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________________ जान्युआरी - २०१४ १५१ ग्रन्थ में भी लगभग चौथी-पांचवी शती में विकसित गुणस्थानसिद्धान्त का उल्लेख नहीं होना भी यही सिद्ध करता है कि उपाङ्ग साहित्य ईसा की प्रथमद्वितीय शताब्दी से पूर्व की रचना है । अङ्गबाह्य ग्रन्थों के रचियता पूर्वधर आचार्य माने जाते हैं । पूर्वधरों का अन्तिम काल भी ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी से परवर्ती नहीं है, अतः इस दृष्टि से भी उपाङ्ग साहित्य को ईसा की प्रथम-द्वितीय शताब्दी से पूर्व की रचना मानना होगा। उपाङ्ग साहित्य की विषय-वस्तु : . ___ उपाङ्ग साहित्य में प्रज्ञापना तथा जीवाजीवाभिगम और चन्द्रप्रज्ञप्ति तथा सूर्यप्रज्ञप्ति के अतिरिक्त शेष सभी ग्रन्थ कथापरक ही हैं । जहाँ जीवाजीवाभिगम और प्रज्ञापना की विषयवस्तु दार्शनिक है, वहीं चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति का सम्बन्ध ज्योतिष से है । जम्बूद्वीप का कुछ अंश भूगोल तथा कालचक्र से सम्बन्धित है, वहाँ शेष अंश कथापरक ही है। औपपातिक सूत्र में चम्पानगरी के विस्तृत विवेचन से साथ-साथ विभिन्न प्रकार के श्रमकों, तापसों एवं परिव्राजकों के उल्लेख मिलते है । इन संन्यासियों में गङ्गातट निवासी वानप्रस्थ तापसों, विभिन्न प्रकार के आजीवक शाक्य आदि श्रमणों, ब्राह्मण परिव्राजकों, क्षत्रिय परिव्राजकों आदि के उल्लेख हैं । इस प्रकार से औपपातिकसूत्र भगवान महावीर के समकालीन श्रमणों, तापसों और परिव्राजकों तथा उनकी तपविधि का विस्तार से उल्लेख करता है । इसमें मुख्य कथा अम्बड परिव्राजक की है। इस कथा में यह बताया गया है कि अम्बड नामक परिव्राजक अन्तिम समय में संलेखना पूर्वक समाधिमरण को प्राप्त कर ब्रह्मलोक नामक कल्प में उत्पन्न होगा और वहाँ से च्युत होकर महाविदेह क्षेत्र में दृढ़प्रतिज्ञ के रूप में उत्पन्न होगा और वहाँ से मोक्ष को प्राप्त करेगा । ज्ञातव्य है कि औपपातिकसूत्र और राजप्रश्नीयसूत्र दोनों में ही 'दृढप्रतिज्ञ' के जीवन का जो विवरण उपलब्ध होता है, वह लगभग शब्दशः समान है, अन्तर मात्र यह है कि जहाँ औपपातिकसूत्र में अम्बड परिव्राजक का दृढ़प्रतिज्ञ के रूप में महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होना लिखा है, वहाँ राजप्रश्नीयसूत्र में राजा प्रसेनजित् (पएसी) का सूर्याभदेव के भव के पश्चात् महाविदेह क्षेत्र में दृढ़प्रतिज्ञ के रूप में उत्पन्न होकर अन्त में मुनिधर्म स्वीकार कर मोक्ष प्राप्त करने का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520564
Book TitleAnusandhan 2014 03 SrNo 63
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2014
Total Pages198
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size14 MB
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