रोक्तस्य पदातिभोगरूपदृष्टान्तस्य स्पष्टीकरणमभिधीयते - पदाति:- सेवकः, सोऽपि मोदकादिवद् भोगशब्दवाच्योऽस्ति । यदुक्त-मनेकार्थसङ्ग्रहहेमकोशे - "भोगस्तु राज्ये वेश्याभृतौ सुखे धनेऽहिकायफणयोः पालनाभ्यवहारयोः ।" (काण्ड-२, श्लोक ५५-५६) यथा च भोगार्थमारूढे पदातिपदेऽभ्यवहारार्थः सर्वत्र परित्यज्यते, तथैव जिनागमे पानभोजनसाहचर्यादागते मांसादिविषयकभोगेऽप्यभ्यवहारार्थः सर्वत्र परित्यज्यते इत्येषा जैनशैली । एवं चैताभिः पूर्वोक्ताभिर्वृत्तिपङ्क्तिभिायनिकषणनैपुण्यभाजि श्रीमच्चेतसि मांसग्रहणे कादाचित्कत्वस्य प्रभूततमकालान्तरेऽपि निष्कारणानुपादानत्वस्य स्वीकारेऽपि बहिःपरिभोग्यत्वस्य चिकित्साप्रकरणानुविद्धपानभोजनविधिप्रतिषेध For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ ७५ प्रकरणत्वस्य मुनिसमाचारे सर्वदैकरूपत्वस्य च वैशद्यं सम्पत्स्यते । किञ्चैषा वृत्तिर्वैक्रमीयसंवत्सरेषु द्विसप्तत्युत्तरचतुःशतेषु समतिक्रान्तेषु पूर्वोक्ताभिधानैस्तदाकालीनसर्वजैनवर्गोपरिवर्तिभिर्निरीहधीधनैः कृता, तस्मादेषा प्राचीना सर्वजनसम्मान्या चाऽस्ति । अपि च भूतपूर्वैः सिद्धान्तपाथोधिपारीणैरधउदाहृतैः सूरिभिरपि सबहुमानमुररीकृताऽस्तीति । श्रीमल्लवादि-श्रीधनेश्वरसूरि-श्रीदेवर्द्धिगणिश्रीजिनभद्रगणि-श्रीकक्कसूरि-श्रीहरिभद्रसूरि १४४४ ग्रन्थकारः-श्रीकोट्याचार्यश्रीप्रद्युम्नसूरि-तच्छिष्यश्रीअभयदेवसूरि-सम्मतिवृत्तिकार-श्रीधर्मसेनमहत्तरश्रीजिनसेनमहत्तर-श्रीनेमिचन्द्रसूरि-श्रीआम्रदेवसूरि-श्रीमानतुङ्गसूरि-श्रीमानदेवसूरिश्रीसर्वदेवसूरि-श्रीवर्धमानसूरि-श्रीसिद्धसेनसूरि-तच्छिष्य श्रीहरिभद्रसूरिश्रीयशोदेवसूरि-श्रीजिनेश्वरसूरि-तच्छिष्यश्रीअभयदेवसूरिनवाङ्गवृत्तिकार-श्रीरत्न प्रभाचार्य-श्रीजगच्चन्द्रसूरि-तच्छिष्यश्रीदेवेन्द्रसूरिकर्मग्रन्थकार-श्रीमलयगिरिसूरिश्रीदेवगुप्तसूरि-श्रीसिद्धर्षिगणि-उपमितिभवप्रपञ्चकर्ता-श्रीशीलगुणसूरिवनराजचावडा- गुरु-श्रीकलिकालसर्वज्ञहेमचन्द्राचार्य-कुमारपालराजगुरु इत्यादि । तथा तैश्चान्द्रगुप्ति(सी)यसंवत्सरेषु द्विसप्तत्युत्तरसप्तसु शतेषु व्यतिक्रान्तेषु प्रकृतसूत्रप्रथमश्रुतस्कन्धवृत्तिः समाप्ति नीताऽस्ति । श्रीवीरनिर्वाणात् सप्तत्युत्तरशतेषु वर्षेष्वतिक्रान्तेषु चन्द्रगुप्तराज्यं बभूव । ततोऽपि त्रिषु शतेषु वर्षेष्वतिक्रान्तेषु विक्रमराज्यमिति चतुरशीत्युत्तरचतुर्दशशतान्यस्या बभूवुः ।* __ यच्च भवद्भिः पृच्छ्यते - "मांसभोजनस्य बाह्यपरिभोगतया कल्पने श्रीमन्तौ प्रष्टव्यौ - ‘बाह्यपरिभोगेन मांसस्य परव्यापादितपिशितभक्षण इव * नोंध : गुप्तसंवत्सरने सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य साथे नहि, पण गप्तवंश साथे सम्बन्ध छे. आ संवत् विक्रमनी बीजी सदी लगभग शरू थयो ओवो विद्वानोनो मत छे. आ हिसाबे शीलाङ्काचार्ये गुप्त संवत् ७७२ अटले विक्रमनी १०मी सदी लगभग आचाराङ्ग-प्रथम श्रुतस्कन्धनी टीका रची छे. आचाराङ्गवृत्तिनी अमुक प्रतिओमां मळतो ७८४ शकसंवत् (वि.सं. ९१८)नो रचनावर्ष तरीके निर्देश तेमज सूत्रकृताङ्गटीकामां शीलाङ्काचार्ये करेलु केवलिभुक्ति प्रकरणमांथी(-कर्ता - शाकटायन, विक्रमनी नवमी सदी उत्तरार्ध) उद्धरण पण उपरोक्त हकीकतने पुष्ट करे छे. तेथी आ पत्र लखवाना वर्ष वि.सं. १९५६मां आ टीका रचायाने १४८४ नहि, पण लगभग बजार वर्ष व्यतीत थयां गणाय. For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ अनुसन्धान- ६३ प्रयोक्तुर्जीवहिंसा भवति न वेति ?' अस्ति चेत् प्रयोक्तुः कर्मबन्धप्रसङ्गात् सूत्रस्थितविधेर्दोषत्वं दुष्परिहरणीयम् । अथ नाऽस्ति, आन्तरप्रयोगेऽपि सा न यथा भवती 'ति । अत्रोच्यते बहिः परिभोगमपि यद्यविचारपूर्वकं कुर्यात् तदा श्रीमदुक्तवद् हिंसादोषो भवत्येव । यस्तु रुजाऽऽर्तो मुनिर्वक्ष्यमाणप्रकारेण सम्यगालोचयेत् ‘‘ग्रन्थज्ञानावधारणे समर्था मे मतिः, लघुवयाश्चाऽहं तपःसंयमक्रियाभरं वोढुं समर्थो मे देहः, कुशलवैद्योपदिष्टश्चाऽयं रुक्छान्त्युपायः सम्भवति चोत्तरकाले मे ज्ञानाद्युपकारः, अत: सेवेय, तदनन्तरं गुरुदत्तप्रायश्चित्तमासेव्य शुद्धः स्या' ' मित्येवमालोच्याऽप्यासेवमानस्य किञ्चिद् दूषणं जायते; तथापि तन्निवृत्त्यभिमुखस्य पुनः कारुण्यपूरप्लावितहृदयत्वेन गुरूपदिष्टप्रायश्चित्तविधिना दोषफले प्रतिहते प्रत्युतोत्तरकाले ज्ञानादिवृद्धिर्भवितुमर्हतीति । नचैवं कृते काचित् सूत्रस्थविधेर्बाधा स्यात् पूर्वोक्तरीत्या सम्यगालोचनपूर्वकस्वीकारेण पिशितस्याऽनुपादानपरिणामित्वात् । अत एव पूज्यश्रीभिर्वृत्तौ पठितं यथा "ज्ञानाद्युपकारकत्वात् फलवद् दृष्ट' 'मिति । यदि चाऽस्य निष्कारणं सनातनीयो ग्रहणविधिर्जिनागमे भवेत् तदा ते नैवं वदेयुः । *[औचित्य ] प्रतिपालिनीं श्रीमतां परिणतिं विज्ञाय हर्षप्रकर्षं भजामः । औचित्यपालनमेव सौजन्यजीवनमिति । परन्तु तथाकथितेऽपि सूत्राभिप्रायबाधस्तु तदवस्थ एव । तत्तु नीत्युल्लङ्घनबीजम् । अतस्तन्निवृत्यै श्रीमद्भिर्द्वितीयावृत्ती स्वकृतानुवादे पिशितभक्षणपदं निष्कास्य बहिः परिभोगार्थः समर्थनीय इति। अन्यच्च द्वितीयावृत्तिप्रकाशनेऽद्यापि विलम्बो भविष्यतीति तदर्थं यदि सम्प्रति कश्चिच्छ्रीमतां सम्बन्धि चतुष्पत्रकादिप्रकाशनं स्यात् तदा तस्मिन्नपि विवक्षितसूचना कार्या इत्येवंरूपाऽस्मद्याचितशीघ्रसमर्पणतः श्रीमतां यशःश्रीपाणिग्रहणोत्सव भरप्रसरोऽनिवारितोऽस्तु ॥ * * अत्र काचन पाठच्युति: संभाव्यते । For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी २०१४ श्री अमर विजयविरचित श्री श्रेयांसनाथस्तवन सं. सा. ज्योतिर्मित्राश्री सुवीर सोनीओ सं. १७०६मां खम्भातमां श्रीविजयराजसूरिना हाथे श्री श्रेयांसनाथनी प्रतिष्ठा करावी, ते प्रसंगने अनुलक्षीने सं. १७१४मां आ स्तवन रचायुं छे. स्तवनना प्रारम्भे श्रीश्रेयांसनाथनुं जीवनचरित्र वर्णव्युं छे. त्यारबाद पूजाविधिनी सामान्य नोंध मूकीने प्रतिष्ठाप्रसङ्ग विशे वात करवामां आवी छे. प्रतिष्ठामां सहाय करनारा राघवजी, पासवीर अने मनजी श्रावकोनो पण उल्लेख थयो छे. अन्तमां प्रभुनी स्तुति करीने काव्य पूरुं कर्तुं छे. भाग १, काव्यना कर्ता श्रीअमरविजयजी विशे गुजराती साहित्यकोश पृष्ठ ११मां नीचे मुजब नोंध छे : "तपगच्छना जैन साधु विजयाणन्दसूरिविजयराजसूरिना शिष्य. श्रेयांसजिनस्तवन (र. ई. १६५८) अने पार्श्वनाथस्तुतिना कर्ता." आ विजयाणन्दसूरि ‘आणसूरगच्छ' ना प्रधानपुरुष हता. जैन परम्परानो इतिहास भाग ४ (सं. - त्रिपुटी) मां तेंमना विशे घणी माहिती सांपडे छे. प्रस्तुत काव्यनुं सम्पादन नेमिविज्ञानकस्तूरसूरि - ज्ञानमन्दिर, प्रत नं. ४०९६ना आधारे करवामां आव्युं छे. प्रतनी छायाकृति आपवा बदल ज्ञानमन्दिरना कार्यवाहकोना अमे आभारी छीओ. ॥ ६० ॥ दूहा || ७७ पूज्य आचार्य श्रीविजयशीलचन्द्रसूरिजी महाराजना मार्गदर्शनथी ज आ काव्यनुं सम्पादन शक्य बन्युं छे. कृतिमां जोडणी यथावत् जाळवी छे. श्रेयांसनाथस्तवन सकल जिणेसर चित्त धरी, सिर वहुं तेहनी आण । नरनारि जे नित्य नमई, तेह घरि कोडि कल्याण ॥१॥ पास संखेसर पाय नमु, दोलति दायक देव । कलिकालिं आज जागतो, सारइं सुर नर सेव ॥२॥ For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ सरसति भगवति भारति, प्रणमुं ताहरा पाय । श्री श्रेयांस जिन गावतां, वांणी द्यइ मुझ माय ||३|| ॥ ढाल ॥ श्रीसंखेसर पाए नमी रे, समरी सदगुरू पाय । श्री श्रेयांस इग्यारमउ रे, थुणता ऊलट थाय ॥१॥ माहरा जिनजी साचउ देव दयाल | आंचली० जंबुदीपमां दीपतुं रे, दाहिण भरत मझारि । सीहपुर नयर सोहामणुं रे, सरग सरिखुं धारि ॥२॥ माहरा ० विष्णु राय तिहां राजिउं रे, प्रबल प्रतापी भूप । तस घरणी विष्णुं सतीं रे, सुंदर सोहिं रूप ||३|| माहरा ० सयन भवन सेज्या भली रे, तिहां पोढ्यां विष्णु नारि । सरग बारमाथी चवी रे, अवतर्यो उदर मझारि ||४|| मारा० कांइ सूती कांइ जागती रे, इषद निद्रा एह | चऊद सपन पूरां लह्यां रे, पीउ नामथी कहुं तेह ||५|| माहरा ० उचो हस्ती ऊजलो रे, बिजिं वृषभ उदार । अनुसन्धान- ६३ त्रीजइं सीह सांभलो रे, चोथई लख्यमी सार ||६|| माहरा० फूलमाला छइ फूलरी रे, छठई निरमल चंद | दिनकर सातमइ दीपतो रे, आठमई धज आनंद ||७|| माहरा० कनक कलस नुंमइ भलो रे, दसमइ पदमसर एह । समुद्र इग्यारमइं सोभतो रे, विमान बारमई गुणगेह ॥८॥ माहरा० रतनरेऊ भलो तेरमइं रे, चऊदमहं अगनि निरधूम | सपन चऊदई ए सही रे, मइ दीठां अनुक्रमिं इम ॥९॥ माहरा० जिन कई चक्री हसई भलो रे, सपनतणि परमाणि । राणी हरख्यां हइंयणुं रे, सांभलि भूपति वांणि ॥१०॥ माहरा० राई सपनवी तेडाविया रे, आव्या जोडि हाथ । आगतिसागति करी घणी रे, पछइ प्रथवीनाथ ॥ ११ ॥ माहरा ० इषद निद्राई राणीइं रे, सपन दीठां श्रीकार । चऊद सपन सोहांमणां रे, फल कहो एहनुं सार ||१२|| माहरा ० सामुद्रीसारित्र करी रे, मनस्युं कीधउं विचार । For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ ७९ त्रीलोकीसुत हसइ भलो रे, सयल लोक सुखकार ||१३|| माहरा० सपनना भाव सांभली रे, भूपति हरख अपार । दान दीइं तिहा नरपती रे, कहतां नावई पार ॥१४|| माहरा० भोजन दीधां भावतां रे, पहिरामणि भरपूर । सपनवी निज घरे गया रे, राय उठाव्यु नूर ।।१५।। माहरा० हलूइं बोलती चालती रे, न करि कोपसंयोग । गरभ पोषण सुखि करिं रे, उज्झउनालि भोग ।।१६।। माहरी० नव मास दिन छ आगला रे, श्रवणि चंदचार ।। फागुण वदि बारसि दिने रे, प्रभु जनम्यो जगदाधार ॥१७|| माहरा० जनमोछव करवा भणी रे, आवी छपन कुमारि । सूतिकरम सुपरिं करी रे, पोहती निज निज वारि ॥१८॥ माहरा० जनमाभिषेक इंद्र करी रे, वलीआ हरख धरंत । अठाई महोछव नंदीसरि रे, जई तिहां देव करंत ॥१९॥ माहरा० ॥ ढालपद ।। मरघराय वीतसोका पुरी राजिउं रे ॥ ए देसी ॥ प्रभु परतापि जनम थयो सुर . जांणी करी रे, लाव्या बहूलां धन्न । कुंकम हाथा ओछव महोछव अतिघणा रे, रिझ्यां सहूना मन्न ॥१॥ श्रेयांस सुखकरू रे । आंचली राई बंदीखानुं दाण कर मुंकावीया रे, वधरावई माप निं तोल । मणिमुगतादिक सोवन रुपां दीइं घणा रे. __ नगरमांहिं रंगरोल ॥२॥ श्रे० ॥ दस दिवस तांई थितवड सघली साचवई रे, खरचइ बहूला दाम । दिवस इग्यारमई असूचि सघलू परहरी रे, दीधु श्रेयांस नाम ॥३॥ श्रे० ॥ For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० जिम वाइं सितपखि द्वितीया केरो चंदलो रे, तिम वाधइं जिननुं अंग । त्रणि ज्ञानी अरिहंत आस्या पूरण पूरसई रे, देखी ऊपजई रंग ॥४॥ ० ॥ प्रभु मस्तक दीसइं टोपीउ हीरे जड़ी रे, पहरी आंगी अमूल । कटि कमरबंध कनकमय पल्लव दीपता रे, पहिर्यां आभरण बहुमूल ॥५॥ ० ॥ अनुकरमिं वाध्यो सार योवन प्रभु पांमीओ रे, कमला लाव्यो सार । राजमणी भोगवतां लोकांतिक इम कहिं रे, प्रभु लिओ संयमभार ||६|| ० || त्रणिसई कोडि अठ्यासी अयसी लाख वली रे, वरसीदान दातार । फागुण वदि तेरसि दिन दिख्या आदरी रे, सहस पुरुषस्युं सार ॥७॥ ० ॥ || ढाल ॥ दिख्या छठ तप पारणुं रे लाल, नंदराय घरि थाय मेरे प्यारे रे । पंचदिव्य देविं तिहां रे लाल, सोवनवृष्टि सोहामणी रे लाल, कर्यां ते कहवाय मेरे प्यारे रे ॥१॥ तुं जिन साचो साहिबो रे लाल || आंचली ॥ अनुसन्धान-६३ कोडि सांढि बार मेरे प्यारे रे । विविध वस्त्र बीजइं भलां रे लाल, देव करई अंबार मेरे प्यारे रे ॥२॥ तुं जिन० ॥ त्रीजइ देवदुंदुभि रे लाल, सरगी सखरी वाय मेरे प्यारे रे । For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ ८१ सूगंध पाणी फूलनी रे लाल, चोथई वृष्टि थाय मेरे प्यारे रे ॥३॥ तुं जिन० ॥ 'अहोदानमहोदान'नो रे लाल, पांचमइ सबद होय मेरे प्यारे रे । जिहां जिननि होय पारणुं रे लाल, __ तिहां जाणेवां सोय मेरे प्यारे रे ॥४॥ तुं जिन०॥ विहार करइं प्रभु महितलिं रे लाल, विचरिं गामोंगामि मेरे प्यारे रे । छदमस्तपणुं बई मासणुं(y) रे लाल, केवल पांम्या त्रिभोवन सांमि मेरे प्यारे रे ॥५॥ तुं जिन०॥ त्रिगड बइसी दिय देशना रे लाल, तिहां मली परषद बार मेरे प्यारे रे । गणधर छोत्यरि थापिया रे लाल, संघ थाप्यो हुओ जयकार मेरे प्यारे रे ॥६॥ तुं जिन० ॥ भव्यजीवनइं प्रतिबोधता रे लाल, आव्या समेतसिखरि जिनभाण मेरे प्यारे रे । मासखपक(ण)नी संलेसणा रे लाल, पद पांम्या तिहां निरवांण मेरे प्यारे रे ॥७॥ तुं जिन०॥ भिडि भांजई प्रभु भेटिउं रे लाल, साहिब सेव्यो दीइं सुख सार मेरे प्यारे रे । प्रभु पूज्यो पूरण फल दीय रे लाल, ___ एहवो सास्त्र विचार मेरे प्यारे रे ॥८॥ तुं जिन० ॥ ॥ ढाल ॥ पूजो पूजो रे श्रेयांसजिन नजरिं निहाली । __ पहिला निज काया पखाली रे, पछइं साहिबनु अंग पखालो, वालाकुची कीजई कर वाली रे ॥१॥ पूजो पूजो रे श्रेयांसजिन नजरिं निहाली ॥ आंचली ॥ For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६३ सखड ओरसीओ सते(?) धोई । तिहां [सू] कडि केसर मिश्रीइं रे । सोवन कचोलिं केसर घोली, भगवंत पूजी सिवपूर वसीई रे ॥२॥ पूजो पू० ॥ प्रभु नवे अंगे कुसुमइं पूजी, कंठि ठवो पुप्फमाल रे । सुगंध कृष्णागर सखरो उखेवो, दीसई दीठा झाकझमाल रे ॥३॥ पूजो पू० ॥ प्रभु मस्तक मुगट हीरे जडीउं, कांने कुंडल सखरां सोहिं रे । बाजुबंधनई बहरखा हाथे, सोवन आंगी देखी सहू मोहि रे ॥४॥ पूजो पू० ॥ चंपकली कोटि प्रभुनई, वली सोहिं नवसर हार रे । श्रीवटनी सोभा अधिकेरी, _ निरखउं छई बहिं नजरि सार रे ॥५॥ पूजो पू० ॥ सुवीर सोनी पुरुष अनोपम, इम थांनिक धन वावई रे । श्रीविजयराजसूरीसर हाथे, बिंब प्रतिष्ठा करावई रे ॥६॥ पूजो पू० ॥ बुधिनिधांन सां राघवजीइं, . . . प्रतिष्ठा विधि सचवावी रे । संवत सत्तर छउत्तर वरसे, जेठ वदि दसमी आवी रे ॥७॥ पूजो पू० ॥ रयणासरमां श्रेयांस प्रतिष्ठा, वार भलो गुरुवार रे । थंभनयरमां प्रभु पधराव्या, . वरत्यो जयजयकार रे ॥८॥ पूजो पू० ॥ For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ ८३ पासवीर मनजी चतुर सुजांणइं, बिंबप्रवेसिं महोछव कीधो रे । संघ पहिरामणि सामीवाछल्य ।। धन खरची जस बहू लीधो रे ॥९॥ पूजो पू० ॥ जननी बढाइ केरो कुअरीओ, पुण्यवंत एह प्राणी रे । .. जिननी भगति करइ भलेरी, वलि मीठी बोलिं वाणी रे ॥१०॥ पूजो पू० ॥ पासवीर सोनीनी भारया, पीउनी दीसई भगति रे । बिंबप्रतिष्ठाइं पहरी माल, श्राविका जीवई बहु युगति रे ॥११॥ पूजो पू० ॥ जगबंधव जगतारण मलिओ, फलीओ मनोरथ माहरो रे । सोमचिंतामणि पासइ बइठा, भविजन जइं जुहारो रे ॥१२॥ पूजो पू० ॥ ॥ ढाल - राग धन्यासी ॥ तारि रे तारि रे तारि प्रभु माहरा, तुज दरसन देखी श्रीसंघ मोहिं । एकमना प्रभु ओलगो भावस्युं, धनुष अयसी- सरीर सोहिं ॥१॥ तारि रे तारि रे तारि प्रभु माहरा ॥ आंचली ॥ पूरवपुण्यि मइं भगवंत भेटिओ, तुम्ह नाम लेतां होय सयल सिधि । जख्येइंद्र जख्य नि मानवी देवी, घरि बिठां पूरसिं नवह निधी ॥२॥ तारि रे० ॥ आठ पुहर अरिहंत आराहिइं, श्रावक कुलिं भली एह टेवो । For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ अनुसन्धान-६३ दसे दृष्टांते मनुष्य भव दोहिलो, पांमी कीजइं भगवंत सेवो ॥३॥ तारि रे० ॥ तुझ विण काल अनंत मइ अनुभव्यो, अकल अनादि अरिहंत जांणो । भवसागर भवभ्रमण भय वारीइं । भलो मल्यो मुझ एह ठाणो ॥४॥ तारि रे० ॥ संवत सत्तर चऊदोत्तर (१७१४) वरसिं, श्रीविजयदसमी तिथि रुडी जांणी । श्रीविजयराजसूरिसरराजि, मई गाईओ प्रभु उलट आंणी ॥५॥ तारि रे० ॥ । कलस ॥ श्रीश्रेयांस जिनवर प्रणतसुरनर, प्रभु वंछितदायक सुरतरुं । मई तव्यो हरखि भाव आंणी, श्रीखंभनयरमां जिनवरं ॥१॥ तपगच्छनायक सुखदायक, श्रीविजयाणंद सूरीसरो । तस सीस अमरविजय जंपई, सदा संघमंगल करउ ।।२।। इति श्रीश्रेयांसजिनस्तवनं समाप्तम् ॥श्री। ढाल · कडी कठिन शब्दोना अर्थ शब्द . अर्थ रतनरेऊ रत्ननो राशि हइंयj हैयामां सपनवी स्वप्नविद् उज्झउनालिं उज्झ उनालिं(?) .. ११ For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ श्रवणिं चंदचार नंदीसरि थितवड 2 amo 5 w rm श्रवण नक्षरमां - चन्द्रमानो योग नन्दीश्वर द्वीपे स्थितिपतिता (कुलस्थितिनी मर्यादा) दीक्षा छद्मस्थ अवस्था छोंतेर (७६) दिख्या छदमस्तपणुं छोत्यरि सखड सखरो सुखड For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ अनुसन्धान-६३ ऋषभदेवस्तवन सं. सा. ज्योतिर्मित्राश्री 'ऋषभदेवस्तवन'ना नामे कोई अज्ञात कविओ रचेला आ काव्यमां विरहनी वेदना सुपेरे व्यक्त थई छे. माता मरूदेवाना लाडला पुत्र रीखव (प्रथमतीर्थपति श्रीऋषभदेव)ना प्रव्रज्या-गृहत्यागने लीधे जन्मेली मातानी चिन्ता, तेमनो आन्तरिक वलोपात, पुत्रविरहनो झूरापो - आ बधुं माताजी ऋषभपुत्र भरत चक्रवर्तीने मीठो उपालम्भ आपे छे तेमां जणाई आवे छे. करुणरसने सहज रीते अभिव्यक्त करी आपे ओवी देशी पसन्द करवामां पण कवि, कौशल जणाई आवे छे. प्रस्तुत काव्यनी प्रत पूज्य आ.श्रीविजयशीलचन्द्रसूरिजी म. तरफथी मळी छे. ऋषभदेवस्तवन माताजी मारुदेवा रे भरतने एम कहे, धिक् धिक् धिक् तारो अवतार जो । दादीनां दुखडां रे ते नवी जांणीआं, तेणिविध करीने करूं तुज आगल पुकार जो ॥ माता० ॥१॥ जे दिनथी रीखवजीये दिक्षा आदरी, ते दिनथी मुज हैडे रोस न माय जो । आंखलडी आरुणी रे थई उजागरे, रात दीवस मुज रोतां रोतां जाय जो ॥ माता० ॥२॥ तुझ सरीखो पौत्रो मारे लाडको, तातनी खबर नी लेतो देस-वीदेश जो । अनंतां सुखडां वीलसे रंगमेहेलमां, . रीखव हीडे वनमां वड़वे वेश जो ॥ माता० ॥३॥ खरे रे बपोरे फरतां गोचरी, शीस उघाडे पाय अलवांणे होय जो । अरस फरस उनां जल मेला कपडा, . घेर घेर आंगणे फरता हीडे सोय जो ॥ माता० ॥४॥ For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ बाललीला मंदीरीये रमतो आंगणे, ___ जक्ष विद्याधर संगम सोयमइंद जो। हुं देखी मन मोही रे हैडे हीसती, ____चोसठ देवी आवी करतां ओलंघ जो ॥ माता० ।५।। मारा जे सुखडां रे सुत साथे गया, दुखनां हैडे चडीयां आरणपुर जो । पुरवनी अंतरा रे आज आवी नडी, केम करी हैडु राखु धीर जो थीर जो ॥ माता० ॥६॥ पुरी अयोध्या केरा सुत तुं राजीयो, .. रीधी सीधि मंदीर बोहोलो परीवार जो । राजधांनीना सुखमां तात न सांभरो, रात-दीवस रहेतो रंग महेल मोझार जो ॥ माता० ॥७॥ सहेस वरस रीखवजीने फरतां वही गयां, हजी लगण खबर नही संदेसों नही नाम जो । आवडा रे कठण हैयाना केम थया, सुगणां सुतनां आवां काम न होय जो ॥ माता० ॥८॥ सुद्ध लेवरावो ने पुत्रजी माणस मोकलो, जुवो तिहां तात तणी सी गती होय जो । सेवकना स्वामीने एटलुं कहावजो, तुझ मातलडी नीज वातलडी होय जो ॥ माता ९ ॥ लीपिकृतं लहिया नानालाल हरीनंद ॥ मु० पाटण ॥ कठिन शब्दोना अर्थ कडी शब्द अर्थ _ कडी शब्द वडवे वरवो ६ आरणपुर अलवांणे __ उघाडा पगे ६ अंतरा सोयमइंद सौधर्म इन्द्र ८ सुगणां ओलंघ अर्थ अर्णव(-समुद्र)नुं पुर अंतराय सुगुणी शुद्धि (-समाचार) हेत For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६३ श्रीनेमविजयविरचितं श्रीस्तम्भन-सेरीसा-शद्धेश्वरपार्श्वनाथस्तवनम्* सं. सा. श्रीकुमुदरेखाश्रीजी काव्यना सम्पादनमा आधार बनेली प्रत सं. १८५७नी आसो वदि ११ना दिवसे पालिताणामां मुनि लालचन्द्रे लखी छे. प्रत अत्यारे जैनशाला - खम्भातना भण्डारमा छे (डा. ११ पो. १५ प्र. ५६). प्रत आपवा बदल भण्डारना कार्यवाहकोना अमे आभारी छीओ. काव्यना सम्पादनमां पूज्य आचार्य श्रीविजयशीलचन्द्रसूरिजीना शिष्य मुनि श्रीकल्याणकीर्तिविजयजीओ घणुं मार्गदर्शन आप्युं छे, जे माटे अमे तेमना ऋणी छीओ. (नोंध : श्रीस्तम्भनपार्श्वनाथ, श्रीसेरीसापार्श्वनाथ अने श्रीशङ्केश्वरपार्श्वनाथनो इतिहास वर्णवती प्रस्तुत रचना, तपगच्छपति श्रीहीरविजयसूरिनी परम्परामां थयेल श्रीनेमविजये सं. १८११ना फागण सुद १३ सोमवारे रची छे. स्तवननी छेल्ली ढालमां कर्ताओ स्वयं दर्शावेली तेमनी गुरुपरम्परा आ मुजब छे : श्रीहीरविजयसूरि → शुभविजय → भावविजय → सिद्धिविजय → रूपविजय → कृष्णविजय → रङ्गविजय → नेमविजय. गुजराती साहित्यकोश - खण्ड-१, पृ. २२६ पर आ नेमविजयना नामे नीचेनी कृतिओ नोंधाई छे : १. प्रस्तुत स्तवन २. १६ ढालनुं गोडीपार्श्वनाथस्तवन ३. ११९ ढालनो कामघटरास ४. ४५ ढालनो श्रीपालरास ५. सज्झायो. कतिओना विशाल कद परथी ज कविना काव्यकौशल अने विद्वत्तानो अन्दाज मळी शके तेम छे... प्रस्तुत काव्य २७ ढाल अने २९९ कडीमां फेलायेलं छे. (ग्रन्थ प्रमाण ३५० श्लोक). अत्रे ढालसङ्ख्या गणवामां थोडी मूंझवण थाय तेम छे. केम के १०मी ढालना अन्ते कवि ओम कहे छे के "नेम कहे ढाल इग्यारमी प्रगट करूं हवे आंहिं". मतलब के हवे शरू थनारी ढाल अग्यारमी छे. तेनी सामे ज्यां ओ ढ़ाल पूरी थाय छे त्यां पडिक्त छे - "बार ढाल रसाल ओ नेमविजये For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ कही" - आम कर्ता पोते अक क्रमाङ्क चूकी गया छे. तेने लीधे दरेक ढालमां ओक ओक क्रमाङ्क वधवाथी कर्तानी गणतरी प्रमाणे छेल्ले २८ ढाल थाय छे, जे वास्तवमा २७ छे. ___ काव्य खूब ज रसालं छे. कथा चमत्कारप्रधान छे. देशीओ पण तद्दन नवी ज जणाय छे. अभयदेवसूरि खरतरगच्छना हता तेवू कथन (ढाल ११ कडी १) तथा अभयदेवसूरिने जयतिहुअण स्तोत्र षडावश्यकना प्रारम्भे बोलवानो देवताई आदेश (ढाल १३ कडी ७) - ओ बे वातो कर्ताना मानसमां पडेला खरतरगच्छना प्रभावनी सूचक छे, सत्य नथी. केमके अभयदेवसूरि चन्द्रकुलना हता, खरतरगच्छना नहि ओ वात नक्कर सत्यरूपे साबित थई चूकी छे. अने देवताई आदेशनी वात पण प्रवादमात्र छे. आ स्तवनमां श्रीअभयदेवसूरि महाराजना थंभण पार्श्वनाथनी प्रतिमा अंगेना प्रसङ्गमां धरणेन्द्र आववानी वात तेमज शेरीसाना प्रसङ्गमां बावन वीरवाळी वात - आवी केटलीक वातोने कविकल्पनामांथी नीपजेला चमत्कारलेखे समजवी जोईए. इतिहास तथा प्रसिद्ध जैन परम्पराने ते वातो साथे कोई मेळ नथी. त्रै.मं.) • ॥ स्थम्भन-सेरीसा-शवेश्वर-पार्श्वस्तवन ॥ ॥ दूहा ॥ सरसतिने समरूं सदा, महिर करे मुज माय; वल्लभ वयण आपे वहि, दुनियाने आवे दाय. १ दीवानि परें दाखवे, जोति करि जग माय; वास करे मुज मुख वळी, पुजिस तोरा पाय. २ गुण गावा गिरुआतणा, उलट अंग न मायः त मुज तुठी तो खरी, इच्छ्यं सिध्ध ज थाय. ३ प्रगट देव प्रथवीतले, परता पूरण पास; थंभ्या नीर जे थंभणे, व्यास्या नगर निवास. ४ सेरिसो संखेसरो, नामे पारसनाथ; ओ त्रिहुं अक समे हुआ, सुरनर सेवे साथ. ५ For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६३ स्वर्ग-मृत्यु-पातालमें, पूज्या करी प्रासाद; ज्ञानी विण जाणे नहीं, अहनी न लहे आदि. ६ परतो पूरे पातालनो, शेषनाग करे सेव; प्रतिमा त्रिण्हे पूर्वनी, दरसण करावे देव. ७ ॥ ढाल-१ ॥ तु तो पाधरो बोल सपाईडा, तुं तो वांकु न बोल सपाईडा, नारी पीआरी रे सपाईडा, तारी को नही - ओ देशी ॥ वरस ते चोपन लाख ईम बोल्या भगवान भाख, शास्त्रे कही साख रे शक्र इन्द्रे प्रथम पूजा करी; वलि पूज्या सूरजदेव चोपन लाख वरस ते सेव, अनुक्रमे घडी टेव रे सहु देवता खांती धरी खरी. १ वलि चोपन लाख ते वरस चंद्रमाई पूंजा सरस, . दरसण देखी दरस रे त्रिण्ह कालनी नित्यसेवा करे; पूज्या वली पातालवासी भूवनपती इन्हें अभ्यासी, आंणी ने उल्लासी रे. लाख चोपन वरस पूजा धरे. २ तिहांथि शेषनागे लीधी अयसी सहस वरस ते कीधी, पूजा करी सिध्धी रे लेइ दीधी वरूण राजा भणी; ते पश्चिम दिसिनो राजा तेहनी मोटी माजा, पायकदल ताजा रे कटकदल नवखोणिनो धणी. ३ ते मरगी रोगने माटे समर्यो शेषनाग ते साटें, कष्टनें परो क(का)टे रे छंटावे नमण करि पासनो; ४(x) तिहांथी मृत्युलोकें आवी तीहां देवल नवो करावी, पूजा चलावी रे आचारजें थापी वास तो. ५(४) तिहां काल घणो पूंजाणि अनुक्रमे वात वंचाणी, बोले नाग वाणी रे आविने कहें तुम सांभळो; इण देसें मलेच्छण थासें धरतीने लूंटी खास्ये, इहांथी लेई जास्ये रे प्रतिमाने वांच्छो जो भलो. ६(५) ते. माटे तुमे जाई लवणसमुद्रनि खाई, सुणो सहु तुमे भाई रे अक देवल करी छे सार जो; For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१४ घणी सेवा चाकरी करज्यो ध्यान हीयामां धरज्यो, पूण्यनुं पोतु भरेज्यो रे कोई कामें मुझनें संभारजो. ७ (६) नाग गया निज ठांम तिहां खरचीने घणा दाम, कराविनें काम रे नाम राख्यो वरुण राजा तणो; संघ घणा तिहां आवें सतरे भेदें पूजा रचावें, भावें करी भावें रे लोक आवी द्रव्य खरचे घणो. ८ (७) तिहां नाटिकना थैकार वाजिना धौकार, बोले जयकार रे नर नारी गावें केई गुणी; केई मानितय करीनि मानिं तें रहें ओकणध्याने, आवीनें थांने रे चडावें तीर्थ मोटो सूणी. ९ (८) ते नरनी वांछा पूरें संकटविकट करे दूरे, आव्यो थाइ सनुर रे शेषनागनी सानिधि होइं सूखी; जे लोक वसे पाडोसी जांण अजांणनें जोसी, तेहने सुख होसी रे पसूपंखी तिर्यंच नही, दुखी... १० (९) देव घणव गुण गाइ दिनदिन अधिक महीमा थाइ, परतो रचाइ रे महीतलमें भवीजन केइ मलि; ईम करतां घणो गयो काल * नेमविजये कही रसाल, पहली थई ढाल रे सहु सुणज्यो आगे जे वली. ११ (९) सर्वगाथा १८ (१७) ॥ ढाल २ ।। पनामत जायो परदेश पनापना मारु परदेसा रे वाणिय मारु लागणो होजी ओ देशी || ओक दिन लंकानो राय भविया भविजन रावण राणो रे सभामांहि इम कहे होजी, माने मारी आण भ.भ. देवदाणव रे सुरनर सहु वहें होजी... १ ओक मन मानिं आण भ. भ. पश्चिम केरो रे साजन राजीउ होजी वरुण नामें कहेवाय भ.भ. बलिओ अहवो रे मुज पर गाजीउ होजी... २ अग्यारलाख वरस टि. ९१ For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६३ तो हुँ जाई त्यांह भ.भ. तेहने नमाडि रे सेवक करूं मारो होजी तोडि अहनो मान भ.भ. जइने हुँ पूर्छ रे बल स्यो ताहरो होजी... ३ इम चितवी मन माय भ. भ. दीधा डेरा रे साहि बाहिर जइ होजी तेडावीस हुं साथ भ.भ. नोबत नगारे रे चड्या गेडी थई होजी... ४ दल वादलनो पूर भ.भ. चाली सेना रे आषाढी जाणे घटा होजी केसर में गरकाव भ.भ. करीय सवारी रे चाल्या सहु भटा होजी... ५ हीइं राखी हाम भ.भ. जइ नई लेस्युं रे दुश्मन झटपटी होजी अहवी करी तिं चाह भ.भ. शीघ्र थई चाली रे नि सहु चटपटी होजी...६ अनुक्रमें चाल्या जाय भ.भ. जईनई लीधो रे वरुणने सांकडे होजी दीधी दुश्मन दौट, भ.भ. चूकी यें चोंट रे सुभट सहु सडे होजी... ७ वरस ईम गया सोल भ.भ. वरुण हरायो रे आवी पाय पडे होजी सनमानी ओच्छाह भ.भ. रावण घर आव्या रे निसांण मोटां घडे होजी... ८ शेषनाग करे सेव भ.भ. पासनी पूजा रे मानवी कुण करे होजी रावणसेन अथाह भ.भ. तेहनी बीके रे लोक ते सहु डरे होजी... ९ ईम करतां घणो काल भ.भ. - रावण राणे रे सीता हरण कीओ होजी नेमविजय कहे भ.भ. ओ बीजी रे श्रोता रस पीओ होजी... १० ॥ ढाल - ३॥ कोश्या कामनी कहें चंदला, चंदा तुं छे पर उपकारी - ए देशी ॥ ओक दिन दशरथ नंदने, साजन रावण लई गयो सीता रे; विद्याधरनां मुख थकी साजन वात सुणी थइ चिंता रे. १ राम में लक्ष्मण बेहु मळी सा. बेठां करे विचारो रे; सीताने जो वालाई सा. तो लाज रहे संसारो रे. २ इम जाणी दूत पाठवें सा. राउराणा तेडावे रे; विद्याधर में वानरा सा. हनुमंत सुग्रीव आवे रे. ३ ईम अनेक भेला हुआ सा. कहेतां नावें पारो रे; हाथी घोडा रथ पालखी सा. पालनो नहि पारो. ४ आसो सुदि दसम दिने सा. शुभ मुहुरत शुभ वारो रे; सीद्ध कीधि सुकन भले सा. वात सुणो सुं विचारो रे. ५ For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ नील चांस तोरण कीयो सा. देव बोली डाबी रे; जिमणी भेरव उचरी सा. जिमणी रुपारेल आवि रे... ६ सकन वांदिने चालिया सा. दीधी नगारे ठोरो रे; च्यार जोयण लगें चिहुं दिसें सा. धमस पडी जाइं जोरो रे. ७ केतेले दिवसें अनुक्रमें सा. समुद्रनी खाई लग आव्या रे; डेरा दीधा तिहां कणे सा. पासनो दरसण पाया. रे... ८ . देवल देखी अभिनवो सा. अचरिज मनमां आवे रे; . इण भुमो(मां) कीधो कुणे सा. भाव आणी गुण गावे रे. ९ प्रभाते नित्य पूजा करे सा. समरण संध्या सुधी रे; सेन सहित सहु एक मनें सा, प्रणमे कर जोडी बुद्धि रे. १० स्वामि तुम परसादथी सा. जलधीनो जल थंभे रे; तो मन वंछी मुझ फलें सा. अचरीज आवि अचंभे रे. ११ इम सात मास में नव दीने सा. सायरजल थंभाणौ रे; नेमविजय त्रीजी ढाल से सा. बात कही सहि जाणो रे. १२ ढाल सर्वगाथा ४०(३९) ॥ ढाल - ४ ॥ आ चित्र सालिआ सुख शिय्या रे, जो मन मानि तो न करो लज्या रे - एदेशी ॥ सायर जल थंभाणो जाणी रे, उपर पाषाण पाज बंधाणी रे; सहु जन हरख्या उलट आणी रे, राम ने लखमण बोली वाणी रे. १ आपणो कारज सही हवें सीधो रे, पास पूज्याथी पसाय कीधो रे; थंभणो पास ते नाम ज दीधो रे, सिद्ध कर्यानो महुरत लीधो रे. २ सेषनागे ते सानिध कीधी रे, जळ उपर पाज बांधि सीधी रे; चड्या कटकनी गेडी दीधी रे, लंका नगरी तेडी लीधी रे. ३ रावणे जाण्यु राम ते आयो रे, भाई बभीषणनें बोलाव्यो रे; । राम ओ माहरी नीजरें नायो रे, मुझस मांडि जो मानि धाव्यो रे. ४ कहें बभीषण भाईनें वाणी रे, म कहे बही तु अवधू ताणी रे; जेणी वाते रेहिं आपणु पाणी रे, केम करीजें जगमें वाणी रे. ५ सीताने तुमे पाछी आपो रे रामने भाई करीने थापो रे; माहरो वयण मत उथापो रे, नहितर रहस्ये सही अच्छायो रे. ६ For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ अनुसन्धान-६३ रावण तो सांभळीने कोप्यो रे, थाइ उतावले वयण ते लोप्यो रे; बभीषणने देशेंटो आप्यो रे, युद्ध कर्यानो थंभ तिहां थाप्यो रे. ७ ममती होई ते न करें वार्यो रे, अंते ते रही आखर हार्यो रे; बभीषण जई राम संभार्यो रे, युद्ध करीने रावण मार्यो रे. ८ सीता लीधी पर लंका कीधी रे, बभीषणने बगसी दीधी रे; जगमें रामें कीरति लीधी रे, पाछा वळिया मारग सिध्धि रे. ९ आवी थंभणो पास पूजावे रे, सत्तरभेदे पूजा रचावे रे; अठ्ठाईना महोत्सव थावे रे, ईम दिन दिन प्रति भावना भावे रे. १० ईम करतां केईक दिन वीता रे, रामे वालि जइने सीता रे; वात वंचास्ये शास्त्र ने गीता रे, श्रोता सांभलज्यो रस पीता रे. ११ तिहांथी आया वनीता गामे रे, लोक सह पोहता आपणे ठामे रें; चोथी ढालमां पासने नांमे रे, उद्यम करज्यो नेम कहें कामे रे. १२ . ढाल सर्व० ५२(५१) ॥ ढाल - ५ ॥ केसर वरणो हो काठकसूबो मांरां लाल - ओ देशी ॥ अनुक्रमे अेक दिन हों द्वारिका गामे मारा लाल, त्रिण्ह खंड भोगवे हो केशव नामे मारा लाल; दिठो तखत हो बोलि सभामे मा. सायर कांठइ हो तीर्थ तिणें ठामे मा. १ आपण जइई हो संघ करीने मा. दरसण करिई हो भाव धरीने मा. ढोल बजाडे हो गांमे फरिने मा. यात्रा जावं हो धरती भरीने मा. २ जो नरनारि हो सहु को आवो मा. तिरथ जइनें हो सीस नमावो मा. तो फल लहिस्यो हो मुगति जे पावो मा. तेमां तुमने हो कुण करे दावो मा. ३ . सांभळी अहवं हो जे नरनारी मा. जावा जात्रा हो सहु परवारी मा. कृष्णे ते हवे हो कीधि असवारी मा. सेना साथें हो कह निरधारी मा. ४ लाख बेंतालीस हो हाथी सजोडा मा. लाख बेंतालीश हो तरकी घोडा मा. लाख बेंतालीश रथना धोरि मा. तेहमां बेठि हो गावें गोरी मा. ५ कोडि अडतालीस हो पायक परवरिया मा. सहस सोले हो छत्र शिर धरिया मा. राजानी राणी हो सहस बत्रीशें मा. वाजा वाजें हो जाति छत्रीसे मा. ६ For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ कोड अडतालीस हो गामना साजन मा. मांहि भेला हो मोटा माजन मा. डेरा तंबु हो साथें लीधा मा. जोतिक जोइ हो महुरत कीधा मा. ७ अनुक्रमे चाल्या हो संघ करीने मा. तिहां सह उतरे हो भोजन देई मा. ईणविध आव्या हो तीरथ ठामें मा. आवी सहु को हो सीस नमावी मा. ८ देखी जुनो हो मोटो देवल मा. मांहि मोटी हो मूरति केवल मा... पूजा अरचा हो अंगें देखी मा. धूपनी वासना हो अधकी पेखी मा. ९ के कोई देवता हो पूजें आवी मा. किं विद्याधर हो पूजा रचावी मा. अहवें अवसर हो रजनी जाणी मा. जोवा अकांते हो सारंगपाणी मा. १० आवि उभो हो देउल कोरे मा. नाग में नागण हो आपणे तारे मा. आव्या दरसन हो रयणी मध्यकाले मा. ते हवें राजा हो उभो निहाले मा. ११ नागणी मळीने हो मंडपमांहिं मा. मांड्यो नाटिक हो हर्ष उच्छाहि मा. ढाळ पांचमी हो नेमें भाखी मा. श्रोता सहु को हो रहिज्यो साखी मा. १२ ढाळ सर्वगाथा ६४(६३) ॥ ढाल - ६ ॥ , आपणडुं धन सवि वस कीधु मोहमहिपति बलिइ तुमे जोजो रे, - ए देशी ॥ भाइ नागणी मलीने जिन आगे भावना भावि तुमे जोजो रे बत्रीशबद्धना नाटिक माडि च्छत्रीसरागें गुण गावें तु. १ पाइ नेउर घुघरा बाधि चुडी हाथे खलकावे तु. तालकंसाल ने तालीतालोटा फूंदडी लेइ फेरा खावे तु. २ मादलने माने कटी नाचे लळी लळी जिन आगे आवे तु. मान मोडिनें काया संकोडी हाथ जोडि सीस नमावें तु. ३ तार रबाप नें वीणा सारंगी श्रीमंडलने बजावे तु. मोरली महुयर मोरचंग मधुरो तंबूरानो राग सुणावें तु. ४ भेर भूगल ने सरणाई झालर अकताने मली लावे तु. उगणपंचास ओ जातिनां वाजां वजडावी संभलावें तु. ५ ईणविध जे नरनारि जिनने भाविसुं भगति करावें तु. आ भव परभव वलि रे स्वर्गनां शिवसुख पावें तु. ६ नागणीओ मुखथी ईम बोलै स्वामि तुमने जे ध्यावें तु. त्रिकरण शुद्ध करें तुम सेवा संकट विकट कदि नावें तु. ७ For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६३ देशविदेशनां फलफूल आणी जिन आगे ढोय' ढोवें तु. आरति मंगलदीवो करीने स्नात्रपूजा करावें तु. ८ एकांति बिठो राजा मनमां धारण धर्मनी ध्यावें तु. ओ तो दीसें देवता मोटो श्रावक करणी करावें तु. ९ ईम चितवी पासे आवीने हलीमली वात सुणावें तु. नेमविजय कहे छठी ढालमें परतिख थंभणो थावें तु. १० ___ ढाल - सर्वगाथा ७४(७३) ॥ ढाल - ७ ॥ उसथी अमीय रसाल के चंदो विष झरे रे के चंदो - ओ देशी ॥ केंहें केसव शेषनाग के च्छो तुमें देवता रे हे च्छो. आ देवलनी मुरति नित्य रहो सेवता रे के नि. किंहांथी आव्या कहो नाम के धुरथी वारता रे के धु. जिम जगमां जस वास बोल्या संभारता रे के बो. १ बोलें हवें शेषनाग ते कहे केसव भणी रे के क. सांभलो तुमे नरराय के ओ वारता च्छे घणी रे के ओ. ओ मूरतिनी आदि न हो लहें मानवी रे के न. ज्ञानी कही ते साच सही करी जाणवी रे के स. २ आठमा जिनने वारि ओ प्रतिमा पासनी रे के अ. करी प्रतिष्ठा पांचे मली थापी पासरी रे के म. वही गयो केतलो काल ने प्रतिमा तिहां रही रे के प्रति. नउमा दसमा जिन. वचे अंतरो घणो सही रे के अं. ३ तिहां साधुनो विच्छेद गयो जव महितले रे के ग. तिणे समे ब्रह्म पुजाणा ते अछेरुं भले रे के ते. प्रतिमाने लेइ सुधर्मवासि दे[वीदेवता रे के दे. चोपन लाख वरस लगे इंद्र घरे सेवता रे के इं. ४ वली चोपन लाख सूरज देव पूजा करी रे के दे. चोपन लाख वरस लगे इं(च)द्रे सेवा धरी रे के [चं.] वळी लेई पातालवासि भुवनपति रे के भु. चोपन लाख वरस लगे पूजि ओ छति रे के पू. ५ For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २०१४ वळी पूज्या अयसी सहस वरस लगे अमे रे के स. अह वातनो संदेह आणो रखे तुम रे के आ. पछिम केरो राय वरुण नामें जिहां रे के व. मरगी रोगने टालवा माटें दीधी तिहां रे के मा. ६ काळ घणो पुजी तिहां मलेच्छाण थयो यदा रे के म. तिहां आणी देवल करी बिसारी तदा रे के बि.. देस विदेसना संघ आवि मलि घणां रे के सं. ईम सांभली उपदेस ते गुण प्रतिमा तणा रे कें गु. ७ कृष्णने मनमें अति घणु आवी धारणा रे के आ. लळी लळी लागें पाय नें लीई उंवारणा रे के ली. धन्य घडी धन्य आजुनो दीवस अमे आवीया रे के अ. लेखे थयो अवतार दरसण पावीया रे के द. ८ अहवी मूरति द्वारिका मांहे जो होवे रे के द्वा. अलिअविघन जाय दूर कें चिंता सवी खोवे रे के चि. नाग गया निज ठांम के नागणी सवी मलि रे के ना० कृष्णे तेडी संघ जिमाड्या साजन वली रे के जि. ९ करि ओच्छव अनेक कें प्रतिमानें तिहां थकी रे के प्र. आणी द्वारिका मांहे के लोक मुखे चकीं रे के लो. सातमी ढाळ रसाल विजयें करी रे के ने. आगळ जे होई वात सुणो भवीअण सही रे के सु. १० ॥ ढाल लुयरनी देशी ॥ घणा काल लगें पूजी हो के केसव हर्ष घणें, आवीने ओक दीन हो शेषनाग ओम भणें; सूहणो अक सेठनें हो वात कहें सही, प्रतिमाने मूके जो हो सायर जलमें वही. १ तो स्या माटें तुमने हो कहु छु ओम भणी, द्वारिका नगरि हो अलि छे अगन तणी; — ८ ॥ For Personal & Private Use Only ९७ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ द्वीपायन रिषीने हो वयणे सही थास्यें, तपसी जे बोल्या हो अयलें केम जास्यें. २ राजानें पूछी हो के वांहणमांहि घालि, जलधी मध्यभागे हो ठवजो साथ चाली; ईम संभलावी हो कें नाग गया ठामें, सेठजी पिण तेहवें हो चितवै ईण कामें. ३ ढील न करीइ हो जेहमां लाभ घणो, कथिर किम चाहे हो झवेरी रतन तणो; ततखीण प्रतिमाने हो सायर मध्य मूकी, पडतो काल जाणी हो करी सिंहा मत टुंकी. ४ ते जलधीमांहि हो काल घणो रही, ईण अवसर साजन हो सुणज्यो व्रात सही; दक्षिण दिश नगरी हो जैनकुंति नामें, जिनमतना श्रावक हो बहु वसै तिण ठामैं. ५ सागरदत्त नामे हो मुख्य अक व्यवहारि, सहुथी छै अधिको हो घरनो धनधारि; सात वांण भरीने हो किं चाल्यो अकदिने, सायर विच वहेतो हो आव्यो प्रतिमा कनें. ६ प्रवहण थंभाणो हो तिहांथी नवी चालें, सेषनागनी करणी हो आवी वाणपाले; तिहां शेठजी सहु को हो आरती करय घणी, थयो देव कोप कोईक हो विपरीत वात बणी. ७ कोइक समरे साहिब हो कुईक कुलदेवी, कोइ ईष्ट आराधे हो गोत्रजने सेवी; मानत करी मांनि हो जी अम कष्ट टलें, आ प्रवहणे ईहाथी हो चाले जो वेला वलें. ८ तो निज आवासे हो खरचस्यूं खांति धरी, जईने करस्यूं जाची हो सेवा - चाकरी; ईम करतां तिहां किण हो मास ओक वही गयो, For Personal & Private Use Only अनुसन्धान-६३ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ शेषनाग करे सानिध हों के आवी आकाशे रह्यो. ९ . . बोले मुखवाणी हो जलधी वांणतले, प्रतिमा च्छे पासनी हो थंभणो नाम भले; ईहांथी लेई जाजो हो नगरकुंती गामे, तिहां देवल करीने हो पूजजो तिण ठांमें. १० कोई काम पडे तो मुझनें संभारजो, शेषनाग नांम माहरो हो मत को विसारज्यो; अहवो वयण कहीने हो के देव अलोप थयो, तिहां वांणना मानवी हो सहुनई हर्ष भयो. ११ प्रतिमाने तिहांथी हो लेईने वाणमांहें, बेसारी चंपे हो अ(आ)वि निज ठाहें; नीमवीजै ईम बोले हो आठमी ढालमां, श्रोता सुणज्यो हो थई उजमालमां. १२ ढाल सर्वगाथा ९६(९५) ॥ ढाल - ९ ॥ गढडामां झूले सहीयां हाथणी गढडामां नीली नागरवेल मारी आंगणी ईहें सहीआ आंबो मोरीओ - ओ देशी ॥ आव्या निज पूर गइ वधामणी मली सहु साजननो परिवार मारां साजन हे अम घर आज वधामणां... -आंकणी वाजां वजावे गुणीजन मली घणां, गावे गोरीओ मलीने बार मा. १ संघ मलीने आवें वांदवा, दर्सण करीने थाइ निपाप मा. ओच्छव करीने गाम पधराविया, थाप्या मुलनायक के रे थाप मा. २ पूजा प्रभावना संघ मळी करे, आवें जात्रे लोक अनेक मा.. नरनारि खर्चि द्रव्य घणां तिहां, पाले घणो धर्म मारग विवेक मा. ३ ईणे अवसर रहिता काल घणो, गयो तेंहवें पायलिप्ता नामें सुर मा. विद्या तणा बलें देसाउर भमें, ओक सों ने आठ जडीनो पुर मा. ४ तेह जडीनो रस लेई पय तळे, चोपडि चालें रयणी आकाश मा. देस विदेस फरी तीरथ करें, आवें जव थाइ रविनो परकास मा. ५ ते आचारजने शिष्य घणा अच्छे, तेहमां अक चेलो बुद्धिनिधान मा. नाने वेसें गुरुनें वाळो घणुं, थंडिळ तेडी जाइ रान मा. ६ For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० अनुसन्धान-६३ पासा आवि पग धोवरावतां, जडी ओकेकीनो गुण ओक मा. ईम एकसो आठ दिने जडी, ओळ्खी जईने लाव्यो ते सुविवेक मा. ७ ते रस काढि पय तली चोपडी, गुरु केडे उडे ति निसंक मा. आघो जातो वली हेठो पडे, डीले वागे लागे डंक मा. ८ ओक दिन तें गुरु पुछे शिष्यने, चेला तुम वागु छे कुण ठाम मा. भेला थईने सहु वटतां थकां, किधुं छे साचुं कहो कुण काम मा. ९ कहें तिहां चेलो रीस न करो तुमें, तो कहुं धुरथी साचि वात मा. गुरु कहे साचि वात कहो हवे सांभळो सामि साच अवदात. मा. १० अठोत्तरसो जडीनी उषधी ते, में उलखी अनुकरमें सवें मा. तेथी उडीने अधवीचथी पड़े ओहनो, राखतो नथी कांइ गर्व मा. ११ गुरु कहे चेला ग्यानी न पामीई, गुरु विण नावें कोई ने सान मा. नवमी ढालमें नेमवीजय कहे शीषवे, गुरु चेलाने देई मान मा. १२ ढाल सर्वगाथा - १०८(१०७) ॥ ढाल - १० ॥ जटणीनी देशी ॥ कहें आचारय जोगी भणी ते प्रतिमा आणो पास, सन्मुख बेसारी उद्यम करो तेहथी मनवंछीत फले आस १ साजन सूणज्यो. वात होई जिका सांभळी जोगी मनमें चिंतवे, छे मुझ पासें विद्या तास आ[क]र्षणी नामें ते भली मंगावीने मांडु पास २ सा. ईम चिंतवीने साखी ततखिणे आणी मांडी निज आवास, सोवन रस सीधो तिहां सही सेढी नदीनें तटपास ३ सा. हवें सामि. मन चिंतवे किम रहे मुरति मुझ आवास, आचारजने आवी ईमं कहे भूमिवत्तामांहि घालो तास ४ सा. होस्यें मलेच्छाणो ईहां देसमें धर्मनो मारग नवि रहे कोई, लोक सीदास्यें कष्ट पड्ये घणं अहवो आव्यो अवसर जोय ५ सा. बिहु जणे मलीने सेढीतटें खाखरा रुखने हेठि, भूमिकामांहि भंडारी तिहां न पडे कोयनी द्रेठ ६ सा. उपर वर्षा वुठो अतिघणो सेढी नदींनो वहिं पूर, उवट चालें नदी वेलू वली उडी आवी भूमिकाभूर ७ सा. For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ १०१ तेणी भूमिकाइ धेनुंका चरे उपर ऊभी रहे तिवार, अनुक्रमे आवें अंकेठी उपरे ते झरे दूधनी धार ८ सा. ईम नित्य करतां केईक दिन गया थई भूमि चीकणी तेह, तेहवें जैनकूतिमांहि जोयो बंभन लाभे ओह ९ सा. मुरत जोइ देसविदेसमां पिण रहि भूमिकामांहि, नेम कहे ढाल ईग्यारमी प्रगट करूं हवे आंहि १० सा. ॥ ढाल - ११ ॥ ईण सरोवरीयारि पाल उभा दोय राजवी मारा लाल. ओ ढाल ॥ तिहां भूमिकामांहि रहें रह केतला दिन पछी सजना, गछमांहि गरि पालण धार समान खडतरगछी स.; साधुमांही सरदार अभयदेवसूरिसरू स., मुनिजनमांहि मेर समांन ते मुनिवरु स. १ षट विगय परिहार कर्यो तप आचरी स., विद्या-विनय विवेक गुणें काया भरी स.; , पूरवकर्माना भोग संजोगे रोग उपनो स., गलति जाइ काया रगतपीत्त नीपनो स. २ चिंता करना एकदिन आवी सासनसुरी स., अधराते सूत्रना नव कोकडा आणी कर धरी स.; बोले मुखथी बोल अहो सांभळी जती स., ओहनो अर्थ संभलाव तुं जो होइं सिध्धांती स. ३ तव अभयदेवसूर कहे देवी भणी स., भालुं जो ओहनो भेद निरोग काया मुझ तणी स.; तव भाखे देवी बोल नदी सेढी सही स., खाखरा रुखने हेठ ते मुरत छे मही स. ४ तिहां तुमें जाइ ति स्तुति करो तवन नवो स., थास्यें पोते प्रगट थंभणो नाम अभिनवो स.; पूजास्नात्र करीने लेइ तेहनें जले स., पीज्यो छांटज्यो डील ते रोग सवें टलें स. ५ For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ अनुसन्धान-६३ अहवो वतावी उपाय गई शासनसुरी स., सघलो संघ लेईने आव्या उल[ट] धरी स.; ध्यान धरी धरी धरणेन्द्र तो बेठां मन रली स., जयतिहुअण बत्रीसी कीधी तिहा रली स. ६ प्रगट थया प्रभु पास ते थंभणो ततखीणें स., अचरीज पाम्या लोक सहु धन धन भणे स.; उलट धरीने अंग पखाली पासनो स., अभयदेवसूरि उपर छांट्यो सुवासनो स. ७ रोग गयो ततकाल काया कंचनसमि स., परतो दीठो पासनो वात सहुने गमी स.; तीहा कण वासो गाम ते नाम लेई थंभणो स., देसविदेसें वात बोलें सुजस घणो स. ८ सासनसुरिई कोकडां तव आण्यां हतां स., ते देवी तांम पासें पड्या छे छतां स.; तेहनो अर्थ विवेक पूछे सहु संघ मली स., सांभल्यानी छे हुस स्वामि अमने वळी स. ९ कोकडां सूत्रना हाथमां लेई मुख उचरें स., बेठा लोक अनेक सहु जि जीजी कहे स.; बार ढाल रसाल जे नेमविजये कही स., श्रोता सुणज्यो सूत्रनी वात थिरता रही स. १० ॥ ढाल - १२ ॥ ऊभी बावाजी री पोल देवर आंणी आवीओ रे लाल - ओ देशी ॥ ओ नव कोकडा जेह कह्यां छे सूत्र सिद्धांतना रे लाल ओहना अरथ अनेक ओ नवनवी भांतना रे लाल. १ प्रथम कह्या नव तत्त्व जीव अजीव पुण्य पापना रे. आश्रव संवर निर्जरा नाम बंध मोक्ष ओ नवपद थापना रे. २ ओहना विविध प्रकार बीसें छिहोत्तर भेद जाणवा रे. बुधिवंत जाणे भेद अजाण जाणे मत तांणवो रे. ३ For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ १०३ बीजा नव अंगना नाम जिननि पूजाना कह्या रे. .. सगत सार करे सेव स्वर्ग नि शिवसुख तिणे लह्या रे. ४ त्रीजो भेद कही नव वाड सिलधरम जयणा कही रे. नव नारद कह्या जेह मूगते गया सीलें सही रे. ५ . चोथे भेदे नव नव अंग सूत्र भाख्यां भगवंत भला रे.. बोल्या मांहे गहन विचार समझे जे मति निरमला रे. ६ पांचे भेदे नव रे निधान भाग्यवंत प्राणीने घरे रे.. पुण्यपापना बिहु सेर संचे सुंब पुण्यवंत वावरे रे. ७ छठे भेदे नवग्रह नाम जोतीचक्र कह्या जुजुआ रे. गणित लेखानो मान वरतारे आवे तूअरि रे. ८ साते भेदे नव दुर्गा तांम नव वासदेव उपना रे. नव वली प्रतीवासूदेव नव बलदेव ईम नीपना रे. ९ . आठमा नवमानो भेद नवनारु कारु ईम मानवी रे. नेमविजय कहें तेरमी ढाल ईम जाणवी रे. १० ढाल सर्वगाथा १३८(१३७) ॥ ढाल - १३ ॥ , मेतोजी अणावे वावडी - ओ देशी ॥ अभयदेवसूरि अेकदा समर्यो धरणेंद्र देव रे, राज प्रगट थइ पद्मावती किम समरी मुझने देव रे १ सुगुण सनेही सांभळो... टेक अभयदेवसूरी ईम कहे मलेछांण थयो गुजरात रे, आ थांनके इहां किम रहें तेहनी सी करवी वात रे २ सु. मुरती मोटी पासनि आ किम सचवांणी जाय रे, जे तुमे कहो ते अमे करां तेहनो बतावो उपाय रे ३ सु. देवी कहे सांभल यति त्रंबावती नगरीनो नाम रे, तिहां जइ बेसारो तुमे कोई उपद्रव नही होई ठांम रे ४ सु. वले तुमनें कहु सांभलो आ तवन कर्यु तुमे ओक रे, मंत्र सहीत अतिसय भर्यो तेणे पडस्ये हवाल अनेक रे ५ सु. For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ अनुसन्धान-६३ ते माटे तुमें ईम करो गाथा बिहुं मंत्रनी जेह रे, ते लेई नांखो भण्डारमां कोई काम पड्ये काढज्यो तेह रे ६ सु. वलि तवन कह्यो छि तुमें खडावस्यके धुर संभारो रे, ओहनो महिमा छै घणो पडिकमणो करो तिणी वार रे ७ सु. अहथी रोग नावे कदा जो समरे बाल गोपाल रे, तो घर होई सुखसंपदा नित्ये प्रगटे मंगलमाल रे ८ सु. ओ विधि खरतरगच्छनी ईम कही गइ सासनदेव रे, मूरती खंभायतमे ठव्या बहु लोक मली करे सेव रे ९ सु. आजना दीन सुधी तिहां प्रतिमां रही छे जिण ठाम रे, चौदमी ढाल नेमवीजय कहे नित्य लेज्यो पासनो नाम रे १० सु. ढाल सविगाथा १४८(१४७) ॥ ढाल - १४ ॥ उद्धक बामणी भर घडो हे - ओ देशी ॥ पहेलां जैनकुंती भलि हे वडनगर तेहनो नाम, पांचसें साथसू परवर्या हे आव्या तिण ही ज गाम. १ साजन सांभलो हे सेरीसानी रे वात [-टेक] पूरवे थंभणा पासनो हे देव लहु तोरे जेह, ते मूरतने हरि गयो हे नागार्जुन जोगी तेह के. २ सा. ते देउलमें वीरनी रे प्रतिमा बेसारी ताहीं, साध सहु मिलि आवीनई हे प्रणमी कहें माहोमांही के. ३ सा. आ देउलमें थंभणो हे पूर बेठा हता आंहि, तेमांहि श्रीवीरनी हे मूलनायक थाप्या मांहि. ४ सा. दिन केतलाईक तिहां रहिं हे चाल्या तिहाथि तेह, आव्या अनुक्रमे आगले हे नगरनें पासे अह के. ५ सा. साथे पोथी छे भाली हे वीराकर्षण तेह, गुरु पासे राखे गोपवी हे कोई न जाणे विवेक. ६ सा. गुरु गया कामें एकदा हे दोय चेले मली तांम, पोथी लेइ वनमां गया हे वांचि जोयो रे नाम. ७ सा. For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ १०५ सांझ पडे गुरु आवीया हे चेला न दीठा रे तांम, . पूर्छ बाधा सहेरमे हे जाता रह्या दोय क्यांह. ८ सा. राति समें वीर साधीया हे आव्यो बावनवीर, कहे मुखथी कारज किस्यो हे ते कहो थईने सधिर. ९ सा. तव चेला मन चिंतवे हे हवे स्यो करवो काम, बुद्धि उत्पातिकी उपनी हे बोले तिणही ज काम. १० सा.. ईण थानिक देवल नही हे देहरा विहुणो गाम, .. ते माटे जैनकांतिई हे छै मोटो तिणे ठामः ११ सा. ते आणो तुमे ईहां कणे हे न करो ढील लिगार, ढाल पनरमी नेमें कहिं सुणज्यो सहु नरनारी. १२ सा. ॥ ढाल - १५ ॥ राम सीताने धीज करावे रे - ओ देशी ॥ बोल्या बावन वीर ईम वाणी रे, तुमें वात कही ते जाणी रे; पीण बोलस्ये कुकड बोल रे, तिहा सुधि रही अम तोल रे. १ ते माटें जइ तुमे लावो रे, तुमे कारज करि ईहा आवो रे; ते वीर मली ततकालि रे, जैनकुंति पोहता सुविसाल रे. २ उपाडी देवल लावे रे, दीठे सहुने अचरिज आवे रे; ऊंचा आकाश समान रे, [जाणे देवविमान रे]. ३ आणि मांड्या तिणहि ज नाम रे, गुरु कहे कीधो कुणे काम रे; सात भूमितणा आवास रे, ओ तो स्वर्गतिणो निवास रे. ४ कोरणी करीने थांभा रे, देखी पामे लोक अचंभा रे; मांहि मुरति मोटी दीठी रे, जाणे दीधी मोतीनी पीठी रे. ५ कारिमो थयो उजास रे, गुरु चिंतवे ए स्यो प्रकास रे; दोय चेलाना कृत्रीम जाण रे, गुरु रीस घणी मन आणी रे. ६ ईम जाणी चकेसरी साधी रे, कहें किम रहे अमारि वाधि रे; ओह तो चेला थया अजाण रे, ईहा होस्यें धर्मनी हाण रे. ७ ओ काम हवें तुमें कीजे रे, ओ मुरत तिहां राखीजे रे; कारिमा कूकडा बोलावो रे, रात घणी वार म लावो रे. ८ For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ अनुसन्धान-६३ । ते सबद सुणि वीर नाठां रे, जाणुं प्रभात थयो जाइ त्राठा रे; चेलाडे तेडी गुरु पूछे रे, किम किधो कारण स्युं छे रे. ९ बाधि चेलाने एकाते रे, गुरु सीक्षा आपें भली भाते रे; तव देवी आवी छोडावे रे, तुम काम ओ कुण करावे रे. १० हवे समझें जो भाई रे, रखें करो कह्या विण काई रे; इंम कहि गइ देवी थाने रे, ओ वात लखाणी पाने रे. ११ हवे मूलगी मूरत नवी हाले रे, तिहां संघ सह चकचाल रे; ढाल सोलमी नेमें भाखी रे, श्रोता सुणी ल्यो रस चाखी रे. १२ ढाल सर्व गाथा १७२(१७१) ॥ ढाल - १६ ॥ मैडते नगारे वाजीयो ढोला पडी रे ददामे ठोर ठोर ढोला - ओ देशी ॥ ते गुरु तिहांथी चालियां साजन, जाणि चेलाना काम सा.; जिहां रह्यां अप्रीत उपजे रे सा., किम साधु रहे तिण ठाम सा. १ श्रोता तुमे सुणज्यो रे, आगे जे होई सा. [टेक] देउलमें मूरति रही रे सा., तिहांथि हाले नहीं तेह सा., ते करणी सेखनागनी रे सा., मुलनायक विना अह सा. २ श्रो. तिहां किणे करता आविया रे सा., साधुतणे परिवार सा.; धर्मघोष नामें भला रे सा., ग्यानतणो भंडार सा. ३ श्रो. ते आचारजें आराधीयो रे सा., धरणेन्द्र नामे देव सा.; ते पीण आवी उभो रह्यों रे सा., किम समर्यो मुझ देव सा. ४ श्रो गुरु कहे देउल वनमें रे सा., मुरति निहालि तेम सा.; ओ उपद्रव किस्यो थईयो रे सा., तेहनो करवो केम सा. ५ श्रो. कहें ईन्द्र तुमें सांभलो रे सा., मूलनायक नथी कोय सा.; धणी विना धरा किम रहे रे सा., ओ उखाणो होय सा. ६ श्रो. ते माटे सेषनागने रे सा., समरी करज्यो सिध सा.; अधिष्ठायक छै आदिनो रे [सा.], पातालवासी प्रसिद्ध सा. ७ श्रो. ईन्द्रे वल्या अहवो कही रे सा., तेहवें धर्मघोषसूर सा.; आराध्यो आव्यो तिहां रे सा., शेषनाग नांमे सनुर सा. ८ श्रो. For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ १०७ गुरु कहे आ देवले ईहां रे सा., किम रहे ईण वनवास सा.; . मलनायक मरती नथी रे [सा.], ते लेई आव्यो पास सा. ९ श्रो. ते सेषनागें सांभलि रे [सा.], लेई आव्यो पास सा.; बीजी मूरती पासनी रे सा., लेई आव्या देउल धाम सा. १० श्रो. नगर तिहां भलो वासीयो रे सा., देउल सीधो मांह सा.; . मूलनायक मांहे थापीया रे सा., नाग गया निज ठांह सा. ११ श्रो. लोक अनेक आवी वस्या रे सा., उछव थांई अनेक सा.; .. ढाल सत्तरमि नेमें कहि रे सा., सुणज्यो आंणी विवेक सा. १२ श्रो. ढाल १६ सर्व गाथा १८४(१८३) ॥ ढाल - १७ ॥ थारो नगर भलो योधाणो राजाजी - ओ देशी ॥ तिहां मूरती लोडें त्यां साजनजी, लोक सहुने अचरिज थयो जी; : ओ स्यो कोतिक अह सा., ईण थानक उपद्रव हुयो जी. ...१ लोक चीतवे मनमांहि सा., पाताल जावा वाछै सही जी; नागनी पूजा त्यांह सा., बीजी पूजा गमें नही जी... २ तिण कारण लोडे ओम सा., ईम करतां केई दिन गया जी; तिहां लोडण नाम थयो तेम सा., ओक दीन संघ आवी ऊभा रया जी... ३ तुमे समरो जे शेषनाग सा., आचारज भणी ईम कहे जी; तिहां गुरु जई मांड्यो जाग सा., आवी उभो आगल रहे जी... ४ बोल्यो शेषनाग वयण सा., कहो अमने कारज कीस्यो जी; जोइ शेषनाग नयण सा., लोडे मूरती ते कारज ईस्यो जी.... ५ ते नागें दीधा मंत्र सा., तेणे मंत्रे डोले नहि जी; नाग गया निज ठाम सा., यात्राई लोक आवे वहि जी.... ६ कोस अडतालिस मांन सा., नगरी कही छे अवडी जी; देउलमें जातां लोक सा., हरतां फिरतां सेरी सांकडी जी... ७ तेणे नामें सेरीसो नाम सा., सेरीसो नाम मूरति तणो जी; बे बे मूरति पास सा., विचमां दीसे सोहामणो जी... ८ For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ श्रीवंत सा नांमें ओक सा., तिण गामें व्यवहारीयो जी; द्रव्यतणो नहीं पार सा., सहु संघमे अधिकारीओ जी....९ वांण तणो व्यापार सा., दर्शण करी दांतण करे जी; अढारमी ढाल रसाल सा., नेमवीजय ईम उचरे जी.... १० ढाल सर्व गाथा १९४ (१९३) अनुसन्धान- ६३ ॥ ढाल १८ ॥ घडी ओक द्योंने राणी सुंबरो, सुंबरो दीओ रे न जाय श्रीवंत सा व्यवहारियो पालें पंच दिन नेम, पाखी आठिअ एकादशी बीज पांचिम जेम १ श्री. करी उपवास उपासर रे बेठो गणे नवकार, अकसो वीस थाइ वरसना भूले नहीं लीगार २ श्री. पारणें जीन पूजा करें धूप दीप निवेद, नव अंगें नव तीलक करें ईणविध च्यार भेद ३ श्री. संवीभाग साधूने देई नें करे पारणो तेह, आचार अहवो छै घरे ईम करतां जेह ४ श्री. वांण भरी वांणोतरें चाल्या सायर जाय, वाण बूडा उतपातथी माल गयो जलमाय ५ श्री. घरनो माल मांहि हतो ते पीण थई गयो लोप, राछ पींन जे घर तणां हरी गया देव कोप ६ श्री. खूटी थया खाखर समा नापे उछीनो कोय, उरतो मनसूं करे घणो दाणि संतापे सोय ७ श्री. ईम करतां दी (दि)न दोहिला पिण मेले नही धर्म, पूजा पुण्यनो मार्ग जे साचवे षट्विध कर्म ८ श्री. भगवंत उपर भावनो राखे अहोनिस चित्त, सामायक पोसो करें वावरे बहुलो वित्त ९ श्री. भविजन सुणज्यो सहु मिली आगलें मंगलवार, नेमविजय उगणीसमी कही ढाळ रसाल १० श्री. सर्वगाथा For Personal & Private Use Only ए देशी ॥ २०४ (२०३) Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ १०९ ॥ ढाल - १९ ॥ जासुं बोलवानो कोड छ जोय रे बेहनी - ए देशी ॥ ईम करतां हवें अनुक्रमें जोय रे बेनी, आव्या अठाई दिन आज माहरी सहियरो परव पजुसण आवियां जो. वातो करे माहोमांहे मा. नारि सवि टोलें मली जो. देहरे दरीसण काज मा. १ प. . पेहरोने सिणगार नवनवा जो. उलट आणि अंग मा. . आभुषण कंठे ठवो जो. जेहमां जडीया नंग मा. २ प. हेत धरिने हर्षसुं जो. गावो गीत रसाल मा. . सालभरी लेई थालमें जो. माहि फुलनी माल मा. ३ प. ईम करती आवी देहरे जो. दरसण करी जिनदेव मा. तिहांथी आवे अपासरे जो. वांदि बेसे ततखेव मा. ४ प. माजन मली बेठा सहु जो. करें गुरुजी वखाण मा. . नर नारि उभा रही जो. कर जोडि करे पचखाण मा. ५ प. श्रीवंत सा व्यवहारियो जो. ते पिण बेठो मांहि मा. ओहवें नारी आवी तिहां जो. श्रीवंत सानी ताह मा. ६ प. धम धम करती उभी चली जो. आवी गुरुजी हजूर मा. तेहधे बोली बीजी नारियो जो. पाथरीस खोला जोई नूर मा. ७ प. आघी तुं जाइ छे वली जो. देईस संवछरीदान मा. नके तु करीसई प्रभावना जो. ओवडो जे राखें मान मा. ८ प. ईम सांभली बोली तिहां जो. होवे जो घरमें दाम मा. आजनो दिन छे मोटको जो. तो भलुं कुण जे काम मा. ९ प. जो परमेसर पूरसें जो. जो जमाडू हाल मा. माजनने सहु नेमने जो, उतारूं माथानी गाल मा. १० प. ईम कही उठी उभी थई जो .त्रीजी बोली तिणवार मा. बेस हेठी जाईस किहा जो. रीस परी उतार मा. ११ प. तो पण चाली उतावली जो आवि निज घरबार मा. नेमविजय ढाल वीसमी जो, सुणज्यो सहु नरनारि मा. १२ प. सर्वगाथा २१३(२१५) For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० अनुसन्धान-६३ ॥ ढाल - २० ॥ मारि अरज सुण्योजो हो गछरानायक - ओ देशी ॥ तेडावि आपणो नाथ हो गुणना नायक, गलगली थई आगल करे विनती जी, मेंणुं दीधुं मुने आज हो गु. पोसालमाहिं हु जव गई हती जी... १ का मुनि बहिरांने साथ हो गु. पथरिस खोला माजन आगळे जी, तो हवे आपणे अम हो गु. जमाडवो गांम चोखा मेली भागले जी... २ सो वाते अक वात हो गु. नुतरा देईने जइ आवो वही जी, तो मुझनें थाइं सुख हो गु. नहि तो अन्नपाणि लईस नहीं जी... ३ कहे सेठ तिहां अम हो गु. धन विण किम काम थास्ये कहो किणी परे जी, सरम जा[इ] लोक माहि हो गु. बालकमत करवी ओ ईणी परे जी... ४ जो होय परघल वित्त हो गु. खरचq खावू तो सूझे सही जी, न करो तुमें स्त्रीहठ हो गु. दिवस दोहला जोईने घर रही जी.... ५ कहे नारी तिण वार हो गु. उछीनो उधारो लेईने तुमें करो जी, नही तो हासि ने हांण हो गु. सही करी जांणज्यो कहु छु जे अमें जी...६ हवे न करो तुमे ढील हो गु. अकवार जई आवो माजन नूतरी जी, पछै थास्यें रंगरोल हो गु, सेरिसो सामिने नामे फते करी जी... ७ सेठनें थयो विसवास हो गु. उलट धरीने आवें उपासरें जी, जिहां बेठां सहु साथ हो गु. माजन आगलें खोला पाथरे जी... ८ कहो मुखथी सेठ अम हो गु. काले अम घर जिमवा पधारज्यो जी, हुँ छु माजननो दास हो गु. वीनती मानि काम सधारज्यो जी.... ९ सहु मनमें विमास हो गु. अचरीज वात ओ जोयां सारखी जी, के हांसी के साव हो गु. तुष्टमान देव थयो कोईक रीखी जी.... १० के सेरीसासुपसाय हो गु. संहि मे करस्ये काम सांनिध तणे जी, यो अहने आदेसे हो गु. आवसुं शेठजी जाओ घर आपणे जी.... ११ शेठ आव्या आवास हो गु. मनमें फिकर करें ते अतिघणी जी, ओ अकवीसमी ढाल हो गु. नेम कहे सेरीसो जेहनें धणी जी... १२ (सर्व गाथा - २२७) For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ ॥ ढाल - २१ ॥ दावडा तुं तो रांमपुरारो वासि - ओ देशी ॥ पीउंडा तुमे नुतरं दे घरे आव्या माहरे दिल भाव्या रे नायक पीउडा पी. पी. फिकर करो मति कोई कारज होस्ये सोई रे ना. १ पी. ध्यान धरो ओक ठांमें सेरिसोने नांमे रे ना. पी. स्नान करो मल धोई पवित्र भूमिका जोई रे ना. २. पी. आसन मांडि एकांते बेसो भली भांते रे ना. पी. धूपे दीप करी रुडो ठाम राखी जीउडो रे ना. ३ पी. भजन करो भगवान रहस्यो सावधान रे ना. पी. रजनी ईणविधे गालो रातीजगो पालो रे ना. ४ पी. प्रह ऊगमते सूर मूखे राखि नूर रे ना. पी. तेडावी माजन साथ करजो सहु हाथ रे ना. ५ . पी. कहेज्यो सहुने आंम तुमे आव्यै थास्ये काम रे ना. पी. आसण वासण मंगावो रांधण भूमी खणावो रे ना. ६ पी. परदो बार मंडावो भूमि सूध करावो रे ना. पी. चंदआ थीर मंगावो तोरणमाल बंधावो रे ना. ७ पी. थालीयू भेली करावो पांणी ठाम भरावो रे ना.. पी. चूले चरु चढावो मांहे आधरण मेलावो रे ना. ८ पी. ईणविधे करों सजाई चिंता आणो रखे कांई ना. पी. राखज्यो दिले एक ठाम होस्ये सही काम रे ना. ९ पी. सेरीसो मत वीसारो एहनो छे आधारो ना. पी. ओ तो बावीसमी कही ढाल नेमवीजये रसाल रे ना. १० (सर्वगाथा २३७) ॥ ढाल - २२ ॥ मोती झलके हो राज मोती झलके केसरीयारा मोडरां मोती. - ओ देशी ॥ कडं नारिइं हो राज का नारीइं ते तिमही ज करी क., प्रभाते उठी हो. प्र. सेवे उलट धरी प्र.: For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ अनुसन्धान-६३ धंधे लाग्यो हो. धं. तिणही ज अवसरे धं., नागने रूपे हो. ना. आव्यो सेठनें घरे ना. १ ओहवे नारी हो. ओ. दीठो तेहवे अ., पेठो बिलमें हो. पे. नाग आवी अहवे पे.: चिंतवें मनमें हो. चिं. ओ काम थावू नथी चि., जोतां जोयुं हो. जो. सायर जलमां मथी जो. २ जइने बिलमें हो. ज. हाथ घालवू वही ज., करडे मुजनें हो. क. तो फिकर टलें सही क.; अहवू जाणी हो. ओ. हाथ मांहे घालीयो ओ., सर्प सोनानो हो. स. सांकलो झालियो स. ३ दीठो नयणे हो. दी. अद्भुत कांतिनो दी., झलके कांति हो. झ. नवनवी भांति झ.; थई राजी हो थ. मनमें अति घणुं थ., देखाडी पीउने हो. दे. सांकलुं सोनातणुं दे. ४ माजन तेडा हो. मा. जाओ उतावला मा., कृपण हाटे हो. कृ. मेली करो सला कृ.; लाख दाम लेज्यो हो. ला. अडाणो मेलने ला., बीजा लेस्यूं हो. बी. पांच दीन ठेलनें बी. ५ सांकल सोनानो हो. सां. छि सवा कोडीनो सां., नंगे जडीयो हो. नं. एकेकी लाख जोडनो नं.; जाओ वहेला हो. जा. काम करी आवजो जा., माजन तेडी हो. मा. वल ठालवज्यो मा. ६ शेठजी चाल्या हो. शे. माजन तेडी तिहां शे., कृपण हाटे हो. कृ. सहु आव्या ईहां कृ.; सांकल दीवो हो. सां. ते कृपण भणी सां., अमने आपो हो. अ. उपरे लाख दाम गणी अ. ७ बीजा लेस्युं हो. बी. पांच दीन पछी बी., दाम लेईने हो. दा. लाख सहुनी लछी दा.; For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ ११३ घरे आव्या हो. घ. करी भोजन घणा घ., नव पकवानो हो. न. नवनवा सालणा न. ८ गामनें तेडी हो. गा. माजन आगलें करी गा., संतोषी सहुने हो. सं. जिमाड्या उलट धरी सं.; वाजे डंका हो. वा. श्रीमंत साथ रे वा., गोरी गावे हो. गो. सोला गीत उचरे गो. ९ .. पासा पडीया हो. पा. मों मांग्या ढल्या पा., दुःखना दाडा हो. दु. ठेल्या शुभ दीन वल्या दु.; नेमें भाखी हो. ने... १० ढाल २३ (२२ ) सर्वगाथा २४८(२४७) ॥ ढाल - २३ ॥ सोनानि झारि हो सूंदर थारा साहीबानें हाथ - ओ देशी ॥ . ओक दीन तेडी हो साजन मारा माजन साथ, कृपण तणे घर जाय श्रीवंत सा व्यवहारीयो जी; जईने बेठा हो सा. कृपणने पास आव्यो, अमारो सुथ जे तुमनें अमें आपियो जी. १ कृपणे मंगावी हो सा. पेई तिणवार, तालो उघाडी जोइ मांहि नाग दीठो नयणे तिहां जी; कृपणनें पडीयो हो सो. दसको ज पेट, जाणीई दीधो जे डंक व्यंतर भूत छल्यो ईहा जी. २ तेडवा आव्या हो सा. के जन ते अशुद्ध, पड्यो थई तेह मीन तणी परें टलवले जी बोल्या माजन हो सा. किम करो ओम कृपी, कहे लेई गयो कोय, सोनानो साकलो किम मले जी. ३ *हाथोहाथ. तुमने दीयो जी तुमें देस्यो हो सा. अंतेजी अम; ते माटे म करो सोच साख अमारि लिखावीयो जी. ४ स्युं करे कृपण हो सा. एकलो आप जोर, न चाले जेम जेहनी साखें माजन घणा जी; * आ कडीनो पाठ अव्यवस्थित छे. For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ अनुसन्धान-६३ दीधा गणीनै हो सा. रोकडा दाम, न कस्यां उधारो कोय आव्या सहु घर आपणे जी. ५ भगवंत तुठा हो सा. श्रीवंत शाह दिन दिन, बहुला दाम कीरति थई जगमें घणी जी; कृपण मनमे हो सा. उरतो ओम कोईक, थई गयो कोय सेवी रहे किम आपणी जी. ६ लोभी हुवै हो सा. जे नरनार, अणचिंतवो मले जोग दातार कृपी वरे सारखा जी; दातार जो जो हो सा. श्रीवंत साह, कृपण पासें लीधो दाम वावर्यो करजो पारिखा जी ७ कीडी संची हो सा. तीतर खाय पापि धन पर ले जाय लोक उखाणो कहे; सहुजी ईम जाणी हो सा. कर जोडी पुण्य, विवेक आणी चित लाय, कहो किणा परे केतलुं कहु जी... ८ धर्म छे जगमें हे सा. चिंतामणिरूप, पापि न तरें कोय जोईने करज्यो तुमें इंहा जी; संबंध भाखो हो सा. सेरीसा पास परतिख, देव छे आज पृथवीमांहिं सुण्यो अमे जी....९ अहनो करसो हो सा. दरसन लोक, ते पामस्ये देवलोक पांचमे आरे ओ कह्यो जी; नेमे भाखा हो सा. चोविसमि ढाल, श्रोता देज्यो स्याबास गुण गाता तुमें जस लो जी... १० सर्वगाथा २५८(२५७) . ॥ ढाल - २४ ॥ . अलबेलो हालि हल खेड हो - ओ देशी ॥ एक दिन श्रीमहावीरने हो पूछे श्रीगौतमस्वामि प्रतिमा तीने पासनी मेहनी भाखो हे सामी उतपति ठाम १. गुरु ग्यांनि विण कुण दाखवें हे जिम जनता हे मनन भांजे संदेह [टेक] For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ ११५ सुण गौतम घणा कालनी हे मूरते त्रिणें पास चंद्रप्रभु सामिने वांदवा सुधर्मवासी हे आव्या शक्रइंद्र तास २ गु. तेहवें सूरज चंद्रमा हो ते पिण वंदन काज पातालवासी भूवनपति तिहां आवि हे अनुक्रमें नागनो राज. ३ गु. वांदि पूछै जिनराजने हो शकेंद्र नामें तिवार रविशशि जे भुवनपति पूछे जिन हे पामस्युं कदि भवपार. ४ गु. सहुना प्रश्न ते सांभली हे बोल्या चंद्रप्रभु सामि वाणि पारसनाथनी सांभली नेहे पामस्यो मुगतिनो ठाम. ५ गु. इंद्र सहु राजी थया हो मूरति भरावि पांस कंचणबलाणे थापीने सहु आवे दरसन काजे जास ६ गु. चोपन लाख वरस लगे हो सक्र इंद्रे पूजीआ ताम अनुक्रमें सूरज चंद्रमा वली लीधी हे पातालवासिई धाम ७ गु. अयसी सहस वरस लगे हो शेषनागें पूजि आवास । समर्यो वरुण राजा वली तिहा दिठी हे 'ओक मुरति पासनी तास ८ गु. . बीजी मुरति जे हुती हे ते जैनकुंती मांहि मुलनायक । माहि थापिया शंखेसरानि हो हवे वात सुणो हवे आह ९ गु. शास्त्रतणी साखें करी हो लेज्यो वात प्रमाण ढाल पचवीसमी ओ सही नेमे भाखी हो सुणज्यो जाण सुजाण. १० सर्वगाथा २६८(२६७) ॥ ढाल - २५ ॥ हो मारा राज लसकरीयो केतिक दूर - ओ देशी ॥ हो मारा राज लसकरीयो लेईने पूर हे वढीयार देसमें अकदिन जरासेंध आवियो हो मा. १ आविने लागो पाय कहे नासिने जाज्यो तुमें वेगला हो मा. नहि तो मांडज्यो झूझ हे दूत कहे जई जादवने ईणिपरे सला हो मा. २ जादवें सांभली अम हे जा रे मुरख ताहरा राजा भणी कहे हो मा. जोउ आव्यो छे आंहि हे तो तु रखे हवें जातो मुख लेई वहे हो मा. ३ सांभली दूत तिणवार हे आविने जरासंधने हकीकित सहु कही हो. जादवनी सेन अथाह हे छपन कुलकोडि जादव मली आव्या वहि हो. ४ For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ अनुसन्धान-६३ युध मंडाणो जोर हे आयुध छत्रीश ठडे आमोसामु हो. गुणीजन बोलों गीत हे जाचक जन तिहां बोलें कीरतीमे दुहा हो. ५ ईम वढता दीन पांच हे जादव उपर जरासंधे मेली जरा हो. ते विद्याथि जोर हे गळीने बेठा वृषभ बेसे जिम धरा हो. ६ कृष्णने उपनो सोच हे नेमने तेडी एकांते केसव कहे तदा हो. आपण करस्युं केम हे यादव वंसवीछेद जास्ये ईणी परें यदा हो. ७ बोल्या नेमि तिणवार हे अठमनो तप करीने नाग आराधस्यो हो. मूरति आपस्ये ओक हे तेनो नमण छांटस्यो तो बलें वाधस्यो हो. ८ सांभळी नेमनी वात हे बेसी अकांते ध्यान धरी अठम करी हो. त्रीजें दीन ततकाल हे सेषनाग आव्यो बोलें मन उलट धरी हो. ९ किम तेडाव्यो मुझ हे कहे केसव शेषनागनें जरा टालो परी हो. नेमविजय कहे ओक हे ढाल सत्तावीसमी(?) ओ कही श्रोता मन धरी हो. १० सर्वगाथा २७८(२७७) ॥ ढाल - २६ ॥ रामपुरा बाजारमा - ओ देशी ॥ हो जिन मूरति दीठी पासनी हांजी नमण करी ततकाल हुं बलिहारी रे सामि संखेसरा हांजी छांटियो सहु जन उपरे हांजी बेठीयो उजमाल हुं. १ हांजी वेढ मांडी वढवातणी हांजी यादवें कीधो जोर हुं. हांजी कृष्णने संख बजावीयो हांजी गाजी रह्यो घनघोर हुं. २ हांजी शबद सुणी सहु खलभलाहु हांजी नाठो जरासंध जाय हुं. हांजी चक्र मेल्यो केसव तिहां हांजी पेठो सायर माय हुं. ३ हांजी षट मासे मस्तक काढीयो हांजी छेद्यो चक्र तिणिवार हं. हांजी जीत थई यादव तणी हांजी जगमां जयजयकार हुं. ४ हाजी गाम वास्यो तिहां किण वळी होजी संखेशपुर नाम हुं. हांजी देवळ कराव्यो अभिनवो हांजी घणा खरचीने दाम हुं. ५ हांजी मूरति थापी पासनी हांजी संखेसर जेहनो नाम हुं. हांजी उछव कीधा अतिघणा हांजी थाप्यो तीरथ ठाम हुं. ६ For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ ११७ हांजी संघ आवें यात्रा भणी हांजी देसी विदेसी लोक हुं.. हाजी खरचे द्रव्य घणा तिहां हांजी नरनारी मली थोक हुं. ७ हांजी महिमा पसर्यो महीतले हांजी सेवे सुरनर पाय हुं. हांजी अधिष्टायक जे आदिनो हांजी शेषनाग कहाय हं. ८ हांजी मांनता माने जे मानवी हांजी वंछित पूरे आय हुं. हांजी मूरति त्रिणें पासनी हांजी सेवा करे चीत लाय हुं. ९ । हांजी गौतमस्वामिई पूछीयो भाख्यो श्रीमहावीर हुं. हांजी नेम कहे ढाल ए में कही सतावीसमी सुणज्यो धीर हुं. १० सर्व गाथा २८८(२८७) ॥ ढाल - २७ ॥ वाछारा भावनी - ओ देशी ॥ पारसनाथ तणा गुण गाई कीरति जगमा कीधी हे ससनेही सुंदर सुगुरु वयण चित्त आणल्ये समकित धारि सुणस्ये श्रोता तेह में स्याबासी लीधी हे स. १ मोटामां तो गुण छे मोटा ते किम आवे पार हे स. कोड जीभ करी कोय वखाणे नावें अंत अपार हे स. २ सात समुद्रनी खाई करीने लेखण करी वनराय हे स. लाख चोरासी पूरव वरसें लखीया गुण नवी जाय हे स. ३ जिम वनवासि मृगलो बेठो सीहसु चढवा धारि हे स. ते केम पूरो पडस्यें अंते तेहवी मत छे मारी हे स. ४ वाकिचुकी गिहुंनी रोटी खातां लागे मीठी हे स.. केलवण कीधि में मति सारूं जेहवी शास्त्रमें दीठी हे स. ५ श्रोता सुंघडो लेज्यों सधारी जेमे अधीक कहेवाणु हे स. सहु करता माने जें भुडुं ते वाति किम ताणुं हे स. ६ पृथवी मांहि पंडित पोढा कवीजन के राया हे स. ते वाचिनें थास्यें राजी तो अम लाख सवाया हे स. ७ संवत अढार ईग्यारोत्तर वरसे फागुण मास सुद पक्षे हे स. वार सोम ने तिथि तेरसदिन गायो गुण में हरखे हे स. ८ For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ अनुसन्धान-६३ श्रीहिरविजयसुरीसर पाटें शुभविजय कविराया हे स. भावविजय शिक्ष तेहना भणीई सिद्धिविजय अधिक सवा हे स. ९ रूपविजय शिष्य तेना रुडा कृष्णविजय शीक्ष कहीइं हे स. रंगविजय रंगीला जगमां वयणे तेहनें वहीइ हे स. १० सर्व संख्याई गाथा कही छे साढात्रिणसैं मांन हे स. अठ्ठावीसमी ढाल ओ भाखी नेमविजय अक ध्यान हे सा. ११ इतिश्री स्थंभणाजी-सेरीसाजी-शंखेसराजी स्तवन सम्पूर्ण ॥ सर्वगाथा २९९(२९८) संवत १८५७ वर्षे मिति आसु वदि ११ तिथौ वार भौमे श्रीपालिताणामध्ये श्रीरुखभदेवजी प्रसादात् ॥ लिखितं मुनि लालचंद्रेन स्वआत्माअर्थे । पठिता कल्याणं भवतु ॥ कठिन शब्दोना अर्थ ढाल कडी शब्द अर्थ | ढाल कडी शब्द अर्थ दूहो ४ परता परचा । ८ १ सूहणो स्वप्न १ ३ नवखोणि नवखण्ड वांण वहाण धरती ४ जडी जडीबुट्टी ९ मानितप मानता ७ पासा पासे ३. ७ धमस धुम्मस १० ८ अंकेठी आकडो(?) ४ ७ देशेंटो देशवटो बंभन ब्राह्मण(?) ९ बगसी बक्षिस गरि गुरु(?) ५ ७ जोतिक ज्योतिष | १२ ३ बींसें २७६ ढोयणुं पूजापो छिहोत्तर मलेच्छाण म्लेच्छ शक्ति ७ बिसारी बेसाडी ७ सुंब १० . चकी चडी १३ ५ हवाल तकलीफ (-प्रसिद्ध थई) ७ खडावस्यके षडावश्यक FREEEEEE सगत ro CC For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ ११९ ढाल कडी शब्द अर्थ | ढाल कडी शब्द अर्थ १५ ६ कृत्रीम कृत्य | २१ ७ चंदूआ चंदरवा १० बाधि बांधीने | २२ ५ सला. सलाह १२ चकचाल चकचार, | ५ . अडाणो गीरवे चर्चा(?) ९ सोला (?) १६ ३ तिहां किणे त्यां कने | २३ १. सुथ थापण? १७ ४ जाग याग(-यज्ञ) | २४ ६ कंचणबलाणे जिनालयनुं १८ ४ संवीभाग दान ओक अङ्ग ६ राछ पीन राचरचीखें | २५ २ झूझ युद्ध पण ५ ठडें सामसामे ७ उरतो ओरतो आमोसामु अथडायां १९ ३ सालभरी सामग्री? ८ नमण न्हवण २० २ बहिरांने बैराने (अभिषेकजल) चोखा मेली गामधूमाडो भागले बंध For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० अनुसन्धान-६३ चार प्रकीर्ण काव्यो सं. अनिला दलाल हस्तप्रतना आधारे प्राचीन कृतिनुं सम्पादन करवानो आ प्रथम प्रयास होवाथी नानां काव्योथी शरुआत करवी उचित धारी छे. अत्रे अलग-अलग चार कविओनां चार काव्यो सम्पादित कर्यां छे - १. गुजराती साहित्यकोश खण्ड - १, पृष्ठ ३७९ पर लब्धिविजयना नामे नोंधायेली 'नन्दिषेण-सज्झाय'. श्रेणिकपुत्र नन्दिषेण मुनिनो वेश्याना सङ्गे मुनिवेषनो त्याग अने गृहस्थावस्थामां पण हृदयनी शुद्ध परिणति टकावी राखवाना लीधे १२ वर्षे पुनः प्रव्रज्यामो अङ्गीकार - आ कथानक जैन परम्परामां बहु प्रसिद्ध छे. आ कथानकने ज अत्रे लब्धिविजय मुनिले १६ कडीमां सरस रीते गूंथ्युं छे. २. गुजराती साहित्यकोश - खण्ड - १, पृ. ३२४ पर मेघराज मुनिना नामे नोंधायेलुं स्तम्भनपार्श्वस्तवन. अने, ३. वाचक विमलविजयजीना शिष्य वाचक रामविजये रचेलुं स्तम्भन पार्श्वस्तवन, जेनी उपरोक्त कोशमां नोंध नथी. स्तम्भतीर्थ (-खम्भात)मां बिराजमान स्तम्भन पार्श्वनाथनुं माहात्म्य प्राचीन कालथी ज गवातुं रह्यं छे. तेमना अनेक स्तुति-स्तोत्रो प्रकाशित पण छे. अने नवां नवां उपलब्ध पण थतां रहे छे. आ बे गेयरचनाओ अत्रे प्रथम वखत प्रकाशित थाय छे. ४. प्रमाणमां अर्वाचीन कृति गणी शकाय तेवी सं. १९४१मां मणिविजयशिष्य गुलाबविजये रचेली सुमतिजिन आरति. चारे कृतिओना सम्पादनमा आ. श्रीविजयशीलचन्द्रसूरिनुं तथा मुनि श्रीत्रैलोक्यमण्डनविजयजी, बहुमूल्य मार्गदर्शन मळ्युं छे. आ रीते अक नवा ज क्षेत्रमा प्रवेश करवानो थाय छे तेनो अनेरो आनन्द छे. For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ १२१ श्रीलब्धिविजयकृत नंदिषेण-सज्झाय पंच सयां धण परिहरी, थयो संयमी यस दीसो रे; वेसमवेस तणइं जइ, ओक दिन दीओ आसीस रे. १ . वनिता वेयसी रे विनवइं हडहड हसिती कहें सुणो, अम तनधननी आसीसो रे; भीखडलीथी भूखडली न भाजीइ, रूडे रूपई राकडीआं सरीरो. २ वनि. तरणुं ताणी रे तपबलई, सोनीअडे वरसाव्यो मेहो रे; पाउलीओ पनोता रे लली लली, प्रणमें झाजे रे नेहो रे. ३ वनि. मोह्यो महिला रे मालती, मुनी मधुकरीओ महंतो रे; दीन दीन दश प्रतिबोधतो, रहि निति संध्या वहतो रे. ४ वनि. मोह्यो मंदीरमालीइं, महिला स्युं विलसंतो; ओक दीन सा कहिं प्रीउ सुणो, बार वरसने अंतो रे. ५ वनि. वातडी आधी विरमो रे वालहा, भोजनीआने थाई असुरो रे; नयणें निहालो रे नाहला, गयणे ढलीउ जी सूरो रे. ६ वनि. भोगीअडा ते भोला रे भोलव्या, योगीअडां तइं कीधा अनेको रे; कामिअडा ते धामिअडा ते ते कर्या, ओ तुज माया विवेको रे. ७ वनि. जिम नीज नारि रे छाडतां, महिर न आवी रे नाहो रे; छयल छबीला रे नर गहें, चंद गलई जिम राहो रे. ८ वनि. मनडु माहरुं रे टलवलइं, तनडु तिम कमलायो रे; तुज विण जिमता सोर नवि वहइ, उठो पीउ लागुं छं पायो रे. ९ वनि. नव पडीबोही रे मुनि कर्या, दशमानो मान्यो रे उपायो रे हसी हंसीगमनी कहिं पीउ सुणो, आज तुम्हें दशमा जी थायो रे. १० वनि. संध्या समरण पहिरीउं, जिण थापणि मुनि वेश रे; वेश कहइं कीम मुंकीइ, भोगीअडा भलें वेशो रे. ११ वनि. For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ अनुसन्धान-६३ जोवनीआने दाहाडो रे दोहिलो, सामी सलूणा रे सवादो रे; लीजइ अवसर ओलखी, वाहला स्युं केहो विवादो रे. १२ वनि. रढि नवि कीजई रे राजीआ, कामणगारा रे कंतो रे; हेजहसु मनि नाणीइं, गिरुआ होइ गुणवंतो रे. १३ वनि. आण न ताहरी रे अवगुणी, अवर उपाय न दोसो रे; अबला बालकस्युं किस्यो, कंत न किजें जी रोसो रे. १४ वनि. भोगकरम सवी भोगवी, नारि नरग ति जाणी रे; संयम लेइ सुरगति गयो, नंदिषेणे निरूपम माणी रे. १५ वनि. श्रीश्रेणिकनृपनंदन, वीर जिनेसर शिसो रे; प्रणमें हेजे रे हरखस्युं, लबधिविजय निसदिसो रे. १६ वनि. इति श्रीनंदीषेण सज्झाय सम्पूर्ण. कठिन शब्दोना अर्थ शब्द अर्थ शब्द अर्थ धण धन्या-पत्नी वेसमवेस वेश्यावास महिर महेर, दया वेयसी कमलायो चीमळायुं राकडीआं रांक ९ सोर गमो, राजीपो पाउली पगे पडीबोही प्रतिबोधी मधुकरीओ भमरो रढ, जीद विलंब १३ हेजहसु हेतनी हांसी धामिअडा धार्मिक . कडी १ नाहला नाथ वेश्या? Gm c wwww रढि असुरो ... श्रीमेघराजमुनिरचित । श्रीस्तम्भनपार्श्वस्तवन वंदउं जिन थंभण राया रे, अससेन भूपति जसु ताया रे; वामा धन्य जननी जाया रे, मरकत मणि सरिखी काया रे. १ त्रिहु भवने स्वामि गवाया रे, भवतारण जिनवर आया रे; सेवउ नित्य प्रभुना पाया रे, सुख संपति अह उपाया रे. २ For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ १२३ रूपइं प्रभु नरसुर मोहइ रे, सवि सार शृंगारइं सोहइ रे; उपदेशई जण पडिबोहइ रे, धन्य ते जिन दरिसण जोइ रे. ३ अष्ट सहस लक्षण गुण अनंत भर्या, प्रभावती देवी हरखि वर्या; तप संयम उद्यम बहुल कर्या, भवसागर हेला स्वामि तर्या. ४ धरणेन्द्र सेवइ निज चित्त खरई, विषविघन विशेष दूरि हरइ . प्रभुनाम सदा जे हृदय धरइ, तसु मंदिरि कमला केलि करइ. ५ शशि उज्जल गुण मुख कहीइ रे, जिन आणा मस्तकि वहीइ रे; पयपंकज प्रभुना महीइ रे, दुःख दारिद्र दूरिइं दहीइ रे. ६ मुज आसा सघली आज फली, सुख संपत्ति वेगई आवि मिली; जिन सेवइ भवीयण रंगि रली, जस कीरति पसरइ वली वली. ७ जगि दिनि दिनि वाधइ तेज घणउ, जगजीवन थंभण पास तणउं; त्रंबावइ नगर महामंडणो, ओ सरिस न कोइ देव गिणउ. ८ . मनमोहन सूरति पेख्खउ रे, मद मोह मिथ्यात उवेख्खउ रे; जिन चंद्रवदन मई पेख्खउ रे, आज दिवस सफल सही लेख्खउ रे. ९ जिन मंदरगिरि सम धीरा रे, जिन सायर जेम गंभीरा रे; . जेणई जीत्या मनमथ वीरा रे, जिन जगत चूडामणि हीरा रे. १० जिन ध्यावइ आलस पाखइ रे, मुखि कीरति उज्जल दाखइ रे; तसु दूरगति पडतां राखइ रे, मेघराज मुदा मुनि भाखइ रे. ११ कठिन शब्दोना अर्थ ताया पडिबोहइ हेला खरइ : तात : प्रतिबोधे छे : सहेलाईथी : खरेखर महीइ दहीइ मनमथ जगि : पूजाय छे-पूजे छे. : बाळे छे : कामवासना : जगमां : दूर करीने पाखइ For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ अनुसन्धान-६३ श्रीरामविजयवाचकरचित श्रीस्तम्भनपार्श्वस्तवन पासजी वामाजिना जाया सुं ओक विनति रे लो माहरा पासजी रे लो तुं जगनायक गाजें नयरि त्रंबावति रे लो..... मा. १ अश्वसेन कुलश्री साहिब थंभणा रे लो.....मा. तुम्ह दरिसणथी हियडुं हेज धरें घणुं रे लो.....मा. २ धन तुम्हे तिहां जाया नयरि वणारसि रे लो.....मा. सप्तफणि सीर रुडी मुज दिलडे वस्या रे लो.....मा. ३ इंद्राणि हुलराया मुज आस्या फलि रे लो..... मा. मेरु सिखर नवराव्या सर्व इंद्रे मलि रे लो.....मा. ४ . सफल थया नयणा तुम दिठे मुज तणा रे लो....मा. निलकमल दल काया सोहे तुम तणि रे लो.....मा. ५ कमठासुर मद गाल्यो तें करुणा करी रे लो.....मा. नागनागणि दुःख दारुं बलतां उधर्यां रे लो..... मा. ६ मुज किंकर उपर स्युं करुणा नावि करी रे लो.....मा. तुम सरिखा जग माहे देव दुजा नहि रे लो.....मा. ७ प्रथवि उपर वनस्पति जिव ते तुम चरणे नमे रे लो..... मा. काल अनादि अनंतो भवजल हुं भम्यो रे लो..... मा. ८ दरिसण देखि पातिक नाठा भवतणा रे लो..... मा. पुरव पुन्य अंकुरा प्रकट थयां घणां रे लो..... मा. ९ सकल मनोरथ फलिया दरिसण तुम तणे रे लो..... मा. कवि विमल विजे वाचक राम विजे भणे रे लो..... १० कठिन शब्दोना अर्थ : लाकडं ..: स्नेह दारु For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ १२५ श्रीगुलाबविजयकृत सुमतिजिनआरती अपछरा करती आरती जिन आगें - ओ देशी ॥ सुमति जिणंदने आगलें भवि कीजें. हारे भवि कीजे रे भवि कीजे; हारे आरती बहु दीप धरीजे, हां रे मेघराय कुमार ..... सुमति जिणंदने. सवली आरती सुरज जिम फिरतो, हारे जिन मेरु प्रदक्षणा करतो; हारे भविलोक तिमिरनें हरतो, हां रे कवी ओ उपमा अनुसरतो..... सुमति जिणंदने. मंगला कुंख सरोवर हंस जांण, हारे प्रभु कोसला जनमर्नु ठाण; हां रे त्रणसे धनु कायाप्रमाण, हारे प्रभु य तुं कंचन वान..... सुमति जिणंदने. नुतन देहरो कारियो जिन तेरो, . हारे मांणक हरियो मन मेरो; हारे पंन्यास मणिगुरु थेरो हारे गुलाबें पुजोजी सवेरो.... सुमति जिणंदने. इति आरती सम्पूर्ण संवत् १९४१ना भाद्रवा सुद ५ भोमवारें ॥ For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ रामकुंवरबाईनी पच्चक्खाणवही अनुसन्धान- ६३ सं. मुनि धर्मकीर्तिविजय सं. १९४८ नी वैशाख सुदि दशमना दिवसे रामकुंवरबाईओ स्थानकवासी साधु विजपालजी स्वामी पासे उच्चरेलां, सम्यक्त्व सहित बार व्रतनी - दरेक व्रतनी पोते धारेली मर्यादा दर्शावती आ नोंध छे. श्रावक-श्राविका बार व्रत अङ्गीकार करे तेनी प्राचीन अर्वाचीन घणी नोंधो मळे छे. राणी, बूटडी अने लखमसिरी श्राविकाओनी ताडपत्रीय प्रतमां लखायेली बार व्रतनी प्राचीन नोंधो पूर्वे अनुसन्धानमां प्रकाशित थयेली छे. (अङ्क ३ अने ३६) आवी नोंधोनुं धार्मिक मूल्य तो होय ज छे, पण साथे ने साथे तत्कालीन सामाजिक परिस्थिति, रीतरिवाज, मनुष्यजीवन, रहेणीकरणी व अंगे पण रसप्रद माहिती आवी कृतिओमांथी सांपडे छे. भाषाशास्त्रनी दृष्टि पण आवी नोंधो उपयोगी बनती होय छे. आवी विचारणाथी ज आ कृतिनुं अत्रे सम्पादनप्रकाशन कर्तुं छे. व्रत लेनार बाई कच्छ- मांडवीनां निवासी श्राविका छे, तथा तेमना पतिनुं नाम काराभार (कारभारी) शाह नानचंद छे, तेवुं आ 'वही' मां नोंधायेलुं छे. व्रजपालनी स्वामी कच्छना एक प्रभावक स्था. धर्माचार्य हता. व्रतो स्थानकमार्गी पद्धति प्रमाणे वर्णवायां छे ते मुद्दो ध्यानमा राखीने ज आ 'वही' जोवानी छे. * * * पच्चक्खाणवही संवत् १९४८नां वीरर्षे वैसाख सुद १०नी बाई रामकुंवरबाइनी व्रत पचखांणनी वही मांडी छें. पूज्य शाहेबजी माहापुरुष आत्माअर्थि, क्रीयापात्र, धर्मजात्र, गुणवंत, गुणना भण्डार, तर्णतारण, तारणी नावसमान, पंच महाव्रतना पालणहार, पांच सुमते सुमता त्रिन गुप्ते गुप्ता, षट्कायनी रक्षाना करणहार, बारे भेदे तपस्याना करणहार, सतर भेदे संजमना पालणहार, चोथा आराना नमुना एवी अनेक उपमा बिराज्यमांन पूज्यजी साहेबजी महापुरुष ऋषी श्री कृष्णजी स्वामी. For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ १२७ तेहने संघाडे पूज्यजी साहेबजी माहापुरुष आत्माअर्थि, क्रीयापात्र, धर्मजात्र, गुणवंत, गुणना भण्डार, पण्डित, राजकवी, राजमुनी, राजगीतारथ, बहुसूत्री, सूत्र सिद्धांतनां पारगामी, तरणतारण, तारणी नावासमांन, हस्तवदन, दंतदमन, खीम्यावंत, दयावंत, लजावंत, वैराग्यवंत, छती रिधना त्यागी, माहावैरागी, बालब्रह्मचारी एवी अनेक उपमा बिराज्यमांन पूज्य माहापुरुष ऋषी श्री७ डाइयाजी स्वामीजी. __तत्शिष्य पूज्यजी माहाराज्य आत्माअर्थि, क्रीयापात्र, धर्मजात्र, गुणवंत, गुणना भण्डार, छती रिधना त्यागी, माहावैरागी, सरल स्वभावी, भद्रीक प्रणामी, पर उपकारी, सकल जंतुना हितकारी, आचारी, विचारी, ब्रह्मचारी, निर्मल, निरअहंकारी, समतावंत, आचारवंत, गुणवंत, दयावंत, लजावंत, सुधसीखामणदायक, सर्वगुणलायक, चोथा आराना नमुना एवी अनेक सुभोपमालायक पूज्यजी माहाराज ऋषी श्री७ मुलचंदजी स्वामी.. तत्शिष्य पूज्यजी शाहेबजी आत्मा अर्थी, क्रीयापात्र, धर्मजात्र, गुणवंत, गुणना भण्डार, पण्डित राजकवी राजमुनी, राजगीतारथ, बहुसूत्री, सूत्रसिद्धांतनां पारगामी, चंद्रमानी परें सीतलकारी, सूर्यनी परें उद्योतना करणहार, समकित बोध(धि)बीजदातार, मिथ्यातरूप अंधकारना मिटावणहार, तरणतारण, तारणी नावासमांन, समुरी जिहाजसमान कल्पवेल समांन, कामधेनुसमांन, जिनसासनना सिणगार, जिनमार्गना दीपावणहार, टोलानां नायक, मेरुनी परें अडिग, सिंघनी परें सुरवीर, स्वसरस्वतीकंठाभरण, बालब्रह्मचारी, चोथा आरानां नमुना एवी अनेक उपमालायक, सकल सुभगुण लंकृत, पूजजी शाहेबजी माहापुरुष ऋषी श्री७ देवजी ऋख स्वामी. तत्शिष्य तपसी माहापुरुष आत्मा अर्थी, क्रीयापात्र, धर्मजात्र, छती ऋधना त्यागी, महावैरागी, सरलस्वाभावीक, भद्रीक प्रणामी, पर उपगारी, खीम्यावंत, दयावंत, लजावंत, वैराग्यवंत, समतावंत, चोथा आराना नमुना एवी अनेक सुभउपमा बीराजमान तपसी माहापुरुष ऋषि श्री७ तलकसी स्वामी. ___ तत्शिष्य माहापुरुष गुणवंत, गुणना भण्डार, माहापुरुष ऋषी श्री७ कर्मचंदजी स्वामीजी, तेना शिष्य महाराज विजपालजी स्वामीनी समीपें श्रावकना व्रत समकित सहित आदर्या छे. ते जावजीव सूधी मांड्या प्रमाणे For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ अनुसन्धान-६३ सूद्ध पालवा. तेमां प्रथम समकितनी विगत मांडी छे. धर्म अर्थे देव श्रीअरिहंत, ते स्वामी केहवा छे ? चोत्रीस अतीसय करीने बीराज्यमांन, पांत्रीस प्रकारनी सत्य वचन वाणीनां बोलणहार, एक हजार अष्ट उत्तम लक्षणना धरणहार, चउसठ अइना (इंद्रना) पूजनीक, त्रिन लोकनां नाथ, सकल लोकना स्वामी, म हणो म हणो शब्दना करणहार, अनंतो ज्ञान, अनंतो दर्शन, अनंतो बल, अनंतो वीर्य, अनंतो पुरुषाकार प्राक्रमना धरणहार - एवं अनेक गुणे करी अलंकृत एहवा अरिहंत देव धर्म अर्थे करीने सत्य जाणवा. बाकी संसारनां देव धर्म अर्थे मानवाना पंचखांण. संसारने अर्थे मानवा पडे तो आगारे छे. धर्म अर्थे गुरु ते निग्रंथ, पंच महाव्रतधारी, कंचन कामिनी नीवारी, उग्र विहारी, रात्रिभोजन नीवारी, आचारी, विचारी, भ्रमचारी, निर्मल, निरअहंकारी सचित्त नाम त्यागी, अचेतना भोगी, छकायनी रिख्याना करणहार, बारे भेदे तपस्याना करणहार, सत्तरभेदे संजमना पालणहार, बावीस परिसहना जीतणहार, सत्यावीस साधून गुणे करी सहीत, बेतालीस तथा सडतालीस तथा छनु दोष टाली आहार पांणीना लेवणहार, संसारथी उपरांठा, मोक्षने साहमा, कंचन कामनीथी न्यारा, तेड्या जाय नही, नो नोत्र्या जीमे नही, पंच आचारना पालक, एवं अनेक शुभगुणालंकृत पूज्यजी शाहेबजी माहापुरुष ऋषी श्री७ देवजी ऋख स्वामी महरा धर्मगुरू धर्म आचार्य छै. तथा एना संघाडाना साध साधवी एहनी आज्ञा प्रमाणे विचरे छे तें, जिनाज्ञा प्रमाणे साधवी वीचरे छे ते पीण माहरा धर्मगुरु 2. मोक्षने अर्थे एहवा गुरू सत्य करी जाणवा, बाकी संसारीक गुरू संसारने अर्थे मानवा पडे तो आगार छे. धर्म अर्थे धर्मने श्रीकेवली ज्ञानीनो भाख्यो दयामूल विनयमूल ज्ञान दर्शन : चारित्र तप दांन सीयल तप भाव च्यार तिर्थनी सेवा भक्ती विनो वाछलका करवी, संवर करणी, पून्यकरणी इत्यादिक जिनाज्ञा प्रमाणे जे कर्तव्य करवा ते सर्वे धर्म जाणवो. एहवो धर्म आदरवो, आदराववो, आदरता प्रते रुडू जांणवो. एहवा त्रिन तत्त्व साचा करी जांणवा. एह मोक्षमार्गनो साधन छे. बाकी कुदेव-कुगुरु-कुधर्म मोक्षने अर्थे मानवानां पचखांण. संसारने अर्थे मानवा पडे तो आगार छे. तथा छ छीडींनो आगार छे. For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ २. १. पेहलो अणुव्रत थूलावो पाणाइवायाओ वेरमणं. त्रस जीव-बेरंद्री, तेरंद्री, चोरंद्री, पंचेंद्री एहवा जीव जांणी प्रीछी हणवानी बूद्धे करी हणवानां पचखांण, जावजीवाए दुविहं तिविहेणं न करेमी, न कारवेमी मणसा १ वयसा २ कायसा ३ कोटी ६ करी पचखांण.. तेमां आगार छे तेनी विगत - सय संबंधी १ सरीर मायला पीडाकारी २ सय अपराधी विगलेंद्री विना ३ ए त्रिन आगार छे तथा सेषम एकेंद्री पण हणवाना पचखांण जावजीवाए तिविहं तिविहेणं कोटी ९-नवें करी पचखांण छे. बीजु अणुव्रत थूलाओ मुसावायाओ वेरमणं. कन्नालीक १ गोवालीक २ भोमालीक ३ थापणमोसो ४ मोटकी कुडी भाष ५ इत्यादिक मोटकुं जुलूं बोलवाना पचखांण. जावजीवाए दुविहं तिविहेणं न करेमि न कारवेमी, मणसा वयसा कायसा कोटी ६ करीने पचखांण. तेमां भाषा न जलवाय तेनो आगार छे. अणउपीओगनों आगार छै. ३. बीजो अणुव्रत थूलाओ अदीनादाणाओ वेरमणुं. खात्र खणी, गांठडी छोडी, ताला पर कुंची उघाडी, पडी वस्तु धणीयाती जांणी उपर वाडा त्रपी, मार्ग बांधी, वाट पाडी, थल जुझ करी, जल जुझ करी, इत्यादि मोटकुं अदत्तादांन लेवाना पचखांण. तेमां सगां सम्बन्धी तथा वेपार सम्बन्धी तथा नभरमी वस्तु उपरांत अदत्तादांन लेवानां पचखांण. जावजीवाए दुविहं तिविहेणं कोटी ६. ४. चोथू अणुव्रत थूलाओ मेहूण वेरमणु. सर्वथा प्रकारे मेहूण सेववाना पचखांण. जावजीवाए देवता सम्बन्धी दुविहं तिविहेणं कोटी ६. मनुष त्री जीव सम्बन्धी एगविहं एगविहं न करेमि कायसा कोटी १. सोइ दोराने वेवारे अने पोताना भरथार संघाते मास १मां दीन २६नी आवर्त, उपरान्त पचखांण, तेमां संघटा फरसनानो आगार छे. For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० अनुसन्धान-६३ आठमतं पाखीना पचखांण. भुलचुकनो आगार ने बारमाए जावो पडे ने आठमतं पाखी होए तेनो पचखांण छे. पांचमुं अणुव्रत थूलाओ परिगाहीओ वेरमणं. नवविध परिग्रहानो मान कीधो छे, तेनी वीगत. १. क्षेत्र केतां उघाडी भोमका क्षेत्र तथा वाडी आदि धरती पराजा ५ ___उपरान्त पचखांण छे. २. वत्थू केतां ढांकी भोमका, घरहाट, वखार आदि नंग-२५ उपरान्त पचखांण छे. ३. हिरण केतां रूपो थाले राखवो पडे तो सेर तथा मण ०|| उपरान्त __ पचखांण छे. ४. सुवन्न केतां सोनु थाले राखवो पडे तो सेर १५ उपरान्त पचखांण. ५. धन केतां रोकड नाणु मोरबंध सर्वे थईने ए राखवू पडे तो कोरी हजार ७५, उपरान्त०. ६. धांन केतां धांन सर्वे जात मांहेथी थाले राखवु पडे तो वरस १ मध्ये __ कलसी १०, उपरान्त पचखांण छे. ७. दोपद केतां दास दासी वेचाता लेइ राखवा पडे तो नंग-२ उपरान्त पचखांण. तेमां अनुकंपाने कारणे पेटवडीओ राखवो पडे तो आगार छे. उपरान्त पचखांण छे. ८. चोपद केतां चोपानो मांन कीधू छे. १. .गाय वेलासहित नंग ४. । २. भेस वेलासहित नंग २. ३. बकरी वेलासहित नंग १०. ४. रढ वेलासहित नंग १. ५. बलदनी जोड २. ६. घोडाघोडी १. ७. उटउव(ट)डी १. एणी रीतें चोपांनो मांन कीधो छे. तेमा मरी जाए तो बीजो लेवो पडे तं, लेणा लेखामां आवे तेनो आगा० ९. कुवइ केतां घर वखारो त्रांबरछ सर्वे थइने राखवो पडे तो कोरी हजार २५नो. उपरान्त पचखांण. For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ १३१ एणी रीते नवविध परिघरानो मांन कीधो छे. ते प्रमाणे पालवों. तेमा लेणा लेखामां आवे तेनो आगार. राजकदेवकनो आगार तं, सगासम्बन्धीनो तं, हेतु प्रीतु नो साचववो पडे तो आगार छे, उपरान्त पचखांण-जावजीवाए एगविहं तिविहेणं न करेमि मणसा वयसा ने कायसा कोटी ३. ६. छठ्ठो दिसी व्रत. ते ६ दिसनो मांन कीधो छे. १. धरती थकी ऊंचो चडवो पडे तो गाउ १२. २. धरती थकी नीचो उतरवो पडे तो गाउ १. ३. श्रीमांडवी थकी च्यारे दिसे त्रीछो थलमारगे जावू पडे तो गाउ २००. तथा जलमार्गे जावू पडे तो गाउ २०००, उपरांत पचखांण छे. एणी रीते छ दीसीनो मांन कीधो छे. ते उपरान्त सइच्छाई कायाइं जइने पांच आश्रव सेववाना पचखांण. जावजीवाए दुविहं तिविहेणं न करेमि न कारवेमि पणसा वयसा कायसा, करंतं नाणुंजाणइ वयसा कायसा कोटी ८ करीने पचखांणमाहे रहीनें इगविहं तिविहेणं न करेमि मणसा वयसा कायसा कोटी ३ करीने पचखांण. ते उपरान्त कारण विशेष तथा राजकदेवकनो तथा परवसपणानो तथा दिश्यानों आगार, तथा कागल पत्र लिखाववो पडे, तथा वकील वांणोतर मूकवो पडे तो आगार छे. सातमो व्रत उवभोग परिभोगविहं पचखायमांणे २६ बोल तथा १५ कर्मादांननो मांन कीधो छे. तेनी विगत मांडी छे. १. ओलणीयाविहं ते अंगोछानी जात वस्त्रनि जात सर्वे माहेथी अंघोलीने सरीर लुवो पडे तो लुगडो गज २५. उपरान्त पेरवाने लुगडे लुवो पडे तो आगार, उपरांत पचखांण छे. २. दंतणविहं केतां दातणनी जात मांहेथी काम पडे तो रोज १, कटका ४, उपरांत पचखांण छे. ३. फलविहं केतां नीला सुका फल भोगववा पडे तो रोज १, सेर २०, उपरांत पचखांण छे. For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ ४. ६. ७. ८. अनुसन्धान-६३ अभीगणविहं केतां तेलनी जात मांहेथी रोज १, सेर १, उपरांत पचखांण छें. मजणविहं ते नावु तथा अंघोलवूं पडे तो मास १मां दिन १५ तथा लुगडा धोवा जावो पडे तो मास १मां वार १५ उपरांत पचखांण. तेमां लोकीकने कारणें तथा असुचने कारणें तथा परवसपणाने कारणे आगार छें. वच्छविहं केतां वस्त्रनी जात सर्वे मांहेथी पेरवो पडे तो तथा ओढवो पडे तथा पाथरवो पडे तो लुगडों गज ५००, तार छेडा सहित. उपरांत पचखांण. तेमां लुगडांनी गांठडी तथा वीटला तथा ओखला लूंगडा, ते उपर बेसवो पडे तो आगार छे. विलेपणविहं केतां टीलां टबकां करवां पडे तो रोज १ छूटाभार, उपरांत पचखांण. तेमां कारण विशेषनो आगार छें. पुप्फविहं केतां फूलनी जात मांहेथी सुंगवी पडे तो रोज १, ८ भार उपरांत गलालं पाकमां आवे तथा कोए बीजी वस्तमां आवें तेनो आगार. बजर सुंगवी पडे तो रोज १ छूटा २ भार. उपरांत पच० १०. आभर्णविहं केतां आभर्णनी जात मांहेथी रोज १ पेरवो पडे तो कोरी हजार ककर पथर सहीत, तेमां भुलचूकनो आगार छें. ११. धूपविहं केतां धूप धर्मने अर्थे करवोंना पचखांण. संसार अर्थे करवूं पडे तो रोज १, धूप छूटा १ भार. तथा लुगडा धूपवा पडे `तथा कोए कार्ण पडे तेनुं आगार छें. १२. पेजविहं केतां चडानी जात मांहेथी भोगववो पडे तो रोज १, सेर ५, उपरांत पचखांण छे. १३. भखणविहं केतां सुखडीनी जात सर्वे मांहेथी भोगववी पडे तो रोज १, सेर ५ फरसाण सहीत, उपरांत पचखांण छे. १४. ओदनविहं केतां लासा धांननी जात मांहेथी भोगववो पडे तो रोज १, सेर ५, तथा पाली २, उपरांत पचखांण छें. For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ . १३३ १५. सुपविहं केतां कठोलनी जात मांहेथी भोगववो पडे तो रोज १, सेर ५, तथा पाली २, उपरांत पचखांण. १६. विगयविहं केतां विगयनी जात दारु तथा मांस ए २ना मूल थकी पचखांण. मधनु काणे तथा ओषडमा आवे तो आगार. मांखण छासमांतां० ओषडमां आवे तो आगार. पोतानो लोहि पोताना गला हेठो उतरे तेनो आगार. बाकी धार विगय-७, तेनु मान कीधो छे तेनी वीगत मांडी छे. घृत सेर - २, तेल सेर - १, दूध सेर - ११, दही सेर - ९ खांड सेर - २, साकर सेर - २, गोल सेर - २. एणी रीते ७ विगयनो मांन कीधो छे, ते प्रमाणे पालवं. तेमां भुलचूकनो आगार कार्ण विशेष, परवसपणानो आगार छे, उपरांत पचखांण छे. १७. साकविहं केतां नीलोतरीनो मांन कीधो छे. तेनी वीगत मांडी छे. १. चीभडां. २. कालींगा ३. तुरीया ४. रींगणा ५. पत्रकालो ६. काठचीभडां ७. दाडम ८. जांमफर ९. सीताफल १०. अना[न]स ११. आंबा १२. लींबू १३. खारकडी १४. जांबू १५. कोटींबा १६. बदाम नीली १ श्रीफल नीलों १८. द्राख नीली १९. कंटोलां २०. कारेलां २१. रांणकोकडी २२. केलांफरी २३. गुआरफरी २४. चोराफरी २५. मगफली २६. कोरडफली २७. मेथीनी जात २८. सरसव २९. भाजी ३०. नारंगी ३१. कुडली ३२. घउयाल ३३. वालोर ३४. पांनडी ३५. भीडा ३६. मोघरी ३७. मूलानां पांन ३८. डांठीनी जात ३९. सोयानी जात ४०. राइनी जात ४१. आंवली ४२. पान नागर ४३. पांन तुरसी ४४. पांन फूदना ४५. फूल गुलाब For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ अनुसन्धान-६३ ४६. फूल मरेठी ४७. सांठो सेलरीनों ४८. सांठो जुवारनों ४९. सांठो बाजरानों ५०. सांठो रतडनों ५१. पोंक जु० ५२. पोंक घ० ५३. पोक बा. ५४. चणांओ ५५. पुछर पो० ५६. बोर आं० ५७. बोर चणी ५८. कांकडी ५९. चक त० ६०. पीलुं ६१. गांगी ६२. लुसकां ६३. मरचां नीला ६४. कठोल पलालेल ६५. टीनसा नीलोरी अथ अथाणानी जात मांडी छे, तेनी वीगत छे. १. केरांनी जात २. केरीनी जात ३. लींबूनी जात ४. डोलीगांनुं ५. आदूनो ६. मरीनों ७. परवतराइनो पान तथा फुल ८. बावरीयानों ९. करमदा १०. डालानों ११. कुआरनों १२. वांसनो १३. गुंदानो १४. घोलांनो १५. मामेचानो १६. गरमरनो १७. मरचांनो १८. सफल जलनों ए अथाणानो छे. एणी रीते अथाणानो मांन कीधो छे. वळी साखनि मते नीलोतरी मोकली राखी छे. ते मांहेथी अथाणो आथवो पडे तो आगार छे. दांतणनी जात - बावलनो, झीलडानो, बोरडीनो, आवलनो, वोणनी सांठी, बाकी सुकल करवो पडे तो आगार छे. १८. महूरविहं केतां मेवानी जात मांहेथी भोगववो पडे तो रोज १ सेर, . उपरांत पचखांण छे. १९. जमणविहं केतां जमणनी जात मांहेथी जे नातनो जमण जमवो पडे तो रोज १, सेर १० नुप (?), उपरांत पचखांण छे. छास जुदी छे. २०. पांणीविहं केतां पाणी पीवो पडे तो रोज १, मण १, उपरांत .. पचंखांण. २१. मुखवासविहं केतां मुखवासनी जात मांहेथी भोगववो पडे तो रोज For Personal & Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ १३५ १, सेर १, उपरांत पचखांण. २२. वांणीविहं केतां पगरखानी जोड वरस १ मध्ये नंग-२, उपरांत पचखांण. तेमां साटल पाटल थरइ जाए तथा कोइनी मांगी पेरवी पडे तथा जाए ने बीजो लेवो पडे तो आगार छे. २३. वाहनविहं केतां वाहननी जात तेनी विगत - तरती नंग - ५, फरती नंग - ५, चरती नंग - ५. २४. सयणविहं केतां सुता बेठानां आसन भोगववां पडे तो रोज १, नंग-२०, उपरांत ५० २५. सचेतविहं केतां सचेत द्रव्य भोगववां पडे तो रोज १, द्रव्य २०, उपरांत पचखांण छे. २६. द्रव्यविहं केतां द्रव्य सचेत अचेत भोगववो पडे तो रोज १, द्रव्य १०, उपरांत पचखांण छे. एणी रीते बोल २६नी मरजाद कीधी छे ते उपरांत उवभोग परीभोग निमित्ते भोगववाना पचखांण. जावजीवाए एगविहं तिविहेणं न करेमि मणसा, वयसा, कायसा कोटी ३ करीने पचखांण. • तेमां छ छीडीनो आगार - अजाण्यानो १ बलात्कारनो २ मान्या ठेकाणे होए तेने केणे ३ सरीरनी समाधी लेतां, कारण विशेषे आगार, दिश्याने कारणे आगार. १७. पन्नर करमादान मांहेथी जे बोलनो वेपार करवो पडे तो वरस १ मध्ये कोरी हजार ७. मोनो उपरांत पचखांण छे. कोरी व्याजु देवी पडे आगार. ८. आठ{ अनरथा दंडनुं वेरमj. चउविहे अणठा दंडे प्रमाणं पन्नते, तं जहा- तेनी विगत. १. अवज्झांण चिरयंते विगर कारणे आर्त-रुद्र ध्यान धरवो नही. २. पमाय चरियंते. प्रमांदे दही दूध तेल घ्रत एठना ठाम उघाडा राखवा नहीं. For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-६३ ४. पाव ३. हिंसम पयणंते. हिंस्या करी सस्त्र वधारवा नही. कोस कोदाली प्रमुख जाणवा. पावकमोवएसंते, पापकारी उपदेश विगरं अर्थे विना स्वार्थे देवो नही. आयहेऊवा प्रमुख आठ बोल उपरांत अनर्थडंड सेववाना पचखांण. नवमुं सामयक व्रत सावज्ज जोगर्नु वेरमणं. जाव नियम पजुवासामी दुविहं तिविहेणं न करेमी न कारवेमी मणसा वयसा कायसा कोटी ८ करी सामायक वरस १ मध्ये सामायक २५० करवा. छती सगते रही जाय तो आगल पाछल वारी करवा. तेमां जराने कारणे तथा रोग दोषने काणे, परवसपणाने कारणे आगार छे. १०. दसमु देसावगासिया व्रत सामायकनी रीते घडी च्यारनु देसावगासीया वर्ष १ मध्ये नंग-२ तथा अहोरात्रनु दिसावगासीया वरस १ मध्ये नंग-१ करवा. कोटी ८ करी करवा. दुविहं तिविहेणं न करेमी न कारवेमी मणसा वयसा कायसा करतं नाणुंजांणइ वयसा कायसा कोटी ८ करी करवा. ते मांहि जाय तो आगल पाछल वाली करवा. तेमां जराने कारणे, परवसपणाने कारणे, रोग दोषनें कारणे आगार. ११. इग्यारमो पोषद व्रत. ते पोसो वरस १ मध्ये नंग-१ करवो. छती सगते रही जाए तो वालीने करवो. पोसो न थाए तो छठ १ करवो. छठ न थाए तो छुटक अपवास ५ करवा. जावजीव सूधी दुविहं तिविहेणं न करेमि न कारवेमी मणसा वयसा कायसा, करंतं नाणुंजांणइ वयसा कायसा कोटी ८ करी करवा. तेमां जराने कारणे तथा परवसपणाने कारणे तथा रोगदोषनें कारणे आगार छे. बारमो अतिथि संविभाग व्रत समणे निग्गंथे फासुए एसणीजे णं असणं १ पाणं २ खाइमं ३ साइमं ४ वच्छ ५ पडिग्गह ६ कंबल ७ पायपूछणं ८ पाढियारुपीढ ९ फलग १० सिज्या ११ संथारे १२ ओसह १३ भिसज्येणं १४. पडिलाभेमांणे विहरंती. एहवो चौद प्रकारनो दांन साधू साधवीने देवो. जोग न बने तो भावना भाववी. जावजीवाए कोटी ९. १२. For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ ___१३७ १३७ हवे ५ थावरनो मांन कीधू , तेनी वीगत मांडि छे. १. खूती प्रथवीनो मांन कीधो छे तेनी विगत - लांबी गज ४, पोली गज ४, ऊंडी गज ४ छदांणी प्रथवीनो मांन कीधो छे. पाणांनो काम पडे तो रोज १, गाडा १०, मास एकें १ माटी लीपवानी सुंदला - ५. . . . तथा बएड तथा थाप करवानी माटी वरस १मा गाडा २०. माटी आछा रीगानी वरस १ मध्ये सुंदला १०. खारो पापडीओ वरस १ मध्ये मण oा. खारो धडीओ वरस १ मध्ये सुंदला १०. माटी ध्योवानी तथा मगमाटी सेर १. । मीठो वरस १ मध्ये सेही २. अटार वरस १ मध्ये बालका २५ तथा गाडा काकर वरस १ मध्ये सुंदला १० तथा गाडा बीजी छुटक प्रथवी हींगलो तथा हरीयाल तथा सुरमो आदे देह तेनो काम पडे तो रोज १ सेर oा. एणी रीते प्रथवीकायना आरम्भनो मांन कीधो छे. ते उपरांत महोसे आरंभ करवाना पचखांण. तेमां भुलचूकनो आगार छे. खोरड्या पड्या, आखड्या, समा करवा पडे तो आगार. राजकदेवकनो आगार. गाढागाढनो आगार छे. अपकाय केतां पांणीना आरम्भनो मांन कीधो छे, तेनी वीगत छे. पांणी पोताने भरवो पडे तो रोज १, हेल १, तथा नाने मोटे कार्ये हेल १. पाणी थांमवो उथामवो पडे तो रोज १, हेल १०, नाने मोटे कार्ये हेल २०. एणी रीते पांणीनां आरम्भनो मांन कीधो छे, तेनी वीगत छे, उपरांत पचखांण. तेमां वरसातने कारणे तथा लाए पलाएने कारणे For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ अनुसन्धान-६३ विशेषनो आगार छे. ३. तेउकायना आरंभनो मांन कीधो छे, तेनी विगत मांडी छे. चूला रोज १, नंग ५ तथा नाने मोटे कार्जे नंग १०. तथा चूलडी नंग ५ उपरांत केने चूले फूंक देवी पडे तो, लाकडो आघो पाछो करवो पडे तो आगार छे. दीवा रोज १, नंग १०, तथा नाने मोटे कार्ये नंग २५, तथा दीवालीनां दीवा करवा पडे तो नंग २५. दीवासली रोज १, नंग - २५, तथा नाने मोटे कार्ये नंग ५०. दीवी धातुनी नंग ५, तथा लाकडानी नंग ५, तथा नामे मोटे कार्ये नंग २५. लांबा लामण दीवा रोज १, नंग २, नाने मोटे कार्ये नंग १०. मीण वाट नंग ५, मेंरायानो काम पडे तो नंग ५. दारुनी रमत पोताने वछोडवी पडे तो रोज १ सेर १, उपरांत पचखांण छे. . सगडी तथा ठीबडी तथा लोटीया तथा अंगीठीतं छुटक अगनीना वासणनो काम पडे तो रोज १ नंग ५ तेलनी भवी काढवीं पडे तो वरस १ मध्ये... सुवावड करवी पडे तो वरस १मां १. उपरान्त पचखांण. तेमां कारण विशेषनो, अणअपीउगनो, परवसपणानो आगार छे. ४. वायराना आरम्भनो मान लीधो छे, तेनी विगत दवर तथा चीचोडो तथा चरखी तथा पडाइ तथा भोदलो उडाडवाना पचखांण. तथा पीजण पीजवाना पचखांण. लोहारनो, सुतारनो, सहीनो कसब करवाना पचखांण. ओगण पंचास जातना वाजीत्र धर्म अर्थे वजाडवाना पचखांण. तथा . छोकराने कारण आगार. For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी २०१४ ५. रेंटीया रोज १ नंग १, सांबलां रोज १ नंग ५, दसता रोज १ नंग ५, फालका रोज १ नंग १, खांडणी रोज १ नंग ५, घरंटी रोज १ नंग २ नाने मोटे, कार्जे नंग ५. वेलणा रोज १ नंग १०, कार्जे नंग ५० वीझणा नंग. ४, पीछी रोज १, नंग २, सावेंणा रोज १, नंग २ घोडीयां रोज १, नंग २ हीचोला नंग २ चकला नंग १५, पंखा रोज १, नंग २, सावेणी रोज १, नंग ४, कांकसी रोज १, नंग २, पालणा रोज १, नंग १० सुपडा रोज १, नंग ५ तथा कार्ये नंग १०, वलोणांना रवाइया रोज १, नंग ५, चारणां रोज १, नंग ५, तथा कार्ये नंग १०, चालणी धातुनी, पांननी रोज १ नंग ५, तथा कार्जे नंग १०, तथा हवारा नंग ४, तथा टाचकां, घुघरा पोताने वजाडवाना पचखांण. छोकरांने कारणे आगार. १३९ एणी ते वायराना आरम्भनो मांन कीधो छें. तेमां अणअपीओगनो आगार, परवसपणानो तथा कार्य विशेषनो आगार छें, उपरान्त सेहेसे आरम्भ करवाना पचखांण छें. वनस्पतिकायनां आरम्भनो मांन कीधो छे. उगी वनस्पती लेरे, जातीसे होसे त्रोडवाना पचखांण. तेमां ओसड सारू त्रोडवी पडे तो आगार तथा अणउपीयोगनो, परवसपणानो आगार, तं. छोकरां निमित्ते त्रोडवी पडे तो आगार. छेदांणी वनस्पतिनो मांन कीधो छें. नीलोत्री साक निमित्ते राधवी पडे तो रोज १ सेर ५ तथा नाने मोटे कारजे मण २. सुकवणी करवी पडे तो रोज १ के मण १ For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० अनुसन्धान- ६३ आथाणो आथवो पडे तो वरस १ मण ५, तथा कार्जे मण १०. नीलोत्री सचेत मांहेथी अचेत करवी पडे तो रोज १, मण ना, तथा सेर - २५. चोपाने चरो नीरवो पडे तो रोज १, कोरी १० नो ते नीलोने सुकलनो आगार. सुकि वनस्पतिनो मांन कीधो छे तेनी विगत छें धांन रांधवो पडे तो रोज १, माणा ४ तथा नाने मोटे कार्जे सई २. धांन दलवो पडे तो रोज १, फालो पाली ८ नाने मोटे कार्जे माणा २, उपरांत पचखांण. धांन भरडवो पडे तो रोज १, सई २, उपरांत पचखांण. तथा कार्जे सई ४, धांन पलारवो पडे तो रोज १, सई ८, नाने मोटे कार्जे कलसी था तथा हारा: धांन सोजवो पडे तो रोज १, सई २, • तथा नाने मोटे कार्जे कलसी १, तथा हारा:. धांन खांडवो पडे तो रोज १, सई ना, कार्ये कलसी ०ा. धांन रांधवो पडे तो रोज १, सई १, कारयें सई२ तथा कलसी वा उपरांत पचखांण छें. श्रीफल भांगवां पडे तो रोज १, नंग ५, त्रोफा सोपारी भांगवी पडे तो नंग ५०, नाने मोटे कार्जे नंग १००, उपरांत पचखांण छें. कपासीया बाफवा पडे तो रोज १, मण २, गोवार पलारवो पडे तो रोज १, सई ०गा, काला फोलवा पडे तो रोज १, मण० बीजा वसाणा छूटक रोज १, सेर १०, कार्जे मण ३, उपरांत पचखांण. बीजा फल सूकां भांगवां पडे तो रोज १, सेर १०. एणी रीतें ५ थावरनो मांन कीधो छें. तेमां कारज कारण विशेषनों तथा अग अपयोगनो तथा परवसपणानो आगार छें. एवइ मध्ये बोल काढवो For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ १४१ घालवो पडे तो वरस १० नो आगार. एणी रीतें समकित सहित बार व्रत तथा पन्नर कर्मादांन तथा पांच थावर माड्या छे ते जावजीव सूधी पालवा. एणी रीते समकित सहित व्रत अंगीकार कीधा छे, ते पूज्य माहापुरुष आत्मार्थी, क्रीयापात्र, धरमयात्र, गुरुगुणवंत, गुणना भण्डार, भद्रीक प्रणामी, एहवी अनेक उपमालायक ऋषि श्री७ कर्मचंदजी स्वामीनी समीपें वरत अंगीकार कीधा छे. तेमां बोल कोए काढवो घालवो पड़े तो वरस १०नो आगार छे. एवइ मध्ये कांनो, मातर, मीडी, पद ओछो, अदकों लखाणों होए तो मिछामी दुकडो. एवइ उपरली वइ प्रमाणे लखी छे, ते सत्य छे. लखीतंग त्रवाडी भवांनजी लीलाधराणी. लिखावितं बाइ रामकुवरबाइ साहा काराभार नानचंदनी वहुनी वइ छे. श्रीरस्तु ॥ गुरु माहाराज गुणवंत, गुणना भण्डार, आतमा अथि, किरीयापात्र, धर्मजात्र, छती रीधीनां तागी, माहावैरागी, चोथा आराना नमूनो, चंद्रमानी पेरे सीतलकारी, सूरजनी परे उद्योतनां करणहार, समुद्रनीय गम्भीर, कामधेन गाइ समांन, कल्पवृक्ष समांन, रत्न चंतामणी समांन, पारसमणी समांन, बहुसूत्री, सूत्रसीधातना जांण जैनमारगनां दीपावणहार, चारतीरथनां सुखदायक, छकाईनां पीयर, छकाईनी रक्षाना करणहार, पांच सुमते सुमता, त्रण गुपते गुप्ता, सरल सभावीक, सरव जीवनां हेतु, मिथ्यात रूप अंधकारनां मटावणहार, समकीतरूप बीज बोधनां दात, बालब्रह्मचारी महाराज श्री७ नानचंदजी स्वामी गुरु छे. समकीते पासेंथी पीधु छे. लखीतं - अमरसी जैचंद श्रीगोउलवालो. For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ अनुसन्धान-६३ अर्थ छूट तुलसी कठिन शब्दोना अर्थ शब्द अर्थ हस्तवदन हसतुं मुखडं ओखला छूटक(?) समुरीजिहाज समर-युद्धनुं वहाण(?) १ छूटाभार १ छूटा पैसा जेटला भ्रमचारी ब्रह्मचारी वजनसचेत सचित्त, सजीव ८ भार आठ आनी वजनउपरांठा अलिप्त गलाल गुलाल महरा मारा कार्ण कारण विनो वाछलका विनय-वात्सल्य पेज थूलावो स्थूलथी चडा सेषम सूक्ष्म धारविगय प्रवाही विकृतिजनक नभरमी नधणियाती पदार्थो . आवर्त तुरसी पराजा वारी करवा वाळी आपवा मोरबंध महोर-मुद्रा खूती प्रथवी ? दोपद द्विपद छदांणी प्रथवी छेदायेली पृथ्वी पेटवडीओ. घरना सभ्यनी माफक बएड वेला वंश-वेलो (वाछर९) थाप लींपण-गुंपण(?) घेटुं(?) आछा रीगानी ? चोपां पशु . अटार कुवइ कुप्य(-सोना-रूपा महोसे सिवायनी धातुओ) खोरड्या त्रांबरछ तांबुं(?) लाए पलाए आग(?) परिघरानो परिग्रहनो त्रीछो हवारा राजकदेवक राजसत्ताने कारणे टाचकां ओलणीया अंगलूहणां फालो अभीगण अभ्यङ्गण हारा असुच अशौच खोरडा भवी . तिर्छ . . . . For Personal & Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ १४३ जैन चित्रशैली का पृथक् अस्तित्व* . विजयशीलचन्द्रसूरि आधुनिक पश्चिम भारत-प्रदेश में से मिली हुई, ई. ११ वें शतक से लेकर १६वें शतक पर्यन्त की, ताडपत्रीय एवं कागज की सचित्र हस्तप्रतियाँ, वस्त्रपटों एवं काष्ठपट्टिकाओं में उपलब्ध चित्रकला के नामविधान के विषय में हमारे चित्रकला-मर्मज्ञों में भारी मतभेद रहा है। कतिपय विद्वान उस कला को 'पश्चिम भारतीय चित्रशैली' कहते हैं; कितने विद्वान उसको 'पश्चिम भारतीय जैन शैली' कहते हैं; किसी विद्वान ने उसको 'गूजरात की जैनाश्रित चित्रकला' ऐसा नाम भी दिया है, तो कभी कभी उसको 'मारुगुर्जर शैली' के नाम से भी पहचाना गया है। किन्तु इस चित्रशैली के बारे में आजतक विद्वानों में सर्वसम्मति व एकवाक्यता नहीं सध पाई है। हमारे अभिप्राय से प्रस्तुत चित्रशैली को 'जैन शैली' या 'जैन चित्रशैली' नाम देना अधिक युक्तियुक्त व उचित लगता है। ऊपर बताये गये नामों में से किसी एकको पसंद न करके 'जैन शैली' ऐसा नाम बताने में कोई साम्प्रदायिक आग्रह नहीं है । बात यह है कि मध्यकालीन जैन चित्रकला के मुख्य आधार/ स्रोत जैन धर्माचार्य है । वे भारत के, पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण-चारों दिशाओं के, विभिन्न प्रदेशों में सदैव पदयात्रा करते रहते, और अपनी इस पदयात्रा के दौरान, उन्हें जब कभी, कोई कल्पसूत्र व अन्यान्य ग्रन्थों लिखवाने की व चित्रांकित कराने की जरूर पडती, तब वे जहां - जिस प्रदेश में, जिस गांव या नगर में - विचरते, वहां के प्रसिद्ध लेखक व चित्रकार को बुलाते, अथवा अन्य किसी भी प्रदेश या गांव के अपने परिचित लेखक व. चित्रकार को भी बुलवाते, और उसको अपने अनुकूल लेखनकार्य व चित्रकार्य के लिये सम्पूर्ण मार्गदर्शन कराते । बाद में वह लेखक एवं चित्रकार, तदनुरूप लेखन व चित्रांकन का कार्य सम्पन्न करता। यह एक परम्परा - ट्रेडिशन है, जो आज भी प्रचलित है। इससे हुआ यह * ओरिएन्टल कोन्फरन्स - अमदावाद, ई.स. १९८८ में प्रस्तुत शोधपत्र का सारांश For Personal & Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ अनुसन्धान-६३ कि इस चित्रकला को, अन्य चित्रशैलियों की तरह, किसी स्थल या प्रदेशविशेष का मर्यादाबन्धन रहा नहीं। एक ही शैली के कल्पसूत्रीय चित्रों आगरा में, पाटन में, खम्भात में, जौनपुर में, माण्डू में, एवं अन्यान्य स्थलों में बनाये गये समानरूप से मिलते हैं, उसका भी यही कारण है। यद्यपि अलग अलग प्रदेश या गांव में। शहर में चित्रांकित चित्रों में स्थानीय/प्रादेशिक शैलीगत, कलमगत एवं रंगमिलावट इत्यादि की छोटीछोटी कुछ विभिन्नता/तरतमता दिखाई देती है, परन्तु वह विभिन्नता रहते हुए भी उन चित्रों की जो मौलिक लाक्षणिकताएं हैं - जैसे कि डेढ चश्म आंखें, नुकीली नासिका, अत्यधिक पतला कटिप्रदेश एवं रेखाओं का प्राधान्य - वह सब तो सर्वत्र एक-समानरूप से ही मिलती हैं। और ऐसा होने का कारण यही है कि यह चित्रकला जैन धर्माचार्यों के निजी मार्गदर्शन तले विकसी है व प्रसरी है, और किसी विशिष्ट स्थल के अवलम्बन पर या राज्य अगर लोक के आश्रय में नहीं। यहां तक कि चित्रकारों को अपनी भौलिक/निजी शैली को छोडकर या दबाकर भी आचार्यों द्वारा सूचित/दर्शित प्रस्तुत शैली को अपनानी पडी है, और कल्पसूत्रों व अन्य चित्रमण्डित ग्रन्थों में उन्होंने बडी कुशलता के साथ उसका सर्जन/प्रदर्शन किया है। प्रश्न यह है कि कतिपय ग्रन्थ ऐसे भी है, जो जैनेतर धर्मसम्प्रदायों से सम्बद्ध है, और उन ग्रन्थों में भी इसी शैली के चित्र पाये गये हैं, उनका क्या करना? शायद इसी जैनेतर ग्रन्थों के चित्रों को लेकर आधुनिक विद्वानों ने इस शैली को 'जैन शैली' न कहकर, अपभ्रंश, मारुगुर्जर या पश्चिम भारतीय शैली का नाम दे दिया है। उनकी राय में मध्यकालीन ग्रन्थचित्रशैली अगर जैन शैली होती, तो जैनेतर ग्रन्थों में इसी शैली के चित्र नहीं होते। किन्तु, 'हमारी दृष्टि में, यह धारणा ठीक नहीं है। सही बात यह है कि जैसे जैनेतर अनेक/बहुसंख्य धर्मग्रन्थों जैन नागरी लिपि में लिखे गये मिलते हैं, और वह ग्रन्थ जैन नागरीलिपि के लेखकों द्वारा लिखे-लिखवाये गये माने जाते है, उसी तरह कतिपय जैनेतर ग्रन्थ - वसन्तविलास, हंसावली, चण्डीशतक इत्यादि के चित्र भी जैन शैली के चित्रकारों के द्वारा चित्रित किये गये हैं, ऐसा मानना वास्तव से बहुत निकट व समुचित लगता है। हां, यदि जैनेतर ग्रन्थों - जो जैन शैली के चित्रों से मण्डित हैं - की संख्या बहुत बडी मिलती, तो तो उन चित्रों की शैली को कोई दूसरा नाम देना उचित होता। किन्तु अभीतक ऐसे ग्रन्थ सिर्फ For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ १४५ पांच-पन्द्रह ही मिले हैं, जो जैन कल्पसूत्रपोथियों की संख्या की तुलना में अत्यल्प व नगण्य है। इस स्थिति में उन ग्रन्थों की चित्रावली को जैन शैली के निष्णात चित्रकारों द्वारा निर्मित मान लेना और इस शैली को "जैन चित्रशैली" नाम देना बेहतर है। For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ अनुसन्धान-६३ उपाङ्गसाहित्य : एक विश्लेषणात्मक विवेचन प्रो. सागरमल जैन उपाङ्ग साहित्य का सामान्य स्वरूप : जैन आगम साहित्य के वर्गीकरण की प्राचीन पद्धति के अनुसार आगमों को मुख्यतः दो भागों में विभक्त किया जाता है - १. अङ्गप्रविष्ट और २. अङ्गबाह्य. ___ जहाँ प्राचीनकाल में अङ्गबाह्यों का वर्गीकरण आवश्यक और आवश्यकव्यतिरिक्त इन दो भागों में किया जाता था और आवश्यकव्यतिरिक्त को पुनः कालिक और उत्कालिक रूप में वर्गीकृत किया जाता था, जबकि वर्तमान काल में अङ्गबाह्य ग्रन्थों को – १. उपाङ्ग २. छेदसूत्र ३. मूलसूत्र ४. प्रकीर्णकसूत्र और ५. चूलिकासूत्र – ऐसे पाँच भागों में विभक्त किया जाता है । वर्तमान में उपाङ्ग वर्ग के अन्तर्गत निम्न बारह आगम माने जाते हैं : १. औपपातिकसूत्र, २. राजप्रश्नीयसूत्र, ३. जीवाजीवाभिगमसूत्र, ४. प्रज्ञापनासूत्र, ५. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ६. चन्द्रप्रज्ञप्ति, ७. सूर्यप्रज्ञप्ति, ८. कल्पिका, ९. कल्पावंतसिका, १०. पुष्पिका, ११. पुष्पचूलिका और १२. वृष्णिदशा. ज्ञातव्य है कि इन बारह उपाङ्गों में अन्तिम पाँच कल्पिका से लेकर वृष्णिदशा तक का संयुक्त नाम निरयावलिका भी मिलता है । आगमों के वर्गीकरण की जो प्राचीन शैली है, वह हमें नन्दीसूत्र में उपलब्ध होती है, जबकि आगमों के वर्तमान वर्गीकरण की जो शैली है, वह लगभग १४वीं शताब्दी के बाद की हैं । वर्तमान में अङ्गबाह्यों के जो पाँच वर्ग बताए गए हैं, इन वर्गों के नाम के उल्लेख तो जिनप्रभ के विधिमार्गप्रपा में नहीं हैं, किन्तु उसमें प्रत्येक वर्ग के आगमों के नाम एक साथ पाए जाने से यह अनुमान किया जा सकता है कि उपाङ्ग, छेद, मूल, प्रकीर्णक, चूलिका आदि के रूप में नवीन वर्गीकरण की यह शैली लगभग १४वीं शताब्दी में अस्तित्व में आई होगी। जहाँ तक उपाङ्ग शब्द के प्रयोग का प्रश्न है, वह सर्वप्रथम हमें उपाङ्ग For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ - २०१४ १४७ वर्ग के ही कल्पिका आदि पाँच ग्रन्थों के लिए मिलता है । उसमें कल्पावंतसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका और वृष्णिदशा में उपाङ्ग ( उवंग) शब्द का प्रयोग हुआ है । नवें उपाङ्ग कल्पावंतसिका के प्रारम्भ में " उवंगाणं पढमस्स वग्गस्स” ऐसा स्पष्ट उल्लेख है । इस आधार पर यह माना जा सकता है कि सर्वप्रथम उपाङ्गवर्ग के अन्तिम पाँच ग्रन्थों, जिनका सम्मिलित नाम निरयावलिका है, को उपाङ्ग नाम से अभिहित किया जाता रहा होगा । नन्दीसूत्र के रचनाकाल (पाँचवी शती) तक कल्पिका से लेकर वृष्णिदशा तक के इन पाँच ग्रन्थों को उपाङ्ग संज्ञा प्राप्त थी । यदि हम यह माने कि आगमों की अन्तिम वाचना वीरनिर्वाण के ९८० वर्ष पश्चात् लगभग विक्रम की ५वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुई, तो हमे इतना तो स्वीकार करना पड़ेगा कि उपाङ्गवर्ग के निरयावलिका के अर्न्तभूत कल्पिका से लेकर वृष्णिदशा तक के पाँच ग्रन्थों को विक्रम की ५वीं शताब्दी में उपाङ्ग संज्ञा प्राप्त थी । चाहे बारह उपाङ्गों की अवधारणा परवर्तीकालीन हो, किन्तु वीरनिर्वाण संवत् ९८० या ९९३ में वल्लभीवाचना के समय निरयावलिका के पाँचो वर्गों को उपाङ्ग नाम से अभिहित किया जाता था । सम्भवतः पहले निरयावलिका श्रुतस्कन्ध के कल्पिका, कल्पावंतसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका और वृष्णिदशा को उपाङ्ग कहा जाता था, किन्तु जब बारह अङ्गों के आधार पर उनके बारह उपाङ्गो की कल्पना की गई, तब निरयावलिका के इन पांच वर्गो को पांच स्वतन्त्र ग्रन्थ मानकर और उसमें निम्न सात ग्रन्थों यथा १. औपपातिक, २. राजप्रश्नीयसूत्र, ३ जीवजीवाभिगम, ४. प्रज्ञापनासूत्र, ५ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ६. चन्द्रप्रज्ञप्ति और ७. सूर्यप्रज्ञप्ति को जोड़कर बारह अङ्गो के बारह उपाङ्गों की कल्पना की गई और इस आधार पर यह माना गया कि क्रमशः प्रत्येक अङ्ग का एक-एक उपाङ्ग है । जैसे आचाराङ्ग का उपाङ्ग औपपातिकसूत्र है, सूत्रकृताङ्ग का उपाङ्ग राजप्रश्नीय है, स्थानाङ्ग का उपाङ्ग जीवजीवाभिगम है, समवायाङ्ग का उपाङ्ग प्रज्ञापना है, भगवती का उपाङ्ग चन्द्रप्रज्ञप्ति है, इसी प्रकार आगे ज्ञाताधर्मकथा का उपाङ्ग जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति है और उपासकदशा का उपाङ्ग सूर्यप्रज्ञप्ति है । अन्तकृद्दशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरणदशा, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद के उपाङ्ग निरयावलिका के पांच वर्ग है । द्वीपसागरप्रज्ञप्ति का भी उल्लेख मिलता है, किन्तु वर्तमान में यह ग्रन्थ - For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ अनुसन्धान-६३ अनुपलब्ध है । जहाँ तक दिगम्बर परम्परा का प्रश्न है, उसमें भी बारहवे अङ्ग दृष्टिवाद के पाँच विभाग किये गये हैं। उसके परिकर्मविभाग के अन्तर्गत चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति का उल्लेख मिलता है । इस प्रकार उपाङ्ग साहित्य के ये ग्रन्थ प्राचीन ही सिद्ध होते हैं । यद्यपि द्वीपसागरप्रज्ञप्ति का उल्लेख स्थानाङ्गसूत्र और दिगम्बर परम्परा में दृष्टिवाद के परिकर्मविभाग में मिलता है, किन्तु उसे उपाङ्ग में अन्तर्भूत नही किया गया है । यद्यपि नन्दीसूत्र में अङ्गबाह्य ग्रन्थों के कालिक और उत्कालिक का जो भेद है, उसमें भी कालिकवर्ग के अन्तर्गत द्वीपसागरप्रज्ञप्ति का उल्लेख मिलता है । किन्तु नन्दीसूत्र के वर्गीकरण की यह एक विशेषता है कि उपाङ्गों में वह जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति को कालिक वर्ग के अन्तर्गत रखता है और सूर्यप्रज्ञप्ति को उत्कालिकवर्ग के अन्तर्गत रखता है । जहाँ तक उपाङ्गो के रूप में मान्य इन बारह ग्रन्थों का प्रश्न हैं इन सबका उल्लेख नन्दीसूत्र के कालिक और उत्कालिकवर्ग में मिल जाता है। उत्कालिकवर्ग के अन्तर्गत औपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाजीवाभिगम, प्रज्ञापना और सूर्यप्रज्ञप्ति ऐसे पाँच ग्रन्थों का उल्लेख हैं, जबकि कालिकवर्ग के अन्तर्गत जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, निरयावलिका, कल्पिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका और वृष्णिदशा का उल्लेख है। इस सन्दर्भ में विशेष रूप से दो बातें विचारणीय हैं - प्रथम तो यह कि इसमें निरयावलिका को तथा कल्पिका आदि पाँच ग्रन्थों को अलग-अलग माना गया है, जबकि वे निरयावलिका के ही विभाग हैं। इसी प्रकार चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति को दो अलग-अलग ग्रन्थ मानकर दो अलग-अलग वर्गों में वर्गीकृत किया है, जबकि उनकी विषय-वस्तु और मूलपाठ दोनों में समानता है । ऐसा क्यों हुआ इसका स्पष्ट उत्तर तो हमारे पास नहीं है, किन्तु ऐसा लगता है कि सूर्यप्रज्ञप्ति को ज्योतिषसम्बन्धी ग्रन्थों के साथ अलग कर दिया गया और चन्द्रप्रज्ञप्ति को लोकस्वरूपविवेचन ग्रन्थों जैसे द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के साथ रखा गया । वास्तविकता चाहे जो भी रही हो, किन्तु इतना निश्चित है कि उपाङ्ग वर्ग के अन्तर्गत जो बारह ग्रन्थ माने जाते हैं, उन सब का उल्लेख नन्दीसूत्र के वर्गीकरण में उपलब्ध For Personal & Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी २०१४ उपाङ्ग साहित्य का रचनाकाल : I उपाङ्ग साहित्य के सभी ग्रन्थों का नन्दीसूत्र में उल्लेख होने से यह सिद्ध होता है कि उपाङ्गों के रचनाकाल की अन्तिम कालावधि वीरनिर्वाण संवत् ९८० या ९९३ के आगे नही जा सकती । इस सम्बन्ध में विचारणीय यह हैं कि तत्त्वार्थसूत्र की स्वोपज्ञटीका में अङ्गबाह्य ग्रन्थों के जो नाम मिलते हैं, उनमें उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प - व्यवहार, निशीथ और ऋषिभाषित के नाम तो मिलते हैं, किन्तु इसमें उपाङ्गवर्ग के एक भी ग्रन्थ का नामोल्लेख नहीं है, इस कारण विद्वत् वर्ग की यह मान्यता हैं कि उपाङ्ग साहित्य के रचना की पूर्वावधि ईसापूर्व प्रथम शताब्दी और उत्तरावधि ईसा की पांचवी शताब्दी के मध्य रही है । उपाङ्ग वर्ग के अर्न्तगत प्रज्ञापनासूत्र के रचियता आर्यश्याम को माना जाता है । आर्यश्याम निश्चितरूप में उमास्वाति से पूर्ववर्ती है। पट्टावलियों के अनुसार इनका काल ईस्वीपूर्व द्वितीय- प्रथम शताब्दी माना गया है । ये वीरनिर्वाण संवत् ३७६ तक युगप्रधान रहे हैं । ऐसी स्थिति में उपाङ्ग साहित्य के सब नही तो कम से कम कुछ ग्रन्थों का रचनाकाल ईस्वीपूर्व द्वितीय शताब्दी माना जा सकता हैं । किन्तु विषय-वस्तु आदि की अपेक्षा से विचार करने पर हम यह पाते है कि उपाङ्ग साहित्य कुछ ग्रन्थों की कुछ विषयवस्तु तो इससे भी पूर्व की है । उपाङ्ग साहित्य मैं निरयावलिका के कल्पिका वर्ग की विषयवस्तु में राजा बिम्बिसार श्रेणिक और उसके अन्य परिजनों का विस्तृत विवरण है, जो भगवान महावीर के समकालिक रहे हैं, चाहे उस विवरण को ग्रन्थरूप में निबद्ध कुछ काल पश्चात् किया गया हो । कूणिक- अजातशत्रु और वैशाली गणराज्य के अधिपति चेटक के मध्य हुए रथमूसल संग्राम का उल्लेख भगवतीसूत्र में उपलब्ध होता है, इससे भी उपाङ्ग साहित्य की प्राचीनता सिद्ध होती है । इसी प्रकार सामान्यतया विषय-वस्तु की अपेक्षा हम उपाङ्ग साहित्य को ईसापूर्व पांचवी शताब्दी से लेकर ईसा की चतुर्थ शताब्दी के मध्यकाल तक में निर्मित मान सकते है । यद्यपि स्पष्ट निर्देश के आधार पर उपाङ्ग साहित्य में प्रज्ञापनासूत्र को ही प्राचीनतम माना जा सकता है, किन्तु विषयवस्तु आदि की दृष्टि से विचार करने पर उसके अन्य ग्रन्थांश भी प्राचीन सिद्ध होते हैं । उदाहरणार्थ के For Personal & Private Use Only १४९ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० अनुसन्धान-६३ राजप्रश्नीयसूत्र का राजा प्रसेनजित् और आचार्य केशी के मध्य हुए संलाप का भाग भी अधिक प्राचीन सिद्ध होता है, क्योंकि बौद्ध परम्परा में पयासीसुत्त में भी यह संवाद उल्लेखित है मात्र नाम का कुछ अन्तर है। बौद्ध परम्परा में भी पयासीसत्त को प्राचीन माना गया है। इस अपेक्षा से राजप्रश्नीय का कुश अंश अतिप्राचीन है, किन्तु राजप्रश्नीय के सूर्याभदेव से सम्बन्धित भाग में जिनप्रसाद का जो स्वरूप वर्णित है तथा नाट्यविधि आदि सम्बन्धी जो उल्लेख हैं, वे विद्वानों की दृष्टि में ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी से पूर्ववर्ती नहीं हो सकते हैं, क्योंकि उसमें जिनप्रासाद के जिस शिल्प का विवेचन किया है, पुरातात्त्विक दृष्टि से वह शिल्प पूर्वगुप्तकाल या गुप्तकाल में ही पाया जाता हैं । इसी प्रकार औपपातिकसूत्र में जो विभिन्न प्रकार के तापसों एवं परिव्राजकों आदि का जो उल्लेख मिलता है, वह महावीर के समकालीन ही हैं, किन्तु उसमें भी परिव्राजकों की कुछ शाखाएँ परवर्तीकालीन भी हैं। इसी प्रकार चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति में ज्योतिष-ग्रहों की गति सम्बन्धी जिस पद्धति का विवेचन किया गया है वह आर्यभट्ट और वराहमिहिर से बहुत प्राचीन है । उसकी निकटता वेदकालीन ज्योतिष से अधिक हैं । पुनः उसमें नक्षत्रभोजन आदि को लेकर जो मान्यताएँ प्रस्तुत की गई हैं, उनका भी जैन धर्म के गुप्तकालीन विकसित स्वरूप से विरोध आता है । वे मान्यताएँ भी प्राचीन स्तर के आगमों की मान्यताओं के अधिक निकट हैं । अतः सूर्यप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति का काल निश्चित ही प्राचीन है। आचार्य भद्रबाह (आर्य भद्रबाहु) ने जिन दस नियुक्तियों की रचना करने का निश्चय प्रकट किया है, उसमें सूर्यप्रज्ञप्ति की नियुक्ति भी है। मेरी दृष्टि में नियुक्तियों का रचनाकाल ईसा की दूसरी शताब्दी से परवर्ती नहीं है, अतः सूर्यप्रज्ञप्ति का अस्तित्व उससे तो प्राचीन ही सिद्ध होता है । इसी क्रम में जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति को भी बहुत अधिक परवर्तीकालीन नहीं माना जा सकता है । इसी क्रम में निरयावलिका के अन्तर्भूत पाँच ग्रन्थों का रचनाकाल भी ईसा पूर्व की दूसरी-तीसरी शताब्दी से परवर्ती नहीं है। इस प्रकार उपाङ्ग साहित्य में उल्लेखित कोई भी ग्रन्थ ईसा की प्रथम-द्वितीय शताब्दी से परवर्ती सिद्ध नही होता है। उपाङ्ग साहित्य में प्रज्ञापना जैसे गभीर For Personal & Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ १५१ ग्रन्थ में भी लगभग चौथी-पांचवी शती में विकसित गुणस्थानसिद्धान्त का उल्लेख नहीं होना भी यही सिद्ध करता है कि उपाङ्ग साहित्य ईसा की प्रथमद्वितीय शताब्दी से पूर्व की रचना है । अङ्गबाह्य ग्रन्थों के रचियता पूर्वधर आचार्य माने जाते हैं । पूर्वधरों का अन्तिम काल भी ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी से परवर्ती नहीं है, अतः इस दृष्टि से भी उपाङ्ग साहित्य को ईसा की प्रथम-द्वितीय शताब्दी से पूर्व की रचना मानना होगा। उपाङ्ग साहित्य की विषय-वस्तु : . ___ उपाङ्ग साहित्य में प्रज्ञापना तथा जीवाजीवाभिगम और चन्द्रप्रज्ञप्ति तथा सूर्यप्रज्ञप्ति के अतिरिक्त शेष सभी ग्रन्थ कथापरक ही हैं । जहाँ जीवाजीवाभिगम और प्रज्ञापना की विषयवस्तु दार्शनिक है, वहीं चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति का सम्बन्ध ज्योतिष से है । जम्बूद्वीप का कुछ अंश भूगोल तथा कालचक्र से सम्बन्धित है, वहाँ शेष अंश कथापरक ही है। औपपातिक सूत्र में चम्पानगरी के विस्तृत विवेचन से साथ-साथ विभिन्न प्रकार के श्रमकों, तापसों एवं परिव्राजकों के उल्लेख मिलते है । इन संन्यासियों में गङ्गातट निवासी वानप्रस्थ तापसों, विभिन्न प्रकार के आजीवक शाक्य आदि श्रमणों, ब्राह्मण परिव्राजकों, क्षत्रिय परिव्राजकों आदि के उल्लेख हैं । इस प्रकार से औपपातिकसूत्र भगवान महावीर के समकालीन श्रमणों, तापसों और परिव्राजकों तथा उनकी तपविधि का विस्तार से उल्लेख करता है । इसमें मुख्य कथा अम्बड परिव्राजक की है। इस कथा में यह बताया गया है कि अम्बड नामक परिव्राजक अन्तिम समय में संलेखना पूर्वक समाधिमरण को प्राप्त कर ब्रह्मलोक नामक कल्प में उत्पन्न होगा और वहाँ से च्युत होकर महाविदेह क्षेत्र में दृढ़प्रतिज्ञ के रूप में उत्पन्न होगा और वहाँ से मोक्ष को प्राप्त करेगा । ज्ञातव्य है कि औपपातिकसूत्र और राजप्रश्नीयसूत्र दोनों में ही 'दृढप्रतिज्ञ' के जीवन का जो विवरण उपलब्ध होता है, वह लगभग शब्दशः समान है, अन्तर मात्र यह है कि जहाँ औपपातिकसूत्र में अम्बड परिव्राजक का दृढ़प्रतिज्ञ के रूप में महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होना लिखा है, वहाँ राजप्रश्नीयसूत्र में राजा प्रसेनजित् (पएसी) का सूर्याभदेव के भव के पश्चात् महाविदेह क्षेत्र में दृढ़प्रतिज्ञ के रूप में उत्पन्न होकर अन्त में मुनिधर्म स्वीकार कर मोक्ष प्राप्त करने का For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ अनुसन्धान-६३ उल्लेख है । औपपतिकसूत्र की विषयवस्तु की विशेषता यही है, कि उसमें श्रमणों एवं तापसों के द्वारा किये जाने वाले उन विभिन्न तपों एवं साधनाओं का विस्तार से उल्लेख हुआ है, जिनमें से कुछ साधनाएँ, तपविधियाँ और भिक्षाविधियाँ निर्ग्रन्थपरम्परा में भी प्रचलित रही हैं । औपपातिकसूत्र के अन्त में सिद्धशिला के विवेचन सम्बन्धी जो गाथाएँ मिलती हैं, वे उत्तराध्ययनसूत्र और अनुयोगद्वारसूत्र में भी उपलब्ध होती है, किन्तु उत्तराध्ययनसूत्र की अपेक्षा औपपातिकसूत्र में सिद्धशिला आदि का जो विस्तृत विवरण है, उससे यही सिद्ध होता है कि उत्तराध्ययन की अपेक्षा औपपातिकसूत्र परवर्तीकालीन है। __उपाङ्गसूत्रों का दूसरा मुख्य ग्रन्थ राजप्रश्नीयसूत्र है । इस ग्रन्थ में सर्वप्रथम राजा प्रसेनजित् और पार्श्वसन्तानीय केशीश्रमण का आत्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध में विस्तृत संवाद हैं। उसके पश्चात् प्रसेनजित् के द्वारा संलेखनापूर्वक देहत्याग करके सूर्याभदेव के रूप में उत्पन्न होने का उल्लेख मिलता है । फिर सूर्याभदेव के द्वारा भगवान महावीर के समक्ष विविध नाट्यादि प्रस्तुत करने का उल्लेख है । इसी प्रसंग में जिनप्रासाद के स्वरूप का एवं उसके द्वारा की गई जिनपूजा की विधि का भी विवेचन किया गया है । अन्त में जैसा हमने पूर्व में उल्लेख किया सूर्याभदेव द्वारा स्वर्ग की आयु पूर्ण करने के पश्चात् दृढ़प्रतिज्ञ के नाम से महाविदेह में उत्पन्न होकर मोक्ष प्राप्त करने का उल्लेख है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि औपपातिकसूत्र और राजप्रश्नीयसूत्र दोनों में दृढ़प्रतिज्ञ के प्रसंग में गृहस्थ जीवन सम्बन्धी लगभग सभी संस्कारों का उल्लेख भी पाया जाता है । वैदिक परम्परा में मान्य षोडशसंस्कारो में से लगभग पन्द्रह संस्कारों का उल्लेख इसमें उपलब्ध हो जाता है । वस्तुतः श्वेताम्बर परम्परा में, वैदिक परम्परा में मान्य गृहस्थों के संस्कारों का उल्लेख करने वाले ये दोनों उपाङ्ग इस दृष्टि से अतिमहत्त्वपूर्ण है। इस प्रकार उपाङ्ग साहित्य में प्रथम दो उपाङ्ग राजा प्रसेनजित् और अम्बड परिव्राजक के जीवन की कथाओं को प्रस्तुत करते हैं। इनके पश्चात् जीवाजीवाभिगम और प्रज्ञापना - ये दो उपाङ्ग मूलत: जैन धर्म की दार्शनिक मान्यताओं से सम्बन्धित हैं, जहाँ जीवाजीवाभिगम में जीव और अजीव तत्त्व के भेद-प्रभेदों की विस्तृत चर्चा है, वहाँ प्रज्ञापनासूत्र छत्तीस For Personal & Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ १५३ पदों में जैन दर्शन के कुछ महत्त्वपूर्ण पक्षों जैसे - इन्द्रिय, संज्ञा, लेश्या, पर्याय, संज्ञा, कर्म, आहार, उपयोग, पश्यत्ता, समुद्घात आदि का गम्भीर विवेचन प्रस्तुत करता है । इस प्रकार ये दोनों उपाङ्ग मुख्यतः जैन दर्शन से सम्बन्धित है। प्रज्ञापनासूत्र में सर्वप्रथम चक्षुइन्द्रिय और मन को अप्राप्यकारी बताया गया है, जबकि श्रवणेन्द्रिय को बौद्धों के विपरीत प्राप्यकारी वर्ग में रखा गया है। इन्द्रियों के प्राप्यकारित्व और अप्राप्यकारित्व सम्बन्धी यह चर्चा सम्भवतः ईसा की प्रथम शताब्दी मे विकसित हुई । इस चर्चा के आधार पर कुछ लोगों का यह भी कहना है, कि प्रज्ञापना का रचनाकाल ईस्वी की प्रथम-द्वितीय शताब्दी से पहले नहीं हो सकता । यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि भगवतीसूत्र में स्थान-स्थान पर प्रज्ञापना का सन्दर्भ दिया गया है। इस आधार पर कुछ विद्वानों का यह भी कहना है कि भगवती का वर्तमान स्वरूप प्रज्ञापना से भी परवर्ती है, किन्तु हमारी दृष्टि में वास्तविकता यह है कि भगवतीसूत्र में विस्तारभय से बचने के लिए वल्लभीवाचना के समय उसे सम्पादित करते हुए प्रज्ञापना आदि का निर्देश किया गया है। इसके पश्चात् उपाङ्ग साहित्य में सूर्यप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति का क्रम है, इन दोनों ग्रन्थों की विषयवस्तु लगभग समान है, और इनका विवेच्य विषय ज्योतिष से सम्बन्धित है । इनमें ग्रह, नक्षत्र, तारा तथा सूर्य-चन्द्र की गति का जो विवेचन मिलता है वह विवेचन वेदकालीन विवेचन से अधिक निकटता रखता है। ऐसा लगता है कि जैन आगमसाहित्य में ज्योतिष सम्बन्धी ग्रन्थ की परिपूर्ति के लिए इन ग्रन्थों का समावेश उपाङ्ग साहित्य में किया गया हैं । छठे उपाङ्ग के रूप में हमारे सामने जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति का क्रम आता हैं । जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति का मुख्य विषय तो भूगोल है। इसमें जम्बूद्वीप के विभिन्न विभागों तथा खण्डों का तथा भरतक्षेत्र एवं ऐरावत क्षेत्र में होने वाले उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी काल का विवेचन है, किन्तु प्रकारान्तर से इसमें भरत चक्रवर्ती और ऋषभदेव के जीवनचरित्र का भी विस्तृत उल्लेख उपलब्ध होता है । सम्भवतः अर्धमागधी आगम साहित्य में जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ही एक ऐसा ग्रन्थ है, जो भरत चक्रवर्ती और ऋषभदेव के जीवनवृत्त का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करता है। For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ अनुसन्धान-६३ उपाङ्ग साहित्य के अन्तिम पाँच ग्रन्थ कल्पिका, कल्पावंतसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका और वृष्णिदशा हैं । इन पाँचों का सामूहिक नाम तो 'निरयावलिका' रहा है और उसके ही पाँच वर्गों के रूप में ही पांचों का उल्लेख मिलता है। इसके प्रथम कल्पिका - नाम विभाग में चम्पानगरी और राजा कूणिक का विस्तृत जीवनवृत्त वर्णित है । इसके साथ ही इसमें रथमूसलसङ्ग्राम का विवेचन भी उपलब्ध होता है, जो मूलतः राजा कूणिक और वैशाली के गणाधिपति महाराजा चेटक के बीच हुआ था । इन पांच ग्रन्थों में प्रथम के चार ग्रन्थों का सम्बन्ध महाराजा श्रेणिक के राजपरिवार के साथ ही रहा है, जबकि अन्तिम वृष्णिदशा कृष्ण के यादवकुल से सम्बन्धित है । इस प्रकार उपाङ्ग साहित्य जैन आगम साहित्य का महत्त्वपूर्ण विभाग है और अपेक्षाकृत प्राचीन है । * * * For Personal & Private Use Only C/o. प्राच्य विद्यापीठ शाजापुर (म.प्र.) ४६५००१ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ जान्युआरी - २०१४ श्रीनेमीश्वरजिनप्रासादप्रशस्ति तथा श्रीमण्डपीयसङ्घप्रशस्ति विषे मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय अनुसन्धानना ६२मा अङ्कमां श्रीमण्डपीयसङ्घप्रशस्ति मुनि श्रीसुयशचन्द्रसुजसचन्द्रविजयजी द्वारा सम्पादित थईने मुद्रित थई छे. प्रशस्तिनी सम्पादकीय टिप्पणोमां जेनो निर्देश थयो छे ते नेमीश्वरजिनप्रासादप्रशस्ति पैतिहासिक दृष्टिले उपरोक्त प्रशस्ति करतां पण वधु महत्त्वपूर्ण जणाय छे. सङ्ग्राम सोनी कारापित गिरनारस्थ श्रीनेमिनाथ-चैत्यनी आ प्रशस्ति मूळे तो शिला पर उत्कीर्ण हशे, परन्तु अत्यारे तो अनी हस्तप्रत पर उतारवामां आवेली नकल ज उपलब्ध थाय छे. मूळे आणसूरगच्छ-सूरतना भण्डारनी आ हस्तप्रत अत्यारे नेमिविज्ञानकस्तूरसूरि-ज्ञानमन्दिर-सूरतमां सचवाई छे. तेना आधारे आ प्रशस्तिनुं संशोधन-सम्पादन पं. श्रीलाभसागरगणिजे कर्यु छे अने तेनुं प्रकाशन आगमोद्धारकग्रन्थमाला-कपडवंज तरफथी सं. २०४०मां थयुं छे. प्रशस्तिना रचयिता, सङ्ग्राम सोनीना गुरु श्रीउदयवल्लभसूरिजीना' पट्टधर तेमज वृद्धतपागच्छीय श्रीरत्नसिंहसूरिजीना शिष्य भ. श्रीज्ञानसागरसूरिजी छे. नेमीश्वरजिनप्रासादप्रशस्तिना प्रारम्भे नेमिनाथ, रैवताचल, यादववंश, रा'मण्डलिक' व.ने वर्णवतां पद्यो छे. आ पद्यो तेमज प्रशस्तिगत अन्य केटलांक पद्यो काव्यतत्त्वनी दृष्टिले ऊंची कोटिनां होवा छतां, अत्रे ते विशे वात न करतां प्रशस्तिमांथी सांपडती जैतिहासिक विगतो अंगे चर्चा करीशुं. सङ्ग्राम सोनी मे जैन इतिहासनी सुप्रसिद्ध व्यक्ति छे. खम्भातना ऊकेशवंशीय धनाढ्य अने यशस्वी शेठ सांगणनी परम्परामां तेमनो जन्म थयो छे. तेमना वंश विशे बहु विस्तृत माहिती प्रस्तुत प्रशस्तिमां नोंधाई छे. वंशावली-चित्र नीचे मुजब छे - For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांगण' → पद्म → सूर १५६ घरमा करमा (भा.धर्मादे) धीरा कडूया भोजा - नागड नागड राजा डुङ्गर (भा. हीरादे) For Personal & Private Use Only हापा (भा. वाकू) वीघा नरसी (भा. देई) (भा.चंपाई) । माणिक्य मण्डन भीम | (भा. अहिवदे) देवा११ -- व्याध१० साण्ड जावड वरसिङ्ग (भा.मनकू) गोधा२ सहस्रकिरण श्रीवत्स श्रीनिधि १३नरदेव (भा.सोनाई) धनदेव१४ पासदत्त नेमिदत्त अनुसन्धान-६३ १५सग्राम गोरा रणधीर Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ १५७ अत्यार सुधीना लखाणमां जे व्यक्तिविशेषोनो अङ्क साथे निर्देश थयो छे तेमना विशे थोडीक चर्चा - १. आ. उदयवल्लभसूरिजी वृद्धतपागच्छनी ५७मी पाटे थया. रत्नसिंहसूरिजी तेमना वडील गुरुभाई हता. उदयवल्लभसूरिजी पोताना गुरु छे ओम स्वयं सङ्ग्राम सोनीओ पोताना ग्रन्थ 'बुद्धिसागर'मां (रचना सं. १५२०, गोदावरीना किनारे पैठणपुरमां) तरङ्ग-१, श्लोक-४ मां जणाव्युं छे. गिरनार पर माण्डवगढना श्रीसङ्के मण्डप बंधाव्यो ते आ आचार्यना उपदेशथी (जुओ अनु. ६२ - मण्डपीयसङ्घप्रशस्ति). गिरनार पर बीजां पण धर्मकार्यो तेमना उपदेशथी थयां छे. (जुओ साहित्य, शिल्प अने स्थापत्यमां गिरनार, ले. मधुसूदन ढांकी, प्र.ला.द. विद्यामन्दिर, २०१०, पृ. ९५). श्रीउदयवल्लभसूरिजीना विशेष परिचय माटे जुओ जैन परम्परानो इतिहास - भाग ३, पृ. १६, सं. त्रिपुटी महाराज. २. आ. रत्नसिंहसूरिजी वृद्धतपागच्छना प्रभावशाळी आचार्य हता. गिरनार साथे तेमनो घणो सम्बन्ध जोडायेलो छे. शाणवसहीनी प्रतिष्ठा (सं. १५०९) तेमना हाथे ज थई हती. जूनागढना रा' महीपाले तेमना उपदेशथी नेमिनाथना प्रासादने सोनानां पतरे मढाव्यो हतो. तेणे आचार्यना उपदेशथी सं. १५०७ मां पोताना राज्यमा अमारि पण प्रवर्तावी हती. आ आचार्यना विशेष परिचय माटे जुओ जै.प.इ. - भाग ३, पृ. १३-१६. सं. त्रिपुटी महाराज. ३. नेमीश्वरजिनप्रासादप्रशस्तिना सम्पादक पं. लाभसागरगणिो प्रशस्तिनी प्रस्तावनामा प्रस्तुत ज्ञानसागरसूरिने तपगच्छपति श्रीसोमसुन्दरसूरिजीना विद्यागुरु तेमज आवश्यक-हारिभद्री-अवचूरि, ओहणिज्जुत्ति-अवचूरि व. ना रचयिता जणाव्या छे. पण वास्तवमां ते ज्ञानसागरसूरिजी प्रस्तुत प्रशस्तिकर्ता ज्ञानसागरसूरिजीथी जुदा ज छे. सोमसुन्दरसूरिजीना विद्यागुरु ज्ञानसागरसूरिजीनो सत्तासमय ज सं. १४०५-१४६० छे. तेओ सं. १५२५मां प्रतिष्ठित जिनालयनी प्रशस्तिना रचयिता कई रीते होय ? वळी, सोमसुन्दरसूरिजीना (सं. १४३०-१४९९) विद्यागुरु ज्ञानसागरसूरिजी देवसुन्दरसूरिजीना पट्टधर हता. ज्यारे प्रस्तुत भ. ज्ञानसागरसूरिजी सं. १५०० पछी भ. उदयवल्लभसूरिनी पाटे आचार्य बन्या हता. तेथी पण उपरोक्त नोंध खोटी ठरे छे. For Personal & Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ अनुसन्धान-६३ सं. १५२८मां लोंकामतना प्रस्थापक लहिया लोंका प्रस्तुत भ. ज्ञानसागरसूरिजी पासे रहेता हता. विशेष विगत माटे जुओ जै.प.इ. - भाग ३- पृ. १६, १७. ४. रा'मण्डलिक रा'महीपालनो पुत्र हतो. प्रस्तुत प्रशस्तिनी रचना वखते ते ज जूनागढनो राजा हतो. पण त्यारबाद बहु नजीकना समयमां तेणे महम्मद बेगडानी सामे युद्धमा हारतां राज्य गुमावी दीधुं हतुं ओवी नोंध इतिहासना पाने नोंधायेली छे. जुओ जै.प.इ. भाग ३, पृ. ५०. ५. तपगच्छना आदिपुरुष श्रीजगच्चन्द्रसूरिजीना बे पट्टधरो श्रीदेवेन्द्रसूरिजी (लघुपोषाळ-तपागच्छ) अने श्रीविजयचन्द्रसरिजी (वडीपोषाळ-वृद्धतपागच्छ) वच्चे सं. १३१९ मां खम्भातमां गच्छभेद पड्यो त्यारे शासनदेवीओ जणाव्या मुजब शेठ सांगण श्रीदेवेन्द्रसूरिजीना पक्षे रह्या हता. तेमनुं वर्चस्व खम्भातना सङ्घमां प्रबल होवाथी तेमज श्रीदेवेन्द्रसूरि सुविहित सामाचारीना तरफदार होवाथी खम्भातना मोटा भागना जैन श्रेष्ठीओ देवेन्द्रसूरिजीना भक्त बन्या हता. जो के पाछळथी बन्ने पक्षो वच्चे सारो सुमेळ सधायो हतो. सं. १३२७मां देवेन्द्रसूरिजीना काळधर्म बाद तेमना पट्टधर उपा. धर्मकीर्ति(धर्मघोषसूरिजी)नी आचार्यपदवी वृद्धतपागच्छना श्रीविजयचन्द्रसूरिशिष्य क्षेमकीर्तिसूरिजीना हाथे ज थई हती. अने तेथी ज सोनी सांगणना वंशजो एक पक्षना ज तरफदार न रहेता बन्ने पक्षना आचार्योना भक्त रह्या छे. जै.प.इ. - भाग ३, पृ. ९१ पर सोनी सांगण सं. १३५४ आसपास अल्लाउद्दीन खीलजीना समये माण्डवगढमां आवी वस्यो अम नोंधायुं छे. पण वास्तवमां सोनी सांगणना परिवार- खम्भातथी माण्डवगढमां स्थानान्तर ते वखते नहि, पण सांगणनी छट्ठी पेढीओ सोनी नरदेव वखतमां थयुं छे ते आपणे नरदेवनी चर्चामां जोईशुं. ६. भोजाना आ त्रणे पुत्रोओ सङ्घपति बनीने तीर्थयात्राओ करी हती. (नेमि. प्र. श्लो. ३१) ७. भीम महाबळवान हतो, माटे घणा लोको दुःखथी ऊगरवा तेनुं शरणुं लेता हता. (नेमि. प्र. श्लो. ३४) ८. चांपाई माटे नेमि. प्रशस्ति श्लो. ३८मां 'श्रीसूरिपदकारिका' अर्बु For Personal & Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ १५९ विशेषण वपरायुं छे, जे सूचवे छे के आ श्राविकाओ आचार्यपदवीना महोत्सवमां घणुं धन खयुं हशे. ९. आ नागड ब्रह्मचारी हतो, तेथी तेनो वंश आगळ वध्यो न हतो. (नेमि. प्र. श्लो. ३९) १०. व्याधे पिता डुङ्गरना धनना बळे जीरापल्ली(-जीरावला)मां अग्रेसरत्व मेळव्युं हतुं. (नेमि. प्र. श्लो. ५०) ११. देवाओ बधा तीर्थोमां सङ्घनायकपद मेळव्युं हतुं. तेणे पोताना धनथी जिनालय अने पौषधशाला पण बंधाव्यां हतां. (नेमि. प्र. श्लो. ४१-४२). अने यात्रामार्गमा परब बंधाववाने लीधे 'शर्करासुकाल' अq बिरुद मळ्युं हतुं. (मण्ड. प्र. श्लो. २३) १२. देवाना आ चारे पुत्रोओ उपाध्यायपद अपाव्यानो यश मेळव्यो हतो. गोधाओ जिनालय तथा धर्मशाला बंधाव्यां हतां. सहस्रकिरणे सकल श्रीसङ्घने वस्त्रोनी पहेरामणी करी हती. (नेमि. प्र. श्लो.. ४४-४६) १३. सूबा दिलावरखांना पुत्र हुसंगशाह गोरीओ सं. १४५९मां माण्डवगढमां स्वतन्त्र गादी स्थापन करी. (नेमि. प्र. श्लो. ५६) ते सं. १४९१मां मृत्यु पाम्यो. त्यारबाद महमंद खिलजी (अपर नाम - आलमशाह गोरी) त्यांनो राजा (सं. १४९२-सं. १५२५) बन्यो. सङ्ग्राम सोनी आ राजानो खजानची/मन्त्रीश्वर हतो. पण उपरोक्त राजपरिवार साथे सङ्ग्राम सोनीना पूर्वजोथी सम्बन्ध चाल्यो आवतो हतो ते दर्शावतां प्रशस्तिकार (नेमि. प्र. श्लो. ५९-६३) जणावे छे के हुसंगशाह ओक वखत कोईक कारणसर बहार फरवा नीकळ्यो हतो त्यारे कोईक उत्सव निमित्ते नीकळेला वरघोडामा पहेलां ढोल बजावनार चण्डालो, पछी स्त्रीओ अने तेमनी पाछळ चालता पुरुषोने तेणे जोया. अटले तेणे खोजू मलिक ने पूछ्युं के आवं विपरीत वर्तन आ लोको केम करे छे? जवाब मळ्यो के आ लोको विवेकी नथी, माटे पोताने त्यां जे चाल्युं आवे छे ते प्रमाणे कर्या करे छे. आ सांभळीने बादशाहे कडं के तो पछी बहारथी कोईक विवेकी मनुष्यने बोलावीने आपणा देशमां पधरावो, जेथी तेना सत्सङ्गे आ लोको विवेकी बने. तेथी खोजू मलिके खम्भातना वृद्ध श्रेष्ठी नरदेवने कुटुम्बसहित बोलावीने पोताने त्यां स्थाप्या. अवसरे खोजू मलिक द्वारा हुसंगशाहनो नरदेव For Personal & Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० अनुसन्धान- ६३ सोनी साथे मेळाप थतां नरदेवना गुणोथी बादशाह खूब ज खुश थयो अने तेणे नरदेवने पोतानो कोशाधिकारी बनाव्यो. साङ्गण सोनीनो वंश आ रीते सं. १४६० पछी खम्भात छोडीने माण्डवगढमां स्थिर थयो. प्रशस्तिकार जणावे छे के नरदेव पहेलाना साङ्गणना वंशजोनो जन्म खम्भातमां थयो हतो, ज्यारे ते पछीनानो जन्म मालवामां थयो हतो. ( नेमि. प्र. श्लो. ५१ ) प्रशस्तिमां नरदेवना बे सुकृतो नोंधायां छे : १. तेना माण्डवगढमां आगमन बाद ज्यारे भीषण दुष्काल पड्यो त्यारे तेणे सत्रागारो चलावी मनुष्यबीजने धरती परथी नाश पामतुं बचावी लीधुं हतुं. माटे लोकोओ तेने 'दिननृप' (-दीहाडीरा) अवुं बिरुद आप्युं हतुं. (नेमि. प्र. श्लो. ६५). २. कोईक कारणसर माण्डवगढमां चौद वरसथी साधुभगवन्तो नहोता पधार्या. नरदेवे बादशाह पासेथी फरमानपत्र मेळवीने से प्रदेशमां साधुओनो विहार पाछो चालु कराव्यो. (नेमि. प्र. श्लो. ७०) जै. प.इ. भाग ३, पृ. ९१ पर सोनी नरियाने लगतो ओक प्रतिमालेख आ नरदेव साथै सम्बन्धित मानी प्रकाशित थयो छे, पण अ सोनी नरिया प्रस्तुत नरदेव सोनीथी जुदी 'ज व्यक्ति छे. केमके ओना पुत्रनुं नाम लेखमां पद्मसिंह नोंधायुं छे, ज्यारे नरदेव सोनी तो सङ्ग्रामना पिता छे. जो के पद्मसिंह सङ्ग्रामनो भाई होय ओम कल्पना करी शकाय, पण अ ओटले शक्य नथी बनती के प्रतिमालेखमां सङ्ग्रामनुं नाम ज नथी. वळी, प्रस्तुत प्रशस्तिकार भगवन्ते पण पद्मसिंहनो उल्लेख नथी कर्यो. - १४. धनदेवे धन खर्चीने सवा लाख बन्दीओने केदखानामांथी छोडाव्या हता. (नेमि. प्र. श्लो. ७२) १५. जै.प.इ. - .भाग ३, पृ. ९२-९६ पर सग्राम सोनी विशे विस्तृत माहिती आपी छे. तेथी ते विशे झाझुं न लखतां प्रशस्तिमां मळती पूरक माहिती ज नोंधुं : १. जै.प.इ. मां सङ्ग्राम सोनीने गुराई अने रत्नाई ओम बे पत्नी होवानी नोंध छे. पण नेमि. प्र. श्लो. ३७मां तेनी पांच पत्नीओनां नाम आप्यां छे: विनयवती, सहजलदे, गुराई, रत्नाई अने शृङ्गारदे. (लाभसागरजीओ तो आ पांचने प्रस्तावनामां सङ्ग्रामनी बहेनो कही For Personal & Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ १६१ ३ छे !) आमांथी सहजलदेना श्रेय माटे तेणे गिरनार पर विमलनाथना चैत्यमां देवकुलिका बनावी हती. (नेमि. प्र. श्लो. ९१) जै.प.इ.मां सङ्ग्रामने 'नकद-उल-मुल्क' (-नगदलमलिक)नी पदवी बादशाह महमूद खीलजी (सं. १४९२-१५२५)ओ आपी होवार्नु नोंधायुं छे. पण नेमि. प्र. श्लो. ७७-७८मां आ पदवी तेना अनुगामी बा. ग्यासुद्दीन खीलजी (सं. १५२५-१५५८)ो आपी होवानुं सूचवायुं छे. जै.प.इ. - भाग ३, पृ. ९५ पर वीरवंशावलीमा जणाव्या मुजब सोनी सङ्ग्रामसिंहनुं वर्णन आप्युं छे. जेमां तेने गुजरातना वढियारना लोलाडा गामनो वतनी जणाव्यो छे. वळी, तेनी माता देवा, पत्नी तेजा, पुत्री हांसी व.ने लईने माण्डवगढ ते गयो, त्यां दुर्गाना शुकन साथे प्रवेश कर्यो, ओक वांझिया आंबाने तेणे पोताना जीव साटे कपातो बचाव्यो अने ओ आंबाने फळवान बनावी बादशाह ग्यासुद्दीनने खुश करी तेणे बादशाह पासेथी कामदार- पद मेळव्युं व. विगतो नोंधाई छे. पण प्रस्तुत प्रशस्ति, जै.प.इ.मां ज नोंधायेली अमुक विगतो व. तपासतां जणाय छे के साङ्गण सोनीनो वंशज प्रसिद्ध सङ्ग्राम सोनी अने आ सङ्ग्राम बे जुदी ज व्यक्तिओ छे. केम के सङ्ग्राम सोनीना पिता नरदेवना वखतथी ज तेनो परिवार माण्डवगढमां वस्यो हतो, तेनुं मूळ वतन पण खम्भात हतुं, तेनी माता-पत्नी व. पण जुदां हतां, वळी ते पोते महमूद खिलजीना वखतथी ज माण्डवगढनो खजानची हतो, अटले ग्यासुद्दीनना हाथे कामदार पद मेळववानी तेने जरूर न हती. माटे आ बे सङ्ग्राम जुदा होवा छतां नामसाम्यने लीधे भेळसेळ थई होय तेम लागे छे.. ____ जोके वांझिया आंबावाळी वात प्रस्तुत सङ्ग्राम सोनी साथे जोडायेली गणाय छे. पण सङग्रामना स्वरचित बुद्धिसागर ग्रन्थ, प्रस्तुत प्रशस्ति, मण्डपीयसङ्घप्रशस्ति व.मां तेनो निर्देश नथी. वळी, सङ्ग्राम सोनी पर माण्डवगढना राज्यनो बधो मदार छे ओम ग्यासुद्दीन समजतो हतो अवं प्रशस्तिमां स्पष्ट कथन छे, (नेमि. प्र. श्लो. ७८) तो ओक आंबाने लगती वातमां बादशाह अने मारी For Personal & Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ अनुसन्धान-६३ नाखवानी वात करे ओ शक्य छे ? उपरान्त, ग्यासुद्दीनना राज्यना नकद-उलमुल्क, शौल्किक अने खजानची ओम त्रणे होद्दा सङ्ग्राम सोनी पासे, ग्यासुद्दीन बादशाह बन्यो ते वर्षथी ज हता (केमके ग्यासुद्दीनना सत्तारोहणना वर्ष सं. १५२५मां रचायेली प्रशस्तिमां आ त्रणे होद्दानो निर्देश छे.) तो ओणे बादशाह पासे कामदारनो होद्दो मेळववानी शी जरूर ? आम समग्र दृष्टि विचारतां ओम जणाय छे के आ आंबावाळी वात लोलाडाना सङ्ग्रामनी ज छे. पण नामसाम्य, घटनामां माण्डवगढ अने ग्यासुद्दीननी हाजरी व ने लीधे प्रस्तुत सङ्ग्राम सोनी साथे जोडाई गई हशे. * * * हवे प्रस्तुत श्रीनेमीश्वरजिनप्रासादप्रशस्ति खरेखर जे कार्यने अनुलक्षीने रचाई छे ते जोईओ — ओक दिवस ब्राह्ममुहूर्तमां सङ्ग्रामने सज्जन दण्डनायक, वस्तुपाल मन्त्रीश्वर व. ने याद करतां भावना जागी के पोते पण अवां सुकृत्यो करे. तेणे आ भावनाने सार्थक करवा श्रीउज्जयन्तगिरि पर जिनालय बंधाववानो सङ्कल्प कर्यो. तेणे आ सङ्कल्पने पूर्ण करवा लोकोनी सलाह मुजब 'वीर' नामना पुरुषने विपुल धन अने साधन-सामग्री साथे जूनागढ मोकल्यो. सं. १५१८नी महा वद पांच जिनालय निर्माणनुं कार्य शरू थयुं. वीरे आ माटे रा' मण्डलिकने सन्तोषी तेनी पासेथी जग्या मेळवी हती, ज्यारे देवी अम्बिकाओ वरदानरूपे ओक मोटी शिला आपी हती. वीरे लखलूट धन खर्चीने सत्वरे विशाल जिनालयनुं निर्माण कराव्यं. मूलनायक श्रीनेमिनाथना बिम्ब माटे सङ्ग्रामे मानी खाणमांथी 'ज्योतीरस' नामनी शिला मेळवी हती. जिनालयनी प्रतिष्ठा सं. १५२५नी वैशाख सुद छठे देवनिर्देश अनुसार खूब धामधूमपूर्वक सङ्ग्रामे करी. जिनालयनिर्माणनी आ प्रशस्ति श्रीरत्नसिंहसूरिना अन्तेवासी श्रीज्ञानसागरसूरिओ रची छे. (नेमि. प्र. श्लो. ९३ - १०८) प्रतिष्ठाकारक आचार्य भगवन्तनुं नाम प्रशस्तिमां आप्युं नथी. प्रतिष्ठाकारक श्रीरत्नसिंहसूरिजी, श्रीउदयवल्लभसूरिजी के आ बन्नेना पट्टधर प्रशस्तिकारक ज्ञानसागरसूरिजी होई शके. पण जो रत्नसिंहसूरिजी के उदयवल्लभसूरिजी For Personal & Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ प्रतिष्ठाकारक होत तो ज्ञानसागरसूरिजीओ पोताना गुरुनां नाम अवश्य लख्यां होत. पण तेम नथी तेथी जणाय छे के भ. ज्ञानसागरसूरिजी पोते ज प्रतिष्ठाकारक हशे. प्रशस्तिकारे प्रशस्तिनुं रचनावर्ष जणाव्युं नथी, पण प्रतिष्ठाना वर्ष सं. १५२५मां ज प्रशस्तिनी रचना थई होय ओ बनवाजोग छे. सौथी वधु विचारवा जेवी वात मे छे के सङ्ग्राम सोनीले निर्माण करावेलुं श्रीनेमिनाथचैत्य गिरनार पर क्यां छे ? केम के आजे जे चैत्य सङ्ग्राम सोनीना देरासर तरीके ओळखाय छे ते खरेखर सोनी समरसिंह-मालदेओ बंधावेल छे, सङ्ग्रामे नहीं. (जुओ 'महातीर्थ उज्जयन्तगिरि', ले. मधुसूदन ढांकी, प्र. - शेठ आणंदजी कल्याणजी - अमदावाद, ई. १९९७) आ देरासरनी प्रतिष्ठा श्रीजिनकीर्तिसूरिजीओ सं. १४९४मां करेली छे. अटले सङ्ग्राम सोनीओ बंधावेल श्रीनेमिनाथचैत्यनी तपास करवी आवश्यक बने छे. * * * अनुसन्धान-६२मां प्रकाशित मण्डपीयसङ्घप्रशस्तिना घणाखरा श्लोको उपरनी प्रशस्तिमां पण मळे छे, जे सूचवे छे के आ प्रशस्ति पण भ. ज्ञानसागरसूरिजीओ ज सं. १५२५ पछी क्यारेक रची छे. प्रशस्तिने सग्राम सोनीना वंश साथे सम्बन्ध मे रीते छे के माण्डवगढना श्रीसङ्घने गिरनार पर सुकृत्य करवानी भावना सङ्ग्राम अने तेना काका-दादाना भाईओनी दानवीरता जोईने थई छे. सङ्घने आश्चर्य ए वाते थयुं के सङ्ग्राम अने तेना भाईओ पोतानां चैत्यो होवा छतां गिरनार पर विमलनाथना चैत्यमां (खम्भातना शाणराज अने संघवी भुंभवे बंधावेल शणगारवसही, प्रतिष्ठा सं. १५०९ - बृहत्तपागच्छीय श्रीजयतिलकसूरिशिष्य श्रीरत्नसिंहसूरिजी) विपुल धन खर्चे छे; आ चैत्यो बीजानां अने आ अमारां - अवो भेद राखता नथी. तो माण्डवगढनो सङ्घ शा माटे कोई सुकृत ना करे ? सङ्घनी आ भावना जाणी रत्नसिंहसूरिना पट्टधर उदयवल्लभसूरिओ गिरनार पर शाणवसही-विमलनाथ चैत्यमां मण्डपना निर्माणनी प्रेरणा करी. अने सङ्के आ प्रेरणाने झीली मण्डपर्नु निर्माण कराव्युं, तेनी आ प्रशस्ति रचवामां आवी छे. मूळे आ प्रशस्ति शिला पर कोतरवामां आवी हशे. पण हालमां तो ते For Personal & Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ अनुसन्धान-६३ पाटण-हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानमन्दिरमां सचवायेली हस्तप्रतरूपे ज उपलब्ध थाय छे. अप्रकाशित आ कृतिने प्रकाशमां लाववा माटे सम्पादक मुनिवरो खरा धन्यवादना अधिकारी छे. वाचकोना अवलोकन माटे 'श्रीनेमीश्वरजिनप्रासादप्रशस्ति-सावचूरि' थोडाक सुधारा साथे अत्रे पुनर्मुद्रित करी छ – श्रीनेमीश्वरजिनप्रासादप्रशस्तिः । ज्ञात्वा ज्ञानबलाद् भवाष्टकभवां राजीमती स्वां प्रियां, यो भोगी किल निर्वृति जिगमिषुर्यद् द्वारदेशं ययौ । अस्या एव निमन्त्रणाय तदहो! वेद्मीह च्छद्मापरं, सोऽयं वल्लभवल्लभो विजयते नेमीश्वरो योगयुक् ॥१॥ अवचूरिः – स श्रीनेमीश्वरश्चेद् वल्लभवल्लभो न भवति तर्हि योगयुक् कथं स्यात् अन्येषां तीर्थकृताम् ? कुत्रचित् प्रियाया द्वारदेशं याति तदहं वेद्मि तस्याऽस्ति सहयोगो, नास्ति नेमीश्वरस्य, रैवताद्री मोक्षे च राजीमत्या सहयोगो चाऽस्तीति । अन्योऽपि य ईश्वरो- लक्ष्मीवान् पुमान् स निर्वृति प्राप्तुकामो यत् प्रियाया द्वारदेशं याति तदहं वेद्मि तस्या एव निमन्त्रणाय । अपरं यत् कार्यं वक्ति तत् छौव, यतः स वल्लभवल्लभः । य ईदशो भवति तस्य तद्दर्शनेनैव निर्वृतिः । यतस्तेनोक्तमस्ति "प्रियादर्शनमेवाऽस्तु', किमन्यैर्दर्शनान्तरैः । निर्वृतिः प्राप्यते येन, सरागेणाऽपि चेतसा ॥ अन्योऽपि य ईश्वर:- हरः स वल्लभवल्लभ अत एव योगयुक्- सर्वत्र पार्वतीसहितः ॥१॥ . यत्सेवावशतः सदाऽपि विपुलं राज्यं लभन्ते सुताः, सत्यन्यस्वजनव्रजे बलयुते सिंहाः स्वजातौ तथा । आम्राणीह फलेषु शेषजगतः सङ्ख्याऽत्र नो लभ्यते, सा स्तात् सेवकवत्सला भगवती श्रीअम्बिका सम्पदे ॥२॥ राष्ट्राः सन्ति सहस्रशः क्षितितलेऽपारे सुराष्ट्राभिधा, किन्त्वस्यैव सदैव दैवतयुतस्याऽस्ति प्रसिद्धा द्विधा । For Personal & Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ १६५ रत्नानीह भवन्ति रोहणगिरौ नानाप्रकाराण्यहो!, चिन्तारत्नमिति श्रुतिः पुनरमीष्वेकस्य वा कस्यचित् ॥३॥ नत्वा स्वर्नाथमेकस्त्रिदश इति जगौ स्वर्गिवर्गाधिकारी, स्वामिन्! सङ्कीर्णता यद् दिवि तु दिविषदां केन येनाऽतिमात्राः । मा आयान्ति कस्मात् कृतयुगसुकृतात् तन्निशम्यैष दध्यौ, क्रीडास्थानान्यमी मे नवनवभवनैर्नाशयिष्यन्ति नूनम् ॥४॥ . व्यग्रं तत्राऽऽगतस्तं तदनु तदनुजो वीक्ष्य चाऽवक् किमेतद्, वज्री वृत्तान्तमाख्यत् पुनरयमवदद् याम्यहं भोः! सुराष्ट्राम् । आमित्युक्तेऽग्रजेनाऽसमसुखसहितां सोऽभजत् तां सशम्भुस्तज्ज्ञात्वाऽऽगुर्घनास्ते निजयुवतियुता देवदेशस्ततोऽसौ ॥युग्मम्।।५।। तदनुजः- कृष्णः अग्रजेन- इन्द्रेण । आम् इत्युक्ते 'स्यादोम् आं परमं मते' (१५४० अभिधान०) ॥५॥ सार्वस्नात्रमहेऽन्यदा सुरगिरौ सर्वे ययुः पर्वतास्तानिन्द्राः सनगान् विलोक्य मुदिताः शत्रुञ्जयाद्रिं विना । तं प्रोचुः किमिदं? जजल्प विमलः पूर्वं सदेवद्रुमोऽभूवं ते तु गता निरीक्ष्य शिवदं श्रीधर्मकल्पद्रुमम् ॥६॥ श्रेयोऽवग् दिवि गत्वरां चिरतरां राजादनीं भुक्तिदा, यान्त्वेते जनभुक्तिमुक्तिफलदा त्वं तिष्ठतान्मत्समा । तेनाऽस्थात् श्रृणुताऽच्युताग्रजवरा अस्या विशेषं वृषाद्, याताऽसौ क्षयमत्र नेयमरकप्रान्तेऽपि सुस्था यतः ॥७॥ इन्द्राः श्रीविमलाद्रितीर्थमतुलं ज्ञात्वाऽमृतेनाऽऽदरात्, तत्पादान् किल धौतवन्त उदयी सोऽथाऽऽययौ स्वाश्रयम् । मार्गे व्योमसुरापगामृतभवा शत्रुञ्जयाख्या त्विह, जाता सा खलु जीवनं च लभते यस्या जनः सर्वदा ॥८॥ अत्राऽऽदीशयुगं मुख्यं, पुण्डरीकस्थितेर्युगम् । जिनपादयुगे चेदं, तेन तीर्थं युगे युगे ॥९॥ ख्यातोऽहं स्वर्गिशैलः सुरततिरधुना केन नाऽऽयाति बह्वी, हुं ज्ञातं देवदेशं प्रति कति चलिता प्रेषयामि स्वभागम् । For Personal & Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ अनुसन्धान-६३ मेरुर्ध्यात्वैवमेकं कलकनकमयं प्राहिणोत् स्वीयकूटं, तच्चेहाऽऽगत्य तस्थौ तदनु सुमनसः स्वागताऽर्थे किलोचुः ॥१०॥ कस्त्वं गोत्रोऽस्यदोऽवक् सुरगिरिशिखरं श्रीभवत्सेवितं प्राक्, कृष्णत्वं तर्हि कस्मात् पथि खगकिरणाश्लेषशीतादिभावात् । तैर्घष्टं भूमिपीठे सदृषदि समभूत् स्वर्णरेखा ततैषा, ज्ञात्वा रायं बतेति प्रकटमभिहितं रैवताख्या ततोऽभूत् ॥११॥ स्वयं कल्याणकल्पोऽयं, द्विधा कल्याणदः सताम् । अतः श्रीनेमिनाथेना-ऽवाप्तं कल्याणकत्रिकम् ॥१२॥ अव० – कल्याणं- सुवर्णं तेन कल्पो- मनोज्ञः । माघकाव्येऽप्यसौ स्वर्णमयो निरूपितोऽस्ति । कल्याणं- मङ्गलं मोक्षश्च ॥१२॥ सुधाभुग्भिः सुधाकुण्डं, गजेन्द्रपदसञकम् । न्यस्तं स्वर्गात् सहाऽऽनीतं, तत्र स्नात्रकृतेऽर्हताम् ॥१३॥ • प्रभासतीर्थं प्रवरं निरीक्ष्य, श्रीसोमनाथादिविशिष्टदेवाः । पूर्वं निवासं विदधुश्च तेन, श्रीदेवकं पत्तनमत्र जज्ञे ॥१४॥ जिनेन्द्रकान्त्या सितजातकेशा, शिरो धुनन्ती वरमूर्तिहर्षात् । डोल्लत्शिरस्त्वं लभतेऽष्टवर्षा, चन्द्रप्रभागे विरदाऽत्र बाला ॥१५॥ अव० – अष्टवर्षा स्वभावेन विरदा- दन्तरहिता भवति ॥१५॥ या यादवानां वसतिवरेण्या, सा द्वारका यत्र पुरि चकास्ति । श्रीजीर्णदुर्गप्रमुखा अनेके, शैला विशालश्रितलोकपालाः ॥१६॥ अथ श्रीयादववंशवर्णनम् - लक्ष्मीयुक्तो बलभ्राट् समितिकृतमतिः सन्महानन्दकार्याऽऽशाकृत् प्रद्युम्नशाली नरकगतिहरः शङ्खचक्राङ्कपाणिः । यस्मिन् गोपालगेयो बलिरिपुमथनोऽरिष्टनेमिर्जिनोऽभूद्, जीयात् श्रीयादवाख्यः श्रितशरणजनाधारभूतः स वंशः ॥१७॥ अव० - जिनपक्षे लक्ष्मी:- शोभा, कृष्णपक्षे लक्ष्मी:- प्रिया । बलंअनन्तबलं बलदेवश्च । समितयः- ईर्याद्याः, समित्- सङ्ग्रामश्च तत्र । सतां- साधूनां महानन्दो- मोक्षस्तत्कारिणी या आशा- इच्छा तां कारयति यः सः । कृ० - सद् For Personal & Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ १६७ विद्यमानं महस्तेजो यस्य स नन्दकेन- नन्दकनाम्ना स्वखड्गेन अरीणाम् आशां कृन्तति- छिनत्ति यः सः । प्रद्युम्नं- प्रकृष्टं तेजः प्रद्युम्ननामा पुत्रश्च । द्वि० - नरकनामा दैत्यस्तस्य गतिः- गमनं तद्धरः । शङ्खचक्राङ्कौ पाणी ययोर्द्वयोरपि, तन्मध्ये नेमिः शङ्खचक्रलक्षणलक्षितपाणिः, कृष्णस्तु प्रत्यक्षशङ्खचक्रचिह्नपाणिः । गोपाला:राजानः पशुपालाश्च । बलिन:- सबला ये रिपवोऽन्तरङ्गाऽरयस्तेषां मथनः, द्वि० - बलिनामा रिपुः । कृ० - अरिष्टस्योत्पातस्य नेमिश्चक्रधारा । अन्योऽपि यो वंशो भवति, सः श्रि० श्रितं शरणं- गृहं यैस्ते श्रितशरणाः, श्रितशरणाश्च ते जनाश्च तेषामाधारभूतः ॥१७॥ मूलं श्रीहरिवंशस्य, स्थलं वक्तुं क्षमोऽत्र कः । विष्णुनाभेर्जगत्कर्ता, यतो जात इति श्रुतिः ॥१८॥ ताराणां वरतेजसामपि यथा सङ्ख्यां न कर्तुं क्षमः, कश्चिद् विष्णुपदे न यादवकुले राज्ञां तथा पुष्कले । अस्मिन् श्रीमहिपालदेवतनये शूरेऽधूना तूदिते, ते गण्याः कथमेतमेव तदहो! श्रीराजराजं स्तुवे ॥१९॥ कि० यादव० । विष्णुपदे- कृष्णस्थाने, द्वि० - आकाशे ॥१९॥ एकां मूर्ति त्रिदेवीं वदति कतिपयो यत् तदस्याऽसिरान्नो, दृष्टं स्पष्टं नवीनं सृजति कुवलयं रक्षति प्राप्तमेतत् । शत्रूणां दुर्मदानां हरति च कुपितं येन तेजोऽभिरामं, प्रारब्धेऽनेन युद्धे तदपि सरभसं कम्पते कोऽपरस्तु ॥२०॥ स जयति मण्डलिकनपः, सततं यदानमैक्ष्य दिक्करिणः । दूरं गताः सलज्जा, अनुनेतुं यद्यशोऽप्येतान् ॥२१॥ अथ सोनीसङ्ग्रामवंशवर्णनम् - बिभ्राणोऽन्तर्न दीनां स्थितिमतिवसुभृत् पोतयुक्तो गभीरः, सवेलो नाप्तपारो गुरुजिनकलितश्चारुलक्ष्मीसमेतः । श्रीसङ्घो यत्र मध्ये निवसति सततं बाह्यदेशे समुद्रस्तत् तीर्थं स्तम्भनाख्यं जगति विजयते स्तम्भनाधीशभक्तम् ॥२२॥ अव० – सङ्घपक्षे - अन्तर्मध्ये चित्ते दीनां स्थितिं न बिभ्राणः, समुद्रपक्षे - नदीनां । वसु- तेजो रत्नानि च । पोता- वहनानि बोलकाश्च । सती- शोभना वेला For Personal & Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ अनुसन्धान-६३ अवसरो यस्य, सती- विद्यमाना वेला- अम्भोवृद्धिर्यस्य । गुरवश्च जिनाश्च तैः कलितः, द्वि० - उत्कृष्टकृष्णकलितः । लक्ष्मी:- शोभा देवता च ॥२२॥ तीर्थस्थाननिवासिनां भुवि भवेद् भावः स्वभावेन नो, तीर्थे तत्र परत्र वा कलियुगेऽप्येषां पुनदृश्यते । श्रीशाणप्रमुखा यतोऽत्र सुमुखा देवालयैः संयुताः, सङ्केशाः समकालमेव समहं जाताश्चतुर्विंशतिः ॥२३॥ आधारो गुरुभूभृतां प्रपततां शाखाशतेनाऽन्वितः, सङ्गत्यागकरो जडैः परमहाजीवातुधर्मोत्तरः । अन्तःसारयुतः सुपत्रकलितश्छायाश्रितः सर्वतो, नव्यः कोऽप्युपकेशवंश इतरैर्जीयादभेद्यः सदा ॥२४|| अव० – कोऽप्यपूर्व उपकेशवंशो जीयात् । किल० प्रपततां- पतनशीलानां, गुरुभूभृतां महाराज्ञा(जाना)माधारः । अन्यो यो वंशो भवति स भूभृतां- पर्वतानां आधारो न । जडैः- मूर्खः जलैश्च । परः- प्रकृष्टो महाजीवातुः- महाजीवनौषधं यो धर्मो- दयामूलस्तेनोत्कृष्टः । अन्यो यो वंशः स परेषां- वैरिणां महाजीवातुःमहाजीवनौषधं यो धर्मो- धनुस्तेनोत्तरो न । अन्तःसारं- अन्तर्धनं, वंशः अन्तर्मध्ये सारेण- बलेन युतो न, सशुषिरत्वात् । पत्राणि- वाहनानि पर्णानि च । छाया- शोभा आतपाभावश्च । नव्यः- स्तव्यः ॥२४॥ तदन्वये धर्मधुराधराणां, सङ्ग्रामजन्मप्रभुतावराणाम् । ब्रवीमि नामानि कियन्ति साक्षाद्, ज्ञात्वा प्रसिद्धानि सुदक्षलक्षात् ॥२५॥ प्रासादपङ्क्तिप्रवरे प्रसिद्धे, श्रीस्तम्भतीर्थे नगरे समृद्धे । सौवर्णिकः साङ्गणनामधेयः, सद्धर्मकर्माऽजनि चारुगेयः ॥२६।। तत्सुतः पद्मसञ्ज इहाऽऽसीत्, पद्मवत् प्रवरमित्रसङ्गतः । सद्विधिसुकमलानिकेतनः, किन्तु राजकरपीडयोज्झितः ॥२७॥ सूर इत्यभिधया तदङ्गजः, सूरवत् सकलतेजसां निधिः । दर्शिताखिलपथो वराम्बरः, सत्करः क्षितमहातमोभरः ॥२८॥ धरमा-धीरा-करमा-ऽभिधानास्तत्सुतास्त्रयः । रत्नत्रयीव भव्यानां, महोदयनिबन्धनम् ॥२९॥ For Personal & Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ १६९ धरमाकस्य दयिता, धर्मा देवी तथा सुताः । भोजा-वरसिंग-हापा-नरसी-नागडाह्वयाः ॥३०॥ माणिक-मण्डण-भीमा, भोजाकस्य सुतास्त्रयः । . सर्वे सङ्घपतीभूय, यात्रां चक्रुः प्रमोदतः ॥३१॥ सौर्णिकस्य सद्गोत्रे, यन्माणिक्यस्य सम्भवः । तच्चित्रमथ भोजस्य, गृहे किं नो भवत्यहो ? ॥३२॥ अव० - अन्यो य सौवर्णिकः- सुवर्णसम्बन्धी गोत्र:- पर्वतस्तत्र माणिक्यं न भवति । अथ भोजस्य गृहे किं न भवति ? यतस्तत्र सुवर्णं माणिक्यमपि च स्यात् ॥३२॥ मण्डपे मण्डनमिव, मण्डनोऽसौ विराजते । वामानन्दकृदाकारः, शोभाभृत् चारुवर्णयुक् ॥३३॥ अव० - अन्यदपि मण्डनम्- अलङ्कारः, तन्मण्डपे शोभते । वामानाम्उत्तमानां स्त्रीणां च । चारुवर्णो- वणिग्वर्णः पीतादिवर्णश्च ॥३३॥ महाबलयुतो जीयाद्, भीमो भीम इवाऽतुलः । दुर्दिने शरणं यस्य, प्रपद्यन्ते घना जनाः ॥३४॥ जीयादहिवदेजातो-ऽतिजातो गुणसम्पदा । जावडो जडतामुक्तो, भीमाकस्य सुतः स्तुतः ॥३५॥ वरसिंगसुतौ द्वौ श्री-नरदेव-धनाह्वयौ । आद्यसुतः श्रीसङ्ग्रामः, सोनाईकुक्षिसम्भवः ॥३६॥ विनयवती सहजलदे, तथा गुराई प्रियाश्च रत्नाई । श्रृङ्गारदे सुनाम्न्य, पञ्चैता अस्य शीलतुयाः ॥३७|| हापासूनुस्तु वीघाख्यो, वाकूकुक्षिसमुद्भवः । चंपाई वल्लभा चास्य, श्रीसूरिपदकारिका ॥३८॥ साण्डाख्यो नरसीपुत्रो, देईकुक्षिविभूषणः । कुलोद्योतकरश्चाऽस्ति, नागडो ब्रह्मचार्यभूत् ॥३९॥ सर्वज्ञसेवां साण्डाख्यो, यत् कुर्यात् तच्च युक्तिमत् । परं निरङ्कस्तच्चित्रं, नरसिंहसुतस्तथा ॥४०॥ अव० - अन्योऽपि यः साण्डो- वृषभः स सर्वज्ञसेवां- ईश्वरसेवां यत् करोति For Personal & Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० अनुसन्धान-६३ तद् युक्तिमत्, परं साङ्कोऽयं निरङ्को - निष्कलङ्को नरसिंहसुतश्च तच्चित्रम् ||४०|| धीरासुतस्तु राजाख्यो, देवाकस्तनयोऽस्य सः । यः सङ्घनायकपदं, सर्वतीर्थेषु लब्धवान् ॥४१॥ यद्देवभवनं देवो ऽकारयत् स्ववसुव्ययैः । स्वभाव एष शालां तु, पौषधस्य तदद्भुतम् ॥४२॥ देवाकस्य सुताः सन्ति, चत्वारो धर्मवद्वराः । गोधा - सहस्त्रकिरणौ, श्रीवत्सः श्रीनिधिस्तथा ||४३|| तद् युक्तं यच्च गोधाख्यो, वहेत् पुण्यमनोरथम् । सहस्रकिरणः सङ्घ, वस्त्राणि परिधापयेत् ॥४४॥ अव० अन्योऽपि यो गोधो न च वृषभो भवति, स पुण्यं पवित्रं अन:शकटं रथं च वहति । तथा सहस्रकिरण:- सूर्य: सङ्घ- जनसमूहं वस्त्राणि परिधापयति ॥४४॥ ―― सुदर्शनभृत् श्रीवत्सः, श्रीनिधिः सङ्घनायकः । उपाध्यायपदोद्भूतः, श्लोकः सर्वैस्तु लेभिरे (सर्वैरलभ्यत) ॥४५॥ अव० श्रीवत्सः- कृष्णः सुदर्शनं चक्रं बिभर्ति, श्रीणां निधिः स सङ्घनायकः- समुदायस्वामी भवति । यथा उपाध्यायपदोद्भूतं श्लोकं सर्वेऽपि छात्रा लभन्ते ॥४५॥ गोधाख्यः श्रीजिनागारं धर्म्मशालां चकार यत् । 'पितेव जायते पुत्र', इति सत्यापयेद् वचः ॥४६॥ गोधासुतः पासदत्त - स्तौ गौरा - रणधीरौ । द्वितीयस्य तृतीयस्य, नेमिदत्तस्तु वर्त्तते ॥ ४७|| करमात्मजः कंडूया-भिधानो डुङ्गरोऽस्य तुक् । हीरादेवीप्रियाऽन्यायुग्, व्याधाख्यस्तु तदुद्वहः ॥४८॥ अव० उद्वहः- पुत्र ॥४८॥ 1 हीरादेवी प्रिया चाऽन्या च ताभ्यां युक्तयोः हीरादेवी - डुङ्गरयो सङ्ग्रामं डुङ्गरो यं य-ज्ज्ञापयत्यरिमण्डलम् । रक्षयेत् स्वजनव्यूहं, सोऽयं धर्मोऽस्य भूभृतः ॥४९॥ For Personal & Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ - २०१४ व्याधो डुङ्गरसारेण, यच्चिन्तयति तत् सृजेत् । नो चेदग्रेसरी भूत्वा, जीरापल्लीं कथं व्रजेत् ॥५०॥ अव० डुङ्गरसारेण - डुङ्गरधनेन, द्वि० पर्वतबलेन ॥५०॥ नरदेवात् पुरा येऽत्र, सञ्जाताः स्वजनव्रजा: । स्तम्भतीर्थे जनिस्तेषां, परेषां मालवे पुनः ॥५१॥ इतो मालवदेशवर्णनम् - पृथ्वीमण्डलमात्ममण्डलबलादादित्यवद् येन सद्, व्याप्तं स्वीयकरैर्घनाश्रययुतं तन्नैष देशाधिपः । स्वक्षेत्राद् रविणाऽपि सिंहविभुता दत्ता तथाऽऽप्ता परं, तद्वन्मालवनीवृतः सुखजुषः श्रीविक्रमार्केण सा ॥५२॥ अव० - येन कारणेन श्रीविक्रमार्केण आत्ममण्डलबलात्- स्वदेशबंलाद् । घ० घनाश्च ते आश्रयाश्च तैर्युतं सद्- विद्यमानं पृथ्वीमण्डलं स्वीयकरैर्व्याप्तं तत्कारणादेष देशाधिपो न, किन्तु पृथ्वीपतिः । किंवत् ? आदित्यवत् । यथाऽऽदित्येनाऽऽत्मण्डलबलात् स्वबिम्बबलाद् घना० आकाशसहितं भूमण्डलं व्याप्तं क्रियते, तन्नैष- तत्कारणादेष सूर्यो देशाधिपो भागाधिपो न । परं केवलं रविणाऽपि स्वक्षेत्रात् - स्वस्थानतः सिंहस्यैव विभुता दत्ता, न तु मेषादीनां यतोऽन्या मेषादिराशयो नामतः सामान्याः । तथा सिंहाद् विभुताऽऽसा 'सिंहस्य चाऽधिपः सूर्यः' इति वचनात् । तद्वत् तथा श्रीविक्रमार्केण मालवनीवृत:- मालवदेशस्य सा सिंहविभुता दत्ता, परैर्दुर्धृष्यत्वात्, तया ततः साऽऽप्ता न च सिंहन्यायेन । नीवृत्-शब्दाग्रे प्रथमं षष्ठी पश्चात् पञ्चमी ॥५२॥ ऽधुना, ये भोजप्रमुखाः सुधारुचिसुखा भूपाः सुरूपा: पुरा, दानोदारतरा बभूवुरदरा विद्वद्वरा: सुन्दराः । ये चाऽन्येऽपि जना घना गुरुधनास्ते यत्र सर्वेऽ तत् सन्मालवमण्डलं विजयते विश्वावधूकुण्डलम् ॥५३॥ अस्तोका दक्षलोकाः स्वपदजनपदं वर्णयन्तु प्रकामं, सर्व्वस्थामाभिरामं स्वजनचयमिवाऽनेकपाले सुकाले । १७१ For Personal & Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ अनुसन्धान-६३ दुष्काले ही कराले पुनरमुमतुलं संस्मरन्ति प्रसूवत्, नीचानीचप्रजानां परविषयभुवां स्थानदानप्रवृत्ता ॥५४॥ अव० - अन्याऽपि या माता सा नीचानीचप्रजानां- लघुवृद्धापत्यानाम् । पर० प्रकृष्टकामजातानां स्थानदानप्रवृत्ता भवति । प्रथमार्थो विषयो- देशः ॥५४॥ मालवोऽपि जनाधारो, दुष्कालादौ हि यद् भवेत् । हेतुं धाराधराम्भोज-शस्यश्रियमवेहि तम् ॥५५॥ अव० - धाराधरो- मेघस्तस्याऽम्भो यन्नीरं तज्जां शस्यश्रियं 'दन्तापदिष्टं तालव्यस्याऽपि' इति न्यायात् सस्यश्रियं- धान्यलक्ष्मीं तं हेतुं विद्धि । दैवतबलान्मालवे वर्षे वर्षे वर्षा वर्षति, तेन धान्यं निष्पद्यते । ततो दुष्कालादौ आधारः । द्वि० - देशवर्णनाधिकारात् यत्र देशे मालवोऽपि- लक्ष्मीलवोऽपि, दुष्कालादौ दुष्कालेदुभिक्षे आदिशब्दात् बन्दिगृहे राजदण्डे च जनाधारः । स्वल्पधना अन्यजनपदजनाः दुष्कालादौ मालवे यान्ति, न तु मालवीयाः कुत्रचित् यान्ति । अत्र को हेतुः ? उच्यते भोजशस्यश्रियं तं हेतुमवेहि । भोजेन चतुर्वर्णानां घनतरं वित्तं दत्तं, तेनाऽधुनाऽपि तल्लवोऽस्ति । किं० श्रियं ? धाराधरां- धारां नगरी धरतीति 'तास्त्स्थ्यात् तद्व्यपदेशः' धारानगरीस्थान् जनान् प्रपततो धरति । अथ धाराम् उपलक्षणत्वात् खड्गधारां धरतीति, भोजेन खड्गधारया श्रीरजिता तेन सा सत्त्ववती ततस्तद्भोक्तारोऽपि सत्त्ववन्तः । तृती० - अव्ययानामनेकार्थत्वाद् अपिशब्द इहार्थे । इह देशे प्रौढस्थानेषु मालवो माया- लक्ष्याः अलव:- समूहः सत्रागारादिकर्मणा यद् दुभिक्षादौ जनाधारो भवेत् । धारां धरतीति धाराधरम् । धाराधरं च तदम्भोजं च धा० पद्महदकमलं, तत्र या शस्यश्री:- प्रधानलक्ष्मीदेवता तं हेतुमवेहि । तत्रस्था लक्ष्मीदेवता प्रसन्ना सती तेषां धनं ददाति । ततस्ते वित्तव्ययं कुर्वन्ति । तदब्जं पाषाणमयम् अतः पत्रेषु धारा शैलोऽयं पृथुलश्चयोंऽप्यशिथिलः प्राकार उच्चस्तरोऽगाधैषा परिखा ततो निवसितुं युक्तं विचार्येति मे । लोकानाह हुसिंगशाहिनृपतिर्वासं प्रकुर्वन्त्विहाऽऽम्, तेऽप्यूचुः सकलाः परस्परमथो आलोचयाञ्चक्रिरे ॥५६॥ अव० – चयो०- वप्रस्य पीठभूः । ते आमित्यूचुः ॥५६॥ गोत्रोऽसौ खलु मण्डपेति विषमस्तेष्वेक एवं जगौ, लक्ष्म्या शं भुवि यत्र तत्र कमलां ते प्राहुरायंत्र मा (यन्नमी) । For Personal & Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ १७३ लाभो दानमिदं च मानमखिलाः सम्भूय तत्र स्थिता, . कीर्तिनसुता तदा प्रकुपिता तेभ्योऽतिदूरं गता ॥५७।। भूभृत्कोटियुतो न भूभृदयुतेनाऽसौ ततो जीयते, यत्स्थाऽनन्तरमासमाऽब्जचरमा न स्यात् सदाऽसत्तमा । यन्मध्यं न शतेन कोऽपि लभते दत्तेन वित्तेन वा, तं श्रीमण्डपदुर्गमिच्छति न को जेतुं धनप्राप्तये ॥५८|| अव० - असौ मण्डपो भूभृत्- पर्वतस्तस्य या कोटिरग्रं तया युतः । अतो भूभृदयुतेन- पर्वतरहितेन न जीयते, यतो भूमिस्थः पर्वतस्थं जेतुं न शक्नोति । अन्योऽपि भूपतिः कोटियुतो राजा भूभृदयुतेन- नृपदशसहस्रेण न जीयते । अब्जेकमले चरतीति अब्जचरा । अब्जचरा चासौ मा च अ० कमलवासिनी लक्ष्मीः । यत्स्था- यस्मिन् मण्डपे स्था यत्स्था । न विद्यतेऽन्तो यस्या साऽनन्ता अनन्ता चाऽसौ रमा च अनन्तरमा । यत्स्था चाऽसावनन्तरमा च यत्स्थानन्तरमा तया समा न स्यात् । किल० अब्ज० सदा असत्तमा नित्यमविद्यमाना, रात्रौ विगमात्, अवस्था पुनरक्षया । अन्यदपि अब्जचरमं अब्जं चरमं यत्र सङ्ख्यायां, तदनन्तसमं न भवति । यस्य नगरमध्यं शतेन वित्तेन दत्तेन न लभ्यते, यतः कारणात् शतेन दत्तेन मध्यं- मध्यनामानं सङ्ख्यारूपं न लभ्यते । यतः - • यथोत्तरं दशगुणं, भवेदेको दशाऽमुतः । शतं सहस्रमयुतं, लक्षप्रयुतकोटयः ॥१॥ अर्बुदमब्जं खर्वं च, निखर्वं च महाम्बुजम् । शङ्कर्वार्द्धिरन्त्यं मध्यं, परा चेति नामतः ॥२।। इति दशगुणाङ्कनामानि ॥५८॥ हुसिंगशाहिक्षितिपो मुदाऽन्यदा, बहिर्गत: कुत्रचिदुत्सवे नवे । मातङ्गमार्दङ्गिकमग्रतो वशाः, पश्चान्नरान् वीक्ष्य सविस्मयोऽभवत् ।।५९॥ ततः स खोजूमलिकं समीपगं, जगौ किमेषा विपरीतताऽद्भुता । एषोऽप्यवोचन्निजदेशरीतितः, कुर्वन्ति लोका न पुनर्विवेकिता ॥६०॥ भूपोऽवदत् तर्हि विवेकयुक्त-देशात् समाकारय तं मनुष्यम् । यत्सङ्गतोऽन्ये सविवेकिनः स्यु-रत्र स्थिता उत्तमवंशजाताः ॥६१।। विवेकपात्रं स तु गुर्जरात्रं, श्रीस्तम्भतीर्थं च पुरं विशेषतः । तत्राऽपि वृद्धं नरदेवसञ्ज-माकारयत् स्वीयकुटुम्बयुक्तम् ॥६२॥ For Personal & Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ ॥६५॥ अनुसन्धान- ६३ कालं कियन्तं निजपार्श्वदेशे, संस्थाप्य भव्यावसरेऽन्यदाऽऽप्तः । अमेलयद् भूपतिमस्य सोऽपि, कोशाधिकारत्वमदात् प्रहृष्टः ॥६३॥ व्यापारं प्राप्य केचित् स्वजनजनचयं नैव पश्यन्ति दृष्ट्वा, केचित् कुर्वन्त्यपारं करभरमकरे लोकसन्तापहेतुम् । मिथ्यात्वे यान्ति केचित् परयुवतिरताः केऽपि कुर्युः स्वकृत्यं, किन्त्वेष स्वीययुक्तः करनिकरहरः शीलसम्यक्त्वधारी ॥६४॥ यद् दुष्काले कराले नरपतिरिह नो पाति मर्त्यान् कुमृत्योविक्रीणीयात् पिताऽपि स्वसुतममुकृतेः चोर्वरा रङ्करूपा । सत्रागाराणि तस्मिन् प्रकटतरमसौ मण्डयित्वा ह्यरक्षद्, भूस्पृक्बीजं सुधीजं दिननृपबिरुदं तेन जज्ञेऽस्य लोके ॥६५॥ दिननृपबिरुदं 'दीहाडीरा' इति बिरुदम् । सुधीजं - सुबुद्धिकृतम् अव० सत्रागाराणि कुर्वन्ति, निजगेहे घना जना: । सत्यता पुनरेतस्य, नवीनानि प्रकुर्वतः ॥६६॥ दानं श्रीनरदेवमेवमवदद् देवांशिनो ये पुराऽभूवन् भूरितरा: कुदानवदरात् ते स्वर्गलोकं गता । तेनाऽऽधारविवर्जितं समभवं तस्याऽर्त्तिहर्ता भवांस्तस्मादुद्धर मां यतस्त्वमसि नो प्रत्यक्षदेवोऽधुना ॥६७॥ अव० , पूर्वं येऽभूवन् ते देवांशिनः तेषु देवानामंश एवाऽभूत्, अतस्ते स्वर्लोकं गताः स्वस्थानकत्वात्, तत्र स्थितस्वकीयपक्षमेलापकत्वाच्च । त्वं तु नररूपेण देवो नरदेवः, अतः प्रत्यक्षदेवः । यः प्रत्यक्षदेवः स सर्वेषामत्तिं हरति निराधाराणामाधारो भवति ॥ ६७ ॥ — तच्छ्रुत्वा स जगौ सगौरवमदो भूयात् परं प्रौढतां, नीतं त्वं किल यासि तं तु तदवग् वंशेऽपि तेऽहं स्थिरम् । नोक्तं मे यदि मन्यसे तव मतं शीलं तदा साक्षि सत्, तद्वाक्यात् स्वगृहे निवासितमिदं द्वेधाऽपि लक्ष्मीप्रदम् ॥६८॥ अव० तदा तव मतं- वल्लभं सत् - विद्यमानमुत्तमं च शीलं साक्षि । किल० दानं, द्वेधाऽपि लक्ष्मीप्रदं, दानेन गृहे धनं शोभा च भवति ॥६८॥ -- For Personal & Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ २०१४ सोऽथ स्वार्थकृते तदर्थिततये प्रौढं ददात्यन्वहं, शीलं रक्षति किन्त्वदः प्रतिभुवं तस्मान्न तेषां गृहे तत् तिष्ठेत् पुनरेति चाऽस्य निलये वाणीनिबद्धं सदा, येनाऽद्याऽपि तदन्वये गतभये संदृश्यते तद्द्वयम् ॥६९॥ अव० अन्योऽपि परार्त्तिहर्त्ता नरो निराधारं पालिताङ्गीकारभारं कञ्चन कुमारं सीदन्तं समीक्ष्य सन्तं साक्षिणं कृत्वा समादत्ते । तदनु तं प्रौढं विधाय स्वार्थकृतेआत्मधनार्थं, अत्र तादर्थ्ये चतुर्थी, अर्थिततये- धनवत्संहतये, सम्प्रदाने च चतुर्थीयं, ददाति, तथापि तद्गृहे स न तिष्ठति, वाणीनिबद्धत्वात् ॥६९॥ — चतुर्द्दशाब्दानि निरीक्ष्य धर्म - विच्छित्तिमीषद् हृदये विषण्णः । विज्ञप्य भूपं फरमाणपत्र - मासाद्य साधून् पुनरानयद् यः ॥७०॥ वरसिंगसुतः श्रीमान्, मेनकूकुक्षिसम्भवः । जज्ञे श्रीनरदेवाख्यो, निःशेषगुणभाजनम् ॥७१॥ भ्रात्राऽस्य धन्येन सपादलक्षं, बद्धं जनं चन्द्रपुरीसम(मु)त्थम् । धन्येन यन्मोचयता धनेन, चक्रे जगन्मुत्कलमत्र चित्रम् ॥७२॥ अव० मुदा हर्षेण कलम् ॥७२॥ विश्वोद्भवा कीर्तिवल्ली, सुवंशान् प्राप्य वृद्धिभाग् । मण्डपे यत् स्थिता भाति, तद् युक्तं गुणशालिनि ॥ ७३ ॥ अव० यत् कीर्तिवल्ली मण्डपे स्थिता भाति, तद् युक्तं, किं० विश्वेभ्यःसमस्तान्यजनेभ्य उद्भवा- जाता विश्वोद्भवा । अन्याऽपि वल्ली मण्डपे स्थिता यद् भाति तद् युक्तम् । किंल० वल्ली, विश्वा- पृथ्वी तस्यामुद्भवो यस्याः सा । किं०, गुणा- औदार्यादयः दवरकाश्च ॥७३॥ - चित्रं सङ्ग्रामगोत्रोत्था, शीघ्रं सदसि मार्गणैः । मिलिता फलिता जाता, विश्वव्यापिन्यसौ च यत् ॥७४॥ १७५ अव० सङ्ग्रामगोत्रोत्था असौ - कीर्त्तिवल्ली सदसि सभायां मार्गणैःयाचकैः सह मिलिता सती शीघ्रं फलिता जाता चाऽन्यद् विश्वव्यापिनी तच्चित्रम्। अन्या वल्लिः सङ्ग्रामस्य या गोत्रा - पृथ्वी तदुत्था सा सदसिमार्गणैः- सत्खड्गबाणैः मिलिता शीघ्रं फलिता विश्वव्यापिनी न भवति । तत्त्वतः सङ्ग्रामस्य यद् गोत्रं - नाम तदुत्था ॥७४॥ — For Personal & Private Use Only - Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ अनुसन्धान-६३ हुसिंगशाही नृपतौ विपन्ने, दिवंगते श्रीनरदेवसझे । नृपोऽजनि श्रीमहमूदनामा, सङ्ग्राममन्त्रीश्वरऋद्धिधामा ॥७५॥ भूर्यद्दिग्विजये धराधरबलात् तस्थौ पतन्ती त्वधो, भूध्राः सालबलादमी बलबलात् तान्यत्र भूभुगबलात् । भूपा दण्डबलादसावसिबलात् सो(सोऽयं?)ऽप्यसिर्दोर्बलात्[ऽथा?], सो तत् श्रीमहमूदशाहिनृपतिः प्रौढप्रतापो जयी ॥७६।। यत्सैन्योच्छलितं रजोभरमरं स्वर्गे गतं सत्वरं, तेनाऽऽसीदनिमेषमर्तिसहितं चक्षुःसहस्रं हरेः । तच्छान्त्यै घनवाहनोऽभवदसौ ग्रामे पुरेऽतो नदी सोऽयं मालवमण्डले विजयते श्रीग्यासदीनो नृपः ॥७७॥ सामान्मे प्रतापो जनपदविजयः प्राज्यसाम्राज्यवृद्धिबुद्धिर्विश्वप्रसिद्धिर्विशदतरयशोव्याप्तिरुर्वी कराप्तिः । . तस्मादस्मै परस्मै सकलविषयगे रामि भूपत्वमेवं, ध्यात्वा राज्ञा कृतोऽसौ नगदलमलिकः शौल्किकः कोशयुक् च ॥७८॥ शून्याशून्यभवं नवं नवमितं येऽर्थं विदुः सङ्गतं, विन्दुं बिन्दुमिमं जडं जलमहो ! जल्पन्ति शब्दं पुनः । सत्यष्टादशभिः स चित्रमथ तैः श्लोकोऽस्य वर्णैः कृतो, नो मात्येष जगत्त्रयेऽपि यदलं तच्चित्रचित्रं जने ॥७९।। अव० - अहो इति सम्बोधने । अहो सन्तो भवन्तो विचित्रं चित्रं पश्यन्तु । तैरष्टादशभिः वर्णैः अस्य- श्रीसङ्ग्रामस्य स सर्वप्रसिद्धः श्लोको- वर्णनरूपः कृतः । तैः कैः? ये वर्णाः शून्याशून्यभवं नवं नवम् अर्थं संगतम् इतं- मैत्रीप्राप्तमेतावता विरोधरहितं विदुर्जानन्ति, 'विदक् ज्ञाने' विद्, वर्तमाना अन्ति 'तिवां णवः परस्मै' अन्तिस्थाने उस् । ये वर्णाः शून्यत्वे शब्दस्याऽन्यार्थं कथयन्ति, अशून्यत्वे पुनः तस्यैव शब्दस्य अन्यमर्थं कथयन्ति । अतो नवं नवं शब्दार्थयोर्वाच्यवाचकसम्बन्धादनुक्तमपि शब्दस्य ग्रहणम् । अथाऽर्थस्याऽशेषविशेषछेका लोकाः स्तोकाः, परमक्षराणां वाचयितारो घना जनाः, ततस्ते शुद्धाक्षरवाचकाः सन्ति । तन्निराकरणायाऽऽह - ये वर्णा इमं प्रत्यक्षं विन्दुशब्दं बिन्दुशब्दं जल्पन्ति, बिन्दुं पुनर्विन्दुं, जडशब्दं जलं जल्पन्ति, जलं जडम् । अथ चेत् सत् ततस्तदा भवतु यतः स सत्यः । अन्योऽपि यः सचित्रश्लोकः स अष्टादशभिर्वर्णैरक्षरैर्भवति, तत्र चित्रे शून्याशून्यभवाः- सबिन्दुनिबिन्दुशब्दजाताः For Personal & Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ १७७ नवा नवा अर्थाः सङ्गता भवन्ति । यतः कन्था-कथा-चिन्ता-चितादयः शब्दाः । यतः 'नाऽनुस्वारविसर्गौ तु चित्रभङ्गाय संमतौ' । तथा चाऽत्र बवयोर्डलयोरैक्यं यतो यमकश्लेषचित्रेषु बवयोर्डलयोन भित् । परं स चित्रश्लोकः स्तोकतरे स्थाने माति, परमेष श्लोकस्त्रिभुवनेऽपि नो माति, तज्जने चित्रचित्रं, चित्रादपि चित्रम्, तत्त्वतः श्लोको- यशः ॥७९॥ दानं शीलं प्रवक्ति "प्रथममजनि मे जन्म सङग्रामतोऽपि, यन्मातुर्दानरूपं जनचयविदितं दोहदं गर्भगेऽस्मिन् । .. तेनाऽहं प्रौढमस्मि त्वमसि लघु यतो यौवने तेऽस्य सूतिः", शीलं प्राह "प्रमाणे न जननिरिह भोस्तेज एव प्रधानम् ॥८०॥ पश्चाज्जातोऽपि सिंहो घनदिनजनितं दानयुक्तं करीन्द्रवृन्दं हन्त्युग्रतेजाः" तदनुमतियुतं ते गते सद्विवेकम् । सोऽवग् “दानं जनानां सति धननिवहे दुष्करं नैव किञ्चित्, शीलं धर्तुं ह्यशक्यं धरति च तदयं तेन शीलं प्रवृद्धम्" ॥८१॥ योऽपारपृथ्वीधृतलोकसङ्ख्यां, करोति सोऽनेन विमोचितानाम् । आकाशमानं विदधाति योऽत्र, स तारकाणां गणने समर्थः ॥८२॥ सपौषधा पञ्चमिका किलैकदा, जिनप्रतिष्ठासविधं समागता । प्रदाय मानं प्रविभाषिता तया, सुधर्मवार्ता क्रियते सह त्वया ॥८३॥ सङ्ग्रामसज्ञेन मदुत्सवेऽखिलः, श्रीसङ्घलोकः परिधापित: कलः । उद्यापनं साऽऽह न मेऽत्र दृष्टं, तदा वद स्वीयमिमं गरिष्ठम् ॥८४॥ सद्बुद्धिरागत्य तदेत्य खर्व, जगाद ते मा कुरु तं हि गर्वम् । चित्तस्थिता वेद्मि सदाऽस्य सर्वं, त्वं वेत्सि पञ्चम्यसि येन पर्व ॥८५॥ प्रभावनायां वरवर्षपर्वणि, गुरुप्रवेशेऽन्यसुधर्मकर्मणि । सर्वत्र सङ्ख परिधापयत्यसौ, तद्भक्तिरेवाऽस्य ततोऽतिवल्लभा ॥८६॥ यत् पुण्यवृत्तार्थमसौ सुवर्ण-वारं सतां राति सदाऽनिवारम् । ते लब्धवर्णाः पुनरस्य तारं, श्राक् श्लोकमाहुः कथमर्थसारम् ।।८७।। अव० - यद्- यस्मादसौ श्रीसङ्ग्रामः, पुण्यवृत्तार्थं- सुकृताचाराय सतामुत्तमानामनिवारं यथा स्यात् तथा सुवर्णवारं सदा राति । ते सन्तः श्राक्- शीघ्रम् अस्य- श्रीसङ्ग्रामस्य श्लोकं- कीर्ति कथयन्ति । किंल० ? लब्धवर्णाः । लब्धो ब्राह्मणादिवर्णो यैस्ते लब्धवर्णाः । किल० ? सुवर्णानाम् अर्थसारम् । For Personal & Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ अनुसन्धान-६३ द्वि० - असौ श्रीसङ्ग्रामः यत्कारणात् पुण्यवृत्तार्थ- पवित्रकाव्यकरणाय सतांविदुषां सुष्ठवश्च ते वर्णाश्च सुवर्णाः सुवर्णानां वारः- समूहः सुवर्णवारस्तं राति इति । लब्धवर्णा विद्वांसः अस्य श्लोकं कथमाहुः? कोऽपि कथयिष्यति - स्तोका वर्णा दत्तास्तन्निषेधार्थं वारशब्दः । अथैवं कश्चिद् विपश्चिन्निवेदयिष्यति - अक्षराणि बहतराणि दत्तानि परं मध्यस्थिराणि दत्तानि, परं मध्यस्थितासभालभ्यकुवर्णत्वात् तानि कानिचिदवित्तानि ततस्ते वर्णनसवर्णाः सर्वे वर्णा न । तन्निराकरणाय 'सुवर्णे'ति पदम्। अथवाऽर्थवादी कोऽपि वादी वदिष्यति, वर्णा सवर्णा भवन्तु किन्तु डित्थडवित्थादिशब्दवन्नाऽर्थदानि कतिचित् पदानि । तदूहापोहार्थमर्थसारमिति विशेषणम् । तृती० - असौ सतां मालवदेशनिवासिनां काचकस्तीरपरिधायिनां पुण्य० पवित्रवृत्तार्थ- पवित्राचारार्थं सुवर्णवारं राति । इह देशे घना म्लेच्छजना अतोऽभङ्गस्तत्सङ्गः, तेन विचितत्वेऽशुचिता, पुनः पुनः स्नानं शीताधारणं, परं स्वर्णपानीयेन सुकरा कायपवित्रतापत्तिः, ततो देवपूजादिधर्म-कर्मप्रवृत्तिः, तस्मात् तेभ्यः समेभ्यः सुवर्णवारं ददाति । किं० सुवर्णवारं ? सदानिवारं दानिनां वारो- अवसरः, उपलक्षणत्वाद् वासरः, "नैवाहुतिर्न च स्नान'"मित्यादिवचनात् सह दानिवारया वर्तते यत् तत् सदानिवारम् । ते लोका अस्य सुवर्णस्य तारं रूपं कथमाहुः । किंलक्षणास्ते ? दिवसत्वाद् लब्धः पीतवर्णो यैस्ते लब्धवर्णाः । तैः काचादिपरिधाविभिः सुवर्णं रूप्यं च नाम्नैव श्रुतं, न तु दृष्टं नैव स्पृष्टं किं० सुव० । श्लोकः कीर्तिरूपम् ॥८७॥ श्रीसङ्ग्रामेऽभिरामे विमलगुणगणा येऽत्र तेषां न पारं, याति ब्रह्माऽपि वैकोऽस्त्यनणुरपगुणो यत् पितुः कीर्तिभीरोः । स्वीयां तामेकशूरां त्रिभुवनभवने वासयत्यादरेणैतस्याऽयं वा न दोषः सुत इह लभते पैतृकं येन सर्वम् ॥८॥ अव० - अन्या या भीरुः स्त्रीभवति सा स्वावासे अन्यां स्त्री निवासयति, अतः श्रीनरदेवकीर्त्या श्रीसनामकीत्तिस्त्रिभुवनभवने वासिता । परं या एकशूरा भवति सा, अन्यां न सहते । असौ श्रीसङ्ग्रामस्तादृशीं स्वां कीत्तिं त्रिभुवने वासयति । अतोऽस्याऽयं महान् दोषः । यत उक्तं रघुकाव्ये - "एक एव महादोषो, भवतां विमले कुले । लुम्पति पूर्वजां कीर्ति, जाता जाता गुणाधिका" ॥८८॥ लक्ष्मीरेत्याऽमुमाहाऽपनय सुनय! मे चञ्चलत्वं कलङ्क, सोऽयं स्वप्रत्ययार्थं जनविदितमदाद् दक्षिणं बाहुमस्यै । For Personal & Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९ जान्युआरी - २०१४ वाण्याऽथोचे ममाऽपि प्रकटतरमिमं सत्यतावजितेयं, .. तस्यै दत्तं वचो द्राग् तदनु सदनवत् तिष्ठतस्तत्र ते द्वे ॥८९॥ आप्ताङ्गानि सुवर्णीधैः, सोपाङ्गानि प्रपूर्य सः । गुरून् यद् दर्शयेत् तानि, युक्तमर्थवतोऽस्य तत् ॥१०॥ अव० - श्रीसङ्ग्रामः सोपाङ्गानि- द्वादशोपाङ्गसहितानि, आप्ताङ्गानिजिनोक्तैकादशाङ्गानि सुवर्णोधैः- शोभनाक्षरसमूहैः प्रपूर्य- पूरयित्वा, यत् तानि गुरून् दर्शयेत्, अस्याऽर्थवतः- शास्त्रार्थयुक्तस्य तद् युक्तम् । अन्योऽपि योऽर्थवान् स आप्ताङ्गानि- स्वकीयहस्तादीनि सोपाङ्गानि- अङ्गुलीप्रमुखसहितानि, सुवर्णोधैः प्रपूर्यं तानि गुरून्- पित्रादीन् दर्शयेत् ॥१०॥ निजजायासहजलदे, श्रेयोऽर्थं विमलनाथवरचैत्ये । देवकुलिका तथैका, येनोच्चैः कारिता कृतिना ॥११॥ सुव्यापारेऽप्यसौ धर्म, यद् दधाति यदाशये । सद्गुणं तच्च चित्रं नो, सङ्ग्रामस्येदृशो विधिः ॥९२॥ अव० - असौ सुव्यापारेऽपि यदाशये- चित्ते सद्गुणं धर्मं दधाति तच्चित्रं न । यतः सडग्रामस्येदृशो विधिः- आचारः । अन्योऽपि यः सङग्रामः तत्र सुव्यापारेऽपि असौ- कृपाणे धावसरे शये- हस्ते सद्गुणं- प्रत्यञ्चासहितं धर्मधनुः सुभटो दैधाति ॥९२॥ ब्राह्म मुहूर्ते प्रविहाय निद्रां, सुखासनस्थो जनदत्ततन्द्राम् । ध्यात्वा पवित्रं परमेष्ठिमन्त्रं, स चिन्तयामास धिया स्वतन्त्रम् ॥१३॥ चित्रं त्वेतद् बुधेनाऽपि, कलावत्यविरोधिना ।। कन्याराशिगति मुक्त्वो -च्चत्वं येनाऽऽश्रितं मतम् ॥९४॥ अव० - अन्यो यो बुधो ग्रहः स कलावति- चन्द्रे विरोधी भवति, कन्याराशि गत्वा उच्चत्वं श्रयति ॥९४॥ स एव विश्वाचरणप्रचारो, दृष्टिस्तथैषा वसतिस्तु सैव । न राजतेजो हि विनैकमाशा-गमो नृणां स्यात् सुकरोऽदरश्च ॥९५॥ अव० – विश्वं- समस्तं यदाचरणं- आचारस्तस्य प्रचारः- करणस्वभावः स एव । यथा राजतेजसि तथैव दृष्टिः- सम्यग्दृष्टिः एषाऽपि । तथा यथा पूर्वं वसतिस्थानं तदपि पूर्ववत् परमेकं राजतेजो विना आशागमो- मनोरथविस्तारोऽदरः सुकरो For Personal & Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० अनुसन्धान-६३ न भवति ॥ द्वि० विश्वा- पृथ्वी सैव, चरणप्रचारोऽपि स एव एषा दृष्टिस्तथा वसति:- निशा सैव, परमेकं राजतेजो- विधुरुचि विना आशागमो - दिग्गमः सुकरोऽदरो न भवति ॥९५॥ प्राप्य श्रीजयसिंहदेवनृपतेर्व्यापारभारं परं, श्रीमत्सज्जनदण्डनायक इह श्रीरैवताद्रौ वरम् । द्रम्मैर्द्वादशकोटिभिर्जिनपतेः प्रासादमुच्चैस्तरं, जीर्णं नव्यमचीकरत् कलियुगे राजीमतीस्वामिनः ॥९६॥ कोटीनां त्रिशती त्रिसप्ततिमिता लक्षाः पुनः सप्ततिः, कोट्योऽष्टादश वस्तुपालविहितो योऽभूच्छतानि व्ययः । तं श्रुत्वाऽपि नृपाः स्वमौलिमधुना यद् धूनयन्ति स्वयं, तन्न्याय्यं खलु यस्य मार्गणगणैर्धूनायितं यत् पुरा ॥९७|| अव० मार्गणगणैः- याचकसमूहैः बाणसमूहैश्च ॥९७|| श्रीवस्तुपालप्रमुखैरनेकै-र्व्यापारभारे सति सद्विवेकैः । प्रासादवाराः सुकृतैकसाराः, स्वैः कारितास्तीर्थकरौघताराः ॥ ९८ ॥ यत्र श्रीनेमिनाथो वरविततमहास्तीर्थराजास्तथाऽन्ये, यत्र श्रीअम्बिकाख्या गिरिशिखरगता तीर्थरक्षाकरा च । यत्र प्रौढप्रतापी नरपतिरधुना तेन तत्रोज्जयन्ते, प्रासादं कारयामि स्वपरहितकृते पुण्यरूपस्वरूपम् ॥९९॥ अव० एकवचने महस् बहुवचने मह - उत्सवः । एकवचने राजशब्दः स्वरान्तः, बहुवचने व्यञ्जनान्तः ॥ ९९ ॥ - संजातेंऽशुमये विभातसमये पृष्टा विशिष्टा जनाः, कः प्रेष्यः पुरुषों मया शुभधिया युक्तो विमुक्तो भिया । ते प्रोचुर्विबुधा वचोजितसुधा वीरं विनाऽन्यः क्षमः, सङ्ग्रामस्य कलं विधातुमचलं कार्यं न धर्मोज्ज्वलम् ॥१००॥ तच्छ्रुत्वा वसुचन्द्रमस्तिथिमिते ( १५१८) संवत्सरेऽप्रेषयत्, तं सोपायनमर्थसार्थसहितं श्रीजीर्णदुर्गे त्वसौ । स श्रीमण्डलिकं प्रणम्य नृपतिं संतोष्य माघासित - For Personal & Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१ जान्युआरी - २०१४ पञ्चम्यां समहं मुहूर्त्तमकरोत् प्रासादनिष्पत्तये ॥१०१॥ . . तुष्टेन प्रथमं नृपेण रुचिरा दत्तोच्चकैरुद्धरा, तत्राऽप्यम्बिकया शिलाऽस्य पृथुला दीर्घा प्रसादीकृता । प्रासादो रमया सदाप्य समया निर्मापितः सत्वरं, सर्वे भाग्यवतां सतां गुणवतां साहाय्यकर्ता भवेत् ॥१०२॥ प्रासादं विशदं विलोक्य सहसा स्रष्टा जगौ स्वां सुतां, त्रैलोक्यं सृजता ह्यर्जि न मया वत्सेऽधुनाऽसौ कृतः । साऽवोचन्नरदेसुतः सुविदितः सङ्ग्रामनामा जयी, तेनाऽयं खलु कारितः स सुविधिर्ब्रह्माऽऽह जीयाच्चिरम् ॥१०३।। श्रुत्वा स्त्रीणामवश्यं सुरयुवतिततिर्वज्रिवक्त्राद् मदाढ्या, नाट्यं चक्रे विधातुं निजकलकलया वीतरागं सरागम् । दुर्भेद्यं तं तु मत्वाऽक्षितिचरचरणा निनिमेषाक्षिपक्ष्मा, हीताऽऽश्चर्यं विधत्ते तदिह जिनगृहे पुत्रिकाव्याजतो यत् ॥१०४॥ अव० - एकदा मुदा वितन्द्रः सौधर्मेन्द्रः स्फुरत्प्रभायां सभायां कृतमन्मथमाथं श्रीनेमिनाथं विश्वाभिरामाणामपि रामाणामवश्यं वश्यं नेति जगौ । तत् सम्यग् निशम्य उर्वशीप्रमुखाः सुमुखाः दीप्ततेजोलेश्याः स्वर्वेश्याः समानसे स्वस्वमानसे विचार्य परस्परं प्रोचुः "स्वामिनः स्वेच्छया यद् वदन्ति तद् वदन्तु, परं परमेष्ठिपुरुषोत्तमशम्भवो वशाभिर्वशीकृताः सन्ति । असौ सुरासुरनरैर्गेयोऽपि तन्नामधेयोऽस्ति । अतः प्रधानात् सदृशाभिधानात् वनितावशो भविष्यति ।" इदमुक्त्वा सौधर्मेन्द्राग्रे प्रतिज्ञां कृत्वा रैवताद्रिं गत्वा गृहीतसंयमस्य श्रीनेमीश्वरस्य पुरतो नाट्यं चक्रुः । अथ वृत्तार्थलेशः - मदाढ्या सती यन्नाट्यं चक्रे तद्युक्तम् । अन्याऽपि मदाढ्या नाट्यं करोति । परं या हीता सा अक्षितिचरचरणा निर्निमेषाक्षिपक्ष्मा च न भवति, नाट्यं च न विधत्ते । यतो निर्लज्जं गानं, निःप्रविष्टं नृत्तं तेनाऽऽश्चर्यम् ॥१०४॥ विद्यन्ते परकीर्त्तिवद् घनतराः पाण्डूत्तराः ख्यानय, एतत्कीर्तिसमा सुशब्दपरमा मम्माणखानिः पुनः । तेनाऽऽनाय्य तदुद्भवं मणिमयं ज्योतीरसाख्यं दलं, मूर्तिं कारितवान्नयं नयधनो नेमीशितुर्निर्मलाम् ॥१०५॥ देवैः स्वप्ने न्यगादीदृशमथ समये देवदेशस्थितैः स, पूर्वं याऽभूत् प्रतिष्ठा जनचयविदिता सा न दृष्टा विशिष्टा । For Personal & Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ अनुसन्धान-६३ तस्मान्नो दर्शय त्वं सुमनस इह ये ते श्रियन्ते प्रतिष्ठाऽप्येतं ह्येतं विनिद्रा जिनमपि सविधे चारुलक्ष्मीसमेतम् ॥१०६॥ तत् सत्यं त्ववगत्य कृत्यविदुरं सम्प्रेक्ष्य शुद्धं महीराजं चेन्द्रियपक्षबाणकुमिते (१५२५) संवत्सरेऽमत्सरे । वैशाखोज्ज्वलषष्ठिकाशुभदिनेऽसौ कारयामासिवान्, श्रीनेमेनितरां निवेशसहितं श्रीमन्प्रतिष्ठामहम् ॥१०७॥ अव० - तद् देववचः सत्यमवगत्य, यतः - "देवतास्तु तथा गावः, पितरो लिङ्गिनो नृपाः । यद् वदन्ति नरं स्वप्ने, तत् तथैव समादिशेत् ॥१०७॥" सद्वारो वरमत्तवारणधृतिर्भद्राकृतिः सुक्षमो, वर्यायः प्रतिमाश्रितः परिकराश्लिष्टः स्फुरन्मण्डपः । लक्ष्मीयुग् जगतीनतोऽक्षतमहापट्टः प्रतिष्ठान्वितः, प्रासादो जयतात् सुधोज्ज्वलरुचिः सङ्ग्रामनामा तथा ॥१०८॥ अव० - प्रासादपक्षे - सह द्वारेण वर्त्तते यः स, वराणां मत्तवारणानां धृतिर्धरणं यत्र, भद्राणां- भद्रनामधेयानां प्रासादानां आ- समन्तात् कृति:- करणं यत्र, सुष्ठ क्षमा- पृथ्वी यत्र, वर्यः- प्रशस्य आयो- गजादिर्यत्र, लक्ष्मी:- शोभा तया युक्तः, जगत्यां नतो- नम्रः, अक्षतानां महापट्टो यत्र । __ श्रीसङग्रामपक्षे - सती- शोभना वारा- वेला यस्य, मत्ता वारणा मत्तवारणा वराश्च ते मत्तवारणाश्च व० तेषु धृतिः- सन्तोषो यस्य सः, परिग्रहप्रमाणे हस्तिरक्षणनियमत्वात्, भद्रा- मनोज्ञा आकृतिर्यस्य, सुष्ठः- शोभना क्षमा यस्य अथवा सुष्ठ अतिशयेन क्षमः- समर्थः, वर्यः- प्रशस्य आयो- लाभो यस्य सः, प्रतिमाएकादश श्राद्धप्रतिमा-स्ताभिराश्रितः, परिकरः- परिवारस्तेनाऽश्लिष्टः- सहितः, जगत्या नतः, तात्स्थ्यात् तद्व्यपदेशात् पृथ्वीस्थजनेन नतः, स्फुरन्मण्डपो- देदीप्यमानो मण्डपदुर्गो यस्य, अक्षतः- सदास्थितो मण्डपिकासम्बन्धी महापट्टो यस्य । सुधा- अमृतं तद्वदुज्ज्वला रुचिः- सम्यक्त्वं यस्य ॥१०८॥ श्रीरत्नसिंहसूरीणा-मन्तेवासिनिवासिभिः । प्रशस्तिः स्वस्तिकृत् क्लृप्ता, ज्ञानसागरसूरिभिः ॥१०९॥ प्रासादस्था प्रभावाढ्या, देवीव विबुधप्रिया । सुवृत्तश्लोकयुक्ताऽसौ, सालङ्काराऽस्तु वः श्रिये ॥११०॥ For Personal & Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २०१४ श्री सङ्ग्रामकारितप्रासादप्रशस्तिः श्रीज्ञानसागरसूरिकृता ॥ अव० प्रासादस्था प्रशस्तिर्देव्यपि प्रासादे भवति । प्रकृष्टा भावा यस्याम्, विबुधानां प्रिया - अभीष्टा, विबुधप्रिया- देवभार्या । सुष्ठु - शोभनानि वृत्तानि - काव्यानि श्लोकाश्च तैर्युक्ता । द्वि० - सुवृत्तं - सदाचारस्तेन यः श्लोकः कीर्त्तिस्तद्युक्ता असौ प्रशस्तिर्वो- युष्माकं श्रियेऽस्तु ॥११०॥ इति श्रीसङ्ग्रामकारित-श्रीनेमीश्वरप्रासादप्रशस्ति-विषमपदावचूरिः ॥ भट्टारकश्रीज्ञानसागरसूरिभिः प्रशस्तिः कृताऽवचूरिश्च ॥ * * * १८३ For Personal & Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ अनुसन्धान-६३ दव्यपुद्गलपरावर्त शक्य छे के नथी ? ___ मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय कालना उत्कृष्ट मापनुं नाम 'पुद्गलपरावर्त' छे. चौद रज्जु जेटला विशाल लोकमां व्याप्त समस्त परमाणुओने ग्रहण करीने छोडवामां अक जीवने जेटलो समय लागे, मतलब के अेक जीव द्वारा तमाम परमाणुओनी परावृत्ति थवामां जेटलो समय पसार थाय, तेटला कालने 'पुद्गलपरावर्त' अवा नामे ओळखवामां आवे छे. जो के 'पुद्गलपरावर्त' शब्द उपरोक्त व्याख्या मुजब परमाणुओनी परावृत्तिना कालने ज सूचवे छे, तो पण शास्त्ररूढिना बले प्रदेशपरावृत्ति, समयपरावृत्ति अने अध्यवसायपरावृत्तिमां पसार थता कालने पण 'पुद्गलपरावर्त' तरीके जणाववामां आवे छे. माटे पुद्गलपरावर्तना ४ प्रकार पडे छे : १. परमाणुपरावृत्तिकाल = द्रव्यपुद्गलपरावर्त २. प्रदेशपरावृत्तिकाल = क्षेत्रपुद्गलपरावर्त ३. समयपरावृत्तिकाल = कालपुद्गलपरावर्त ४. अध्यवसायपरावृत्तिकाल = भावपुद्गलपरावर्त. आमांथी अत्रे द्रव्यपुद्गलपरावर्त विशे ज चर्चा अभिप्रेत छे. द्रव्यपुद्गलपरावर्त - सकलपरमाणुपरावृत्ति कई रीते समजवी तेने अंगे अलग-अलग निरूपण मळे छे. १. सकल लोकमां वर्तमान समस्त पुद्गलोने औदारिक, वैक्रिय, तैजस, कार्मण, भाषा, आनप्राण अने मन मे सात पदार्थो रूपे परिणमावीने छोडवा ते पुद्गलपरावर्त. - (जीवसमास-गाथा २५७- मलधारीय टीका.) ___ (अत्रे स्वमते द्रव्य-क्षेत्र के सूक्ष्म-बादर अवा कोई भेदो नथी. अन्य आचार्योना मते जे भेदो देखाड्या छे.) २. शतकनी स्वोपज्ञ वृत्तिमां (-श्रीदेवेन्द्रसूरिजी) गाथा ८७मां द्रव्यपुद्गलपरावर्तना बे भेद देखाड्या छे - स्थूल अने सूक्ष्म. औदारिक व. उपर दर्शावेला सात रूपे अक जीव द्वारा तमाम पुद्गलोने परिणमावीने मूकवामां व्यतीत थतो समय ते स्थूल द्रव्यपुद्गलपरावर्त. अने सातमांथी कोई ओक ज रूपे परिणमनमा लागतो काळ ते सूक्ष्म द्रव्यपुद्गलपरावर्त. सूक्ष्ममां विवक्षित For Personal & Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ १८५ प्रकार (-औदारिक व.) सिवायना प्रकारे थतुं ग्रहण गणतरीमां नथी लेवातुं, तेथी स्थूल करतां तेमां घणो वधारे समय पसार थाय छे. ३. उपरनी ज वृत्तिमां अन्य मत देखाडवामां आव्यो छे - उपरोक्त सातमांथी औदारिक, वैक्रिय, तैजस अने कार्मण - ओ ४ रूपे सघळां पुद्गलोनुं ओक जीव द्वारा ग्रहण-मोचन थवामां पसार थतो समय ते स्थूल द्रव्यपुद्गलपरावर्त तथा ओ चारमांथी कोई पण ओक ज शरीर रूपे परिणमननो काल ते सूक्ष्म द्रव्यपुद्गलपरावर्त. उपर दर्शावेली विवक्षाओ भले परस्पर विभिन्न होय, परन्तु चौद राजलोकमां रहेलां तमाम पुद्गलो परिणमन थाय ओ वात तो बधामां समान रूपे छे. अने अहीं ज नहीं, शास्त्रोमां ज्यां ज्यां पण द्रव्यपुद्गलपरावर्तनी वात छे, त्यां बधे ज तमाम पुद्गलोना ग्रहण-मोचननी प्ररूपणा छे. अमां कशी नवाई पण नथी, केमके जैन दार्शनिक परम्परा पहेलेथी ज ओ वात स्वीकारती आवी छे. परन्तु हमणां हमणां केटलाक महानुभावो आ तमाम शास्त्रोनी प्ररूपणाओने अमान्य ठरावी रह्या छे. "पुद्गलास्तिकायगत तमाम पुद्गलो, ग्रहण-मोचन ओक जीव द्वारा तो नहीं ज, पण सर्व जीवो द्वारा पण आज सुधी नथी थयुं, अने भविष्यमां पण नथी थवानु; अनन्तानन्त पुद्गलो कायम माटे अगृहीत ज रहेवाना छे. अने तेथी सर्व पुद्गलोनी परावृत्तिरूप द्रव्यपुद्गलपरावर्त सर्व जीवो द्वारा पण थयो नथी के थवानो नथी'', अq तेमनुं कहेवू छे. "अनुयोगद्वार-टिप्पनक" (प्र. दिव्यदर्शन ट्रस्ट, धोलका, वि.सं. २०६३) नामना ग्रन्थमां आ अंगे करवामां आवेली टिप्पणी (पृ. २६०) नीचे मुजब छे “ननु सर्वपुद्गलास्तिकायगतसर्वपुद्गलानां सर्वजीवेभ्योऽनन्तानन्तगुणत्वं वृत्तावप्यग्रे कथयिष्यते । ततश्च कथमेकस्याऽप्येवंविधस्य पुद्गलपरावर्तस्य सम्पूर्णेऽप्यतीतकाले सम्भवः ? अयम्भावः - पृच्छासमयं यावदेकेन जीवेन गृहीताः पुद्गलाः कियन्त इति प्रापणार्थं 'प्रतिसमयं गृह्यमाणपुद्गलराशिप्रमाणेन गुण्यमानेऽतीतकालगतसमयराशौ यत्प्राप्यते तत्प्रमाणाः' इति करणमुपयुज्यते । अत्र च प्रतिसमयं गृह्यमाणपुद्गलराशिरभव्यजीवद्रव्यसङ्ख्यातोऽनन्तगुणप्रमाण: For Personal & Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ अनुसन्धान-६३ सिद्धजीवद्रव्यसङ्ख्यातश्चाऽनन्तभागप्रमाणो वर्तते । तथाऽतीतकालगतसमयराशिः षण्मासगतसमयप्रमाणाऽसङ्ख्येयगुणितसिद्धजीवद्रव्यसङ्ख्याया न्यूनो भवति, मुक्तिप्रासेरुत्कृष्टान्तरस्य षण्मासत्वात् । ततश्च प्रथमराशि(सिद्ध-अनन्त)गुणितो द्वितीयराशिः (सिद्ध x असङ्ख्य) सिद्धजीववर्गापेक्षया न्यूनः प्राप्यत इति स्पष्टम् । अयञ्च राशिर्न सर्वजीवेभ्योऽनन्तानन्तगुणः, अपि त्वनन्तभागवत्येवेत्यपि स्पष्टमेव । इत्थञ्चोपरि यादृशः पुद्गलपरावर्त उक्तः, तादृशो नैकोऽप्यद्य यावद् व्यतीत इति सिद्धं, सर्वपुद्गलास्तिकायगतसर्वपुद्गलानन्तभागवर्तिपुद्गलानामेवैकेन जीवेन पृच्छासमयं यावद् गृहीतत्वात् । ननु शास्त्रे त्वनन्ता पुद्गलपरावर्ता व्यतीता इति श्रूयते । सत्यम्, अत एव पुद्गलपरावर्तस्य या परिभाषाऽस्माभिरवबुध्यते तदन्यैव काचित्परिभाषा वस्तुतो भवेदिति मन्तव्यम् । 'सा च का ?' इति निर्णेतुं न वयं समर्थाः, बहुश्रुता एवाऽत्र प्रक्रमे प्रष्टव्याः ।" उपर जे संस्कृत पाठ लख्यो छे. तेनो गुजरातीमां ते ज मह्मनुभावोना शब्दोमां भावार्थ जोईओ : ___“जे रीते द्रव्यपुद् परा०नी व्याख्या आपणे समजीओ छीओ ओ रीते आज सुधीमां अक पण द्रव्यपुद् परा० 'पूरो थयो नथी के भविष्यमां पण थशे नहीं. ते आ रीते : ६ महिनामां ओक जीव अवश्य मोक्षे जाय छे. धारो के हाल जेटला सिद्धात्मा छे ओ बधा ६-६ महिनाना अन्तरे ज गया होय तो पण अतीतकाळ = सिद्धना जीवो x ६ महिनाना समयो... आटलो ज पसार थयो छे, अर्थात अतीतकाळ = सिद्ध x a ___ अक जीव ओक समयमां सिद्धना अनन्तमा भागना (अने अभव्यथी अनन्तगुण) पुद्गलो ज. ले छे. अटले अक जीवे अत्यार सुधीमां लीधेला पुद्गलो - अतीतकाळ x सिद्धनो अनन्तमो भाग, अर्थात् सिद्ध x ax सिद्ध : A तेथी सर्वजीवोथी अत्यार सुधीमां गृहीत पुद्गलो = सिद्ध' x at A x सर्वजीव. आ रकम सर्वजीवथी अनन्तगुण जेटली छे, पण सर्वजीवना वर्ग जेटली For Personal & Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ १८७ नथी, कारण के सिद्ध x a / A ओ सर्वजीवथी नानी रकम छे. पुद्गलास्तिकायमां तो सर्वजीवना वर्ग करतां पण अनन्तानन्तगुणा पुद्गलो छे. अटले सर्वजीवोथी पण आखा पुद्गलास्तिकायना ओक अनन्तमा भाग जेटला ज पुद्गलो आज सुधीमां गृहीत थया छे तो अक जीवथी सर्वपुद्गलो गृहीत थईने छोडवानी वात ज क्यों रहे? अटले आमां अन्य ज कोई विशेष प्रकारनी विवक्षा जाणवी जोइओ." पंचमकर्मग्रन्थ-टिप्पण, पृ. ४१०-११ सं. : रम्यरेणु प्रकाशक : जूना डीसा श्वे. मू. संघ, वि. २०५८ *** आ विचारणामां केटलाक प्रश्नो अनुत्तरित रहे छे : १. ते टिप्पनककार 'अतीतकाल = सिद्धना जीव x असङ्ख्य समय' अर्बु समीकरण आपे छे. हवे, सिद्धना जीवो सकल जीवराशिना अनन्तमा भाग जेटला छे. तेथी तेमनी राशिने असख्य समय साथे गुणीजे तो जवाबमां आवनारी रकम जीवराशिनो नानकडो अंश ज हशे. बीजी तरफ प्रत्येक संसारी जीव अनन्तानन्त कर्मपुद्गलोथी वीटळायेलो छे. तेथी फक्त कार्मणवर्गणाना पुद्गलोने ध्यानमां लईओ तो पण ते सकल-जीवराशिथी अनन्तगुण छे, तो स्वाभाविक रीते ज पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय करतां अनन्तगुण थशे. तेथी ते टिप्पनककारे दर्शावेली गणतरी मुजब आवता अतीतकालना समयो, तेमनाथी अनन्तगुण जीवराशिथी पण अनन्तगुण पुदगलोना अनन्तमा भाग जेटला ज रहे छे. समीकरण आम बनशे - अतीतकाल = पुद्गलास्तिकाय ’ अनन्त हवे, आनी सामे पन्नवणाजी - पद ३ - सूत्र ७९ अने तेनी मलयगिरीय टीका तेमज जीवसमास - गाथा २८२ अने तेनी मलधारीय टीका जुओ. आ बन्ने ठेकाणे समयोने पुद्गलो करतां अनन्तगुण जणाव्या छे. अलबत्त, त्यां सूत्रमा अतीत-अनागत बधा समयोने गणतरीमां लीधा छे. पण उपरोक्त टीकाओ जोईशुं तो स्पष्ट जणाशे के ओकलो अतीतकाल के अकलो अनागतकाल पण पुद्गलास्तिकायथी अनन्तगुण ज छे. केमके पुद्गलास्तिकायना फक्त ओक परमाणुओ पण अन्य अनन्त पुद्गलो के स्कन्धो साथे संयोग अनुभवेला छे. चोक्कस काळे चोक्कस क्षेत्रमा अवगाहन - ओ रीते क्षेत्र अने कालनी For Personal & Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ अनुसन्धान-६३ अपेक्षाओ पण ओक ज परमाणुनी अनन्त स्थितिओ सर्जाई चूकी छे. वर्णादिनी परावृत्तिो पण अनन्त अवस्थाओ अक परमाणुनी सर्जाय छे. आ रीते अक परमाणुने ध्यानमां लईओ तो पण द्रव्य, क्षेत्र, काल अने भावना भेदे, ते ते भेदोनी परावृत्तिमा अनन्त समयो व्यतीत था छे. तो पछी अनन्तानन्त पुद्गलो अने पुद्गलस्कन्धोनी संयोगो-अवस्थाओने ध्यानमां लईओ तो पुद्गलो करतां अनन्तगुण समयो व्यतीत थया छे ते सहेजे समजाय तेवू छे. तो अतीतकालना समयोने पुद्गलो करतां अनन्तमा भागे कहेवा ते विचारणीय नथी ? २. ते टिप्पनककारे जे गणतरीथी अतीतकालनुं निर्धारण कर्यु छे, ओ गणतरीथी अनागतकाल- पण निर्धारण करी शकाय तेम छे. केम के वधुमां वधु छ महिने ओक जीव मोक्षे जवानो ज छे. तेथी 'अनागतकाल = सिद्धना जीवो x असङ्ख्य समयो' अर्बु समीकरण बनावी शकाय. ध्यान रहे के आ गणतरी मुजब जे अनागतकाल आवे छे, ते पुद्गलास्तिकायना अनन्तमा भागे ज रहे छे. तेथी पुदगलोथी समयो अनन्तगण छे, ओवी शास्त्रीय प्ररूपणा साथे तो तेनो विरोध आवे ज छे; पण संसारनी परिमिततानी आपत्ति पण आवे छे. जो के उपरनी वात सामे झैं दलील करी शकाय के सिद्धो अनागतकालमां केटला थवाना ते क्यां नक्की छे ? ओ राशि तो अनन्त छे. अनन्तकाल सुधी सिद्धोनी शृङ्खला चालु ज रहेवानी छे. तेथी अनागतकालनु आवी रीते निर्धारण करी शकाय नहि. दलील साची दिशानी गणाय. पण आ ज दलील अतीतकालमां पण केम लागु ना पडे ? सिद्धोनी शृङ्खलानो जेम अन्त नथी, तेम आदि पण नथी. तेथी ओ अपरिमेय राशिने आधारे परिमित अतीतकालनुं निर्धारण करी शकाय नहि. 'अतीतकाल आटलो' अq निर्धारण आपोआप संसार- सादित्व सिद्ध करी आपे से नक्कर सत्य छे. ३. ते टिप्पनककारना कहेवा मुजब "ओक जीवथी तो नहि ज, सकल जीवथी पण आज सुधीमां पुद्गलोनो अनन्तमो भाग ज गृहीत थयो छे." आनी सामे 'अनुयोगद्वारसूत्र'नी मलधारीय टीकानो पाठ जुओ - "स कश्चित् पुद्गलोऽपि नाऽस्ति योऽतीताद्धायामेकैकजीवेनौदारिकशरीररूपतया अनन्तशः परिणमय्य न. मुक्तः ।" (सूत्र ४१३ टीका) (ओवो कोई पुद्गलपरमाणु नथी के जे ओके जीव द्वारा औदारिकशरीररूपे अनन्ती वखत परिणमावीने छोडवामां For Personal & Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ १८९ आव्यो न होय.) 'प्रज्ञापनाजी' - पद १२ - सूत्र १७७नी मलयगिरीय टीका जुओ - "सर्वेऽपि पुद्गलाः सर्वैरपि जीवैः प्रत्येकमौदारिकत्वेन गृहीत्वा मुक्ताः।" (सकलजीवराशिना प्रत्येक जीव द्वारा औदारिकपणे सर्व पुद्गलो ग्रहण करीने मूकायेला छे.) अ ज टीकामां उपरनी वातने पुष्ट करतो चूर्णिनो पाठ नोंधायेलो छे : "न वि अविगलाणमेव केवलाणं पि गहणं एयं न य ओरालियगहणमुक्काणं सव्वपुग्गलाणं ।" आवा पाठो तो अनेक मळी शके. सवाल अना स्वीकार-अस्वीकारनो छे. ते टिप्पनककारे सकल पुद्गलोना अग्रहण माटे जे तर्क आप्यो छे, ते वाजबी तो नथी ज. छतां पण ओक क्षण पूरतो तेने वाजबी मानी लईओ, तो पण प्रश्न तो रहे ज के, जे तर्क आपणने तमाम शास्त्रीय परूपणाओ तेमज बहुश्रुत भगवन्तोनां वचनोने अमान्य ठराववा प्रेरे छे, तथा जे तर्कने कोई शास्त्रवचन- पीठबल नथी, ओ तर्कने पकडी राखवानो कोई अर्थ खरो ? उपर 'प्रज्ञापना'नी टीकानो जे पाठ उद्धृत कर्यो छे ते पाठथी थोडीक लीटीओ पहेलां ज अन्य सन्दर्भे मलयगिरि भगवन्ते. उच्चारेलां वचनो जुओ - “एकैकस्मिन्नप्याकाशप्रदेशे एकैकौदारिकशरीरस्थापनया असङ्ख्येया लोका व्याप्यन्ते, परं पूर्वाचार्या आत्मीयावगाहनस्थापनया प्ररूपणां कुर्वन्ति, ततोऽपसिद्धान्तदोषो मा प्रापदित्यस्माभिरपि तथैव प्ररूपणा क्रियते ।" जे वाततर्क सर्वथा युक्तिसङ्गत छे, छतां तेनी प्ररूपणामां जो अपसिद्धान्त (स्वीकारेला सिद्धान्तने खोटो ठरावे तेवी प्ररूपणारूप) दोष जोवामां आवे, तो असङ्गत अथवा मनघडन्त तर्कने आधारे थता शास्त्रविरुद्ध प्रतिपादनने अंगे तो शुं कहेवू ? ४. ते टिप्पनककार द्रव्यपुद्गलपरावर्तनी परिभाषा के विवक्षा बदलवानी वात करे छे. पण गमे ते परिभाषा के विवक्षा कल्पो, जो अमां सकल पुद्गलो, परावर्तन थवानी वात नहीं होय, तो अने 'द्रव्यपुद्गलपरावर्त' कहेवाशे शी रीते ? अने जो सकल पुद्गलो, परावर्तन स्वीकारQ होय, तो आ शास्त्रोमां डगले-पगले मळती विवक्षाओ | खोटी छे ? __वास्तवमां, "तेऽणंताऽतीअद्धा" (नवतत्त्व-गाथा-५४) जेवां शास्त्रवचनोने आधारे अक ओक जीव द्वारा अनन्तीवार सकल पुद्गलास्तिकायनुं ग्रहण अने For Personal & Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० अनुसन्धान-६३ तदाधारित अनन्त द्रव्यपुद्गलपरावर्तो थया होवा सिद्ध ज छे.१ ते टिप्पनककार द्वारा अनी सामे उठाववामां आवेली आशङ्का ओटले गेरवाजबी ठरे छे के अने शास्त्रबल तो नथी ज, पण तार्किक रीते पण अमां वजूद नथी. पूर्वे जणाव्युं तेम, 'अतीतकाल = सिद्ध x असङ्ख्य समय' आ समीकरणमां तकलीफ ओ छे के सिद्धजीवोनी राशि अनादि छे. तेनी इयत्ता नक्की करी शकाय नहीं. अने दाखलो गणवा माटे सिद्धजीवोनी कोई चोक्कस सङ्ख्या मूकवी ज पडे. केम के असङ्ख्य समयो साथे केटला सिद्धोने गुणवा अ ज नक्की नहीं होय तो अतीतकाल पण नक्की नहीं थाय. अने जो सिद्धोनी सङ्ख्या नक्की करीने अतीतकालनुं निर्धारण करीशुं तो अटला अतीतकाल पहेला संसार न हतो अम समजवामां संसारना सादित्वनी आपत्ति वज्रलेप समान छे. माटे अतीतकालनं अनिर्धारण ज संसारनं अनादित्व स्वीकारनारा जैनोने इष्ट होई शके. अने से वात वाजबी पण छे; केम के सिद्ध-जीवराशिने अन्तरहित गणीने जो आपणे तेना आधारे अनागतकाल नक्की न करी शकता होई, तो अनी आदि पण न होवाथी अना आधारे अतीतकालनु निर्धारण पण केम कराय ? वास्तवमां अतीतकालनु अयुक्त निर्धारण ज आवी विसङ्गत प्ररूपणाचें मूळ जणाय छे. अतीतकाल आटलो अल्प न ज होय ते वात शास्त्र अने युक्ति - उभयसिद्ध छे. खरेखर तो युक्तिवादनी ओक मर्यादा छे. ओ मर्यादाने ओळंगीने श्रद्धावादना विषयोमां पण युक्तिओ लगाडवी, ओ पण श्रद्धेय विषयना मण्डन माटे नहि, खण्डन माटे, ते अयोग्य ज गणाय. आ बाबतमां अनुयोगद्वारसूत्र ३६६ना विवरणमां मलधारीजी भगवन्ते उच्चारेलां वचनो हृदयपट्ट पर कोतरी राखवा जेवां छे : "न चाऽतीन्द्रियेष्वर्थेषु एकान्तेन युक्तिनिष्ठ व्यं, सर्वज्ञवचनप्रामाण्यात् ।" (अतीन्द्रिय अर्थोमां अकान्ते तर्कबुद्धि लगाडवी वाजबी नथी, कारण के ओ पदार्थोने 'सर्वज्ञनुं वचन अप्रमाण होय ज नहि' ओवी दृढ श्रद्धाथी यथावत् स्वीकारी लेवाना होय छे.). अत्रे करेली विचारणामां रहेली क्षतिओ सूचववा तथा आ चर्चाने आगळ १. आ वातना निःशङ्क पुरावा माटे जुओ भगवतीजी - शतक १२ उद्देश ४ सूत्र ४४५ ४४६मां प्रभुवीरे स्वमुखे करेली प्ररूपणा अने तेनी अभयदेवसूरि विरचित टीका. For Personal & Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान्युआरी - २०१४ वधारवा विद्वज्जनोने नम्र विनन्ति. आ प्रकारना ऊहापोह पाछळ एक ज शुभ आशय छे के आपणे तर्कवादना जोरे कदीक उत्सूत्र कथन के सूत्रविरुद्ध कथनना दोषनो भोग न बनी जईए, अने पहेली नजरे तर्कसङ्गत भासता पण सूत्रविरुद्ध एवा प्रतिपादनने वाजबी मान्यतानो विषय गणी लईने प्रवर्तनारी अयोग्य परम्पराथी बची जईए. डॉ. नगीन जे. शाहनी विदाय __ भारतीय दर्शनशास्त्रोना विश्वविश्रुत गुजराती विद्वान डॉ. नगीनदास जे. शाहनु, ८२ वर्षनी वये, ता. ४-१-२०१४ना रोज, अमदावाद मुकामे दुःखद अवसान थयुं छे. पण्डित सुखलालजीनी परम्परामां तैयार थयेला प्रखर दार्शनिक विद्वानोनी उज्ज्वल शृङ्खलामां तेओ अन्तिम हता. तेमनी विदाय साथे गुजरातमा 'दर्शनयुग' समाप्त थयो छे एवं कही शकाय. आ अर्थमां आपणुं विद्याजगत् वधु रङ्क बन्यु छे, ए निःसन्देह छे. 'डॉ. नगीनभाईनी दार्शनिक प्रतिभा अने दार्शनिक चिन्तन हमेशां मौलिक रह्यं छे. तेमणे आलेखेला दर्शनशास्त्रीय ग्रन्थो ‘साङ्ख्य-योग दर्शन' 'न्याय-वैशेषिक दर्शन' विविध विश्वविद्यालयोमा पाठ्यग्रन्थ रह्या छे. तेमणे अनेक मौलिक चिन्तनात्मक दार्शनिक ग्रन्थो, अनुवादग्रन्थो तथा शोधप्रधान चिन्तनलेखो आप्या छे. तेओ एल.डी.इन्डोलोजीना कार्यकारी अध्यक्ष तरीके, प्राकृत टेक्स्ट सोसायटीना प्रमुख तरीके सेवा आपी चुक्या छे. तेमना मार्गदर्शन हेठळ अनेक देशी-विदेशी विद्यार्थीओए Ph.D. करेल छे. गुजरातने तथा भारतने आवा बहुश्रुत दर्शनविद जलदी मळे तेम नथी, तेथी तेमनी खोट चिरकालपर्यन्त सालशे. तेमना आत्माने 'अनुसन्धान'नी हार्दिक अंजलि हो ! For Personal & Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OSCO / ('रामकुंवरबाईनी पच्चक्खाणवही' नामे आ अङ्कमा प्रकाशित कृतिनी हाथपोथीमां आलेखायेल चित्रो) elibrary.org For Personal & Private Use Only EENER